अपने घर से निकलकर मित्र के घर पहुँचने तक की कार यात्रा में जीवन का दर्शन समेट कर रख दिया, सहयात्रियों को देखते, उनके बारे में बतियाते, उनके मन में झाँकते। अनुभवों की अभिव्यक्ति इतनी सशक्त कि हर घटना एक नया दृष्टिकोण लिये निकली। कोई गुरुता नहीं शब्दों में, वाक्यों में, पृष्ठों में, सब कुछ बड़े ही सरल ढंग से, ग्रहणीय, संदर्भों की जटिल पृष्ठभूमि से परे। स्वनामजन्य प्रवाह, तार्किक प्रबलता, मानवीय दुर्बलताओं का विनोदपूर्ण पर आक्षेपविहीन अवलोकन, समाजिक सुन्दर पक्षों का काव्यमय समावेश, निष्कर्ष 'देख लूँ तो चलूँ'।
एक साहित्यिक कृपा की समीरलाल जी ने कि मुझे अपनी पुस्तक की हस्ताक्षरित प्रति भेजने के योग्य समझा। उसी समय हर्षातिरेक में दो तीन पृष्ठ पढ़ गया, पर लगा कि पुस्तक का सम्मान उसे एक प्रवाह में पढ़ने में है, न कि खण्ड खण्ड। अगली लम्बी ट्रेन यात्रा का दिन निर्धारित कर लिया गया। यात्रा का सामान सजाते समय यह पुस्तक सबसे ऊपर रखी गयी, भेंट का समय आ गया, 16-02-11, कर्नाटक एक्सप्रेस, ए केबिन, बच्चे और उनकी माँ दोपहर का भोजन कर सामने वाली बर्थों में निद्रा में डोलते हुये, दौंड और भुसावल के बीच का सुन्दर परिदृश्य, खिड़की से छनकर हल्की सी धूप अन्दर आती हुयी, पढ़ने का निर्मल एकान्त, उस पर 77 पृष्ठों का अपरिमित आनन्द, एक प्रवाह में पढ़ लगा, लगभग उतने ही समय में जिसमें समीरलाल जी की कार मित्र के घर पहुँच गयी।
यात्रायें कुछ न कुछ नया लेकर आती हैं, हर बार। कार यात्रा, ट्रेन यात्रा, जीवन यात्रा, सबमें एक अन्तर्निहित समानता है, एक को दूसरे से जोड़कर देखा जा सकता है। यही सशक्त पक्ष है पुस्तक का भी, यात्रा में कुछ न कुछ दिखता रहता है, उससे सम्बन्धित जीवन के तथ्य स्वतः उभर कर सामने आ जाते हैं। यह शैली अपनाकर दर्शन के तत्वों को भी सरलता उड़ेला जा सकता है। पर दो खतरे हैं इसमें। पहला, असम्बद्ध विषयों को जोड़ने का प्रयास बहुधा कृत्रिम सा लगने लगता है। दूसरा, हर विषय को जोड़ते रहने से पुस्तक का स्वरूप डायरीनुमा होने लगता है। इन दोनों खतरों को कुशलता से बचाते हुये दर्शन और जीवन का जो उत्कृष्ट मिश्रण समीरलालजी ने प्रस्तुत किया है, वह मात्र सुगढ़ चिन्तन और स्पष्ट चिन्तन-दिशा से ही सम्भव है।
कभी एक शब्द विशेष की उपस्थिति संवाद को संक्षिप्तता से कह जाती है, कभी वाक्यों का समूह जीवन का रहस्य उद्घाटित करता है, कभी कविता दर्शन की गहनता को समेट देती है, हर शब्द, हर वाक्य, हर पृष्ठ, व्यस्त सा प्रतीत होता है, कुछ न कुछ कह देने के लिये। उनके व्यस्त जीवन का प्रक्षेप है लेखन में भी, सब कुछ समेट लेने की शीघ्रता। विक्रम सेठ के 'सूटेबल ब्वॉय' या अरुन्धती रॉय की 'द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग' लिखने जितना समय और धैर्य होता तो 77 पृष्ठों का लेखन 770 पृष्ठों में भी न समा पाता। चलिये, इस बार पाठक सूप से संतुष्ट हो गये हैं, पर भविष्य के लिये पढ़ने की भूख भी बढ़ गयी और स्वादिष्ट भोजन की आस भी।
