धरती को कैसा लगता होगा, जब कोई आँसू की बूँद उस पर गिरती होगी? निश्चय मानिये, यदि आप सुन सकते तो उसकी कराह आपको भी द्रवित कर देती। किस बात की पीड़ा हो उसे भला? दैवीय आपदाओं को कौन रोक पाया है और धरती ने न जाने कितनी ऐसी आपदायें देखी होंगी, संभवतः यह कारण नहीं होगा कराह का। शरीर क्षरणशील है, जरा, व्याधि आदि कष्टों से होकर जाता है, प्रकृति का नियम है जिसका आदि है उसका अन्त भी होगा, संभवतः यह भी कारण नहीं होगा कराह का। एक व्यक्ति दूसरे को अपनी वाणी और कर्म से दुःख पहुँचाता है, इस पापकर्म से धरती को बहुत कष्ट पहुँचता होगा, ऐसे नीचों का भार उठाना पड़ता है उसे। कैसा लगता होगा कि उसके संसाधनों से ऐसे नराधमों को भी पोषण मिल रहा है। मन उदास होता होगा, पर कराह का कारण तो यह भी नहीं होगा।
धरती तो तब कराह उठती है जब किसी दुखियारे के आँसू किसी का कंधा नम करने के स्थान पर एकांत में बहकर धरती पर टपकते हैं। धरती का मन यह सोच कर तार तार हो जाता है कि इतने दुर्दिन आ गये मानव सभ्यता के, कि इन आँसुओं को एक कंधा न मिला सुबकने के लिये। क्या सम्बन्धों और सामाजिकता के मकड़जाल में इतनी शक्ति न रही कि वह एक आँसू का बोझ सम्हाल सके? हजारों शुभचिन्तकों के बीच यदि एक कंधा न मिले सुबकने के लिये तो उसी क्षण विचार करना प्रारम्भ कर दीजिये उनकी उपयोगिता पर।
जब तक अपने दुखों को औरों से जोड़कर देखते रहेंगे, मन समरग्रस्त रहेगा। घात, प्रतिघात, उन्माद, अवसाद, यह सब रह रहकर उमड़ते हैं, शान्त नहीं होते हैं। दुखों को अपना मान लीजिये, जीवन हल्का हो जायेगा, सारी पीड़ा आँसू बनकर बह जायेगी, ऊर्जा बची रहेगी सृजनात्मकता के लिये। जब जीवन काष्ठवत हो जाता है तब आँसू ही चेतना संचारित कर सकते हैं। आँसुओं का बाँध बनायेंगे तो टूटने पर केवल विनाश ही होगा, आपका या औरों का। बहुतों के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचती है आँसुओं के प्रदर्शन से, लगता है कि उनका पौरुष अपना गर्व खो बैठेगा। उनके आँसू या तो क्रोधवश सूख जाते हैं, दुख-स्तब्धता में पी लिये जाते हैं या एकांत में बह जाते हैं। यह एक वृहद विषय हो सकता है चर्चा के लिये कि आँसू अन्दर ही रह जायें या शीघ्रतम बह जायें।
भगवान जीवन में मुझे वह क्षण कभी न देना, जब आँसू ढुलकाने के लिये कोई कंधा न मिले और किसी रोते हुये को अपने कंधे में न छिपा सकूँ। आँसुओं को मान मिले, सुबकने के लिये एक कंधा मिले, धरती की कराह भला आप कैसे सुन सकेंगे?
सार्थक चिंतन !
ReplyDeleteक्या सम्बन्धों और सामाजिकता के मकड़जाल में इतनी शक्ति न रही कि वह एक आँसू का बोझ सम्हाल सके? हजारों शुभचिन्तकों के बीच यदि एक कंधा न मिले सुबकने के लिये तो उसी क्षण विचार करना प्रारम्भ कर दीजिये उनकी उपयोगिता पर।
ReplyDelete-----------
भगवान जीवन में मुझे वह क्षण कभी न देना, जब आँसू ढुलकाने के लिये कोई कंधा न मिले और किसी रोते हुये को अपने कंधे में न छिपा सकूँ।
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आप अपनी बात इतने प्रभावी ढंग से कह पाते हैं कि मन मस्तिष्क दोनों शब्द और भाव में खो जाये.....
आज का विषय बहुत सुंदर, सकारात्मक और संवेदनशील है........ आभार
यह सच है कि सामाजिक स्तर पर ज्यों-ज्यों आप ऊपर उठते जाते हैं, ऐसे मैके लेने और देने के अवसर कुछ कम हो जाते हैं। लेकिन और भी जरिये हैं दुख दर्द बांटने के, मन में भावना है तो सब तरीके निकल आते हैं। आप में मानवता है।
ReplyDeleteगोस्वामी जी ने कहा- बड़े भाग मानुष तन पावा।
ReplyDeleteदूसरों को सुबकने के लिए कन्धा देने का काम सिर्फ़ मनुष्य ही कर पाते हैं। एक दूसरे की मदद का आयाम भी जितना विस्तृत मानव समाज में है उतना अन्य जीवों में नहीं है। इस विशिष्ट उपलब्धि के प्रति चेतना जगाती आपकी पोस्ट अच्छी है।
अफ़सोस इस बात का है कि आधुनिक सभ्यता इस शिक्षा के विपरीत बढ़ती जा रही है। मनुष्य आत्मकेंद्रित और स्वार्थ में अंधा होता जा रहा है। सामाजिक मूल्य हाशिए पर हैं।
भगवान जीवन में मुझे वह क्षण कभी न देना, जब आँसू ढुलकाने के लिये कोई कंधा न मिले और किसी रोते हुये को अपने कंधे में न छिपा सकूँ।
ReplyDelete-बस, यही प्रार्थना हमारी भी है.
