भौतिकी का सिद्धान्त है पर समाज में हर ओर छिटका दिखायी पड़ता है। हर समय यही द्वन्द रहता है कि क्या बने, बोसॉन या फर्मिऑन। मानसिकता की गहराई हो या अनुप्राप्ति का छिछलापन, प्रचुरता की परिकल्पना हो या संसाधनों पर युद्ध, साथ साथ रह कर जूझना हो या दूसरे के सर पर पैर धरकर आगे निकलना। हर समय कोई एक पक्ष चुनना होता है हमें। हम मानवों के अन्दर का यह द्वन्द जगत की सूक्ष्मतम संरचना में भी परिलक्षित है। आईये देखें कि क्या होता है उनके परिवेश में। इस व्यवहार के क्या निष्कर्ष होते हैं और उस सिद्धान्त को किस तरह हम अपने सम्मलित भविष्य का सार्थक आकार बनाने में प्रयुक्त कर सकते हैं।
दो तरह के उपकण (सब पार्टिकल्स) होते हैं, अपने व्यवहार के आधार पर, व्यवहार जो यह निश्चित करेगा कि कण का आकार कैसा होगा। लगभग 16 प्रकार के उपकणों को इन्हीं दो विभागों में बाटा गया है, 4 बोसॉन्स और 12 फर्मिऑन्स। नामकरण हुआ है, दो महान वैज्ञानिकों के नाम पर, सत्येन्द्र नाथ बोस एवं एनरिको फर्मी जिन्होंने पदार्थ और ऊर्जा के व्यवहार को एक सशक्त गणितीय आधार दिया।
हर उपकण की एक ऊर्जा होती है, उस ऊर्जा के आधार पर उसका एक नियत स्थान होता है जिसे उसकी कक्षा कहते हैं। एक बोसॉन अपने जैसे उपकणों को अपनी ओर आकर्षित करता है और उसके साथ रहकर अपनी ऊर्जा कई गुना बढ़ाता जाता है। एक फर्मिऑन अपने जैसे उपकणों को अपने पास नहीं आने देता है और समान ऊर्जा की भिन्न भिन्न कक्षाओं में रहकर एक दूसरे की निस्तेज करता रहता है।
जब बोसॉन मिलना प्रारम्भ करते हैं तो लेज़र जैसी सशक्त संरचना बनाते हैं, इतनी सशक्त जो बिना अपना तेज खोये हजारों मील जा सकती हैं, इतनी सशक्त जो मीटर भर के लौह को सफाई से काट सकती है, इतनी सशक्त जो किसी भी माध्यम से टकराकर बिखरती नहीं है। कारण सीधा सा है, अपने जैसों को अपने साथ लेकर चलना ही बोसॉन्स को इतनी शक्ति दे जाता है। फर्मिऑन्स साधारण कणों का निर्माण करते हैं, हर जगह पाये जाने वाले, अपनी अपनी कक्षा में सुरक्षित।
आईये, अपने अपने हृदय पर हाथ रख स्वयं से पूछें कि हमारे सम्पर्क में हमारी जैसी प्रतिभा वाला, हमारे जैसे गुणों वाला कोई व्यक्तित्व आता है तो हमारे अन्दर का बोसॉन तत्व जागता है या फर्मिऑन तत्व। न जाने कितनी बार हमारा विश्वास हिल जाता है कि कहीं यह हमारा स्थान न ले ले या हमसे आगे न निकल जाये। हमें अपनी कक्षा असुरक्षित सी लगने लगती है, हम उसे अपनी कक्षा में आने नहीं देते हैं, हम फर्मिऑन बन जाते हैं।
कई समुदायों को देखा है कि अपनों को सदा ही साथ लेकर चलते हैं, अपनी कक्षा में थोड़ा और स्थान बना लेते हैं, वे प्रचुरता की परिकल्पना के उपासक होते हैं, उन्हें लगता है कि उनके क्षेत्र में सबके लिये संभावनायें हैं। जिस समय भारत में सत्ता के लिये राजपुत्रों का संघर्ष एक लज्जाजनक इतिहास लिखने को तैयार था, यूरोप में प्रचुरता के उपासक नये महाद्वीप ढूढ़ने में व्यस्त थे। पृथ्वी उर्वरा है, उसके अन्दर हम जैसी 6 जनसंख्याओं का पालने का सामर्थ्य है पर हम बीघा भर भूमि के लिये उसे अपने भाईयों के रक्त से सींच देते हैं। यह हमारी मानसिकता ही है जो हमें प्रचुरता की स्थिति में भी सीमितता का आभास देती है।
गरीबी में साथ साथ रहना है, कष्ट में साथ साथ रहना है, विपत्ति में साथ साथ रहना है, वैभव होगा तब अन्य विषयों पर शास्त्रार्थ कर लेंगे। आप निर्धारित कर लें कि आपको लेज़र बनना है कि धूल बनकर पड़े रहना अपनी अपनी कक्षाओं में सुरक्षित। आप निर्धारित कर लें कि आपको बोसॉन बनना है या फर्मिऑन।
ham to bhai apne jaise guni ko paakar aage kar dete hain, kuchh maukon par hame hi bewakoof samjha jata hai kyonki aaj zamaana Bosaan ki tarah nahin banna chahta, fir bhi aisa banna achchha aur aatmik sukh pradaan karne wala hai !
