धरती को कैसा लगता होगा, जब कोई आँसू की बूँद उस पर गिरती होगी? निश्चय मानिये, यदि आप सुन सकते तो उसकी कराह आपको भी द्रवित कर देती। किस बात की पीड़ा हो उसे भला? दैवीय आपदाओं को कौन रोक पाया है और धरती ने न जाने कितनी ऐसी आपदायें देखी होंगी, संभवतः यह कारण नहीं होगा कराह का। शरीर क्षरणशील है, जरा, व्याधि आदि कष्टों से होकर जाता है, प्रकृति का नियम है जिसका आदि है उसका अन्त भी होगा, संभवतः यह भी कारण नहीं होगा कराह का। एक व्यक्ति दूसरे को अपनी वाणी और कर्म से दुःख पहुँचाता है, इस पापकर्म से धरती को बहुत कष्ट पहुँचता होगा, ऐसे नीचों का भार उठाना पड़ता है उसे। कैसा लगता होगा कि उसके संसाधनों से ऐसे नराधमों को भी पोषण मिल रहा है। मन उदास होता होगा, पर कराह का कारण तो यह भी नहीं होगा।
धरती तो तब कराह उठती है जब किसी दुखियारे के आँसू किसी का कंधा नम करने के स्थान पर एकांत में बहकर धरती पर टपकते हैं। धरती का मन यह सोच कर तार तार हो जाता है कि इतने दुर्दिन आ गये मानव सभ्यता के, कि इन आँसुओं को एक कंधा न मिला सुबकने के लिये। क्या सम्बन्धों और सामाजिकता के मकड़जाल में इतनी शक्ति न रही कि वह एक आँसू का बोझ सम्हाल सके? हजारों शुभचिन्तकों के बीच यदि एक कंधा न मिले सुबकने के लिये तो उसी क्षण विचार करना प्रारम्भ कर दीजिये उनकी उपयोगिता पर।
जब तक अपने दुखों को औरों से जोड़कर देखते रहेंगे, मन समरग्रस्त रहेगा। घात, प्रतिघात, उन्माद, अवसाद, यह सब रह रहकर उमड़ते हैं, शान्त नहीं होते हैं। दुखों को अपना मान लीजिये, जीवन हल्का हो जायेगा, सारी पीड़ा आँसू बनकर बह जायेगी, ऊर्जा बची रहेगी सृजनात्मकता के लिये। जब जीवन काष्ठवत हो जाता है तब आँसू ही चेतना संचारित कर सकते हैं। आँसुओं का बाँध बनायेंगे तो टूटने पर केवल विनाश ही होगा, आपका या औरों का। बहुतों के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचती है आँसुओं के प्रदर्शन से, लगता है कि उनका पौरुष अपना गर्व खो बैठेगा। उनके आँसू या तो क्रोधवश सूख जाते हैं, दुख-स्तब्धता में पी लिये जाते हैं या एकांत में बह जाते हैं। यह एक वृहद विषय हो सकता है चर्चा के लिये कि आँसू अन्दर ही रह जायें या शीघ्रतम बह जायें।
भगवान जीवन में मुझे वह क्षण कभी न देना, जब आँसू ढुलकाने के लिये कोई कंधा न मिले और किसी रोते हुये को अपने कंधे में न छिपा सकूँ। आँसुओं को मान मिले, सुबकने के लिये एक कंधा मिले, धरती की कराह भला आप कैसे सुन सकेंगे?