अंग्रेजी में एक शब्द है, मिड लाइफ क्राइसिस। शाब्दिक अर्थ तो "बीच जीवन का दिग्भ्रम" हुआ पर इसका सामान्य उपयोग मन की उस विचित्र स्थिति को बताने के लिये होता है जिसका निराकरण लगभग सभी को करना पडता है, देर सबेर। आप चाह लें तो यह दिग्भ्रम कभी भी हो सकता है पर 35 से 50 के बीच की अवस्था उन स्थितियों के लिये अधिक उपयुक्त है जिनकी चर्चा यहाँ की जा रही है।
जीवन में घटनाक्रम गतिमान रहता है और हम उसमें उलझे रहते हैं। जैसे जैसे स्थिरता आती है, हमारी उलझन कम होने लगती है और सुलझन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है, जिसे सार्थक चिन्तन भी कहते हैं। पहले पढ़ाई, प्रतियोगी परीक्षायें, नौकरी, विवाह, बच्चों का लालन पालन, यह सब होते होते सहसा एक स्थिति पहुँच आती है, जब लगता है कि अब आगे क्या? कुछ लोगों का भौतिकता के प्रति अति उन्माद नौकरियाँ बदलने व अकूत सम्पदा एकत्र करने में व्यक्त होता है, उनके लिये थोड़ा देर से यह प्रश्न उठता है पर यह प्रश्न उठता अवश्य है, हर जीवन में। जब तक ऊँचाईयाँ दिखती रहती हैं, हम चढ़ते रहते हैं, जब जीवन का समतल सपाट आ जाता है, हमें दिग्भ्रम हो जाता है कि अब किस दिशा जायें?
जीवन में एकरूपता, उन्हीं चेहरों को नित्य देखना, रोचकता का लुप्त हो जाना, यह सब मन को रह रह कर विचलित करता है। मन का गुण है बदलाव, उसे संतुष्ट करने के लिये बदलाव होते रहना चाहिये। जब बदलाव की गति शून्यप्राय होने लगती है, मन व्यग्र होने लगता है। अब सामान्य जीवन में 35 वर्ष के बाद तेज गति से बदलाव लाने के लिये तो बहुत उछल कूद करनी होगी, नहीं तो भला कैसे आ पायेगा बदलाव?
अब कई लोग जिन्होने स्वयं के बारे में कभी कुछ सोचा ही नहीं, उन्हें यह स्थिति सोचने के लिये प्रेरित करती है और उनके लिये चिन्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। वहीं कुछ लोग ऐसे भी रहते हैं जिन्हें यह स्थिरता नहीं सुहाती है और वह अपने जीवन में गति बनाये रखने के लिये कुछ नया ढूढ़ने लगते हैं। स्वयं की खोज करें या स्वयं को इतना व्यस्त रखें कि मन को कोई कष्ट न हो, इस दुविधा का नाम ही जीवन दिग्भ्रम है।
अपनी उपयोगिता पर सन्देह और सारे निकटस्थों पर उसका दोष, कि कोई उन्हें समझ नहीं पा रहा है। यह दो लक्षण हैं सम्भवतः इस दिग्भ्रम के। जो इसे पार कर ले जाता है, सफलतापूर्वक, उसे जीवन में कभी कोई मानसिक कष्ट नहीं आता है। जो इसे टालता रहता है, उसे इसकी और अधिक जटिलता झेलनी पड़ती है। यही एक अवस्था भी होती है जिसे जीवन में संक्रमणकाल भी कहते हैं। यही समय होता है जब आप अपने निर्णय लेते हुये जीवन को एक निश्चित दिशा दे जाते हैं, सारे दिग्भ्रमों से परे।
समस्या सबकी है, उपाय एक ही है। अपने जीवन पर एक बार नये सिरे से सोच अवश्य लें, हो सकता है कि एक नये व्यक्तित्व को पा जायें आप अपने अन्दर, हो सकता है कि आप स्वयं को पहचान जायें। कुछ इस प्रक्रिया को जीवन समेटना कहते हैं, कुछ इसे सार्थक जीवन की संज्ञा देते हैं, अन्ततः दिग्भ्रम कुछ न कुछ तो सिखा ही जाते हैं। वैसे भी जीवन से सम्बन्धित सारा ज्ञान हम अपने शैक्षणिक जीवन में ही नहीं सीख जाते हैं, हमारा अनुभव सतत हमें कुछ न कुछ सिखाता रहता है। कई परिस्थितियाँ जीवन के पथ पर ऐसे प्रश्न छोड़ देती हैं जिनको सम्हालने में पूरा अस्तित्व झंकृत हो जाता है। कोई भी झटका खाकर आहत हों तो चोट झाड़ने के पहले ही यह प्रश्न स्वयं से पूछ लें कि क्या सीखा इससे?