विषयवस्तु पर जाने से उसकी प्रशंसा में कई अध्याय लिखने पड़ जायेंगे। उसका भार सुधीजनों पर छोड़ बस इतना ही कहना चाहूँगा कि सबके जीवन से जुड़ी नित्य की घटनायें एक माध्यम होती हैं कुछ गहरा कहने के लिये। माध्यम का सुन्दर उपयोग, अवलोकन की कुछ और सीमायें निर्धारित कर देने के लिये, इस कृति की विशेषता है। पुस्तक पढ़ने के पश्चात अब वे घटनायें वैसी नहीं दिखेंगी, जैसी अब तक दिखती आयी हैं, उस पर समीरलालजी के हस्ताक्षर दिखायी पड़ जायेंगे आपको।
मैं नहीं जानता कि मेरा अवलोकन कितना गहरा रहा, पर और गहरे जाने से उन उद्देश्यों को उभार न पाता जिसके लिये यह पुस्तक लिखी गयी होगी। पुस्तक लिखने का उद्देश्य और अभीष्ट पाठकगण, दोनों ही मानकों पर पुस्तक खरी उतर आने के कारण मैं स्वयं संतुष्ट था। नदी में गहरा उतरने से पूरी तरह डूब जाने का खतरा तो रहता ही है।
यदि आपने पुस्तक नहीं पढ़ी है तो तुरन्त पढ़ डालें, इतना सरल-हृदय-संप्रेषण विरला ही होता है।
रेल गाड़ियों में किताबें बहुत काम आतीं हैं....उस पर अगर आपके पसंद की हो तो क्या कहने...
ReplyDeleteकृति और उसका रसास्वाद दोनों स्वागतेय.
ReplyDeleteमुझे लम्बा पढ़ने से परहेज है....हा हा हा ..मैने ऐसे ही पढ़ी खंड-खंड...और पता ही नही चला...ये खतम हो चुकी...या जारी है ...
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई। समीर जी की पुस्तक को पाने की बेकरारी तो हमें भी है, पता नहीं कैसे मिलेगी। अच्छा आलेख।
ReplyDeleteप्रमोद ताम्बट
भोपाल
http://vyangya.blog.co.in/
http://www.vyangyalok.blogspot.com/
http://www.facebook.com/profile.php?id=1102162444
आज आपकी पोस्ट "बहता समीर" शीर्षक देख कर लगा कि प्रवीण पाण्डेय और समीर लाल में सुखद मुलाक़ात हुई है और इस यादगार मुलाकात रिकार्ड करने के लिए ही यह पोस्ट लिखी गयी होगी !
ReplyDeleteमुझे नहीं मालुम कि आपकी समीर लाल से मुलाकात हुई है या नहीं मगर यह भरोसा है कि आप जब भी मिलोगे समीर लाल का स्नेहिल और सरल व्यक्तित्व याद अवश्य रखोगे !
उनके भारत प्रवास में, पहली मुलाकात में मैं बिलकुल उत्साहित नही था ...बस एक ब्लागर की भांति औपचारिक रूप में मिलने गया था मगर दूसरी मुलाकात निस्संदेह जोश भरी थी और उन्हें छोड़ने का मन नहीं हुआ ! निश्छल और द्वेषरहित समीर ने बहुत प्रभावित किया !
इस रचना के सम्बन्ध में, मैं आपके लिखे इस वाक्य को, अपना नाम भी देना चाहूँगा ...