ReplyDeleteबोसॉनीय उत्सव मनाना ही सही है..कितनी मानसिकता बदलनी होगी मगर अपनी ही..
ReplyDeleteएक मानव ही है जिसमें दोनो गुण विद्यमान रहते हैं। अवसर देख चुनाव करता है।
ReplyDeleteफर्मिऑन भी एक मानवीय प्रवृति ही है जरुर मगर अंततः बनना बोसॉन ही है ...!
ReplyDeleteयह द्वंद्व ही जीवन का सौंदर्य रचता है.
ReplyDeleteजय हो! हिन्दी ब्लॉग्स की सुन्दरतम प्रविष्टियों में से एक। आपने भौतिकी के माध्यम से इतने सुन्दर विचार सामने रखे! आभार!
ReplyDeleteमानव स्वभाव विचित्रताओं से भरा हुआ है जिसे लगातार सार्थक चिंतन से ही सही निष्कर्ष तक पहुँचाने में मदद मिलता है.....निश्चय ही मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिए मनुष्य को अपने हर कर्म व हर बढ़ते कदम के प्रयास में मनुष्यता के कल्याण के लिए कुछ नया और सार्थक करने की भावना से काम करना चाहिए ,मनुष्य अपार शक्ति से भरा हुआ है और एक समूह के रूप में उसकी शक्ति की कोई सीमा नहीं होती है लेकिन शक्ति का दुरूपयोग और सदुपयोग तो सोच द्वारा नियंत्रित होती है......आज दुर्भाग्य से यह कहा जा सकता है की हमारे देश में सरकार चला रही पार्टियाँ या उनके धनपशु पार्टनर उद्योगपति अपने समूह शक्ति का दुरूपयोग कर पूरी मनुष्यता को ही ख़त्म करने में लगे हुए हैं झूठी सत्ता सुख और 6000 करोड़ के घर में रहने के पागलपन की सुख की चाह के चलते.......मनुष्य को मनुष्यता को अपने साथ लेकर की विकाश की सीढियाँ चढ़नी चाहिए अन्यथा विकाश और विनाश में कोई अंतर नहीं रह जायेगा ....?
ReplyDeleteआपके इस सार्थक लेख ने मेरे सोच को एक सार्थक उर्जा से भर दिया है क्योकि आज के बेढंगी परिस्थितियों में कभी-कभी अच्छे,सच्चे,इमानदार लोगों को अपने अच्छे प्रयास में आशातीत सफलता नहीं मिलने से जीवन से निरासा होने लगती है ...लेकिन ऐसे विचारों से उसे आगे बढ़ने की एक नयी ताजगी मिल जाती है.........मेरे ख्याल में ये शानदार ब्लोगिंग है और समाज में सही सोच को मजबूती देना ही ब्लोगिंग और संचार माध्यम का असल उद्देश्य होना चाहिए............
आपके इस लेख से मैं इतना प्रभावित हुआ हूँ की इसे अपने फेसबुक वाल पे शेयर कर रहा हूँ......."शानदार ब्लोगिंग का उदाहरण" शीर्षक से .....इस ब्लॉग को हर किसी को पढना चाहिए तथा ऐसी ही ब्लोगिंग करनी चाहिए .....आपको कोई ऐतराज तो नहीं....?
ReplyDeleteबोसॉनीय उत्सव मनाना ही सही है|धन्यवाद|
ReplyDeleteवैज्ञानिक शब्दावली और जीवन दर्शन सुंदर मेल किया है आपने....... बोसॉन बनने की इच्छा है हमेशा ताकि जीवन भी एक उत्सव हो साथ साथ जीने का, आगे बढ़ने का .... मेरे अपने लिए ही नहीं जो भी मुझसे जुड़ा हो उसके लिए भी..... बोसॉन और फर्मिऑन दोनों शब्द मेरे लिए नए थे इन्हें जानकर.. समझकर अच्छा लगा ....धन्यवाद
ReplyDelete.
