घर से कार्यालय की दूरी है, 2 किमी जाते समय, 1 किमी आते समय, कारण वन वे। वैसे भी कार्यालय जाते समय अपेक्षाओं का भारीपन रहता है, गुरुतर उत्तरदायित्वों का निर्वहन, वहीं दूसरी ओर घर आते समय परिवार के साथ समय बिताने का हल्कापन। यदि आने जाने की दूरियाँ बराबर भी हो तब भी हम सबके लिये घर पहुँचना बड़ा ही शीघ्र होता है, कार्यालय पहुँचने की तुलना में। एक ओर अपेक्षाकृत अधिक दूरी, कार्यालयीन गुरुता और उस पर 3 ट्रैफिक सिग्नल, सब मिलकर कार्यालय पहुँचने की क्रिया को एक घटना में परिवर्तित कर देते हैं।
अभी तक 2 या 3 बार ही ऐसा हुआ है कि तीनों सिग्नल हरे मिले हैं, शेष हर बार सिग्नल का लाल आँखों को चिढ़ाता रहा है। आपके विचारों का प्रवाह आपके वाहन के कंपनों की हल्की सिहरन में रमा होता है, वाहन रुकते ही वह भी टूट जाता है, अनायास ही आप बाहर देखने लगते हैं। बहुत समय तक आसपास रुकी हुयी नवीनतम माडलों की चमचमाती कारें आकृष्ट करती रहीं, रुकी हुयीं कारों को मन भर कर देखने का समय मिल जाता है सिग्नलों में। हर आकार, अनुपात और रंगों की कारें, एक से एक मँहगी, साथ में बैठे उनके गर्वयुक्त स्वामी। जब धीरे धीरे सब मॉडल याद हो गये, कारों पर ध्यान जाना स्वतः रुक गया। आँख बंद कर संगीत में रमना भी नहीं हो पाता है क्योंकि कुछ देर पहले स्नान कर लेने से आँखें भी बन्द होने से मना कर देती हैं, बस सजग हो खुली रहना चाहती हैं। अपने वाहन में बैठ आगे खड़े लोगों की पीठ ताकने में कभी भी रुचि नहीं रही, अतः आँखें कुछ और ढूढ़ने लगती हैं।
प्रयास करता हूँ ढूढ़ने का, कि रुके हुये वाहनों और सड़क के किनारे खड़ी अट्टालिकाओं के ऊपर कहीं कोई छोटी सी खिड़की खुली हो जिससे झाँक कर आसमान की बिसरी हुयी नीलिमा निहारी जा सके, पर वह स्थान तो घेर लिया है विज्ञापनों की बड़ी बड़ी होर्डिगों ने। हर तरह के उत्पाद के लिये विज्ञापन, एक नये तरह का, तथ्यात्मक कम और संवादात्मक अधिक। कुछ होर्डिंग तो इतने बड़े कि एक किमी पहले से ही किसी स्वप्न-सुन्दरी का खिलखिलाता हुआ चेहरा दिखने लगता है, बाट जोहता हुआ। आपको भी लगता है जैसे वह आपके लिये ही वह मुस्करा रही हैं, आपके लिये ही समर्पित हैं उनका सौन्दर्य। इस तथाकथित समर्पण से हम भारतीय भी इतने भावानात्मक हो जाते हैं कि देखने लगते हैं कि क्या संदेश दे रही हैं उनकी स्वप्नप्रिया। वहीं दूसरी ओर अभिनेतागण भी अपना शरीर सौष्ठव व ज्ञानभरी भावभंगिमा दिखाने से नहीं चूकते, बस आप उनके बताये हुये साबुन से स्नान कर लें। जो भी हो, आप थोड़ी देर के लिये उनकी रोचकता में उलझ जाते हैं और वह ध्यानस्थता तभी टूटती है जब अगली होर्डिंग पर आपकी दृष्टि पहुँचती है।
विज्ञापन क्षेत्र के केन्द्रबिन्दु में यही एक तथ्य है कि किस प्रकार आपका अधिकतम समय उसे निहारने में व्यतीत हो। आप जितना समय उसे देखेंगे उतनी ही संभावना बढ़ जायेगी की वह आपके अवचेतन में स्थान बना ले। अवचेतन में बस जाने के बाद एक तो आपके अन्दर उस उत्पाद के प्रति आसक्ति हो जायेगी और यदि कभी खरीदने का मन बना तो बस वही याद आयेगा, खिलखिलाता, हँसता विज्ञापन। इतना सब हो जाने के पश्चात औपचारिकता मात्र रह जाता है उसे खरीदना।
रोचकता बढ़ाने के लिये क्या नहीं कर डालते हैं लोग विज्ञापनों में, कभी अभिनेता, कभी विचित्र संदेश, कभी भावुकता, कभी आकर्षण और न जाने क्या क्या। प्रस्तुतीकरण की रूपरेखा बनाने के लिये उत्कृष्ट मस्तिष्कों की पूरी सेना लगी रहती है। सर्वप्रथम विज्ञापन बनाने का व्यय, बड़े मॉडल को दिया गया मूल्य, उस विज्ञापन को लगाने का व्यय और अन्त में उसे विशेष स्थान में लगाने का व्यय। इतना अधिक धन लगाने से आपके द्वारा खरीदा गया उत्पाद लगभग 10 प्रतिशत तक मँहगा हो जाता है, वह जाता है आपकी ही जेब से।
हर विज्ञापन देखने का मूल्य है, उसे मन में बसा लेने का और भी अधिक। कार्यालय तक पहुँचने के 2 किमी में लगभग 100 बड़े होर्डिंग लगे हैं, हर दिन देखता हूँ और माह के अन्त में बैंक बैलेंस पिछले माह जैसा ही। कार्यालय जाने का भारीपन और बढ़ जाता है। अब सोचता हूँ कि कैसे भी हो, आँख बन्द कर संगीत सुनना श्रेयस्कर है। देखिये न, गाना भी विषय में डूबा हुआ है...
