आज के परिवेश में जब विश्व सिकुड़ कर सपाट होता जा रहा है, विभिन्न क्षेत्र दूसरे क्षेत्रों को अपने अनुभव से लाभान्वित करने को उत्सुक हैं, पुष्ट सिद्धान्तों का प्रयोग निर्बाध रूप से सकल विश्व को ढाँक रहा है, नित नयी ज्ञान संरचनायें उभर कर स्थापित हो रही हैं, विचारों का प्रसार सीमाओं का आधिपत्य नकार चुका है, इस स्थिति में सृजन कठिनतम होता जा रहा है।
जब सुधीजनों के ज्ञान का स्तर बहुत अधिक हो तो सृजन भी बड़ा आहार चाहता है। उसके लिये यह बहुत ही आवश्यक है कि कई विषयों का ज्ञान हो सृजनात्मकता के लिये। इतिहास साक्षी है, जितने भी बड़े सृजनकर्ता हुये हैं, किसी भी क्षेत्र में, उनके ज्ञान का विस्तार हर क्षेत्रों में पाया गया है। सृजन की यह विशालता उसे कठिन बना देती है।
जो साधारण जीवन नहीं जीना चाहते हैं, उन्हें सृजन बड़ा प्रिय होता है। जिन्हें जीवन को समय की तरह बिताना अरुचिकर लगता है, उन्हें सृजन बड़ा प्रिय होता है। जो बनी बनायी राहों से हटकर कोई नया मार्ग ढूढ़ना चाहते हैं, उन्हें सृजन बड़ा प्रिय होता है। ऐसा क्या है उस सृजनशीलता में जो हमारे सर चढ़कर बोलने लगता है और हम सुविधाजनक जीवनशैली छोड़कर उन क्षेत्रों में उतरना चाहते हैं जहाँ अभी तक कोई पहुँच नहीं पाया है।
सृजन हार न मानने का नाम है। वर्तमान को स्थायी न मान अपने पुरुषार्थ के सहारे उस वर्तमान को प्रवाह दे देना सृजन है। किसी कार्य की इति ही उस पर होने वाले सृजन का आरम्भ होती है, गतिशीलता का सारथी बन सृजन कभी विश्व को स्थिर नहीं बैठने देता है
कभी कभी आश्चर्य होने लगता है कि इन सृजनशील विचारों का स्रोत क्या है? जिस स्तर पर हम जीवन जीते हैं, सृजन उसके कहीं ऊपर के स्तरों पर निर्माणाधीन रहता है। आपको कभी कभी विश्वास ही नहीं होता है कि यह विचार आपके मन से उत्पन्न हुआ है। यह सोच कर बैठें कि आज सृजन करना है तो रात निराशा भरी होती है। बस अपने ज्ञानकोषों को ढीला और खुला छोड़ ध्यान की अवस्था में बैठ जायें, न जाने कौन देवदूत अपना कोष उसमें लुटा जायेगा।
सृजन निश्चय ही आपके परिवेश को या कहें तो सकल विश्व को एक नवीनता प्रदान करता है। परिवर्तन मानव मन को सुहाता है, सृजन उस परिवर्तन का कारक बनता है। सृजन हमारी मानसिक क्षुधा का नेवाला है, यदि सृजन नहीं रहेगा तो सब नीरस हो जायेगा। सृजन हमारी सुख उपासना को और भी रुचिकर बना देता है।
विश्व के कठिनतम मार्ग में प्रशस्त सृजन के समस्त अग्रदूतों को मेरा नमन।
सच कहा आपने.....सृजन हार न मानने का नाम है। सृजनशीलता की सोच कुछ नए मार्ग खोजने का उत्साह और विश्वास जगाती है..... सृजन का यह क्रम यूँ ही चलता रहे ......
ReplyDeleteसृजन हार नहीं मानने का नाम है ...सृजन की विशालता उसे कठिन बना देती है ...
ReplyDeleteसत्य ही !
बिना कोर-कांटे का तटस्थ विश्लेषण.
ReplyDeleteचाक-चौबंद रह कर अभ्यास किए मार्ग पर, निर्धारित लक्ष्य की ओर बढ़ा जा सकता है.
सृजन का बीज तो अनायास ही प्रस्फुटित होता है.
सृजन की समस्त विशेषताओं को समेट लिया है आपने अपने लेख में..! साधुवाद
ReplyDeleteसचमुच सृजन बिना जीवन में नीरसता आ जायेगी. एक सुन्दर चिंतन प्रवीण जी.