ReplyDeleteSatyendra Nath Bose, Great Physicist famous for 'Bose-einstein condensation'.
Once Fermi, another physicist was accompanying him to his college in erstwhile Calcutta in his car. Several students of Bose met in the way.Every time Bose stopped and got one student in his car. Car was full now.Students started to sit on the roof.
Fermi was frustrated.
Who are they? he asked.
Bose replied 'they are BOSONS, my students, all of them may come in my car"
Fermi returned to his country and coined another term- FERMIONS- only one can be in one state (car).
Although both the terms are important in physics but the choice reflects the culture of respective countries.
We believe in inclusion and collective presence(e.g. joint family) whereas Europeans believe in exclusion and give priority to individuality and not society.
So I will vote for Boson.
.
बहुत संदेशात्मक रचना।
ReplyDeleteशानदार ब्लोगिंग
ReplyDeleteaam taur per dwand khatm kahan hota hai
ReplyDeleteबहुर सुन्दर भाई ...
ReplyDeleteईर्ष्या ही फर्मियान्स उत्पन्न करती है मानवीय समाज में. और प्रतिस्पर्धा भी. अवचेतन में कहीं न कहीं असुरक्षा की भावना भी फर्मियान्स उत्पन्न करती है. लेकिन सत्य तो एक ही है. बोसान.
ReplyDeleteसाइंटिफिक नज़रिए से , व्यक्तित्व आकलन बड़ा अच्छा लगा, साथ ही बोसॉन्स और फर्मिऑन्स के गुण जानने का मौका भी मिला !
ReplyDeleteहम तो, फर्मिऑन्स जैसी जलेसी रखने के मुकाबले, आप जैसे किसी मज़बूत बोसॉन्स की संगति ढूंढ रहे हैं :-)
शुभकामनायें !
chahat to Bossons jaisee banane ki hoti hai...lekin aam jindagi me aisa ho nahi pata...!
ReplyDeleteek sarthak lekh ke bahut bahut badhai !
maine iss lekh ko facebook pe share kar raha hoon..........bina aapse puchhe:)
यह द्वंद्व तो चलता ही रहता है ....बेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबोसोन होना चाहते हैं,
ReplyDeleteलेकिन उस के लिए पहले अपनों के साथ मजबूत अटूट बंधन बनाना तो सीखना होगा।
चराचर जगत के यथार्थ निर्वाह के लिए भौतिकी के इस सिद्धांत से उपजे दोनों कणों की उपयोगिता है.
ReplyDeleteजाट देवता की राम राम,
ReplyDeleteबहुत खूब, अब लगता है, बार-बार आना पडेगा
जाट देवता की राम राम,
ReplyDeleteटिप्पणी तो तुरन्त प्रकाशित होने दिजिए ,पान्डेय जी,
वाह....साईंटिफिक पोस्ट, मजा आ गया...हाँ, वैसे ये बता दूँ की मेरा फिजिक्स कोई खास मजबूत नहीं था :)
ReplyDeleteapne ko badal le dunia badal gayagee.......
ReplyDeletejai baba banaras......
बोसान और फर्मी के प्रतीकों से बहुत सटीक बात कही आपने।
ReplyDeleteदेखा जाये तो बोसान प्रवृत्ति ही सत्य है क्योकिं हम और आप ही नहीं सारा अस्तित्त्व ही जुड़ा हुआ है एक दूसरे से। सूदूर सूर्य यदि ठंड़ा हो जाये तो इस पृथ्वी पर जीवन भी समाप्त हो जायेगा।
फर्मी प्रवृत्ति मिथ्या है, जो किन्ही परिस्थेतियों में तो सत्य लग सकती है परंतु विस्तृत अर्थों में सत्य नहीं, भ्रम है।
विचारणीय आलेख्।
ReplyDeleteकई लोग टैकियान बनने के चक्कर में न तो बोसॉन बन पाते हैं फर्मिऑन।:)
ReplyDeleteहम भी है लगे हुए बोसान के पीछे . शानदार ब्लॉग्गिंग .
ReplyDeleteबहुत ही सटीक विश्लेषण....