तुमसे मिली नज़र कि मेरे होश उड़ गये,
ऐसा हुआ असर कि मेरे होश उड़ गये।
इस तथाकथित समर्पण से हम भारतीय भी इतने भावानात्मक हो जाते हैं कि देखने लगते हैं कि क्या संदेश दे रही हैं उनकी स्वप्नप्रिया।
ReplyDelete-हा हा!! बहुत शानदार अवलोकन...:)
विज्ञापन आपका ध्यान खींच लेने के इत्ती मेहनत से बनाये जाते हैं और आप हैं कि आँख मींच लेना चाह रहे हैं...
घर से कार्यालय बस २ कि.मी. तो शायद २-३ गाने ही सुन पाते होंगे, पर अगर आँख बंद करके मनन कर अच्छे गाने सुनते हैं तो अलग ही आनंद है, आजकल हम भी यही कार्यक्रम कर रहे हैं।
ReplyDeleteविज्ञापनों का असर सीधे बैंक बैलेंस और क्रेडिट कार्ड पर पढ़ रहा है\
विज्ञापन विपणन का वाहन है. आपने बहुत कोमल मन से इसे देखा है. बहुत अच्छी पोस्ट.
ReplyDeleteविज्ञापनों की रचनात्मकता आकर्षक तो होती है, चाहे वह चित्र हों या भाषा.
ReplyDeleteआज आपकी विज्ञापन मुस्कराहट का राज़ पाता चला. :)
ReplyDeleteविज्ञापनों का मूल्य तो है ही, होर्डिंग/बिलबोर्ड्स का एक छिपा हुआ मूल्य भी है, सडक दुर्घटनाओं के रूप में।
ReplyDeleteआजकल विज्ञापन इमोशनल अत्याचार जैसे ही होते हैं ...
ReplyDeleteसटीक विश्लेषण !
:-) बिलकुल सही कहा आपने.... लेकिन यह विज्ञापन की दुनिया ही है जो हमें किसी भी प्रोडक्ट को जानने का मौका देती है.... वर्ना लोग तो आजकल संवाद करते नहीं आपस में...
ReplyDeleteविज्ञापनों का असर सीधे बैंक बैलेंस और क्रेडिट कार्ड पर पड़ रहा है.......
ReplyDeleteअब बात तो सही है.... कई बार इन्ही विज्ञापनों की वजह से... दिमाग पर भी असर पड़ता है.. हमारे घर से थोड़ी ही दूरी पर विशाल खंड में.... एक होअर्डिंग लगी है...खूब चमचमाती हुई.... फ्लेक्स वाली.... रात में और भी चमकती है........ उस पर लिखा है... मैन्फोर्स चोकोलेट फ्लेवर्ड कंडोम्स ...... (अब यह नहीं समझ में आता... कि कंडोम को चोकोलेट फ्लेवर्ड कर देने से क्या होगा?) हमारे एक जानने वाले डॉक्टर साहब है... कॉर्नर का घर है उनका ... और वो होअर्डिंग उनके घर से सटी हुई है... उनका आठ साल का बेटा ... उनसे कहता है की पापा मैन्फोर्स चोकोलेट लेते आना... और तो और बगल के किराने की दुकान पर जा कर उसने माँगा भी... अब यह नहीं समझ में आता की विज्ञापन का केंद्र बिंदु क्या है.... चोकोलेट... कंडोम या फिर मैन्फोर्स....? शायद इसीलिए आंबेडकर पार्क और लोहिया पार्क सुबह सुबह टहलने जाओ तो ... बहुत सारी चोकोलेटें यहाँ वहां बिखरी मिलेंगीं... आखिर उसी विज्ञापन होअर्डिंग का असर है... और यही उसका मूल्य भी... और अब नज़रें मिलती ही कहाँ हैं... अगर मिल भी जाए तो होश तो उड़ेंगे ही...
बहुत अच्छा आलेख .... अंग्रेजी में बोले तो वैरी गुड आर्टिकल ..... हेल्लो .... हाई... सॉरी... थैंक यू... टाटा...बाय - बाय... म्युचुअल फंड्स आर सब्जेक्ट टू मार्केट रिस्क ... काइंडली रिफर डोकुमेंट्स केयरफुल्ली. . .... खोपडिया में लगाइए ... टेंसन जायेगा पेंसन लेने.... गुड मोर्निंग...
विज्ञापनों का असर सीधे बैंक बैलेंस और क्रेडिट कार्ड पर पड़ रहा है.......