जो इसे पार कर चुके हैं, वे यह पढ़कर मुस्करा रहे होंगे। जो अभी यहाँ पर पहुँच रहे हैं, उन्हें यह व्यर्थ का आलाप लगेगा। जो इस दिग्भ्रम में मेरे साथ हैं, वे पुनः यह पढ़ेंगे।
प्रवीण जी सबसे पहले तो इस विषय पर लिखने के लिए आभार. यह कइयों को रास्ता दिखा सकता है. 35-50 के बीच का जीवन ऐसा होता है कि व्यक्ति को अपना जीवन-परिवेश गले में पड़ा ढोल लगने लगता है. उसे तलाशना ही पड़ता कि इसे किस ढँग से बजाया जाए कि वह सार्थक लगे. इससे संबंधित समस्याओं का एक हल यह है कि व्यक्ति अपने पारिवारिक परिवेश को प्रेममय और आंतरिक जीवन को शांत रखने की कवायद करे और उसकी आदत डाले.
ReplyDeleteवैसे प्रत्येक व्यक्ति इससे अपने तरीके से निपटता है जो मन को समझाने-बुझाने और लगाने का रास्ता है.
जीवन में घटनाक्रम गतिमान रहता है और हम उसमें उलझे रहते हैं। जैसे जैसे स्थिरता आती है, हमारी उलझन कम होने लगती है और सुलझन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है
ReplyDeletebahut satek vichaar...abhaar
पुनः पढ़ा, सह-मति सहित.
ReplyDelete;)
ReplyDeleteमिडलाइफ क्राइसिस शायद सामान्य भारतीय जीवन का अंश नहीं रहा है। यह आधुनिक युग का फिनॉमिना या अभिशाप है।
ReplyDeleteअन्यथा, पहले भारतवासी अपनी संतति या पुनर्जन्म के माध्यम से अनंत तक जीने की क्षमता रखते थे। अब वह आस्था गुम हो गयी है। सबकी। मेरी भी! :(
संतुलित गति का नाम ही जीवन है ...ठहरा हुआ तो पानी भी कीचड हो जाता है !
ReplyDelete35-50 की अवस्था में क्या दिग्भ्रम ! यहां से तो स्थिरता आनी शुरू हो जाती है। समस्याओं के प्रति किंकर्तव्यविमूढ़ता ! वह तो किसी भी उम्र में हो सकती है। वैसे 35-50 के बीच 15 साल का अंतराल काफी लम्बा है। सभी में यह समान रूप से लागू होगा, इसमें भी संदेह है।
ReplyDeleteमै भी दिग्भ्रमित हो रहा हूं . जीवन का यह दौर मुझे कहता है यह सब किस लिये किसके लिये . आपाधापी सी है मेरा छोटा से परिवार मे जितने सदस्य है वह सब अलग अलग शहरो मे रह रहे है सोचता हूं यह किस लिये लेकिन ............ कभी तो शान्ति मिलेगी .
ReplyDeleteआपका यह लेख सच मे राह दिखाता है
दिग्भ्रम तो जीवन के हर मोड़ पर होते हैं। इन से निकल कर अपने मार्ग का स्वयं चुनाव करना ही जीवन में सफलता प्राप्त करने का अचूक उपाय है।
ReplyDeleteअंगरेजी का एक शब्द -मिड लाईफ क्राईसिस -यह तो तीन हुआ !:)
ReplyDeleteऔर सही अनुवाद =मध्य जीवन की त्रासदी हुयी न ?
जहां तक जीवन में दिग्भ्रमित होने की बात है यह जीवन भर चलने वाली स्थिति है ...
हाँ मिलती जुलती एक और भयावह स्थिति है -मेल मीनोपाज !
वह अभी आपके लिए दूर है -मैं जरुर गुजर रहा हूँ उससे !
इस पर डॉ .अमर कुमार विशेषग्य की हैसियत से लिख सकते हैं -पता नहीं आपके पाठक हैं भी या नहीं !