सार्थक विचार!
ये गुण बहुत कम लोगों में पाया जाता है.
ReplyDeleteये गुण तो प्रत्येक मनुष्य में होना चाहिए।
ReplyDeleteये दुख तो बस
ReplyDeleteतब कम हॊ
जब किसी को
न कोई गम हो
बाँट चुके
हम सारी खुशियाँ
इस दुख के बदले में
कि कम से कम
मेरे आस-पास
किसी की
आँख नम न हो.............
जिनको भी दुख हो
वे आए और ले जाएं
कि मेरी खुशियाँ..
कभी खतम न हो.....
आओ मुझसे मिलो
बिना झिझके गले भी लगो
मैने बना लिया है
मौन का एक खाली घर
जहाँ मैं हूँ और मेरे कंधे
रो कर थके हुओं को सोने के लिए
एक जादू की झप्पी के बाद
रोने की नहीं होती कोई वजह
और इसीलिए मेरे घर में
हमेशा बची रहती है जगह...
ये "ओम आर्य" की कविताओं पर की गई मेरी दो अलग-अलग टिप्पणियाँ याद आ गई और उसे मिलाकर आपके आलेख के लिए....
बहुत खोजने पर भी एक और आइआइटियन शायद ना मिले जो शुद्ध भाषा का प्रयोग करता हो .
ReplyDeleteजीवन से म्रत्यू तक कन्धा ही तो साथ देता है
परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई
ReplyDeleteबहुत ही भावमय और सार्थक चिन्तन है। किसी का एक भी आँसू कन्धे पर गिरे तो समझो आपके अन्दर दिल है। शुभकामनायें।
ReplyDelete
ReplyDelete-आपकी कल्पना शक्ति अद्भुत है प्रवीण भाई ! मुझे भी ऐसा ही लगता है ! पुरातन काल में मानवों के मध्य राक्षस, शायद यही असवेदंशील लोग थे जिन्होंने सामान्य जन का जीना मुश्किल कर दिया था ! पर पीड़ा में सुख लेते यह विद्वान् राक्षस , आज भी धरती पर यत्र तत्र सर्वत्र ठाठ के साथ विद्यमान हैं !
-आज के आधुनिक भौतिक वाद की दौड़ में, समाज में केवल संवेदनशीलता का ह्वास हुआ है ! हालात इतने ख़राब हैं कि अपनों के कष्ट में कन्धा देने के लिए लोग इतना समय ख़राब नहीं करना चाहते ! औपचारिक तसल्ली देने में भी घडी देखते हैं कि समय बर्वाद न हो ! ऐसे में किसी अपने को ढूँढने की, सोंचना भी मूर्खता और भीख मांगने जैसा ही होता है बेहतर यही है कि अपनी डबडबाई आखों के साथ अकेले बैठ बैठ जाइए , कुछ देर बाद आंसूं पोंछ लें और अपने अकेलेपन से बाहर आ जाएँ !
सबसे बेहतर यही है कि दुखों को अपनाना सीख लें ...
राही मनवा दुःख की चिंता क्यों
सताती है, दुःख तो अपना साथी है
-हाँ मुझे अच्छा लगता है प्रवीण भाई कि किसी ने अपने कष्टों को मुझसे बांटा ! वे सब बड़े खुशकिस्मत हैं जिनपर लोग विश्वास करते हैं ! ऐसे लोगों में, मैं अपने आपको पा ,बड़ा धन्य समझता हूँ !
-मेरी कामना है कि आप जैसे अच्छे इंसान को ऐसा क्षण कभी न दिखाए जब आपके आंसूं पोंछने को भरपूर प्यार युक्त सहारा न हो !
शुभकामनायें हमेशा के लिए !
बहुत ही बढ़िया आलेख.
ReplyDeleteकंधे तो बहुत हैं पर आंसूओं तक पहुँच नहीं पाते.
सलाम.
bahut se accha post likha hai aapne! ek insaan ko kissi dusre ke dukh main uska saath dena he chchiye
ReplyDeleteबहुत सुन्दर विचार युक्त
ReplyDeleteThe post made me emotional .
ReplyDeleteआपके समर्थन में कुछ पंक्तियाँ मेरी भी.
ReplyDeleteयाचना -
तपा-तपा कर कंचन कर दे ऐसी आग मुझे दे देना !
मेरे सारे खोट दोष सब ,लपटें दे दे भस्म बना दो ,
लिपटी रहे काय से चिर वह ,बस ऐसा वैराग्य जगा दो !
