नित स्वयं से एक रार ठनती है, नित मैं हारता हूँ, दिन की मेरी पहली हार, मन की पहली जीत। जब उठता हूँ, सूर्यदेव अपनी विजय पर मुस्करा रहे होते हैं, खुल कर, मैं पुनः कुछ घंटे खो देता हूँ सुबह के, कुछ और जीवित स्वप्न आगे सरक जाते हैं समयाभाव में, मैं निद्रास्वप्न में पड़ा रहता हूँ। चाह कर भी सुबह नहीं उठ पाता हूँ, दिन का स्वागत नहीं कर पाता हूँ। आत्मग्लानि न होती, यदि यह सोचकर न सोया होता कि सुबह सूर्योदय के पहले उठना है। कोई बन्धन नहीं, किसी की आज्ञा नहीं, कार्य देर सबेर हो रहे हैं, सुबह का खोया समय रात में निकाल लेता हूँ, पर स्वयं से रार ठनी है।
बचपन से देखता आया हूँ, बहुतों को जानता हूँ, सूर्योदय के पहले नित्यकर्म आदि से निवृत्त हो जीवन प्रारम्भ कर देते हैं। शास्त्रों में पढ़ा है, प्रातकाल का समय दैवीय होता है, पढ़ा हुआ याद रहता है, मन विषय पर एकाग्र रहता है, सुविचारों का प्रभाव रहता है, सृजन का सर्वोत्तम समय। प्रकृति का संकेत, शीतल बयार बहने लगती है, पंछी चहचहाने लगते हैं उत्सव स्वर में, एक विशेष स्वर गूँजने लगता है वातावरण में, स्पष्ट संकेत देता हुआ, जागो मोहन प्यारे।
आलस्य के रथ पर आरूढ़, मैं निश्चेष्ट पड़ा रहता हूँ। ऐसा नहीं है कि नींद खुलती नहीं है, पता चल जाता है कि सुबह हो गयी है पर मन को जीत पाने का प्रयास नहीं कर पाता हूँ, मन के द्वारा प्रस्तुत किसी न किसी बहाने को अपना मान बैठता हूँ, एक बार और डुबकी नींद में और आधे घंटे शहीद।
रॉबिन शर्मा को पढ़ा, कहते हैं बिना सुबह 5 बजे उठे आत्मविकास संभव ही नहीं, पहले पग में ही लुढ़क गया मेरा लक्ष्य। 5 बजे उठें तो समय मिले अपने बारे मे सोचने का। अभी तो उठते ही उल्टी गिनती चालू हो जाती है, कार्यालय भागने की। सायं वापस आने के बाद, शरीर और बुद्धि विद्रोह कर देते हैं, व्यवस्थाओं से जूझने के बाद और समाज का नग्न स्वरूप का अवलोकन कर। यही क्या कम है कि रात में नींद आ जाती है, उस समय आत्मविकास का विचार व्यर्थता का चरम लगता है। रॉबिन शर्मा की पुस्तक पढ़ने में डर लगने लगा है, कहीं शब्द निकल कर पूँछ न बैठे कि सुबह 5 बजे उठना प्रारम्भ किया कि नहीं?
कुछ दिन पहले निशान्त ने स्टीवेन एटकिंसन का परिचय कराया, उनके ब्लॉग में जाकर देखा तो वही राग सुबह 5 बजे उठने का, पूरी की पूरी पुस्तक लिख डाली है सुबह उठने के लिये। पता नहीं उस पुस्तक में क्या होगा, पर मुझे तो ज्ञात है कि मैं यदि कोई पुस्तक लिखूँगा कि मैं सुबह क्यों नहीं उठ पाता हूँ तो संभवतः मन की क्रूरता के आस पास ही उसकी प्रस्तावना और उपसंहार होगा।
सुबह आँख खुलते ही मन आपसे कहता है कि आप बहुत थके हो, इतने परिश्रम के पश्चात शरीर को विश्राम चाहिये। आप सुन लेते हैं, आपको अच्छा लगता है यह सुनना, पहला ही तीर और आप ध्वस्त। यदि आप बच गये तो कहेगा कि आज कोई विशेष कार्य नहीं है, थोड़ा लेटे लेटे विचार कर लेते हैं, कोई नया विचार आ जायेगा। इस प्रकार एक के बाद आपसे अधिक मौलिक विचार श्रंखलाओं से आपको भरमाने का प्रयास चलता रहेगा। कितना बचेंगे, कब तक बचेंगे? जिस शरीर को 5 घंटे से अधिक की निद्रा नहीं चाहिये, मन बलात सुलाता रहता, लगभग डेढ़ गुना।
जीवन अब रातों में अधिक खिचने लगा है, तामसिकता बढ़ गयी है, अरुणीय मन्त्रों से अधिक रात्रि के गीत रस देने लगे हैं, घर की परम्परायें दम तोड़ रही हैं, पिताजी सुबह 5 बजे उठने वाले पुरातन ही रह गये, मैं रात को 1 बजे सोकर स्वयं को आधुनिक सिद्ध करने में प्रयासरत हूँ।
19 वर्ष पहले का एक दिन, वृन्दावन यात्रा, सुबह 4 बजे मित्र के साथ, कृष्ण मंदिर की मंगल आरती में। धुन और शब्द अभी भी स्मरण में स्पष्ट हैं।
विभावरी शेष, आलोक प्रवेश, निद्रा छोड़ी, उठो जीव...