ReplyDeleteअब बात तो सही है.... कई बार इन्ही विज्ञापनों की वजह से... दिमाग पर भी असर पड़ता है.. हमारे घर से थोड़ी ही दूरी पर विशाल खंड में.... एक होअर्डिंग लगी है...खूब चमचमाती हुई.... फ्लेक्स वाली.... रात में और भी चमकती है........ उस पर लिखा है... मैन्फोर्स चोकोलेट फ्लेवर्ड कंडोम्स ...... (अब यह नहीं समझ में आता... कि कंडोम को चोकोलेट फ्लेवर्ड कर देने से क्या होगा?) हमारे एक जानने वाले डॉक्टर साहब है... कॉर्नर का घर है उनका ... और वो होअर्डिंग उनके घर से सटी हुई है... उनका आठ साल का बेटा ... उनसे कहता है की पापा मैन्फोर्स चोकोलेट लेते आना... और तो और बगल के किराने की दुकान पर जा कर उसने माँगा भी... अब यह नहीं समझ में आता की विज्ञापन का केंद्र बिंदु क्या है.... चोकोलेट... कंडोम या फिर मैन्फोर्स....? शायद इसीलिए आंबेडकर पार्क और लोहिया पार्क सुबह सुबह टहलने जाओ तो ... बहुत सारी चोकोलेटें यहाँ वहां बिखरी मिलेंगीं... आखिर उसी विज्ञापन होअर्डिंग का असर है... और यही उसका मूल्य भी... और अब नज़रें मिलती ही कहाँ हैं... अगर मिल भी जाए तो होश तो उड़ेंगे ही...
बहुत अच्छा आलेख .... अंग्रेजी में बोले तो वैरी गुड आर्टिकल ..... हेल्लो .... हाई... सॉरी... थैंक यू... टाटा...बाय - बाय... म्युचुअल फंड्स आर सब्जेक्ट टू मार्केट रिस्क ... काइंडली रिफर डोकुमेंट्स केयरफुल्ली. . .... खोपडिया में लगाइए ... टेंसन जायेगा पेंसन लेने.... गुड मोर्निंग...
उम्दा लगा आपका घर से ऑफिस का सफर और रोज होते अलग अलग साक्षात्कार और उनके अनुभव.
ReplyDeleteमक्खन का हिसाब आप से उलटा है...
ReplyDeleteउसे गाड़ी से कहीं जाने में एक घंटा लगता है तो वापसी में छह घंटे लगते हैं...क्यों भला...
गाड़ी को रिवर्स गियर में चलाने पर सावधानी और कम स्पीड का ध्यान तो रखना ही पड़ता है न...
जय हिंद...
बहुत सही लिखा है आपने
ReplyDelete"विज्ञापन क्षेत्र के केन्द्रबिन्दु में यही एक तथ्य है कि किस प्रकार आपका अधिकतम समय उसे निहारने में व्यतीत हो। आप जितना समय उसे देखेंगे उतनी ही संभावना बढ़ जायेगी की वह आपके अवचेतन में स्थान बना ले। अवचेतन में बस जाने के बाद एक तो आपके अन्दर उस उत्पाद के प्रति आसक्ति हो जायेगी और यदि कभी खरीदने का मन बना तो बस वही याद आयेगा, खिलखिलाता, हँसता विज्ञापन। इतना सब हो जाने के पश्चात औपचारिकता मात्र रह जाता है उसे खरीदना।"
भगवद गीता(अ.२ श्.६२ )में भी तो यही बताया गया है
"ध्यायतो विषयान पुंस: संगस्तेषूपजायते"
विषयों का चिंतन करनेवाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है.
सुंदर आलेख के लिए बधाई .
कार्यालय पहुंचना कम से कम आप जैसे उत्साह के उर्जा से हर वक्त भरे रहने वालों के लिए एक घटना में तो नहीं ही परिवर्तित होता होगा ये मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ.....
ReplyDeleteजहाँ तक विज्ञापन की बात है तो मैं इतना की कहना चाहूँगा की जिस माध्यम का उपयोग कर इस देश,समाज में व्यक्तिगत व सामाजिक गुणवत्ता को सही मायने में उत्पाद को बेचने के साथ-साथ बढाया जा सकता था की जगह मसखरापन,अश्लीलता व बेहयापन को ही विज्ञापित किया जा रहा है.......नंगापन तथा नारी का खुला मांसल सौन्दर्य जिसे सबसे ज्यादा देखने की छुपी ललक होती है मानवीय स्वभाव में को विज्ञापन कंपनिया,टीवी चेनल वाले और यहाँ तक की सरकारी विज्ञापन भी अपने विज्ञापनों में धरल्ले से प्रयोग करते हैं....दिमागी दिवालियापन के संवादों को ज्यादा जगह दी जा रही है ...जिसे विज्ञापन जगत का भी दिमागी दिवालियापन और उत्पादों की गुणवत्ता का खोखलापन भी कहा जा सकता है......वो दिन दूर नहीं जब देश के न्यूज़ चेनलों पर पेड न्यूज़ देखने के लिए आपको नंगे मोडलों के जिस्मों के विज्ञापन के साथ पेड न्यूज़ देखने के लिए मजबूर किया जायेगा........क्योकि जब गुणवत्ता घटती है तब ऐसे नंगेपन के वैशाखी के सहारों की जरूरत परती है.....अंतिम गानों के लाइन में आपने भी इस असर को बयान कर दिया है....
सटीक विश्लेषण
ReplyDeleteबहुत इमानदारी से लिखा गया रोचक लेख -
ReplyDeleteविज्ञापन हमें चकाचौंध की दुनिया में खींचते हैं -
संगीत से जुड़ना श्रेयस्कर तो है ही -
सटीक ,
ReplyDeleteखुशदीप सहगल का कमेन्ट गौर करने लायक है :-))
this is an ad age,lots of research,hard work,analysis and innovations are put together to make a 10sec. ad and it is very true that they are actually successful in their effect.moreover we are matured enough not to be carried away by their illusions.दिखावे पर मत जाओ,अपनी अक्ल लगाओ...बहुत अच्छा लेख लगा आपका...
