दोपहर है और जोर का पानी बरस रहा है, सड़कों पर अनवरत पानी बह रहा है। वैसे तो सायं होते ही बंगलोर का मौसम ऐसे ही सड़कों की सफाई करने उतर आता है, आज अधिक कार्य निपटाना है अतः सवेग आया है और वह भी समय से पहले। सहसा सड़कें अधिक चौड़ी लगने लगती हैं। पैदल चलने वाले दुकानों के अन्दर खड़े मुलकते हैं, कोई चाय पी रहा है, कोई सिगरेट। दुपहिया वाहन भी सरक लेते हैं किसी आश्रय को ढूढ़ने जहाँ झमाझम बरसती बूँदों के प्रकोप से बचा जा सके। अब सड़क पर चौपहिया वाहन सीना चौड़ाकर बढ़े जा रहे हैं, निरीक्षण के लिये जाना है, लगता है आज शीघ्र पहुँच जायेंगे।
यह सब होने पर भी एक जगह ट्रैफिक की गति लगभग शून्य सी हो जाती है, कारण समझ नहीं आता है। धीरे धीरे गाड़ी आगे बढ़ती है तो पता लगता है सड़क पर दो फुट गहरा पानी भरा हुआ है, पानी का स्तर थोड़ा कम होता तो ट्रैफिक थोड़ा आगे सरकता। पैदलों और दुपहिया वाहनों के न चलने से उपजी गतिमयी आशा क्षुब्ध निराशा में बदल गयी थी।
देखा जाये तो भौगोलिक दृष्टि से बंगलोर समतल शहर नहीं है, जलभराव की समस्या होनी ही नहीं चाहिये, शहर को साफ कर वर्षा के जल को सहज ही बह जाना चाहिये। पुराने निवासियों से पता लगा कि पहले यह समस्या कभी नहीं रहती थी, सड़के सदा ही स्वच्छ और धूल रहित रहती थीं। सारा का सारा वर्षाजल सौ से अधिक जलाशयों में ससम्मान पहुँच जाता था, कहीं निकट आश्रय मिल ही जाता था। आजकल कुछ बड़ी झीलों को छोड़ दें तो शेष जलाशय विकास की भेंट चढ़ गये हैं, अब वर्षाजल सड़कों पर मारा मारा फिर रहा है।
मनुष्य ने विकासीय-बुखार में जंगल से पशुओं व वृक्षों को बाहर लखेद दिया, अब शहर के जलाशयों से जल को लखेदने का प्रयास चल रहे हैं। पशु निरीह थे, वृक्ष स्थूल थे, उन्होने हार मान ली और पुनः लौटकर नहीं आये और न ही विरोध व्यक्त किया। इन्द्र का संस्पर्श लिये जल न तो हार मानता है और न ही अपने सिद्धान्त बदलता है। कैसे भी हो अपने लिये समुचित आश्रय ढूढ़ ही लेता है। यदि आप जलाशय पाट देंगे तो वह आकर सड़क पर फैला रहेगा, आप कितना भी खीझ लें अपनी भव्य गाड़ियों में बैठकर, विकास का प्रतिमान बनी सड़कों को जलभराव से छुटकारा मिलने वाला नहीं है। जल इसी प्रकार अपना विरोध व्यक्त करता रहेगा।
मुझे लगा जल अपना क्रोध व्यक्त कर बह जायेगा पर अपना पुराना कर्म तो निभायेगा, शहर को स्वच्छ करने का। निरीक्षण कर के लगभग तीन घंटे बाद जब उसी रास्ते से वापस जाता हूँ तो सड़क के किनारे कीचड़ सा पड़ा मिला, लगभग हर जगह। हम अपने गर्व में जल का सम्मान भूल गये तो जल भी न केवल अपना कर्म भूला वरन उल्टा एक संदेश छोड़ गया। जो जल पहले शहर की सड़कों को स्वच्छ कर जाता था, आज अपने विरोध स्वरूप उन्ही सड़कों को गन्दा करके चला गया है, हमारी विकास की नासमझी और अन्ध-लोलुपता पर करारा तमाचा मारकर।
कहाँ एक ओर मंच तैयार था, झमाझम वर्षा का समुचित आनन्द उठाने का, मदमाती बूँदों की धुंधभरी फुहारों पर छंद लिखने का, एक गहरी साँस भरकर प्राकृतिक पवित्रता को अपने अन्दर भर लेने का, पर आज पहली बार वर्षा रुला गयी, हमारे कर्म हमें ढंग से समझा गयी।
आपदा को कर्म और कर्मफल से आदि काल से जोड़ा जाता रहा है। पहले मानव शुचिता, न्याय, परोपकार आदि का पालन नहीं करता था तो वरुण या इन्द्र कुपित होते थे।
ReplyDeleteअब यह शब्द बदल कर ग्लोबल वार्मिंग, डिंन्यूडेशन ऑफ जंगल जैसे तकनीकी-देवता वाले हो गये हैं!