अंगरेजी का एक शब्द -मिड लाईफ क्राईसिस -यह तो तीन हुआ !:)
ReplyDeleteऔर सही अनुवाद =मध्य जीवन की त्रासदी हुयी न ?
जहां तक जीवन में दिग्भ्रमित होने की बात है यह जीवन भर चलने वाली स्थिति है ...
हाँ मिलती जुलती एक और भयावह स्थिति है -मेल मीनोपाज !
वह अभी आपके लिए दूर है -मैं जरुर गुजर रहा हूँ उससे !
इस पर डॉ .अमर कुमार विशेषग्य की हैसियत से लिख सकते हैं -पता नहीं आपके पाठक हैं भी या नहीं !
जीवन में एकरूपता, उन्हीं चेहरों को नित्य देखना, रोचकता का लुप्त हो जाना, यह सब मन को रह रह कर विचलित करता है। मन का गुण है बदलाव, उसे संतुष्ट करने के लिये बदलाव होते रहना चाहिये। जब बदलाव की गति शून्यप्राय होने लगती है, मन व्यग्र होने लगता है।
ReplyDeleteबदलाव तो हर पल हर घड़ी हो रहा है -बस आप उसे महसूस नहीं कर रहे हैं |हर सोच ,हर पल ,व्यक्ति मन से जुड़ा है |हर प्रक्रिया के दो पहलू हैं ...ये '' जीवन दिग्भ्रम" भी मन की ही तो सोच है .....
इसलिए --''दुखी रहने का सामान
मत एकत्रित करो -
सुखी रहने के बहाने ढूंढो "
बहाने ज़रूर ठोस होने चाहिए ...!!
wakai maine ise kai baar padha aur kai baaton per gaur kiya ... bahut hi suksh adhyayan
ReplyDeleteबाबा कुछ उपाय ?
ReplyDeleteयहाँ ज्ञानियों की महफ़िल सजी है !हम तो :) कर
ReplyDeleteनिकाल रहें हैं |
खुश रहें !
आशीर्वाद!
अशोक सलूजा!
सर जी बहुत ही गहराई पूर्ण लेख ! जो जीता वही सिकंदर !
ReplyDeleteइस से तो सभी को दो-चार होना पड़ता है... कुछ हो चुके, कुछ हो रहे हैं और बाकी बचे हुए होने वाले हैं...
ReplyDeleteवैसे भी जीवन से सम्बन्धित सारा ज्ञान हम अपने शैक्षणिक जीवन में ही नहीं सीख जाते हैं, हमारा अनुभव सतत हमें कुछ न कुछ सिखाता रहता है
ReplyDeleteऔर यह प्रक्रिया निरंतर चलती उम्र भर ... सार्थक लेख
प्रवीण जी,
ReplyDeleteयहाँ अमेरिका में नया फ़िनामिना पनप रहा है, आप इसे थर्ड लाईफ़ क्राईसिस कह सकते हैं। इसके शिकार अधिकतर ३० के अन्दर वाले युवा हो रहे हैं जो सोच रहे हैं कि उन्होने जीवन में कालेज, रिलेशनशिप इत्यादि में जितना निवेश किया उसके अनुकूल परिणाम नहीं मिला। मिड लाईफ़ क्राइसिस वाले कम से कम अपने कैरियर में जमें होते हैं और आर्थिक रूप से सक्षम होते हैं। इस नयी क्राईसिस के शिकार बडी परेशानी में हैं क्योंकि ये उनके पैर जमने से पहले ही आ खडी हो रही है।
अभी तो ज़ोर शोर से जीवन की चढाई चढ़ रहे हैं, मिड-लाइफ क्राइसिस अभी नहीं आया, समय है उसे|
ReplyDeleteजब समतल जगह आएगी उसका तो तभी कुछ निराकरण किया जा सकेगा, तब तक तो हम चलते ही जा रहे है, कुछ बदल रहे हैं, कुछ पुराना ही साथ रख रहे हैं |
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शिल्पा
जिन्दगी की उहापोह किसी भी आयु में हो सकती है और कभी भी ना हो, ऐसा भी हो सकता है। जो लोग सृजनात्मक कार्य करते हैं, वे इस दौर से कम गुजरते हैं। वर्तमान नवीन पीढ़ी जो अकस्मात ही बहुत कुछ पा जाती है, उसके लिए यह उहापोह अधिक होता है। लेकिन भारत में ऐसे लोग मुठ्ठी भर हैं। यदि ऐसे लोग परिवार या समाज से जुड़े रहें तो किसी भी दिग्भ्रम की स्थिति नहीं बनती है। परिवार उसे सतत कर्तव्य पालन की सीख देता है।
ReplyDeleteस्वयं की खोज करें या स्वयं को इतना व्यस्त रखें कि मन को कोई कष्ट न हो, इस दुविधा का नाम ही जीवन दिग्भ्रम है।
ReplyDeleteस्वयं की खोज करना भी तो व्यस्तता ही है.
