पिछले दो दशक अपनी उन्नति के गर्व में मदमाये खड़े हैं। आईटी ने विश्व को अपरिवर्तनीय दिशा दे दी है, अब चाह कर भी कोई पुरानी राहों पर लौटकर न जा पायेगा। बलात ही सही, सबको बढ़ना तो पड़ेगा ही। इस बदलाव को स्वप्नोत्तर प्रत्यक्ष रूप देने में भारतीय युवाओं की क्षमताओं और प्रयत्नों का विशेष योगदान रहा है। कूट भाषा में अपने आदेशों को लिखकर, उनके माध्यम से बड़े बड़े संयन्त्रों को चला लेने का सहज-कर्म प्रतिदिन विस्तार पा रहा है। नित नये क्षेत्र इस परिधि में सिमटते जा रहे हैं। जो व्यवसाय आईटी से दूर हैं, उन्हें प्रबन्ध-गुरु हेय दृष्टि से देख रहे हैं। जिस प्रकार रात में शारीरिक थकान को विश्राम मिलता है, अमेरिका की रातों में भारतीय प्रतिभायें कार्य कर उनका प्रभात विघ्नविहीन करने में लगी रहती हैं। व्यावसायिक उन्मत्तता ने रात-दिन के व पूर्व-पश्चिम के अन्तर को मिटा डालने की कसम सी खा ली है।
इस उद्देश्य के लिये पूरी की पूरी सेनाओं का गठन हो रहा है, विश्वविजय की रणभेरी रह रह कर सुनायी पड़ती है प्रतिदिन। बंगलोर इस विश्वविजयी अभियान का प्रमुख गढ़ है। इस क्षेत्र से सम्बन्धित कुछ अन्य तथ्यों को बंगलोर में रह कर ही समझ पाया हूँ। 15 वर्ष पहले आईटी को सिविल सेवा के लिये छोड़ देने से यह अनुभव प्रत्यक्ष नहीं रहा पर यदि इस क्षेत्र में रहता तो उस पीड़ा को और ढंग से व्यक्त कर पाता जिसके स्वर कभी इस नगर के बाहर नहीं निकल पाते हैं।
पहला तो नये प्रशिक्षुओं को प्रशिक्षित करने में लगभग एक वर्ष का समय लगता है। दूसरा, अधिक पैसों के लिये कम्पनी छोड़कर आने जाने वालों की संख्या भी अधिक रहती है। तीसरा, किसी नये कार्य को प्राप्त करने के लिये और प्रथम दिन से ही उसका निष्पादन करने के लिये हर समय अतिरिक्त सॉफ्टवेयर इन्जीनियरों की संख्या रखनी पड़ती है। यह तीन कारक हैं किसी भी सॉफ्टवेयर कम्पनी में आवश्यकता से अधिक व्यक्ति होने के। अब इस स्थिति में, किसी भी समय लगभग 10% इन्जीनियरों के पास कोई भी कार्य नहीं रहता है। इसे "बेन्च स्ट्रेन्थ" के नाम से भी जाना जाता है। कार्यालय उन्हे आना पड़ता है, बिना किसी कार्य के, कुछ भी आकर पढ़िये, कुछ भी आकर करिये। कुछ दिन ही ठीक लगता है यह हल्कापन। व्यस्तता के चरम से कुछ न कर पाने की यह स्थिति असहनीय मानसिक तनाव लाती है। मनोरोग और आध्यात्म के रूप में इस मानसिक तनाव की दिशा ढूढ़ते देखा है इन युवाओं को।
यहाँ सरकारी वेतनमानों से बहुत अलग, वेतन प्रदर्शन पर निर्भर होता है। सॉफ्टवेयर कम्पनियों का वैश्विक स्वरूप विदेशों में कार्य करने के कई अवसर भी देता है। एक होड़ सी मची रहती है बाहर जाने की, गलाकाट प्रतियोगिता आगे निकलने के लिये। 24 घंटे कार्य करने की लगन और स्वास्थ्य व परिवार को भुलाकर कम्प्यूटरीय भाषा में डूबे रहने का क्रम और असाधारण व्यक्तित्वों को निर्मित करती यह जीवन शैली।
