जितनी बार भी यह बकर बकर जैसा एकालाप देखता हूँ, अच्छा लगता है और हँसी आती है। पता नहीं क्यों? कुछ जाना पहचाना सा लगता है यह प्रलाप।
हम लोग दिन भर जो कुछ भी बोलते रहते हैं यदि उसे बिना किसी अन्तराल के पुनः सुने तो यही लगेगा कि करीना कपूर की बकर बकर तो फिर भी सहनीय है। पर हम स्वयं ऐसा करते हुये भी विज्ञापन देखकर हँसते हैं। केवल गति का ही तो अन्तर है!
विचार-श्रंखला बह रही है। मन ने जो विचार चुन लिये, उन्हें वाणी मिल गयी। कई अन्य विचार मन से मान न पा सरक जाते हैं अवचेतन के अँधेरों में।
शब्द आते हैं विचारों से। विचारों के प्रवाह की गति होती है और उन विचारों की गुणवत्ता होती है।
कौन है जो विचारों का भाड़ झोंके जा रहा है और मन मस्ती में स्वीकार-अस्वीकार का खेल आनन्दपूर्वक खेल रहा है। कोई जोर है आपका अपने विचारों पर, उनकी गति पर या अपने मन पर?
जब कभी भी इतना साहस व चेतना हुयी कि स्वयं को कटघरे में खड़ा कर प्रश्न कर सकूँ उन विचारों पर जो मन को उलझाये रहे, तो मुख्यतः तीन तरह के उद्गम दिखायी पड़े इन विचारों के।
पहले उन कार्यों से सम्बन्धित जिन्हें आप वर्तमान में ढो रहे हैं।
दूसरे आपके जीवन के किसी कालक्षण से सम्बन्धित रहे हैं और सहसा फुदक कर सामने आ जाते हैं।
तीसरे वे जो आपसे पूर्णतया असम्बद्ध हैं पर सामने आकर आपको भी आश्चर्यचकित कर देते हैं।
पहले दो तो समझ में आते हैं पर तीसरा स्रोत कभी गणित का कठिन प्रश्न हल करने की विधि बता देता है, कभी आपसे एक सुन्दर कविता लिखवा देता है या कभी आपकी किसी गम्भीर समस्या का सरल उत्तर आपके हाथ पर लाकर रख देता है। सहसा, यूरेका।
मन बहका है। यदि आप 'चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढम् ...... अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते', समझते हैं और उस पर अभ्यासरत हैं तो आपके विचारों की गुणवत्ता बनी रहेगी। अच्छों को सहेज कर रखिये और बुरों के बारे में निर्णय ले लीजिये, भले ही मन आपसे कितनी वकालत करे, तभी गुणवत्ता बनी रहेगी।
विचारों के प्रवाह की गति हमारे ज्ञान व सरलता से कम होती है। जीवन आपको ऐसे मोड़ों पर खड़ा कर देगा जहाँ आपको या तो कुछ सीखने को मिलेगा या आपको सरल कर देगा। प्रौढ़ता या परिपक्वता सम्भवतः इसी को कहते हों।
उन मनीषियों को क्या कहेंगे जिनकी चेतना इतनी विकसित है कि हर विचार अन्दर आने से पहले उनसे अनुमति माँगता हो। मेरे विचार तो सुबह शाम मुझे लखेदे रहते हैं।
जिन मनीषियों के विचार बाहर आने से पहले अनुमति मांगते हैं.... उस परिपक्वता को पाना कहाँ आसान है.....हाँ विचारों की गुणवत्ता को बनाये रखना बहुत आवश्यक है..... और इसके बेहद ज़रूरी है विचारों के बाहर आने से पहले विचार ज़रूर हो.....
ReplyDeleteविचारपूर्ण, प्रवाहमयी अभिव्यक्ति. चिन्तामणि (रामचन्द्र शुक्ल) की याद आई.
