आपको कितने मित्र चाहिये और किस क्षेत्र में चाहिये? आपके क्षेत्र में मित्र बढ़ाने का सर्वोत्तम माध्यम क्या है? एक मित्र से आप कितने माध्यमों से संपर्क रख सकते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि माध्यमों की अधिकता से हमारे सम्पर्क की गुणवत्ता और मात्रा कम हो गयी हो?
सूचना क्रान्ति ने हमारे मित्रों की उपलब्धता सतत कर दी है, सब के सब मोबाइल फोन पर उपस्थित। उन्हे अपने बारे में जानकारी देने के लिये केवल लिख कर भेजना भर है। भविष्य में सुयोग्य यन्त्र स्वतः ही यह प्रचारित कर दिया करेंगे। पर क्या जानकारी दें हम उससे? यदि आपको लगता है कि आपके मित्र आपकी छीकों के बारे में भी जानने के लिये लालायित रहते हैं तो अवश्य बतायें उन्हें इसके बारे में और भविष्य में तैयार भी रहें उनकी छीकों की गिनती करने के लिये। आपको जो रुचिकर लगता हो, संभवतः औरों को वह न भाये।
सबको यह अच्छा लगता है कि अन्य उन्हें जाने। जान-पहचान का आधार बहुधा एक अभिरुचि होती है जो आपको एक दूसरे के संपर्क में बनाये रखती है। सौन्दर्यबोध एक शाश्वत अभिरुचि है पर उसमें मन लगने और उचटने में अधिक समय नहीं लगता है। हर अभिरुचि का एक सशक्त माध्यम है, कुछ समूह हैं विभिन्न माध्यमों में, लोग जुड़ते हैं, लोग अलग हो जाते हैं, अच्छी चर्चायें होती हैं।
पहुँच बढ़ाने का प्रयास है यह, पर कहाँ पहुँच रहे हैं यह ज्ञात नहीं है हमें। पहुँच बढ़ा रहे हैं, ज्ञान बढ़ा रहे हैं या समय व्यर्थ कर रहे हैं। किसी भी क्षेत्र में बिना समय दिये सार्थकता नहीं निकलती। माध्यमों की बहुलता और फैलाव क्या हमें इतना समय दे पा रहा है जिसमें हम अपनी अभिरुचियाँ पल्लवित कर सकें?
पिछले 5 माह से यह अन्तर्द्वन्द मेरे मन में चल रहा है। ट्विटर, फेसबुक, ऑर्कुट और 5 ब्लॉगों में अपनी पहचान खोलने के बाद भी यह समझ नहीं आ रहा था कि कहाँ जा रहा हूँ और क्या चाह रहा हूँ? इतना फैलाव हो रहा था कि न तो स्वयं को सम्हाल पा रहा था और न ही अभिरुचियों की गुणवत्ता को। फैलाव आपकी ऊर्जा बाँध देता है।
जब नदी का प्रवाह सम्हाला न जा सके तक किनारे की ओर चल देना चाहिये। तेज बहते कई माध्यमों से स्वयं को विलग कर लिया। फेसबुक और ट्विटर बन्द कर दिया। लिंकडेन व अन्य माध्यमों के सारे अनुरोध उत्तरित नहीं किये। ऑर्कुट में साप्ताहिक जाना होता है क्योंकि वहाँ कई संबंधियों के बारे में जानकारी मिलती रहती है। एक ब्लॉग छोड़ शेष निष्क्रिय हैं और संभवतः निकट भविष्य में गतिशील न हो पायें। एक ब्लॉग, गूगल रीडर व बज़ के माध्यम से सारे साहित्यिक सुधीजनों से संपर्क स्थापित है। सप्ताह में दो पोस्ट लिखने में और आप लोगों की पोस्ट पढ़ टिप्पणी करने में ही सारा इण्टरनेटीय समय निकल जाता है।
मेरी सामाजिकता, उसका फैलाव और मित्रों का चयन, सम्प्रति ब्लॉगीय परिवेश में ही भ्रमण करता है। आपका दूर देश जाना होता हो और कोई रोचकता दिखे तो मुझ तक अवश्य पहुँचायें।
उत्सुकता अतीव है, सब जानने की।
पता नहीं क्यों?
सबको यह अच्छा लगता है कि अन्य उन्हें जाने। जान-पहचान का आधार बहुधा एक अभिरुचि होती है जो आपको एक दूसरे के संपर्क में बनाये रखती है। सौन्दर्यबोध एक शाश्वत अभिरुचि है पर उसमें मन लगने और उचटने में अधिक समय नहीं लगता है। हर अभिरुचि का एक सशक्त माध्यम है, कुछ समूह हैं विभिन्न माध्यमों में, लोग जुड़ते हैं, लोग अलग हो जाते हैं, अच्छी चर्चायें होती हैं।
पहुँच बढ़ाने का प्रयास है यह, पर कहाँ पहुँच रहे हैं यह ज्ञात नहीं है हमें। पहुँच बढ़ा रहे हैं, ज्ञान बढ़ा रहे हैं या समय व्यर्थ कर रहे हैं। किसी भी क्षेत्र में बिना समय दिये सार्थकता नहीं निकलती। माध्यमों की बहुलता और फैलाव क्या हमें इतना समय दे पा रहा है जिसमें हम अपनी अभिरुचियाँ पल्लवित कर सकें?
पिछले 5 माह से यह अन्तर्द्वन्द मेरे मन में चल रहा है। ट्विटर, फेसबुक, ऑर्कुट और 5 ब्लॉगों में अपनी पहचान खोलने के बाद भी यह समझ नहीं आ रहा था कि कहाँ जा रहा हूँ और क्या चाह रहा हूँ? इतना फैलाव हो रहा था कि न तो स्वयं को सम्हाल पा रहा था और न ही अभिरुचियों की गुणवत्ता को। फैलाव आपकी ऊर्जा बाँध देता है।
जब नदी का प्रवाह सम्हाला न जा सके तक किनारे की ओर चल देना चाहिये। तेज बहते कई माध्यमों से स्वयं को विलग कर लिया। फेसबुक और ट्विटर बन्द कर दिया। लिंकडेन व अन्य माध्यमों के सारे अनुरोध उत्तरित नहीं किये। ऑर्कुट में साप्ताहिक जाना होता है क्योंकि वहाँ कई संबंधियों के बारे में जानकारी मिलती रहती है। एक ब्लॉग छोड़ शेष निष्क्रिय हैं और संभवतः निकट भविष्य में गतिशील न हो पायें। एक ब्लॉग, गूगल रीडर व बज़ के माध्यम से सारे साहित्यिक सुधीजनों से संपर्क स्थापित है। सप्ताह में दो पोस्ट लिखने में और आप लोगों की पोस्ट पढ़ टिप्पणी करने में ही सारा इण्टरनेटीय समय निकल जाता है।
मेरी सामाजिकता, उसका फैलाव और मित्रों का चयन, सम्प्रति ब्लॉगीय परिवेश में ही भ्रमण करता है। आपका दूर देश जाना होता हो और कोई रोचकता दिखे तो मुझ तक अवश्य पहुँचायें।
उत्सुकता अतीव है, सब जानने की।
पता नहीं क्यों?