" यदि आपने पुस्तक नहीं पढ़ी है तो तुरन्त पढ़ डालें, इतना सरल-हृदय-संप्रेषण विरला ही होता है।"
आज के इस आपाधापी और अधैर्य के युग में अगर समीक्षाओं से ही काम चल जाए तो फिर पूरी पुस्तक कौन पढना चाहेगा -देख लूं तो चलूँ अब इतने कोणों से प्रस्तुत हो गयी है की शायद ही अब कोई कोण बचा हो -तथापि मूल कृति के आस्वादन का अपना अलग ही आनंद है -इस लिहाज से हमें सभी समीक्षकों ख़ास तौर पर आपसे से रश्क है !
ReplyDeletekahan se lun?
ReplyDeleteचलिए बधाई की आपने भी समीर जी की पुस्तक का रसास्वाद ले ही लिया !
ReplyDeleteनई समीक्षा - नया नजरिया. उत्तम.
ReplyDeleteब्लॉग के ज़रिये समीरजी की लेखनी से सभी रूबरू और प्रभावित हैं ..... उनकी कृति पढ़ने की बहुत इच्छा है.....
ReplyDelete--------
दर्शन और जीवन का जो उत्कृष्ट मिश्रण समीरलालजी ने प्रस्तुत किया है, वह मात्र सुगढ़ चिन्तन और स्पष्ट चिन्तन-दिशा से ही सम्भव है।
सुंदर सरल प्रभावी सम्प्रेषण हेतु आपका भी आभार
वैसे पुस्तक पढ़ चुकी हूँ लेकिन अब सोच रही हूँ कि इस बार रेल-यात्रा में दोबारा पढ़ी जाए।
ReplyDeleteनदी में गहरा उतरने से पूरी तरह डूब जाने का खतरा तो रहता ही है ..
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने मेरे ख्याल से जीवन भी एक नदी है जिसमे विचारों की गहराइयाँ है और इसमें उतरने पर डूबने का खतरा रहता तो है लेकिन अगर खतरों से ना खेला तो जीवन का असल आनंद नहीं लिया जा सकता और असल बहुमूल्य मोती को भी नहीं पाया जा सकता ......आशा है आपकी यात्रा सुखद और सार्थक रही होगी..... समीर जी की पुस्तक की चर्चा कई मित्रों ने की है अब आपकी चर्चा के बाद पढने की जिज्ञासा और बढ़ गयी है......
आप की इस बात से सहमत हूँ कि "इस बार पाठक सूप से संतुष्ट हो गये हैं, पर भविष्य के लिये पढ़ने की भूख भी बढ़ गयी और स्वादिष्ट भोजन की आस भी।"
ReplyDeleteहकीकत यह है कि यह लेखन पर ब्लागीरी का असर है। हम ब्लागीर अपनी बात कहने को इतने आतुर रहते हैं कि उस पर अधिक ध्यान नहीं दे पाते। यह भी कि शायद पुस्तक आरंभ करने के पहले हम अपना लक्ष्य भी निर्धारित नहीं कर पाते। यदि हम ऐसा कर पाएँ तो हम और बेहतर हो कर प्रकट हो सकते हैं। समीरलाल जी में बहुत संभावनाएँ हैं।
यात्रायें कुछ न कुछ नया लेकर आती हैं, हर बार।
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी एवं रूचिकर प्रस्तुति ...बधाई ।
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteपुस्तक का तो हमे भी इन्तजार है
यात्रा के साथ पठन पाठन, दृश्यावलोकन एक तीर से कई शिकार
ReplyDeleteपुस्तक पढी लेकिन समीक्षा नही कर पाने का अफ्सूस जरूर रहा। शब्द ही नही मिले पुस्तक के अनुरूप। बधाई इस समीक्षात्मक पोस्ट के लिये।
ReplyDeleteहम तो ब्लॉग पर ही पढते रह सकते हैं जी, आदरणीय समीर जी को
ReplyDeleteकभी शुभ प्रारब्ध में होगा तो शायद हमारे हाथ भी लग जाये यह पुस्तक
प्रणाम स्वीकार करें
बहुत बहुत बधाई। समीर जी
ReplyDeleteसुंदर सरल प्रभावी सम्प्रेषण हेतु आपका भी आभार
sir...sameer n bahe ..to usaki paribhasa hi shes nahi bachati....pustak sangrah ki koshis karenge..