ReplyDeleteहम अपना बोलना श्रोता की तरह नहीं सुन पाते, इसलिए अपनी बकर बकर का अंदाज नहीं लगा पाते. फोन पर उसी तरह की बातें जो हम खुद करते हैं, दूसरे को करते सुनने से लगता है बेवजह बिल बढ़ रहा है.
विचारणीय विचार...बधाई.
ReplyDeleteअच्छों को सहेज कर रखिये और बुरों के बारे में निर्णय ले लीजिये, भले ही मन आपसे कितनी वकालत करे, तभी गुणवत्ता बनी रहेगी।
ReplyDeleteगुणवत्ता बनाये रखने के लिए यह तो करना होगा , अच्छा सुझाव , सार्थक चिंतन !
विचारों के प्रवाह की गति हमारे ज्ञान व सरलता से कम होती है। जीवन आपको ऐसे मोड़ों पर खड़ा कर देगा जहाँ आपको या तो कुछ सीखने को मिलेगा या आपको सरल कर देगा। प्रौढ़ता या परिपक्वता सम्भवतः इसी को कहते हों।
ReplyDelete@सत्य वचन
एक अच्छा विचार, हमें फ़िज़ूल के श्रम से बचाता है।
ReplyDeleteविचारों के प्रवाह की गति हमारे ज्ञान व सरलता से कम होती है।.. bahut sahi kaha
ReplyDeleteअभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते'
ReplyDeleteबड़े काम की बात याद दिला दी आपने -शास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिय
अच्छों को सहेज कर रखिये और बुरों के बारे में निर्णय ले लीजिये, भले ही मन आपसे कितनी वकालत करे, तभी गुणवत्ता बनी रहेगी।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर, जब गुणवत्ता बनी रहेगी तभी किसी दिशा में सृजनशीलता आ सकेगी अन्यथा रचनात्मकता भी अनेकों धारों में बिना वेग के व्यर्थ होती रहेगी। ज्यादा नहीं मात्र कुछ वर्ष पूर्व तक शान्तिपूर्वक बैठकर चिन्तन कर पाना इतना मुश्किल नहीं था जितना हमारे नये व्यसनों (इंटरनेट इत्यादि) ने कर दिया है। मेरी राय में मस्तिष्क में विचारों, उद्दीपनों का ओवरलोड हो रहा है जिससे चलते किसी भी परिपेक्ष्य में सूक्ष्म अन्वेषण निरन्तर कठिन होता जा रहा है। समय रहते चेतना ही होगा, इस पोस्ट से शायद कुछ प्रेरणा मिले ।
आप एक साधारण घटना/प्रक्रिया को भी देखने/समझने के लिए नई दृष्टि देते हैं..
ReplyDeleteविचारों को आने के लिए कौन रोक सकता है? उन्हे तो आना है।
ReplyDeleteडा. मोनिका शर्मा से सहमत.
ReplyDeleteविचारात्मक प्रस्तुति ..सुन्दर लेखन ।
ReplyDeleteविचारों और बकर-बकर में जमीन आसमान का अन्तर है..
ReplyDeleteइसीलिये "मन का आपा" जैसी बात कही गई है.
बकर-बकर ...हा..हा..हा..सुनकर कित्ता अच्छा लग रहा है.
ReplyDeleteaap apne vichar ko ek manishi ke tarah parmarjit kar abhivaykti dete
ReplyDeletehain....ati-suruchipurn post....
pranam.
ऐसे सदविचार आते रहे तो जीवन आसान हो जाता है . सुन्दर सुरभित चिंतन
ReplyDeleteसतत विचार प्रवाह मयीबने रहे प्रौढ़ता और सात्विकता की ओर .
ReplyDeleteसुन्दर विचारणीय पोस्ट.....
ReplyDelete---बकर बकर ---बिना बिचारे होती है....
---"शब्द आते हैं विचारों से।"--....औरविचार बनते हैं,पठित,संकलित,मनित, मन्थित ग्यान से....