शायद सिद्धांत मूलत वही है - गीता में द्वितीय अध्याय में भी है यह।
हम अपने गर्व में जल का सम्मान भूल गये तो जल भी न केवल अपना कर्म भूला वरन उल्टा एक संदेश छोड़ गया। जो जल पहले शहर की सड़कों को स्वच्छ कर जाता था, आज अपने विरोध स्वरूप उन्ही सड़कों को गन्दा करके चला गया है, हमारी विकास की नासमझी और अन्ध-लोलुपता पर करारा तमाचा मारकर।
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यह गुस्सा बहुत बड़ी सच्चाई से रूबरू करवा रहा है..... अभी तो आगे आगे देखिये हमारे कर्म और क्या क्या दिन दिखलाते हैं..... ? आभार इस विचारणीय पोस्ट के लिए
बात सही है, बैंगलोर में जलभराव की बात सुनकर अजीब सा लगता है।
ReplyDeleteतथाकथित विकासीय यात्रा का शायद यही या इससे भीषण पड़ाव है.
ReplyDeleteबाक़ी बाद में....
ReplyDeleteपहले कुछ पानी दिल्ली भेज दो, 43 डिग्री पर उबला जा रहा है ये शहर.
बाक़ी बाद में...
ReplyDeleteपहले कुछ पानी दिल्ली भेज दो, 43 डिग्री पर उबला जा रहा ये शहर...
हम बस अपने कर्मों के अलावा बेमौसम से ले कर वार्ड पार्षद तक की दुहाई गा लेते हैं.
ReplyDeleteमुझे लगा जल अपना क्रोध व्यक्त कर बह जायेगा पर अपना पुराना कर्म तो निभायेगा, शहर को स्वच्छ करने का। निरीक्षण कर के लगभग तीन घंटे बाद जब उसी रास्ते से वापस जाता हूँ तो सड़क के किनारे कीचड़ सा पड़ा मिला, लगभग हर जगह। हम अपने गर्व में जल का सम्मान भूल गये तो जल भी न केवल अपना कर्म भूला वरन उल्टा एक संदेश छोड़ गया। जो जल पहले शहर की सड़कों को स्वच्छ कर जाता था, आज अपने विरोध स्वरूप उन्ही सड़कों को गन्दा करके चला गया है, हमारी विकास की नासमझी और अन्ध-लोलुपता पर करारा तमाचा मारकर।
ReplyDeletesabkuch badal daala manav ne to uska krodh bhi sahi hai n
सब आधुनिक नगरों की यही स्थिति है। कोटा के आस पास और कोटा में कुल 16 तालाब थे और किनारे बहती चम्बल। लेकिन अब तालाब उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। नगर की सड़कों मोहल्लों में पानी भरने लगा है। आज इंसान अपनी सोचता है। पहले लोगों को अपने तरीके से बसने दिया जाता है। नगर नियोजन वाले बाद में जन्म लेते हैं।
ReplyDeleteAdhunikta ki daud mein Prakarti ke saath ham swayam hi khilwaad karte hain... Aur fir swayam hi rotey hain...
ReplyDeleteकर्म का फल नजर आ जाता है इस तरह भी ...
