भाग्य अच्छा रहा जीवन भर कि कभी भारी बस्ता नहीं उठाना पड़ा। इसी देश में ही पढ़े हैं और पूरे 18 वर्ष पढ़े हैं। कक्षा 5 तक स्थानीय विद्यालय में पढ़े, जहाँ उत्तीर्ण होने के लिये उपस्थिति ही अपने आप में पर्याप्त थी, कुछ अधिक ज्ञान बटोर लेना शिक्षा व्यवस्था पर किये गये महत उपकार की श्रेणी में आ जाता था। न कभी भी बोझ डाला गया, न कभी भी सारी पुस्तकें बस्ते में भरकर ले जाने का उत्साह ही रहा। हर विषय की एक पुस्तक, एक कॉपी, उसी में कक्षाकार्य, उसी में गृहकार्य। कक्षा 6 से 12 तक छात्रावास में रहकर पढ़े, ऊपर छात्रावास और नीचे विद्यालय। मध्यान्तर तक की चार पुस्तकें हाथ में ही पकड़कर पहुँच जाते थे, यदि किसी पुस्तक की आवश्यकता पड़ती भी थी तो एक मिनट के अन्दर ही दौड़कर ले आते थे। छात्रावासियों के इस भाग्य पर अन्य ईर्ष्या करते थे। आईआईटी में भी जेब में एक ही कागज रहता था, नोट्स उतारने के लिये जो वापस आकर नत्थी कर दिया जाता था सम्बद्ध विषय की फाइल में। भला हो आई टी का, नौकरी में भी कभी कोई फाइल इत्यादि को लाद कर नहीं चलना पड़ा है, अधिकतम 10-12 पन्नों का ही बोझ उठाया है, निर्देश व निरीक्षण बिन्दु मोबाइल पर ही लिख लेने का अभ्यास हो गया है।
अब कभी कभी अभिभावक के रूप में कक्षाध्यापकों से भेंट करने जाता हूँ तो लौटते समय प्रेमवश पुत्र महोदय का बस्ता उठा लेता हूँ। जब जीवन में कभी भी बस्ता उठाने का अभ्यास न किया हो तो बस्ते को उठाकर बाहर तक आने में ही माँसपेशियाँ ढीली पड़ने लगती हैं। हमसे आधे वज़न के पुत्र महोदय जब बोलते हैं कि आप इतनी जल्दी थक गये और आज तो इस बैठक के कारण दो पुस्तकें कम लाये हैं, तब अपने ऊपर क्षोभ होने लगता है कि क्यों हमने जीवन भर अभ्यास नहीं किया, दस किलो का बस्ता उठाते रहने का।
देश के भावी कर्णधारों को कल देश का भी बोझ उठाना है, जिस स्वरूप में देश निखर रहा है बोझ गुरुतम ही होता जायेगा। यदि अभी से अभ्यास नहीं करेंगे तो कैसे सम्हालेंगे? जब तक हर विषय में चार कॉपी और चार पुस्तकें न हो, कैसे लगेगा कि बालक पढ़ाई में जुटा हुआ है, सकल विश्व का ज्ञान अपनी साँसों में भर लेने को आतुर है। जब हम सब अपने मानसिक और भौतिक परिवेश को इतना दूषित और अवशोषित करके जा रहे हैं तो निश्चय ही आने वाली पीढ़ियों को बैल बनकर कार्य करना पड़ेगा, शारीरिक व मानसिक रूप से सुदृढ़ होना पड़ेगा। देश की शिक्षा व्यवस्था प्रारम्भ से ही नौनिहालों को सुदृढ़ बनाने के कार्य में लगी हुयी है। भारी बस्ते निसन्देह आधुनिक विश्व के निर्माण की नींव हैं।
आगे झुका हुआ मानव आदिम युग की याद दिलाता है, सीधे खड़ा मानव विकास का प्रतीक है। आज भी व्यक्ति रह रहकर पुरानी संस्कृतियों में झुकने का प्रयास कर रहा है। पीठ पर धरे भारी बस्ते बच्चों को विकास की राह पर ही सीधा खड़ा रखेंगे, आदिम मानव की तरह झुकने तो कदापि नहीं देंगे। रीढ़ की हड़्डी के प्राकृतिक झुकाव को हर संभव रोकने का प्रयास करेगा भारी बस्ता।
कहते हैं कि बड़े बड़े एथलीट जब किसी दौड़ की तैयारी करते हैं तो अभ्यास के समय अपने शरीर और पैरों पर भार बाँध लेते हैं। कारण यह कि जब सचमुच की प्रतियोगिता हो तो उन्हें शरीर हल्का प्रतीत हो। इसी प्रकार 17-18 वर्षों के भार-अभ्यास के बाद जब विद्यार्थी समाज में आयेंगे तो उन्हें भी उड़ने जैसा अनुभव होगा। इस प्रतियोगी और गलाकाट सामाजिक परिवेश में इससे सुदृढ़ तैयारी और क्या होगी भला?
