26.2.11

एक कंधा, सुबकने के लिये

धरती को कैसा लगता होगा, जब कोई आँसू की बूँद उस पर गिरती होगी? निश्चय मानिये, यदि आप सुन सकते तो उसकी कराह आपको भी द्रवित कर देती। किस बात की पीड़ा हो उसे भला? दैवीय आपदाओं को कौन रोक पाया है और धरती ने न जाने कितनी ऐसी आपदायें देखी होंगी, संभवतः यह कारण नहीं होगा कराह का। शरीर क्षरणशील है, जरा, व्याधि आदि कष्टों से होकर जाता है, प्रकृति का नियम है जिसका आदि है उसका अन्त भी होगा, संभवतः यह भी कारण नहीं होगा कराह का। एक व्यक्ति दूसरे को अपनी वाणी और कर्म से दुःख पहुँचाता है, इस पापकर्म से धरती को बहुत कष्ट पहुँचता होगा, ऐसे नीचों का भार उठाना पड़ता है उसे। कैसा लगता होगा कि उसके संसाधनों से ऐसे नराधमों को भी पोषण मिल रहा है। मन उदास होता होगा, पर कराह का कारण तो यह भी नहीं होगा।

धरती तो तब कराह उठती है जब किसी दुखियारे के आँसू किसी का कंधा नम करने के स्थान पर एकांत में बहकर धरती पर टपकते हैं। धरती का मन यह सोच कर तार तार हो जाता है कि इतने दुर्दिन आ गये मानव सभ्यता के, कि इन आँसुओं को एक कंधा न मिला सुबकने के लिये। क्या सम्बन्धों और सामाजिकता के मकड़जाल में इतनी शक्ति न रही कि वह एक आँसू का बोझ सम्हाल सके? हजारों शुभचिन्तकों के बीच यदि एक कंधा न मिले सुबकने के लिये तो उसी क्षण विचार करना प्रारम्भ कर दीजिये उनकी उपयोगिता पर।

जब तक अपने दुखों को औरों से जोड़कर देखते रहेंगे, मन समरग्रस्त रहेगा। घात, प्रतिघात, उन्माद, अवसाद, यह सब रह रहकर उमड़ते हैं, शान्त नहीं होते हैं। दुखों को अपना मान लीजिये, जीवन हल्का हो जायेगा, सारी पीड़ा आँसू बनकर बह जायेगी, ऊर्जा बची रहेगी सृजनात्मकता के लिये। जब जीवन काष्ठवत हो जाता है तब आँसू ही चेतना संचारित कर सकते हैं। आँसुओं का बाँध बनायेंगे तो टूटने पर केवल विनाश ही होगा, आपका या औरों का। बहुतों के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचती है आँसुओं के प्रदर्शन से, लगता है कि उनका पौरुष अपना गर्व खो बैठेगा। उनके आँसू या तो क्रोधवश सूख जाते हैं, दुख-स्तब्धता में पी लिये जाते हैं या एकांत में बह जाते हैं। यह एक वृहद विषय हो सकता है चर्चा के लिये कि आँसू अन्दर ही रह जायें या शीघ्रतम बह जायें।

क्या आपके कंधों में वह अपनापन है जो किसी दुखियारे की झिझक मिटा सके, वह आकर कम से कम आपके कंधों में अपना सर टिका सके। किसी के लिये कुछ कर पाने की सामर्थ्य हो न हो, उसके दुख हृदयगत कर लेने की इच्छा तो बनी रहे सबके भीतर। कम से कम यह पग बढ़ायेंगे तो आगे की राहें भी निकलेंगी। मुझे ज्ञात नहीं कि मेरा व्यक्तित्व कितना रुक्ष है पर जब मेरे एक मित्र के पास कई लोग अपनी व्यक्तिगत समस्यायें लेकर आते थे तो मुझे अपने व्यक्तित्व की रुक्षता खलने लगती थी। कई बार लगता है ऊपर पहुँचना कितना कष्टकर हो जाता है, नीचे झुक कर लोगों को गले लगाने में संकोच होने लगता है। कभी कभी अन्तर्मुखी होना भी खटकता है। कभी कभी लगता है कि यदि अपनी ही समस्यायें सुलझाते सुलझाते जीवन निकल जायेगा, तब औरों के काम कब आयेंगे?

भगवान जीवन में मुझे वह क्षण कभी न देना, जब आँसू ढुलकाने के लिये कोई कंधा न मिले और किसी रोते हुये को अपने कंधे में न छिपा सकूँ। आँसुओं को मान मिले, सुबकने के लिये एक कंधा मिले, धरती की कराह भला आप कैसे सुन सकेंगे?