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
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सृजन एक अतृप्त तृषा है जो कल्पना और यथार्थ के धरातल से सतत उर्जा प्राप्त करती ही रहती है.इसकी दिशा भी सदा नव-निर्माण- उन्मुख होती है.सृजन ब्रह्मस्वरूप प्रक्रिया है जो नूतनता को जन्म देती है.
ReplyDeleteएक त्वरित सुझाव (कहीं भूल न जाऊं! )
ReplyDeleteआपकी यह निबंध शैली मन मोहती है....आनन्दित करती है -इनका एक गैर आभासीय संकलन बेहद जरुरी है -
दूसरे ,आपने सही कहा सृजन की प्रेरणा अक्सर दैवीय ही होती है ..मनुष्य तो निमित्त बन जाता है ..मगर जो निमित्त बनता है वह भी चयनित होता है उसी दैवीयता द्वारा ....नवाचार की भी सूझ अक्सर कौंधती सी है ....
कभी कभी शायर भी खीजता है तो कह पड़ता है -
गजल के शेर कहाँ रोज रोज होते हैं !
...और नवीनता की आकंठ चाह ही तो नव -सृजन का आधार बनती है ..
जब तक सृजन है तब तक जीवन है ! कमाल का लिखते हैं प्रवीण भाई ! शुभकामनायें आपको !
ReplyDeleteसृजनशीलता की सोच कुछ नए मार्ग खोजने का उत्साह और विश्वास जगाती है ||
ReplyDeleteसृजनशीलता मानवता के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है . सुँदर आलेख के लिए आभार .
ReplyDeleteसृजन है तो हम है
ReplyDeleteआभार
सृजन हमारी मानसिक क्षुधा का नेवाला है, यदि सृजन नहीं रहेगा तो सब नीरस हो जायेगा। सृजन हमारी सुख उपासना को और भी रुचिकर बना देता है।
ReplyDeleteअच्छा चिंतन मंथन ...
बहुत ही प्रेरणादायी लेख सच कहा अपने समग्रता और एकाग्रता, एवं कभी न हार मानने से ही सृजनशीलता का उद्भव होता है ...
ReplyDeleteएक सुन्दर लेख और स्वस्थ चिंतन, मात्र एक बात पर थोडा असहमत हूँ.
ReplyDelete"जब सुधीजनों के ज्ञान का स्तर बहुत अधिक हो तो सृजन भी बड़ा आहार चाहता है।"
ज्ञान का स्तर बहुत अधिक हो तो सृजन भी बड़ा आहार चाहता है।... bilkul sach
ReplyDelete"यह सोच कर बैठें कि आज सृजन करना है तो रात निराशा भरी होती है। बस अपने ज्ञानकोषों को ढीला और खुला छोड़ ध्यान की अवस्था में बैठ जायें, न जाने कौन देवदूत अपना कोष उसमें लुटा जायेगा"
ReplyDeleteवाह...कितनी बढ़िया बात कही है आपने...आपको पढना एक ऐसा अनुभव है जिस से गुजरने को बार बार दिल करता है...आपके ब्लॉग से मैं कभी खाली हाथ नहीं लौटा...कुछ न कुछ गाँठ में बाँधने को हमेशा मिला है...एक सृजन शील व्यक्ति ही इसतरह की पोस्ट लिख सकता है.
नीरज
सच है सृजन के बाद ही पूरकता का अनुभव होता है।
ReplyDeleteसृजनशीलता पर बिल्कुल सही एवं सार्थक प्रस्तुति ।
ReplyDeletebahut dino baad aaj aapke post padhne, utna he accha lga jitna pehle lgta tha :)
ReplyDeletebahut khoob
एकाग्रता और समग्रता दोनों अभ्यास के साथ सृजन के मार्ग प्रशस्त करती है
ReplyDeleteसृजन बिना जीवन अधूरा है।
ReplyDeleteबहुत अच्छा, सारंर्भित लेख...सचमुच, सृजन मन को समृद्ध करता है.