ReplyDeleteहोली के पर्व की अशेष मंगल कामनाएं।
ReplyDeleteजानिए धर्म की क्रान्तिकारी व्याख्या।
विज्ञापन क्षेत्र के केन्द्रबिन्दु में यही एक तथ्य है कि किस प्रकार आपका अधिकतम समय उसे निहारने में व्यतीत हो। आप जितना समय उसे देखेंगे उतनी ही संभावना बढ़ जायेगी ...
ReplyDeletesahi avlokan kiya hai laal batti ke ishaare me
कुछ होर्डिंग तो इतने बड़े कि एक किमी पहले से ही किसी स्वप्न-सुन्दरी का खिलखिलाता हुआ चेहरा दिखने लगता है, बाट जोहता हुआ। आपको भी लगता है जैसे वह आपके लिये ही वह मुस्करा रही हैं, आपके लिये ही समर्पित हैं उनका सौन्दर्य। इस तथाकथित समर्पण से हम भारतीय भी इतने भावानात्मक हो जाते हैं कि देखने लगते हैं कि क्या संदेश दे रही हैं उनकी स्वप्नप्रिया...
ReplyDeleteइतना सूक्ष्म अवलोकन और उससे अधिक सटीक विश्लेषण ...विज्ञापन तो सार्थक हो गया ....
बिल्कुल सही कहा है आपने इस आलेख में ...बेहतरीन प्रस्तुति के लिये आभार ।
ReplyDeleteविज्ञापन हमारे मस्तिस्क तंतुओ में कम्पन पैदा करते है और वस्तु विशेष की लालसा भी जगाते है . . हम तो १० मिनट में कार्यालय पहुचते है लेकिन उसमे से ५ मिनट हरियाली और रास्ता से साबका पड़ता है . अच्छा लगा ये विज्ञापन महिमा आवरण युक्त आलेख .
ReplyDeleteलाल बत्ती के नीचे खड़े हो कर विज्ञापनों पर बहुत अच्छा विश्लेषण किया है| धन्यवाद|
ReplyDeletesarthak blogging .......
ReplyDeleteis duniya mein jo bhi chamak raha hai........ kahin na kahin .... pratyaksh or proksh roop se wo hamaari hee jaib se poshit ho raha hai.
--- विज्ञापन इमोशनल अत्याचार जैसे ही होते हैं; हां आजकल के संवादहीन जगत में ये संवाद भी कायम करते हैं...आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है फ़िर चाहे उसके गुण हों या अवगुण...आखिर अन्धाधुन्ध प्रगति का एक भाव यह भी है...
ReplyDelete---सार्थक लेख...
प्रयास करता हूँ ढूढ़ने का, कि रुके हुये वाहनों और सड़क के किनारे खड़ी अट्टालिकाओं के ऊपर कहीं कोई छोटी सी खिड़की खुली हो जिससे झाँक कर आसमान की बिसरी हुयी नीलिमा निहारी जा सके, पर वह स्थान तो घेर लिया है विज्ञापनों की बड़ी बड़ी होर्डिगों ने। .....
ReplyDeleteहां, महानगरों की यही विडम्बना है...
और विज्ञापन विक्रेताओं की विवशता...
इनसे पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता...
हा कभी कभी ये विज्ञापन कुछ वस्तुओ की जानकारी दे देते है | फिर ये विज्ञापन हमारा ध्यान न खिचे को कइयो की नौकरी चली जाएगी |
ReplyDeleteकुछ होर्डिंग तो इतने बड़े कि एक किमी पहले से ही किसी स्वप्न-सुन्दरी का खिलखिलाता हुआ चेहरा दिखने लगता है, बाट जोहता हुआ। आपको भी लगता है जैसे वह आपके लिये ही वह मुस्करा रही हैं, आपके लिये ही समर्पित हैं उनका सौन्दर्य।
ReplyDelete- हा हा हा वैसे अगर इतनी सुन्दर स्वप्नपरियों की तस्वीर लगी हो, भले ही विज्ञापन के लिए ही...तो कैसे बिना देखे न रहा जाएगा ;) वैसे हम बस देखने में यकीन रखते हैं...खरीदने को तो उतने पैसे रहते ही नहीं ;)
और वैसे, ट्रैफिक सिग्नल पे लगी नयी नयी गाड़ियों को आप भी देखते हैं :) वाह भाई वाह :)
आप बैंक बेलेन्स ही देखते रहेंगे तो फिर इन विज्ञापनदाताओं की मेहनत और इन्वेस्टमेंट का क्या होगा ?
ReplyDeleteबड़े होर्डिंग के रूप में विज्ञापन दक्षिण में कुछ ज्यादा ही देखने को मिलते हैं, मेरी दक्षिण भारत की यात्रा में मेरा अनुभव ऐसा ही था, लेकिन अब शायद यही विज्ञापन हमारे लाइफ स्टाइल का हिस्सा बन गए हैं।
ReplyDeleteविज्ञापन के असली मर्म को पकडा है आपने, आज विज्ञापन की फ़िल्म का एक एक फ़्रेम बनाने के लिये इतना बजट होता है कि किसी जमाने में उतने से पूरी फ़ीचर फ़िल्म बन जाया करती थी.