वेतन बहुत अधिक होने से घर, गाड़ी, धन आदि जीवन के अवयव 35 वर्ष का होते होते आ जाते हैं। अब कोई क्या करे, और धनार्जन? सरकारी सेवाओं में रिटायरमेन्ट का अर्थ होता है, इतना धन जिससे जीवन के इन अवयवों का अर्जन हो सके। अब 35 वर्ष के बाद क्या करे सॉफ्टवेयर इन्जीनियर? यहाँ से कई राहें निकलती देखी हैं। प्रतिभावान प्रोग्रामर सॉफ्टवेयर के निर्माण के किसी विशेष अंग के आधार पर अपनी अलग कम्पनी खोल लेते हैं, अपनी कम्पनी के स्वामी। प्रतिभावान प्रबन्धक अपने अर्जित धन से नया व्यवसाय डाल देते हैं। शेष सॉफ्टवेयर निर्माण के कार्य में यथावत लगे रहते हैं, बिना किसी विशेष प्रेरणा के। जीवन को गति में जीने की लत, एक अवस्था के बाद रिक्तता उत्पन्न करने लगती है विचारों में।
पीड़ा के स्वर, भले ही प्रगति के महानाद में छिप जायें, भले ही धन की अधिकता में विलीन से हो जायें हैं और भले ही कूट भाषा की शक्ति के मद में अनुभव न हों, पर हैं यथार्थ। उसे झेलकर देश की गरिमा को उन्नत करने में लगे युवा हमारे अपने हैं। हम भी इसे समझें और इस व्यवसाय से जुड़े अपने परिचितों और सम्बन्धियों को वह मानसिक दृढ़ता प्रदान करें जिसकी स्पष्ट माँग वे हमसे नहीं करते हैं।
यह परिवेश-विशेष में ही अच्छी तरह महसूस किया जा सकता है.
ReplyDeleteएक भेडचाल है अपने यहा जो इस समय आईटी और एम बी ऎ की तरफ़ चल रही है . हद तो यह है हमारे यहा के छोटे शहरो मे खुले छोटे स्तर्हीन कालेज भी आईटी मे बीई करा रहे है . और स्तरहीन विद्धार्थी ग्लेमर मे इन्जीनियरिंग कर रहे है .
ReplyDeleteप्लेसमेंट भी नही हो पा रहा है . क्षमता से कम पर नौकरी कर रहे ज्यादा लोग ही मान्सिक तनाव से पीडित है
बेन्च-स्ट्रेंथ शब्द से परिचित हुआ //
ReplyDeleteमेरे विचार से सोफ्ट वेयर इंजिनियर के अनाप शनाप पैसे कमाने और खर्च के कारण मंहगाई भी बढ़ी है
मेरे दुसरे ब्लॉग "२१ वी सदी का इन्द्रधनुष " पर भी कभी भ्रमण करे //
प्रवीण जी
ReplyDeleteआपका ध्यान जिस दिशा की तरफ गया है ..बहुत सार्थक विषय को चुना है आपने ....आज के युवा पैसा और शोहरत दोनों के लिए कार्य कर रहे है ..परन्तु पैसा उनका मुख्य लक्ष्य है ..इस लिय विदेश जाने से भी हिचक नहीं ...बहुत बढ़िया
गुडगांव में स्थित आईटी कम्पनियों में भी यही हाल है इस क्षेत्र में पैसा तो है पर कार्य के दौरान दिए टार्गेट पुरे करने का मानसिक तनाव व दिन रात की कार्यप्रणाली स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालती है साथ ही कम उम्र में एकदम से अर्जित ज्यादा धन भी उन्हें गलत राहों पर भटका देता है |
ReplyDeleteसूचना प्रोद्योगिकी ने देश के विकास में अहम् योगदान दिया है और हर विकास के अपने फायदे नुकसान तो है ही . ये सच है की ऊँची वेतनभोगी प्रवृति, अस्थिरता और कार्य निष्पादन के अनिश्चित समय से , इस विशेष क्षेत्र के प्रतिपादको को ढेर सारी समस्या का सामना करना पड़ता है.