रमते जोगी सा मन चाहे भटके द्वार-द्वार बिन टेरे ,
तरलित निर्मल प्रीत हृदय की बाँट सकूँ ज्यों बहता पानी ,
जो दो मैं सिर धरूं किन्तु विचलन के आकुल पल मत देना
*
सारे सुख ,सारे सपने अपनी झोली में चाहे रख लो,
ऐसी करुणा दो अंतर में रहे न कोई पीर अजानी !
सहज भाव स्वीकार करूँ हो निर्विकार हर दान तुम्हारा,
शाप-ताप मेरे सिर रख दो ,मुक्त रहे दुख से हर प्राणी !
जैसा मैंने पाया उससे बढ़ कर यह संसार दे सकूँ ,
निभा सकूँ निस्पृह अपना व्रत बस इतनी क्षमता भर देना !
*
ऐसी संवेदना समा दो हर मन मन में अनुभव कर लूं
बाँटूँ हँसी जमाने भर को अश्रु इन्हीं नयनों में भर लूं !
सिवा तुम्हारे और किसी से क्या माँगूँ मेरे घटवासी ,
जीवन और मृत्यु की सार्थकता पा सकूँ यही वर देना !
*
प्रेरक और सुंदर चिंतन। एक मुक्तक याद आ गया।
ReplyDeleteगुलसितां पर हर्फ़ आता देखकर
खार जितने भी थे मैंने चुन लिए
फिर भी जब फीका रहा रंगे चमन
मैंने अपने खून के छींटे दिये।
bahut badhiyaa...
ReplyDelete:)
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर भावमय करते शब्दों से बंधा यह आलेख सार्थक प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील चिंतन ...
ReplyDeleteबाज़ार में
ReplyDeleteजोरों से चल रहा है संबंधों का धंधा
ऐसे में बड़ा मुश्किल है
इस भीड़ में से खोजना
एक अदद कंधा
बस .....कुछ क्षण सुबकने भर के लिए
यहाँ तो हर चीज़ की होती है तिजारत
न जाने कितनी जगह है लोगों की तिजोरियों में
पूर्ण रूप से सहमती है मेरी भी।
ReplyDeleteहालांकि मेरी कामना सिर्फ बाद वाली ही है लेकिन आपकी कामनाएं पूर्ण हों ऐसी मंगलकामना करता हूँ।
bahut sahi kaha aapne
ReplyDelete...
प्रेरणापर्द उपदेश ! हमी हम है तो क्या हम है !
ReplyDeleteसार्थक चिंतन.
ReplyDelete(और कोई शब्द नहीं सूझ रहे हैं)
आजकल आपकी पोस्टें प्रवचनात्मक ज्यादा क्यों हो रही हैं? आई आब्जैक्शन मी लॉर्ड. इसे मोनोटोनी से बचाइए. लायन के शब्दों में, कुछ मोना और कुछ टोनी लाइए!
ReplyDeleteबढ़िया
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सार्थक पोस्ट
ReplyDeleteइतने तंगदिल तो हम कभी न थे कि हमदर्दी के लिए एक अदद कन्धा तक पेश न कर सकें.
आज जो मकडजाल आप देख रहे हैं वो जबरन हमारा ओढा हुआ है.
ये गुण बहुत कम लोगों में पाया जाता है
ReplyDeleteआज का विषय बहुत सुंदर, सकारात्मक और संवेदनशील है........ आभार
बेहद गहन और सार्थक चिन्तन्……………सोचने को मजबूर करता है।
ReplyDeleteभगवान जीवन में मुझे वह क्षण कभी न देना, जब आँसू ढुलकाने के लिये कोई कंधा न मिले और किसी रोते हुये को अपने कंधे में न छिपा सकूँ। आँसुओं को मान मिले, सुबकने के लिये एक कंधा मिले, धरती की कराह भला आप कैसे सुन सकेंगे?
ReplyDeleteआज का विषय बहुत सुंदर, सकारात्मक और संवेदनशील है........ आभार
कंधे और आंसुओं की उपयोगिता पर पूर्ण दार्शनिक एवं उपयोगी विश्लेषण
ReplyDeleteपुरुषों के आंसू तो प्रायः कंधे की बजाय एकान्त ही तलाशते हैं ।
ReplyDeleteसहानुभूति की चाह मानव की स्वभाविक कमजोरी(जरूरत) है |
ReplyDeleteवह व्यक्ति बहुत दुर्भाग्यशाली होता है जिसे चार कंधे नसीब नहीं होते मरने पर और जिन्दा पर एक..
ReplyDeleteआँसुओं को मान मिले, सुबकने के लिये एक कंधा मिले,बहुत खुब जी, लेकिन जब कोई आंसू वहाने वाला ही कई लोगो को रुला कर,उन का हक मार कर आया हो ओर अब उसे कोई केसे भुला दे, कोन देगा ऎसे पापी को कंधा, कंधा उसे ही मिलता हे जो दुसरो का दुख बांटे, जो दुसरो को दुंख बांटे उसे कंधा कहां मिलेगा...