सुन्दर सार्थक लेख के लिए आभार.
हम आपके साथ है , कई बार पढना पड़ेगा .. सु विचारित आलेख .
ReplyDeleteदो बार पढ़ा ...मैं भी सहमत हूँ ! शुभकामनायें !!
ReplyDeleteजीवन में होने वाले दिग्भ्रम पर महत्वपूर्ण आलेख...
ReplyDeleteसच में उम्र के उस मोड़ पर जब आप अपने तय किये सारे मार्क पा जाते है फिर आगे क्या ? की स्थिति आ जाती है ..
ReplyDeleteपाण्डेय जी, मैं न मुस्कुराया और न पुनः पढ़ा... शायद मैं दिग्भ्रमित नहीं हुआ )
ReplyDeleteई परिस्थितियाँ जीवन के पथ पर ऐसे प्रश्न छोड़ देती हैं जिनको सम्हालने में पूरा अस्तित्व झंकृत हो जाता है। कोई भी झटका खाकर आहत हों तो चोट झाड़ने के पहले ही यह प्रश्न स्वयं से पूछ लें कि क्या सीखा इससे?
ReplyDeleteजो इसे पार कर चुके हैं, वे यह पढ़कर मुस्करा रहे होंगे। जो अभी यहाँ पर पहुँच रहे हैं, उन्हें यह व्यर्थ का आलाप लगेगा। जो इस दिग्भ्रम में मेरे साथ हैं, वे पुनः यह पढ़ेंगे।
यही ज़िन्दगी की सच्चाई है और ये दौर तो सबके जीवन मे आता ही है…………आपने अच्छा सुझाव दिया है।
ही ही ही..
ReplyDeleteमैं मुस्कुरा ही नहीं, हँस भी रहा हूँ...
हैट टिप - अनुभूत प्रयोग : हो सके तो काम धंधा बदल दें, शहर - दाना -पानी बदल दें या फिर कोई नई, सार्थक हॉबी पाल लें.
इस प्रक्रिया से मिड लाइफ में ही नहीं बल्कि किसी भी उम्र में गुजरा जा सकता है.अपनी अपनी जीवन शैली पर निर्भर करता है.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया आलेख.
गहन भावों के साथ्ा ...सार्थक चिंतन ..।
ReplyDeleteएक बार ठहरकर ,सुस्ताकर फिर से उर्जा अर्जित कर रुके कामो को ,या जो नहीं किये जा सके उनके लिए बहुमूल्य मौका |
ReplyDelete"चालीसवा साल धोका या मौका "
सही निर्णय न कर पाना इसका मूल कारण है !
ReplyDeleteबहुर ही सुन्दर, सार्थक और हृदयग्राही लेख !
अभी तक दिग्भ्रमित ही है, इसलिए निसंदेह आपके साथ है पुनः श्च पढने के लिए .
ReplyDeleteबहुत सही कहा...कभी न कभी जीवन में यह संक्रमणकाल आता ही है...भौतिकता में सुख संधान वालों के जीवन में विलम्ब से आता है,पर आता है...और जब आता है, यदि जीवन को सकारात्मक दिशागमन न मिले, तो आदमी अवसाद के बवंडर में काफी लम्बा फंसा रह जाता है...
ReplyDeleteविचारणीय, महत ,इस सुन्दर आलेख के लिए आपका साधुवाद...