23.2.11

बहता समीर

अपने घर से निकलकर मित्र के घर पहुँचने तक की कार यात्रा में जीवन का दर्शन समेट कर रख दिया, सहयात्रियों को देखते, उनके बारे में बतियाते, उनके मन में झाँकते। अनुभवों की अभिव्यक्ति इतनी सशक्त कि हर घटना एक नया दृष्टिकोण लिये निकली। कोई गुरुता नहीं शब्दों में, वाक्यों में, पृष्ठों में, सब कुछ बड़े ही सरल ढंग से, ग्रहणीय, संदर्भों की जटिल पृष्ठभूमि से परे। स्वनामजन्य प्रवाह, तार्किक प्रबलता, मानवीय दुर्बलताओं का विनोदपूर्ण पर आक्षेपविहीन अवलोकन, समाजिक सुन्दर पक्षों का काव्यमय समावेश, निष्कर्ष 'देख लूँ तो चलूँ'

एक साहित्यिक कृपा की समीरलाल जी ने कि मुझे अपनी पुस्तक की हस्ताक्षरित प्रति भेजने के योग्य समझा। उसी समय हर्षातिरेक में दो तीन पृष्ठ पढ़ गया, पर लगा कि पुस्तक का सम्मान उसे एक प्रवाह में पढ़ने में है, न कि खण्ड खण्ड। अगली लम्बी ट्रेन यात्रा का दिन निर्धारित कर लिया गया। यात्रा का सामान सजाते समय यह पुस्तक सबसे ऊपर रखी गयी, भेंट का समय आ गया, 16-02-11, कर्नाटक एक्सप्रेस, ए केबिन, बच्चे और उनकी माँ दोपहर का भोजन कर सामने वाली बर्थों में निद्रा में डोलते हुये, दौंड और भुसावल के बीच का सुन्दर परिदृश्य, खिड़की से छनकर हल्की सी धूप अन्दर आती हुयी, पढ़ने का निर्मल एकान्त, उस पर 77 पृष्ठों का अपरिमित आनन्द, एक प्रवाह में पढ़ लगा, लगभग उतने ही समय में जिसमें समीरलाल जी की कार मित्र के घर पहुँच गयी।

यात्रायें कुछ न कुछ नया लेकर आती हैं, हर बार। कार यात्रा, ट्रेन यात्रा, जीवन यात्रा, सबमें एक अन्तर्निहित समानता है, एक को दूसरे से जोड़कर देखा जा सकता है। यही सशक्त पक्ष है पुस्तक का भी, यात्रा में कुछ न कुछ दिखता रहता है, उससे सम्बन्धित जीवन के तथ्य स्वतः उभर कर सामने आ जाते हैं। यह शैली अपनाकर दर्शन के तत्वों को भी सरलता उड़ेला जा सकता है। पर दो खतरे हैं इसमें। पहला, असम्बद्ध विषयों को जोड़ने का प्रयास बहुधा कृत्रिम सा लगने लगता है। दूसरा, हर विषय को जोड़ते रहने से पुस्तक का स्वरूप डायरीनुमा होने लगता है। इन दोनों खतरों को कुशलता से बचाते हुये दर्शन और जीवन का जो उत्कृष्ट मिश्रण समीरलालजी ने प्रस्तुत किया है, वह मात्र सुगढ़ चिन्तन और स्पष्ट चिन्तन-दिशा से ही सम्भव है।

कभी एक शब्द विशेष की उपस्थिति संवाद को संक्षिप्तता से कह जाती है, कभी वाक्यों का समूह जीवन का रहस्य उद्घाटित करता है, कभी कविता दर्शन की गहनता को समेट देती है, हर शब्द, हर वाक्य, हर पृष्ठ, व्यस्त सा प्रतीत होता है, कुछ न कुछ कह देने के लिये। उनके व्यस्त जीवन का प्रक्षेप है लेखन में भी, सब कुछ समेट लेने की शीघ्रता। विक्रम सेठ के 'सूटेबल ब्वॉय' या अरुन्धती रॉय की 'द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग' लिखने जितना समय और धैर्य होता तो 77 पृष्ठों का लेखन 770 पृष्ठों में भी न समा पाता। चलिये, इस बार पाठक सूप से संतुष्ट हो गये हैं, पर भविष्य के लिये पढ़ने की भूख भी बढ़ गयी और स्वादिष्ट भोजन की आस भी।