--"कौन है जो विचारों का भाड़ झोंके जा रहा है..."--उसी कौन को ही तो बडे बडे आज तक नहीं जान पाये....
is post ka title bahut sahii likha hai aapni. bakar bakar!
ReplyDeletekareena kapoor ka yeh ad mujhe bhi bahut pasnd hai!! :-)
मेरे विचार तो सुबह शाम मुझे लखेदे रहते हैं।
ReplyDelete... kyaa kahne !!
विचारात्मक प्रस्तुति ..सुन्दर लेखन ।
ReplyDelete"विचार-श्रंखला बह रही है। मन ने जो विचार चुन लिये, उन्हें वाणी मिल गयी। कई अन्य विचार मन से मान न पा सरक जाते हैं अवचेतन के अँधेरों में"
ReplyDeleteऔर शायद इन्हें अवचेतन के अंधेरों में घूर्णन करते विचार सपनों को जन्म देते हैं. सपनों में डर, खुशी क्रोध लगभग सारे ही भाव होते हैं. सिग्मंड फ्रायड की 'द इंटरेप्रेटेशन ऑफ ड्रिम्स' अवचेतन मन के विचारों को समझने और समझाने की दिशा में मील का पत्थर है.
मनोज
आपने और टिप्पणीकर्ता मित्रों ने इस विषय पर अच्छी खासी बकर-बकर कर दी, अब मैं क्या बोलू ? :)
ReplyDeleteऐसे सदविचार आते रहे
ReplyDeleteबहुत सुन्दर।
बहुत गहन चिंतन बकर बकर पर..बहुत सार्थक और विचारणीय पोस्ट..
ReplyDeleteमन की गति न जाने कोय
ReplyDeleteउन मनीषियों को क्या कहेंगे जिनकी चेतना इतनी विकसित है कि हर विचार अन्दर आने से पहले उनसे अनुमति माँगता हो।
ReplyDeleteसच...जाने कैसे होते हैं, वे लोग
विज्ञापन देखा होता तो पोस्ट ज्यादा समझ में आती... :)
ReplyDeleteIT is probably a coincidence, but an interesting one,
ReplyDeleteMeree aaj kee kavita mein bhee lagbhag yahi baat hai, isliye yahan 'copy' 'paste' karne kee swatantrata le rahaa hoon.
मन कैसा अद्भुत है
कभी तुम्हें बुलाता है
कभी रूठ जाता है
कभी सबको अपनाता है
कभी एकाकी हो जाता है
मन के पास
अपना संसार बनाने और मिटाने का
यह जो हुनर है
ये कहाँ से आता है
कौन संशय और विश्वास के झूले
मन उपवन में चुपचाप धर जाता है
कैसे हो जाता है ऐसा
कि कभी
हर बात का सार खो जाता है
और कभी कण कण में
अनंत का दरसन हो जाता है
अशोक व्यास
२२ जनवरी २०११
आर्किमिडिज़ का युरेका ही नहीं केकुले का बेंज़ीन का सूत्र भी याद आ गया!!
ReplyDeleteमेरे साथ कभी कार मे बेठे तो इस करीना कपूर को भुल जायेगे..... ओर एस्परीन की गोळी खायेगे जरुर......
ReplyDeleteब्लॉग्स की दुनिया में मैं आपका खैरकदम करता हूं, जो पहले आ गए उनको भी सलाम और जो मेरी तरह देर कर गए उनका भी देर से लेकिन दुरूस्त स्वागत। मैंने बनाया है रफटफ स्टॉक, जहां कुछ काम का है कुछ नाम का पर सब मुफत का और सब लुत्फ का, यहां आपको तकनीक की तमाशा भी मिलेगा और अदब की गहराई भी। आइए, देखिए और यह छोटी सी कोशिश अच्छी लगे तो आते भी रहिएगा
ReplyDeletehttp://ruftufstock.blogspot.com/
मुझे लगता है, यह तीसरा स्रोत ही जिन्दगी को जिन्दगी बनाए रखता है और बनाए रखने में सहायता करता रहता है। अज्ञात का उद्घाटन जीवन के प्रति आकर्षण बढाता है।
ReplyDeleteअमूर्त को मूर्त रूप देने की चेष्टा करती सुन्दर पोस्ट। आपके ललित निबन्ध संग्रह का प्रकाशन हम जल्दी ही देखना चाहेंगे।
बहुत ही सार्थक मनन और चिंतन........... विचारों पर अच्छा विश्लेषण . सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDelete‘करीना कपूर की बकर बकर तो फिर भी सहनीय है’
ReplyDeleteक्यों न हो, आखिर करीना का करिश्मा जो ठहरा :)
.