कहीं ऐसा तो नहीं कि माध्यमों की अधिकता से हमारे सम्पर्क की गुणवत्ता और मात्रा कम हो गयी हो?
ReplyDeleteजी हाँ ऐसा ही है. माध्यमो की अधिकता ने वस्तुतः दूरियों को बढ़ाया है. निदा फ़ाज़ली का एक दोहा है- मैं रोया परदेश मे भीगा माँ का प्यार. दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार.
संपर्कों की गुणवत्ता पर ध्यान देना चाहिए या मात्रा पर ,सोचने की बात है ...
ReplyDeleteअधिक से अधिक जानने का प्रयास हमें इस दुनिया से जोड़े रखता है ...हम गृहिणियों के लिए तो और भी अधिक उपयोगी लगता है क्योंकि हमारी दुनिया घर और पास पड़ोस तक ही केन्द्रित होती है ...बाहरी दुनिया की खोज खबर ,और गृहस्थी की आम जिम्मेदारियों से इतर अन्य बौद्धिक परिचर्चाओं से जुड़ना या पढना अपने होने का एहसास दिलाता रहता है ..
इंटरनेट से जुड़ने पर कई साईट्स से प्राप्त संदेशों पर वहां अकाउंट तो बना लिया मगर इन्हें अपडेट करने का समय ही नहीं मिल पाता ...
अच्छा लगा पढ़ कर कि आप ऐसा सोच रहे हैं, आपकी टिप्पणियों की पहुंच का तो अनुमान करना भी मुश्किल लगता है.
ReplyDeleteजितने माध्यम बढ़ रहे हैं, उतना ही उलझाव भी बढ़ रहा है। शौकिया तौर पर हम भी सभी जगह रजिस्टर होते रहे, लेकिन जल्दी ही अपनी सीमायें याद आ गईं और सिर्फ़ एक ब्लॉग और जीमेल आई डी भी अपने को बहुत लगती है। बाकी सभी प्रोफ़ाईल्स या तो डि एक्टिवेट कर दी हैं या इनैक्टिव हैं। बाकी जिसकी जितनी गुंजाईश और जितना आकांक्षायें है, उसी हिसाब से चलते होंगे, इन मामलों में कोई थम्बरूल नहीं बन सकता।
ReplyDeleteअरे, आप तो मेरी तरह के मनई हैं :)
ReplyDeleteमैं भी फेसबुक, ट्वीटर फीटर से धीरे धीरे किनारा कर चुका हूं। फेसबुक पर Friend Request आते रहते हैं, महीने डेढ़ महीने में जब अकाउंट कभी कभार लॉगिन करता हूँ तब जाकर देखता हूं कि कहां क्या है तो कहां क्या है ।
तिस पर भी जवाबी मेल आता है कि जनाब बड़ी देर कर दी दोस्त बनाने में.....दोस्ती से पहले हमारी जांच परख तो नहीं कर रहे थे अब तक ?
@ जब नदी का प्रवाह सम्हाला न जा सके तक किनारे की ओर चल देना चाहिये।
सहमत हूँ।
सामाजिकता के फैलाव के लिए ब्लॉग से बढ़िया कोई दूसरा साधन नहीं और ब्लॉग के फैलाव के लिए फेसबुक ,ट्विटर आदि सभी बहुत बढ़िया सहायक है इसलिए हम तो इनमे से फेसबुक का सदुपयोग जरुर करते है |
ReplyDeleteलेकिन यह सच है कि इन सोशियल साईट्स पर संपर्कों की मात्रा तो अधिकाधिक है पर उसमे गुणवत्ता ढूंढे ही नहीं मिलेगी |
बचपन मे पैनपाल या पत्रमित्र के बारे मे पढा था अब इलेक्ट्रीकपाल बना रहे है हम .
ReplyDeleteगुण्वत्ता तो मिलकर ही ज्ञात होगी .हा ब्लाक से व्यक्ति का स्तर तो पता चल ही जाता है .
सोशल नेटवर्किंग जैसे फेसबुक , ऑरकुट , ट्विट्टर में मैंने तो अभी अपना खाता ही नहीं खोला ना ही इरादा है . मित्रता की गुणवत्ता की परख तो समय के साथ ही हो पाती है .
ReplyDeleteहाथ मजबूत करने की कला
ReplyDelete***************************
हाथ मजबूत नहीं होता .....
हाथ मिलाने से
और
दोस्तों की संख्या बढ़ाने से //
हाथ मजबूत नहीं होता
आशा की चिड़िया के पंख सहलाने से
वादों की पेड़ में पानी देने से
और
अशवाशनो के गुब्बारों में हवा भरने से //
हाथ मजबूत होता है मेरे दोस्त !
कुदाल चलाने से
और
कीचड़ में फ़सी बैलगाड़ी को
धक्का देकर बाहर निकालने से //
dosto ki sankhya badhaane se kya hogaa bhai //
ReplyDeleteआज के समय में सामाजिक सबंधों में फैलाव बहुत आसान है फेसबुक पर मित्र बनाते समय देखेंगे कि आपके कई मित्र ऐसे हैं जिनके १००० से ऊपर मित्र हैं ! ऐसे मित्र गण केवल अपने नाम की पहचान चाहते हैं , मुझे यह असुविधा जनक लगता है ! इस "मित्र" बनाने की दौड़ में शायद ही कोई मित्र होता है !
अधिक विनम्रता और स्नेह का भी मित्र गण खूब फायदा उठाते हैं और बेशर्मी के साथ उठाते हैं !
अभी हाल में एक और मज़ा चखा मैंने ब्लॉग मित्रता पर विश्वास करने का ...
सो एक हो सुझाव है !
मित्रता में जल्दी न करें .... :-)
हार्दिक शुभकामनायें !
फैलाव आपकी ऊर्जा बाँध देता है।
ReplyDeleteसही है...focused होना,बहुत जरूरी है...वरना समय का अपव्यय होता है ,और कुछ नहीं.