विषयवस्तु पर जाने से उसकी प्रशंसा में कई अध्याय लिखने पड़ जायेंगे। उसका भार सुधीजनों पर छोड़ बस इतना ही कहना चाहूँगा कि सबके जीवन से जुड़ी नित्य की घटनायें एक माध्यम होती हैं कुछ गहरा कहने के लिये। माध्यम का सुन्दर उपयोग, अवलोकन की कुछ और सीमायें निर्धारित कर देने के लिये, इस कृति की विशेषता है। पुस्तक पढ़ने के पश्चात अब वे घटनायें वैसी नहीं दिखेंगी, जैसी अब तक दिखती आयी हैं, उस पर समीरलालजी के हस्ताक्षर दिखायी पड़ जायेंगे आपको।

मैं नहीं जानता कि मेरा अवलोकन कितना गहरा रहा, पर और गहरे जाने से उन उद्देश्यों को उभार न पाता जिसके लिये यह पुस्तक लिखी गयी होगी। पुस्तक लिखने का उद्देश्य और अभीष्ट पाठकगण, दोनों ही मानकों पर पुस्तक खरी उतर आने के कारण मैं स्वयं संतुष्ट था। नदी में गहरा उतरने से पूरी तरह डूब जाने का खतरा तो रहता ही है।

यदि आपने पुस्तक नहीं पढ़ी है तो तुरन्त पढ़ डालें, इतना सरल-हृदय-संप्रेषण विरला ही होता है।  

19.2.11

फिर भी जीवन में कुछ तो है

जीवन को पूरा समझ पाना, एक सतत प्रयत्न है, एक अन्तहीन निष्कर्ष भी। पक्ष खुलते हैं, प्रश्न उठते हैं, समस्या आती है, समाधान मिलते हैं। प्रकृति एक कुशल प्रशिक्षक बन आपको एक नये खिलाड़ी की तरह सिखाती रखती है, व्यस्त भी रखती है, जिससे आने वाले खेलों में आप अच्छा प्रदर्शन कर सकें। कोई शब्द नहीं, कोई संप्रेषण नहीं, कोई योजना नहीं, कोई नियम नहीं, बस चाल चल दी जाती है, पाँसे फेक दिये जाते हैं, अब आप निर्धारित कर लें कि आपको क्या करना है? रहस्य है, दर्शन से समझा जा सकता है, पर इमामबाड़े के रास्तों से भी अधिक कठिन हो जाता है बाहर आना। जो घटनायें बाद में बड़ी सरल सी दिखती हैं और उन पर लिये निर्णयों पर टीका टिप्पणी कर हम स्वयं को वेत्ता समझने लगते है, वस्तुतः वे घटनायें अपने वर्तमान में विशेष जटिलतायें लिये हुये होती हैं। अनुभव की शिक्षा जहाँ एक ओर ज्ञान का अग्रिम आनन्द देती है, वहीं भविष्य में कुछ कर सकने का आत्मविश्वास भी बढ़ा देती है।

जो अनुभव का एक क्षण दे जाता है, उसे पाने में दर्शनशास्त्र को सदियाँ लग जाती हैं। जो आनन्द अनुभव से समझने का है, वह संभवतः दर्शन में मिल ही न पाये। ज्ञानार्जन में औपचारिक शिक्षा तो मात्र 15 प्रतिशत योगदान ही देती है, शेष सब समाज से पाते हैं हम, अनुभव के मार्ग से। तब तो अनुभव से पूर्ण जीवन और भी महत्वपूर्ण हो चला।

कहते हैं कि यदि ईश्वर को हँसाना हो तो उसे अपने भविष्य की योजनायें बता दीजिये। कभी कभी हम अपना भविष्य निश्चित कर लेते हैं, मन ही मन, और प्रतीक्षा करते हैं कि जीवन उसी राह चलेगा। बहुधा नहीं चलता है, क्या करें सबकी इच्छायें पूरी होना संभव ही नहीं है। मन यह मान बैठता है कि अन्याय हो रहा है हमारे साथ, मन विक्षुब्ध हो जाता है, विषाद बढ़ जाता है, सारा दोष ईश्वर को दे बैठते हैं हम।

वह छोटी सी घटना जिसके लिये हम ईश्वर को अन्यायी की संज्ञा दे देते हैं, पूरे जीवन में कितना मूल्य रखती है? यह समझने के लिये बस 10 वर्ष पूर्व की कोई भी ऐसी ही घटना उठा लीजिये। सर्वप्रथम तो उसका कोई मूल्य नहीं लगेगा आपको, संभव है कि आपको स्वयं पर हँसी आये, संभव है कि उसमें आप ईश्वर की दैवीय योजना देखें जो आपको लाभ पहुँचाने के लिये बनायी गयी थी, संभव है आप ईश्वर को धन्यवाद दें उसके लिये। ऐसी ही घटनाओं के बिन्दु मिलाते चलें आपको कोई सार्थक आकृति उभरती दिख जायेगी।