ReplyDelete.
.
"मेरे विचार तो सुबह शाम मुझे लखेदे रहते हैं।"
मेरे भी... :(
हल क्या है ?
...
विचानीय बातें... फ़िर से...
ReplyDeleteपर इतनी बकर-बकर के बाद...
no bakar-bakar further...
मेरे विचार मुझे खदेड़ते रहते हैं..कभी मैं उनसे छुपनछुपाई खेलता हूं..कुछ को आने पर कुछ देर उछलकूद करने देता हूं..फिर पकड़ कर कोनो में फेंक देने की कोशिश करता हूं....खुश हूं कि विचारों का अंधड़ कम से कम आता तो रहता है न। बुरे ही सही, कुछ देर बाद उसके स्थान पर अच्छे विचार घुसने को लड़ते तो हैं न...
ReplyDeleteागर विचारों के प्रवाह पर हमारा भी नियन्त्रण होता तो हम भी मनीशी न कहलाते? विचारणीय पोस्ट के लिये धन्यवाद बधाई।
ReplyDeleteविचारों का प्रवाह ठीक है,अधिकतर तो निरर्थक होते हैं,फिर भी हम अपने विवेक की छन्नी से छानकर अपने अंतर-मन में रिकॉर्ड कर सकते हैं.
ReplyDeleteअगर प्रवाह नहीं होगा तो सड़ांध पैदा हो जाएगी
--ठहरे हुए जल की तरह !
विचार ही व्यक्तित्व का निर्माण करते है |
ReplyDeleteउन मनीषियों को क्या कहेंगे जिनकी चेतना इतनी विकसित है कि हर विचार अन्दर आने से पहले उनसे अनुमति माँगता हो। मेरे विचार तो सुबह शाम मुझे लखेदे रहते हैं
ReplyDeleteअपना भी यही हाल है....
विचार मन की जमीन में ही पैदा होते हैं। बीज भले ही बाहर से आरोपित होते हों। जमीन की उर्वरता सबकी अलग-अलग होती है। इसलिए विचार भी अलग-अलग पैदा होते हैं। भले ही बीज वही पड़ा हो। ईश्वर की कोई रचना दूसरे से नहीं मिलती।
ReplyDeleteयह मेरा तात्कालिक बकर-बकर है।:)
विचारात्मक प्रस्तुति; सुन्दर लेखन| बधाई|
ReplyDeleteविचार मन को भा गया। बहुत ही अच्छी प्रस्तुति।धन्यवाद।
ReplyDeletebahut sunder vichar hai
ReplyDeleteबेहद सार्थक पोस्ट ।
ReplyDeleteसच कहा आपने , कभी सोचे तो कभी -कभी अपनी बात या बहस वस्तुत:बकर-बकर ही लगती है और लगता है बेकार ही बोल कर दोनो की ऊर्जा नष्ट की ।
ReplyDeleteये सिर्फ़ time pass ही होती है । बहरहाल आपका
लेख पढ़ने के बाद ध्वनि प्रदूशण कुछ तो कम होगा !
behad sundar praveenji.....
ReplyDeleteप्रवीण जी .... विचार तो बहुत से लोगों के मन में आते हैं ... पर उनको सही शब्द देना और पढ़ने वालों की उत्सुकता बनाए रखना आसान नही होता (वैसे आपको ये महारत हाँसिल है) .. विचारों की गुणवत्ता बनाए रखने का इलाज सही बताया है आपने ... सुंदर आलेख ...
