सुख की चाह, राह जीवन की, रुद्ध कंठ है, छंद बँधे हैं।
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
सुख की राह एक होती तो, वही दिशा हम सबकी होती,
सूत्र एक होता यदि सुख का, मन की माला वही पिरोती,
अति सुख में दुख उपजे नित ही, दुखधारा, मन पाथर सा,
अतिशय दुख, स्तब्ध दिख रहा, असुँअन मोती त्यक्त बहा,
क्या पाये, क्या तज दे जीवन, हर चौखट पर द्वन्द सजे हैं।
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
हमने सबको दोष दिये हैं, गुण का बोझ उठाये फिरते,
पापों का आनन्द समेटे, आदर्शों के तम में घिरते,
मूर्त सहजता घुट घुट मरती, जीवन के विष-नियम तले,
लांछन अन्यायों का सहता, ईश्वर पा अस्तित्व जले,
पूर्ण विश्व अपनी रचना है, उसने बस प्रारम्भ रचे हैं।
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
ईश्वर से मानव जीवन पा, हमें लगा सब कुछ ले आये,
मुक्त उड़ानें, अनबँध विचरण, हमने अपने गगन बनाये,
नहीं पता था, दसों दिशायें, अनुशासन के तीर चलेंगे,
प्रत्यक्षों से बिखरे दाने, मर्यादा के जाल बिछेंगे,
चारों ओर दिख रही कारा, हर पग में अनुबन्ध लगे हैं।
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
नहीं पूर्ण आमन्त्रित करती, संयम की कल्पित परिभाषा,
हितकर्मों में बीच मार्ग ही, जग जाती संचित प्रत्याशा,
नेति नेति कर्मों में रचकर जीवन को खो बैठे हम,
नित, समाजकृत महाभँवर में, टूट गये कितने ही क्रम,
स्वप्न सदा ही अलसाये हैं, नहीं कभी स्वच्छन्द जगे हैं
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
मध्यमार्ग श्रेयस्कर होता, पर हम भी तो बुद्ध नहीं,
आर पार की कर लेने दो, पर जीना अब रुद्ध नहीं,
इस जीवन को ध्वंस कर रहे, परलोकों की सोच रहे,
आशाओं के पंखों पर कीलें हम लाकर ठोंक रहे,
स्वयं देख दर्पण अब हँस लो, रोम रोम में व्यंग पगे हैं
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
जीवन-नद, कब से तट बैठे, छूकर जल अनुभव करते,
गहराई की समझ समेटे, अपने से डर कर रहते,
डुबा सके तो, भँवर डुबा ले, पर कूदेंगे जीवन में,
लहरों से विचलित क्यों होना, लाख थपेड़े हों उनमें,
जीवन को जीने का आश्रय, जीवित को रस रंग सजे हैं,
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
एक सम्पूर्ण कविता। जीवन की समग्र झाँकी। बहुत ही उम्दा। हमें लग रहा है कि आपसे इसे माँग लिया जाए और "बवाल" भाई के साहित्य गान में शामिल कर दिया जावे ताकि यह जन जन के हृदयों तक पहुँच सके। बहुत बहुत आभार इस रचना के लिए।
ReplyDeleteयथार्थ को चित्रित करती शानदार रचना bhagatpura3
ReplyDelete"क्या पाये, क्या तज दे जीवन,
ReplyDeleteहर चौखट पर द्वन्द सजे हैं।
रेशम की तुम बात कर रहे,
टाटों पर पैबन्द लगे हैं। "
गुड मार्निंग !
मानवीय गुण दोषों का बेहतरीन विश्लेषण है इस सरल प्रवाह कविता में ! आनंद आ गया प्रवीण भाई ! आपके कवि ह्रदय को प्रणाम !
वाह, लगा कि अंत में कवि का नाम मिलेगा जिसकी यह रचना है.''रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।'' बढि़या टेक.
ReplyDeleteहमने सबको दोष दिये हैं, गुण का बोझ उठाये फिरते,
ReplyDeleteपापों का आनन्द समेटे, आदर्शों के तम में घिरते,//
प्रवीण भाई .....