ReplyDeleteसुन्दर विचार सामने रखे
ReplyDeleteबहुत सटीक बात कही आपने। बेहतरीन प्रस्तुति ।
सुन्दर विचार सामने रखे
ReplyDeleteबहुत सटीक बात कही आपने। बेहतरीन प्रस्तुति ।
संगठन में शक्ति है! एकता में बल है! शक्ति (बल) का संघठित प्रयोग जगत कल्याण के लिए होना चाहिए, परहित के लिए होना चाहिए वरना ये अपार संगठित शक्ति जगत का विनाश भी कर सकती है! इस लिए हम बोसॉन (देव कण) अवश्य बनें मगर जगत कल्याण के लिए! हम फर्मिऑन (असुर कण) बनकर जगत के विनाश के लिए संगठित न हों, इससे तो अच्छा है हम अकेले अपनी कक्षा में पड़े रहें, अगर किसी का भला नहीं कर सकते तो बुरा भी न करें! वसुधैव कुटुम्बकम!
ReplyDeleteबहुत ही सटीक विश्लेषण| धन्यवाद|
ReplyDeleteबढ़िया पोस्ट है.शानदार विश्लेषण.
ReplyDeleteहम सब अभी तो फर्मिऑन ही बने हे, इसी लिये हर कोई अपनी मर्जी से हमे हांक रहा हे, जिस दिन हम बोसॉन बनेगे उस दिन हम हांके के इस दुनिया को, बहुत सुंदर लेख, धन्यवाद
ReplyDeleteकैसे-कैसे विषय और कैसे-कैसे तालमेल । वाह...
ReplyDeleteबाप रे..... बौदिकता और भौतिकता भरा आलेख.
ReplyDeleteनहीं समझ आया
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट है. मनुष्य में विशेष बात उसकी निर्णय लेने की शक्ति है कि वह कैसा बनना चाहता है. मानव में चेतन शक्ति का होना इसे प्रत्येक बात का साक्षी बनाता है और निर्णय लेने के कई विकल्प देता है.
ReplyDeleteनई जानकारी देने के लिए आभार.
जरा और पीछे जा कर निहारें तो लगता है कि भौतिकी के बोसान और फर्मिऑन वेदांत के ब्रह्म और माया हैं, सांख्य के पुरुष और प्रकृति हैं। इसी द्वंद्व से ही सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश है।
ReplyDeleteखास बात यह है कि गणित और भौतिकी के सिद्धांत तथा मानव व्यवहार के सिद्धांत समानांतर चलते प्रतीत होते हैं।
उच्च स्तरीय चिंतन, उत्तम लेखन।
बौद्धिक विचारों की भौतिकी के माध्यम से प्रस्तुति !!!!
ReplyDeleteवाह ! अनूठा प्रयोग....
मनुष्य भौतिकी से आत्मिक शक्तियां ग्रहण करने की बजाय
भौतिकता की ओर भागता हुआ अपनी आत्मिक शक्तियों को
खोता जा रहा है .उर्जावान विचारों से इसे जगाना जरुरी है.
अनूठे लेख के लिए बधाइयाँ...
बौद्धिक विचारों की भौतिकी के माध्यम से प्रस्तुति !!!!
ReplyDeleteवाह ! अनूठा प्रयोग....
मनुष्य भौतिकी से आत्मिक शक्तियां ग्रहण करने की बजाय
भौतिकता की ओर भागता हुआ अपनी आत्मिक शक्तियों को
खोता जा रहा है .उर्जावान विचारों से इसे जगाना जरुरी है.
अनूठे लेख के लिए बधाइयाँ...
बौद्धिक विचारों की भौतिकी के माध्यम से प्रस्तुति !!!!
ReplyDeleteवाह ! अनूठा प्रयोग....
मनुष्य भौतिकी से आत्मिक शक्तियां ग्रहण करने की बजाय
भौतिकता की ओर भागता हुआ अपनी आत्मिक शक्तियों को
खोता जा रहा है .उर्जावान विचारों से इसे जगाना जरुरी है.
अनूठे लेख के लिए बधाइयाँ...
प्रवीण भाई,
ReplyDeleteन हम बोसॉन है, न फर्मिऑन, हम तो हैं बस छिछोरिऑन...
इस बारे में ज़्यादा जानना है तो आज रात को मेरी पोस्ट पर आना पड़ेगा...
जय हिंद...
सर्वश्रेष्ठ पोस्ट |
ReplyDeleteबोसोन तो हम बनना चाहते है किन्तु फर्मियान तत्व विद्यमान होने से बोसोन बनने में बहुत समय व्यर्थ चला जाता है |
हमें अपनी कक्षा असुरक्षित सी लगने लगती है, हम उसे अपनी कक्षा में आने नहीं देते हैं, हम फर्मिऑन बन जाते हैं।
ReplyDeleteयह मानवीय गुण है ...
बहुत अच्छा सन्देश देता लेख ..
आप निर्धारित कर लें कि आपको बोसॉन बनना है या फर्मिऑन..