सत्य वचन महाराज ! ब्राह्म मुहूर्त में उठने के महत्त्व से अनभिज्ञ कौन है ? पर आज की जीवनशैली ने मनुष्य मात्र को अपना दास बना छोड़ा है ......अभी एक दिन पढ़ रहा था कि जैविक घड़ी के विपरीत चलने से शरीर की फिजियोलोजी भी पैथोलोजी में बदलने लगती है ....पर रात्रि कालीन आपात सेवा देने वाले चिकित्सक अपनी पीड़ा किससे कहें ? बेचारे जान-बूझकर बाध्य हैं जैविक घड़ी का सत्यानाश करने के लिए.
ReplyDeleteकिन्तु पांडे जी ! आज तो आप ब्राह्म मुहूर्त से थोड़ा पहले ही उठ गए ...बधाई हो ...रात को ही संकल्प ले कर सोये थे न !
बदलते समय का सच है ये।
ReplyDeleteवैसे यह पोस्ट भी सुबह के चार बजे पोस्टेड है:))
रॉबिन शर्मा की पुस्तक पढ़ने में डर लगने लगा है, कहीं शब्द निकल कर पूँछ न बैठे कि सुबह 5 बजे उठना प्रारम्भ किया कि नहीं?
ReplyDelete:)
इसी डर से पिछले कई वर्षों से सुबह ४ बजे उठ रहे हैं...
पोस्ट सुबह 4 बजे का समय दिखा रहा है, आज पहला शुभ प्रभात आपसे.
ReplyDeleteपापा के जल्दी उठ जाने और सुबह फुल वोल्यूम में श्री वेंकटेश सुप्रभातम, अनूप जलोटा और वाणी जयराम के भजन सुनने के शौक ने हमें भी अलसभोर का दीवाना बना दिया है ...पारंपरिक परिवारों में तो यूँ भी विवाहित स्त्रियों के लिए सुबह जल्दी उठना आवश्यक है ,इसलिए यह हमारी दिनचर्या में ही शामिल है ...
ReplyDeleteसुबह जल्दी उठना और भोर को होते हुए देखना , ओस भीगी पत्तियों और फूलों को निहारना अन्तर्मन तक निर्मल कर जाता है ... !
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ReplyDeleteपिछले २० वर्षों से प्रातः चार बजे उठती हूँ। सुबह morning walk के बाद ही दिमाग के कल -पुर्जे काम करना शुरू करते हैं।
Early to bed, early to rise ,
makes a man healthy , wealthy and wise !
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सुबह उठते होते तो यह पोस्ट कैसे लिखते?
ReplyDeleteसुबह जल्दी उठना और भोर को होते हुए देखना , ओस भीगी पत्तियों और फूलों को निहारना अन्तर्मन तक निर्मल कर जाता है ... !
ReplyDeleteमग़र आलस्य का राक्षस यह सब करने ही नहीं देता | परेशान हूँ क्या करूँ?
सुबह उठना सच में थोड़ा मुश्किल है पर सुबह उठने का आनंद ही अलग है।
ReplyDeleteभोर में उठे या सुबह उठे, बस उठ जाए।
ReplyDeleteसही बात है...ब्रह्म मुहूर्त तो बस सुनने को ही मिल पता है.....इस लेख से दो चीज़ें याद आईनं
ReplyDelete१. बीती विभावरी जाग री.....
२. प्रथम रश्मि का आना रश्मि तूने कैसे पहचाना....
हमे तो जबरदस्ती उठना पडता है जी बह्ममुर्त मे, नही तो हमारी भैस दूध ही नही देती
ReplyDeleteअच्छा आलेख
आज की भागदौड़ भरी जीवनशैली में बहुत कुछ छूट रहा है...... सुबह की लालिमा ना देख पाना भी उसी का हिस्सा है......वैसे ज़्यादातर महिलाओं की दिनचर्या आज भी सुबह जल्दी उठने की ही है......
ReplyDeleteaajkal ke zammane main neendh ek luxury se ho gye hai. log der tak kaam karte hai toh subah jaldi uthna namumkin sa lagta hai!
ReplyDeletesaare aadatein kharab ho jaate hai, shayyad yeh bhi ek karan hai itni bimariya aajkal young age groups main dekhi ja rhe hai
.अच्छा लगा..सुन्दर ...सार्थक ...
ReplyDeleteपर होता कहाँ है ?
कोई वक्त था जब सुबह 4 बजे उठा करते थे जी हम भी मगर अब तो सदियां गुजर गयी 4 बजे उठे………वैसे 6 बजे भी उठा जाते है और 8 बजे भी…………बच्चो पर निर्भर करता है जी अब उठना…………उनकी छुट्टी तो हमारी भी नही तोहमारी भी नही……………हा हा हा…………वैसे जानते सभी है ये फ़ायदे मगर फ़ायदा कोई लेना नही चाहता और फिर वक्त की कमी की दुहाई हम सभी देते हैं………।
ReplyDeleteआप तो सुबह जाग जाते हैं... हम भी चार बजे उठना प्रारम्भ करेंगे..