ReplyDeleteआपने सही कहा ... पुस्तक एक ही बार में पूरी की पूरी पढ़ी जाने लायक है ....
ReplyDeleteवैसे शुरू करने के बाद छोड़ने का मन भी नहीं करता ...
जय हो समीर भाई की ...
pahlee baat to ye ki aap jab bhi kuchh ikhte hain...to usme bahut kuchh hota hai....tees par sameer bhaiya ki keetab...to jarur kuchh khass to hoga hi...achchha laga...padh kar...!!
ReplyDeletekash ham jaise chhote mote logo ko bhi ye keetab mil paati:)
अच्छी समीक्षा , "देख लू तो चलूँ " पढने की इच्छा है , बाकी सुवासित समीर ऐसे ही बहता रहे और मन को प्रफुल्लित करता रहे .
ReplyDeleteआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (24-2-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
आप समीर जी के मित्रों में से हैं इसीलिए आपको वह पुस्तक पढने का सौभाग्य जल्दी मिल गया. "देख लूं तो चलूँ" कि प्रशंशा पढ़कर इसे पढने की अधीरता बढती जा रही है.
ReplyDeleteआप समीर जी के मित्रों में से हैं इसीलिए आपको वह पुस्तक पढने का सौभाग्य जल्दी मिल गया. "देख लूं तो चलूँ" कि प्रशंशा पढ़कर इसे पढने की अधीरता बढती जा रही है.
ReplyDeleteबहते समीर संग आपका बहता स्नेह अभिभूत कर रहा है..बनाये रखिये. सभी का बहुत आभार!!!
ReplyDeleteहमारी प्रति भी रस्ते में है बस आती होगी.
ReplyDeleteबढ़िया समीक्षा
यह समीक्षा, पुस्त पढने को लालायित करती है।
ReplyDelete'मैं नहीं जानता कि मेरा अवलोकन कितना गहरा रहा,'
ReplyDelete- यह तो हम भी नहीं जानते, लेकिन इतना स्पष्ट है कि अवलोकन करने की आपकी शैली शानदार रही |
पढ़नी है हमें भी, पुस्तक पढ़ने का तो व्यसन रहा है हमें भी। उत्सुकता है और बहुत है।
ReplyDeleteमैं नहीं जानता कि मेरा अवलोकन कितना गहरा रहा,
ReplyDelete>गहरे पानी पैठ कर ही समीर की और अधिक आवश्यकता महसूस होती है :)
पुरविया जी, (कौशल मिश्र) आज प्रेस आकार बहुत ही हर्ष के साथ 'देख लूं तो चलूँ' पुस्तिका दिखा रहे थे, ताज्जुब हुवा को गुस्सा भी आया अपने बेफिक्रे व्यवहार पर, पर जो भी पुस्तक मुझे दिखा कर वापिस ले ली गयी, और वो बोले, 'देख ली तो चलूँ'........
ReplyDeleteहा हा हा, पुस्तक पढ़ने के बाद ही मेरे को मिलेगी...
बहरहाल समीर जी को शुभकामनाये... और साधुवाद आपको - एक सुंदर समीक्षा के लिए.