ReplyDeleteयूं भी अब इन होर्डिंग्स के चलते शहरों में कहां आसमान दिखाई देता है? बहुत सटीक आलेख.
रामराम.
आँख बंद कर गाना सुनने में ही भलाई है।
ReplyDeleteकार्यालय के काम से हवाई जहाज से आना जाना होता है। बंगलौर हवाई अड्डे में उड़ान से उतरकर अंदर प्रवेश करते वक्त एक बड़ा सा होर्डिंग है,जिस पर लिखा है सुंदर घर केवल 2.5 करोड़ में ।
ReplyDeleteबस वहां से आंख बंद करके निकलने का मन होता है,पर डर लगता है कि कहीं किसी से टकरा गए और सिक्योरिटी वालों ने धर लिया तो। इसलिए कुड़ते हुए उसे देखते हुए निकलना पड़ता है।
*
अब विज्ञापन तो होते ही इसीलिए हैं।
सब मिलकर कार्यालय पहुँचने की क्रिया को एक घटना में परिवर्तित कर देते हैं,bahut hi badhiyaa
ReplyDeleteदेखिये न, गाना भी विषय में डूबा हुआ है...
तुमसे मिली नज़र कि मेरे होश उड़ गये,ऐसा हुआ असर कि मेरे होश उड़ गये।
ye to maanna hi padega ,
main yahi soch rahi thi, kai adhyaaye is sadak me bhi padhe jaa sakte hai ......
प्रस्तुतीकरण ही विज्ञापन का आधार है |
ReplyDeleteसर...आँख मुंद कर रहे या आंख खोल कर १०% मुह दिखाई दे ? हमें तो हवा देना ही होगा !...राजधानी भी इससे बंचित नहीं रही !
ReplyDeleteहा हा हा क्या अवलोकन है वाह ..अतिसुन्दर.
ReplyDeleteजहां आठ सेकण्ड के विज्ञापन सुनकर दिमाग में सारे दिन घंटी बजाते रहती है.. अमीन सायानी की आवाज़ आज भी कानों में गूंजती है.. वहां एक सुन्दर नारी बीच सड़क पर अपने असली कद से भी बड़ी दिखे और बस "सिर्फ आपके लिए" मुस्कुराती नज़र आए तो समझिए क्या असर होता होगा.. आपकी नज़र तो वैसे भी बड़ी पारखी है!!
ReplyDeleteघर नुक्कड़ के सामने है।
ReplyDeleteबड़ी-बड़ी होर्डिंगें हैं।
महीने में कम से कम दो बार नए विज्ञापन आ जाते हैं ३०-बेलेवेडियर रोड के इस तिकोने पर।
श्रीमती जी सुबह उठकर भगवान को बाद में पहले इनका दर्शन करती हैं। बदलता हुआ विज्ञापन जेब पर छुरी चलाने का पूरा और पुख्ता इंतज़ाम लेकर आता है।
अच्छा लिखा है.
ReplyDeleteवैसे अगर संगीत न होता तो क्या होता! सोचना भी मुश्किल है :(
मुसीबत तो तब पैदा होती है जब आंखें बंद करने पर भी विज्ञापन की खिलखिलाहट ही दिखाई और सुनाई देती है।
ReplyDeleteहम कई बार मुनिख( पास का शहर) जाते हे, ओर शहर के अंदर तक सीधी सडक से ही जाते हे, अगर एक बार रेड लाईट आ जाये तो हर चोराहे पर हमे रेड लाईट ही मिलेगी, ओर अगर हरी लाईट आ जाये तो आगे तक हरी लाईट ही मिलेगी, यहां शहरो मे जाम कम ही लगता हे, क्योकि सब अपनी लाईन मे चलते हे, ओर यह विज्ञापन यहां सडको के किनारे नही के बराबर हे, क्योकि इन से हमारा ध्यान बंट जाता हे, ओर ऎक्सिडेंट का खतरा होता हे, ओर अगर इन विज्ञापन के कारण हमारा ऎक्सीडेंट होता हे तो हम उस कम्पनी पर या उस जगह के मालिक पर सारा हरजाना भरने का केस कर देते हे, जो बहुत ही ज्यादा होता हे, यह नजारे सिर्फ़ भारत मे ही हो सकते हे.आप की रोजाना की यात्रा बहुत लुभावनी लगी,
ReplyDeleteबहुत बढ़िया तज़ज़िया.
ReplyDeleteआप कहीं विज्ञापन का विज्ञापन तो नहीं कर रहे.
सलाम.
होर्डींग का पैसा विज्ञापनकर्ता देता है... हमे तो देखने के पैसे नहीं देने पड़ते ना )
ReplyDeletePraveen ji aap bahut hi khoobsoorti se apni baat kehte hain...ek request hai,,,ydi aap ko samay mile to Life me Humour ke importance pe ek article likh kar mere blog pe DONATE kijiye.... i will really be grateful to you.
ReplyDeletewww.achchikhabar.blogspot.com
aur yadi aap Donate nahi bhi karna chahein to apne hi blog pe post kijiye. Thanks
sunder aur sateek avlokan jo bahut hi barikiyan liye hue hai.
ReplyDeleteबहुत सार्थक और रोचक लेख...!!
ReplyDeleteरोजाना ही न जाने कितने विज्ञापन हम देखते है...