इतनी सुंदर रचना हाल के दिनों में नहीं पढ़ी गई न लिखी गई
एक समग्र सम्पूरण कविता -एक एक शब्द पुनः पुनरपि पढ़ डाला ....अनबंध विचरण को अनबंध संचरण करके पढने पर ज्यादा सहजता लगी ...
ReplyDeleteटाट पर रेशम का पैबंद हो तो वह भी कितना सुन्दर लगता है -सियनि सुहावन टाट पटोरे ....
जीवन के यथार्थ का जीवंत चित्रण करती सशक्त कविता .......
ReplyDelete"टाटों पर पैबन्द लगे हैं"
ReplyDeleteसूक्ष्म पर बेहद प्रभावशाली कविता...सुंदर अभिव्यक्ति.....प्रस्तुति के लिए आभार जी
डुबा सके तो, भँवर डुबा ले, पर कूदेंगे जीवन में,
ReplyDeleteलहरों से विचलित क्यों होना, लाख थपेड़े हों उनमें,
दिनकर की याद दिला दी आपकी लेखनी के जादू ने। • इस ऊबड़-खाबड़ गद्य कविता समय में आपने अपनी भाषा का माधुर्य और गीतात्मकता को बचाए रखा है। • आपकी आवाज़ संघर्ष की जमीन से फूटती आवाज़ है। सपनों को देखने वाली आंखों की चमक और तपिश भी बनी हुई है। क्रूर और आततायी समय में आपके सच्चे मन की आवाज़ है यह कविता। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
फ़ुरसत में … आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जी के साथ (दूसरा भाग)
इस जीवन को ध्वंस कर रहे, परलोकों की सोच रहे,
ReplyDeleteआशाओं के पंखों पर कीलें हम लाकर ठोंक रहे,
स्वयं देख दर्पण अब हँस लो, रोम रोम में व्यंग पगे हैं
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
बहुत खूब, यही तो है आज की सच्चाई !
बहुत ही गहरे भाव हैं रचना में .... आभार
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण कविता......बिल्कुल सच्चाई बयां करती हुई.
ReplyDeleteजीवन के यथार्थ का जीवंत चित्रण करती सशक्त कविता| हार्दिक शुभकामनाएं|
ReplyDeleteबहुत ही गहन भाव लिये हुये सुन्दर अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteजीवन के सच का उद्घाटन और 'न पलायनम्' का संदेश कविता की जान है !
ReplyDeleteजिजीविषा ,संकल्प और उहापोहो से प्रेरित श्रेष्ठ रचना , उत्कृष्ट शब्द संयोजन और भाव मन को छू गए .
ReplyDeleteबहुत श्रेष्ठ गीत बन पड़ा है। बधाई।
ReplyDeleteयथार्थ का चित्रण करती एक खूबसूरत रचना।
ReplyDeleteप्रवीण भाई आपके ब्लॉग का नाम बहुत ही प्रभावित करता है - "न दैन्यं न पलायनम" न किसी को कुछ देना बाकी है, न किसी से डर के भागने की ज़रूरत है| बहुत ही अच्छा शीर्षक चुना है आपने अपने ब्लॉग के लिए|
ReplyDeleteटाटों के पैबन्द............ वाकई अत्यधिक प्रभावशाली प्रस्तुति है बन्धुवर| बधाई स्वीकार करें|
बहुत सुन्दर , सादगी से भरपूर , एक अत्यंत उम्दा रचना! शुभकामनायें.
ReplyDeleteजब मैं नव ग्रन्थ विलोक्ता हूँ , लगता मित्र पुराना ! यही महसूस होता रहा इस कविता में.
ReplyDeleteसुख की चाह, राह जीवन की, रुद्ध कंठ है, छंद बँधे हैं।
ReplyDeleteरेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
sach kaha Satish sir ne!! manivya gun-avguno pe kitni pyari rachna hai ye....sach me achchha laga, aapko follow kar ke..:)
सुख की चाह, राह जीवन की, रुद्ध कंठ है, छंद बँधे हैं।
ReplyDeleteरेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
बहुत भाव पूर्ण सटीक प्रस्तुति..जीवन के यथार्थ को बड़ी गहराई से चित्रित किया है..