हम सब रेलवे स्टेशन जाते हैं, कुली न मिलने पर हमारी साँस फूलने लगती है, कुली मिलने पर जेब की धौंकनी चलने लगती है। यदि अभी से बच्चों का दस किलो का भार उठाने का अभ्यास रहेगा तो भविष्य में बीस किलो के सूटकेस उठाने में कोई कठिनाई नहीं आयेगी। गाँधी और विनोबा के देश में स्वाबलम्बन का पाठ पढ़ाता है दस किलो का बस्ता। मेरा सुझाव है कि कुछ विषय और पुस्तकें और बढ़ा देना चाहिये। पढ़ाई हो न हो, अधिक याद रहे न रहे पर किसी न किसी दिन माँ सरस्वती को छात्रों पर दया आयेगी, इतना विद्या ढोना व्यर्थ न जायेगा तब।
आज बचपन की एक कविता याद आ गयी, कवि का नाम याद नहीं रहा। कुछ इस तरह से थी।
आज देखो हो गया बालक कितना सस्ता,
पाँच किलो का खुद है, दस किलो का बस्ता।
बस्ते के बोझ तले दबे बचपन की चिंता किसी को नही.यही कारण है कि अब बच्चों से बचपन गायब होता जा रहा है.चिन्तन्परक, समसामयिक लेख.
ReplyDeleteबच्चों के भारी होते बस्ते निश्चय ही दुखद हैं लेकिन आपने उसके इतने गुण गिनाये हैं कि विशेषज्ञों को भी अपनी राय बदलनी पड़ सकती है.
ReplyDeleteमेरा बेटा उन पुस्तकों को भी रख लेता है जिनकी पढ़ाई उस दिन नहीं होनी,बमुश्किल उन्हें हटवाता हूँ.
सब हमारे 'सिस्टम' का दोष है !
ये बस्ते का बोझ क्लास का विलोमानुपाती होता है...प्राइमरी क्लास का भारी-भरकम बस्ता कॉलेज आने के बाद जींस की पिछली जेब में ठूंसी नोटबुक में तब्दील हो जाता है...
ReplyDeleteजय हिंद...
@ 10 किलो का बस्ता ...!
ReplyDelete*। फिर भी भारत में अशिक्षितों की संख्या अभी भभ् 31.42 करोड़ से अधिक है।
• भारत दुनिया में सबसे अधिक अशिक्षित लोगों वाला देश है।
* लगता है शिक्षा प्रसार के लिए चलाई जा रही (भारी बस्ता) योजनाओं का लाभ आम लोगों तक नहीं पहुंच पाया है।
* 10 किलो का बस्ता ढ़ोने वाले बच्चों में से भारत में 5.7 करोड़ बच्चे कुपोषित हैं।
* 10 किलो बस्ता ढ़ोकर भी देश में प्रतिदिन 7 बरोजगार खुदकुशी करता है ।
ज्ञान की हाथी ...