क्या बात है, बहुत सुंदर
ReplyDeleteआप मानें या न मानें यह एक ऐसी स्तिथि है जिससे सभी को गुज़रना पडता है..बहुत ही सार्थक और गहन विश्लेषण..विचारणीय पोस्ट
ReplyDeleteकई बार मिडलाइफ क्राइसिस से इसलिए भी गुजरते हैं....समय कम दिखता है...कार्य ढेर सारे...और कितने शौक अपने पूरे होने की बाट जोहते नज़र आते हैं
ReplyDeleteजीवन जीने का अपना द्रष्टिकोण होता है . यह नजरिया समय-समय पर बदलता रहता है,पर एक बात साफ़ है कि किसी की बुनियादी प्राथमिकताओं में बदलाव बहुत मुश्किल होता है.
ReplyDeleteकई लोग यह सब तब महसूसते हैं जब उनके हाथ से सब कुछ फिसल जाता है !
दिग्भ्रमित होना गलत नहीं है पर उससे सबक न लेना नुकसानदेह है !
दिग्भ्रम ?आगे करने को इतना कुछ रहा कि ऐसा कुछ लगा नहीं .व्यस्त रहने की आदत है - खाली बिलकुल नहीं रह सकती .लिखने के साथ ,पढ़ाई ,कढ़ाई,बुनाई ,घुमाई या जो पढ़-पढ़ा चुकी हूँ ,देख-सुन चुकी हूँ उसकी जुगाली .
ReplyDeleteऐसा कुछ कभी लगा हो -याद नहीं आता .
na dainyam na palayanam
ReplyDeleteyaad dilane ke liye dhanyawad
अभी समय नहीं आया है जब निर्णय लेना पडेगा तब देखा जाएगा | तब आपकी ये पोस्ट रास्ता दिखायेगी |
ReplyDeleteहम तो सदा के दिग्भ्रमित हैं:)
ReplyDeleteबिल्कुल सही विचार है दिग्भ्रमित ही क्यों ... जब जब सामान्य से अलग हट कर कुछ होता है ... नया विचार .. नयी दिशा दे जाता है ... इसलिए नये नये रास्ते ... नई सोच नये प्रयोग ज़रूर अपनाने चाहिएं ,,,
ReplyDeleteविषय क्लिष्ट है,परंतु आपके आलेख ने सरल कर दिया । बहुत खूब ।
ReplyDeletejeevan matlab gati hai. gati jab sahee naa ho to tab kee isthiti ko bhi batati hai ye lekh, sunder.
ReplyDelete--क्राइसिस का अर्थ दिग्भ्रम नही त्रासदी हुई....यह एमरजेन्सी स्थिति है और सब के साथ नहीं होती, होती है तो सबकी अलग अलग व अलग अलग कारणों से अत: कोई एक नियम/ रास्ता नहीं होसकता...
ReplyDelete-- यदि इसे दिग्भ्रम लिया जाय तो जैसा ग्यान्दत्त जी ने कहा यह भारतीय जीवन का अन्श नहीं जहां प्रत्येक कदम पर प्रौढता के साथ गुरु-गाम्भीर्य आना आवश्यक होता है....हां पाश्चात्य-आधुनिक-भोगवादी-संस्क्रिति में यह एक फ़ैशन के तौर पर हो सकता है जहां कम उम्र में ही सब कुछ मिल जाता है और कर्म ईश्वर आधारित नहीं होता तथा ईश्वर, धर्म,दर्शन, साहित्य, भजन-पूजन का कोई स्थान नहीं होता.. अत: मनुश्य को कुछ और पाने/ करने को नहीं होता ...
....बहुत ही सार्थक और गहन विश्लेषण..विचारणीय पोस्ट
ReplyDeleteबहुर ही सुन्दर, सार्थक और हृदयग्राही लेख|धन्यवाद|
ReplyDeleteपंकज जी आपकी पोस्ट पढने के बाद मुझे भ्रम होने लगता है कि यह मेरी लेखनी से ,मेरी मस्तिष्क से जन्मा है .मेरे कथन का तात्पर्य कतई यह नहीं है कि मैं आपकी तरह या आप मेरी तरह लिखते हैं.आपकी लेखनी को नमन.बहुत उंचाई पर है. मैं कहीं पर नहीं लगता.फिर भी न जाने क्यूँ ? विचारों में काफी साम्यता लगती है.आप लिख लेते हैं ,मैं लिख नहीं पाता.आपकी की कलम ने मुझे गहराई तक प्रभावित किया है.
ReplyDeleteसच में, इस विषय पर लिखने के लिये बहुत बहुत बधाई!