ReplyDeleteलग रहा है जैसे अपने ही मन की बात पढ़ रही हूँ...एक एक शब्द वही जैसे जो मन में रोज आया करता है...
ReplyDeleteरोज रात को ठानती हूँ..नहीं अब नहीं कल से सुबह पांच बजे,पक्का..दो मोबाइल में एलार्म लगा कान के दोनों तरफ रख देती हूँ...पर वही..उन्घाया मन फुसलाता है,नींद पूरी करो,क्या करना है इतनी जल्दी उठकर..अच्छा छोडो कल से उठा जाना...और एक दुबकी नींद...सुखद नींद...पर उठने बाद फिर वही ग्लानि ...
विवाह तक कभी न हुआ कि कभी बिस्तर पर रहते सूर्योदय हो गया हो..पिताजी के नियम बड़े सख्त थे...पर अब सब गुड गोबर...
अजी हम भी सुबह सवेरे पांच बजे ही उठते हे, छुट्टी बाले दिनो को चोड कर, लेकिन कभी कोई उपासना नही करते, आप को बधाई आप जरुर सुबह सवेरे उठते होंगे
ReplyDeleteआप जैसे लोग वास्तव में व्यवस्था तथा व्यक्तिगत दोनों ही तरह के शुद्धता के प्रतीक हैं.........मन संतुलित और नियंत्रित हो तो हर चीज और व्यवहार को संतुलित तथा नियंत्रित किया जा सकता है एक असल इंसान की जरूरत को आधार बनाकर .......
ReplyDeleteआह विभावरी ...सबकुछ एक कविता जैसा....
ReplyDeleteआज कल सवेरे १ बजे उठ जाता हूँ, रात ७ - ८ तक सो भी जाता हूँ. हर तरह का experiment कर चुका हूँ - कोई फर्क नहीं पड़ता ज़िन्दगी पर सोने के समय से.
ReplyDeleteसुबह जल्दी उठने का कर्यक्रम नौकरी छोड़ने के बाद बना है नौकरी पेशा आदमी सुबह जल्दी नहीं उठ सकता है क्यों कि उनका सोना भी देर से ही होता है |
ReplyDeleteमेरे पूज्य ससुर जी एक बार मेरे से लड़ पड़े क्योंकि उनका आठ बजे सोने का क्रम मेरे कारण ख़राब हो रहा था , तो मैं उन्हें कहा की हमारी दिनचर्या ही रात नो बजे शुरू होती है तो वे कहने लगे रात को निशाचर जागते है मनुष्य रात को सोते है . आपने प्द्याताम्क गद्य को सुंदर लिखा
ReplyDeletein dino jaldi uth rahi hu, aajkal kuch busy rehti hu isliye, par umeed si laga rakhi hai khud se ke jaldi uthne ki aadat temporary se permanent ho jaye. Aaj ki post bahut acchi lagi, pehle bhi kayi bar keh chuki hu aur aaj bhi fir se keh rahi hu, aapki likhne ki shaili bahut acchi lagti hai.
ReplyDelete.
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shilpa
@ i agree with jai kumar jha
ReplyDeleteमन संतुलित और नियंत्रित हो तो हर चीज और व्यवहार को संतुलित तथा नियंत्रित किया जा सकता है
जल्दी उठने के लिए जल्दी सोना भी जरूरी है.
ReplyDeleteअगर जल्दी सो नहीं सकते तो जल्दी उठने का कोई फ़ायदा नहीं.
सलाम.
सुबह उठाना सच मै सुखद अनुभव है दोस्त पर आज कल की शहर की जीवन शैली मै शायद एसा करना कुछ के लिए संभव नहीं भी होता ! बहुत सुन्दर बात बातों - बातों मै बिन कहे सब कुछ कह देने का अंदाज़ अच्छा लगा !
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत !
महलाओं की तो मजबूरी है..सुबह उठाना...बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना...उनका टिफिन पैक करना...
ReplyDeleteऔर brighter side ये है कि खुद भी पेडों के पीछे से झांकते सूर्योदय का सुख रोज ही उठा लो
चिन्तन तो बहुत अच्छा है पर व्यवहार में बीसीयों बाधाएं हैं ।
ReplyDeleteमैं इतना ही कहूँगा कि बुढ़ापे में हमारी नींद कम हो जाती है. उस समय कोई बात करने वाला चाहिए. इस लिए मैं बच्चों को जल्दी उठने की सलाह देता हूँ. परंतु यह भी जानता हूँ कि जवानी में प्रातः के समय नींद बहुत प्यारी लगती है.
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने, मैं भी कभी सुबह नही उठ पाया और गिने चुने दिन छोडकर शायद ही कभी उदित होता हुआ सूर्य देखा हो.
ReplyDeleteऔर जब से ब्लागिम्घ शुरू की है तो रात का काफ़ी सारा समय इसमें चला जाता है फ़िर शरीर को भी अपना ६ घंटे का आराम चाहिये ही तो इस डर का मारे ये सब किताबें भी नही पढते.:)
रामराम.