अब तो सोचना ही होगा ..कोई यूँ ही धूल में तो नहीं मिलना चाहता ..
बोसॉन और फर्मिऑन तो आपने बता दिया पर .... टैकियान क्या है ? इसकी भी जानकारी मिल जाती तो बेहतर था ..
चमत्कृत कर देनेवाली पोस्ट है आपकी. क्वांटम भौतिकी से मानवी प्रकृति की तुलना अद्भुत है. हम सभी अलग-अलग फ्लेवर्स के क्वांटम कण हैं. कुछ थोड़े से बोसोन हैं तो बहुत से फर्मियौना. और शायद हम लोगों में ही कोई छुपा हुआ हिग्स बोसोन हो जो अपनी तरह का एक ही कण है, सर्वथा असम्पृक्त, जिसका कर्म ही है नए कणों रचना करना.
ReplyDeleteऔर जिस तरह सैद्धांतिक भौतिकविदों को अपने प्रयोगों में अनूठी विमायें जोड़ने पर और भी दुर्लभ कण मिलते हैं, क्या पता हम भी अपने जीवन में नई विमायें जोड़ें तो हमें भी दूसरों में स्थित दुर्लभता और दैवीयता दृष्टिगोचर होने लगे!
physics इसीलिए कहते हैं शायद इस विषय को... और द्वन्द तो जरूरी है वर्ना पता कैसे चलेगा कि हमारे अन्दर कौन सा तत्त्व, कौन सा सिध्हंत ज्यादा विद्यमान है...
ReplyDeleteबहुत ही शानदार लेख... और बहुत ही ध्यान से पढने और सोच पर विचार करने को मजबूर करनेवाला...
बहुत-बहुत शुक्रिया...
बढ़िया विश्लेषण।
ReplyDeleteमै क्या हूँ ????? सोच रही हूँ.....
ReplyDeleteउत्तम पोस्ट....शुक्रिया........
हम तो कभी भी असुरक्षा बोध से ग्रसित नहीं हुए इसलिए हमेशा यही प्रयास रहा कि लोगों को साथ लेकर चलें लेकिन यह भी कटु सत्य है कि हमें कोई भी बोर्सोन नहीं मिला। जीवन संघर्ष का दूसरा नाम है इसलिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं।
ReplyDeleteyah nirbhar karta hai man/soch ki entropy par ki vah kis 'state of diorderliness' me hai.....
ReplyDeletehttp://amit-nivedit.blogspot.com/2010/11/entropy.html
निशांत मिश्र - Nishant Mishra ने कहा…
ReplyDeleteचमत्कृत कर देनेवाली पोस्ट है आपकी. क्वांटम भौतिकी से मानवी प्रकृति की तुलना अद्भुत है. हम सभी अलग-अलग फ्लेवर्स के क्वांटम कण हैं. कुछ थोड़े से बोसोन हैं तो बहुत से फर्मियौना. और शायद हम लोगों में ही कोई छुपा हुआ हिग्स बोसोन हो जो अपनी तरह का एक ही कण है, सर्वथा असम्पृक्त, जिसका कर्म ही है नए कणों रचना करना.
और जिस तरह सैद्धांतिक भौतिकविदों को अपने प्रयोगों में अनूठी विमायें जोड़ने पर और भी दुर्लभ कण मिलते हैं, क्या पता हम भी अपने जीवन में नई विमायें जोड़ें तो हमें भी दूसरों में स्थित दुर्लभता और दैवीयता दृष्टिगोचर होने लगे!
हम इस टिप्पणी से पूरी तरह सहमत है !
आईये, अपने अपने हृदय पर हाथ रख स्वयं से पूछें कि हमारे सम्पर्क में हमारी जैसी प्रतिभा वाला, हमारे जैसे गुणों वाला कोई व्यक्तित्व आता है तो हमारे अन्दर का बोसॉन तत्व जागता है या फर्मिऑन तत्व। बहुत ही सुन्दर सब कुछ नया ! मै तो zeal के टिपण्णी के साथ हूँ सर !
ReplyDeleteवैज्ञानिक दृष्टिकोण से लिखी तमाम संभावनाओं को तलाशती और उर्जा प्रदान करती सार्थक पोस्ट.