ReplyDelete... samay va dishaa ke anukool ... saarthak charchaa !!
ReplyDeleteप्रवीण जी
ReplyDeleteनमस्कार !
सार्थक विषय को चुना है आपने
भले ही धन की अधिकता में विलीन से हो जायें हैं और भले ही कूट भाषा की शक्ति के मद में अनुभव न हों, पर हैं यथार्थ। उसे झेलकर देश की गरिमा को उन्नत करने में लगे युवा हमारे अपने हैं। हम भी इसे समझें और इस व्यवसाय से जुड़े अपने परिचितों और सम्बन्धियों को वह मानसिक दृढ़ता प्रदान करें जिसकी स्पष्ट माँग वे हमसे नहीं करते हैं।
सार्थक, समीचीन और सुन्दर विश्लेषण.
ReplyDeleteसमय की मार है और भौतिकतावाद का दु्परिणाम भी..
ReplyDeleteभरपूर वेतन के साथ यदि इनकी व्यस्तता की ओर देखा जावे तो परिवार के नाम पर कई बार मात्र कुछ घंटे भी रविवार जैसे दिनों तक में निकाल पाना इनके लिये मुश्किल ही दिख पाता है ।
ReplyDeleteबहुत ही सही विषय उठाया है आपने इस आलेख में ...आज पूर्णत: यही माहौल व्याप्त हो चुका है चाहे वह एम.बी.ए. हो या फिर आई टी ..।
ReplyDeletekafi saarthak vishay aur uska vishleshan
ReplyDeleteसूचना प्रोद्योगिकी ने उत्पादन के साधनों को बदल दिया है। उत्पादन के साधन ही वे चीज हैं जो समाज को भी बदलते हैं। तैयार रहिए, समाज के बदलाव के लिए वह दरवाजे पर ही खड़ा है।
ReplyDeleteहर क्रांति की कीमत चुकानी होती है. यह कुछ ऐसा ही है.
ReplyDeleteआदमी को सुखपूर्वक जीवन चलाने के लिए कितना पैसा चाहिए? ऐसा जीवन जिसमें मन संतुष्ट रहे?
ReplyDeleteइस के उत्तर में अधिकतम की सीमा नहीं खींची जा सकती। हाँ न्यूनतम आवश्यकताओं की सीमा बनायी जा सकती है। लेकिन आज के युवा अधिकतम के पीछे भाग रहे हैं जिसका अंत नहीं है। यह भागमभाग आपके व्यक्तित्व के तमाम दूसरे कोमल पक्षों की बलि तो लेगी ही।
गलाकाट प्रतियोगिता में मशीनी जीवन जीने को बाध्य होते इस वर्ग पर खूब दृष्टि डाली है आपने ...
ReplyDeleteसामयिक विश्लेषण ..!
बेंच पर बैठना, इस शब्द की पीड़ा मैंने भी देखी है अपने ही घर में। सारी दुनिया में कहीं भी ट्रांस्फर होने का दर्द भी। मेरा भी बहुत मन था इस विषय पर लिखने को लेकिन लगा कि यह व्यक्तिगत बात हो जाएगी। यह भी सच है कि पैसे के बाद भी जीवन खाली सा ही लगता है। लेकिन ये लोग अपने जीने को हमसे बेहतर मानते है। ओर हम अपने को। यह तो अन्तर है जो हमेशा ही रहेगा।
ReplyDeleteआई टी ने विश्व को कितना दिया यह तो पता नहीं मगर हमारा और हमारे देश का नाम जरूर चमका दिया है ! कभी सोंचना भी संभव नहीं था की हम भी कभी टेक्नोलोजी में कहीं खड़े हो पाएंगे !