Bada maza aa gaya padhke!
ReplyDeleteजब रात में जागकर २ बजे तक ब्लोगिंग करना और सुबह १० बजे उठनेने का अलग मजा है ............ मगर यह कमबख्त सिर्फ 'प्रायर टू होली -डे ' ही आता है. बाकी दिन तो अलार्म ऐसे चीखता है जैसे सुबह सुबह कोई पुराना दुश्मन ...........
ReplyDeleteएक एक शब्द अपनी बात है. अब तो रात भर जाग कर देखी गयी सुबहें ही याद हैं !
ReplyDeleteप्रवीण आपकी वे पन्क्तियाँ, ....मन का बच्चा बना रहे , इस सन्दर्भ मे अति सार्थक है । मन का बच्चा जग जाय तो प्रातकाल का भोला सौन्दर्य मन का स्वाभाविक केलिस्थल बन जाता है,मन के सारे अन्तर्द्वन्द व सन्घर्ष समाप्त हो जाते है, और मन और आत्मा दोनो भोर के आनन्द मे विभोर हो जाते है ।
ReplyDeleteआह ! मैं सुबह जल्दी उठ जाता हूं :)
ReplyDeleteभाई, आपके आलेख ने मुझे एक बार फिर खुद से शर्मिंदा होने का मौका दिया.
ReplyDeleteबच्चे विश्वास नहीं करते जब उन्हें बताता हूँ कि खुफियागिरी के प्रशिक्षण के ज़माने में सवेरे साढ़े चार बजे उठ जाता था - उठना पड़ता था. पर तब खूब हँसते हैं जब बताता हूँ कि रात में सोने जाते समय ही पी.टी. यूनिफार्म जूतों समेत पहन कर बिस्तर पर जाता था और सवेरे जागते ही सीधा शस्त्रागार की ओर भागता था राइफल उठाने - परेड के वास्ते.
सुबह उठाने वाले लेखकों से सहमत हूँ। टीन एज में ब्राह्म मुहूर्त में उठने के बारे में एक आलेख भी लिखा था, कभी ब्लॉग पर रखता हूँ।
ReplyDelete@अनूप शुक्ल ने कहा…
सुबह उठते होते तो यह पोस्ट कैसे लिखते?
सुबह उठते तो शायद हर सुबह एक ओजस्वी पोस्ट लिख पाते।
... या फिर रोबिन शर्मा की किताबों की तरह पांडे जी की किताबों पर दूसरे लोग पोस्ट लिख रहे होते।
ReplyDeleteआप एक दम आधुनिक हैं-काहें कि मनुष्य में अनुकूलन की अद्भुत क्षमता होती है -तभी वह अन्तरिक्ष जेता होने चला है !
ReplyDeleteआप वही कह रहे है जो मैं भी सोच रहा हूँ आजकल । सोते रहने से लगता है खो रहे हैं , जाग जाने से लगता है फिर खट रहे हैं । वेग और ठहराव , काम और आराम का युद्ध ! जो सोया सो खोया , जो जागा सो पाया , मैं तो कोशिश मैं हूँ पाने की ! आपको भी शुभकामनाएँ !धन्यवाद
ReplyDeleteकठिन लक्ष्य पर मजेदार पोस्ट ....
ReplyDeleteसंजय बाऊ जी की बात का जवाब दीजिये ...यह पोस्ट ४ बजे कैसे लिखी ?
हमें कौन सा राबिन शर्मा बनाना है ??
शुभकामनायें ....प्रयास तो करें :-)
sir....meri aadat bhi aisi hi hai par chah kar bhi change nahi kar sakata.....kaam jo aisa hai.
ReplyDeleteसुबह उठने का आनंद ही अलग है।
ReplyDeleteसुबह का छूट जाना दिन के छूट जाने जैसा ही लगता है।
ReplyDeleteविगत २४ वर्षों से (यदि बचपन को अभयदान मिले तो) नित्य यही प्रयत्न रहता है, अब तक आदत बची है।
हालांकि ५ आजकल ५:३० की ओर मुखरित है, लग जाता हूँ नियंत्रण में।
कोशिश कर के देखने में क्या हर्ज़ है. एक दिन कर ही लेते हैं.
ReplyDeleteमैं उठता तो रोज ही, ठीक सुबह 5 बजे हूं, अलबत्ता ये 5 कहीं और दूसरे देश, दूसरे टाइमज़ोन में बज रहे होते हैं!
ReplyDeleteभोर का सूरज सदैव सुनहरा होता है।
ReplyDeleteगहन निद्रा से जागृति का संदेश देती सुंदर प्रस्तुति।
मुझे याद है जब स्कूल के दिनों में पिताजी सुबह चार बजे उठाते थे तो मै बोलता हूँ सोने दीजिये ना , अभी मन नहीं कर रहा है पढने का . तो उनसे श्लोक सुनने को मिलता था . अलशस्य कुतो विद्या अविद्श्य कुतो धनम , अधनश्य कुतो मित्रम , अमित्रश्य कुतो सुखम. सुबह उठने का क्रम तब से अबाध चल रहा है .