ReplyDeleteप्रवीण जी सदा की तरह ही अति सुन्दर भाव-व्याख्या। साधुवाद।
ReplyDeleteराम और भरत का प्रेम इसी बोसानीय उत्सव का ,सजीव उदाहरण है, जबकि कौरवों का पांडवों के प्रति दुराग्रह कि " शुच्यग्रम न दास्यामि, बिना युद्ध्येन केशवः।" इसी फर्मियानिक विद्वेष की पराकाष्ठा । यक्षप्रश्न तो यह है कि सब कुछ जान और सुनकर भी हम अपने भूत व इतिहास से कुछ सबक क्यों नही ले पाते?
ek sandesh liye sarthak post manav vybhaar ko vishleshit kattee amit chap chodne me saksham...
ReplyDeletekya bahi aap to vibhinn kshetron ke maharathi hain...maine to inke baare me suna bhi nahi tha...ya suna bhi hoga to kuch yaad nahi...thanks for this interesting info.
ReplyDeleteबेहद दिलचस्प...काश इतने ही रोचक ढंग से बच्चों विज्ञान पढ़ाया जाए..मुझे लगता है हममें दोनो ही तत्व मौजूद होते हैं...बस कैसे एक को सक्रिय रख पाएँ यही महत्त्वपूर्ण है...
ReplyDeleteज्ञानवर्धक लेख के लिए हार्दिक धन्यवाद!
ReplyDelete@ संतोष त्रिवेदी
ReplyDeleteअपने जैसों को अपनाकर उनका परिचय कराना भले ही बेवकूफी समझा जाये पर उचित वही है। आपका समकक्ष ही आपकी क्षमताओं का सही आकलन कर सकता है, यह तो करना ही होगा, निष्कर्ष कुछ भी हो।
@ Udan Tashtari
यह तो निश्चित ही है कि अपने जैसों को साथ लेकर चलने से ही बोसॉनीय उत्सव मनेगा।
@ देवेन्द्र पाण्डेय
अवसरवादिता तो फर्मियॉन ही बनायेंगी।
@ वाणी गीत
यदि फर्मियॉन का एकान्त बोसॉन बनने को विवश करे तो भी ठीक है, अन्त भला तो सब भला।
@ Rahul Singh
यह द्वन्द रोचकता बनाये रखता है।
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
ReplyDeleteगूढ़तम उपकण भी हृदय की तरह ही कार्य करते हैं।
@ honesty project democracy
मुझे प्रसन्नता है कि आपने लेख इस योग्य समझा। सच में जो लूट मची है, फर्मियॉन मानसिकता का चरम है। साथ मिलकर चलने का सुख उन्हें कहाँ ज्ञात।
@ Patali-The-Village
बहुत धन्यवाद आपका।
@ डॉ॰ मोनिका शर्मा
ये दोनों शब्द मन में पहले से ही बैठी मानसिकताओं की अभिव्यक्ति मात्र हैं। निश्चय हमें ही करना होता है कि क्या बनें।
@ ZEAL
बहुत धन्यवाद आपका, यह घटना प्रस्तुत करने के लिये, इसने पोस्ट को एक नयी विमा दी है। हमारा मन निश्चय ही बोसॉन बनना चाहेगा, परस्पर हिताय।
@ मनोज कुमार
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ Udan Tashtari
स्नेह आपका यूँ ही बना रहे।
@ रश्मि प्रभा...
द्वन्द का सही पक्ष भी समझना होगा और उसके निष्कर्ष भी।
@ परावाणी : Aravind Pandey:
बहुत धन्यवाद आपका।
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
यही असुरक्षा की भावना ही प्रचुरता में भी सीमितता का आभास देती है।
@ सतीश सक्सेना
ReplyDeleteबोसॉन्स मिलकर ही लेजर बनायेंगे, अज्ञान को ध्वस्त करने वाली।
@ Mukesh Kumar Sinha
मन में बसा भय हमें सही मार्ग में जाने से न जाने कितनी बार रोकता है।
@ सदा
बहुत धन्यवाद आपका।
@ दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi
पहले अपनों को जोड़ लें, तब अपने जैसों को जोड़ने की सोचेंगे।
@ गिरधारी खंकरियाल
इस तरह के द्वन्द से ही प्रकृति चक्र गतिशील है।
@ जाट देवता (संदीप पवांर)
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ abhi
इसके निष्कर्ष भी नितान्त सरल हैं आपकी बोसॉनीय प्रवृत्ति की तरह ही।
@ Poorviya
संभवतः वही प्रारम्भ हो बोसॉनीय मानसिकता का।
@ सम्वेदना के स्वर
