18.6.11

स्वप्न मेरे

स्वप्न देखने में कोई प्रतिबन्ध नहीं है। वास्तविकता कितना ही द्रवित कर दे, सुधार के उपाय मृगतृष्णावत कितना भी छकाते रहें, पाँच वर्ष पहले किये गये वादों की ठसक भले ही कितनी पोपली हो गयी हो, किलो भर के समाचारपत्र कितना ही अपराधपूरित हो जायें, भविष्य के चमकीले स्वप्न देखने का अधिकार हमसे कोई नहीं छीन सकता है, देखते रहे हैं और देखते रहेंगे। कोई कह सकता है कि संविधान के अनुच्छेद 14 में सबको समानता का अधिकार है और जब कोई भी स्वप्न देखने योग्य बचा ही नहीं तब आप क्यों अपनी नींद में व्यवधान डाल रहे हैं? संविधान का विधान सर माथे, पर क्या करें आँख बन्द होते ही स्वप्न तैरने लगते हैं।

स्वप्न सदा ही बड़े होते हैं, हर अनुपात में। अथाह सम्पदा, पूर्ण सत्ता, राजाओं की भांति, 'यदि होता किन्नर नरेश मैं' कविता जैसा स्वप्न। सामान्य जीवन के सामान्य से विषयों को स्वप्न देखने के लिये चुनना स्वप्नशीलता का अपमान है। राह चलते किसी को प्यार से दो शब्द कह देना स्वप्न का विषय नहीं हो सकता है, पति-पत्नी के प्रेम का स्थायित्व स्वप्न का विषय नहीं हो सकता है, एक सरल या सहज सी जीवनी स्वप्न का विषय नहीं हो सकती है, स्वप्न तो ऐश्वर्य में मदमाये होते हैं, स्वप्न तो प्राप्ति के उद्योग में अकुलाये होते हैं।

मैं अपने स्वप्नों के बारे में सोचता हूँ। पता नहीं, पर मुझे इतने भारी स्वप्न आते ही नहीं हैं? बड़ा प्रयास करता हूँ कि कोई बड़ा सा स्वप्न आये, गहरी साँस भरता हूँ, आकाश की विशालता से एकीकार होता हूँ, पर जब आँख बन्द करता हूँ तो आते हैं वही, हल्के फुल्के से स्वप्न। मेरे स्वप्नों में एक हल्का फुल्का सा प्रफुल्लित बचपन होता है, प्रेमपगा परिवार होता है, कर्मनिरत दिन का उजाला होता है और शान्ति में सकुचायी निश्चिन्त सी रात्रि होती है। इसके बाहर जाने में ऐसा लगता है कि जीवन सीमित सा हो जायेगा।

जटिलताओं का भय मेरे चिन्तन का उत्प्रेरक है, यदि सब सरल व सहज हो जाये तो संभवतः मुझे चिन्तन की आवश्यकता ही न पड़े। प्रक्रियाओं के भारीपन में मुझे न जाने कितने जीवन बलिदान होते से दिखते हैं। व्यवस्था जब सरलता में गरलता घोलने लगती है, मन उखड़ सा जाता है। कभी क्रमों और उपक्रमों से सजी व्यवस्था देखकर हाँफने लगता हूँ, कभी मन ही मन गुनगुनाने लगता हूँ, 'आह भरकर गालियाँ दो, पेट भरकर बददुआ'। उन जटिलताओं का ऑक्टोपस कहीं जकड़ न ले, इसी भय से तुरन्त ही सोचना प्रारम्भ कर देता हूँ। यदि लगता है कि कुछ योगदान कर सकता हूँ तो उस पर और चिन्तन कर लेता हूँ। यही मेरे स्वप्नों की विषयवस्तु हो गयी है, बस प्रक्रियायें सरल हों, राजनीति जन-उत्थान को प्राथमिकता दे, लोक-व्यवहार बिना लाग लपेट के सीधा सा हो, सर्वे भवन्तु सुखिनः वाले स्वप्न।