ReplyDeleteआगे झुका हुआ मानव आदिम युग की याद दिलाता है, सीधे खड़ा मानव विकास का प्रतीक है।
ReplyDeleteसरकार बैग लैस शिक्षा की तैयारी में है इस मुद्दे पर पर कई बार बहस हो चुकी है | शायद तब हम विकास का प्रतीक लगें |
बस्ता रहित विद्यालयों की जरूरत है।
ReplyDeleteपूरी शिक्षा नीति ही गलत है ऊपर से सरकारी स्कूलों की दुर्गति ने इस समस्या को और गंभीर बना दिया | अपनी सरकारी प्राइमरी स्कूल के दिनों को याद करता हूँ तो सोचता हूँ काश वही पढाई का माहौल आज तक सभी सरकारी स्कूलों में होता तो इन निजी स्कूलों को शिक्षा के नाम पर लुटने और बस्तों का बोझ बढाने का मौका ही नहीं मिलता |
ReplyDeleteab baste bhi hatthoo traliyon ki tarah aane lage hain, maa -baap ko dhone me aasani ke liye..
ReplyDeleteमेरे बेटे के स्कूल में तो वही कॉपी-किताबें मंगाते हैं जिनसे उस दिन पढाई होनी है. अभी तो वह प्रेप में है, आगे पता चलेगा.
ReplyDeleteहमने भी भारी भरकम बस्ते उठाये हैं. उन्हें पीठ पर लादकर तीन-चार किलोमीटर पैदल वापसी होती थी. सब कुछ आँखों के सामने जीवंत हो उठा!
bachchon ke saath yah sahi nahi ho raha
ReplyDeleteअत्यंत ही मखमली व्यंग्य .
ReplyDeleteसच है कि बचपन बस्ते के बोझ तले दबा जा रहा है. अच्छे विषय का चयन. दोषी हम भी कम नहीं. बधाई.
ReplyDeleteपढ़ाई हो न हो, अधिक याद रहे न रहे पर किसी न किसी दिन माँ सरस्वती को छात्रों पर दया आयेगी, इतना विद्या ढोना व्यर्थ न जायेगा तब।
ReplyDeleteभगवान भरोसे चल रहे हैं हम ...
आँख में पट्टी बांधे हुए ...
न देश की चिंता है ..न देश के भविष्य की ...
स्थिति है तो बहुत ही चिंताजनक ..!!
एक सोच देता हुआ गहन समसामायिक लेख ..!
एक समसामयिक और प्रभावी चिंतन .......... आलेख की कई व्यंगात्मक पंक्तियाँ सोचने को विवश करती हैं.....
ReplyDeleteसही चिंतन ...शुभकामनायें इन मासूमों को !
ReplyDeleteछोटे बच्चों में आँख, साँस, हड्डियों, तंत्रिका संबंधी रोग बढ़े हैं. दोषी शिक्षा प्रणाली बनाने वाले ही हैं जो बच्चों को खेलने-बढ़ने का अवसर नहीं दे रहे. बच्चों की दुआ आपके ब्लॉग को लगेगी.
ReplyDeleteआज देखो हो गया बालक कितना सस्ता,
ReplyDeleteपाँच किलो का खुद है, दस किलो का बस्ता।
-वाकई देख कर दुख और अफसोस होता है!!!
कनाडा में बच्चे १२ वीं तक लगभग खाली हाथ जाते है...देख कर लगता है कि भारत ही ने सारे ज्ञान का ठेका ऊठाया है...ये तो कुछ जानते ही नहीं.