ReplyDeleteसाभार-
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
अनुभवों से जुडा सत्य...
ReplyDeleteअपने जीवन पर एक बार नये सिरे से सोच अवश्य लें, हो सकता है कि एक नये व्यक्तित्व को पा जायें आप अपने अन्दर, हो सकता है कि आप स्वयं को पहचान जायें।
ReplyDeleteसच ही कहा है ऐसी स्थिति कभी न कभी सबके जीवन में आती ही है और आप दिग्भ्रमित से सोचने को विवश हो जाते है.
अच्छी पोस्ट.
ReplyDeleteअनुवाद में शब्द-भेद पर चर्चा न करके यह कहा जा सकता है कि निरर्थकता का बोध होना भी कभी मनुष्य के मोहभंग के लिए ज़रूरी हो जाता है.
अनिर्णय तो दिग्भ्रम से जुदा है ही.
खुद ही निकलना भी होता है हमें अपने रचे इन भँवरजालों से. तब थोड़ी सी अनासक्ति की ट्रेनिंग बड़े काम की चीज़ हो सकती है. हाँ, अनासक्ति का अर्थ वैराग्य नहीं.
उस पार परबतों के तनवीर दिख रही है|
ReplyDeleteखुशहाल ज़िंदगी की तसवीर दिख रही है|
हालाँकि, रास्तों में फ़िलहाल मुश्किलें हैं|
पर, बाद मुश्किलों के - तक़दीर दिख रही है||
प्रवीण भाई, समय निकाल कर पढ़ने का मज़ा और ही है, आप के ब्लॉग को| बधाई मित्र| बहुत ही उपयोगी जानकारी साझा की है आपने|
इस परिस्थिति से गुजरते तो सभी हैं ,पर स्वीकार कम ही लोग कर पाते हैं ।आपने लिखते समय संतुलन दिखाया है ,अच्छा लगा ।ये परिस्थिति किसी उम्र विषेश पर नहीं अपितु मन के खालीपन की अवस्था पर निर्भर करती है ।इसका समाधान भी अपनी रुचि के अनुसार ही निकालें तो बेहतर होता है ......आभार !
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteहर उम्र में.. 'व्यस्त रहो ...मस्त रहो' :) यह आपका ही फार्मूला है..फिर जीवन दिग्भ्रम होगा ही नहीं...
ReplyDeleteआयु बढ़ने और परिवार / परिवेश / समाज में अपनी उपादेयता और आवश्यकता कम प्रतीत होती लगना/ होना मानवीय मन को नैराश्य देने के बड़े कारक हैं.
ReplyDeleteव्यक्ति की सहभागिता को महत्त्व व नैरन्तर्य देकर उसकी इस मनःस्थिति से उबारने में परिवार/ समाज व परिवेश को सहयोग देना अनिवार्य चाहिए. सहभागिता के अवसर भी मुहैया कराने चाहिएँ, और तरीके भी बदलेंगे ही; यह दोनों पक्षों को खुले मन से स्वीकारना चाहिए.
यह केवल एक आधुनिक समस्या है।
ReplyDeleteज्यादातर, ये सोफ़्टवेयर वाले इस रोग से ग्रसित होते हैं
डाक्टरों, वकीलों चार्टर्ड अकाउन्टन्टों को ऐसा कुछ नहीं होता।
हर साल, उनका तज़ुर्बा बढता रहता है और वे अपने काम में और भी दक्ष बनते जाते है।
समाज में उनका सम्मान बढता रहता है।
सोफ़्टवेयर में ऐसा नहीं होता। चालीस की उम्र के बाद यह लोग घबरा जाते हैं।
पारिवारिक परेशानियाँ, जिम्मेदारियाँ, स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के साथ, नयी पीढी के सहयोगियों का आधुनिक ज्ञान, नयी टेक्नोलोजी, वगैरह से परेशान होते हैं ।
टेक्नोलोजी की तेजी से बढती प्रगती के साथ अपना दौड कायम नहीं रख पाते।
Mid life crisis तो स्वाभाविक है।
हमें ऐसा कुछ नहीं हुआ। हम इन्जिनियर जो ठहरे।
पर आजकल मिड लाईफ़ क्राइसिस के बजाय End life crisis से डरने लगा हूँ।
साल दो साल ही बाकी है अपना कैरियर समाप्त करने में।
आगे क्या करूंगा, इसकी चिन्ता बनी रहती है
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
35-50 की अवस्था में क्या दिग्भ्रम पता नही वैसे हम भी सब पापड बेल चुके हे, ओर अब इस अबस्था को छोड चुके हे, मस्त हे पता हे आगे क्या करना हे, क्यो करना हे,बहुत ही अच्छी बात लिखी आप ने मुझे लगता हे जो ५०,५५ के बाद भी इस अवस्था को नही समझता वो हमेशा बेचेन ही रहता होगा...