ReplyDeleteसही है..आप ऐसे विषय को लेते हैं और उस पर तार्किक बातें रखते हैं। बहुत सुंदर
ReplyDeleteसृजन क्षमता ...बहुत महत्त्व पूर्ण होती है
ReplyDeleteसच कहा आपने.....सृजन हार न मानने का नाम है। सुन्दर चिन्तन्।
ReplyDeleteआज सृजन के राह में सबसे बरी बाधा है हर सृजन का उद्देश्य मानवता के विकाश के मूलभूत आधार सत्य,न्याय,ईमानदारी व नैतिकता के प्रसार-प्रचार से भटककर सिर्फ पैसों व व्यवसायिक सफलता पर केन्द्रित हो जाना....आज असल सृजनकर्ता को बेबकूफ व निकम्मा समझा जाता है जबकि मुकेश अम्बानी जैसे धनपशुओं व शरद पवार जैसे कुकर्म के नए नए सृजनकर्ता आज देश की सत्ता को बना या बीगार कर भारत भाग्य विधाता बने हुए हैं...ऐसे में अब सृजन करने का या सोचने का मन ही नहीं करता....अब तो सिर्फ एक ही सृजनकर्ता सफल माना जाता है जो लोभ,लालच व पैसों की हवस के लिए किसी भी तरह पैसों का सृजन कर लेता है...? आज हर परिवर्तन पैसों की भूख पे आकर केन्द्रित हो गयी है....इंसानियत व मानवता के विकाश आधारित परिवर्तन अब मुश्किल है....
ReplyDeleteबढ़िया चिंतन....
ReplyDeleteसर बहुत सुन्दर ..सृजन कल्याणकारी होनी चाहिए ! बम का गोला भी एक इसी सृजन का नमूना है !
ReplyDeleteसृजनशीलता ही जीवन है..आपकी लेखन शैली कमाल की है.
ReplyDeletesach me...........:)
ReplyDeleteaapke post normally gyan ki khaan hoti hai..!
प्रवीण भाई एक बार फिर पते की बात चिपका गये ब्लॉग पर| सही है, उत्तरों से डरेंगे तो आगे कैसे बढ़ेंगे|
ReplyDeleteबस एक बार कागज पेन ले कर बैठना होता है दृढ़ निश्चय के साथ, बाकी काम तो माँ शारदे खुद करती हैं| छन्द की ए-बी-सी-डी तक न जानने वाले कवि-कवियत्रियों के प्रयासों को देख कर यह विश्वास और भी प्रबल हुआ है|
ReplyDeleteसृजन के बारे में मैं यही कह सकता हूँ कि इतिहास को छोड़ दिया जाये तो मुख्यतः सृजन कल्पना या अनुभव के आधार पर मूर्त रूप लेता है.कल्पना और अनुभव द्वारा किये गए सृजन का अपना-अपना महत्त्व है.कई बार हम किसी विषय पर कुछ कहना चाहते हैं लेकिन उसके सारे सिरे नहीं मिलते,जबकि कई बार हम तुरत ही सविस्तार अपने को उड़ेल देते हैं.अनुभव को सृजित करना इस नाते आसान है जबकि कल्पना में अतितिक्त रचनात्मकता की दरकार होती है !
ReplyDeleteसृजन की इस रोचक राह पर चार कदम साथ चलवाने के आभार सहित...
ReplyDeleteसृजनशीलता मानवता के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है| धन्यवाद|
ReplyDeleteसृजन के भाव मनुष्य के मन में निरंतर उठते रहते हैं, जिसे वह विभिन्न माध्यमो से मूर्त रूप देता है, कलम, कुंची,छेनी हथौड़ा या अन्य.
ReplyDeleteप्रत्येक काल परिस्थितियों में सृजन जारी रहता है.
आभार प्रवीण भाई.
आप बडा सृजन कर लीजिए हम तो छोटे में ही बेहाल हैं :)
ReplyDeleteकितनी सुंदर भाषा मे आपने बात कही है मन प्रसन्न हो गया सृजन अपने आप मन मे पल्लवित हो जाता है उसे विस्तार करने के लिये दिमाग अवश्य लगाया जाता है किंतु उतपन्न अपने ही आप होता है
ReplyDeleteयह सृष्टि सृजन का अनवरत क्रम है और मानव इसकी सर्वाधिक कुशल रचना.प्रकृति में सृजनका क्रम थमा कि जड़ता आई और मनुष्य में भी.
ReplyDeleteसृजन हार ना मानने का नाम है. एक दम सत्य.
