यह एक सुन्दर संयोग ही है कि वैलेन्टाइन दिन बसन्त में पड़ता है। बसन्त प्रकृति के उत्साह का प्रतीक है और प्रेम प्रकृति की गति का। प्रेम का यह प्रतीकोत्सव भला और किस ऋतु को सुशोभित करता? आधुनिक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में कुछ प्रश्न उभरते हैं। क्या प्रेम का अर्थ भिन्न संस्कृतियों में भिन्न होता है? प्रेम के आवरण में फूहड़ता का आचरण क्या किसी की सांस्कृतिक विरासत का अंग हो सकता है? प्रेम का सांस्कृतिक स्वरूप क्या किसी देश या समाज की सीमा में बँध कर रह सकता है? हर बार जो उत्तर मिलता है, वह धीरे धीरे सबको समेट लेता है, अपने अन्दर। जैसे जैसे प्रेम की गहराई में उतरने का यत्न करेंगे, वह दैहिक, मानसिक, बौद्धिक सीमाओं को समेटता हुआ अध्यात्मिकता में डूब जाता है।
प्रेम में अध्यात्म जैसा शब्द जोड़ते ही, बहुतों को लगता है कि, उसमें रोचकता निचोड़ ली गयी, अब होगी कोई नीरस सी असहनीय, अचंचलात्मक बातें। प्रेम की गहराई में उतरते ही उसमें ऐसा भारीपन आ जायेगा जो सबके बस की बात नहीं। मीरा का पागलपन, गोपियों की व्यथा, प्रेम की गहनतम अभिव्यक्तियाँ हैं। यह गुरुता उन लोगों को असहनीय है जिनके लिये प्रेम का उद्भव, अभिव्यक्ति और निरूपण एक नियत दिन में ही हो जाने चाहिये। आप कहें कि चलिये प्रेम को कम से कम एक माह में पल्लवित करें या बसंत में बढ़ायें तो आप पर आरोप लग जायेंगे कि आप वैलेन्टाइन बाबा का अपमान कर रहे हैं क्योंकि प्रेम के लिये एक नियत दिन है। क्या वैलेन्टाइन बाबा ने कहा था कि उन्हें एक दिन का कारागार दे दो?
मेरा 14 फरवरी से कोई विरोध नहीं अपितु वैलेन्टाइन बाबा के प्रति अगाध श्रद्धा है। हो भी क्यों न, प्रेम ही सकल विश्व की गति का एकल महत्वपूर्ण कारण है। अपने जीवन से प्रेम हटा दीजिये, आप जड़वत हो जायेंगे। प्रेमजनित गतियाँ असाधारण होती हैं, रोचक भी। उस असाधारणता को एक दिन में सीमित कर देना बाबा का अपमान है, प्रेम का भी। देखिये न, जिस सन्त ने प्रेम का पटल एक दिन से बढ़ाकर जीवन भर का कर देने का प्रयास किया, उसका प्रतीक पुनः हमने एक दिन में समेट दिया।
श्रुतियों के अनुसार, सैनिकों को विवाह की अनुमति न थी, कारण यह कि वे किसी आकर्षण में बँधे बिना ही पूरे मनोयोग से युद्ध करें। यह एक कारण था जिससे बिना विवाह ही एक दिवसीय सम्बन्धों को आश्रय मिलता था। वैलेन्टाइन बाबा के प्रयासों से वह सम्बन्ध जीवनपर्यन्त बने, विवाह को मान्यता मिली और समाज को नैतिक स्थिरता। प्रेम में जो जितना गहरा उतरेगा, उसको उतना खजाना मिलेगा। सतह पर छींटे बिखेरेंगे तो सतही सुख मिलेगा, गहराई की डुबकी लगायेंगे तो मन के कोमलतम भावों में पगे रत्न होंगे आपके जीवन में। गहरापन बिना समय व्यय किये नहीं आता है, वर्षों की सतत साधना और तब स्पष्ट होता है प्रेम। प्रेम एक दिन का कर्म नहीं, वर्षों का मर्म है।