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर लेख लिखा एक एक शव्द दिल मे उतर जाता हे, धन्यवाद
जब तुम हँसते हो तो सारी दुनिया तुम्हारे साथ क़हक़हे लगाती है, मगर जब तुम रोते हो तो कोई नहीं होता तुम्हारे पास.. तुम्हारे साथ. आपकी बात पर कुछ माह पहले एक सशक्त ब्लॉगर की इसके बिल्कुल विपरीत भावों वाली पोस्ट याद आ गई.. ये बात और है कि इस पोस्ट ने उनको भी भावुक कर दिया!!
ReplyDeleteसार्थक लेखन!!
दुख बाँट ना पाएं...कोई सलाह ना दे पाएं ....सिर्फ साथ बने रहना भी बहुत है....
ReplyDeleteaapki yah sarthak avam vicharniy post sach me man me kahi gahre utar gai hai.
ReplyDeletevastav me yadi koi kisi ke aankh ke aansu ko na ponchh sake ,apne kandhe ka sahara na de sake,to kya use kisi ke kandhe pr sir rakh kar ro kar ji halka karne ka haq hai.
dusaro se apexha rakhne ke liye hame pahle is kabil banna hoga.
man ki gahraiyo ke sath likhi bahut hiprerana parak prastuti .
sach aap badhi ke pattr hain
poonam
आंसू की मायाजाल ही अलग है..इसे सुबकने के लिए एकांत या कंधे की जरुरत पड़ती है.दर्द भरी आलेख..धन्यवाद सर..
ReplyDeleteसकारात्मक . अनुभवजन्य और ग्रहणीय लेख . "वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे".
ReplyDeleteहमें वो दूसरी पंक्ित ही भटके रूप में याद आ रही है जिसमें कहा गया है कि
ReplyDeleteवो ह़दय नहीं है पत्थर है, जिसमें इंसानियत से प्यार नहीं
एक कंधा सुबकने के लिए अपने पास हो और आपके लिए भी कोई कंधा तैयार हो ,यह सच्ची मित्रता में ही संभव है.धरती का क्या है,वह तो साक्षात् क्षमा की देवी है और न जाने कितने,कैसे पापों का शमन करती है!
ReplyDeleteआहत मन के लिए एक कंधा बहुत बड़ी दवा होती है !
बहुत ही भावमय और सार्थक चिन्तन है।
ReplyDeleteधरती तो तब डोल उठी थी जब सुनामी आई और अनगिनत आंसू उसकी छाती पर पडे थे :(
ReplyDeleteभगवान जीवन में मुझे वह क्षण कभी न देना, जब आँसू ढुलकाने के लिये कोई कंधा न मिले और किसी रोते हुये को अपने कंधे में न छिपा सकूँ।...
ReplyDeleteबहुत ही प्रेरक आलेख..बहुत ही प्रभावी ढंग से आपने अपनी बात कही है..आभार
dusron ke ansu apne kandhe par lene ke liye bahut sanvedansheel dil chaiye .
ReplyDeleteachha laga apaka chintan.
प्रवीण भाई, पता नहीं क्यों आज सुबह से ही यह विषय उमड़ घुमड़ रहा था। दो बार पीसी पर बैठ जाता हूँ और फ़िर किसी के आने से उठना पड़ता है।
ReplyDeleteअभी आपकी पोस्ट देख कर लगा कि आपने मेरे मन की बात कह दी।
आभार
पहले मेरे साथ थे ये सब, अब भी मेरे साथ,
ReplyDeleteआहें, आंसू, धड़कन, सांसें और अकेलापन।
भगवान जीवन में मुझे वह क्षण कभी न देना, जब आँसू ढुलकाने के लिये कोई कंधा न मिले और किसी रोते हुये को अपने कंधे में न छिपा सकूँ।
ReplyDeleteऐसी रचना केवल एक सहृदय व्यक्ति ही लिख सकता
सही है।
ReplyDeleteजब मुसीबत पड़े और भारी पड़े
तो कोई तो चश्मेतर(भीगी आंख)चाहिये।
सही बात है!
ReplyDeleteवो तो कब का चला गया लेकिन,
मेरा कन्धा है आज भी गीला...
आपके इस पोस्ट को पढ़कर इतना ही कहूँगा.....वाह......शानदार........मुझे अपने आप पर गर्व है की मुझे आप जैसे लोगों के साथ कुछ पल गुजारने का मौका नसीब हुआ है......
ReplyDeleteअत्यंत सार्थक विचार.
ReplyDeleteरामराम.
ऐसा कांधा सबको मिले।
ReplyDeleteमैं तो हमेशा एक बात ही कहता हूँ कि रिश्ते बनाए हैं मैंने ताकि कंधे कम न पड़ें...
ReplyDelete"अपने लिए, जिए तो क्या जिए ,अ दिल तू जी ज़माने के लिए"
ReplyDeleteआपके द्रवित हृदय की करुण पुकार दिल को छु गयी .
अच्छा है कि आज के इस दौर में भी ऐसा सोचा जा रहा है. मानव-धर्म को बचाने के लिए जरूरी है कि दूसरो का दर्द बांटा जाये और दूसरो कि ख़ुशी में भी ख़ुशी का एहसास हो.रोने के लिए कन्धा हो और कंधे पर रखने के लिए हाथ भी. वो सुबह कभी तो आएगी.