विस्तार की भी एक सीमा होनी ही चाहिए अन्यथा बिखराव की सम्भावना रहती है.
ReplyDeleteबिलकुल सही समय और मुद्दे पर आपने चर्चा की है.ज़्यादा मित्र,ज़्यादा माध्यम,ज़्यादा साधनों की हम शुरुआत तो करते हैं,पर आख़िर में छनकर जो बचते हैं,वे ही हमारे काम के होते हैं.कहा भी है,'एक छोडि सारी को धावैं,सारी मिले न आधी पावैं'
ReplyDeleteइसलिए ज़रूरी यही है कि हम उतना ही फैलें जितना संभाल सकें,तभी कुछ विशेष भी हो सकता है.
इंटरनेटीय दुनिया से हम उतना ही जुड़ें जितना ज़रूरी है नहीं तो उकताहट आने में देर नहीं लगती.
यह जानकर अच्छा लगा कि आपके मन में भी वही दुविधा पल रही है जो हमारे। और यहां तो कई साथी इसी दुविधा से ग्रस्त दिखे। सचमुच मैं भी केवल ब्लाग और कभी कभार फेसबुक पर जाकर मित्रों को देख लेता हूं। नहीं तो ईमेल का पुराना माध्यम तो है ही। बाकी सब कोरी पब्लिसिटी के स्टंट दिखते हैं। सो मेल बाक्स में आते ही उन्हें डिलीट बटन के हवाले करना ही बेहतर लगता है। अन्यथा उनमें लॉगिन करने में ही बहुत समय जाता है।
ReplyDeleteजब नदी का प्रवाह सम्हाला न जा सके तक किनारे की ओर चल देना चाहिये।
ReplyDelete-बिल्कुल सही फरमाया!
अपनी पहुँच का विस्तार उतना ही ठीक लगता है जितनों को भली प्रकार समझने - निभाने के साथ अपनी निजता के लिए भी पर्याप्त समय पा सकूँ.
ReplyDeleteहजार नेटवर्किंग साइट्स हैं किस किस को उपकृत जाये.
ReplyDeleteहम तो अपने इकलौते ब्लाग पर ही अपनी ऊर्जा व्यय कर रहे हैं। कोशिश यही है कि जहाँ सार्थकता हो वहीं जाया जाए। अच्छा पढ़ने का प्रयास है लेकिन मित्र? अभी कहना कठिन है कि मित्र बनेंगे या नहीं। साहित्य जगत में तो हम एक-दूसरे के साहित्य के कारण परिचित हैं और ऐसे में मित्रता सम्भव दिखायी देती है लेकिन यहाँ अभी जानना शेष है।
ReplyDeleteज्ञानगर्भित विश्लेषण है यह आपका।
ReplyDeleteहमें गुणवत्तायुक्त सामाजिकता की अभिरूचि ही रखनी होगी।
अधिक पहचान के मोह से हमारी मित्रता की गुणवत्ता पर ही प्रभाव पडेगा। साथ ही हमारे व्यक्तित्व के बिखर जाने के खतरे समाहित है।
अभिरूचि के मित्रों की तलाश मैं कुछ यूं करता हूं।
जो मेरी रूचि है,अनुशासन से उसी पर लिखता हूँ,अतिक्रमण नहीं करता। पाठको की अभिरुचि के प्रलोभन में नहीं जाता। यह एक तरह से आमंत्रण होता है समान अभिरूचि के मित्रों के लिये।
बिल्कुल सत्य एवं सटीक बात कही है आपने इस आलेख में ...आभार ।
ReplyDeleteसमय का दुरूपयोग, नेट्वोर्किंग साइट्स पर, फालतू बैठने का सिर्फ जुगाड़ भर है , ब्लॉग की, सम्प्रति विद्वता के द्वार खोलने की, आवश्यकता महसूस होती है .
ReplyDeleteसही कहा जी आपने
ReplyDeleteक्वांटिटी की बजाय क्वालिटी पर ध्यान देना चाहिये।
जिस तरह से हम फैलाव करते हैं, उससे गुणवत्ता में उतार तो आता ही है और अपनी रुचियों से इतर भी तैरने को मजबूर हो जाते हैं।
संपर्कों का भी एक दायरा बना कर रखा जाये तो हमारी मानसिकता ज्यादा विस्तार पा सकती है।
प्रणाम
वर्तमान समय में वास्तविक सम्बन्धों से उपर जाल-जगत के चौतरफा बढते छद्म सम्बन्ध हमारी उर्जा का अपव्यय किये जा रहे हैं । ऐसे में यही आवश्यक है कि गाडी उतनी ही तेज चलाई जावे जितनी कन्ट्रोल की जा सके ।
ReplyDeleteजब नदी का प्रवाह सम्हाला न जा सके तक किनारे की ओर चल देना चाहिये। बिल्कुल सही दर्शन...
अति सर्वत्र वर्जयेत.......
ReplyDeleteफैलाव आपकी ऊर्जा बाँध देता है।---बहुत सही कहा...
ReplyDelete----फ़ैलाव से गुणवत्ता घट जाती है....
--मित्र(मीत,मितवा) या सखा---- साथी,सहपाठी, सहकर्मी, सहकर्मधर्मी,सहधर्मकर्मी,सम्पर्की से भिन्न होता है...
... behad gambheer abhivyakti ... vichaarneey ... saarthak charchaa !!
ReplyDeleteसम्पर्क तो बढा है। अगर इंटरनेट नहीं होता तो शायद इतने व्यापक क्षेत्र नहीं होता मित्रों का।
ReplyDeleteये सवाल कितनी बार पूछा अपने आप से ..एक समय में हम सब अपने खोल में सिमटे थे ..आज हम "ओवर एक्स्पोसर " के शिकार हो रहे है .
ReplyDeleteहर नए कनेक्शन के साथ लगता है ...
क्या अधिकता गुणवत्ता को प्रभावित नहीं करती?
ReplyDeleteसंपर्क बढाने में तो सहायक हुआ है इन्टरनेट.परन्तु यह भी सच है ज्यादा फैलाव गुडवत्ता कम कर देताहै ..बेहतर है कम हो पर अच्छा और प्रभावी हो.