पारस्परिक निर्भरता तो बोसॉनीय तत्व को ही सिद्ध करती है, यही प्रकृति का उत्तर भी है हमारी लोलुपता के लिये।
@ वन्दना
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Arvind Mishra
ReplyDeleteजिन्हें प्रकाश की गति को भी पछाड़ना हैं, उनके प्रति हमारी संवेदना है।
@ ashish
तब तो हमारी आपकी स्पिन एक ही है।
@ rashmi ravija
बहुत धन्यवाद आपका।
@ संजय भास्कर
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Gaurav
संगठन में शक्ति है और इसे याद रख हमें बोसॉन बने रहना चाहिये।
@ Patali-The-Village
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ shikha varshney
बहुत धन्यवाद आपका।
@ राज भाटिय़ा
सच में, जिस दिन हम बोसॉन बन गये, हम शक्तिशाली हो जायेंगे।
@ सुशील बाकलीवाल
बहुत धन्यवाद आपका।
@ दीपक बाबा
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Kajal Kumar
ReplyDeleteमिलकर चला हो या अपने जैसों को छोड़कर चलना हो।
@ Bhushan
उसे यही निर्णय लेना है कि वह अकेले चले कि सबके साथ।
@ mahendra verma
द्वन्द का सही हिस्सा हमारे हाथ में हो, प्रकृति में तो दोनों ही रहेंगे।
@ अरुण कुमार निगम
भौतिकी के मर्म को समझे बिना भौतिकता के पीछे भागना हानिकारक है।
@ खुशदीप सहगल
आपका आलेख बड़ा अच्छा लगा, न साथ रहना चाहते हैं, न ही दूर जाते हैं, बस छिछोरापन ही कर पाते हैं।
@ शोभना चौरे
ReplyDeleteयदि ऐश्वर्य में जीना है तो फर्मियॉन तत्वों को भुलाना होगा।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
टैकियॉन प्रकाश की गति से भी तेज चलने वाले उपकण होते हैं, हवा में रहते हैं, हर समय। बोसॉन बनकर हमें अपना सम्मिलित भविष्य रचना होगा।
@ निशांत मिश्र - Nishant Mishra
हमें तो कब से उस कण की प्रतीक्षा है जो नवकणों का निर्माण कर सके। हमें अपने तरह के कणों का साथ तो द्ना ही होगा तभी हम प्रभावी हो सकेंगे।
@ POOJA...
द्वन्द आवश्यक है प्रकृति को चलाने के लिये पर द्वन्द के किस हिस्से में रहना श्रेयस्कर है, वह निर्णय तो हमें ही करना होगा।
@ सतीश पंचम
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Archana
ReplyDeleteआप बोसॉन हैं।
@ ajit gupta
औरों को साथ लेकर चलने से कटु सत्य भी मिलेंगे, पर वही करना होगा, अपने जैसे कण भी मिलेंगे।
@ amit-nivedita
इन्ट्रॉपी वाली पोस्ट बहुत ही अच्छी लगी, कुछ इन्ट्रॉपी लाभदायक भी होती हैं।
@ Ashish Shrivastava
नवनिर्माण भी ही करना होगा और वह केवल बोसॉन ही कर सकता है।
@ G.N.SHAW ( B.TECH )
हमें अन्ततः बोसॉन ही बनना होगा।
@ रचना दीक्षित
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ देवेन्द्र
आपने शास्त्रों से लाकर बोसॉन और फर्मियॉन के उदाहरण रख दिये। हमें इतिहास से सीखना होगा।
@ Apanatva
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Gopal Mishra
ये उपकण सूक्ष्तम संरचनायें हैं, मन की तरह ही।
@ मीनाक्षी
विज्ञान को समझ कर पढ़ाने में रोचकता आ ही जाती है, बोसॉन को ही सक्रिय रखना होगा।
इस द्वन्द में ही अवसरवादी और मानवीय गुणों में अन्तर पता चल पाता है ।
ReplyDeleteअपनी कोठरी में सुरक्षा तलाशने का कोई अर्थ नहीं.जिन्दगी कारा के बाहर होती है लेकिन अक्सर हम खुद यह कारा तैयार करते हैं.
ReplyDeleteवैज्ञानिक शब्दावली देख कर शुरू में यह समझती रही कि मैं इसे नहीं ग्रहण कर पाऊँगी और पढ़ा ही नहीं था .
ReplyDeleteआज पढ़ा तो मान गई आपका लोहा और प्रतिपादन की सामर्थ्य !
प्रभावित हूँ प्रवीण जी, इस सार्थक चिन्तन से ,कृतज्ञ भी हूँ !