ReplyDeleteसुख-दुख में साथ के लिए ही हम इंसान-अकेले से सामाजिक प्राणी बनते हैं.
ReplyDeleteभगवान जीवन में मुझे वह क्षण कभी न देना, जब आँसू ढुलकाने के लिये कोई कंधा न मिले और किसी रोते हुये को अपने कंधे में न छिपा सकूँ। आँसुओं को मान मिले, सुबकने के लिये एक कंधा मिले, धरती की कराह भला आप कैसे सुन सकेंगे?
ReplyDeleteइतनी निर्मल प्रार्थना के बाद क्या बचा रह सकता है माँगने को ! संवेदना एवं मानवीय सरोकारों से परिपूर्ण एक बहुत ही सार्थक एवं सारगर्भित आलेख ! बधाई एवं शुभकामनायें !
संवेदनशील और सार्थक चिंतन
ReplyDeleteसुंदर, सकारात्मक, संवेदनशील सार्थक पोस्ट.
ReplyDeleteबहुत गहनता से सोच कर लिखा गया लेख ।
ReplyDeleteबहुत दिनों के बाद ऑनलाइन आई हूँ , सो पिछली कुछ पोस्ट्स पढ़ी नहीं गयी| लेकिन आज की पोस्ट बहुत ही अच्छी लगी; खुद को आपकी लिखीं बातों के साथ रिलेट कर सकती हूँ |
ReplyDelete.
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शिल्पा
कितने बदनसीब हैं जिन्हें मरने के बाद चार कंधे तो मिल जाते हैं लेकिन जीते जी एक कंधा नहीं मिलता सुबकने के लिए।
ReplyDelete..संवेदना जगाती उम्दा पोस्ट।
कितने बदनसीब हैं जिन्हें मरने के बाद चार कंधे तो मिल जाते हैं लेकिन जीते जी एक कंधा नहीं मिलता सुबकने के लिए।
ReplyDelete..संवेदना जगाती उम्दा पोस्ट।
कभी कभी लगता है कि यदि अपनी ही समस्यायें सुलझाते सुलझाते जीवन निकल जायेगा, तब औरों के काम कब आयेंगे?......
ReplyDeleteगहन चिन्तनयुक्त विचारणीय पोस्ट ...
सार्थक प्रस्तुति ।
तनहा न हंसे कोई ,तनहा न रोये कोई
ReplyDeleteप्यासा न रहे कोई ,भूखा न सोये कोई
आंसुओ की धार को हम बाँट ले
जिन्दगी के प्यार को हम बाँट ले |
आइये बहार को हम बाँट ले
जिन्दगी के प्यार को हम बाँट ले |
जिसके पास हो ख़ुशी थोड़ी सी ख़ुशी दे दे
जो बेबस हो बेचारा ,अपनी बेबसी दे दे ,
दर्द की पुकार को हम बाँट ले
जिन्दगी के प्यार को हम बाँट ले
मिलके रोये मिलके मुस्कुराये हम
अपनी जीत हार को हम बाँट ले |
यह गीत यद् आ गया आपकी सुन्दर पोस्ट पढ़कर |
इस गीत को जिन्दगी का राग बनाने की कोशिश रही है और आपके विचार जानकर यह राग और पक्का हो गया |
आभार |
क्या आपके कंधों में वह अपनापन है जो किसी दुखियारे की झिझक मिटा सके, वह आकर कम से कम आपके कंधों में अपना सर टिका सके। किसी के लिये कुछ कर पाने की सामर्थ्य हो न हो, उसके दुख हृदयगत कर लेने की इच्छा तो बनी रहे सबके भीतर। कम से कम यह पग बढ़ायेंगे तो आगे की राहें भी निकलेंगी।
ReplyDeletekitni sundar baat kahi hai .
बहुत प्रासंगिक मसला, प्रवीन भाई. और शायद निर्णायक भी. निर्णायक इस बात का की मानवीय गुण वजूद में रहेंगे या नहीं. फैसला मुक्कमल तो तारीख ही करेंगी लेकिन उम्मीद की किरण आप जैसे लोगो से जगती हैं.
ReplyDeleteसच कोई कभी भी इतना अकेला न हो कि खुद से अपने आंसू पोंछने पडे और अस्वस्थ होने पर दवा भी खुद ही खरीदना पडे । विचारणीय आलेख !!!
ReplyDeleteबहार चले जाने की वजह से कुछ वक़्त के लिए अनुपस्थित रही .. माफ़ कीजियेगा ...
ReplyDeleteपोस्ट बहुत शानदार है प्रवीन जी .. और एक एक शब्द जो आपने घड़ा है ... दिल को छूता है ... पर ये ज़रूर कहूँगी की आजकल के दौर में .. कुछ ऐसे कंधे और कुछ ऐसे आंसू ज्यादा मिलेंगे जो केवल अपना व्यक्तिगत लाभ देखते हैं और दूसरों का फायदा उठाना जानते हैं ...