अच्छा व्यंग्य।
ReplyDelete---------
डा0 अरविंद मिश्र: एक व्यक्ति, एक आंदोलन।
सांपों को दुध पिलाना पुण्य का काम है?
सुख की चाह, राह जीवन की, रुद्ध कंठ है, छंद बँधे हैं।
ReplyDeleteरेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
waah , kya baat hai !
बहुत सुंदर रचना जी, धन्यवाद
ReplyDeleteसुंदर विचार श्रंखला को इस तरह पद्यबद्ध करना आसान नहीं। बधाई!
ReplyDeleteह्म्म्म्म्म....आपकी बारी है अब ....रिकार्ड किजिये इसे...
ReplyDeleteबहुत आनन्द आया पढ़कर.
ReplyDeleteबहुत ही सशक्त रचना लिखी है आपने!
ReplyDeleteआदरणीय प्रवीण पाण्डेय जी
ReplyDeleteसादर प्रणाम
जीवन सन्दर्भों को उद्घाटित करती हुई .....एक उत्तम रचना ...शुक्रिया आपका
वाकई आपने इस कविता को काफी समय दिया है।
ReplyDeleteटाटों पर पैबंद लगे हैं, एकदम जबरदस्त।
ReplyDeleteटाटों पर पैबन्द लगे हैं
ReplyDeleteअरे पाण्डेय जी, यही तो माडर्न ड्रेस है :)
टाट और पैबंद से झाँकता जीवन का फलसफा!!
ReplyDeleteमध्यमार्ग श्रेयस्कर होता, पर हम भी तो बुद्ध नहीं,
ReplyDeleteआर पार की कर लेने दो, पर जीना अब रुद्ध नहीं,
वाह, प्रवीण जी, अति उत्तम।
पंक्ति-पंक्ति में जीवन दर्शन साकार हो रहा है।
आपकी काव्य प्रतिभा को नमन।
क्या बात है क्या बात है क्या बात है ...भाव ,शब्द ,प्रवाह...सबकुछ बहुत सुन्दर. है ..सम्पूर्ण कविता ..कई बार पढ़ा.
ReplyDeleteपंक्ति-पंक्ति में जीवन दर्शन
ReplyDeleteअक्षर-अक्षर जीवन दर्शन
अति सुख में भी जीवन दर्शन
अतिशय दुख में जीवन दर्शन
लहरों से विचलित क्यों होना
लाख थपेड़े हों जीवन मे
पूर्ण विश्व अपनी रचना है
क्या पाये, क्या तज दे जीवन
.
ReplyDelete.
.
सुन्दर, अतिसुन्दर...
डूब कर बार बार पढ़ने योग्य...
आभार!
...
kavita men bhi yah praveenta aakhir kahan se paye bhai.bhavo ka madhury sath me chintan ki gahrai.
ReplyDeleteरेशम की तुम बात कर रहे , तटों पर पैबंद लगे हैं ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर शब्दों का प्रयोग व्यंग्य ,तंज़ को भी मधुर बना रहा है !
बेहतरीन एवं प्रशंसनीय प्रस्तुति ।
ReplyDeleteहिन्दी को ऐसे ही सृजन की उम्मीद ।
धन्यवाद
... umdaa ... laajawaab !!
ReplyDeleteसुन्दर सार्थक रचना
ReplyDeleteआभार।
कहावतें यूँ ही नहीं बनतीं। 'छन्द' शिकार हो रहा था - अनदेखी का, उपेक्षा का। 'बारह बरस में तो घूरे के भी दिन फिरते हैं' वाली कहावत याद हो आई यह कविता पढकर। लग रहा है - छन्द की वापसी हो रही है। यह कविता उसी की आहट है।
ReplyDelete'यह मेरी लिखी कविता है' यह बताने के लिए अपना नाम लिखना जरूरी नहीं होता - यह भी नमूना पेश कर रही है यह कविता।
"पूर्ण विश्व अपनी रचना है,उसने तो प्रारंभ रचे हैं'....पंक्तियाँ संपूर्ण रचना का सार कह देती हैं !
ReplyDeleteअद्भुत शब्द-संयोजन......अवाक हूँ !