आप सब भी संभवतः यही चाहते होंगे कि हर जगह पारदर्शिता हो, कहीं शोषण न हो, व्यवस्थायें सरल हों, कोई किसी कार्य को करवाने के लिये पैसा न मांगे। बहुत देशों में जीवन का स्तर इन्हीं छोटी छोटी चीजों से ऊँचा होता गया। हम दुनिया भर की बुद्धि लिये बैठे हैं पर छोटी छोटी चीजों को न अपनाने से विकास-कक्ष के बाहर बैठे अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। चाह हम सबकी भी उसी राह की है जो समतल हो। किसी ने कभी उस पर स्वार्थ की कीलें बिखेरी होंगी, एक कील हमें चुभती है और हम क्रोध में आने वालों के लिये कीलें बिखरेना प्रारम्भ कर देते हैं। एक राह जो सुख दे सकती थी, दुखभरी हो जाती है। 

मेरे गहनतम स्वप्नों में मुझे कोई झुका सा दिखता है, उन्हीं समतल राहों में, पास जाकर देखता हूँ चेहरा स्पष्ट नहीं दिखता है, पर उसके हाथ में एक थैला है जिसमें वह राह में पड़ी कीलें समेट रहा है, मैं साथ देने को आगे बढ़ता हूँ, वह कहता है बेटा संभल के, चुभ जायेंगी।

मेरा स्वप्न टूट जाता है।

62 comments:

  1. वह राह में पड़ी कीलें समेट रहा है, मैं साथ देने को आगे बढ़ता हूँ, वह कहता है बेटा संभल के, चुभ जायेंगी।'

    कौन कहता है आप बड़े स्वप्न नहीं देखते. इससे बड़ा और सार्थक स्वप्न भला और कौन सा हो सकता है.

    ReplyDelete
  2. संकल्‍प की दिशा में बढ़ते हुए, स्‍वप्‍न में मार कन्‍याएं आती ही हैं.

    ReplyDelete
  3. मेरे स्वप्नों में एक हल्का फुल्का सा प्रफुल्लित बचपन होता है, प्रेमपगा परिवार होता है, कर्मनिरत दिन का उजाला होता है.......

    उसके हाथ में एक थैला है जिसमें वह राह में पड़ी कीलें समेट रहा है, मैं साथ देने को आगे बढ़ता हूँ, वह कहता है बेटा संभल के, चुभ जायेंगी....

    यही स्वप्न जीवन को अर्थ देते हैं...... जो आपकी सार्थक सोच का ही प्रतिबिम्ब हैं......

    ReplyDelete
  4. जो स्वप्न आप देखते हैं वह महत्तम है. यदि आप उस कीलें बटोरनेवाले को तलाश नहीं पायें तो क्या यह संभव नहीं कि आपकी खोज गलत दिशा हें है?
    वह व्यक्ति आप ही हैं. अन्य किसी से यह अपेक्षा ही क्यों?
    आपकी भांति ही मैं भी बहुत स्वप्न देखता हूँ यद्यपि मेरे स्वप्न अटपटे होते हैं और उनमें बीते दिनों की स्मृतियाँ झलकती हैं.
    सपने देखना ही ज़रूरी है. यदि सपने देखनेवाले हर व्यक्ति अपने सपने सच कर सकते तो यह दुनिया कहाँ की कहाँ होती! लेकिन सभी को सब कुछ हासिल करने या होने की ज़रुरत भी नहीं है. एक व्यक्ति का शुभ स्वप्न यदि फलीभूत होगा तो वह सकल जग को उन्नति के मार्ग पर ले जाएगा.

    ReplyDelete
  5. अथातो स्वप्न जिज्ञासा -सभी के सपने साकार हों ,वे टूटें नहीं यही सर्वतोभद्र कामना है यह आलेख पढ़कर !
    आप खूब सपने देखिये !

    ReplyDelete
  6. मेरे गहनतम स्वप्नों में मुझे कोई झुका सा दिखता है, उन्हीं समतल राहों में, पास जाकर देखता हूँ चेहरा स्पष्ट नहीं दिखता है, पर उसके हाथ में एक थैला है जिसमें वह राह में पड़ी कीलें समेट रहा है, मैं साथ देने को आगे बढ़ता हूँ, वह कहता है बेटा संभल के, चुभ जायेंगी।

    मेरा स्वप्न टूट जाता है।

    प्रवीण जी बहुत गहन और सुंदर आलेख है आज का |अंतिम पंक्ति मन उदास कर गयी| परन्तु दिव्य स्वप्न था तो टूटना ही था ..इतनी दिव्यता कहाँ है ...हमारे आस-पास अब ....? फिर भी मैं कहूँगी दिव्यता का स्वप्न देखना न छोड़ें .....हो सकता है एक दिन सच हो जाये |प्रभु किसी न किसी रूप में तो हैं ही हमारे आस-पास...!