ReplyDeleteमेरी नज़र में ये 'social networkin sites' बहुत उपयोगी होती हैं ... खसकर जब आप अपने परिवार से दूर रहते हों .. कई मित्र जो स्कूल आदि में साथ थे उनसे संपर्क बना रहता है ... काम काज की दृष्टिसे भी अच्छा है .... मगर वो ही बात जो आपने कही की कितना विस्तार होना चाहिए ... उतना ही जितना निभाया जा सके अच्छे से ... नहीं तो वक़्त की बर्बादी तो है ही .. इनमें उलझ कर महत्वपूर्ण कार्य रह जाते हैं ...
ReplyDeleteसामयिक लेख।
ReplyDeleteट्विट्टर के बारे में सोचा भी नहीं
हम तो VIP नहीं हैं। किसी को क्या रुचि हो सकती है यह जानने के लिए कि पल पल मैं क्या कर रहा हूँ?
Facebook का खाता खोला था, किसी मित्र के कहने पर.
एक सप्ताह के बाद account बन्द कर दिया।
मेरे लिए यह उपयोगी नहीं था, nuisance ज्यादा था।
करीब ६ Yahoo Groups का सदस्य हूँ, कुल मिलाकर जिनकी सदस्यता दस हज़ार से भी ज्यादा है।
जब दिन में २०० से अधिक ई मेल आने लगे, मैंने खाता बदल दिया और Digest Mode का Option चुन लिया।
अब इन Yahoo groups से दिन में केवल ६ ई मेल आते हैं और विषयों/भेजने वालों की सूची सबसे पहले दी जाती है।
छाँटकर पढता हूँ और कभी कभी उत्तर देता हूँ। बाकी सीधे Trash Folder में अपनी जगह ले लेते हैं।
सबसे ज्यादा satisfaction मुझे मिला ब्लॉग जगत में। (हिन्दी और अंग्रेज़ी, दोनों)
१२ ब्लॉगों को नियमत रूप से पढता हूँ, और भी कुछ ब्लॉगों को कभी कभी पढता हूँ।
६ से सात ब्लॉगों पर नियमित रूप से टिप्पणी भी करता हूँ।
अन्य ब्लॉगों पर चाहते हुए भी टिप्पणी करने किए लिए समय नहीं मिलता।
अब इस से ज्यादा भोज संभाला नहीं जाता।
अंग्रेजी में सच कहते हैं Too much of a good thing is also not good.
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
पहुँच बढ़ाने का प्रयास है यह, पर कहाँ पहुँच रहे हैं यह ज्ञात नहीं है हमें। पहुँच बढ़ा रहे हैं, ज्ञान बढ़ा रहे हैं या समय व्यर्थ कर रहे हैं। किसी भी क्षेत्र में बिना समय दिये सार्थकता नहीं निकलती। माध्यमों की बहुलता और फैलाव क्या हमें इतना समय दे पा रहा है जिसमें हम अपनी अभिरुचियाँ पल्लवित कर सकें?
ReplyDeleteबहुत सार्थक लेख है .
अति से हमेशा बचना चाहिए- -
जब मै इन जगहों पर गई दो उम्मीद में गई थी की कुछ पुराने मित्र या सहपाठी यहाँ मिल जाये दूसरे अपने भाई बहनों और वर्त्तमान मित्रो से जुडी रह सकू जो विवाह के बाद दूर हो गये थे किसे नये से मिलने की कोई इच्छा नहीं थी अत: अनजान लोगों की मित्रता की रिक्वेस्ट नहीं स्वीकार करती ब्लॉग, लेखन से जुड़े लोगों के लेखन तक सिमित रहने के लिए शुरू किया सो वही तक खुद को सिमित रखा | उद्देश्य साफ थे और पूरे हो रहे थे तो मुझे कभी कोई परेशानी या समय की व्यर्थता जैसा नहीं लगा | किन्तु अपने आस पास बहुतो को मै बस समय व्यर्थ करते ही देखती हु |
ReplyDeleteतकनीक सामाजिकता के फैलाव में मददगार है, इसीलिए उसका खूब सदुपयोग हो रहा है।
ReplyDelete---------
सांपों को दुध पिलाना पुण्य का काम है?
कम से कम मित्र चाहियें, जो सन्मित्र हों!
ReplyDeleteसचमुच माध्यमों की अधिकता होने से भावों की सघनता घट रही है ।
ReplyDeleteअपनी एक पोस्ट में मैंने मालवी की एक लोकोक्ति पेश की थी जिसमें नींद न आनेवाले नौ लोगों में से एक वह भी है जिसने व्यापार बहुत अधिक बढा लिया हो।
ReplyDeleteमैं मूलत: ब्लॉग पर ही हूँ किन्तु फेस बुक पर भी यथेष्ठ सैर-सपाटा कर लेता हूँ। किन्तु लगता है, पाप काट रहा हूँ। अपेक्षित गम्भीरता वहॉं नहीं बरत पाता। सोच रहा हूँ, एक ब्लॉग ही निभ जाए ता बहुत है। बहुत हुआ तो ब्लॉग को ही फेस बुक और बज पर 'शेअर' कर लूँ।
याद आ रहा है -
एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय।
जो तू सींचै मूल को, फूले, फले अघाय।।
बेहतर है कम हो पर अच्छा और प्रभावी हो.
ReplyDeleteहर चीज की अति उस चीज से विमुख होने को बाध्य कर देती है |सम्पर्क का कोई उद्देश्य हो तो सम्पर्क करना सार्थक है अन्यथा अपनी उर्जा कोई अन्य रचनात्मक कार्य में लगाई जाय तो ज्यादा बेहतर होगा |
ReplyDeleteसूचनाये .जानकारी विश्व की या मित्रो की पाना सुखद है किन्तु अपने आसपास की सम्पर्कता तो बंद कमरे से बाहर निकलकर ही सुख दुःख के साथ निभाई जायगी और शायद तभी हम अपने लोगो से नजदीक आ पाएंगे |दूरस्थ मित्रो की या सूचनाये प्राप्त करने की अक सीमा तो बनानी ही होगी |
कुछ ब्लौगों पर विचरण करने के अलावा मैं अब केवल फेसबुक पर ही नियमित रहता हूँ. फेसबुक इसलिए जमा क्योंकि उसके ज़रिये बहुत से भूले-बिसरे संगी-साथी मिल गए.
ReplyDeleteऔरकुट को मैं हमेशा से चिरकुटई मानता रहा. चैटिंग कभी की नहीं. बज़ को तो टटोला भी नहीं. लिंक्डइन के बारे में कुछ ख़ास पता नहीं सिवाय इसके कि ये मुझे ऐसे मेल भेजता है जिसे मैं खोलने की ज़हमत भी नहीं करता.