सुख की चाह, राह जीवन की, रुद्ध कंठ है, छंद बँधे हैं।
ReplyDeleteरेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
जीवन के यथार्थ को सुन्दर शब्दों मे उतारा है। बहुत भावमय और सुन्दर रचना है। बधाई।
प्रवीण जी
ReplyDeleteमुग्ध हूँ आपकी इस सुन्दर रचना पर |मानव मन की सारी परतो को बेहद खूबसूरती के साथ एक ही माला में पिरोया है और यह रंग बिरंगी माला बहुत ही ह्रदय के पास महसूस हुई |
दो बार पढने के बाद भी मन अभी भरा नहीं है शायद और कोई मोती मिल जाय?
praveen ji
ReplyDeletebahut kushalta ke saath aapne manav-man ke jivan ki sampurn jivan ka vishleshhan kar diya hai .bahut bahut badhi
ek bahutbdhiya aur sateek post ke liye.
dhanyvaad
poonam
क्या कहूं प्रवीन जी ... आज तो आपकी रचना ने निशब्द कर दिया ....केवल एक शब्द ... लाजवाब !!
ReplyDeleteक्या बात है!!!!!! आज तो माहौल बदल गया है अच्छा लगा ये बदलाव. बहुत जबरदस्त विश्लेषण किया है.मज़ा आ गया.....
ReplyDeletejamane ko kuredati kavita.very good sir .आप-बीती-०५ .रमता योगी-बहता पानी
ReplyDeleteसुख की चाह, राह जीवन की, रुद्ध कंठ है, छंद बँधे हैं।
ReplyDeleteरेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
सुख की राह एक होती तो, वही दिशा हम सबकी होती,
सूत्र एक होता यदि सुख का, मन की माला वही पिरोती,
अति सुख में दुख उपजे नित ही, दुखधारा, मन पाथर सा,
अतिशय दुख, स्तब्ध दिख रहा, असुँअन मोती त्यक्त बहा,
क्या पाये, क्या तज दे जीवन, हर चौखट पर द्वन्द सजे हैं।
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
बेहतरीन रचना है...
सुंदर प्रस्तुती.अच्छा लगा पढना.
ReplyDeleteजीवन के द्वंदों सजीव चित्रण बहुत ही आकर्षक तरीके से किया है .बहुत ही सुंदर रचना है.आप कविता के ओस्कर के हक़दार हैं .शुभ कामनाएं.
ReplyDeleteआज जिन परिस्थितियों में इंसान है उस पर सम्पूर्ण दृष्टि डाली है ..बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ..
ReplyDeleteइसका ऑडियो भी होता तो...
ReplyDeleteआज तो कवितामयी व्यंग, मजा आ गया आप के व्यक्तित्व का ये पहलू देख कर्।
ReplyDeleteआभार
विचारों के धाराप्रवाह के साथ चलती मंचीय रचना. अच्छी टेक. बधाई.
ReplyDeleteसत्य को जानना, कौतुहल रखना और उपाय करना..जिजीविषा है.
ReplyDeleteठीक ही नाम है आपके ब्लॉग का, यह धारणा और बलवती हुई.