ReplyDeleteस्कूल बेग के तो सपने ही देखे जाते थे। बच्चों को दुनियादारी से दूर करने का प्रयास है जिससे बच्चा पढा-लिखा गधा बन जाए बस।
ReplyDeleteबस्ते का वजन कम करने के उपायों पर बहुत माथापच्ची हो रही है लेकिन स्कूली पुस्तकों के प्रकाशकों द्वारा फेंका गया व्यावसायिक जाल स्कूलों के प्रबन्ध तंत्र को दबोचे बैठा है। बेचारे ऊँची कमीशन के मोहपाश में बँधे तड़फ़ड़ा रहे हैं। आपकी पोस्ट उन्हें थोड़ी राहत देगी। :)
ReplyDeleteपहली कक्षा की एक-एक किताब सौ-सौ रूपये की है जिसमें दस से लेकर बीस पन्ने होते हैं। अब ऐसा समय आ जाएगा जब किताबों का वजन उनके बदले दिये गये रूपयों के वजन से कम रह जाएगा।
बच्चो पर बढ़ता बस्ते का बोझ , उनके सर्वांगीण विकास में बाधक है .
ReplyDeleteवास्तव में तो बच्चों के छोटे कंधों पर ये भारी बस्ते अत्याचार ही है ।
ReplyDeleteबस्तों के बढ़ते भार पर आपने बेहतरीन कटाक्ष किया है प्रवीण जी... बच्चो का बस्ता देखकर लगता है कि पता नहीं कितना पढ़ते होंगे??? और हम तो ऐसे ही रह गए बिना भारी बस्तों के, बिना अधिक मेहनत और पढ़ाई के... ;-)
ReplyDeleteवैसे बस्ते के बोझ पर आई यशपाल कमेटी रिपोर्ट और नेशनल करीकुलम फ्रेमवर्क 2005 के बाद इस दिशा में कुछ काम भी हुआ है और बोझ में कमी भी आई है। पर निजी विद्यालयों में यह समस्या ज्यों कि त्यों बनी हुई है। क्योंकि वहां प्रकाशकों का जाल फैला हुआ है।
ReplyDeleteis desh main aaisa kanoon paani mahanga sata khoon.......
ReplyDeletejai baba banaras.......
सरस्वती को जरुर दया आयेगी इन भावी कुलियों पर .
ReplyDeletevery apt and sarcastic post on current education system.... and you pointed out the root problem that the primary/higher education is facing that--
ReplyDeletethey are busy in improving
Quantity education rather than Quality education.
शायद आने वाले दिनों में जब क्लासरूम पूरी तरह से डिजिटलाइज हो जाएं, तब बच्चों को इस बोझ से मुक्ति मिल सके।
ReplyDelete---------
बाबूजी, न लो इतने मज़े...
चलते-चलते बात कहे वह खरी-खरी।
एक बार 6-7वीं कक्षा में अपनी सभी पुस्तकें और कॉपियां भरकर ले गया था, 3 दिन तक बुखार रहा।
ReplyDeleteआज के बच्चे ज्यादा सक्षम दिखते हैं :)
प्रणाम
हमारे समय में इतने विषय भी नहीं होते थे जितने आज पढाये जाते हैं।
ReplyDeleteआज देखो हो गया बालक कितना सस्ता,
ReplyDeleteपाँच किलो का खुद है, दस किलो का बस्ता।
बहुत सही लिखा आपने...यही आज की विडम्बना है.
सच है कि बचपन बस्ते के बोझ तले दबा जा रहा है.
ReplyDeleteआज देखो हो गया बालक कितना सस्ता,
ReplyDeleteपाँच किलो का खुद है, दस किलो का बस्ता...
The couplet is speaking volumes !
.
बस्ते का बोझ ढोते बच्चे माता-पिता के दिए हुए 100% अंक लाने का दबाव भी झेलते हैं..
ReplyDeleteप्रवीण जी,
ReplyDeleteअब तो आई टी वाले भी पीठ पर लैपटाप टांगे ही घर से निकलते हैं और बैग हूबहू स्कूल वाले बैगपैक बस्ते की शक्ल का होता है :)
वैसे कपिल सिब्बल नाम के किसी जीव ने किसी जमाने में वादा तो किया था कि हर बच्चे को सस्ता लैपटाप 1500 वाला देंगे ताकि बोझ कम हो, क्म्पूटर शिक्षा बढे ब्ला ब्ला......