गहराई के साथ साथ प्रेम में एक विस्तार भी है। किसी की मुस्कराहटों पर निसार हो जाना, किसी को समझ लेना और किसी का दर्द बाटने की अभिलाषा ही प्रेम है। प्रेम तो बादल की तरह भरा हुआ होता है जो बरसना चाहता है या होता है धरती की तरह जो सब कुछ अपने भीतर समाहित कर लेने को आतुर होती है और उसे हजार गुना करके लौटा देती है। प्रेम समर्पण की धरा पर उत्पन्न होता है, निःस्वार्थ भाव से बढ़ता है और विराट हो जाता है, मानवता का विस्तार लिये। सच्चा प्रेम किसी दिनविशेष से परे सतत पल्लवित होता रहता है।
वैलेन्टाइन बाबा ने तो प्रेम को विस्तार और गहराई दी थी, हमने ही उसे एक दिन में और सतही आकर्षण में समेट दिया। आप ही बताईये कि प्रेम के गूढ़ विषय में किसी की सतही समझ और तज्जनित फूहड़ता के कारण मैं उस सन्त पर श्रद्धा रखना कैसे कम कर दूँ, जिसने प्रेम को सही सामाजिक रूपों में स्थापित किया? मेरे लिये तो वह बसन्त के सन्त हैं।
प्रेम एक दिन का कर्म नहीं, वर्षों का मर्म है।
ReplyDeleteवैलेंटाइन बाबा को एक नए दृष्टिकोण से देखने को मिला. बढ़िया.
ReplyDeleteवैलेन्टाइन बाबा ने तो प्रेम को विस्तार और गहराई दी थी, हमने ही उसे एक दिन में और सतही आकर्षण में समेट दिया। -सत्य वचन!!
ReplyDeleteअसल प्रेम जिसे मानवीय संवेदना भी कह सकते हैं ,आज आम लोगों के जीवन जीने की मूलभूत आवश्यकता का अभाव और भ्रष्ट मंत्रियों और धनपशुओं उद्योगपतियों के पैसों की हवस में गुम हो गयी है ,
ReplyDeleteकिसी की मुस्कराहटों पर निसार हो जाना, किसी को समझ लेना और किसी का दर्द बाटने की अभिलाषा ही प्रेम है,आपने एकदम सही कहा है.....
लेकिन मानव स्वभाव में जहाँ जन्मजात संतुलन होता है निहित स्वार्थ और परोपकार के बीच उसे आज की भयानक सामाजिक असमानता ने परोपकार से दूर कर सिर्फ निहित स्वार्थ के लिए सोचने पर मजबूर कर दिया है और यह सच्चे प्रेम के साथ-साथ पूरी इंसानियत के लिए खतरे की घंटी है..........
असल प्रेम की स्थिति जानने के लिए उन बच्चों के बीच जाकर लिखा और सोचा जा सकता है जिन बदनसीबों को दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं तथा पढाई की व्यवस्था भी सरकार में बैठे उच्च संवेधानिक पदों के लोगों ने लूट लिया है.....दिल्ली में कई मेघावी छात्र और छात्रायें अपनी पढाई का खर्चा होटलों में प्लेट धोकर या देहव्यापार कर जुटा रहें हैं ....दूसरी तरफ देश के राष्ट्रपति करोड़ों की बीजली फूंकते हैं हर साल अपने ऊपर ...कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है की बाजारवाद की वजह से असल प्रेम संकट में है और उसी का मातम मनाने का दिन है वेलेंटाइन डे......