    ReplyDelete
  7. वर्तमान में कीले बटोरने वाले के हाथ काट दिए जाते हैं। लेकिन यह सत्‍य है कि स्‍वप्‍न होंगे तो कभी ना कभी सत्‍य भी बनेंगे।

    ReplyDelete
  8. ओह!!बेटा संभल के....

    ReplyDelete
  9. 'वह कहता है बेटा संभल के, चुभ जायेंगी।'...
    कितनी सादगी से कही गयी पंक्ति पर कहीं गहरे असर करती है.

    ReplyDelete
  10. स्वपन और चिन्तन ---- बहुत गहरा सम्बन्ध है इनमे जब भी मुझे सपना आता है तो दिन भर उसके बारे मे सोचती हूँ बहुत कुछ मिलता है उन्हें खोजने से । मुझे भी उस कील बटोरने वाले उन्सान की तलाश है मगर आज कल तो संतों के थैले से भी सोना चाँदी हीरे जवाहरात और धन मिलता है। अच्छी पोस्ट शुभकामनायें।

    ReplyDelete
  11. मेरा सुंदर सपना बीत गया,
    मैं इंसानियत में सब कुछ हार गया,
    बेदर्द ज़माना जीत गया,
    मेरा सुंदर सपना बीत गया...

    जय हिंद...

    ReplyDelete
  12. main bhi sapne dekhti hun aur ye sapne kitna kuch dikha jate hain

    ReplyDelete
  13. काश! आपके सपनों जैसे सपने सबको आयें !

    बचपन में सपने ज़्यादा देखता था ,कभी अच्छे,कभी बुरे !इसका भी कोई कारण होगा कि अब बंद क्यों हो गये ? पहले क्रियाशीलता भी ज़्यादा थी,कल्पनाएँ भी खूब थीं,अब न जाने सब-कुछ कहाँ(सपनों में?)खो गया ?

    ReplyDelete
  14. ईशा वास्यमिदँ सर्वं।

    ReplyDelete
  15. अच्छा विचारपूर्ण लेख....

    ReplyDelete
  16. स्वप्नदर्शी होना मानव को आगे बढ़ते जाने और क्रियाशील रहने को प्रेरित करता है . देखते रहिये सपने , भला तो समाज का ही होगा .

    ReplyDelete
  17. "...पर क्या करें आँख बन्द होते ही स्वप्न तैरने लगते हैं..."

    पर क्या करें, हमें तो दिवास्वप्न दिखते हैं. आंखें बंद करने की भी जरूरत नहीं होती :)

    ReplyDelete
  18. Anonymous18/6/11 11:35

    बड़ा गहरा सपना आता है आपको सर !



    शिल्पा

    ReplyDelete
  19. स्वप्न अर्थ पूर्ण हो तो साकार होने में अधिक बिलंबन नहीं होता इसी को दिवास्वप्न भी कहते है

    ReplyDelete
  20. वह राह में पड़ी कीलें समेट रहा है, मैं साथ देने को आगे बढ़ता हूँ, वह कहता है बेटा संभल के, चुभ जायेंगी।'

    दिल को छूते इन शब्‍दों के एहसास .. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति हमेशा की तरह ।

    ReplyDelete
  21. अच्छे बच्चों को सपनों में भी, अपनी हिफाजत
    करने वाले मिल जाते हैं!
    शुभकामनाएँ!

    ReplyDelete
  22. बहुत गहन विवेचन्।

    ReplyDelete
  23. स्‍वप्‍न होंगे तो कभी ना कभी सत्‍य भी बनेंगे।

    ReplyDelete
  24. बचपन में आते रहने वाले स्वप्न या तो अब आते नहीं या फिर याद रहते नहीं ।
    जाने कहाँ गये वो दिन...
    किन्तु आप स्वप्न देखते रहिये और राह में बिखरी कीलें बटोरने वालों को स्वप्न में ही सही अपना अमूल्य सहयोग देते रहें ।
    शुभकामनाएँ...

    ReplyDelete
  25. एक बेहतरीन संकल्पित स्वपन .....