ReplyDeleteबहुत सार्थक .....
ReplyDeleteoops soory last my post...hheeh
ReplyDeletebut it was good,.. bouth he aacha post hai aapka :D
Pleace visit My Blog Dear Friends...
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विचारों की निरख-परख करना, अपने विचारों का विश्लेषण करना सबसे दुश्कर कार्य है. आपने किया है. सारी आयु बीत जाती है विचार और साँस चलते रहते हैं. दोनों में से कोई भी अपने में से दूसरे की अनुपस्थिति बर्दाश्त नहीं करता.
ReplyDeletenicr/rochak/badhai pravenji
ReplyDeleteभाटिया जी की बात पसंद आई
ReplyDeleteकुछ अलग सा लिखते हैं आप विविधता से भरा ब्लॉग ..हाँ! आनंददायक ...प्रेरणादायक .............बहुत सुन्दर ...आपको बधाई ..
ReplyDeleteबकर-बकर के बहाने बहुत कुछ कह दिया...साधुवाद.
ReplyDeleteप्रवीण भाई, छोटी छोटी बातों को इतने सलीके से बयान करना कोई आपसे सीखे।
ReplyDeleteक्या आपको मालूम है कि हिन्दी के सर्वाधिक चर्चित ब्लॉग कौन से हैं?
बकर बकर के साथ इतना विचारणीय पोस्ट आपके ही बस की बात है !
ReplyDeleteबकर-बकर से बहुत कुछ उभारा है आपने। सही है कि कुछ पुस्तकें पढ़कर या किसी विचारधारा को अपनाकर जो उसी पर चलता रहता है वह बकर-बकर ही हो जाता है। ज्यादातर लोग तो ऐसे ही होते हैं और एक ही दिशा में चलते रहते हैं। दास कैपिटल पढ़ी तो उसी का गाना शुरू किया, गोलवलकर को पढ़ा तो उसका गाया और नेहरू को पढ़ा तो उसका। तीनों पढ़कर गड्डमड्ड हो जाता है, अगर उसके बारे में स्वतंत्र सोच और स्वतंत्र तर्क न हों। स्वतंत्र सोच और तर्क वालों की मात्रा तो कम ही है।
ReplyDeleteबधाई हो प्रवीण जी बधाई हम तो बस अपने चैनल की टीआरपी देखा करते हैं आपकी टीआरपी गेखी बहुत खुशी हुई बलॉग जगत में आप खासे लोकप्रिय हैं । अपनी टीआरपी आप रजनीश की ब्लॉग पर देख सकते हैं ।
ReplyDeleteरेलवे पर आपकी आशावादी टिप्पणी अच्छी लगी हम बी यही चाहते हैं कि रेलवे अपना ये प्रयोग बाकी शताब्दियों में भी लागू करे ।
@उन मनीषियों को क्या कहेंगे जिनकी चेतना इतनी विकसित है कि हर विचार अन्दर आने से पहले उनसे अनुमति माँगता हो।
ReplyDeleteउनको तहे दिल से प्रणाम करेंगे.
@ डॉ॰ मोनिका शर्मा
ReplyDeleteयदि एक विचार प्रवाह को सप्रयास रोक दें तो अगली बार उसके आने की प्रायिकता कम हो जायेगी। अच्छे विचारों को बढ़ावा भी देना होगा।
@ Rahul Singh
एक पुरानी रिकार्डिंग सुनी थी, तीव्र गति में, बकर बकर का पूरा आनन्द आया। सुनना नहीं भाता है, कहने में लगे रहते हैं।
@ Udan Tashtari
बहुत धन्यवाद आपके विचार का भी।
@ वाणी गीत
गुणवत्ता प्रयास से आती है, बकर बकर नैसर्गिक है।
@ Ratan Singh Shekhawat
सरलीकरण प्रक्रिया अपनानी ही होती है देर सबेर, सूचना ओवरफ्लो से बचने के लिये।
@ मनोज कुमार
ReplyDeleteएक अच्छा विचार न जाने कितने दिग्भ्रमों से बचाता है।
@ रश्मि प्रभा..