ReplyDelete@ बहुधा ऐसा होता है कि हम जिन विषयों पर लिखने का विचार करते हैं, उस पर न जाने कितना साहित्य लिखा जा चुका होगा।
ReplyDeleteअब देखिए ना, आज के डेट में आउट ऑफ फ़ैशन हो चुके गांधी जी पर सृजन करने में लगा हूं, जिस पर आज तक हजारों कृतियां लिखी जा चुकी होंगी।
लेकिन आपके शब्दों में “सृजनशीलता हमारे सर चढ़कर बोलने लगा है” कमेंट (प्रोत्साहन) मिले न मिले हमारा “सृजन हार न मानने का नाम है।” क्योंकि हमको लगता है कि “हमको लगता है कि कहीं न कहीं कुछ छूटा हुआ है।” इसलिए मन की बात कहूं तो “सृजन हमारी मानसिक क्षुधा का नेवाला है, यदि सृजन नहीं रहेगा तो सब नीरस हो जायेगा।”
कुल मिला कर यह कहना चाह रहा था कि जिस मनःस्थिति में आज कल सृजन कर रहा था, उसमें दुविधा में था कि आगे बढ़ू या नहीं। अब दुविधा इस आलेख को पढकर दूर हो गई है और जब “कठिनतम मार्ग” मार्ग पर चल ही पड़ा हूं तो मुड़ कर क्या देखना!
***** बहुत अच्छी पोस्ट! फ़ाइव स्टार वाली।
Sach hai...srujansheel wyaktee haar nahee manta...lekin kabhi,kabhi gahan udasi ke karan srujan sheelta dhundali zaroor ho jatee hai.
ReplyDeleteसृजनशील नये अविषाकार भी करता हे, ओर जिन्दगी मे हमेशा आगे ही बढता हे, बहुत सुंदर लेख लिखा आप ने
ReplyDeleteacchhi raah sujhayi srijan ke liye.
ReplyDeletebahut achchi baat likhi hai aapne. dhanyawad. srijan na ho to bas maran hi reh jayega.
ReplyDeleteसृजनशीलता ही जीने का सही मायने है..उत्तम आलेख...
ReplyDeleteबहुत अच्छा लेख है| और सृजन होता ही रहना चाहिए |
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक चिंतन...
ReplyDeleteजितना वॄहद सॄजन,निश्चित रूप से उतना बड़ा सॄजनकार रहा होगा । ऐसे लोगों के मस्तिष्क की भूख
बहुत बड़ी होती है..तभी ऐसे बड़े सॄजन हो पाते हैं ।
srijan ki khubsoorti ko bayan karta behad khubsoorat aalekh...anant shubhkamnayen..
ReplyDeleteजो साधारण जीवन नहीं जीना चाहते हैं, उन्हें सृजन बड़ा प्रिय होता है। जिन्हें जीवन को समय की तरह बिताना अरुचिकर लगता है, उन्हें सृजन बड़ा प्रिय होता है। जो बनी बनायी राहों से हटकर कोई नया मार्ग ढूढ़ना चाहते हैं, उन्हें सृजन बड़ा प्रिय होता है।
ReplyDeleteबिलकुल ठीक बात लिखी है ....अपना नजरिया रखने वाले व्यक्ति को सृजन बहुत प्रिय होता है ...अपनी सोच को अपने शब्द देने वाले व्यक्ति को सृजन प्रिय होता है ...
सार्थक लेख.
सर्जन का आधार 'सत्यम,शिवम,सुन्दरम' ही
ReplyDeleteहोना चाहिये.क्यूंकि,वास्तविक सर्जनकर्ता तो एक परमात्मा ही है.और सभी तो निमित्तमात्र हैं.
हृदय में वही विचारों को प्रस्फुटित करता रहता है.
'जो साधारण जीवन नहीं जीना चाहते हैं, उन्हें सृजन बड़ा प्रिय होता है।'
ReplyDeleteया कहिये जो अधिक सृजनात्मक होते हैं उनका जीवन सामान्य [साधारण] कहाँ रह पाता है.
.........
एक अनूठा विषय.
परिवर्तन मानव मन को सुहाता है, सृजन उस परिवर्तन का कारक बनता है। सृजन हमारी मानसिक क्षुधा का नेवाला है, यदि सृजन नहीं रहेगा तो सब नीरस हो जायेगा। सृजन हमारी सुख उपासना को और भी रुचिकर बना देता है।
ReplyDeleteऔर सृजन का आनन्द आपको विभोर कर देता है ।
हमेसा की तरह एक सुलझा हुआ आलेख ।
सहमत हूँ. सृजन जीवन को सार्थक बनता है.
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