और उनमें से किसी न किसी में हम अटक ही जाते हैं !कितना नज़र बचाएं और कितनों से आँखें बंद करे...?
एक तरह से समाज के हर वर्ग की इमोशनल ब्लैकमेलिंग है..!!
न दैन्यं न पलायनम् me aap ka muskurata chehra aap ke blog ka kafi accha vigyapan kar raha hai.
ReplyDeleteBilkul aap ke article ke abhinetaon ki tarah..........
Badhiya Vyang..
लोगों को लुभाने के लिए ही तो मन-भावन रूप धरता है विज्ञापन !
ReplyDeleteआज पूरा समाज बाज़ार की गिरफ़्त में है फिर चाहे सड़क पर ठिठका आदमी हो या बाज़ार में बिका-सा ग्राहक !
ReplyDeleteआने-जाने की दूरी जहाँ वास्तविकता है वहीँ सुंदरियों का ग्लैमर कृत्रिमता और फंतासी है.इन्हीं दोनों के बीच में आम आदमी सपने देख रहा है ! आश्चर्य नहीं तो क्या ?
तुमसे मिली नज़र कि मेरे होश उड़ गये,
ReplyDeleteऐसा हुआ असर कि मेरे होश उड़ गये।
sambhal jao chaman walo------
jai baba banaras....
अब यही विज्ञापन हमारे लाइफ स्टाइल का हिस्सा बन गए हैं।
ReplyDeleteग्लोबल युग की पहचान है ये विज्ञापन आपका पीछा तो करेंगे ही .
ReplyDeleteसुंदर आलेख के लिए बधाई .
ReplyDeleteइस प्रकार की सारी प्रचार सामग्री देख कर मुझे तो यही लगता है कि कुछ बेरोज़गारों को तो काम मिल ही गया । अपनी जेब तो हम अपनी सुविधानुसार ही खाली करते हैं । हां ! अगर कुछ खरीदते समय याद रह जाये यही उनकी सफ़लता है । वैसे आलेख और वर्णन-शैली रोचक है .....
ReplyDeleteरोचकता बढ़ाने के लिये क्या नहीं कर डालते हैं लोग विज्ञापनों में, कभी अभिनेता, कभी विचित्र संदेश, कभी भावुकता, कभी आकर्षण और न जाने क्या क्या। प्रस्तुतीकरण की रूपरेखा बनाने के लिये उत्कृष्ट मस्तिष्कों की पूरी सेना लगी रहती है। सर्वप्रथम विज्ञापन बनाने का व्यय, बड़े मॉडल को दिया गया मूल्य, उस विज्ञापन को लगाने का व्यय और अन्त में उसे विशेष स्थान में लगाने का व्यय। इतना अधिक धन लगाने से आपके द्वारा खरीदा गया उत्पाद लगभग 10 प्रतिशत तक मँहगा हो जाता है, वह जाता है आपकी ही जेब से।
ReplyDelete..........
कीमत बढ़ने की एक वजह यह भी . सटीक रचना.
आपकी यह पोस्ट प्रमाण है इस बात का कि विषय तो हमारे आसपास प्रचुरता से मौजूद हैं। बस, नजर चाहिए।
ReplyDeleteविाापनों के सन्दर्भ में आपने बहुत ही सुन्दर वाक्य दिया है - 'हर विज्ञापन देखने का मूल्य है।'
इसमें एक वाक्य और जोड लीजिए (यह मेरा नहीं है)- विज्ञापन कभी सच नहीं बोलते।
रचनात्मक मायाजाल है यह..... बहुत ज़बरदस्त अवलोकन से निकले सार्थक विचार ....सटीक विश्लेषण
ReplyDeleteविज्ञापन दाता ध्यानाकर्षण में सफल हुए :)
ReplyDeletebahut hi achhi prastuti praveen ji.
ReplyDeletein vigyapano ke vakjah se bachho ki bhi nit nai farmaishen.
lekon ek sach yah bhi hai ki isase hamari jankari me iijafa hota hai .ab prodakt sahi hai ya galat yah to prayog me lane par hi pata chalta hai .
han!itana jaroor hai ki agar vigyapano ka prachar nahi hoga to ye companiya kaise apna kaam nikalengi.
bas!hame -aapko aone bazat ka dhyaan rakhna hoga.
dhanyvaad
poonam
उपभोक्तावादी संस्कृति में आँख मूँद कर कहाँ तक बचोगे प्रवीण जी ?
ReplyDeleteसुबह के अख़बार में ,
टीवी के समाचार में,
आफिस के रस्तों में ,
स्कूलों के बस्तों में,गलियों में,
चौराहों में,बगीचों की छांवों में ,
मोबाईल के इनबाक्स में,
शूज में और साक्स में ,
अनचाहे मोबाइल काल में,
कंप्यूटर के अंतर्जाल में,
हमें भी एक गीत याद आ रहा है.....
शर्म आती है मगर आज ये कहना होगा
अब हमें आप के पहलू में ही रहना होगा.
कोई इलाज नहीं है ,मज़बूरी है.
कितना ही मुंह मोड़ ले इन विज्ञापनों से किन्तु जाने अनजाने आजकल की दिन चर्या के आवश्यक अंग बन गये है |पर एक बात जरुर है की दक्षिण भारत में सोने के आभूशनो के विज्ञापन बहुतायत में होते है और जाहिर सी बात है अभूशनो के विज्ञापन है तो स्वप्न सुन्दरिया तो होगी ही ?