मैं न सुधरने वाला आशावादी हूँ, आस लगाये बैठा रहता हूँ और बहुतों को सुधरते देखा भी है। भाग्यवादी नहीं हूँ पर इतना भी हठ नहीं है कि दुनिया का संचालन मेरे अनुसार हो। जीवन स्वयं में प्रकाशवान है, राह दिखाता रहता है, भविष्य के महल बना ऊर्जा क्यों व्यर्थ करना? वर्तमान पूरी शक्ति से निभाना है, यह मानकर कि भगवान की सहायता बस पहुँचती ही होगी। एक कृपण की तरह ऊर्जा बचा बचा कर किये गये अर्धप्रयास तो कहीं भी नहीं ले जायेंगे, गिन गिन कर पग बढ़ाने से गिनती ही याद रह पायेगी, जीवन खो जायेगा।

कुछ वर्ष पहले ये पंक्तियाँ लिखकर भेजी थी, अपने अनुज अरविन्द को, उसकी पहली असफलता पर। संग्राम उसने हृदयगत किया, जूझा और उत्तर प्रदेश में आठवाँ स्थान ले आया,  प्रादेशिक सिविल सेवा में। आज भाव हिलोरें ले रहे हैं, नयन सुखार्द्र हैं, कल उसका विवाह है।   

फिर भी जीवन में कुछ तो है, हम थकने से रह जाते हैं,
भावनायें बहती, हृद धड़के, स्वप्न दिशा दे जाते हैं,
नहीं विजय यदि प्राप्त, हृदय में नीरवता सी छाये क्यों,
संग्रामों में हारे क्षण भी, हौले से थपकाते हैं।

16.2.11

नोकिया और माइक्रोसॉफ्ट

बहुत अन्तर नहीं पड़ता किसी को, यदि मोबाइल का उपयोग मात्र बात करने के लिये ही किया जाता, पर न जाने क्या ललक है मानव मन की, जो हथेली के आकार के मोबाइल फोन से सब कुछ कर डालना चाहता है। श्रेष्ठतम पा लेने का यह उपक्रम, न केवल वातावरण को जिज्ञासु बनाये रखता है वरन मोबाइल बाजार में भी जीवन्तता बरसाये रहता है।

ऐसी ही एक हलचल हुयी पाँच दिन पहले जब नोकिया और माइक्रोसॉफ्ट ने हाथ मिला लिया और निश्चय किया कि आगे आने वाले नोकिया के सारे स्मार्टफोन विण्डो फोन 7 पर चलेंगे।

आप अपने मोबाइल से केवल बात ही करते हैं तो हजार रुपये से अधिक न व्यय करें उस पर। पर यदि आपके लिये मोबाइल का उपयोग अधिक है तो इस हलचल का मन्तव्य समझना होगा। उनके लिये महत्व और बढ़ जाता है जो अपने लैपटॉप या डेस्कटॉप और अपने मोबाइल के बीच नियमित समन्वय बनाये रखते हैं। इण्टरनेटीय क्लॉउड में अपनी सूचनायें और सामग्री रखने वालों के लिये इसे और भी गहनता से समझना चाहिये। मोबाइल, लैपटॉप और इण्टरनेट के त्रिभुज के बीच छिपा है आपके डिजिटल जीवन का रहस्य। यदि आप इन तीनों को भिन्नता में देखते हैं तो आप इस विकासीय त्रिभुज की परिधि से बाहर हैं।

मैं जब से विण्डो फोन उपयोग में ला रहा हूँ, मेरे लिये इस त्रिभुज में बने रहना बड़ा सरल हो चला है। सभी संपर्क, कार्य, समयबद्धता, नोट्स, लेखन और सूचना उपलब्धता, इन सभी क्षेत्रों में मोबाइल, लैपटॉप या इण्टरनेट पर किया हुआ कोई भी संपादन स्वमेव अन्य में पहुँच जाता है। कुछ सूझा, मोबाइल पर फ्रीहैण्ड से लिख लिया, लैपटॉप पर बैठे और उसमें कुछ जोड़ दिया। लेख और अनुसंधान एक दिन में अवतरित नहीं होते हैं, उस दृष्टि से इस प्रकार निर्बाध निर्माण होता है विचार-प्रवाह का। अन्य जनों की भागीदारी भी इण्टरनेट के माध्यम से समन्वय पा जाती है।

इस युद्ध में अब तीन योद्धा हैं, एप्पल जो अपना सॉफ्टवेयर और मोबाइल स्वयं बनाता है, गूगल जो एक ओपन सोर्स मंच तैयार कर रहा है और तीसरा यह गठबंधन नोकिया और माइक्रोसॉफ्ट का।