ReplyDeleteसच में,
ReplyDeleteजब से छूटा गाँव
क्या रहना,क्या उठना-जगना
नहीं दिशाएं याद रहीं,
नहीं प्रकृति से मिलना होता,
जब-तब टीवी ,'कम्पूटर' में
इन सबकी ख़बरें मिलती हैं,
शहरी-जीवन क्यूँ ऐसा होता ?
ज्ञानवर्धक आलेख !
ReplyDeleteब्रह्ममुहूर्त्त में उठने का बहुत लाभ है, इससे सभी परिचित हैं......पर उठना सभी के वश की बात नहीं। जो उठ जाते हैं..सुबह के परिमल समीर से साक्षात्कार करते हैं।
ReplyDeleteडॉ. दिव्या श्रीवास्तव ने विवाह की वर्षगाँठ के अवसर पर किया पौधारोपण
डॉ. दिव्या श्रीवास्तव जी ने विवाह की वर्षगाँठ के अवसर पर तुलसी एवं गुलाब का रोपण किया है। उनका यह महत्त्वपूर्ण योगदान उनके प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता, जागरूकता एवं समर्पण को दर्शाता है। वे एक सक्रिय ब्लॉग लेखिका, एक डॉक्टर, के साथ- साथ प्रकृति-संरक्षण के पुनीत कार्य के प्रति भी समर्पित हैं।
“वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर” एवं पूरे ब्लॉग परिवार की ओर से दिव्या जी एवं समीर जीको स्वाभिमान, सुख, शान्ति, स्वास्थ्य एवं समृद्धि के पञ्चामृत से पूरित मधुर एवं प्रेममय वैवाहिक जीवन के लिये हार्दिक शुभकामनायें।
आप भी इस पावन कार्य में अपना सहयोग दें।
http://vriksharopan.blogspot.com/2011/02/blog-post.html
रोचक लिखा
ReplyDeleteपोस्ट को सुबह चार बजे स्केज्यूल करके लम्बी तान कर सो जाया जाए.. तो!!
ReplyDeleteवैसे सुबह की नींद खोने पर लगता है कि दौलत खो गईं... ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी.. मगर मुझ्से प्लीज़ सुबह की प्यारी प्यारी नींद न छीनो!!
श्री प्रवीणजी नमस्कार....
ReplyDeleteकृपया मुझे बतावें कि सिर्फ आडियो सांग जो आप अपनी पोस्ट पर प्रसारित करते हैं वो कैसे किया जा सकता है ? मेरा ई-मेल ID निम्नानुसार है-
sushil28bakliwal@gmail.com मोबाईल नं. 081090 34950,
प्रातः जल्दी उठाना बहुत अच्छी आदत है| पर आलस्य उठने नहीं देता|
ReplyDeleteदेर से उठने के बाद भी इतनी अच्छी पोस्ट ,ऐसा वाक्य -विन्यास ..क्या बात है !
ReplyDeleteआप देर से ही उठें ,यही अच्छा है ।
आभार !
प्रवीण जी, निसंदेह एक उत्तम बात उठाई आपने ! लेकिन कल जो मैं टिपण्णी देना चाह रहा था, यह सोच कर उसे सूक्ष्म कर दिया कि कहीं आप बुरा न माने,ज्यादातर टिपण्णीकार भी अब निपट ही गए है इसलिए अब लिख रहा हूँ ! इसमें कोई संदेह नहीं कि भोर पक्ष देवताओं के स्मरण का होता है ! लेकिन आपने जो लेख में कहा कि हमारे पुराणानुसार नित्यकर्म भी ५ बजे यानी अंधरे में ही निपटा लेने चाहिए तो मैं समझता हूँ कि उसके पीछे वैज्ञानिक अथवा तात्कालिक तथ्य यह रहा होगा कि लोगो को तब खुले में नित्यकर्म के लिए जाना पड़ता था ! खुले में नहाना पड़ता था!
ReplyDeleteभाईसाहब मैं घरपर जिस वक्त आपका लेख पढ़ रहा था, बीबी पीछे से अ गई तो मैंने झट से आपके ब्लॉग से पदार्पण ही उचित समझा ! नहीं तो कल से चार बजे ही बिस्तर से गिरा देती : ) :)
यही तो..का करें..आपने सभी का दर्द बयां कर दिया।
ReplyDeleteपूँछ..?
सुबह सुबह की नींद सबसे मस्त होती है :)
ReplyDeleteवैसे उतनी सुबह तो नहीं, लेकिन हाँ, छः बजे लगभग हर रोज उठ जाता हूँ..:)
मेरे लिए तो सुबह उठना सदैव से कष्टदायी लगता है...कभी न कभी तो सुधरूंगा.
ReplyDeleteप्रवीन जी,
ReplyDeleteपोस्ट पढ़कर याद आया कभी मैं भी सुबह उठा करता था !
सुबह जल्दी उठने की स्वयं से लड़ाई पिछले कई सालों से चल रही है !
उठ जाग मुसाफिर भोर भई.