    ReplyDelete
  26. बहुत सुंदर..बिल्कुल अलग अंदाज

    ReplyDelete
  27. सपनों को साकार करना है तो कील तो चुभेंगे ही। फूल की चाहत है तो शूल भी सहेजना होगा॥

    ReplyDelete
  28. किसी ने कभी उस पर स्वार्थ की कीलें बिखेरी होंगी, एक कील हमें चुभती है और हम क्रोध में आने वालों के लिये कीलें बिखरेना प्रारम्भ कर देते हैं। एक राह जो सुख दे सकती थी, दुखभरी हो जाती है।

    ये बहुत बडी बात है, प्रवीण जी जिसे आपने सरल शब्दों में आसानी से समझा दिया है। वाकई चीजें कितनी भी खराब क्यों न हों , उम्मीदों के लिए स्थान खत्म नहीं होता

    ReplyDelete
  29. "प्रक्रियाओं के भारीपन में मुझे न जाने कितने जीवन बलिदान होते से दिखते हैं। व्यवस्था जब सरलता में गरलता घोलने लगती है, मन उखड़ सा जाता है। कभी क्रमों और उपक्रमों से सजी व्यवस्था देखकर हाँफने लगता हूँ"--
    --इशारे कई किये हैं, प्रवीन भाई. कभी विस्तार से चर्चा कीजियेगा. कही पढ़ा था, स्वप्न अनजिया पहलू हैं जीवन का.

    ReplyDelete
  30. स्वार्थ की कीलें सपनों से बाहर निकल कर हर रास्तों पर बिखर गयी है..

    ReplyDelete
  31. फिलहाल तो प्रेजेंट लगा लीजिये... आपकी पोस्ट पर मैं बिना ध्यान से पढ़े कमेन्ट नहीं करता... चूंकि आ गया था.. तो यह बताना भी ज़रूरी था... मैं फिर आऊंगा... इत्मीनान से पढ़ कर...

    ReplyDelete
  32. bahut badhiya vivran diya hai aapne.

    ReplyDelete
  33. यही मेरे स्वप्नों की विषयवस्तु हो गयी है, बस प्रक्रियायें सरल हों, राजनीति जन-उत्थान को प्राथमिकता दे, लोक-व्यवहार बिना लाग लपेट के सीधा सा हो, सर्वे भवन्तु सुखिनः वाले स्वप्न।

    ऐसे ही दिवा स्वप्न मै देखती हूँ पर य़े शायद मेरी उम्र का असर हो अब स्वप्न नही आते या आते भी हों तो याद नही रहते । राह में बिखरी कीलों में से एक भी हम कम कर सकें तो दिन सार्थक हो । आपके सपनों की पूर्ती के लिये शुभ कामनाय़ें ।

    ReplyDelete
  34. स्वप्न में न सही , जागती आँखों से दिखती कीलें चुन लीजिये , साथियों और मित्रों के राहों में पड़ी हुयी।

    ReplyDelete
  35. जागती आंखें ही इन स्‍वप्‍नों को बुन लेती हैं शायद
    ...काफी कुछ वही दिखता है जो हम देखना चाहते हैं

    हंसी के फव्‍वारे में- हाय ये इम्‍तहान

    ReplyDelete
  36. प्रवीणजी आपके लेखों में बहुत गहरे है..मन की छटपटाहट को बयां करने वाला सुन्दर आलेख...वधाई

    ReplyDelete
  37. लोक-व्यवहार बिना लाग लपेट के सीधा सा हो, सर्वे भवन्तु सुखिनः वाले स्वप्न।...सर स्वपन सकारात्मक चाहिए ...अन्यथ कुरीतियों के प्रेरक हो जाते है !

    ReplyDelete
  38. स्वप्न देखे नहीं जायेंगे तो पूरे कैसे होंगे.देखते रहिये स्वप्न.
    दुष्यंत जी की कविता याद आ गई.
    जा तेरे स्वप्न बड़े हों .....

    ReplyDelete
  39. बहुत ही विचारपूर्ण आलेख...

    आभार- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

    ReplyDelete
  40. ... हल्के फुल्के से स्वप्न। मेरे स्वप्नों में एक हल्का फुल्का सा प्रफुल्लित बचपन होता है, प्रेमपगा परिवार होता है, कर्मनिरत दिन का उजाला होता है और शान्ति में सकुचायी निश्चिन्त सी रात्रि होती है....

    ऐसे सपने देखने वालों के कारण ही भारतवर्ष जिन्दा हैऔर वो जो कीलें चुन रहा था वो कौन था ....माँ या संस्कार जो सपनों में भी अच्छा कार्य कर रहा था

    ReplyDelete
  41. मैं भी बहुत सपने देखती हूँ ...कई बार समस्याओं के हल भी देते हैं यही सपने ...