सटीक विवेचना की आपने....
ReplyDeleteमुझे तो अपने विद्यार्थी जीवन से ही आधुनिक भारतीय शिक्षा व्यवस्था से घोर घोर शिकायत रहा है...
शिक्षा व्यवस्था जीवन को बेहतर बनाने की ओर प्रयास नहीं, बल्कि मनुष्य को भेड़ों की भीड़ बनाती लगी है हमेशा...
नितांत व्यक्तिगत भाग्य और प्रतिभा का ही प्रताप होता है की कुछेक इस व्यवस्था के बीच भी खुद को भेड़ बनने से बचा लेते हैं..
आज के हर बच्चे का दर्द कह दिया आपने. पाता नहीं इस मामले में हम पश्चिमी पद्धती क्यों नहीं अपनाते.
ReplyDeleteमेरे भतीजे के स्कूल का नाम ईसीएस बैगलैस स्कूल है...पर वहां भी बोरे जितना भारी बस्ता चलता है
ReplyDeleteहंसी के फव्वारे
पुस्तक-कापियों से भरे बैग के साथ कई बार एक बैग और साथ में होता है.जिसमे स्केट्स..वगैरह होते हैं...अतिरिक्त गतिविधियों के नाम पर
ReplyDeleteइस विषय का गंभीरता से विवेचन कर कुछ सार्थक कदम उठाने की जरूरत है.
शिक्षा के क्षेत्र में एक क्रांति की जरुरत है... कहीं किताबों का बोझ है तो कहीं किताबें ही नहीं हैं...
ReplyDeleteदेश का भार इन्हीं नौजवानों के कँधों पर आयेगा, सही कहा आपने।
ReplyDeleteआप मेधावी हैं शुरू से, हम तो भारी बस्ते वाले रहे हैं।
ReplyDeleteपेपरलैस दफ़्तरों को तो देख चुके हैं, bagless शिक्षा पद्धति भी देख लेंगे।
आह बेचारा बालक! आशा है आपने उसे अपने उन्मुक्त बचपन की कथाएँ नहीं सुनाई होंगी. आप जले पर नमक छिडकने वाले तो नहीं ही लगते.
ReplyDeleteसच में हम क्या कर रहे हैं अपने बच्चों के साथ! फिर हम उनसे संसार भर की अपेक्षाएं यूँ रखते हैं मानो उन्होंने हमारा उधार चुकाना हो!
मैं अपने छात्रों से अनुरोध करती थी की केवल टाइमटेबल देखकर पुस्तकें लाएं.सारी न् उठा लाएं किन्तु बहुत से यह सब जहमत उठाने से बेहतर सारी पुस्तकें ढोना पसंद करते थे.
घुघूती बासूती
कभी मैंने लिखा था:-
ReplyDeleteबच्चों को अपना बचपन तो जीने दो
यूँ बस्तों का बोझ बढ़ाना, ठीक नहीं
आपने भी कमाल का लेख लिखा है..वाह...वाह...
नीरज
भविष्य में केवल हमाल का काम ही तो बच जाएगा जिसके लिए भावी पीढी को तैयार किया जा रहा है :)
ReplyDeleteबचपन अब बचपन कहां बचा है...
ReplyDeleteसारी दुनिया का बोझ हम उठाते हैं..
ReplyDeleteअपने मासूम कन्धों पर!!
सर जबरदस्त बस्ता ! अभी से बच्चो को आदत डालनी ही चाहिए क्यों की कल भारी है !
ReplyDeleteइस शिक्षा व्यवस्था में बस तन और मन पर बोझ ही बोझ है ....
ReplyDeleteजबकि कहा गया है या विद्या सा विमुक्तये ...
vicharneey lekh....