ReplyDeleteबाकी चिंताएं ठीक एवं जायज हैं...
शुभकामनायें
आज का यर्थाथ है।
ReplyDeletesarthak aur samsaamyik vishay par chintan ...pise kamaane ki hod men sab lage hain ...jeevan shaily aisi hai ki kaam ka tanaav bhi bahut hai ...sarthak lekh
ReplyDeleteiss IT ne vastav me bharat ke parivar vyavastha pe waar kiya, bahut paise diye lekin...samay usne inn nau jawano se chhin liya...aur isssi peera me wo apne ko late night parties me dubone lage...:(
ReplyDeletepar haan, kuchh pane ke liye kuchh to khona hi parega....
hamari arth vyavastha ko IT ne majboot kiya, hamari world me pahchaan bhi bani...:)
ek saargarbhit lekh...
आईटी के बदलाव से बहुत बेहतर ढंग से आपने रूबरू कराया। इसके पहले ए कॉल सेंटर (चेतन भगत की लिखी हुई) पढ़कर एक नए रोजगार क्षेत्र की पीड़ा समझने का अवसर मिला था। तकनीकी बदलाव और आधुनिक आर्थिक ढांचे ने सबको रोजी-रोटी तक ही सीमित कर दिया है। अभी भी गांव के लोग ज्यादा सोचते हैं, ज्यादा भावनात्मक होते हैं। शहरी क्षेत्र, खासकर महानगरों में रहने वाली ९५ प्रतिशत आबादी तो रोटी के जुगाड़ में ही जिंदगी बिता देती है, लक्ष्य होता है कि एक फ्लैट हो जाए (२२वीं मंजिल पर ही सही), एक १० लाख की गाड़ी हो जाए। सपने देखने वाला बड़ा तबका तो यह सपने देखने में ही मर जाता है। पांच प्रतिशत को रोटी की चिंता नहीं होती, लेकिन उन्हें भी कभी यह सोचते नहीं पाया कि आखिर इतना कमा कर क्या होगा, मरने के बाद क्या होगा, अगर मर ही जाना है तो इतना कमाकर रखने का क्या मतलब है? पहले ये सब बातें शायद ज्यादा सोची जाती थीं और ज्यादा हायतौबा भी नहीं थी कि किसी तरह से खूब पैसे कमाए जाएं।
ReplyDeletenice
ReplyDeletesab maya kakhel hai
ReplyDeleteहमारे यहां बहुत से लोग भारत से आते हे आईटी वाले अलग अलग कमपनियो मे, जो दिन मै १८,२० घंटे काम करते हे, शनि इतवार भी लगे रहते हे, तो जिन्दगी कहा रह गई? इन की शकले देखो आंखे सुजी हुयी, हाथ पेर कापते हुये, आप के पास बेठे बेठे सोने लग जायेगे,एक दुसरे से आगे निकलने के लिये ज्यादा से ज्यादा मेहनत, ओर बाकी मै धीरु जी की टिपण्णी से सहमत हुं, सच मे यह एक भेडचाल ही हे.
ReplyDeleteधन्यवाद
bahut hi sunder vishleshan kiya hai aapne....
ReplyDeleteभुक्त भोगी वेदना है ..पर कर क्या सकते हैं.
ReplyDelete‘बलात ही सही,...’
ReplyDeleteपैतीस वर्ष के बाद बलात्कारी ही सही :)
विचारणीय सारगर्वित आंखे खोल देने वाला आलेख ... रोचक जानकारीपूर्ण ....आभार
ReplyDeleteसार्थक विश्लेषण
ReplyDeleteआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (6/1/2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com
आपने बहुत ही अच्छा विश्लेषण किया है.... गलाकाट इस प्रतिस्पर्धा के दौर में जो सफल हो गया उसे तो सब कुछ है मगर जो ज्यादा सफल नहीं हो सका उसके लिये मानसिक वेदना भी है... सुंदर प्रस्तुति .