सारे ज्ञान का ध्येय सरल और सहज बनना ही दिखता है।
@ Arvind Mishra
शास्त्रों को भी अभ्यास से ही पढ़ा जा सकता है, नहीं तो मन बहला देता है।
@ Neeraj Rohilla
अधिक शाखाओं में ऊर्जा लगा कर हम जीवन की गुणवत्ता खो रहे हैं। शान्त बैठकर विचार में डूबने का आनन्द कम होता जा रहा है।
@ अरुण चन्द्र रॉय
बकर बकर वाली स्थिति हम सभी की है, कम या अधिक।
@ ललित शर्मा
ReplyDeleteयदि हम आने वाले विचारों को बढ़ावा देते हैं तो वैसे और भी विचार आते हैं, यदि रोकते हैं तो वह प्रवाह भविष्य में कम हो जाता है।
@ सुशील बाकलीवाल
गीता तो अभ्यास का ही मार्ग बताती है।
@ sada
बहुत धन्यवाद आपका।
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
नियन्त्रण का ही अन्तर है विचारों और बकर बकर में।
@ Akshita (Pakhi)
हमें भी सुनकर बड़ा आनन्द आता है।
@ sanjay jha
ReplyDeleteलेखन वाला नियन्त्रण यदि चिन्तन में आ जाये तो अभ्यास पूर्ण हो जायेगा।
@ ashish
और सरलता से सुविचारों की संख्या बढ़ जाती है।
@ गिरधारी खंकरियाल
काश, विचारों का भी अवकाश होता हो।
@ Dr. shyam gupta
मन का कार्य निर्णय देना है, पर उन विचारों का प्रवाह और विषय वस्तु का नियन्त्रण तो हम नहीं करते हैं।
@ SEPO
गोलमाल 2 में भी इसी तरह का अभिनय किया है।
@ 'उदय'
ReplyDeleteकई विचार तो कुछ लिखवा देते हैं, कुछ रूठ जाते हैं।
@ Sunil Kumar
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Manoj K
संभवतः अवचेतन में छिपे विचार ही स्वप्न रूप में आते हैं।
@ पी.सी.गोदियाल "परचेत"
यह पोस्ट ही उसी बारे में है, सबका अधिकार है विषय पर।
@ संजय भास्कर
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Kailash C Sharma
ReplyDeleteबकर बकर पर चिंतन या चिंतन पर बकर बकर।
@ alka sarwat
मन की दिशा भी।
@ rashmi ravija
संभवतः तभी नाम मनीषी पड़ा होगा।
@ Satish Chandra Satyarthi
कुछ माह पहले आया था नहीं तो संदर्भ दे देता।
@ Ashok Vyas
मन के विचार तरंगों की गति से चलते हैं।
@ चला बिहारी ब्लॉगर बनने
ReplyDeleteबेंजीन वाला भी दमदार था।
@ राज भाटिय़ा
वह सुख निश्चय ही प्राप्त करेंगे।
@ Rohit joshi
आपका स्वागत है।
@ विष्णु बैरागी
तीसरा स्रोत ही नवीनता पिरो रहा है, पुराने पुष्पों में।
@ उपेन्द्र ' उपेन '
बहुत धन्यवाद आपका।
@ cmpershad
ReplyDeleteअब तो किसी भी सहने की क्षमतायें पल्लवित हो चुकी हैं।
@ प्रवीण शाह
लेखनी लिये कागज पर भागते रहिये, हम तो यही करते हैं।
@ POOJA...
हमें तो अब अपनी अधिक लगने लगी, बकर बकर।
@ boletobindas
यह भान हो जाना कि कोई विचार प्रवेश कर रहा है, यही बहुत है उन पर नियन्त्रण के लिये।
@ निर्मला कपिला
ध्यान करने से कहते हैं कि नियन्त्रण आ जाता है।
सृजन के लिए गुणवत्ता बहुत जरूरी है....