प्रेम न हो तो जगत का व्यापार न चले।
ReplyDeleteप्रेम ही सकल विश्व की गति का एकल महत्वपूर्ण कारण है।
ReplyDeleteआपका कहना सही है ..लेकिन आज चीजों की वास्तविकता जाने बगैर हम जो कुछ भी कर रहे हैं वो हमारे लिए और खतरनाक है
bahut khoob. valentine baba se kuch seekh na chcheye hume. pyaar ke kayi roop hote hai, jaise doston ka pyaar, maa-bacchon ka pyaar, iss din ko centralise karke nhi balki achi tarah har prakaar se celebrate karna chcheye
ReplyDeleteयहां तो बाजार से सब कुछ नियन्त्रित हो रहा है.
ReplyDeleteआपने भी विषय को मार्जिनलाइज्द कर दिया प्रवीण जी ! ठीक है बहुत कुछ आपने अपनी बात उसी दिशा में रखनी चाही जिस बात पर मैं जोर दे रहा हूँ और आपसे सहमत भी हूँ मगर विरोध यह है कि इस बाबत सिर्फ पश्चमी संत को ही प्राथमिकता क्यों ? क्या हमारे देश के इतिहास में ऐसा कोई संत नहीं हुआ जिसने प्रेम का सन्देश दिया हो ? यदि हुए तो उन्हें हम कितना याद कर रहे है? प्रेम और फूहड़ता में फर्क समझना होगा ! चलो संतो को भूल जाइए हीर और राँझा, लैला और मजनू के किस्से तो इस देश में ऍम है क्यों न इतिहास को टटोलकर हम उनके बलिदान दिवस को ही वेलेंटाइन ( प्रेम-दिवस ) नहीं बनाते ?
ReplyDeleteयह वह ढाई आखर है जिसका तत्व विवेर्चन करते सदियाँ बीत गयीं -हाँ बाबा वैलेंटाईन निश्चय ही प्रातः स्मरणीय संत हैं -
ReplyDeleteमुझे तो लगता प्रेम अधिपत्य/बंधन नहीं मुक्ति है ,स्वारथ नहीं परमारथ है ,पाना नहीं खोना है ,संकीर्णता नहीं उदात्तता/उदारता है,व्यामोह नहीं /विमुक्ति है ,क्षुद्रता नहीं विशालता है ................................
प्रेम तो ईश्वर का ही एक नाम है पर हमने शायद अपनी कुत्सित इच्छाओं की पूर्ति हेतु इसे वर्तमान स्वरूप तक पहुंचा दिया.
ReplyDeleteरामराम.
प्रेम के लिए तो सारी उम्र भी कम है।
ReplyDeleteप्रेम के बारे में पढ़ते तो हम सब हैं और प्रेमी होने का दावा भी करते हैं मगर इसका अर्थ शायद ही कभी समझने का प्रयत्न करते हैं !
ReplyDeleteशायद प्रेम का सबसे अधिक दिखावा पतिपत्नी के मध्य होता है जहाँ सबसे अधिक ढिंढोरा पीटा जाता है ! प्यार, जिसमें स्नेह न हो प्यार, जिसमें ईमानदारी न हो मुझे कभी प्यार नहीं लगता !
आज अधिकतर परिवारों में प्रेम के धागों के टुकड़े जहाँ तहां बिखरे पड़े पाए जाते हैं सहेजने वाला कोई नहीं ! गठबंधन की अस्मिता तो बीते जमाने की बाते हैं, टूटी स्नेहिल राखी, जिसे कई गांठों में जोड़ा गया है , बहिन के आंसुओ से सराबोर है और इस राखी को बंधवाते भैया का ध्यान अपने नुकसान की भरपाई में है !
बस यही प्यार देखता हूँ अक्सर चारो और ....
:-(
"सच्चा प्रेम किसी दिनविशेष से परे सतत पल्लवित होता रहता है।"
ReplyDeletepar jaise hame kisi khas din khuch khas vyanjan mil jaye to khush ho jate hain, sayad waisa hi kuchh feeling aa jati hai...:)
aapke vichaar aur aapke likhne ka tareeka bahut sundar hain.aapne sant valentine ke baare me hamen nai jaankari dee. dhanyavaad.