ReplyDeleteफिर तो भ्रम बने रहने में ही फायदा है।
ReplyDelete---------
हंसते रहो भाई, हंसाने वाला आ गया।
ध्वस्त हो गयी प्यार की परिभाषा!
इन्हीं राहों से गुजरे हैं मगर हर बार लगता है
ReplyDeleteअभी कुछ और, अभी कुछ और, अभी कुछ और बाकी है....
-बहुत उम्दा जीवन दर्शन!!!
The best solution to this is -- "take challenges" and enjoy the thrill.
ReplyDeleteजीवन तो गतिमान है और तब तक रहता है जब तक हम उसकी उपयोगिता अच्छी तरह समझ सकते है....बहुत अच्छा आलेख....
ReplyDeleteअभी तो बहुत दूर है ये पड़ाव हमारे लिए पर हाँ पढ़ कर अच्छा लगा आपका ये लेख......
ReplyDeleteपहले से ही ध्यान रखेंगे........अच्छी पोस्ट!!
आपके विचार इतने खुबसूरत हैं की आप अपनी बात को बहुत खूबसूरती से हमारे आगे रखने में सक्षम होते हैं | मैं आपकी बात से पूरी तरह समत हूँ बचपन और युवावस्था में हमारे पास करने को इतने काम होते हैं की हमे किसी और तरफ देखने की फुर्सत ही नहीं मिलती पर जब जैसे -२ हम अपनी जिम्मेदारियों से निजात पते जाते हैं और सब अपनी जिम्मेदारी संभाल लेते हैं तो हरेक अपने आप में व्यस्त हो जाता है क्युकी यु समझो समय उनको वो समय दे देता है और हम उसी सम्मान की खोज में खुद को जानने के लिए फिर से तैयारी शुरू कर देते हैं | कहते हैं न समय खुद को दोहराता है | तो जहां कल हम थे आज हमारे बच्चे हैं और कल उनके बच्चे ? तो सफ़र है दोस्त चलता ही रहेगा :) |
ReplyDeleteबहुत अच्छा विषय |
जीवन में दिग्भ्रमित होने के लिए भी किसी उम्र की ज़रूरत होती है (!)
ReplyDelete... जब चाहा हो लिए :)
हाँ बिलकुल सही कहा आपने लेकिन ये दिग्भ्रम भी आपके छुपी हुयी प्रतिभा या आपके व्यक्तित्व से ही उपजता है और ये खासकर उन लोगों में ज्यादा पनपता है जो स्वाभिमानी हैं,कर्तव्य को ईमानदारी से करने का भरसक प्रयास करने वाले होते हैं,जो चिन्तनशील होते हैं ..भैंश किस्म के लोगों को ना ये दिग्भ्रम होता है और ना ही हो सकता है क्योकि ऐसे लोगों के पास कोई चिंतन नहीं होता ....और ये दिग्भ्रम किसी भी सच्चे इंसान को जीवन की सबसे परम सत्य से अवगत कराता है तथा सोच में और भी निखार लाता है ..ये दिग्भ्रम है तो बरी कमाल की और उपयोगी चीज ,इससे ही कोई व्यक्ति व्यवहारिक स्तर पर जीवन में कुछ गहराइयों तक सीख पाता है ....बहुत ही बढ़िया पोस्ट है ..शानदार....
ReplyDeleteअनुशासनपूर्ण और गतिशील जीवन में इस प्रकार के दिग्भ्रम की संभावना कम होनी चाहिए |
ReplyDeleteजब कुछ नया करना सीखना बंद कर देता है व्यक्ति तब यह समस्या आजाती है .बचाव का एक ही रास्ता है .रोज़ विवेचन -आज क्या सीखा मैंने नया .क्या दिया नया समाज को घर को .नकार (मोड़ ऑफ़ डिनायल में जीना )समस्या का हल नहीं है .उलझाव है .