क्या बात हे, बहुत ही सुंदर जी धन्यवाद
ReplyDeleteकार की घटती बढती रफ़्तार के साथ,सड़क की बदलती लेनो में ,कभी यातयात में फंसते निकलते
ReplyDeleteकभी कच्ची पक्की सडकों पर उतरते चढ़ते ,समीरजी ने जो विचारों की समीर बहाई तो
फिर न उसने आगेवाले को ,न पीछे वाले को कार के शीशे से झांकते हुए और न ही आकाश में उड़ते पंछी को , न कनाडा में न भारत में रहने वाले को
बक्शा.
लेकिन बिल्ली ने चिड़ियों को खाया इससे डरे सहमे
समीरजी के कोमल दिल में झाँकने का मौका भी
मिला उनकी इसी किताब को पढ़ कर .
ताऊ रामपुरिया भी तलाश में हैं किताब पर समीक्षा
करने के लिए..प्रणाम .
पुस्तकें हमारी सच्ची दोस्त हैं.
ReplyDeleteहमारे साथ रहती हैं,
बतियाती हैं, सिखाती हैं जीना
दिल और दिमाग को रोशन करती हैं.
बढ़िया लेख. समीरजी का ब्लॉग देखा है. अक्सर बढ़िया लिखते हैं.
समस्त ब्लॉग जगत इस समीर के झोंके से शीतल हुआ जा रहा है!!
ReplyDeleteअभी कहाँ पढ पाई पुस्तक.बस, प्रतीक्षा कर रही हूँ .
ReplyDeleteक्या यह दुकानों ममिल रही है।
ReplyDelete"इस बार पाठक सूप से संतुष्ट हो गये हैं, पर भविष्य के लिये पढ़ने की भूख भी बढ़ गयी और स्वादिष्ट भोजन की आस भी।"
ReplyDelete.....जोरदार।
sameerji ki lekhni pathkon ko baha le jati hai........koi shak'.......nahi.
ReplyDeletepranam.
बहुत मनमोहक प्रस्तुति
ReplyDelete@दर्शन और जीवन का जो उत्कृष्ट मिश्रण समीरलालजी ने प्रस्तुत किया है, वह मात्र सुगढ़ चिन्तन और स्पष्ट चिन्तन-दिशा से ही सम्भव है।
ReplyDeleteप्रस्तुत समीक्षा के उक्त एक वाक्य से पुस्तक का विवेच्य विषय स्पष्ट हो जाता है।
समीक्षा की शैली में मौलिकता है।
अच्छा हुआ यह किताब मैने पहले ही पढ़ ली....अब इसकी अलग-अलग समीक्षाएं पढ़कर और भी आनंद आ रहा है.
ReplyDeleteबहुत ही कुशलता से लेखन की बारीकियों को उकेरा है.
बहुत ही अच्छी एवं रूचिकर प्रस्तुति|धन्यवाद|
ReplyDeleteआपके लेखन ने समीर जी की पुस्तक पढ़ने की भूख जगा दी है ...अभी तो सूप भी नसीब नहीं हुआ ...
ReplyDeleteबहुत सुंदर लेख ..
ReplyDeleteदेखूं तो चलूं ' की समीक्षा पांचवी या छट्ठी बार पढ़ रही हूँ .....
ReplyDeleteसभी ने अपने अपने तरीके से समीक्षा की ...
आपकी समीक्षा भी अलग हटकर अच्छी लगी .....
समीर जी बहुत ही सहृदय हैं ....
पुस्तक मुझे भी भेजी उन्होंने ....
पर मैं अपने आप को समीक्षा के योग्य नहीं पाती ....
हाँ जितना खूबसूरत उनका दिल है उतनी ही खूबसूरत उनकी हस्तलिपि ....
अर्चना और दीपक बाबा की टिपण्णी पर मुस्कुरा रही हूँ .....
समीर जी की किताब 'देख लूँ तो चलूँ " मुझे भी बहुत पसंद आई. क्या अंदाज़ है लिखने का बस मजा आ गया
ReplyDeleteपुस्तक की प्रतीक्षा है...डाक में लगने की सूचना मिल चुकी है,बस हाथ में आने की प्रतीक्षा है....