ReplyDeleteविकास की भेंट चढ़े जलाशयों की बात तो फिर भी तार्किक हो सकती है , हमारे शहर में तो नाले भी बिल्डर्स की भेंट चढ़ गए हैं !
कहाँ एक ओर मंच तैयार था, झमाझम वर्षा का समुचित आनन्द उठाने का, मदमाती बूँदों की धुंधभरी फुहारों पर छंद लिखने का, एक गहरी साँस भरकर प्राकृतिक पवित्रता को अपने अन्दर भर लेने का, पर आज पहली बार वर्षा रुला गयी, हमारे कर्म हमें ढंग से समझा गयी।
ReplyDeleteबहुत सुंदर आलेख ....!!
हर स्तर पर चाहे भौगोलिक हो ,सामाजिक हो या किसी भी और परिपेक्ष में ही ले लें ...बंगलोरे जैसे शहर में पानी का जम जाना अब कोई आश्चर्य जनक बात नहीं लग रही है ...पर आपको धन्यवाद इतने सुंदर आलेख को पढ़ कर अब लग रहा है कि हमारे कर्म हमें क्या क्या दिखाते हैं ....कैसे ठहरा हुआ पानी बह जाने के बाद भी कीचड़ ही देता है .....!!!!!
बहुत खूबसूरती से आपका लेख सकारात्मक सोच कि ओर बढ़ा रहा है ...!!
आधुनिक नगरो मे ये सच में हमारे कर्मो का फल है। आज सिर्फ छोटे गावोमें वर्षा का आनद उसी तरह मिलता है।
ReplyDeleteहम अपने पर्यावरण को सच में आधुनिकता के नाम पर बरर्बाद कर रहे है।
हद है..बैंगलोर में यह हालत!! सोचा तो न था
ReplyDeleteसमुचित वर्षा जल निकास की नगरीय व्यवस्था चौपट हो गयी है जलाशयों और नालो के रिहायशी समतल जमीन में बदल जाने से . यथा स्थिति बनी रही तो असमतल जमीन पर बसे शहर भी जल प्लवन की समस्या से रूबरू होंगे .
ReplyDeleteहमने सुना था, जल जमाव के कारण वहां एक बार सत्ता ही चली गई थी शासक दल की।
ReplyDeleteयह तो आज हर शहर की प्रगति का लक्षण हो गया है।
प्रकृति के साथ खिलवाड़ करते हम सोंचते ही नहीं कि हम कर क्या रहे हैं ...
ReplyDeleteशुभकामनायें !
जलाशय हो या किसान की ज़मीन, मनमोहनी इकोनॉमिक्स को बस उनकी इतनी ही ज़रूरत है कि सियासत की खेती की जा सके...वरना कंक्रीट के जंगल खड़े करने पर ही सारा फोकस टिका है...क्या आश्चर्य कि देश में जितने भी नए अरबपति सामने आ रहे हैं वो सब रियल्टी एस्टेट से ही जुड़े हैं...
ReplyDeleteजय हिंद...
प्रकृति को विकृत करने का सरवाधिक अपराध हमारी पीढ़ी का है .
ReplyDeleteहवा ,मिट्टी पानी सब प्रदूषित ,पशु -पक्षी वन्यजीव सब ख़तरे में हैं ,और सबसे अधिक भोगना होगा हमारी ही आगत संतानों को .कैसी दुनिया छोड़ कर जा रहे हैं उनके लिए हम लोग -हमें जैसी मिली थी उससे कहीं अधिक दूषित ,विकृत ,कृत्रिम .
जी हा सच है हमने विकास करने की तेजी में सारे परिप्रेक्ष का ध्यान रखना भूल गए हैं. अब हम आगे पीछे कुछ नहीं सोचते.
ReplyDeleteविकास के नवीन फार्मूले के कारण वर्षा जल जमीन में ना जाकर सड़कों को रौंदता रहता है।
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा है आपने ... विचारात्मक प्रस्तुति ।
ReplyDeleteपानी के माध्यम से कर्मो का हिसाब किताब अच्छा लगा |
ReplyDeleteसबको कर्मों का फल मिलना तो तय है .. प्रकृति इतनी कमजोर नहीं !!