ReplyDeleteसमस्या सबकी है, उपाय एक ही है। अपने जीवन पर एक बार नये सिरे से सोच अवश्य लें, हो सकता है कि एक नये व्यक्तित्व को पा जायें आप अपने अन्दर, हो सकता है कि आप स्वयं को पहचान जायें। कुछ इस प्रक्रिया को जीवन समेटना कहते हैं, कुछ इसे सार्थक जीवन की संज्ञा देते हैं, अन्ततः दिग्भ्रम कुछ न कुछ तो सिखा ही जाते हैं।
ReplyDeletepadhte huye ram gayi isme ,bahut hi badhiya ,aham aur naya likha hai ,shayad isse kai jindagi sambhal jaaye .ek baar aur padhoongi man nahi bhara .mahtavpoorn baate hai .aapki aabhari hoon
praveen ji
ReplyDeletenihsandeh is baar aapki post ek alag si par haqikat ko vyakhit karti hai .
sach hai jo jeevan me kabhi kabhi asfal rah jaate hain vah vatav me digbhrmit hi hote hain kyon ki unka jeevan disha -heen hokar rah jaata hai aur vah apne laxhy prapti ke marg se hat kar uljhano me ghirte chale jaate hain aur ant tak ye bhatkav jivan me bana hi rahta hai
is vishhy par likhne ke liye bahut hi saare raste dikh rahen hain par aapki jabar dast lekhni ke aage aur kuchh likhne ki jarurat nahi mahsus hoti.
bahut hi prabhav purn v saath hi saath uljhano se niptne ka rasta bhi dikhata hai aapka behtreen aalekh
bahut bahut
hardik badhai
poonam
लगता है अपना नंबर आने वाला है..
ReplyDeleteयह तो काफी हटकर आलेख है... बहुत अच्छा लगा इस दिग्भ्रम के बारे में जानकार..
ReplyDeleteफिलहाल तो तय नहीं कर पा रहा हूँ कि इस रोग से ग्रसित हूँ कि नहीं पर भविष्य में हमेशा ध्यान में रहेगा..
धन्यवाद इसके लिए...
मैं चौंसठवें में चल रहा हूँ और आपकी यह पोस्ट पढते-पढते बराबर लगता रहा कि इापने मुझ पर ही यह लिखी है।
ReplyDeleteमैं चौंसठवें में चल रहा हूँ और आपकी यह पोस्ट पढते-पढते बराबर लगता रहा कि इापने मुझ पर ही यह लिखी है।
ReplyDeleteई जीवन बड़ी बेरहम चीज है ....जित्ता सोचो उत्ता फसों !......शायद यही अवस्था है जिससे आजकल हम गुजर रहें हैं ......मिडलाइफ क्राइसिस
ReplyDeleteSir Aapki post hamesa aapke charo taraf ho rahe ghatanao se prerit rahati.......is baar swayam se prerit hai.
ReplyDeleteChalisaven basant ki shubh kamanayen....
Sir Aapki post hamesa aapke charo taraf ho rahe ghatanao se prerit rahati.......is baar swayam se prerit hai.
ReplyDeleteChalisaven basant ki shubh kamanayen....
Mid Life Crisis....ummed hai isse nahi gujrna padega....lakshya saaf hai....itna kuch karna hai ki shayad hii kabhi ye prashn utha paaun kii aage kya!!
ReplyDeleteयह सिर्फ 35-50 की समस्या नहीं है. मरते दम तक बनी रहती है. जीवन में खाली स्पेस न छोड़ें. लेख का विषय वस्तु अच्छा लगा. धन्यवाद.
ReplyDeleteSab kuchh hone ke bavjud aadmi laga rahta hai.
ReplyDeleteApne sahi kaha. Laksya bana kar admi chalta rahta hai. Pahunch jane per laksya gayab ho jata hai. Phir se kuchh nai laksya banayen aur chalna suru karen. Digbhram nahin ayega. Umra ko samne mat layen. Chalte rahen.
ReplyDeleteयह दिग्भ्रम ही दिशा बोध कराएगा। अज्ञान का बोध ही ज्ञान प्राप्ति की दिशा में पहला कदम होता है।
ReplyDeleteयह दिग्भ्रम ही दिशा बोध कराएगा। अज्ञान का बोध ही ज्ञान प्राप्ति की दिशा में पहला कदम होता है।
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