ReplyDeleteGodiyal ji ki baat bhi sahi hai ki prem ke anys prateekon ko bhi pratishtit kiya jay.
bahut sahi kaha ... prem ek vistaar hai
ReplyDeleteप्रेम ही सकल विश्व की गति का एकल महत्वपूर्ण कारण है।
ReplyDeleteसतत प्रेम पल्लवन के लिए बलिदान मांगता है
ReplyDeleteविचारोत्तेजक आलेख। आपसे सहमत।
ReplyDeleteवाह...बहुत सही कहा प्रेम ही जीवन सार है ...।
ReplyDeletepraveen ji , aapne bahut hi accha aaalekh likha . bahut accha laga padhkar.. prem ki shubhkaamanye aapko bhi de deta hoon .
ReplyDeletevijay
प्रेम को एक दिन में बांधा नहीं जा सकता.
ReplyDeleteघुघूती बासूती
"...सैनिकों को विवाह की अनुमति न थी, कारण यह कि वे किसी आकर्षण में बँधे बिना ही पूरे मनोयोग से युद्ध करें..."
ReplyDeleteश्रुतियों को एक दम नहीं भूलें हैं वे महानुभाव जो इस दिन ढूंढ कर लोगों के विरूद्ध महायुद्ध जारी रखते हैं हर साल.
this is very god information no doubt
ReplyDeletebut we are habitual we have habit or tradition to celebrate a day ,
e. g Shraadha :this is performed as we remember a person who is not with us but it does not mean that we wont remember him for remaining year
Same is the case with jayanti or punyatithi
Raksh bandhan remind our duty for the year and love for sister
on similar day celebrating prem S Divas is to remember all those who are intimate . we do deliberately as we won’t miss them on this day
remember Dushant who forgotten Shkuntala in spite of deep love ,probably "such day" would have helped him or shakuntal a lot
incidentally 14 feb is the date when this famous lovers met some one can trace bak and confirm this day so that we can celebrate this day to ensure we do not forget the intimates ,well then this is sufficient for remaining days and PREM is distributed evenly and eventually
प्रेम की कोइ परिभाषा नहीं हो सकती | प्रेम के बारे में आपके ये पोस्ट बहुत बढ़िया लगी | आभार
ReplyDeleteप्रेम एक दिन का कर्म नहीं, वर्षों का मर्म है
ReplyDeleteसहमत...
वसंत का संत...अच्छी जानकारी दी आपने.
ReplyDeleteआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (2-3-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
h0nesty va godiyaal ji, ने सही कहा...वेलेन्ताइन ने प्रेम का नही, बिबाह न करने देने की एक प्रथा के विरुद्ध प्रचार किया था, प्रेम करना कोई मना थोडे ही था.... अतः वे प्रेम के बाबा/संत कैसे होसकते हैं...यह तो बाज़ार ने अपने मतलब व कुछ मूर्ख, नया करने की होड में , पश्चिमी चश्मे वाले, पैसे वाले लडके-लडकियों के चोंच्ले थे जो बाज़ार ने भुनाना शुरू कर दिया बिना सोचे समझे...धन्धे में सोच रह कहां जाती है...
ReplyDeleteप्रेम को किसी एक दिन की परिधि में बांध देना उचित नहीं कहा जा सकता .
ReplyDeleteबस अंत का संत!!
ReplyDeleteवसंत के संत को मेरा नमन !
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा ये लेख भी आपके बाकी लेखों की तरह,इसके आलावा कहने के लिए कुछ और नहीं है| आप चाहें तो इस कमेन्ट को अप्रूव न भी करें क्योंकि कहने को कुछ खास नहीं लिखा है मैंने इस कमेन्ट में| :)
ReplyDelete.