ReplyDeleteजल का स्वभाव के प्रति विवेचना के हेतु आपका स्वभाव भी तरल है
ReplyDeleteहम अपने गर्व में जल का सम्मान भूल गये तो जल भी न केवल अपना कर्म भूला वरन उल्टा एक संदेश छोड़ गया। जो जल पहले शहर की सड़कों को स्वच्छ कर जाता था, आज अपने विरोध स्वरूप उन्ही सड़कों को गन्दा करके चला गया है, हमारी विकास की नासमझी और अन्ध-लोलुपता पर करारा तमाचा मारकर।
ReplyDeleteisee thour se guzar rahe hai jee.......
naleeyo ko saaf karke kinare rakhe dher barsaat me bah kar fir naleeyo me mil jate hai.......
hum aur aap khush ho na ho macchar bahut khush hai....
sarthak lekhan.
गंभीर विषय पर आपने जिस तरह से लेखनी चलाई है, बडे शहर की तस्वीर सामने आ गई। ऐसे में अगर लेख में चित्र ना भी होता तो आपने शब्दों में सबकुछ रोचक तरीके से बयां कर दिया। बधाई
ReplyDeleteसच कहा आपने ! अभी तो जल हमसे घर के बाहर बदला ले रहा है,जल्द ही घर के अंदर भी यही हाल होना है अर्थात पीने के पानी के भी लाले पड़ने वाले हैं !
ReplyDeleteसमय रहते हमें और सरकार सभी को चेतना होगा !
ज्ञानी कह गए हैं...जैसा बोओगे वैसा काटोगे. मगर सुनता कौन है...?
ReplyDeleteअब जब पानी बहने के रास्ते रोक कर बडी इमारतें बनने लगें, तो प्रकृति को कैसे दोश दें। हर शहर का यही हाल है.... वैसे भी, २०१२ अधिक दूर नहीं है:)
ReplyDeletebahut khoob sir!
ReplyDelete.
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shilpa
प्रवीण भाई जलाशयों का विकास की भेंट चढ़ना एक गंभीर समस्या थी कल भी, और आज भी है|
ReplyDeleteआप ने सही विषय को चर्चा में लिया है| इस का एक और पहलू भी है:-
अपनी बपौती जान कर काटो न तुम जंगल
इन जंगलों में जंतुओं की बस्तियाँ भी हैं
जल जो साफ करता था रास्तों को, अब कीचड़ छोड़ के जाता है ..........जस को तस..........सही विवेचना
हमारी ये हटधर्मिता और नासमझी. विनाश तक ले जायेगी.
ReplyDeleteअब जैसा हम बोयेंगे वैसा ही तो काटेंगे………फिर भी कोई समझता नही है क्या करें।
ReplyDeleteBeautiful post .
ReplyDeleteमुंबई वालों को तो इसकी आदत हो गई है कितनी भी गन्दगी हो पानी भरा हो सभी उसी में काम पर लगे रहते है अपनी नियति मान कर कोई भी इस और ध्यान देने को तैयार नहीं है की ये सब किस कारण है उस का निवारण कैसे किया जाये | विकास की ये दौड़ सभी को नुकसान पहुंचा रही है |
ReplyDeleteअनियोजित विकास और विनाश की यही दुरभिसंधि है -यही नियति है !
ReplyDeleteगंभीर विषय पर सबकुछ रोचक तरीके से बयां कर दिया। बधाई
ReplyDeleteआदमी जो कर रहा है, आने वाली पीढ़ियां तक भुगतेंगी।
ReplyDeleteतथाकथित विकासीय यात्रा का शायद यही या इससे भीषण पड़ाव है|धन्यवाद|
ReplyDeleteसर वश कुछ नहीं ,विकास रूपी दीप तले अन्धेरा
ReplyDeleteस्वच्छ निर्झरिणी की तरह कल कल करती काम्य चिंतन धारा .. उपदेश और वह भी आनंद पूर्ण ...