ReplyDelete२ की. मी .की यात्रा का अनुपम विश्लेष्ण और चिन्तन भी |
विज्ञापन के रंग में बड़े बड़े रंग जांय !
ReplyDeleteसर पे जब चढ़ जाय तो कुछ ना देत सुझाय !
विज्ञापन के प्रभाव का बहुत ही सार्थक विश्लेषण किया है आपने !
आभार !
विज्ञापन के रंग में बड़े बड़े रंग जांय !
ReplyDeleteसर पे जब चढ़ जाय तो कुछ ना देत सुझाय !
विज्ञापन के प्रभाव का बहुत ही सार्थक विश्लेषण किया है आपने !
आभार !
@ Udan Tashtari
ReplyDeleteहम भावनात्मक रूप से भी इतने ईमानदार हैं कि जब कुछ खरीदने की बारी आती है तो उसी को प्राथमिकता भी देते हैं जिसका विज्ञापन देख आते हैं।
@ Vivek Rastogi
आप माने न माने, आपका बैंक बैलेंस प्रभावित होता है इन विज्ञापनों से।
@ Bhushan
ज्ञान देने से धन लेने की मशीन बन गये हैं विज्ञापन।
@ Rahul Singh
रचनात्मकता भी तभी आती है जब उसके पीछे धन का बड़ा आधार रहता है।
@ एस.एम.मासूम
हमने तो बस पहचान के लिये चित्र लगा रखा है, देखिये न पहचान के कोई अन्य अवयव नहीं लगाये हैं।
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
ReplyDeleteध्यान बटने से ऐसी दुर्घटनायें होना स्वाभाविक ही है।
@ वाणी गीत
बच्चों और महिलाओं के कोमल पक्ष को उभारना इमोशनल अत्याचार ही है।
@ Shah Nawaz
उत्पाद के ज्ञान से बहुत अधिक है संवाद की मात्रा, इन विज्ञापनों में।
@ महफूज़ अली
बच्चों को क्या समझ आयेगा कि जिसे चॉकलेट समझ रहे हैं, वह चॉकलेट नहीं है। अब ऐसे विज्ञापन क्यों बनाये जाते हैं जो अपना ध्येय भी न पा सकें। सारी बौद्धिकता गयी नाली में तब तो।
@ रचना दीक्षित
आप भी बड़े बड़े संवादस्थलों को देखें तो यही उद्गार होंगे आपके।
@ खुशदीप सहगल
ReplyDeleteमक्खन जी हमसे अधिक भाग्यशाली हैं, उन्हें कम विज्ञापन दिखते होंगे इस प्रकार।
@ Rakesh Kumar
बार बार देखते रहने से वह मन में बस जाता है और जो एक बार मन में बसा, वह व्यक्त अवश्य होता है।
@ honesty project democracy
यदि गुणवत्ता को बढ़ाने में इसका प्रयोग किया जाये तो यह ज्ञान संवर्धन के काम भी आ सकता है पर बाजार में कम गुणवत्ता की वस्तुओं को सोना बनाकर बेचने की परम्परा घातक होती जा रही है।
@ संजय कुमार चौरसिया
बहुत धन्यवाद आपका।
@ anupama's sukrity !
विज्ञापन हमें लुभाते हैं और हम पीछे भागते हैं।
@ सतीश सक्सेना
ReplyDeleteमक्खनी कमेन्ट पर गौर कर लिया है।
@ amit srivastava
सब कुछ देखकर अपनी अकल तो लगानी ही होगी। मँहगी चीजें खरीदने के पहले हम कई बार सोच लेते हैं।
@ ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
बहुत धन्यवाद आपका।
@ रश्मि प्रभा...
लाल बत्ती के नीचे अवलोकन भी लाल लाल हो जाता है।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
जब हमने एक पोस्ट लिख डाली तो जिनके पास पैसा होता होगा, वे एक गहना तो खरीद ही लेते होंगे।
@ सदा
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ ashish
आपका मन हरा भरा रहता होगा कार्यालय पहुँचने तक।
@ Patali-The-Village
लालबत्ती ने बढ़ने से रोका, विज्ञापन पढ़ने से तो नहीं।
@ दीपक बाबा
हर चमकने वाली वस्तु की दृष्टि हमारी जेबों पर है।
@ Dr. shyam gupta
संवाद तक तो स्वीकार है, मन हर लेना तो दुखकर हो जाता है।
@ Dr (Miss) Sharad Singh
ReplyDeleteविज्ञापन लगाने वाले हर स्थान का वैज्ञानिक विश्लेषण कर के पता लगाते हैं कि इस स्थान का दृष्ट्यता कैसी होगी।
@ anshumala
विज्ञापनों के पीछे न जाने कितनों की जीविका चल रही है।
@ abhi
धीरे धीरे देखते रहिये, खरीदने की आदत भी पड़ जायेगी। कारों का शौक रहा है, डिजाइन भर के लिये।
@ सुशील बाकलीवाल
बस देखते ही रहते हैं, बस कहाँ चलता है।
@ neelima sukhija arora