ReplyDeleteवास्तव में पूर्व और पश्चिम का अंतर मिटा कर रात और दिन बराबर करने वाले इन युवाओं की पीड़ा असहनीय ही है योग ध्यान और अध्यात्म ही इनके तनाव को काम कर सकता है .
ReplyDeleteपांच-छह साल पहले जब ’बेंच स्ट्रेंथ’ कनसेप्ट से परिचय हुआ था, अपने को तो ये एक तरह की लग्ज़री ही लगा था। आपके द्वारा इंगित पक्ष की तरफ़ भी सोचा था, लेकिन शायद ’grass is greener on other side' वाली बात हो, वर्ष में महीना भर तो इसका आनंद हम जैसे सरकारी दामादों को भी मिले तो कोई बुराई नहीं:))
ReplyDelete"पीड़ा के स्वर, भले ही प्रगति के महानाद में छिप जायें, भले ही धन की अधिकता में विलीन से हो जायें हैं और भले ही कूट भाषा की शक्ति के मद में अनुभव न हों, पर हैं यथार्थ। "
ReplyDeleteआपकी वेदना स्वाभाविक है!
ReplyDeleteसार्थक, समीचीन और सुन्दर विश्लेषण|
ReplyDeleteकाली अंधेरी सुरंग के उसपार उजाले की कहावत और काली घटाओं के बीच तड़ित का प्रवाह तो बहुत सुना था, किंतु पहली बार एक रुपहली चादर पर कालिमा आपने दिखाई है.
ReplyDeleteThis is the first time I am visiting your blog. I am impressed with your intro "ना अधिक ऊँचाईयों में उड़ सकेगा, ना धरा के बन्धनों में बँध रहेगा, मिले कोई भी दिशा, वह बढ़ चलेगा. संग मेरे, क्षितिज तक, मेरा परिश्रम ।"
ReplyDeleteAnd I must say despite not being from IT,you know it quite well. :)
Bench ki baat maine bhi is lekh me ki hai..shayad aapko pasand aaye...
http://achchikhabar.blogspot.com/2010/12/frequently-used-office-jargonslingos-in.html
Also,congratulations for being a part of Indian Railways, the biggest employer in the world
सत्येन्द्र जी की टिपण्णी से सहमत।
ReplyDelete"हम भी इसे समझें और इस व्यवसाय से जुड़े अपने परिचितों और सम्बन्धियों को वह मानसिक दृढ़ता प्रदान करें जिसकी स्पष्ट माँग वे हमसे नहीं करते हैं।"
ReplyDeleteमार्मिक.
आईटी की यह समस्या हम समझते हैं - मगर क्या करें - यह सबसे अच्छा और आसान विकल्प है :-)
आईटी पर मैंने बहुत लेख पढ़े हैं मगर आपके लेख सा यह मानवीय दृष्टिकोण पहली बार देख रहा हूँ. बहुत-बहुत अच्छा लेख!
अनजाने दर्द का एहसास कराती सार्थक पोस्ट।
ReplyDelete.
ReplyDelete.
.
सहमत हूँ आपसे।
...
पता है लेकिन फिर भी मैं सॉफ्टवेर फिल्ड में ट्रांजिसन की बात सोच रहा हूँ :(
ReplyDeleteबहुत सार्थक विषय को चुना है आपने
ReplyDeleteबहुत ही सही विश्लेषण |
ReplyDelete१--व्यस्तता के चरम से कुछ न कर पाने की यह स्थिति असहनीय मानसिक तनाव लाती है। मनोरोग और आध्यात्म के रूप में इस मानसिक तनाव की दिशा ढूढ़ते देखा है इन युवाओं को।
ReplyDelete२----पीड़ा के स्वर, भले ही प्रगति के महानाद में छिप जायें, भले ही धन की अधिकता में विलीन से हो जायें , और भले ही कूट भाषा की शक्ति के मद में अनुभव न हों, पर हैं यथार्थ”..
---बहुत ही यथार्थ, यथातथ्य विश्लेषण...बधाई
---यह सुख की आकान्क्षा/खोज में आनन्द की भेंट्चढाना है...