भगवान जीवन में मुझे वह क्षण कभी न देना, जब आँसू ढुलकाने के लिये कोई कंधा न मिले और किसी रोते हुये को अपने कंधे में न छिपा सकूँ। आँसुओं को मान मिले, सुबकने के लिये एक कंधा मिले.....
ReplyDeleteयही अपनी भी साध है....
प्रवीण जी,
ReplyDeleteये लाईन खास कर के पसंद आई...
"भगवान जीवन में मुझे वह क्षण कभी न देना, जब आँसू ढुलकाने के लिये कोई कंधा न मिले और किसी रोते हुये को अपने कंधे में न छिपा सकूँ। आँसुओं को मान मिले, सुबकने के लिये एक कंधा मिले, धरती की कराह भला आप कैसे सुन सकेंगे?"
बड़ाई तो नहीं करूँगा, लेकिन एक दो ऐसे मित्र हैं मेरे, जिनके आंसू कभी पोछ के अच्छा महसूस हुआ है...और जब कभी मैं दुखी रहा तो वो सदा ही मेरे साथ मेरे लिए मेरे पास खड़े मिले मुझे... :)
@ वाणी गीत
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ डॉ॰ मोनिका शर्मा
ये आँसू इस जगत के ही कारण हैं तो उनको सम्हालने की शक्ति भी हो इस जगत में।
@ संजय @ मो सम कौन ?
जैसे जैसे हम ऊपर उठते जाते हैं, जनसाधारण से दूर होते जाते हैं। जमीन से जुड़ा रह पाना सच में कितना कठिन है।
@ सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
सामाजिक मूल्य यदि यूँ ही हाशिये पर बने रहे तो धरती यूँ ही कराहती रहेगी।
@ Udan Tashtari
काश सबको वह आश्रय मिले, एक कंधे का, सुबकने के लिये।
@ Abhishek Ojha
ReplyDeleteजितने लोगों में यह गुण होता है वही धरती की कराह मिटा कर स्वयं को पृथ्वी का सुपुत्र सिद्ध करते हैं।
@ दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi
पूर्णतया सहमत हैं आपसे।
@ Archana
आपकी टिप्पणी तो स्वयं में पोस्ट के समान है।
@ dhiru singh {धीरू सिंह}
कंधे का साथ तो जीवन के लिये चाहिये, मृत्यु के बाद तो चार का सहारा हो ही जाता है।
@ Arvind Mishra
परहित तो तब प्रारम्भ होगा जब किसी को टिकाने के लिये कंधा देंगे।
@ निर्मला कपिला
ReplyDeleteजिसका कंधा जितना गीला, उसका दिल भी उतना ही बड़ा है।
@ सतीश सक्सेना
मेरी व आपकी इच्छा एक ही है, काश ऐसे सशक्त कंधे देश को मिलें जिस पर सबका भविष्य टिक सके।
@ sagebob
कंधे प्रस्तुत रहें हर एक को सहारा देने के लिये।
@ SEPO
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।
@ OM KASHYAP
बहुत धन्यवाद आपका।
@ ZEAL
ReplyDeleteमेरा लिखना सार्थक हो गया तब।
@ प्रतिभा सक्सेना
बड़ा ही सार्थक संदेश प्रेषित करती आपकी कविता। करुणामयी हो जाये हम सबका अस्तित्व।
@ मनोज कुमार
बहुत ही सुन्दर भाव आपके मुक्तक के।
@ रश्मि प्रभा...
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Kajal Kumar
बहुत धन्यवाद आपका।
@ सदा
ReplyDeleteवही मनुष्य है कि जो..
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
बहुत धन्यवाद आपका।
@ कौशलेन्द्र
संबंधों के धंधे में कहाँ मिलेंगे कंधें।
@ Avinash Chandra
आपकी कामनायें पूरी हो।
@ दीप्ति शर्मा
बहुत धन्यवाद आपका।
@ पी.सी.गोदियाल "परचेत"
ReplyDeleteहमारा अस्तित्व औरों का आधार हो।
@ सोमेश सक्सेना
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Raviratlami
आपकी सलाह सर आँखों पर, धीरे धीरे बढ़ेंगे।
@ Sonal Rastogi
बहुत धन्यवाद आपका।
@ उस्ताद जी
मकड़जाल तो फैलता जा रहा है, कंधे नसीब नहीं हो रहे हैं।
@ संजय भास्कर
ReplyDeleteमानवीय संवेदना का निष्कर्ष है यह कंधा जिस पर दुखी आकर सर टिका सकें।
@ वन्दना
सोच हो तो सार्थक हो, दूसरों को ध्यान में रख सोचेंगे तो निकास होगा।
@ शिव शंकर
धरती की कराह धरती के पुत्र ही समझेंगे।
@ गिरधारी खंकरियाल
कंधों और आँसुओं का सम्बन्ध मानव सभ्यता के प्रारम्भ से ही है।
@ सुशील बाकलीवाल
पुरुष अंह का सर्वाधिक दुखद पक्ष है यह।
@ नरेश सिह राठौड़
ReplyDeleteचाह तो सहायता करने की हो, जो दुखी है, उसकी क्या चाह रह जाती है?