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शिल्पा
kahin naa kahin prem hi hai jo insannn ko insaan se jode rakhta hai .........varna
ReplyDeleteप्रेम को किसी विशेष ऋृतु और विशेष दिवस के साथ संबंधित करना उचित प्रतीत नहीं होता।
ReplyDeleteप्रेम तो देश-काल-परिस्थिति से निर्बंध है।
जिसने प्रेम को सही सामाजिक रूपों में स्थापित किया? मेरे लिये तो वह बसन्त के सन्त हैं।
ReplyDelete@सही उपाधि दी है आपने |
ढाई अक्षर प्रेम के...
ReplyDeleteऔर हम सब हैं कि बसन्त के सन्त का बस अन्त करने पर तुले है।
ReplyDeleteप्रेम के बारे में आपके विचार अच्छे लगे। विरोध संत वैलंटाईन का नहीं, प्रेम के फ़ूहड़ सार्वजनिकरण का होता है।
ReplyDeleteमुद्दे की तलाश में भटक रहे लोगों का आसान शिकार बन गई है यह तिथि, प्रेम करने वालों से ज्यादा उसके विरोधी फलस्वरूप पुलिस सबसे ज्यादा सक्रिय होती है इस तिथि पर और भाई-बहन का एक साथ सड़क पर निकलना खतरे से खाली नहीं होता.
ReplyDeleteवैलेंटाइन बाबा का बताया प्यार दो साल से ज्यादा नही वलता, दो साल भी ज्यादा हे....ओर प्रेम करने वाले किसी खास दिन का इन्तजार नही करते. वैलेंटाइन बाबा ने प्रेम का नही सेक्स का रास्ता बताया हे,,, प्रेम करने वाले मां बाप, भाई बहिन ओर अन्य लोगो का दिल नही दुखाते, ओर अपने प्यार को अंत तक खुश देखना चाहते हे, उस पर तेजाब नही फ़ेंकते, उसे हर हालात मे पाना नही चाहते,बल्कि उस की खुशियो के लिये कुर्बानी देना जानते हे... जय हो इस वैलेंटाइन बाबा की
ReplyDeleteप्रेम समर्पण की धरा पर उत्पन्न होता है, निःस्वार्थ भाव से बढ़ता है और विराट हो जाता है, मानवता का विस्तार लिये। सच्चा प्रेम किसी दिनविशेष से परे सतत पल्लवित होता रहता है।
ReplyDeleteबिलकुल ठीक -सटीक बात लिखी है आपने --प्रेम पर सार्थक लेख.
प्रेम प्रदर्शन नही मांगता प्रेम महसूस किया जाता है चाहे वो किसी भी रिश्ते का हो |
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट |
प्रेम एक दिन का कर्म नहीं, वर्षों का मर्म है।
ReplyDeleteबस यही समझने की जरूरत है.
प्रेम और फूहड़ता में अंतर है और यही दर्शाने के लिए शायद वैलेन्टाइन डे मनाया जाता है ॥ बसंत के संत की जय हो :)
ReplyDeleteसरल शब्दों प्रेम की गहन अभिव्यक्ति...... बहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteगहराई के साथ साथ प्रेम में एक विस्तार भी है। किसी की मुस्कराहटों पर निसार हो जाना, किसी को समझ लेना और किसी का दर्द बाटने की अभिलाषा ही प्रेम है। प्रेम तो बादल की तरह भरा हुआ होता है जो बरसना चाहता है या होता है धरती की तरह जो सब कुछ अपने भीतर समाहित कर लेने को आतुर होती है और उसे हजार गुना करके लौटा देती है। प्रेम समर्पण की धरा पर उत्पन्न होता है, निःस्वार्थ भाव से बढ़ता है और विराट हो जाता है, मानवता का विस्तार लिये। सच्चा प्रेम किसी दिनविशेष से परे सतत पल्लवित होता रहता है।
ReplyDeleteक्या बात है. प्रेम ही सत्य है, शिव है. बढियां लेख के लिए बधाई और महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें.
प्रेम एक दिन का कर्म नहीं, वर्षों का मर्म है।
ReplyDeleteबस समजने की जरुरत है..... बहुत अच्छा लगा आपका लेख !