बड़े मल्टी नॅशनल आई टी कंपनियों ने बड़े अच्छे से भारतीयों की नब्ज पकड़ी है... अपने देशों में हजार डेढ़ हजार और दो हजार डालरों में अठारह से बीस घंटे काम करने वाले कर्मचारी उनके लिए सपना ही हैं,जबकि इतने पैसे फेंक भारत में उन्हें एक से एक प्रतिभाएं मिल जाती हैं..ग्लोरिफाइड मजदूरों का यह तबका दिनोदिन फैलता परसरा ही जा रहा है.भेड़ों की एक विशाल भीड़ तैयार होती जा रही है..परन्तु इनका भविष्य सचमुच सोचनीय है...
ReplyDeleteएक समय था कि नौकरी का मतलब था निश्चितता और निश्चिंतता.. ये दोनों अब आज के नौकरी से गायब हो चुके तत्व हैं.. भविष्य किस ओर जा रहा है,कम से कम अभी तो स्पष्ट नहीं दिख रहा...
पीड़ा के स्वर, भले ही प्रगति के महानाद में छिप जायें, भले ही धन की अधिकता में विलीन से हो जायें हैं और भले ही कूट भाषा की शक्ति के मद में अनुभव न हों, पर हैं यथार्थ। उसे झेलकर देश की गरिमा को उन्नत करने में लगे युवा हमारे अपने हैं।
ReplyDeleteबहुत सटीक बात लिखी है -
very thoughtfull post .
महीनों से एक पोस्ट क नोट्स रखे हुए हैं। आपने उसकी प्रभावी भूमिका बना दी है। आपका शब्द-शब्द सचाई बखानता है।
ReplyDeleteमशीन बन गयी है ये युवापीढ़ी...और सुविधासंपन्न होने की वजह से इन्हें कोई सहानुभूति भी नहीं मिलती .
ReplyDeletePotential gold mines found in Kerala!!!!
ReplyDeleteलगता है यही वक़्त की ज़रूरत है।
ReplyDeleteमेरे कई संबंधी आईटी के क्षेत्र में हैं. धनार्जन आवश्यक है. मानसिक थकान और शारीरिक निष्क्रियता इस क्षेत्र का सह-उत्पाद है.
ReplyDeleteयह ठीक है कि लग कर परिश्रम करना पड़ता है ,लेकिन मुक्त मन से जीवन का आनन्द उठाना चाहते हैं , वे अपनी पूरी कोशिश करते हैं कि साधन , स्वच्छ सुन्दर ,सुविधापूर्ण परिस्थितियाँ बनी रहें ,पग-पग पर अटकाव और कुंठित मानसिकताएं उनकी बाधा न बने .अपने देश में व्यवस्था के दोष हमेशा मानसिकता पर हावी रहते हैं ,जीवन की तीव्र गति और दिन प्रतिदिन बढ़ती आवश्यकताएं हर क्षेत्र मे यही परिदृष्य उत्पन्न कर रही हैं .
ReplyDeleteदेश से बाहर काम का बोझ है पर कुंठित नहीं हैं वे
जीवन की लडाई हर जगह और हर क्षेत्र में लड़नी पड़ती है .
आप से सहमत हूं...
ReplyDeleteप्रवीन भैया बहुत अच्छी पोस्ट....
ReplyDeleteपरन्तु मंहगाई डायन के जमाने में हम सरकारी नौकरों से तो बेहतर ही जीवन है उनका ... कम से कम तेल के कुँओं के ख्वाब तो नहीं ही देखते होंगे ......!
सार्थक, समीचीन और सुन्दर विश्लेषण.
ReplyDeleteसार्थक आलेख आज धीरू भाई की बात बिलकुल सही है। फिर भी न जाने भेड चाल की तरह लोग भागे जा रहे हैं। अशुभकामनायें।
ReplyDeleteबेहतरीन!