@ nivedita
ReplyDeleteऔर ईश्वर आपकी स्थिति स्पष्ट करने के लिये इस तरह के द्वन्द भेजते भी रहते हैं।
@ संतोष पाण्डेय
अपनी कक्षा में सुरक्षित रहने के प्रयास में हम जग से विलग हो जाते हैं।
@ प्रतिभा सक्सेना
वैज्ञानिक भाषा इतनी कठिन नहीं है, उपकण भी मानवीय गुणों से प्रभावित हैं।
जीवन में यह द्वंद्व चलता रहता है ..लेकिन अंततः परिणाम एक ही रहता है ....और वही सत्य है उसे चाहे कुछ भी कह लें
ReplyDeletenice
ReplyDeleteहम भारतीय हैं तो बोसॉन होंगे ना ????? :)
ReplyDelete@ : केवल राम :
ReplyDeleteअन्ततः हमें बोसॉन ही बनना पड़ेगा।
@ सारा सच
बहुत धन्यवाद आपका।
@ cmpershad
हम बोसॉन होना चाहते हैं पर हमारी क्षुद्रतायें आड़े आ जाती हैं।
बात नई नहीं है किन्तु प्रस्तुति अद्भुत, रोचक और अत्यन्त प्रभावी।
ReplyDeleteमध्य प्रदेश में एक शिक्षा राज्य मन्त्री हुए थे - रावल साहब। प्रखर समाजवादी थे। उनका कहना था कि 'संगठित दुर्जन और असंगठित सज्जन' हमारा सबसे बडा संकट है।
आपकी पोस्ट इसी बात को यूँ कह रही है - हमारे सज्जन फर्मिऑन हैं और दुर्जन बोसॉन।
@ विष्णु बैरागी
ReplyDeleteजब मानवीय गुण उपकणों में दिखने लगें तो प्रसंग और रोचक हो जाता है।
साइंस के गूढ़ तत्वों से बात शुरू कर आपने उसे बहुत सार्थक ढंग से विस्तार दिया है...आपकी लेखन क्षमता अनुकरणीय है...बधाई स्वीकारें...
ReplyDeleteनीरज
@ नीरज गोस्वामी
ReplyDeleteप्रश्न तो यह है कि मानव ने उपकणों के गुण स्वीकारे या उपकण मानवों का व्यवहार देख दूषित हुये?
क्या कमाल की पोस्ट है । हमारे अंदर दोनो ही त्तत्व विद्य़मान हैं हम किसे आगे बढाते हैं यह हम पर निर्भर है । थोडी फिजिक्स भी पढ ली आप की इस पोस्ट के कारण । कोशिश करें कि बोसॉनीय कणों का आधिक्य हो ।
ReplyDeleteबनना तो बोसॉन टाईप का ही चाहते रहे हैं, ये तो साथी लोग ही बता सकते हैं कि बोसॉन हैं या फ़र्मिआन।
ReplyDeleteकितनी सुन्दर विवेचना की आपने भौतिकी के इस सिंद्धांत की और उसके द्वारा आपने जो सन्देश हम तक पहुचाया वह अनुकरणीय है... वाकई मे हम तो बोसोंस बना चाहेंगे ...
ReplyDelete@ Mrs. Asha Joglekar
ReplyDeleteजब तक बोसॉनीय कणों का आधिक्य नहीं होगा, समाज विघटित होता रहेगा।
@ संजय @ मो सम कौन ?
अगर साथी संगी बतायेंगे तो आपको बोसॉन ही कहेंगे।
@ डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति
सब मिलकर समृद्धि को प्राप्त हों।
भौतिकी के सिद्धांत की क्या सुन्दर प्रस्तुति की है आपने.यह पसंद आया कि
ReplyDelete"गरीबी में साथ साथ रहना है, कष्ट में साथ साथ रहना है, विपत्ति में साथ साथ रहना है, वैभव होगा तब अन्य विषयों पर शास्त्रार्थ कर लेंगे। आप निर्धारित कर लें कि आपको लेज़र बनना है कि धूल बनकर पड़े रहना अपनी अपनी कक्षाओं में सुरक्षित। आप निर्धारित कर लें कि आपको बोसॉन बनना है या फर्मिऑन। [Image] बोसॉनीय उत्सव"
@ Rakesh Kumar
ReplyDeleteसाथ साथ रह कर दुख झेला जा सकता है, उस पर विजय पायी जा सकती है।
भोथिकी के माध्यम से मानव सोच को विश्लेषित कर दिया आपने तो .... बहुत ही कमाल की पोस्ट ...
ReplyDelete@ दिगम्बर नासवा
ReplyDeleteभौतिकी के उपकण भी मानव सम्बन्धों को इतनी निकटता से समझ पाते हैं, आश्चर्य तो इस बात का हो रहा है।
हम तो बोसोन ही होना चाहते हैं। सिन्दर आलेख।
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