देखिये न, जिस सन्त ने प्रेम का पटल एक दिन से बढ़ाकर जीवन भर का कर देने का प्रयास किया, उसका प्रतीक पुनः हमने एक दिन में समेट दिया।
ReplyDeletebahut unchi baate hai aur sach bhi .bahut umda .
prem ek din ka karm nahi, varsho ka marm hai...bahut sateek..
ReplyDeleteप्रेम सिर्फ एक दिन प्रदर्शित करने का भाव नहीं है ..यह सिर्फ बाजार की माया है !
ReplyDeleteप्रवीन जी ... आपकी बात से सहमत हूँ ... मैं खुद इन संत जी की शुक्रगुजार हूँ की उन्होंने ये दिन दिया .... कम से कम इंसान अपनी भावनाएं व्यक्त करने के लिए साल में एक दिन तो समय निकलता है... वरना इस भाग दौड़ की ज़िन्दगी में हम relations को for granted ही ले कर चलते हैं ...
ReplyDeleteprem bemiyaadi bukhaar ki tarah hai jo laailaaz hota hai par aajkal prem haat me bik raha hai .."prem na haat bikaay" kaha bhi gaya hai!
ReplyDeletesarthak aalekh....
ReplyDeleteप्रेम एक दिन का कर्म नहीं, वर्षों का मर्म है।
ReplyDeleteसाल के 365 दिनों तक यह आग जलनी चाहिए!
सुन्दर आलेख!
आज मिले
ReplyDeleteकल जुड़े
परसों उड़े
नरसों भिड़े
और उस के बाद फिर कभी नहीं..............
ऐसे माहौल में आप का आलेख काफ़ी महत्वपूर्ण हो जाता है|
वाकई प्रेम कोई कोर्स नहीं है, यह तो एक साधना है|
kisne kaha ki prem ek din ka he,
ReplyDeletebaba ne to bas rasta dikahya he
baki lage raho bhaiye,
pyar kisi na yar
sundar prastuti
@ पद्म सिंह
ReplyDeleteगहरे विषय को एक दिन में समेट देने के प्रयास विस्मयपूर्ण दिखते हैं, आधुनिक सभ्यता वह भोग रही है।
@ Abhishek Ojha
अनुनायियों की फूहड़ता से सन्त क्यों प्रभावित हो भला?
@ Udan Tashtari
वैलेन्टाइन बाबा ने तो प्रेम को विस्तार और गहराई दी थी, हमने ही उसे एक दिन में और सतही आकर्षण में समेट दिया। -सत्य वचन!!
@ honesty project democracy
सच कहा आपने, अपनी गलतियों के मातम का दिन मानकर ही मना लें।
@ दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi
प्रेम ही जगत के व्यापार का कारण है।
@ : केवल राम :
ReplyDeleteबिना गहराई जाने उसके नाम पर प्रेम की एक दिवसीय परिभाषायें गढ़ना अराजकता को जन्म देता है।
@ SEPO
बहुत कुछ सीखा जा सकता है, पर वह नहीं जो बाजारवाद के नाम पर हो रहा है।
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
बाजार ही पवित्र स्वरूपों को अपने रंग दे रहा है।
@ पी.सी.गोदियाल "परचेत"
प्राथमिकता निश्चय ही प्रेम की दी जाये, पश्चिमी या पूर्वी संत को नहीं। फूहड़ता का त्याग जैसे भी संभव हो करना होगा और प्रेम को उसके गहरे रूपों में स्थापित करना होगा।
@ Arvind Mishra
प्रेम की विशालता को छोड़ एक दिवसीय क्षुद्रता में डूबे जा रहे हैं हम।
@ ताऊ रामपुरिया
ReplyDeleteबहुत सच कहा है आपने, प्रेम का स्वरूप ईश्वरसम है।
@ Deepak Saini
फिर न जाने क्यों हम प्रेम को एक घटना मान लेते हैं, यह तो एक प्रक्रिया है।
@ सतीश सक्सेना
प्रेम तो वैवाहिक सम्बन्धों की आपसी समझ में है। वही समझ हमारी सामाजिकता में भी आ जाये तो बात बन जाये।
@ Mukesh Kumar Sinha
प्रेम के दिन में प्रेम पल्लवन को उत्सव के रूप में मनाये, न कि उस पर फूहड़ता व्यक्त करें।
@ rakesh ravi
गोदियाल जी बात से मैं भी सहमत हूँ, जब प्रेम में कोई सांस्कृतिक विभेद नहीं तो उनका भी सम्मान हो और भारतीय प्रतीकों का भी।
@ रश्मि प्रभा...