ReplyDeleteपिता जी ने बचपन में विद्यार्थी के पाँच सुलक्षण बताए थे।
ReplyDeleteकाग चेष्टा, वको ध्यानम्, श्वान निद्रा तथैवच।
अल्पाहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थी पंच सुलक्षणम्॥
इसको याद रखने के बाद कभी लम्बी नींद नहीं सो पाया। टुकड़ॊं में सोता जागता रहता हूँ। सुबह साढ़े पाँच बजे उठकर सवा छः बजे तक बैडमिंटन कोर्ट पहुँच जाता हूँ। आपकी चिंता बहुतों की है।
article apka bahut accha hai par bhai main to sota hi 4 baje hu to fir uthe kaise?
ReplyDeleteहम भी आप ही के गुट के है, फ़र्क यह है कि हम रिटायर हो गए तो कोई समय सीमा से बंधे भी नहीं हैं :)
ReplyDelete@ कौशलेन्द्र
ReplyDeleteजब भी सुबह उठता हूँ, बहुत ऊर्जा रहती है दिन भर। देर से उठने से आलस्य छाया रहता है। 4 बजे के समय पर पोस्ट नियत कर रात 2 बजे सोया था, उठा तो 7 बजे ही था।
@ संजय @ मो सम कौन ?
पोस्ट नियत कर के डाली है 4 बजे, उठा तो देर से ही था।
@ Udan Tashtari
तभी आप इतने लोकप्रिय ब्लॉगर हैं क्योंकि आप सबके लिये समय निकाल लेते हैं।
@ Rahul Singh
पोस्ट का समय 4 बजे तो पहले से नियत था।
@ वाणी गीत
घर की महिलाओं को तो सुबह जल्दी उठने की आदत हो जाती है, सारा काम निपटाने के लिये। अगर महिलायें देर से उठे तो सृष्टि देर से चलने लगेगी।
@ ZEAL
ReplyDeleteसच कह रही हैं, बड़ा शुभ होता है सुबह का समय।
@ अनूप शुक्ल
उठते तो दो तीन और लिख दिये होते। जब उठना प्रारम्भ करेंगे तब एक और लिखेंगे।
@Sunil Kumar
हमारे दुख में आप भी शामिल हो, दोनों को संबल मिलेगा।
@ सोमेश सक्सेना
कई बार उठा हूँ, वह नयापन और अधिक समय मिलना याद है।
@ ajit gupta
हम तो बस उठ ही जाते है।
@ Rajesh Kumar 'Nachiketa'
ReplyDeleteदोनो ही गीत बड़े अच्छे लगते हैं।
@ Deepak Saini
चलिये आपकी भैंस आपका भला तो कर रही है।
@ डॉ॰ मोनिका शर्मा
सुबह की लालिमा जीवन में घुल जाती है।
@ SEPO
यह सुख और सुविधा जब शरीर को दुख देने लगे तब यही पोस्ट निकलती है।
@ वर्ज्य नारी स्वर
यही तो मैं भी कह रहा हूँ कि प्रयत्न करने पर भी नहीं हो पाता है।
@ वन्दना
ReplyDeleteघर के सदस्यों की आदतें हमारा जीवन भी प्रभावित करती हैं। काश हम भी उनकी आदतें प्रभावित कर पाते।
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
अगर जाग पाते तो रोना क्यों रोते? यह पोस्ट 4 बजे नियत कर के सोये थे।
@ रंजना
पिताजी का मान रखिये और 5 बजे उठना प्रारम्भ कीजिये, हम भी अपने पिताजी के लिये प्रयास करते हैं।
@ राज भाटिय़ा
आलसी को बधाई न दें, मैं अभी प्रयासरत हूँ।
@ honesty project democracy
बहुत धन्यवाद आपका, शुद्धता के प्रति प्रयासरत हैं हम।
@ shikha varshney
ReplyDeleteविभावरी को सकुशल विदा नहीं कर पाता हूँ, सोता रहता हूँ।
@ Luv
ढील देते देते अब 630 पर उठना होता है।
@ नरेश सिह राठौड़
प्रयास कर जल्दी सो जाऊँ, तब भी देर से उठना होता है, दोनों ओर समय व्यर्थ।
@ गिरधारी खंकरियाल
कई बार हमें भी निशाचर कहा जा चुका है।
@ Shilpa
काश आप जैसे अच्छी आदतें हमारी भी हो जायें।
@ संजय भास्कर
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ sagebob
कभी कभी जल्दी सोने का प्रयास किया भी पर सुबह जल्दी उठ नहीं पाया।
@ Minakshi Pant
तभी तो सुबह उठने का प्रयास प्रारम्भ करना है।
@ rashmi ravija
महिलायें तो बहुत सी अच्छी आदतें बचाये हुयी हैं।
@ सुशील बाकलीवाल
सबसे बड़ी बाधा तो मन है।
@ Bhushan
ReplyDeleteदिन की नींद बहुत प्यारी होती है, मन तो यही बताता है।
@ ताऊ रामपुरिया
ब्लॉगिंग से अब समय व्यर्थ नहीं हो पाता है पर सुबह उठना अब भी कठिन है।
@ kshama
बहुत धन्यवाद आपका।
@ उपेन्द्र ' उपेन '
एलार्म अब शत्रु सा लगने लगा है, नित ही परेशान करता है।
@ Abhishek Ojha
केवल एक बार ही नाइट आउट किया है।
@ देवेन्द्र दत्त मिश्र
ReplyDeleteजीवन को पवित्रतम जी लेने का संकल्प मन के बच्चे से आ सकता है।
@ Kajal Kumar
बड़े भाग्यशाली हैं आप।
@ ऋषभ Rishabha
सेना का जीवन बड़ा अनुशासित होता है, काश सबमें वह गुण आ जाये।
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
वही उत्तर मैने दिया है। अब पाँच बजे नहीं उठ पाता हूँ तो आत्मविकास कैसे होगा?