ReplyDeleteसच है कि बचपन बस्ते के बोझ तले दबा जा रहा है|
ReplyDeleteचिन्तन्परक, समसामयिक लेख|
बस्ते के बोझ से दबा बचपन ..सार्थक विषय का चुनाव ..पर कैसे कम होगा यह .. व्यंगात्मक शैली में लिखा रोचक लेख
ReplyDeleteसार्थक मुद्दा .. सार्थक चिंतन
ReplyDeleteयोजनाएँ बन रही हैं पर कागज़ों पर .
अत्यंत संवेदन शील विषय है यह । कक्षा ५ तक तो बैगलेस एजूकेशन का कान्सेप्ट होना चाहिये,जैसे आजकल पेपरलेस आफ़िस का कान्सेप्ट है ....
ReplyDeleteहम सही समय पर पास हो गए :)
ReplyDeletebojh ka safar yahan se shuru hota hai or susra marne tak khatm nahi hota......sadhuwaad
ReplyDeleteठूस ठूस कर बस्ता भरना .....शायद जानकारी को ठूस ठोस कर भरने का पूर्वाभ्यास ही हो ?
ReplyDelete.....वैसे भी आपने इतने गुण बता दिए हैं .....तो आप पर भरोसा करते हुए आज ही से और अधिक भारी बस्ते का अभ्यास अपनी बच्चियों पर करते हैं ......शायद वह कल हवा से बातें कर पायें?
बालकों के हित और अहित से परे भावी कर्णधार के दायित्वों पर एक आवश्यक बात कही है आपने.
ReplyDeleteआज बस्तों के ढोने का विकासक्रम कुछ इसलिए फलित नहीं हो पा रहा है क्योंकि कालेज और उत्तर कालेज की गतिविधियों में राष्ट्रनिर्मान सम्बन्धी सेलेबस का अभाव है. उद्द्याम्शीलता सम्बन्धी कार्यक्रम का अभाव है.
वर्ना एक युवा क्या से क्या नहीं कर सकता.
बस्ता और उस के बाद ये देखिये तो
ReplyDeleteआज कॉलेज से ज्यादा तो हैं ट्यूशन चलते
शारदे आप की धरती पे ये मंज़र क्यूँ है
प्रवीण भाई आप ने एक बार फिर से महत्वपूर्ण विषय पर लेखनी उठाई है
आज बचपन बोझ तले दबे जा रहा है ...हमारी शिक्षा की निति ही गलत है ...हम जादा जोर theory पे देते है जब की सारा भार प्रक्टिकल education पे देना चाहिए ...
ReplyDeleteइन बस्तों ने तो बच्चों का बचपन ही छीन लिया है. सारगर्भित पोस्ट के लिए साधुवाद.
ReplyDeleteकाश! हम भी कुछ पढ़ लिख जाते ,
ReplyDeleteआज एक लाइन में टिप्पणी
अपनी दस लाइनों की कर जाते..:):):).
सच्चा और सार्थक लेख !
शुभकामनाएँ !
बस्ते के बोझ का कौन सोचे जब रोजाना की रोजी रोटी का बोझ सर पर हो | ज्यादा भारी बस्ता जिस स्कूल का हो उसी स्कूल में बच्चे को पढ़वाना चाहते है |
ReplyDeleteबच्चो पर बढ़ता बस्ते का बोझ गहन समसामायिक लेख ..!
ReplyDeleteकई दिनों व्यस्त होने के कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका
ReplyDeleteबहुत देर से पहुँच पाया...
बिल्कुल सही कहा है आपने इस आलेख में ... बच्चे अपने वजन से ज्यादा आज किताबों का बोझ उठा रहे हैं ... विचारणीय प्रस्तुति ।
ReplyDeleteप्रवीणजी,
ReplyDeleteदो दिन पहले एक नया Ipad2 खरीदा हूँ
हिन्दी राईटर का उपयोग करके इसे टाईप कर रहा हूँ
हिन्दी में यह मेरी पहली टिप्पणी है जिसे मैंने ipad पर टाईप किया
Hindiwriter के बारे में जानकारी मुझे आपसे ही मिली थी
अभ्यास जारी है
आपको मेरा हार्दिक धन्यवाद
फिर मिलेंगे
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
सही कहा है...