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ Patali-The-Village
बहुत धन्यवाद आपका।
@ गिरधारी खंकरियाल
प्रेम में समर्पण है, अधिकार नहीं।
@ मनोज कुमार
बहुत धन्यवाद आपका।
@ सदा
इसी सार को बिसारे बैठे हैं हम।
@ Vijay Kumar Sappatti
ReplyDeleteप्रेम सबके जीवन में पल्लवित हो, सबको यही शुभकामनायें है।
@ Mired Mirage
सच कह रही हैं आप, प्रेम में विस्तार है।
@ Kajal Kumar
यही तो विडम्बना है वैश्विक समाज की।
@ madhav
प्रेम के विस्तार का उत्सव मनायें, न कि फूहड़ता की अभिव्यक्ति करें।
@ नरेश सिह राठौड़
प्रेम जब लोगों का जीवन परिभाषित करता है तो उसको कौन बाँध सकता है परिभाषाओं में।
@ shikha varshney
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ शब्द-साहित्य
बहुत धन्यवाद आपका।
@ वन्दना
बहुत धन्यवाद आपका इस सम्मान के लिये।
@ Dr. shyam gupta
इस दिन के नाम पर कुछ भी करने लगना तो प्रेम नहीं हो सकता है।
@ ashish
सच कहा आपने, प्रेम सबको बाँधता है तो हम उसे कैसे बाँध सकते हैं।
@ चला बिहारी ब्लॉगर बनने
ReplyDeleteप्रेम ही सारी गतियाँ को स्रोत है, तो उसका अंत तो जगत का अंत हो जायेगा।
@ ZEAL
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Shilpa
बहुत धन्यवाद आपका।
@ संजय कुमार चौरसिया
प्रेम ही इन्सान को इन्सान बनाता है।
@ mahendra verma
प्रेम तो विस्तृत है, हर ओर फैला है, बाँधा नहीं जा सकता है।
@ Ratan Singh Shekhawat
ReplyDeleteदोनों में प्रेम पल्लवित हुआ।
@ सुशील बाकलीवाल
बहुत धन्यवाद आपका।
@ राजेश उत्साही
यह प्रेम का फूहड़ स्वरूप ही होगा जो इस सन्त को बदनाम कर देगा।
@ संजय @ मो सम कौन ?
वैल्नेटाइन बाबा को उनके कार्य का श्रेय मिले, किसी की फूहड़ता का अपयश नहीं।
@ Rahul Singh
इस तिथि पर सामान्य सा कुछ लगने ही नहीं देते हैं बाजारवादी और समाजवादी।
@ राज भाटिय़ा
ReplyDeleteप्रेम जितना गहरा होगा, निष्कर्ष भी उतने ही गहरे होंगे।
@ anupama's sukrity !
बहुत धन्यवाद आपका।
@ शोभना चौरे
प्रेम की पूर्णता उसके अनुभव की सहजता में है।
@ rashmi ravija
काश सब यह समझ पाते।
@ cmpershad
बसंत के संत का मान रख लें हम।
@ डॉ॰ मोनिका शर्मा
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ संतोष पाण्डेय
आपके ही भावों को उतारा है इस पोस्ट में।
@ Coral
यही समझ काश हम सबकी हो जाये।
@ ज्योति सिंह
बहुत धन्यवाद आपका।
@ amit-nivedita
वर्षों के श्रम से पल्लवित होता है प्रेम।
@ वाणी गीत
ReplyDeleteएक दिवसीय रूप तो बाजार की देन है।
@ क्षितिजा ....