@ Arvind Mishra
पता नहीं, आधुनिकता की हवा सुबह उठने में निकल जाती है।
@ रजनीश तिवारी
ReplyDeleteवेग और ठहराव तो तब आये जब वेग आये।
@ सतीश सक्सेना
चार बजे का समय नियत किया है पोस्ट पर।
@ G.N.SHAW
रेल चालकों की नौकरी में कब दिन और कब रात।
@ OM KASHYAP
वह आनन्द भी ले चुका हूँ पर अब आलस्यवश नहीं कर पा रहा हूँ।
@ Avinash Chandra
आप अभी भी आलोक के निकट हैं, हम तो सुस्तता में सिद्धहस्त हो रहे हैं।
@ रचना दीक्षित
ReplyDeleteप्रयास को धता बताने मन भी बैठा रहता है।
@ Raviratlami
चलिये इसी भौगोलिक तथ्य से ही संतोष प्राप्त कर लेते हैं।
@ mahendra verma
और वही सुनहरा भविष्य लाता है।
@ ashish
सच कह रहे हैं, आलस्य त्यागना ही होगा।
@ संतोष त्रिवेदी
शहरी जीवन में मन दूषित होता जा रहा है।
@ पी.सी.गोदियाल "परचेत"
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर
इतने लाभ पता नहीं कब मिलना प्रारम्भ होगा। उत्साहवर्धन का धन्यवाद।
@ चला बिहारी ब्लॉगर बनने
वही किया है, नींद सुबह सुबह तो सबसे प्यारी लगती है।
@ सुशील बाकलीवाल
मैं ऑडिसिटी व डिवशेयर का उपयोग करता हूँ, ऑडियो डालने के लिये।
@ Patali-The-Village
इस आलस्य से तो रार ठनी है।
@ nivedita
ReplyDeleteपर महान लोग कहते हैं कि सुबह सुबह सृजनात्मकता उत्कृष्ट स्तर पर रहती है।
@ पी.सी.गोदियाल "परचेत"
वैज्ञानिकता से परे अब तो सुबह उठना चाह रहा हूँ फिर भी नहीं उठ पा रहा हूँ।
@ देवेन्द्र पाण्डेय
यदि सब ब्लॉगर सुबह सुबह उठ जायें तो न जाने कितनी नयी पोस्टें और आ जायेंगी।
@ abhi
आप तो बहुत निकट हैं विभावरी के, हम तो घंटों दूर हैं।
@ KK Yadava
उसी आस में हम भी जी रहे हैं कि हम भी सुधरेंगे।
रात एक बजे घर पहुँचने के बाद भोजन आदि के बाद तीन बजे बिस्तर के हवाले होता हूँ. ऐसे में किसी दिन सुबह जल्दी उठाना पद जाये तो लगता है क़ि संसार में सबसे दुखी हमीं हैं. कभी गाव जाता हूँ तो जरूर अधिकतम दस बजे तक सो जाता हूँ और सुबह जल्दी जग भी जाता हूँ.महानगरों की आपाधापी वाली जिंदगी में भोर में उठने का सुख सभी के भाग्य में कहाँ.
ReplyDelete@ ज्ञानचंद मर्मज्ञ
ReplyDeleteआपकी लड़ाई में आज से हम भी शामिल हैं।
@ राजेश सिंह
अब रैन कहाँ, तू सोवत है।
@ सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
हमारे स्वप्न टुकड़े बने रहते हैं।
@ vijaymaudgill
आप तब तो सूर्य को प्रणाम करके सो सकते हैं।
@ cmpershad
हम तो बँधे होने के बाद भी सुधरे नहीं हैं।
@ संतोष पाण्डेय
ReplyDeleteआप सबको सुप्रभात कहने के लिये रात भर लगे रहते हैं। औरों का प्रभात शुभ करने का सुख और ही है।
कई बार सोचा, सुबह जल्दी उठने के बारे में, जल्दी मतलब पांच बजे, लेकिन हो नहीं पाया. देर रात का जागरण दोषी है शायद.
ReplyDeleteGeeta me Bhagwan Srikrisn kehte hai(Ch.14 shlok 22)
ReplyDeleteprakasham ch pravarttim ch mohamev
ch Pandava,na dwveshty sampravarttani na nivarttani kankdchiti.
Meaning "He Arjun jo purush satvgun
ke karyaroop prakash ko aur rajogun ke karyaroop pravirti ko aur tamogun ke karyaroop moha ko na to pravart hone per unse dwesh karta hai aur na nivart hone per unki kamana (weh teeno guno ko langh kar sat-chit-aanand parmatma ko pane ke yogya ban jata hai).Isliye jis bhi awastha me hum hai usse na to raag na hi dwesh karte hue jo bhi prasthiti anusar best banta ho wahi hume karna chahiye.