ReplyDeleteसार्थक चिंतन |पर मैंने कई बार देखा है बच्चे ख़ुशी ख़ुशी वहन करते है और बड़े होने पर यही बच्चे अपना सूटकेस कुलियों से उठवाते है |
ReplyDeleteअक्सर महसूस होता है...अपना ज़माना ही भला था! जिस आराम में पढ़ के निकल गए, कहीं आज पढाई किये होते तो दिमाग के साथ पीठ भी अकड़ गयी होती!
ReplyDeletebahut khoob......... bojh ban rahi hai padai.........
ReplyDeleteडच में ये एक दर्द है बच्चों का जो उनसे उनका बचपना छीन रहा है... आपने बखूबी उल्लेख किया ..
ReplyDelete"पाँच किलो का बालक, दस किलो का बस्ता"
ReplyDeleteशिक्षा का जुरा व्यापार से सिर्फ रास्ता बच्चे मरें या दारू पियें ये सोचने का इस देश के स्कूलों के प्रबंधकों व सरकार ना कोई वास्ता ..
achchha vyang hai ye to sahi hai ki bachpan kahan gum horaha hai pata nahi .itna bhari basta hai ki kya kahen aaj bhi jab bharat jati hoon bachchon ko bhari basta uthaye dekh bahut dukh hota hai
ReplyDeleterachana
आपका स्वागत है "नयी पुरानी हलचल" पर...यहाँ आपके ब्लॉग की किसी पोस्ट की कल होगी हलचल...
ReplyDeleteनयी-पुरानी हलचल
धन्यवाद!
"पाँच किलो का बालक, दस किलो का बस्ता" अच्छा आलेख …
ReplyDeleteमा'सूमों की व्यथा किसी ने तो समझी …
लगता है अब आँगन-आँगन में टट्टू बंधे नज़र आयेंगे...बच्चों के बैग लाद कर स्कूल ले जाने के लिए!!
ReplyDeleteआधुनिक शिक्षा प्रणाली पर तीखा कटाक्ष किन्तु बहुत ही चतुराई से.
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया कटाक्ष करता आलेख है,
ReplyDeleteसाभार- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
aapki baat bilkul sahi hai. achcha lekh.
ReplyDeleteहमको बच्चो की पीठ पर किताबो का बोझ तो नज़र आ भी जाता है, परन्तु बच्चो की पीठ पर पढाई का बोझ तो दीखता भी नहीं है जो बच्चो को बच्चा रहने ही नहीं देता है.
ReplyDeleteविद्याध्यन धीरे धीरे मजबूरी या ज़रूरतों को साधने का साध्य बनता जा रहा है न की ज्ञानार्जन का.
ये सोच मुझको रोमांचित कर देती है की कभी तो ऐसा समय आएगा जब पीठ पर लदी पुस्तकों का भार धीरे धीरे कम होता जायेगा और ज्ञान पीठ पर न लदा होकर हमारे मस्तिष्क में स्थायी रूप से उतर जायेगा. शिक्षा हमको आनंदित करने का स्रोत बन जायेगी न की एक बोझ.
आज देखो हो गया बालक कितना सस्ता,
ReplyDeleteपाँच किलो का खुद है, दस किलो का बस्ता।
बहुत ही सटीक तर्क दिए हैं आपने | वाकई बच्चे बस्तों के बोझ में अपना बचपन खो रहे हैं
निर्णय ऊर्जा माँगता है, निर्भीकता माँगता है, स्पष्ट विचार प्रक्रिया माँगता है। अनुभव की परीक्षा निर्णय लेने के समय होती है, अर्जित ज्ञान की परीक्षा निर्णय लेने के समय होती है..