ReplyDelete@ Rahul Singh
ReplyDeleteलोगों से बातचीत करके इस बारे में पता चल पाता है, वैसे तो कोई भी भुक्तभोगी छिपा ही ले जाते हैं यह व्यथा।
@ dhiru singh {धीरू सिंह}
इस क्षेत्र में विकास है, विस्तार है और पैसा है। उसके नाम पर स्तरहीन संस्थान खुल जाते हैं। पर कार्य कम होने के कारण योग्य लोग भी जब कुछ कार्य नहीं कर रहे होते हैं तब बहुत व्यथा होती है उन्हे।
@ babanpandey
बंगलोर में मँहगाई का यह भी एक कारण है।
@ : केवल राम :
महत्वाकांक्षा तो होनी ही चाहिये, पर साथ ही साथ जीवन की समग्रता से ध्यान नहीं हटना चाहिये।
@ Ratan Singh Shekhawat
निजी क्षेत्र में अधिक कार्य पर ही मिल पाते हैं अधिक पैसे। योग्यता और परिश्रम पर ही निर्भर करता है विकास।
@ ashish
ReplyDeleteएक होड़ सी मची है अधिक वेतन में जाने के लिये, स्थिरता की कीमत पर। वैश्विक संस्कृति भारत को घेर रही है अब।
@ 'उदय'
बहुत धन्यवाद आपका।
@ संजय भास्कर
युवा है, ऊर्जा है, वे लगे रहेंगे और खुलकर नहीं कहेंगे, पर हमें तो सुनना ही है यदि प्रगति को अधिक दिनों तक धारण करना है।
@ M VERMA
बहुत धन्यवाद आपका।
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
इस क्षेत्र में भौतिकता की जितनी पैठ है, उतने विस्तृत आध्यात्मिकता के भी पाँव फैले हैं।
@ सुशील बाकलीवाल
ReplyDeleteइनका जीवन बड़ा व्यस्त है, रविवार भी पार्टियों में व्यस्त रहते हैं।
@ sada
गति की लत लग गयी तो उबरना कठिन हो जायेगा।
@ रश्मि प्रभा...
बहुत धन्यवाद आपका।
@ दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi
इस बदलाव की बयार चलने लगी है अब।
@ PN Subramanian
हमारे युवा कीमत चुका भी रहे हैं।
@ सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
ReplyDeleteयदि यह निश्चय करना कठिन हो जाये कि गति को कहाँ रोकना है तो दौड़ कुछ न कुछ हर ही लेती है, यह तो समझना ही होगा युवाओं को।
@ वाणी गीत
सच में जीवन मशीनी हो जाता है।
@ ajit gupta
व्यस्तता के पश्चात रिक्तता, लगता है सहसा रिटायर हो गये।
@ सतीश सक्सेना
यह बात भी सत्य है कि इसी परिश्रम ने हमें इतना आगे कर दिया।
@ राजेश उत्साही
और दृष्टिगत भी।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
ReplyDeleteएक नशा बनकर उभर रहा है यह व्यवसाय, किसी की भी सुध नहीं।
@ Mukesh Kumar Sinha
अधिक पैसा, आत्म-निर्भरता और रात्रिजीवनशैली, सब नया है भारतीय परिवेश के लिये।
@ satyendra...
सच कहा आपने, जीवन को नियमित जी लेना और दो तीन बड़े कार्य पूरे जीवन को परिभाषित कर जाते थे। नौकरी में इससे अधिक ऐश्वर्य नहीं था।
@ akhilesh pal
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Poorviya
माया में पीड़ा भी है।
@ राज भाटिय़ा
ReplyDeleteपूरे विश्व में भारतीय सर्वाधिक कार्य करने के लिये जाने जाते हैं, जीवन का आनन्द उठाने में बहुत पीछे।
@ Shaivalika Joshi
बहुत धन्यवाद आपका।
@ shikha varshney
अधिकता के फल हैं यह सब।
@ cmpershad
जीवन ऐसे ही खींचना है तब तो।
@ महेन्द्र मिश्र
बहुत धन्यवाद आपका।
@ सत्यप्रकाश पाण्डेय
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ वन्दना
बहुत धन्यवाद इस सम्मान के लिये।
@ उपेन्द्र ' उपेन '
सफलता और वेदना इस व्यवसाय के दो पहलू हैं।
@ गिरधारी खंकरियाल
संभवतः यही कारण है कि अध्यात्म की ओर बहुत युवा आकर्षित हो रहे हैं।
@ मो सम कौन ?