एक जबरदस्त रचना के लिए आभार
यथार्थ को चित्रित करती शानदार रचना के लिए बधाई ।
ReplyDelete@ लाल और बवाल (जुगलबन्दी)
ReplyDeleteआपके साहित्यिक गान के लिये सहर्ष ही प्रस्तुत है यह कविता। टाटों के पैबन्द किससे छिपाना, जीवन का यथार्थ ही यही हो गया है।
@ Ratan Singh Shekhawat
बहुत धन्यवाद आपका।
@ सतीश सक्सेना
जब दृष्टि में जीवन के यह रूप दिखायी पड़ते हैं और वह भी पूर्ण नग्नता लिये, कविता सहज ही बह जाती है। आप जैसे कवि हृदय को अच्छी लगी, उससे सन्तोष और पुष्ट हो गया।
@ Rahul Singh
जब अपना नाम छापने का आत्मविश्वास आ जायेगा तब टाटों में पैबन्द न लगे हों संभवतः।
@ babanpandey
हमें वही अच्छा लगता है जिसमें पाप छिपे होते हैं, आदर्शों की राह तो बहुत कठिन है। अपने दुख के सामने सदा ही किसी दूसरे का चेहरा सामने आ जाता है, संभवतः यही वास्तविक जीवन हो गया है हम सबका।
@ Arvind Mishra
ReplyDeleteआपकी सलाह सर माथे, पर वहाँ पर भी विचारों का अनबँध विचरण हो गया। अब तो पैबन्द ही लगाने में समय जा रहा है, जहाँ कहीं भी जीवन उधड़ने लगता है।
@ डॉ॰ मोनिका शर्मा
बहुत धन्यवाद आपका, पर बहुधा यथार्थ यही हो जाता है, आस रेशम की होती है, पर पैबन्द छिपाना कठिन हो जाता है।।
@ संजय भास्कर
बहुत धन्यवाद आपका।
@ मनोज कुमार
एक स्वीकरोक्ति है जीवन को सरलता से जी लेने की। आपको उसमें दिनकर की चरण रज दिख जाये तो मेरी दिशा ठीक है और भाग्य अभिभूत। बिना गेयता के भावों को गद्यगीत रहने दिया जाये, कविता न माना जाये। हृदयोद्गारित आभार।
@ पी.सी.गोदियाल "परचेत"
औरों पर तो नित ही हँसते हैं, कभी कभी दर्पण देखकर स्वयं पर हँसने का मन करता है। अपनी आशायें औरों पर थोप कर आलस्य के गर्त में समाते जा रहे हमारे व्यक्तित्व, स्वयं पर हँसने के लिये न उकसायें तो क्या करें?
@ महेन्द्र मिश्र
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ उपेन्द्र ' उपेन '
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Patali-The-Village
बहुत धन्यवाद आपका।
@ sada
बहुत धन्यवाद आपका, जीवन को सरलता से व्यक्त करने का प्रयास भर है।
@ प्रतिभा सक्सेना
ग़म से अब घबराना कैसा, ग़म सौ बार मिला।
@ ashish
ReplyDeleteउहापोहों से विचार, विचार से निर्णयों की श्रंखला, संकल्प से एक राह, यही जीवन का सार है।
@ ajit gupta
बहुत धन्यवाद आपका।
@ वन्दना
यथार्थ को स्वीकार कर लेती हुयी रचना कहें।
@ Navin C. Chaturvedi
ब्लॉग का शीर्षक अर्जुन की गर्जना थी। क्यों पलायन करें? टाटों में पैबन्द स्वीकार कर लेने से उन्हें छिपाने में ऊर्जा व्यय नहीं करनी पड़ती है।
@ MANOJ KUMAR
बहुत धन्यवाद आपका।
@ गिरधारी खंकरियाल
ReplyDeleteमन में वही भाव बार बार घूमते रहते हैं, हर बार नये शब्द मिल जाते हैं।
@ Mukesh Kumar Sinha
मन का यथार्थ रखना कुछ तो मानवीय हो ही जायेगा। जीवन का सत्य न चाह कर भी बह जाता ही है।
@ Kailash C Sharma
जीवन का स्वप्न रेशम से प्रारम्भ होता है, पैबन्दों पर समाप्त होता है। आशाओं का अम्बार फिर भी है।
@ ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
बहुत धन्यवाद आपका।
@ रश्मि प्रभा...
बहुत धन्यवाद आपका।
@ राज भाटिय़ा
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi
मन की व्यग्रता प्रवाह स्वतः बना देती है।
@ Archana
सुर आपको भेजने हैं, गाने का प्रयास कर लूँगा।
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
अहोभाग्य हमारे।
@ डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक"
आपकी काव्य प्रतिभा से कुछ सीखने का प्रयास ही कर सकते हैं।
@ : केवल राम :
ReplyDeleteजीवन के संदर्भ तो कुछ और ही नियत थे, यथार्थ यह हैं।
@ Rajey Sha
अनुभवजन्य किसी भी रचना में समय देना स्वाभाविक ही है।
@ मो सम कौन ?