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
काश यह सौभाग्य सबको मिले।
@ राज भाटिय़ा
पापियों को कंधा मिलेगा तो पाप घटने की जगह बढ़ने लगेंगे।
@ सम्वेदना के स्वर
ठहाकों को साथ मिले न मिले, आँसुओं को कंधा अवश्य मिल जाये।
@ rashmi ravija
साथ खड़े रहने से ही जीवन का संबल मिला रहता है।
@ JHAROKHA
ReplyDeleteसमस्यायें तो बाटने से ही सुलझने लगती हैं, आँसुओं को कंधा दे देने से, उनको मान मिल जाता है, दुख बहुत कम हो जाता है।
@ G.N.SHAW
आँसुओं के मायाजाल में न जाने कितना दुख प्रवाहित हो जाता है, कितना क्रोध व्यक्त होने से रह जाता है।
@ ashish
मनुष्य का प्रथमेव गुण है, औरों के लिये जीना।
@ Rajey Sha
पत्थर-हृदय में सर कोई नहीं टिकाना चाहता है।
@ संतोष त्रिवेदी
काश इतना प्रेम मानवीय संबन्धों में उमड़ आये।
@ Patali-The-Village
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ cmpershad
तब बहुत कंधे भी आगे आ गये थे।
@ Kailash C Sharma
मानव में एक दूसरे को सहारा देने की प्रेरणा बनी रहे।
@ shikha varshney
संवेदना ही मनुष्य को मनुष्य बनाती है।
@ ललित शर्मा
आपके मन की बात कह देने का सुख अनुभव कर रहा हूँ, बात आपके मन की थी तभी मुझे भी बहुत अच्छी लग रही थी।
@ mahendra verma
ReplyDeleteवाह, जब आपके अपने आपके साथ हैं, आप से सौभाग्यशाली कोई नहीं। मेरी भी उनसे पुरानी मित्रता है।
@ Sunil Kumar
बहुत धन्यवाद आपका।
@ अनूप शुक्ल
आपका कंधा तो उन्हें मिल ही जायेगा।
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
बहुत गहरे भाव।
@ honesty project democracy
सौभाग्य तो मेरा ही है।
@ ताऊ रामपुरिया
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ राजेश उत्साही
बहुत धन्यवाद आपका।
@ चला बिहारी ब्लॉगर बनने
रिश्ते तो बनते हैं, प्रगाढ़ता उसमें तब ही आती है जब उनका परीक्षण आँसुओं से होती है।
@ Rakesh Kumar
जब लोगों को औरों के दुख में अपनी हानि दिखती है, वे मुँह मोड़ लेते हैं, यह व्यवहार घातक है।
@ संतोष पाण्डेय
मिल बाँटकर जी लिये जायें सुख दुख से भरे जीवन।
@ Rahul Singh
ReplyDeleteसामाजिकता के परिवेश में जब मन स्वार्थ करना सिखा दे तो क्या किया जाये।
@ Sadhana Vaid
इस प्रार्थना को ही ईश्वर के संस्तुति स्वर मिल जायें।
@ Ratan Singh Shekhawat
बहुत धन्यवाद आपका।
@ रचना दीक्षित
बहुत धन्यवाद आपका।
@ "पलाश"
आँसुओं की गहनता पढ़ पाना कठिन है।
@ Shilpa
ReplyDeleteमानवीय संबन्धों की बातों में संवेदना तो होती ही है।
@ देवेन्द्र पाण्डेय
यही बस मानव जीवन की विडम्बना है, जीवन भर एक कंधा तो मिले।
@ Dr (Miss) Sharad Singh
अपने में ही उलझे रहते हम सब औरों के कष्टों को समझ ही नहीं पाते हैं।
@ शोभना चौरे
आपके गीत से हम सबको ही अपना अपना जीवन गीत तैयार करना होगा। बहुत ही संवेदनशील गीत।
@ ज्योति सिंह
सर किसी के कंधे में टिका लेने से मन का भार हल्का हो जाता है।
@ Rahul Kumar Paliwal
ReplyDeleteनिर्णायक इसलिये और हो गया है क्योंकि संबन्ध तो फैल रहे हैं पर उनकी गुणवत्ता डूब रही है।
@ nivedita
अकेलापन खा जाता है, सामान्य सोचने की शक्ति भी।
@ क्षितिजा ....
जब देने के लिये बहुत हो तो हानि भी सह ली जायेगी।
@ रंजना
आपकी साध ही मानवता की साधना बन जाये।
@ abhi
आप भाग्यवान हैं क्योंकि आपके कंधे में सर टिकाकर आपके मित्रों को शान्ति मिलती है।
श्वेत पटल पर श्वेत हृदय से श्वेत भाव की धारा ..सुन्दर
ReplyDeleteमतलब के रिश्ते सभी,झूठी स्वर्णिम रेख !
ReplyDeleteधरती भी रोती रही, बहते आँसू देख !
प्रवीण जी,
जीवन के यथार्थ को बड़ी ही प्रभावी ढंग से लेख में पिरोया है !
आभार !