फेसबुक इतनी स्वतंत्रता देता है कि आप दूसरों से कितना जुड़ें या शेयर करें. पहले गेंहू छानने की छन्नी थी, फिर रवा, फिर आटा, और अब मैदा छानने की छन्नी लेकर बैठा हूँ.
मेरे ख्याल से हम सब इस मंथन से गुजरते हैं और नतीजा वही होता है जो आप के साथ हुआ। मुझे भी सबसे ज्यादा आत्मिक आनंद हिन्दी ब्लोगजगत पर ही आया, पर अब वो भी इतना फ़ैल गया है कि मुझे लगता है मेरी ही ऊर्जा और वक्त छोटे पढ़ गये हैं।
ReplyDeleteप्रवीण जी ....
ReplyDeleteआपकी सोच जायज़ है....लेकिन मेरा मानना है की हमेशा नए इंसानों से मिलते रहना चाहिए..क्यूंकि हर कोई कुछ न कुछ सिखा के ही जाता है...
और ज़िन्दगी में ये अनुभव हमेशा काम आते हैं....
और इसी फेसबुक ऑरकुट से मुझे जीवन में इतने बेहतरीन दोस्त मिले हैं जो किसी हीरे से कम नहीं.....
============================
मेरे ब्लॉग पर बुढ़ापा...
जितनी चादर हो उतने ही पैर पसारने चाहिये वाली कहावत यहाँ भी लागू होती है... इसीलिये अपने दोनों ब्लॉग्स और उसके ब्लॉगरोल में जितने ब्लॉग्स हैं, बस उतने चला लूँ और आदर सहित उनका निर्वाह कर सकूँ बस इतना ही है.
ReplyDeleteऑर्कुट जिसके लिये था उसके बाद वो भी बंद और फेसबुक कुछ हलकी फुल्की तफरीह के लिये!!
प्रवीण जी,
ReplyDeleteइस १.५ मिनट के वीडियो को दिखिये आपको हंसी में ही सही कुछ उत्तर अवश्य मिलेगा। वीडियों कें southern US accent है इसलिये शायद हेडफ़ोन लगाकर सुने तो स्पष्ट सुनेगा ।
इसे क्लिक करके सुनें
आभार,
नीरज
आपने जो विषय चुना है ...शायद उसकी तरफ किसी का ध्यान जाता हो परन्तु जब जाता है तो व्यक्ति को सोचने पर मजबूर कर देता है ...सोसल नेटवर्क होना चाहिए ..परन्तु आभासी नहीं ....वास्तविकता में अगर हमारे पास मित्र कम ही सही परन्तु सुधीजन हैं तो ..हमारे लिए इससे बड़ी बात क्या हो सकती है ....हमें इस बात पर जोर देना चाहिए कि हम आभासी की अपेक्षा ..वास्तविक दुनिया में जीयें..शुक्रिया
ReplyDeleteतेते पाँव पसारिये जेती लाम्बी सौंर...
ReplyDeleteaapse sahmat hoon,
ReplyDeleteजब नदी का प्रवाह सम्हाला न जा सके तक किनारे की ओर चल देना चाहिये।
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने धन्यवाद|
जब नदी का प्रवाह सम्हाला न जा सके तक किनारे की ओर चल देना चाहिये। तेज बहते कई माध्यमों से स्वयं को विलग कर लिया।
ReplyDeleteबहुत सही विवेचन ....इस यात्रा में बहुत से मित्र बनते हैं ...जो आपकी सोच और अभिरुचि के मुताबिक़ होते हैं वो दूर तक साथ देते हैं ..और उनसे वास्तविक रिश्ते कायम हो जाते हैं ..संपर्कों में गुणवत्ता होना ज़रूरी है ...
पहुँच बढ़ाने का प्रयास है यह, पर कहाँ पहुँच रहे हैं यह ज्ञात नहीं है हमें। पहुँच बढ़ा रहे हैं, ज्ञान बढ़ा रहे हैं या समय व्यर्थ कर रहे हैं। किसी भी क्षेत्र में बिना समय दिये सार्थकता नहीं निकलती। माध्यमों की बहुलता और फैलाव क्या हमें इतना समय दे पा रहा है जिसमें हम अपनी अभिरुचियाँ पल्लवित कर सकें?
ReplyDeleteसोचने पर विवश करती रचना. शुभकामना
सबको यह अच्छा लगता है कि अन्य उन्हें जाने। sir aap ki lekhani dekh kar mujhe kabhi-kabhi yah aschary hota hai ki itane kam ka bojh hote huye bhi , aap itana kuchh kaise likh lete hai.waise bahut sundar aur sarthak lekh aur wah bhi niswarth.aap mere post par bhi aate rahate hai tatha aap ki tippani mujhe bahut utasahit karati hai kyo ki hum dono ek hi sikke ke do pahalu hai.very-very thank you sir.
ReplyDeleteफैलाव होता तो है लेकिन समय के साथ स्वतः ही सिमटता भी रहता है।
ReplyDeleteमकर संक्राति ,तिल संक्रांत ,ओणम,घुगुतिया , बिहू ,लोहड़ी ,पोंगल एवं पतंग पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं
ReplyDeleteजय श्री कृष्ण...आप बहुत अच्छा लिखतें हैं...वाकई.... आशा हैं आपसे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा....!!
ReplyDeleteपिछले 5 माह से यह अन्तर्द्वन्द मेरे मन में चल रहा है। ट्विटर, फेसबुक, ऑर्कुट और 5 ब्लॉगों में अपनी पहचान खोलने के बाद भी यह समझ नहीं आ रहा था कि कहाँ जा रहा हूँ और क्या चाह रहा हूँ? इतना फैलाव हो रहा था कि न तो स्वयं को सम्हाल पा रहा था और न ही अभिरुचियों की गुणवत्ता को। फैलाव आपकी ऊर्जा बाँध देता है।
ReplyDeleteजब नदी का प्रवाह सम्हाला न जा सके तक किनारे की ओर चल देना चाहिये। तेज बहते कई माध्यमों से स्वयं को विलग कर लिया। फेसबुक और ट्विटर बन्द कर दिया। लिंकडेन व अन्य माध्यमों के सारे अनुरोध उत्तरित नहीं किये। ऑर्कुट में साप्ताहिक जाना होता है क्योंकि वहाँ कई संबंधियों के बारे में जानकारी मिलती रहती है। एक ब्लॉग छोड़ शेष निष्क्रिय हैं
Kuch-kuch yahee manodashaa hamaaree bhee hai !