हर देश के लिये इस संघर्ष के संदर्भ अलग हो सकते हैं पर भारत के लिये इसका विशेष महत्व है। देश के लगभग 95 प्रतिशत से अधिक कम्प्यूटर माइक्रोसॉप्ट के सॉफ्टवेयर उपयोग में ला रहे हैं। नोकिया के मोबाइल लगभग 54 प्रतिशत लोगों के हाथों में हैं। जहाँ एक ओर माइक्रोसॉफ्ट मोबाइल क्षेत्र में अपनी पहुँच बढ़ाने के लिये प्रयासरत है, वहीं दूसरी ओर सुदृढ़ मोबाइल सॉफ्टवेयर के आभाव में नोकिया के हाथ से मोबाइल का बाजार खिसकता जा रहा है। यह गठबंधन जहाँ इन दोनों के लिये लाभप्रद है, वहीं हम उपयोगकर्ताओं के लिये समन्वय की दृष्टि से सरल है।

नोकिया की क्षमता मोबाइल सेटों के दमखम में है। बनावट, भाषा समर्थन, जनसाधारण तक पहुँच, मानचित्र और ओवी स्टोर का लाभ विण्डो फोन 7 के फोनों को मिलेगा। माइक्रोसॉफ्ट की क्षमता सॉफ्टवेयर में है। बिंग खोज, प्रचारतंत्र, एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर, विण्डो लाइव और ऑफिस डॉकुमेन्ट्स नोकिया के फोनों को और स्मार्ट बना देंगे। बहुत संभावना है कि हिन्दी कीबोर्ड उसमें आ जाये क्योंकि नोकिया सी5 में हिन्दी कीबोर्ड को लाया जा चुका है।

एप्पल के मोबाइल निसन्देह तकनीक के कई पक्षों में अग्रणी हैं पर उनकी कारागारीय मानसिकता में बँध कर रहना भारतीयों को भाता नहीं है। गूगल को विकास के लिये खुला मंच प्राप्त है पर अपना ओ एस न होने से लैपटॉप से समन्वय में उनकी सक्षमता बहुत कम है क्योंकि इण्टरनेट पर सतत निर्भरता भारत में अधिक संभव नहीं है। दोनों ही हिन्दी के क्षेत्र में अपने अपने उपेक्षा स्वर व्यक्त कर रहे हैं। इन स्थितियों में यह गठबंधन सशक्त लगता है और भारत के लिये अधिक संभावनाये लिये हुये है। भारत में पूर्ववर्णित त्रिभुज की समग्रता से देखें तो यही घोड़ा आगे निकलेगा।

मेरे विण्डो फोन को साढ़े तीन साल हो चुके हैं, हम दोनों एक दूसरे से प्रसन्न और संतुष्ट हैं। नोकिया के विण्डो फोन 7 की प्रतीक्षा करने को तैयार हूँ, अगले एक वर्ष तक, संभव है उसके पहले ही मुझे नया मोबाइल मिल जायेगा।  

12.2.11

विभावरी शेष, आलोक प्रवेश

नित स्वयं से एक रार ठनती है, नित मैं हारता हूँ, दिन की मेरी पहली हार, मन की पहली जीत। जब उठता हूँ, सूर्यदेव अपनी विजय पर मुस्करा रहे होते हैं, खुल कर, मैं पुनः कुछ घंटे खो देता हूँ सुबह के, कुछ और जीवित स्वप्न आगे सरक जाते हैं समयाभाव में, मैं निद्रास्वप्न में पड़ा रहता हूँ। चाह कर भी सुबह नहीं उठ पाता हूँ, दिन का स्वागत नहीं कर पाता हूँ। आत्मग्लानि न होती, यदि यह सोचकर न सोया होता कि सुबह सूर्योदय के पहले उठना है। कोई बन्धन नहीं, किसी की आज्ञा नहीं, कार्य देर सबेर हो रहे हैं, सुबह का खोया समय रात में निकाल लेता हूँ, पर स्वयं से रार ठनी है।

बचपन से देखता आया हूँ, बहुतों को जानता हूँ, सूर्योदय के पहले नित्यकर्म आदि से निवृत्त हो जीवन प्रारम्भ कर देते हैं। शास्त्रों में पढ़ा है, प्रातकाल का समय दैवीय होता है, पढ़ा हुआ याद रहता है, मन विषय पर एकाग्र रहता है, सुविचारों का प्रभाव रहता है, सृजन का सर्वोत्तम समय। प्रकृति का संकेत, शीतल बयार बहने लगती है, पंछी चहचहाने लगते हैं उत्सव स्वर में, एक विशेष स्वर गूँजने लगता है वातावरण में, स्पष्ट संकेत देता हुआ, जागो मोहन प्यारे।