पहले यह शब्द अच्छा लगता है। सरकारिओं को तो इसकी आदत सी ही हो जाती है।
@ पी.सी.गोदियाल "परचेत"
ReplyDeleteइस सत्य को बड़े पास से देखा है।
@ डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक"
अधिकतर की वेदना इसी प्रकार की है।
@ Patali-The-Village
बहुत धन्यवाद आपका।
@ सम्वेदना के स्वर
चकाचौंध में बहुता यह सत्य छिप जाता है।
@ Gopal Mishra
बहुत धन्यवाद उत्साहवर्धन का।
@ ZEAL
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ Saurabh
यदि हम अग्रिम पंक्ति में स्वयं न खड़े रह पायें तो उनका ख्याल तो कर ही सकते हैं जो वहाँ जूझ रहे हैं।
@ देवेन्द्र पाण्डेय
अनुभवजन्य तो नहीं है पर समझा जा सकता है।
@ प्रवीण शाह
सहमति का आभार।
@ abhi
प्रसन्न रहने वाले हर जगह प्रसन्न रहेंगे।
@ मेरे भाव
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ शोभना चौरे
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Dr. shyam gupta
जब सुख की खोज में पैसा पीछे छूट जाता है तब का अध्यात्म निर्मल होता है।
@ रंजना
सच कहा आपने, इतने कम डॉलरों में इतने प्रतिभावान युवा और कहाँ मिलते हैं।
@ anupama's sukrity !
मानवता तो जंगियों के साथ ही जागती है सर्वप्रथम।
@ विष्णु बैरागी
ReplyDeleteअब इस भूमिका पर एक पोस्ट की प्रतीक्षा रहेगी।
@ rashmi ravija
यही कारण है कि अपने दुख कहने में हिचकते हैं ये युवा।
@ G.N.SHAW
बहुत धन्यवाद आपका।
@ मनोज कुमार
प्रगति के आड़े कोई नहीं आयेगा, हम पीछे से थकने वालों को सहारा देने की बात उठा रहे हैं।
@ Bhushan
जब सह उत्पाद व्यक्तित्व को उखाड़ने लगें तो ध्यान देना आवश्यक हो जाता है।
@ प्रतिभा सक्सेना
ReplyDeleteकुंठित नहीं हैं ये युवा, गति की लत सम्हालनी कठिन पड़ जाती है बस इनके लिये।
@ Dr Parveen
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Dr. Sheelendra Gupta
तेल के अधिक कुओं का भार ही सम्हालते हैं वे।
@ Mandakini
बहुत धन्यवाद आपका।
@ निर्मला कपिला
इसमें पैसा भी है, संतुष्टि भी है पर अपने हिस्से की पीड़ा भी।
@ Udan Tashtari
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका। घर के सारे कार्य सम्पन्न होने की बधाई भी।
आज लगता है कि आईटी के बिना भी क्या ये जीवन ऐसे ही चलता ?
ReplyDeleteकई बार अब तो यह भी लगता है कि यदि इस ग्लैमर से बचे होते तो भी ठीक रहता.जिनका पेशा है वे तो इसमें अलग तरह से,शौक से,मज़बूरी से जुड़े हैं,पन अपन तो खामखाह ही टांग अड़ाएं हैं !
@ बैसवारी
ReplyDeleteकिसी भी व्यवसाय को सामाजिक परिवेश से अलग कर के नहीं देखा जा सकता है। समस्याओं को सहने की शक्ति सम्मलित भाव से आती है।