ReplyDeleteअब जब सब अपना करतब दिखा रहें हैं तो प्रकृति भी पीछे क्यु रहे वो तो हमें सिर्फ आगाह करने आती है की प्रकृति से ज्यादा छेड़छाड़ ठीक नहीं | वो तो अपना कर्तव्य निभाती है अब सरकार अपना काम ठीक से न करे तो उसमे इसका क्या दोष अगर निकास का सही तरीका बनाया होता तो ऐसा कभी न होता |
ReplyDeleteबहुत खूबसूरती से बारिश के आगमन को दर्शाया आपने |
हम प्रकर्ति को नहीं छोड़ते तो प्रकर्ति हमें कहाँ छोड़ेगी
ReplyDeleteहर शहर का यही हाल है
ReplyDeleteआपको तो बेंगलोर विकास प्राधिकरण का मुखिया होना चाहिए था...कभी कभी इस बात की टीस बहुत होती है की जो लोग कुछ कर सकने की चाह रखते हैं और निरंतर एक क्षण बर्बाद किये कुछ सार्थक करने को सोचते रहते हैं उनको वो स्थान क्यों नहीं देते भगवान जिससे देश और समाज का कुछ भला हो सके...मेरा जीवन भी ऐसे क्षोभ से भरा रहा है.....
ReplyDeleteअब तो "आंखों" में छोड़ कर, सब जगह बस पानी ही पानी है ।
ReplyDeletehamari hi galtiya hain jinake karan
ReplyDeleteaaj climate main drastic changes aaye hain
hamne nature ko cheda hain ped kate,pollution badhaya
ab nature uska badla to lega ji
mere blog par bhi aaiyega...
http://iamhereonlyforu.blogspot.com/
vikas ke saath saath .......
ReplyDeletejai baba banaras......
हम अपने गर्व में जल का सम्मान भूल गये तो जल भी न केवल अपना कर्म भूला वरन उल्टा एक संदेश छोड़ गया।
ReplyDeleteइस संदेश को भी अगर लोग...अब भी समझें....
केवल जल ही नहीं , विकास-पीड़ित सभी पंच महाभूत अपना रौद्र रूप यदा-कदा प्रदर्शित करते रहे हैं।
ReplyDeleteमनुष्य ने विकासीय-बुखार में जंगल से पशुओं व वृक्षों को बाहर लखेद दिया, अब शहर के जलाशयों से जल को लखेदने का प्रयास चल रहे हैं। पशु निरीह थे, वृक्ष स्थूल थे, उन्होने हार मान ली और पुनः लौटकर नहीं आये और न ही विरोध व्यक्त किया। इन्द्र का संस्पर्श लिये जल न तो हार मानता है और न ही अपने सिद्धान्त बदलता है।
ReplyDeleteबहुत बहुत बहुत ही सही कहा आपने....
प्रकृति के पर क़तर जो मनुष्य तरक्की का दंभ भर रहा है...बस हंसा जा सकता है इसपर...
बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण...
कोटि कोटि आभार इस सार्थक पोस्ट के लिए...
ईश्वर से प्रार्थना है की यह बात लोगों के दिलों तक पहुंचे...और अब भी लोग चेत जाएँ...
कम से कम अब भी सचेत हो जायं तो कुछ उम्मीद की जा सकती है .....
ReplyDeleteकर्मों का सही आकलन करता लेख ...एक समय था जब बैंगलौर सबसे खूबसूरत शहर हुआ करता था ..
ReplyDeleteआज भी है पर अब भीड़ बहुत है
अपने चरमराते इन्फ्रास्त्रक्चर से जूझते शहर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे है.
ReplyDeleteआधुनिकता का मोल!!
ReplyDeletejaandaar post..
ReplyDeleteविकासीय-बुखार.क्या शब्द दिए हैं आपने अंधाधुंध शहरीकरण का यही परिणाम है. शानदार रिपोर्ट.
ReplyDeleteआप ने सही विषय को चर्चा में लिया है.........
ReplyDeletemanav samaj ko prerna deta hua sunder aalekh
ReplyDeletevery nice article you write this article in the meaningful way thanks for sharing this.
ReplyDeleteplz visit my website