आलस्य के रथ पर आरूढ़, मैं निश्चेष्ट पड़ा रहता हूँ। ऐसा नहीं है कि नींद खुलती नहीं है, पता चल जाता है कि सुबह हो गयी है पर मन को जीत पाने का प्रयास नहीं कर पाता हूँ, मन के द्वारा प्रस्तुत किसी न किसी बहाने को अपना मान बैठता हूँ, एक बार और डुबकी नींद में और आधे घंटे शहीद।

रॉबिन शर्मा को पढ़ा, कहते हैं बिना सुबह 5 बजे उठे आत्मविकास संभव ही नहीं, पहले पग में ही लुढ़क गया मेरा लक्ष्य। 5 बजे उठें तो समय मिले अपने बारे मे सोचने का। अभी तो उठते ही उल्टी गिनती चालू हो जाती है, कार्यालय भागने की। सायं वापस आने के बाद, शरीर और बुद्धि विद्रोह कर देते हैं, व्यवस्थाओं से जूझने के बाद और समाज का नग्न स्वरूप का अवलोकन कर। यही क्या कम है कि रात में नींद आ जाती है, उस समय आत्मविकास का विचार व्यर्थता का चरम लगता है। रॉबिन शर्मा की पुस्तक पढ़ने में डर लगने लगा है, कहीं शब्द निकल कर पूँछ न बैठे कि सुबह 5 बजे उठना प्रारम्भ किया कि नहीं?

कुछ दिन पहले निशान्त ने स्टीवेन एटकिंसन का परिचय कराया, उनके ब्लॉग में जाकर देखा तो वही राग सुबह 5 बजे उठने का, पूरी की पूरी पुस्तक लिख डाली है सुबह उठने के लिये। पता नहीं उस पुस्तक में क्या होगा, पर मुझे तो ज्ञात है कि मैं यदि कोई पुस्तक लिखूँगा कि मैं सुबह क्यों नहीं उठ पाता हूँ तो संभवतः मन की क्रूरता के आस पास ही उसकी प्रस्तावना और उपसंहार होगा।

सुबह आँख खुलते ही मन आपसे कहता है कि आप बहुत थके हो, इतने परिश्रम के पश्चात शरीर को विश्राम चाहिये। आप सुन लेते हैं, आपको अच्छा लगता है यह सुनना, पहला ही तीर और आप ध्वस्त। यदि आप बच गये तो कहेगा कि आज कोई विशेष कार्य नहीं है, थोड़ा लेटे लेटे विचार कर लेते हैं, कोई नया विचार आ जायेगा। इस प्रकार एक के बाद आपसे अधिक मौलिक विचार श्रंखलाओं से आपको भरमाने का प्रयास चलता रहेगा। कितना बचेंगे, कब तक बचेंगे? जिस शरीर को 5 घंटे से अधिक की निद्रा नहीं चाहिये, मन बलात सुलाता रहता, लगभग डेढ़ गुना।

जीवन अब रातों में अधिक खिचने लगा है, तामसिकता बढ़ गयी है, अरुणीय मन्त्रों से अधिक रात्रि के गीत रस देने लगे हैं, घर की परम्परायें दम तोड़ रही हैं, पिताजी सुबह 5 बजे उठने वाले पुरातन ही रह गये, मैं रात को 1 बजे सोकर स्वयं को आधुनिक सिद्ध करने में प्रयासरत हूँ।

19 वर्ष पहले का एक दिन, वृन्दावन यात्रा, सुबह 4 बजे मित्र के साथ, कृष्ण मंदिर की मंगल आरती में। धुन और शब्द अभी भी स्मरण में स्पष्ट हैं।

विभावरी शेष, आलोक प्रवेश, निद्रा छोड़ी, उठो जीव...

9.2.11

जियो, ऑर्नब और मित्रों

भूल हो गयी मुझसे, जो कबाड़खाने की यह पोस्ट सुन ली। पिछले पाँच दिनों से उसका मूल्य चुका रहा हूँ, 'ओरे नील दोरिया' न जाने कितनी बार सुन चुका हूँ, सम्मोहन है कि बढ़ता ही जा रहा है। शान्त, मधुर स्वर लहरी जब गायिका के कण्ठ से गूँजती है, हृदय की धड़कन उसकी गति में अनुनादित होने लगती है, शरीर प्रयास करना बन्द कर देता है, आँखें बन्द हो जाती हैं, पूरा अस्तित्व डूब जाता है, बस डूब जाता है, न जाने कहाँ, किस विश्व में।