ReplyDeleteबहुत ही विचारणीय प्रेरक अभिव्यक्ति....
स्कूल बैग भले ही दस किलो का हो और उसमे दर्जनों किताबें भरी हो, लेकिन उन किताबों को तो ठीक से पढाया ही नहीं जाता | चीज़े समझाने की बजाये रटाई जाती हैं | इस से तो अच्छा है के एक दिन में आठ विषयों के बजाये दो विषय हर रोज़ पढाये जायें, इस तरह समय ज्यादा होगा तो आछे से विस्तारपूर्वक विद्यार्थी को विषय समझाया जा सकेगा, और हर रोज़ दो अलग विषय पढने से उत्सुकता व् नयापन बना रहेगा और मासूम इतना भार ढ़ोने से भी बचे रहेंगे|
ReplyDeleteशिल्पा
गला काट प्रतियोगी समय ने बचपन, किशोरावस्था और ज़वानी सब छीन ली है। पौढ़ावस्था शादी व बुढ़ौती में अपने बच्चों का बस्ता ढोने में जीवन बीत रहा है।
ReplyDeleteबच्चे को झुका बहुतेरे देखते है लेकिन बच्चे में झाँक कर देखें तो सिसकते बचपन की अकुलाहट का अंदाजा लग जाएगा| सशक्त लेखनी और मौलिकता लिए रचना के लिए साधुवाद |
ReplyDeleteबहुत खूब दोस्त व्यंग्य का स्वरूप इससे बेहतर और क्या हो सकता है .इसे ही तो कहतें हैं काल चिंतन .
ReplyDeleteबढ़ रहा बस्ता निरंतर, बढ़ रही प्रतिस्पर्धा है
ReplyDeleteदिलों से निकल कर प्यार कहीं कोने में सिसकता है
चाह ! पा लेने की सब कुछ दिलों में घर कर रही
चारों और बस अँधेरे के सिवा नज़र नहीं कुछ आता है
मेरा बस्ता कितना भारी ।
ReplyDeleteबोझ उठाना है लाचारी ।।
मेरा तो नन्हा सा मन है ।
छोटी बुद्धि दुर्बल तन है ।।
पढ़नी पड़ती सारी पुस्तक ।
थक जाता है मेरा मस्तक ।।
रोज़-रोज़ विद्यालय जाना ।
बड़ा कठिन है भार उठाना ।।
कम्प्यूटर का युग अब आया ।
इसमें सारा ज्ञान समाया ।।
मोटी पोथी सभी हटा दो ।
बस्ते का अब भार घटा दो ।।
थोड़ी कॉपी, पेन चाहिए ।
हमको मन में चैन चाहिए ।।
कम्प्यूटर जी पाठ पढ़ायें ।
हम बच्चों का ज्ञान बढ़ाये ।।
बन जाते है सारे काम ।
छोटा बस्ता हो आराम ।।
मेरा बस्ता कितना भारी ।
ReplyDeleteबोझ उठाना है लाचारी ।।
मेरा तो नन्हा सा मन है ।
छोटी बुद्धि दुर्बल तन है ।।
पढ़नी पड़ती सारी पुस्तक ।
थक जाता है मेरा मस्तक ।।
रोज़-रोज़ विद्यालय जाना ।
बड़ा कठिन है भार उठाना ।।
कम्प्यूटर का युग अब आया ।
इसमें सारा ज्ञान समाया ।।
मोटी पोथी सभी हटा दो ।
बस्ते का अब भार घटा दो ।।
थोड़ी कॉपी, पेन चाहिए ।
हमको मन में चैन चाहिए ।।
कम्प्यूटर जी पाठ पढ़ायें ।
हम बच्चों का ज्ञान बढ़ाये ।।
बन जाते है सारे काम ।
छोटा बस्ता हो आराम ।।