    ReplyDelete
  42. संविधान के अनुच्छेद 14 तथा किन्नर नरेश जैसे तमाम विषयों के सहारे बुनी गयी सुंदर स्वप्न मीमांशा

    ReplyDelete
  43. Anonymous19/6/11 11:26

    प्रवीणजी...
    स्वप्न वाही सार्थक हैं जो मूर्त रूप में सार्थक हों..
    वर्ना न जाने कितने स्वप्न आते हैं,जाते हैं....!
    इतने सुन्दर सार्थक स्वप्न के लिए बधाई...

    ***punam***
    bas yun...hi..

    ReplyDelete
  44. स्वप्न से हर इंसान का नाता है ...कभी कभी ऐसे स्वप्न भी आते हैं जिनके बारे में सोचा भी नहीं होता ...

    अंतिम पंक्तियाँ स्वप्न में भी दिशा दे रही हैं ... सुन्दर प्रस्तुति

    ReplyDelete
  45. बहुत गहन अभिव्यक्ति
    इस दुनिया में कुछ गिनी चुनी चीजें ही जिसे आपसे से कोई छीन नहीं सकता "यादें" और आपके "सपने देखने का अधिकार"

    ReplyDelete
  46. कई बार तो सोचता हूं कि यदि स्वप्न न होते तो कितना मुश्किल होता भड़ास निकालना :)

    ReplyDelete
  47. स्वप्न स्वप्न स्वप्न ... स्वप्न मेरे कुछ भूले भटके ... काग़ज़ को तरसे हैं बरसों ....

    ReplyDelete
  48. सार्थक स्वप्न .....

    --सपने सपने कब हुए अपने,
    आँख खुली तो टूट गए ||

    ReplyDelete
  49. पहले सपने देखेंगे फिर उन्हें साकार करेंगे |

    ReplyDelete
  50. aaj ..hakikat ki rahen b swapnil ho gai hain....

    ReplyDelete
  51. जटिलताओं का भय मेरे चिन्तन का उत्प्रेरक है..
    बात बहुत बढ़िया कही है मगर कवन सा स्वप्न देख रहें है ....जरा प्रकाश डाले

    ReplyDelete
  52. काश ! हर कोई ऐसा ही सपना देखे ,दूसरों की राह से कांटे और कील चुनने का ।

    इससे बड़ा स्वप्न क्या होगा ।

    ReplyDelete
  53. काश ! हर कोई ऐसा ही सपना देखे ,दूसरों की राह से कांटे और कील चुनने का ।

    इससे बड़ा स्वप्न क्या होगा ।

    ReplyDelete
  54. प्रक्रियायें सरल हों, राजनीति जन-उत्थान को प्राथमिकता दे, लोक-व्यवहार बिना लाग लपेट के सीधा सा हो, सर्वे भवन्तु सुखिनः वाले स्वप्न।
    यह स्वपन तो सदियों पहले देखे गए थे लेकिन आज तक साकार नहीं हो सके।
    इन सपनों को टूटने मत देना. जोड़ते जाइए, बहुत सारी आँखों में ऐसे ही सपने हैं.

    ReplyDelete
  55. praveen ji
    vastav me aapki soch badi hi sarthak aur gahnata liye hoti hai.
    aapke lekh ki antim panktiyon ne bahut bahut hi prabhavit kiya hai.
    bahut hi achhi prastuti
    badhai
    poonam

    ReplyDelete
  56. praveen ji ,..

    thoughtful expression.

    bahut kuch kahna chahta hoon is vishay par. phir kahunga .. abhi to itna hi ki ek bahut hi acche vishay par aapne likha hai !!

    dhanywaad
    vijay

    ReplyDelete
  57. वाह ! पढ़ लिया अब चलें सपने देखने |

    ReplyDelete
  58. क्या सपने आते हैं मुझे, उसपर क्या सोचता हूँ....अपने बारे में फ़िलहाल कुछ नहीं बताने वाला मैं :)

    ReplyDelete
  59. 'वह कहता है बेटा संभल के, चुभ जायेंगी।'...

    सपनो से ही जीवन की महत्ता बढती है आप की यह पोस्ट बहुत प्रबल है.

    aapke blog ko padh kar bahut accha laga

    ReplyDelete