ReplyDeleteसुंदर पोस्ट
@ संतोष त्रिवेदी ♣ SANTOSH TRIVEDI
ReplyDeleteनिश्चय ही प्रवाह बना रहना आवश्यक है।
@ शोभना चौरे
पूर्ण सत्य क्योंकि विचार ही व्यवहार में आते हैं।
@ shikha varshney
तब आप भी मेरी तरह लिखने का कोटा बढ़ा लें।
@ सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
बुद्धि विचारों का विश्लेषण कर अगले विचारों की माँग रखती है।
@ Patali-The-Village
बहुत धन्यवाद आपका।
@ प्रेम सरोवर
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ Roshi
बहुत धन्यवाद आपका।
@ "पलाश"
बहुत धन्यवाद आपका।
@ nivedita
मन बड़ा हठी है, आपको स्मृतिलोप तक ले जायेगा।
@ Ankur jain
बहुत धन्यवाद आपका।
@ दिगम्बर नासवा
ReplyDeleteपर बकर बकर की बीमारी तो मुझे भी है, सुनने की भी।
@ महेन्द्र मिश्र
बहुत धन्यवाद आपका।
@ ManPreet Kaur
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Bhushan
विचारों की गुणवत्ता बनाने का क्रम जीवनपर्यन्त लगा रहता है।
@ जयकृष्ण राय तुषार
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
ReplyDeleteतब पहले कार में आप बैठियेगा।
@ वर्ज्य नारी स्वर
इस उत्साहवर्धन का आभार।
@ Akanksha~आकांक्षा
बकर बकर का निष्कर्ष कब निकला है।
@ ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
मेरे विचार मुझे लखेदे पड़े हैं, आपको छोटी बात दीखती है। इसी कारण यह पोस्ट भी लिखनी पड़ी।
@ ज्ञानचंद मर्मज्ञ
बहुत धन्यवाद आपका।
@ satyendra...
ReplyDeleteआपकी बात सच है, सबका विचार प्रवाह विशे, होता है। दूसरे के अनुरूप ढालने से सृजनात्मकता चली जाती है।
@ -सर्जना शर्मा-
टी आर पी तो और अधिक मेहनत का संदेश दे गयी। रेलवे में बहुत अच्छे और सार्थक प्रयोग चल रहे हैं, निष्कर्ष भी अच्छे ही आयेंगे।
@ दीपक बाबा
हम भी उन्हें प्रणाम कर कृपा करने की प्रार्थना कर लेते हैं।
@ वीना
वही गुणवत्ता आती है अभ्यास से।
अच्छों को सहेज कर रखिये और बुरों के बारे में निर्णय ले लीजिये, भले ही मन आपसे कितनी वकालत करे, तभी गुणवत्ता बनी रहेगी।
ReplyDeletebahut badhiya .gantantra divas ki badhai .jai hind .
कहीं सुना था.. जो बहुत बोलते हैं उनसे डरना नहीं चाहिए......ज्यादातर मामलों में वो मन के साफ़ होते हैं...उनके पास छिपाने के लिओये नहीं होता....
ReplyDeleteमजेदार विश्लेषण...
@ ज्योति सिंह
ReplyDeleteयदि बुरे विचार मन में रह जाते हौं तो कालान्तर में अधिक अहित कर जाते हैं, अतः उस पर तुरन्त निर्णय ले लिया जाये। आपको भी गणतन्त्र दिवस की बधाई।
@ Rajesh Kumar 'Nachiketa'
आपका यह अवलोकन शब्दशः सच है पर फिर भी विचारों की गुणवत्ता आवश्यक है।
आपके साथ हमारी भी चिंतन यात्रा गति पाती है...
ReplyDelete@ रंजना
ReplyDeleteआपकी चिंतन गति निष्कर्ष पा जाती है, हमारी उलझ जाती है।