सचेत स्थिति में वापस आता हूँ तो रोचकता बढ़ती है, इण्टरनेट टटोलता हूँ, ऑर्नब और मित्रों से पहचान होती है, तीस-चालीस गाने सुन जाता हूँ, कर्णप्रिय, मधुर, एक विशेष सुखद अनुभव। जीवन के कुछ वर्ष बांग्लाभाषियों के बीच बिताने के कारण, उन गीतों का हल्का हल्का सा अर्थ मन में उतरता है और शेष भर जाता है संगीत, ऊपर तक। संगीत की भाषा शब्दों की भाषा को अपनी गोद में छिपा लेती है, कोमल ममत्वपूर्ण परिवेश, आपका मानसिक स्तर उठता जाता है भाषा, राज्य, देश, विश्व की कृत्रिम परिधियों से परे, जहाँ कोई आवश्यकता नहीं किसी भी माध्यम की, तदात्म्य स्थापित हो जाता है ईश्वर की मौलिक कृतियों से।

ऑर्नब और मित्रों की सांस्कृतिक शिक्षा शान्तिनिकेतन में हुयी, रबीन्द्र संगीत का स्पष्ट और व्यापक प्रभाव उनके गीतों में व्याप्त है। बांग्ला सामाजिक परिवेश का संगीत प्रेम और संगीत शिक्षा के लिये शान्तिनिकेतन का परिवेश। मैकाले की शिक्षा पद्धति से मन उचटना और शान्तिनिकेतन की स्थापना। गुरुदेव का प्रयोग देश, संस्कृति और समाज के प्रति। साहित्य, संगीत, कला की उन्नत साधना और तीनों में एकल सिद्धहस्तता, शैलीगत। गुरुदेव की तीनों विधाओं में उपस्थिति, जहाँ एक ओर वहाँ की सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न अंग है, वहीं दूसरी ओर विश्व-पटल पर बांग्ला-गौरव का सशक्त हस्ताक्षर भी है।

कई वर्ष पहले जब रबीन्द्र संगीत से साक्षात्कार हुआ, बिना प्रश्नोत्तरी के डूब गया स्वरों के मधुर सागर में। लोकसंगीत, बाउल परम्परा, वैष्णव संगीत और शास्त्रीय संगीत के अतिरिक्त विशेषज्ञों का मत है कि कार्नटिक संगीत के स्वर दिख जाते हैं रबीन्द्र संगीत में। संगीत की एक अलग विधा का जन्म किसी सरस्वती-पुत्र, प्रयोगवादी और सृजनशील का ही कार्य हो सकता है। गुरुदेव के 150वें जन्मवर्ष के उपलक्ष्य में भारतीय रेलवे ने इस वर्ष संस्कृति एक्सप्रेस चलाकर कला के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की है।

वैसे तो संगीत का यह उत्कृष्ट निरूपण सकल विश्व की धरोहर है पर एक भारतीय का सीना और चौड़ा हो जाता, विशेषकर उस समय जब हमारी शिक्षा पद्धति हमारी सांस्कृतिक और बौद्धिक उपलब्धियों को हीन मानने लगी है। मुझे तो रह रह कर यह संगीत श्रेष्ठतम लग रहा है, वर्तमान में, भले ही इसे पूर्वनियत पश्चिमी मानकों पर विशेष न पाया जाये, ग्रैमी व ऑस्कर के लिये।

आप भी डूबिये, पर जब बाहर निकलियेगा, अवश्य बतायें कि हृदय के किन किन कक्षों को अनुनादित कर गया यह गीत?


पुनः सुन लें, नीली नदी के प्रति व्यक्त भाव


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5.2.11

मन का बच्चा बचा रहे

मैं न कभी उद्वेगों को समझा पाया,
मैं न कभी एक निश्चित चाह बना पाया,
जब देखा जीवन को जलते, बस पानी लेकर दौड़ गया,
था जितना बचता साध लिया, और शेष प्रज्जवलित छोड़ गया,
जीवन को संचय का कोरा घट, नहीं बना मैं सकता हूँ,
सज्जनता से जीवित होता, झूठे भावों से थकता हूँ।

पर एक प्रार्थना ईश्वर से कर लेता होकर द्वन्दरहित,
जीवन की रचना स्वस्थ रहे, यद्यपि हो जाये रंगरहित,

जो था अच्छा बचा रहे,
जो था सच्चा बचा रहे,
जीवन की यह आपाधापी,
मन का बच्चा बचा रहे 