फैलाव आपकी ऊर्जा बाँध देता है।
ReplyDelete--------------------------
खासकर तब जब यह फैलाव मात्र आभासी हो......गुणवत्ता बहुत ज़रूरी है...... सहमत हूँ....
यह सूचना की क्रांति ही है जिसने मुझे आप जैसा फ्रेंड दिया...
ReplyDeleteआपके विचारों से पूरी तरह सहमत.... कभी कभी तो लगता है हमारी दिशा क्या है..... कभी कभी समय की बर्बादी लगती है... सब जगह से आकार एक ब्लॉग पर ठहर गया हूँ और इसे छोड़ते नहीं बन पा रहा है क्योंकि यहाँ सिर्फ ६ महींने में बहुत कुछ सीखा और कुछ बहुत ही अच्छे दोस्तों से भी मुलाकात हुई. देखते है सफ़र कबतक जारी रहता है. ये पोस्ट पढ़कर लगा जैसे मै ही लिख रहा हूँ अपने मन की बात...... अच्छा लगा. आभार.
ReplyDeleteये बात तो सही है। मैं तो जाने कितने पर था। बाद में पता चला कि कई तो बोर हैं। कई पर जाने का कोई मतलब नहीं। दरअसल मन भी लालची होता है। ये भी ले ले, वो भी ले ले....ठीक उसी तरह लगा हर जगह प्रोफाइल बना ली जाए।....अब तो फेसबुक और ब्लॉग तक ही सीमित हूं। ऑरकुट तो इसलिए एक्टिव होना पड़ता है कि कई लोग उसपर ही मिलते हैं पेशे से जुडे लोग। वरना तो जाने का कोई मतलब ही नहीं।
ReplyDeleteसक्रांति ...लोहड़ी और पोंगल....हमारे प्यारे-प्यारे त्योंहारों की शुभकामनायें......सादर
ReplyDeleteaapka confusion bahut sundar hai badhai
ReplyDeleteप्रवीण भाई,
ReplyDeleteसच कहा, एक ब्लॉग के लिए ही बामुश्किल टाइम निकाल पाता हूं...समझ नहीं पाता, और सब अपने काम और ब्लॉगिंग के साथ फेसबुक, बज़, ऑरकुट, ट्विटर के लिए कैसे वक्त निकाल लेते हैं...एक दो बार जाने की कोशिश भी की लेकिन मन रमा नहीं...इसलिए फुर्सत का जो टाइम मिलता है, ब्लॉग को ही देता हूं...इसी माध्यम से दोस्तों का दायरा बहुत बढ़ गया है...
जय हिंद...
प्रवीण जी.. मकर सक्रांति पर आपको हार्दिक शुभकामनायें.. और अब चूँकि आप सिर्फ ब्लॉग में है तो उम्मीद है की ब्लॉग में फिर किसी पोस्ट में दिखेंगे .. शुभकामनायें..
ReplyDeleteऑरकुट पर तो जाना कम ही हो गया, सभी फेसबुक पर ही आ गए.. और सही ही है इतनी सारी नेटवर्किंग साईट्स हैं कि समझ नहीं आता सब एक साथ कैसे संभाली जाएं... पर दूसरों को देखती हूँ, जो मुझसे भी ज्यादा काम करते हैं, वो सब संभाल रहें हैं सिस्लिये कोशिश करती हूँ... पोस्ट पर बहुत से लोगों की चिंतन रेखाएं उजागर हो गईं...
ReplyDeleteमकर संक्रांति, लोहरी एवं पोंगल की हार्दिक शुभकामनाएं...
लोहड़ी,पोंगल और मकर सक्रांति : उत्तरायण की ढेर सारी शुभकामनाएँ।
ReplyDelete‘ ट्विटर, फेसबुक, ऑर्कुट और 5 ब्लॉगों में अपनी पहचान खोलने के बाद भी यह समझ नहीं आ रहा था.... ’
ReplyDeleteतभी तो, पाण्डेय जी हम इन पचडों में नहीं पडे। अब तो फ़ेसबुक बंद होनेवाला ही है ना [मार्च में]॥
sir me to apne facebook aur twiteer ka password hi bhul gaya hun
ReplyDeleteatah: is post aur ispar aayee tippani
ReplyDeletese ye sabit hota hai ke 'ek hi vishaya' ke bare alag-alag log alag-alag jaghon par 'ek saman apni rai'
rakhte hain.
sadar
@ santosh pandey
ReplyDeleteभावनायें तो बिना माध्यम के ही बह जाती हैं यदि ज्ञात हो कि ध्येय क्या है? लोगों से जुड़ने के उन्माद में हमें उन भावों की गहराई नहीं दिखाई पड़ती है जो हमारे जीवन का आधार है।
@ वाणी गीत
अभिरुचियों का फैलाव कितना हो इसका ध्यान हम नहीं रख पाते हैं, लोगों तक पहुँचने के प्रयास में। गुणवत्ता वाले लोग जुड़ें तो ही अच्छा लगता है। फेसबुक और ट्वीटर के समुद्र में खो जाने में अभिरुचियों का तो भला होने से रहा। गृहणियों को बहुत समय न मिल पाता है, घर के कार्यों से परे।
@ Rahul Singh
इसी ब्लॉग में तो डूबे रहने के कारण तो समय नहीं मिल पाता है अन्य माध्यमों के लिये, न जाने कितना कुछ है पढ़ने के लिये।
@ मो सम कौन ?