Sorry for a long interpretation,
but the matter was such that I could not resist.
@ वन्दना अवस्थी दुबे
ReplyDeleteलगता है कि दिन में न जाने कितना छूट गया है, अतः रात में देर तक जग कर उसे पूरा करने का उपक्रम करते रहते हैं हम सब। सुबह जग कर मन की शीतलता और सृजनात्मकता बनी रहती है।
@ Rakesh Kumar
अभी तो तम में पड़े हैं, तीनों गुण लाँघने के पहले सत में तो आना ही पड़ेगा। प्रयास करते हैं कोई विशेष मोह नहीं है सत से भी।
हम तो रिटायर होने के बाद भी सुबह 5 बजे ही उठते हैं\ लेकिन आजकल के बच्चों ने तो शायद सुबह सवेरे के नटखट सूर्य से कुट्टी ही कर रखी है। सूर्य निकलते ही जो प्रकाश होता है उसे आँखों मे बसा कर ध्यान लगाओ फिर देखो उस रिशनी को याद करो शरीर ऊर्जा से भर जायेगा। तो आज सुबह उठे हो तभी ग्यान चक्षु खुले हैं। बधाई।
ReplyDeleteहूँ, तो ये मामला है। अब तो हमें भी यह किताब खोजनी पडेगी।
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अंतरिक्ष में वैलेंटाइन डे।
अंधविश्वास:महिलाएं बदनाम क्यों हैं?
@ निर्मला कपिला
ReplyDeleteजानते हैं कि सुबह उठना अच्छा है, पर हो नहीं पाता है, क्या करें?
@ ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
हम तो मन की किताब समझ रहे हैं।
this article must be included in the syllabus for the course of young ones....
ReplyDelete@ amit-nivedita
ReplyDeleteअभी तो मेरा पथ ही ध्येय से उतरा है।
जो कर लेता है खुद से रार
ReplyDeleteसमझो उसका बेडा पार
आपकी यह पोस्ट तो 'जनहित याचिका' की विशेषता लिए हुए है। आपके समर्थन में हसताक्षर करनेवालों की अनतहीन पंक्ति नजर आएगी। मैं भी उसी में हँ।
@ विष्णु बैरागी
ReplyDeleteपर मैं अभी तो मनहित याचिका का शिकार हूँ।
आपके लेख का असर पड़ा है मन पर -
ReplyDeleteबधाई
Praveenjee
ReplyDeleteBhor ko amrit Bela kahte hain
yaad aaya
'Early to bed, early to rise
keeps a man healthy, wealthy and wise'
sirf uthna paryapt nahin
uth kar man ka kar kyaa rahe hain
wah bhee mahatvpurna hai
Saargarbhit, Sateek aur prernadayee rasmay lekh ke liye badhaee aur dhanyawaad
बिल्कुल सही कहा है आपने इस आलेख में ...।
ReplyDeleteआलस्य के रथ पर आरूढ़, मैं निश्चेष्ट पड़ा रहता हूँ। ऐसा नहीं है कि नींद खुलती नहीं है, पता चल जाता है कि सुबह हो गयी है पर मन को जीत पाने का प्रयास नहीं कर पाता हूँ, मन के द्वारा प्रस्तुत किसी न किसी बहाने को अपना मान बैठता हूँ, एक बार और डुबकी नींद में और आधे घंटे शहीद।
ReplyDeletebahut dilchsp lagi aur majedaar bhi ,din bhar thaka aadmi agar urja brabar na lega to aage ke liye taiyaar kaise hoga ?neend poori ho ye jaroori hai .
@ anupama's sukrity !
ReplyDeleteअभी तो हम भी सुधरने का प्रयास कर रहे हैं।
@ Ashok Vyas
सुबह उठकर, मन को किसी विषय विशेष पर केन्द्रित करने से ही सृजन संभव है।
@ सदा
बहुत धन्यवाद आपका।
@ ज्योति सिंह
उसी कारण बस नींद बढ़ती जाती है प्रतिदिन।
पढ़कर ऐसा लगा की मेरी संघर्ष कथा आप तक कैसे पहुच गयी.
ReplyDeleteआपके लेखो को पढ़कर मन के भावो को व्यक्त कर पाना मेरे सामर्थ्य के बाहर है. हर एक लेख बाध्य करता है की अगला लेख भी पढू.
आपकी लेखनी मुझे यह लिखने पर बाध्य कर रहे है की मै भी आपके विचारों का एक छोटा सा प्रशंषक हूँ.
इतना गहन चिंतन और पढ़ने से छूट गया ... अनुपमा जी का शुक्रिया जो यहाँ तक पहुँचाया ..
ReplyDeleteसुबह जल्दी उठना ..बस तभी हो पाता है जब ज़रूरत हो ..अन्यथा आलस्य के कारण सूर्योदय तो देखा ही नहीं जाता ... कोशिश अब क्या करेंगे सुधरने की जब ज़िंदगी का सूरज ही अस्त होने वाला हो ...