सच है, बड़ी मज़बूती से लगे हैं, पैबंद।
@ cmpershad
और हम सब पहने भी हैं।
@ सम्वेदना के स्वर
रेशम के ख्वाब और पैबन्दी टाट, इन दोनों के बीच झूलता जीवन।
@ mahendra verma
ReplyDeleteअतियों से बचने का हठ भी अति बन गया है अब, इसे भी मध्यमार्ग में लेकर आना है।
@ shikha varshney
वास्तविकता को शब्द रूप देकर सजा देने से कितने ही बोझे कम हो जाते हैं, हृदय में।
@ विनोद शुक्ल-अनामिका प्रकाशन
न उसे तज पाये, न उसे पूरा पा पाये, लटके रहे त्रिशंकु समान।
@ प्रवीण शाह
बहुत धन्यवाद, हम अभी डूबकर बाहर आये हैं, आप मत डूबिये।
@ santoshpandey
मन की उत्कट अभिलाषायें, संदोहित विचार श्रंखलायें, धारा बन बस यूँ ही बह निकलती हैं।
@ वाणी गीत
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका, इस उत्साहवर्धन के लिये।
@ RAJEEV KUMAR KULSHRESTHA
बहुत धन्यवाद आपके उत्साहवर्धन का।
@ 'उदय'
बहुत धन्यवाद आपका।
@ ZEAL
जीवन की सार्थकता पर भी।
@ विष्णु बैरागी
जो सुनने और पढ़ने में अच्छा लगे, उसकी वापसी होगी। गेयता और मधुरता से भी जीवन के चोटिल यथार्थ का वर्णन किया जा सकता है।
@ बैसवारी
ReplyDeleteजीवन में अन्य पर और ईश्वर पर दोषारोपण करने से परे अपना भी उत्तरदायित्व समझें, हम अपने जीवन में। जो हम हैं, अपने ही कारण हैं।
@ निर्मला कपिला
पैबन्दी यथार्थ भी व्यक्त कर देना श्रेयस्कर है, उसकी पीड़ा उठा कर फिरते रहने से।
@ शोभना चौरे
यह भाव सबके मन में मौलिकता से रहते हैं और प्रथम आहट में उभरकर सामने आ जाते हैं, जाने पहचाने भी लगते हैं तब।
@ JHAROKHA
बहुत धन्यवाद आपका, कविता में सारे पहलुओं का संयोजन नहीं कर पाया हूँ, चाहकर भी, कई पक्ष छूट गये हैं।
@ क्षितिजा ....
बहुत धन्यवाद आपका।
@ रचना दीक्षित
ReplyDeleteकविता बह जाती है, ठोस गद्य कब तक चलेगा बिना तरलता के।
@ G.N.SHAW
बहुत धन्यवाद, यही भाव मौलिक व गूढ़ हैं, हम सबमें।
@ फ़िरदौस ख़ान
बहुत धन्यवाद इस संवेदन का।
@ Meenu Khare
बहुत धन्यवाद आपका।
@ sagebob
द्वन्दों से परे जीवन का सत्य है संभवतः, अतः द्वन्द तो समझने ही होंगे।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
ReplyDeleteअपने अन्दर झाँक लेने से सबके बारे में ही कुछ न कुछ दिख जाता है। मानव हैं हम सब, समान मनोभाव भी हैं।
@ Abhishek Ojha
अभी यात्रा में हूँ, ऑडियो का प्रयास तो करूँगा ही।
@ anitakumar
हम सबका व्यक्तित्व कुछ रंगमयी है, कुछ व्यंगमयी। आत्ममुग्धता के परे बहुत कुछ दिखने भी लगता है।
@ Bhushan
बहुत धन्यवाद, विचार यदि भरमाने लगें तो उन्हें सम्हालना कठिन हो जाता है।
@ Avinash Chandra
जीवन में घुसकर कुछ समझने और बाटने का प्रयास भर है यह।
@ Mithilesh dubey
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
ईश्वर से मानव जीवन पा, हमें लगा सब कुछ ले आये,
ReplyDeleteमुक्त उड़ानें, अनबँध विचरण, हमने अपने गगन बनाये,
नहीं पता था, दसों दिशायें, अनुशासन के तीर चलेंगे,
प्रत्यक्षों से बिखरे दाने, मर्यादा के जाल बिछेंगे,
चारों ओर दिख रही कारा, हर पग में अनुबन्ध लगे हैं।
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं..
पता नही क्यों पर ये पंक्तियाँ याद आ गयीं .... तुम तो हो इस पार सखी ... उस पर न जाने क्या होगा ....