लीजिये, आप भी मेरी राह पर हैं। कई जगह पर रजिस्टर होने के बाद भी उनका उपयोग कभी नहीं किया। समय सीमित है, ब्लॉग में ही करने के लिये कितना कुछ है।
@ सतीश पंचम
हम तो सदा ही आपके तरह रहे हैं, जमीन से जुड़े। जब तक सम्बन्धों में तत्व नहीं मिल पाता है, जुड़ने की ललक ही नहीं रहती। हवाई फायरों की भभक से दूर जा चुकी है जीवन के सूत्र।
@ Ratan Singh Shekhawat
ReplyDeleteकभी कभी फेसबुक व ट्वीटर में होने वालों के संवादों में तत्व नहीं दिख पाता है। कुछ ठोस मिले तो टिकने का भी मन करता है, संवादों में। संदेश देने के लिये और संपर्क बनाये रखने के लिये इन माध्यमों की उपयोगिता ही दिखती है।
@ dhiru singh {धीरू सिंह}
मिलकर जो आनन्द आता है वह ईमेली संदेशे भेजने में कहाँ। असली वैचारिक स्तर तो ब्लॉग पढ़ कर ही आता है।
@ ashish
यदि आप उन राहों में न भटके तो अच्छा ही है, अब न जायें वहाँ। स्तरीय लेखन आपका तो आपके ब्लॉग से पढ़ने को मिलता रहेगा।
@ babanpandey
आपके बताये हुयी तरीकों से ही हाथ मजबूत होगा। बाकी सबमें तो हवाई सन्तोष ही है। 15 वर्ष बाद मिले एक दोस्त को गले लगाने में जितना सुख मिल गया वह 15 लोगों से चैट कर के भी नहीं मिला।
@ सतीश सक्सेना
भीड़ के बीच अकेले जैसी स्थिति हो जाती है। हमारे संपर्कों की गुणवत्ता जितनी गहरी होगी मित्र भी उतने ही गहरे बनेंगे। कुछ न कुछ सीखने को मिल ही जाता है, सम्बन्धों के बिखराव से। पर आप से तो मित्रता तुरन्त ही हो गयी।
@ rashmi ravija
ReplyDeleteफैलाव ऊर्जा को निश्चित रूप से बाँधता है। लेन्स जब सूरज की रोशनी को एकत्रित करता है तो ऊष्मा का विस्फोट हो जाता है।
@ M VERMA
जिस क्षेत्रफल में गतियाँ समेटी जा सकें, उसी में बने रहना चाहिये। बाहर जाने से जमीनी आधार छूट जाता है।
@ संतोष त्रिवेदी ♣ SANTOSH TRIVEDI
जो सम्हाला जा सके उसे में सीमित रहा जाये, फैलने से टूटने की सम्भावना हो जाती है, हमारे उकता जाने का यही कारण हो सम्भवतः।
@ राजेश उत्साही
माध्यमों की अधिकता ही इसका कारण है। किसी माध्यम में कूदने के पहले यह विचार आवश्यक है कि क्या यह अभिरुचियों के अनुरूप उपयोगिता रखता है कि नहीं।
@ Udan Tashtari
अब तो किनारे बैठकर यह देख रहे हैं कि किस धारा में कूदा जाये। सब की सब बहुत तेज बह रही हैं।
@ प्रतिभा सक्सेना
ReplyDeleteसम्बन्ध भी रहें, निजता भी, विस्तार भी रहे, गुणवत्ता भी।
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
स्वयं का जीवन ही उपकृत हो अन्ततः।
@ ajit gupta
ब्लॉग में यदि पूरा समय जा रहा है तो सारा ब्लॉग जगत लाभान्वित हो रहा होगा। साहित्य के लिये कोई अन्य माध्यम इससे अधिक लाभप्रद होगा, यह देखना है।
@ सुज्ञ
अपनी सीमाओं में रह कर जब संतुष्टि हो जाये कि अब सीमाओं से परे जाने का समय है, तभी सीमाओं को लाँघना चाहिये। अपनी गुणवत्ता के अनुसार लेखन हो, न कि पाठकों की अभिरुचियों के अनुसार।
@ sada
बहुत धन्यवाद आपका।
@ गिरधारी खंकरियाल
ReplyDeleteसंभवतः यही लगा मुझे भी, इन माध्यमों से किनारा करने के पहले। ब्लॉग को गुणवत्तापूर्ण करना प्रथम ध्येय हो हमारा।
@ अन्तर सोहिल
मात्रा वर्ण पर ही लगकर उसे गुरुतर बनाती है, बिना वर्ण मात्रा तो अधर में झूलेगी।
@ सुशील बाकलीवाल
गति बढ़ाने के पहले यह विचार कर लिया जाये एक बार कि यह सम्हाली जा सकेगी कि नहीं।
@ pragya
सच कहा आपने, माध्यमों में सरलता हो, सहजता हो।
@ Dr. shyam gupta
मित्रता का भाव सचमुच गहन होता है, परिचित का परिक्षेत्र सतही। गहनता से गुणवत्ता आती है।
@ 'उदय'
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ मनोज कुमार
मित्रों की व्यापकता लाभप्रद है यदि अभिरुचियाँ सम्पन्न हों। मित्रों की संख्या तो संभवतः अभिरुचि न ही हो।
@ Sonal Rastogi
दोनों विपरीत चरम हैं, कभी एकान्त तो कभी अपार भीड़। पता नहीं क्या ठीक है?
@ Kailash C Sharma
अधिकता जब तक सम्हाली जा सके, गुणवत्ता प्रभावित नहीं होती है।
@ shikha varshney
संपर्क बढाने में तो सहायक हुआ है इन्टरनेट.परन्तु यह भी सच है ज्यादा फैलाव गुडवत्ता कम कर देताहै ..बेहतर है कम हो पर अच्छा और प्रभावी हो.
प्रारम्भ कम से हो, जैसे जैसे ठोस हो आधार, विस्तार बढ़ाया जा सकता है।
@ क्षितिजा ....
ReplyDeleteपुराने मित्र मिलना तो एक घटना हुयी पर उसके बाद क्या संवाद चल रहा है, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। निभाना विशेष है, अन्य शेष है।
@ G Vishwanath
आपके अनुभव से सीखना प्रारम्भ कर दिया है। अधिक बोझ नहीं सम्हाला जा रहा है, ब्लॉग पर केन्द्रित कर गुणवत्ता देने का ही प्रयास है।
@ anupama's sukrity !