भगवान जीवन में मुझे वह क्षण कभी न देना, जब आँसू ढुलकाने के लिये कोई कंधा न मिले और किसी रोते हुये को अपने कंधे में न छिपा सकूँ।
ReplyDelete-बस, यही प्रार्थना हमारी भी है.
बहुत ही भावमय और सार्थक चिन्तन है।
शुभकामनायें।
प्रवीण भाई,
ReplyDeleteछोटा मूंह, बड़ी बात हो जाएगी.
पर हमारा कन्धा तो इसी काम के लिए बना है शायद. हां, जब मेरा रोने का मन होता है..... हा हा हा!
आशीष
आपका परिचय जानने की बहुत इच्छा थी दिल में | आज आपका ये लेख पड़ा तो आपका वास्तविक परिचय मिल गया आपके खुबसूरत विचारों को जाना तो समझ में आ गया की आप एक खुबसूरत दिल भी रखते है जो और के लिए भी धडकना जानता है |
ReplyDeleteसशक्त रचना बहुत - बहुत बधाई दोस्त |
@ परावाणी : Aravind Pandey:
ReplyDeleteसुख दुख को श्वेत श्याम में विभक्तकर आँखें नम कर लेना बड़ा शान्तिदायक होता है। नियति व प्रकृति से जूझने में श्रम चला जाता है।
@ ज्ञानचंद मर्मज्ञ
धरती की रुदन यही है, कि मानव स्वार्थी हो गया है।
@ amrendra "amar"
काश हमारा समवेत स्वर ईश्वर स्वीकार कर ले।
@ आशीष/ ਆਸ਼ੀਸ਼ / ASHISH
जब अपने आँसू त्यक्त गिरते हैं तब औरों को आँसुओं को कंधा देने की उपयोगिता समझ आती है।
@ Minakshi Pant
हर प्रयास में स्वार्थ उभर पर आता है।
praveen ji , bahut bahut dino ke baad koi aisa lekh padhne ko mila jisne jeevan me ek saarthak kadam uthane ke liye kaha hai ,. aapka ye lekh meri nazar ma one of your best writings hai ,.,
ReplyDeletedil se badhayi sweekar kare.
@ Vijay Kumar Sappatti
ReplyDeleteबहुत आभार आपका, पर दूसरे के लिये कुछ कर सकने की इच्छा मन में रह रह उठना शेष बची मानवता की ऊर्जा है।
आपकी कहन मन को अपील करती है. लेखन शैली पसंद आयी. अच्छी रचना पढ़वाने के लिए आपका आभार -अवनीश सिंह चौहान
ReplyDelete@ Abnish Singh Chauhan
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपके उत्साहवर्धन का।
मैं उत्कट आशावादी हूँ !
ReplyDeleteमानव मन की सम्वेदनाओं को उकरनेवाले इस नम आलेख के लिए धन्यवाद। अमूर्त विषयों पर ऐसे लेख अब अलभ्यप्राय: हैं।
ReplyDeleteहमारा लोक बार-बार हमें परामर्श देता है - जैसा बोआगे, वैसा काटोगे। जाहिर है, दूसरों के लिए हम अपने कन्धे प्रस्तुत करेंगे तो दूसरों के कन्धे हमारे लिए प्रस्तुत मिलेंगे।
@ सागर
ReplyDeleteयही उत्कट आशावादिता ही विश्व का आधार बनेगा।
@ विष्णु बैरागी
हम दूसरों के लिये अपना कंधा प्रस्तुत करेंगे तो हमें सबका कंधा मिलेगा सुबकने के लिये।
यदि कन्धों की बात की जाय, तो शायद अत्यधिक भाग्यशाली हूँ...
ReplyDeleteपरन्तु कभी-कभी, आस-पास देखकर लगता है कि लोग इतने व्यस्त कैसे हो सकते हैं कि वो अपने अपनों को अपना कन्धा देने और उनके आंसूं पोछने को "वेस्ट ऑफ़ टाईम" बोलते हैं... और आंसूं शेयर करने को कायरता बोलते हैं... दुर्भाग्य...
पोस्ट विचारणीय एवं यहीं आस-पास घूमती लगी...
धन्यवाद...
@ POOJA...
ReplyDeleteकिसी के आँसू समेट लेना समय को व्यर्थ करना न कहा जाये। इस प्रक्रिया में जो शान्ति मिलती है उससे उत्कृष्ट सृजनात्मकता जन्म लेती है।
बहुत सुन्दरता से लिखा गया लेख है...
ReplyDeleteजीवन में कई ऐसे मौके आते है जब रोने के लिए
अपनों का ही कन्धा नदारत मिलता है....और उसी समय कोई दूसरा ही कन्धा मिल जाता है..!!और कई बार तो खोजने पर वह भी नहीं मिलता !और असली परीक्षा उसी समय होती है कि आप बिना किसी कंधे का सहारा लिए कैसे रोते है ??
यही वह समय होता है जबकि सारी समष्टि आपके साथ होती है
@ ***Punam***
ReplyDeleteआपका कंधा किसी को मिले इसमें आपका भाग्य भी छिपा होता है, हमारा व्यक्तित्व कभी कभी इतना रुक्ष जो हो जाता है कि किसी को अपना दुख कहने में संकोच होने लगता है।