ReplyDeleteएक ही पुस्तक अनेक व्यक्तियों ने पढ़ी और फिर उसे अपने नजरिये से प्रस्तुत किया. यह नजरिया ही है जो एक ही चीज के कई आयाम दिखा जाता है.
ReplyDeleteपुस्तक के बारे में पढना अच्छा लगा ....!
ReplyDelete@ Rajesh Kumar 'Nachiketa'
ReplyDeleteट्रेन में न जाने कितनी किताबें पढ़ी हैं, बड़ा उपकार है ट्रेनों का।
@ Rahul Singh
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Archana
खंड खंड पढ़ने में आनन्द चला जाता है।
@ हास्यफुहार
बहुत धन्यवाद आपका।
@ प्रमोद ताम्बट
अब दबाव समीरलालजी पर है, अपनी पुस्तक उपलब्ध कराने के लिये।
@ सतीश सक्सेना
ReplyDeleteउस भेंट की प्रतीक्षा मुझे भी है।
@ Arvind Mishra
पुस्तक पढ़ समीक्षा लिखने में दुबारा पढ़ना हो जाता है।
@ रश्मि प्रभा...
समीरलालजी को अवगत कराता हूँ।
@ पी.सी.गोदियाल "परचेत"
बहुत धन्यवाद आपका।
@ सुशील बाकलीवाल
बहुत धन्यवाद आपका।
@ डॉ॰ मोनिका शर्मा
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका, कृति बड़े सहज भाव लिखी है।
@ ajit gupta
रेल में पढ़ने का मजा ही अलग है।
@ honesty project democracy
अपनी जिज्ञासा अवश्य पूर्ण कर लें।
@ दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi
ब्लॉग में विषय ऐसै उठाते हैं जो उन पाठकों को भाते हैं, यही सूत्र यदि बढ़ाते जायेंगे तो संभवतः पुस्तक तैयार हो जायेगी।
@ सदा
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Deepak Saini
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ गिरधारी खंकरियाल
यात्रायें कितना कुछ दे जाती हैं।
@ निर्मला कपिला
आपकी समीक्षा की प्रतीक्षा रहेगी।
@ अन्तर सोहिल
अब तो पुस्तक मँगवानी पड़ेगी समीरलाल जी को।
@ संजय भास्कर
बहुत धन्यवाद आपका।
@ G.N.SHAW
ReplyDeleteबहते समीर का आनन्द तो पुस्तक में ही है।
@ दिगम्बर नासवा
एक बार में ही पूरी पढ़ने की इच्छा होती है।
@ Mukesh Kumar Sinha
माँग पर तो उत्पादन बढ़ाना पड़ेगा।
@ ashish
और भी पुस्तकों की आशा रहेगी समीरलालजी से।
@ वन्दना
बहुत धन्यवाद इस सम्मान के लिये।
@ मेरे भाव
ReplyDeleteभाग्य ही कहेंगे जो पुस्तक प्राप्त हो गयी।
@ Udan Tashtari
बहता समीर सबको शीतलता पहुँचा रहा है, आपका आभार।
@ shikha varshney
आप भी शीघ्र पढ़ें।
@ विष्णु बैरागी
पुस्तक अतिशीघ्र पढ़ने योग्य है।
@ hem pandey
समीक्षायें बहुधा विस्तृत ही देखी हैं अतः संक्षिप्त लिखने का कारण बता रहा था।
@ संजय @ मो सम कौन ?