यहाँ पर बड़े बड़े विज्ञापन प्रचुरता में पाये जाते हैं। अब तो विज्ञापन में आयी वस्तुयें ही गुणवत्ता की लगती हैं।
@ ताऊ रामपुरिया
ReplyDeleteजब विज्ञापन ही आसमान की ऊँचाई छू रहे हों तो आसमान कहाँ दिखायी पड़ेगा।
@ Manpreet Kaur
बहुत धन्यवाद आपका।
@ ZEAL
आजकल बस वही प्रयास कर रहे हैं।
@ राजेश उत्साही
ऐसे ही विज्ञापन देख कर लगता है कि विश्व कितने आगे निकल गया है।
@ Ratan Singh Shekhawat
प्रस्तुतीकरण आकर्षण का भी आधार है।
@ G.N.SHAW ( B.TECH )
ReplyDeleteसब के सब 10% निकालने की फिराक में हैं।
@ shikha varshney
बहुत धन्यवाद आपका।
@ सम्वेदना के स्वर
असर तो हो ही रहा है, हृदय में नहीं, सीधा जेब पर।
@ मनोज कुमार
हर विज्ञापन आने के पहले दिल में अनियमित सी धड़कन होती होगी।
@ Saurabh
आँख बन्द कर यदि खिलखिलाहट सुनायी पड़ती रहे तो मान लीजिये कि अब आप बचने वाले नहीं हैं।
@ राज भाटिय़ा
ReplyDeleteऐसे लुभावने विज्ञापन निश्चय ही दुर्घटनाओं में वृद्धि करते होंगे।
@ विशाल
विज्ञापन की चर्चा में विज्ञापन का विज्ञापन हो गया।
@ cmpershad
पर अन्ततः पैसा तो आपकी ही जेब से जाता है।
@ Gopal Mishra
निश्चय ही प्रयास करूँगा पर लगता है कि कहीं लिखते लिखते गम्भीर न हो जाऊँ।
@ अनामिका की सदायें ......
विज्ञापन की बारीकियाँ इससे भी गहन हैं, अन्दर तक प्रभाव डालती हैं।
@ ***Punam***
ReplyDeleteअब अर्थ तन्त्र ब्लैकमेलिंग पर चलने लगा है।
@ sumeet "satya"
मुस्कराना पड़ता है। पूरा चित्र देखने के बाद आप यह मजबूरी समझेंगे।
@ प्रतिभा सक्सेना
जो लुभा ले जाये, वही बड़ा व्यापारी।
@ संतोष त्रिवेदी
बाजार एक नयी संवाद शैली चला रहा है, विज्ञापन के रूप में।
@ Poorviya
होश उड़ाने वाले विज्ञापन यदि होश न उड़ायेंगे तो कम्पनी वाले क्या कमायेंगे।
@ संजय भास्कर
ReplyDeleteहम लोग इन्ही को सामाजिक मानक मान बैठते हैं।
@ गिरधारी खंकरियाल
पर ये तो हर जगह आँखों के सामने आ जाते हैं।
@ amrendra "amar"
बहुत धन्यवाद आपका।
@ nivedita
यदि एक इन्डस्ट्री के निर्माण के रूप में देखें तो विज्ञापन ठीक हैं पर विकास तो इनसे फिर भी नहीं हो रहा है।
@ मेरे भाव
विज्ञापन निश्चयात्मक रूप से कीमत बढ़ाने के कारक हैं।
@ विष्णु बैरागी
ReplyDeleteइन दोनों वाक्यों को जोड़ दीजिये तो वाक्य निकलेगा कि सत्य अनमोल है।
@ डॉ॰ मोनिका शर्मा
रचनात्मक मायाजाल, बड़ा ही सशक्त शब्द दिया है आपने।
@ वन्दना अवस्थी दुबे
लगता तो यही है।
@ JHAROKHA
वैसे आजकल इण्टरनेट पर इतनी जानकारी उपलब्ध है किसी भी उत्पाद के बारे में कि विज्ञापन बहला नहीं सकते हैं, बस ढूढ़ने का धैर्य चाहिये।
@ अरुण कुमार निगम
ReplyDeleteसच कहा आपने, हर जगह उपस्थित हैं ये, मजबूरी है।
@ shobhana
विज्ञापनों का युग है, उसकी बहुतायत भी है।
@ ज्ञानचंद मर्मज्ञ
आजकल तो हर ओर विज्ञापन का ही रंग दिखायी पड़ता है।
विज्ञापनों का एक अलग ही अर्थशास्त्र है -जो जीवन के काफी करीब होता गया है !
ReplyDeleteविज्ञापनों की दुनिया में नज़र आदमी की जेब पर होती है.जो दिखता है वो बिकता है के तर्क के साथ सब कुछ दिखा देने की तैयारी.विज्ञापनी दुनिया का अर्थपूर्ण विश्लेषण, चिर-परिचित अंदाज़ में.धन्यवाद.
ReplyDelete@ Arvind Mishra
ReplyDeleteविज्ञापन का अर्थशास्त्र जीवन को प्रभावित करने लगा है।
@ संतोष पाण्डेय
सबकी नजरें हमारी जेबों पर।
विज्ञापनों की मायावयी दुनिया पर अच्छा विश्लेषण किया है |
ReplyDelete@ नरेश सिह राठौड़
ReplyDeleteविज्ञापनों की मायावी दुनिया हमारी माया हरे जा रही है।
जितना लेख पड़ने में आनद आया उतना ही कमेंट पढ़ने में ... अलग अलग अंदाज़ से सभी ने विगयपनों को देखा है ... बहुत लाजवाब ..
ReplyDelete@ दिगम्बर नासवा
ReplyDeleteहर एक के लिये विज्ञापनों का सच अलग अलग होता है।