इस दिन को सही स्वरूपों में मनाना ही प्रेम की जीत है।
@ संतोष त्रिवेदी
प्रेम न हाट बिकाय, सटीक संदेश।
@ स्वाति
बहुत धन्यवाद आपका।
@ डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण)
यह अलख जगे सबके लिये।
@ Navin C. Chaturvedi
ReplyDeleteऔर वह भी सतत साधना।
@ Khare A
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Manpreet Kaur
बहुत धन्यवाद आपका।
एक दिन का प्रेम तो केवल आस्क्ति है वर्ना प्रेम करने के लिये तो एक उम्र भी कम पड जाती है। बहुत अच्छी पोस्ट। शुभकामनायें।
ReplyDeleteप्रतीकीकरण और प्रतीकों की पवित्रता-रक्षा केमामले में निष्णात हम लोग कुछ भी कर सकते हैं।
ReplyDeleteविचारोत्तेजक लेख******
ReplyDeleteबहुत सही कहा प्रेम ही जीवन सार है
प्रेम की महिमा अपरम्पार....वसंत के बहाने सुन्दर पोस्ट.
ReplyDelete@ निर्मला कपिला
ReplyDeleteसच कहा आपने, प्रेम करने के लिये उम्र कम पड़ जाती है।
@ विष्णु बैरागी
प्रतीकों की अवनति न हो अपितु मान्यता मिले।
@ amrendra "amar"
प्रेम की चेतना ही जीवन की गति है।
@ KK Yadava
बहुत धन्यवाद आपका।
प्रेम एक दिन का कर्म नहीं, वर्षों का मर्म है..
ReplyDeleteपूर्णरूपेण सत्य ....आज वैलेंटाईन दे बाजारवाद का रूप है ...इस दिन के बारे में एक दशक से ही जानकारी मिली है ...
A fantastic analysis!
ReplyDelete@ संगीता स्वरुप ( गीत )
ReplyDeleteयह सच है कि बाजार के कारणों से इसे प्रसिद्धि मिली पर इसके मर्म को सही अर्थों में पहचानना होगा।
@ Hari Shanker Rarhi
बहुत धन्यवाद आपका।
सच कहा है ... और वैसे प्रेम के लिए किसी एक दिन की नहीं हर पल की जरूरत है ...
ReplyDeleteसुन्दर आलेख है ...
@ दिगम्बर नासवा
ReplyDeleteप्रेम तो मन की वह स्थिति है जो सदा पल्लवित होती रहती है। प्रेम को एक दिन में समेटने का कोई औचित्य ही नहीं है।
"सतह पर छींटे बिखेरेंगे तो सतही सुख मिलेगा, गहराई की डुबकी लगायेंगे तो मन के कोमलतम भावों में पगे रत्न होंगे आपके जीवन में। गहरापन बिना समय व्यय किये नहीं आता है, वर्षों की सतत साधना और तब स्पष्ट होता है प्रेम। प्रेम एक दिन का कर्म नहीं, वर्षों का मर्म है।"
ReplyDeleteसत्य वचन हैं आपके ,प्रेम सतत साधना है जैसे जैसे मन निर्मल होता जाता है ,प्रेम का मर्म समझ में आता है."निर्मल मन जन सो मोहि पावा "
बसन्त का सन्त, खूब।
ReplyDelete@ Rakesh Kumar
ReplyDeleteसच कहा आपने, बिना निर्मल मन के सच्चा प्रेम उत्पन्न नहीं होता है।
@ Rajey Sha राजे_शा
बहुत धन्यवाद आपका।