ReplyDeleteकाश आपकी इच्छा शीघ्र पूरी हो।
@ cmpershad
जब विस्तृत लिखेंगे तब गहरे उतरकर ही लिखेंगे।
@ दीपक बाबा
उनके देखने के बाद आप भी देखियेगा।
@ राज भाटिय़ा
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Rakesh Kumar
कई नये आयाम छुये हैं इस पुस्तक ने।
@ संतोष पाण्डेय
ReplyDeleteपुस्तकें लेखक की चिन्तन प्रक्रिया बता जाती हैं।
@ चला बिहारी ब्लॉगर बनने
हमने अपनी शीतलता तो व्यक्त कर दी।
@ प्रतिभा सक्सेना
काश आप भी शीघ्र पढ़ें।
@ उन्मुक्त
संभवतः नहीं।
@ देवेन्द्र पाण्डेय
विषयवस्तु एक मोटी पुस्तक भर की थी।
@ सञ्जय झा
ReplyDeleteवही प्रवाह है बहते समीर का।
@ सुरेन्द्र सिंह " झंझट "
बहुत धन्यवाद आपका।
@ mahendra verma
पहली बार ही कोई समीक्षा लिख रहा हूँ।
@ rashmi ravija
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Patali-The-Village
बहुत धन्यवाद आपका।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
ReplyDeleteयह सूप तो पीना ही पड़ेगा।
@ शिवकुमार ( शिवा)
बहुत धन्यवाद आपका।
@ हरकीरत ' हीर'
सबको कुछ न कुछ नया दिखता है एक ही चीज़ में।
@ रचना दीक्षित
बहुत धन्यवाद आपका।
@ रंजना
पुस्तक मिलने की बधाई हो आपको।
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
ReplyDeleteइन दृष्टिकोणों का मिश्रण ही समग्रता देता है।
@ वाणी गीत
बहुत धन्यवाद आपका।
मेरे घर पहुँच गयी है चचा जी की किताब...लेकिन अभी तक मैंने पढ़ा नहीं...जल्द ही पढ़ के लिखता हूँ कुछ किताब के बारे में :)
ReplyDeletejab sameer ji ne mujhe ye kitaab bheji to man ko bahut khushi hui, kyonki kuch din pahle hi unse milkar aaya tha jabalpur me .. unki kitaab ke baare me sirf itna hi kahna chahunga ki ye ham sab ki kathaaye hai .. maine unhe jo mail bheja hai , usi ko neeche me re-produce kar raha hoon ..
ReplyDeleteआदरणीय समीर जी
नमस्कार
आपका उपन्यास " देख लूं तो चलूँ " मुझे परसों मिली और कल दिन भर में उसे पढ़कर ही दम लिया .
सबसे पहले तो मैं आपको धन्यवाद दूंगा की आपने इतनी अच्छी किताब मुझे भेजी .
ये एक उपन्यास नहीं है ,बल्कि एक autobiographical collage है , जिसमे आप आज के आम आदमी का भी characterize करते है और उस इंसान का भी जो की तन से इस दुनिया से भागने की कोशिश में लगा हुआ है .. [ like we all are in a rat race ] कहानिया पढ़ते पढ़ते कभी आँखे भीग जाती थी , कभी मन उदास हो जाता था, कभी होंठो पर एक छोटी सी हंसी आ जाती थी , कभी कभी पढना रोककर ,कहीं हवाओ में बात भी करने लगा मैं. यानी की एक जीवन में जितने भी रंग शामिल है वो सब आपने अपने अद्बुत लेखन से live कर दिए है ....आपकी लेखनी अपनी सी लगती है ,ऐसा लगता है , की मैं हूं उस कहानी में कहीं , किसी के भी रूप में .. ये एक बहुत बड़ी बात है की इस तरह से अपने आपको , किसी और की कहानी में देखना , या किसी और के लेखन में देखना , उस लेखक के लिये बहुत बड़ी उपलब्दी मानी जायेंगी .
मुझे बहुत ख़ुशी है की मैं आपसे मिला हूं और आपके भीतर के लेखक को जानता हूं.
धन्यवाद.
आपका
विजय
हैदराबाद
@ abhi
ReplyDeleteचचाजी की पुस्तक शीघ्र पढ़ें और अच्छी सी समीक्षा लिखें।
@ Vijay Kumar Sappatti
सच कहा, हम सब की कहानी है यह।
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