अति से तभी बचा जा सकता है जब मन में ध्येय स्पष्ट हो, सम्बन्धों और सम्पर्कों का।
@ anshumala
यही संभवतः सही दिशा है, उद्देश्यपूर्ण विचरण ही सहायक हो सकता है।
@ ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
तकनीक से फैलाव बढ़ाने की पूरी सम्भावना है पर ऊर्जा रास्ता रोके खड़ी रहती है।
@ डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक"
ReplyDeleteउसी से गुणवत्ता बनेगी।
@ मनोज भारती
भावों की सघनता ही भटकाव से बचाती है।
@ विष्णु बैरागी
अधिक व्यापार बढ़ा लेने से नींद नहीं आती है, विभिन्न माध्यम मानसिक व्यापार बढ़ाने में लगे रहते हैं।
@ संजय भास्कर
सच कहा आपने, गुणवत्ता उसी में है।
@ शोभना चौरे
सूचना पाना अच्छा लगता है पर अति से पीड़ा होने लगती है।
@ निशांत मिश्र - Nishant Mishra
ReplyDeleteआपकी छन्नी प्रभावी रहे, मैनें तो अभी बोरा ही नहीं खोला है।
@ anitakumar
बहुत धन्यवाद आपका, संतुष्टि तो ब्लॉग जगत में ही मिली है।
@ shekhar suman
घर में हवा आने जाने के लिये जितने खिड़की दरवाजे आवश्यक हैं, उतने ही बने रहें। कहीं ऐसा न हो कि हम ही बाहर निकल कर चल दें।
@ चला बिहारी ब्लॉगर बनने
यह पता लगाना होगा कि कितने हिन्दी ब्लॉगरों ने तेज बहाव के माध्यमों से किनारा कर लिया है।
@ Neeraj Rohilla
फेसबुक पर आयी फिल्म सोशल नेटवर्किंग देखी, बहुत प्रभावित नहीं हुआ।
@ : केवल राम :
ReplyDeleteआभासी प्रभाव का निष्कर्ष भी आभासी ही होता है। वास्तविकता का सुख ही आत्मिक है।
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
उतने ही फैलें हम, जहाँ से वापस सिमट पायें।
@ संजय कुमार चौरसिया
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Patali-The-Village
हम तो अभी किनारे पर ही बैठे हैं।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
जो दूर तक साथ दें वही सुख देते हैं, नहीं तो शेष सब आभासी है।
@ मेरे भाव
ReplyDeleteजहाँ पर विकल्प रहते हैं, सोचने का क्रम बन जाता है, बिना विकल्प जीवन कितना आसान हो जाता है।
@ G.N.SHAW
समय भी सीमित है, यही कारण है कि माध्यमों की बहुलता दिग्भ्रम उत्पन्न करती है।
@ ZEAL
उसे संभवतः प्रवाह कहते हैं।
@ P S Bhakuni
आपको भी हार्दिक शुभकामनायें।
@ Dimple Maheshwari
बहुत धन्यवाद आपका।
@ पी.सी.गोदियाल "परचेत"
ReplyDeleteचलिये एक राह के हमराही हैं हम अब।
@ डॉ॰ मोनिका शर्मा
सहमति का आभार।
@ महफूज़ अली
निश्चय ही यह लाभ तो ठोस है, मेरे लिये भी।
@ उपेन्द्र ' उपेन '
धीरे धीरे कई ब्लॉगों से मन उचटेगा लोंगों का और अन्ततः एक विवाह जैसी राह बनेगी सबकी, एक ही ब्लॉग के माध्यम से।
@ boletobindas
परिचित यदि मिल जायें तो अच्छा लगता है अन्यथा इन माध्यमों में परिचितों की अधिकता से अकुलाहट बढ़ी ही है।
@ चैतन्य शर्मा
ReplyDeleteआपको भी बहुत शुभकामनायें पर्वों की।
@ जयकृष्ण राय तुषार
बहुत धन्यवाद आपका।
@ खुशदीप सहगल
मुझे भी ब्लॉग के माध्यम से ही इतने स्तरीय मित्र मिल गये हैं कि अन्य माध्यमों में अब वापस जाने का मन ही नहीं करता है।
@ डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति
बहुत धन्यवाद आपका।
@ POOJA...
आपको शुभकामनायें यदि आप समय निकाल पा रही हैं, व्यस्तता बढ़ गयी तो मेरी बहुत अधिक अतः बाहर आ गया।
@ सुज्ञ
ReplyDeleteआपको भी इस पर्व की बहुत बधाईयाँ।
@ cmpershad
तभी तो लगता है कि ब्लॉग में ही खालिस लोगों की अधिकता है।
@ anoop joshi
चलिये हम भी आप की ही राह में हैं।
@ sanjay jha
बहुत धन्यवाद इस सूक्ष्म अवलोकन का।
I agree with you, on many points.
ReplyDeletethe proliferation of Social networks and communication avenues has changed the meaning of Friendship. In a way that, friendship on SNs has become incorporating many things like friendship, pr, prospects, traffic etc. But the Friendship of older days is still there -- that's nothing but pure empathy.
Enjoyed your write-up
ओह यह विचारपरक आलेख छूटा ही जा रहा था ....समाज जैबिकीविदों का कहना है की मनुष्य के परिचय का दायरा १५० के आस पास सिमटा रहा है यानि वह जीवनभर यही कोई डेढ़ सौ लोगों से सामीप्य /सम्बन्ध बनाये रखता है मगर सोशल नेटवर्क साईटों से यह संख्या हजारों में जा पहुँची है -अब इतनों से सम्बन्ध बनाए रखने की जद्दोजहद और कुछ दुष्परिणाम तो रहेगें ही -अध्ययन बताते हैं कि अमेरिका में तलाक लेने वालों में एक बड़ी संख्या फेसबुक यूजर की है -अच्छा किया आपने अकुंत बंद करके :)
ReplyDeleteदरअसल मनुष्य के जीन बहुत परिवर्तित नहीं हुए हैं -फेसबुक का खुलापन कई मामलों में लोगों को गहरे संवेदित कर रहा है !
आज भी हम १५० से ऊपर जायेगें तो सामाजिक समस्याएं आयेगीं ही -ज्ञानार्जन की भी अपनी सीमायें हैं !
प्रवीण जी ... मुझे भी लगता है मिलने जुलने में कोई हर्ज नही होता ... इंसान जीतने लोगों को मिलता है उतना ही सीखता है ... फिर गुणवत्ता की कोई बात नही है ... ये ज़रूर है की अपने तरीके से सावधानी रखने में कोई हर्ज नही है ... वो तो विसे भी ज़रूरी है आज के समय में ...
ReplyDelete@ Mr Bisht
ReplyDeleteसच कहा आपने, जैसी गुणवत्ता होगी, वैसा ही आनन्द आयेगा उसमें।
@ Arvind Mishra
अभी तो संख्या 150 के आसपास ही चल रही है पर लगता है कि फेसबुकिया समय में जीन परिवर्धित होकर रहेंगी।
@ दिगम्बर नासवा
निश्चय ही मिलने जुलने से ज्ञान बढ़ता है और समझ बढ़ती है, पर यदि बिना उद्देश्य के ही भ्रमण हो तो?
Vakai Praveen Bhaiya aapki baat kuch anokhi hai. Apke lekh sabse different hai.Aapke lekh hame e-mail ke madhyam se milte hai aur Pahle to hame borring laga lakin jab dhang se hamne padha to maja hi aa gaya...
ReplyDeleteThank you,
Sani singh Chandel, Allahabad
@ Sani singh Chandel
ReplyDeleteईमेल में पढ़ने से कई फीचर सामने नहीं आ पाते है, प्रयास कर साइट पर ही पढ़ें। बहुत धन्यवाद आपका।