बहुत ही मधुर .. लय ... छन्द बध लाजवाब रचना ...
ati sundar....
ReplyDeleteहमने सबको दोष दिये हैं, गुण का बोझ उठाये फिरते,पापों का आनन्द समेटे, आदर्शों के तम में घिरते,मूर्त सहजता घुट घुट मरती, जीवन के विष-नियम तले,लांछन अन्यायों का सहता, ईश्वर पा अस्तित्व जले,पूर्ण विश्व अपनी रचना है, उसने बस प्रारम्भ रचे हैं।रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
ReplyDeleteबहुत सहजता से बहुत गहरी बातें लिखीं हैं.
बहुत बार पढ़ी -
बहुत अच्छी लगी-
शुभकामनायें -
टाटों के ही ठाठ होते हैं।
ReplyDeleteचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना आज मंगलवार 18 -01 -2011
ReplyDeleteको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/2011/01/402.html
आद.प्रवीण जी,
ReplyDeleteपहली बार आपकी कविता पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है!
शब्द,शैली और भाव का समन्वय अभूतपूर्व है !
हर पंक्ति में विचारों की एक आँधी समाहित है !
साभार,
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
@ दिगम्बर नासवा
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद, जब उड़ानों को हताश करती हो समाज संरचना तब यही स्वर निकलते हैं।
@ Ankur jain
बहुत धन्यवाद आपका।
@ anupama's sukrity !
हम सबको दोष देते रहते हैं जीवन पर्यन्त पर जो कुछ भी वर्तमान है, वह है हमारे भूतकाल के कारण।
@ राजेश उत्साही
उसी ठाठ से तो जी रहे हैं।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
बहुत धन्यवाद इस शम्मान के लिये।
@ ज्ञानचंद मर्मज्ञ
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद इस उत्साहवर्धन का। स्वर जैसे भी हैं, जीवन के हैं।
yatharthparak......
ReplyDeletepranam.
बेहतरीन अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteरचना के अद्वितीय प्रवाहमयता, शब्द शौष्ठव और चिंतन ने ऐसे मन हर लिया है कि उदगार व्यक्त करने में यह अभी सर्वथा अक्षम है...
ReplyDeleteक्या कहूँ, शब्द कहाँ से लाऊं प्रशंसा को ????
ईश्वर आपकी लेखनी को ऐसे ही समृद्धि दें ,प्रखरता दें ..
रस आह्लाद से भर गया मन ......
शुभाशीष !!!!
ऐसे ही लिखते रहें...
'रेशम की तुम बात कर रहे टाटों के पैबंद लगे हैं '
ReplyDeleteबहुत ही प्रभावपूर्ण प्रस्तुति !
वाह... प्रवीण जी इस रचना को जीवन कहूँ या उसका विश्लेषण... बहुत खूब...
ReplyDelete"क्या पाये, क्या तज दे जीवन,
ReplyDeleteहर चौखट पर द्वन्द सजे हैं।
रेशम की तुम बात कर रहे,
टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
वाह! वाह! वाह!
इससे अधिक शब्द नहीं हैं मेरे पास!
@ sanjay jha
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ nilesh mathur
बहुत धन्यवाद आपका।
@ रंजना
औरों का जीवन समझ पाना और उस पर लिखना कठिन है। स्वयं का अनुभव यदि समानता लाता है औरों से तो वह अपना सा प्रतीत होता है।
यथार्थ बताने में हिचक अवश्य होती है किन्तु बताने के बाद मन हल्का भी हो जाता है।
@ सुरेन्द्र सिंह " झंझट "
रेशम में टाटों के पैबन्द तो सुने थे पर जब टाटों में ही पैबन्द लगें हों तो क्या कहियेगा?
@ POOJA...
ReplyDeleteन यह पूर्ण जीवन है और न विश्लेषण, बस जीवन की अनुभव कथा है।
@ 'साहिल'
बहुत बहुत धन्यवाद आपका।
bahut hi umda rachna hai sir ... kaafi baar padh chuki hoon aur har baar utkrishtataa ka anumaan sahaj hee badh jata hai... badhaai.
ReplyDelete