2.2.11

विदुर स्वर

महाभारत का एक दृश्य जो कभी पीछा नहीं छोड़ता है, एक दृश्य जिस पर किसी भी विवेकपूर्ण व्यक्ति को क्रोध आना स्वाभाविक है, एक दृश्य जिसने घटनाचक्र को घनीभूत कर दिया विनाशान्त की दिशा में, एक दृश्य जिसका स्पष्टीकरण सामाजिक अटपटेपन की पराकाष्ठा है, कितना कुछ सोचने को विवश कर देता है वह दृश्य।

राजदरबार जहाँ निर्णय लिये जाते थे गम्भीर विषयों पर, बुद्धि, अनुभव, ज्ञान और शास्त्रों के आधार पर, एक परम-भाग्यवादी खेल चौपड़ के लिये एकत्र किया गया था। विशुद्ध मनोरंजन ही था वह प्रदर्शन जिसमें किसी सांस्कृतिक योग्यता की आवश्यकता न थी, भाग लेने वालों के लिये। आमने सामने बैठे थे भाई, राज परिवार से, जिन्हें समझ न थी कि वह किसके भविष्य का दाँव खेल रहे हैं क्योंकि योग्यता तो जीत का मानक थी ही नहीं। जिस गम्भीरता और तन्मयता से वह खेल खेला गया, राजदरबारों की आत्मा रोती होगी अपने अस्तित्व पर।

जीत-हार के उबड़खाबड़ रास्तों से चलकर बढ़ता घटनाक्रम जहाँ एक ओर प्रतिभागियों का भविष्य-निष्कर्ष गढ़ता गया, वहीं दूसरी ओर दुर्भाग्य की आशंका से उपस्थित वयोवृद्धों दर्शकों का हृदय-संचार अव्यवस्थित करता गया। सहसा विवेकहीनता का चरम आता है, अप्रत्याशित, द्रौपदी को युधिष्ठिर द्वारा हार जाना और दुर्योधन का द्रौपदी को राजदरबार लाये जाने का आदेश।

मौन-व्याप्त वातावरण, मानसिक स्तब्धता, एक मदत्त को छोड़ सब किंकर्तव्यविमूढ़, पाण्डवों के अपमान की पराकाष्ठा, भीम का उबलता रक्त, न जाने क्या होगा अब? सर पर हाथ धर बैठे राजदरबार के सब पुरोधा। सिंहासन पर बैठा नेतृत्व अपनी अंधविवशता को सार्थक करता हुआ।

एक स्वर उठता है, विदुर का, दासी-पुत्र विदुर का, पराक्रमियों के सुप्त और मर्यादित रक्त से विलग। यदि यह स्वर न उठता उस समय, महाभारत का यह अध्याय अपना मान न रख पाता, इतिहास के आधारों में, निर्भीकता को भी आनुवांशिक आधार मिल जाता। सत्यमेव जयते से सम्बन्धित पृष्ठों को शास्त्रों से हटा दिया जाता दुर्योधन-वंशजों के द्वारा। ऐसे स्वर जब भी उठते हैं, निष्कर्ष भले ही न निकलें पर आस अवश्य बँध जाती है कोटि कोटि सद्हृदयों की। सबको यही लगता है कि भगवान करे, सबके सद्भावों की सम्मिलित शक्ति मिल जाये उस स्वर को।

विदुर का क्या अपनी मर्यादा ज्ञात नहीं थी? क्या विदुर को भान नहीं था कि दुर्योधन उनका अहित कर सकता है? क्या विदुर को यह ज्ञान नहीं था कि उनका क्रम राजदरबार में कई अग्रजों के पश्चात आता है? जहाँ सब के सब, राजनिष्ठा की स्वरलहरी में स्वयं को खो देने के उपक्रम में व्यस्त दिख रहे थे, यदि विदुर कुछ भी न कहते तब भी इतिहास उनसे कभी कोई प्रश्न न पूछता, उनके मौन के बारे में। इतिहास के अध्याय, शीर्षस्थ को दोषी घोषित कर अगली घटना की विवेचना में व्यस्त हो जाते।

ज्ञान यदि साहसविहीन हो तो ज्ञानी और निर्जीव पुस्तक में कोई भेद नहीं।

महाभारत के इस दृश्य का महत-दुख, विदुर के स्पष्ट स्वर से कम हो जाता है। हर समय बस यही लगता है कि हाथ से नियन्त्रण खोती परिस्थितियों को कोई विदुर-स्वर मिल जाये। यह स्वर समाज के सब वर्गों का संबल हो और सभी इस हेतु सबल हों।

इतिहास आज आस छोड़ चुका है, अपने अस्तित्व पर अश्रु बहाने का मन बना चुका है। अब तक तो भीष्म ही निर्णय लेने से कतरा रहे थे, सुना है, विदुर भी अब रिटायर हो चुके हैं।