31.12.11

ध्यान कहाँ है पापाजी ?

ब्लॉगजगत के ताऊजी से सदा प्रभावित रहे अतः पहली बार स्वयं ताऊ बनने पर अपने भतीजे से भेंट का मन बनाया गया। उत्तर भारत की धुंधकारी ठंड अपने सौन्दर्य की शीतलहरी बिखेरने में मगन थी, दिल्ली के दो सदनों की राजनैतिक गरमाहट भी संवादों और विवादों की बर्फ पिघलाने में निष्फल रही, कई ब्लॉगरों के चाय, कम्बल, अलाव आदि के चित्र भी मानसिक ऊर्जा देने में अक्षम रहे। गृहतन्त्र की स्वस्थ परम्पराओं का अनुसरण करते हुये हमने भी उत्तर भारत की संभावित यात्रा का प्रस्ताव भोजन की मेज पर रखा, उपरिलिखित तथ्यों के प्रकाश में हमारा प्रस्ताव औंधे मुँह गिर गया, वह भी ध्वनिमत से। संस्कारी परम्पराओं का निर्वाह करते हुये, उठ खड़े हुये अवरोध के बारे में जब हमने अपने पिताजी को बताया तो उन्होने भी अपने पौत्र और पौत्री की बौद्धिक आयु हमसे अधिक घोषित कर दी, कहा कि इतनी ठंड में आने की कोई आवश्यकता नहीं है। श्रीमतीजी सदा ही बहुमत के साथ मिलकर मन्त्री बनी रहती हैं, तो हम भी निरुपाय और निष्प्रभावी हो ब्लॉग का सहारा लेकर परमहंसीय अभिनय में लग गये।

बच्चों की छुट्टियाँ श्रीमतीजी के हाथ में तुरुप का इक्का होती हैं, आपका हारना निश्चय है। लहरों की तरह उछाले जाते, उसके पहले ही हमने गोवा चलने का प्रस्ताव जड़ दिया। सब हक्के बक्के, संभवतः विवाह के १४वें वर्ष में सब पतियों के ज्ञानचक्षु खुल जाते हों। लहरों के साथ खेलने के लिये भला कौन सहमत न होगा, गोवा-गमन को हमारा निस्वार्थ उपहार मान हमें स्नेहिल दृष्टि में नहला दिया गया, यह बात अलग थी कि हमने भी वहाँ पर अपने एक बालसखा से मिलने की योजना बना ली थी, वह भी बिछड़ने के २५ वर्ष के बाद।

सागर के साथ संस्कृति को जोड़ते हुये, हम लोग हम्पी होते हुये गोवा पहुँचे। हम्पी संस्कृति के ढेरों अध्याय समेटे है और विवरण के पृथक प्रयास का अधिकारी है। गोवा में लहरों का उन्माद उछाह हमारी प्रतीक्षा में था, लहरों के साथ खेलते रहने की थकान, उसके बाद महीन रेत पर निढाल होकर घंटों लेटे रहना, नीचे से मन्द मन्द सेंकते हुये रेतकण और ऊपर से सूरज की किरणों से आपकी त्वचा पर सूख जाते नमककण, प्रकृति अपने गुनगुने स्पर्श से आपको अभिभूत कर जाती है। बच्चे कभी शरीर पर तो कभी पास में रेत के महल और डायनासौर बनाते रहे, जब कभी आँख खुलती तो बस यही लगता कि कैसे यह गरमाहट और निश्चिन्तता उत्तरभारत और विशेषकर दिल्ली पहुँचा दी जाये।

पिछली यात्राओं में चर्च आदि देखे होने के कारण हमने गोवा और उसके बीचों पर निरुद्देश्य घूमने का निश्चय किया। हमें तो लग रहा था कि हम आदर्श पर्यटक के गुण सीख चुके हैं अतः हमारे द्वारा उठाये आनन्द का अनुभव अधिकतम होगा, पर इस यात्रा में भी कुछ सीखना शेष था, वह भी अपने पुत्र पृथु से।

यद्यपि हम छुट्टी पर थे पर फिर भी कार्य का मानसिक भार कहीं न कहीं लद कर साथ में आ गया था। बच्चों को छुट्टी में पढ़ने के लिये कहना एक खुला विद्रोह आमन्त्रित करने जैसा है, पर हम लोगों के लिये छुट्टी में भी अपने कार्यस्थल से जुड़ाव स्वाभाविक सा लगता है। लगता है कि हम सब किसी न किसी जनम में एटलस रहे होंगे और पृथ्वी के अपने ऊपर टिके होने की याद हमें रह रहकर आती है। या ऐसा हो कि हम पतंगनुमा मानवों को कोई डोर आसमान पर टाँगे रहती है और उस डोर के नहीं रहने पर हमारी अवस्था एक कटी पतंग जैसी हो जाती है, समझ में नहीं आता हो कि हम गिरेंगे कहाँ पर।

जिन दिनों हम गोवा में थे एयरटेल की सेवायें पश्चिम भारत में ध्वस्त थीं। नेटवर्क की अनुपस्थिति हमें हमारे नियन्त्रण कक्ष से बहुत दूर रखे थी। अपने आईफोन पर ही हम अपने मंडल के स्वास्थ्य की जानकारी लेते रहते हैं और समय पड़ने पर समुचित निर्देश दे देते हैं। यदि और समय मिलता है तो उसी से ही ब्लॉग पर टिप्पणियाँ करने का कार्य भी करते रहते हैं। न कार्य, न ब्लॉग, बार बार हमारा ध्यान मोबाइल पर, हमारी स्थिति कटी पतंग सी, मन के भाव चेहरे पर पूर्णरूप से व्यक्त थे।

पृथु को वे भाव सहज समझ में आ गये। वह बोल उठे “नेटवर्क तो आ नहीं आ रहा है तो आपका ध्यान कहाँ है पापाजी।“ वह एक वाक्य ही पर्याप्त था, मोबाइल जेब में गया और पूरा ध्यान छुट्टी पर, बच्चों पर, गोवा पर और सबके सम्मिलित आनन्द पर।

28.12.11

जलकर ढहना कहाँ रुका है

आशा नहीं पिरोना आता, धैर्य नहीं तब खोना आता,
नहीं कहीं कुछ पीड़ा होती, यदि घर जाकर सोना आता,  

मन को कितना ही समझाया, प्रचलित हर सिद्धान्त बताया,
सागर में डूबे उतराते, मूढ़ों का दृष्टान्त दिखाया, 

औरों का अपनापन देखा, अपनों का आश्वासन देखा,
घर समाज के चक्कर नित ही, कोल्हू पिरते जीवन देखा, 

अधिकारों की होड़ मची थी, जी लेने की दौड़ लगी थी,
भाँग चढ़ाये नाच रहे सब, ढोलक परदे फोड़ बजी थी, 

आँखें भूखी, धन का सपना, चमचम सिक्कों की संरचना,
सुख पाने थे कितने, फिर भी, अनुपातों से पहले थकना, 

सबके अपने महल बड़े हैं, चौड़ा सीना तान खड़े हैं,
सुनो सभी की, सबकी मानो, मुकुटों में भगवान मढ़े हैं, 

जिनको कल तक अंधा देखा, जिनको कल तक नंगा देखा,
आज उन्हीं की स्तुति गा लो, उनके हाथों झण्डा देखा,

सत्य वही जो कोलाहल है, शक्तियुक्त अब संचालक है,
जिसने धन के तोते पाले, वह भविष्य है, वह पालक है,

आँसू बहते, खून बह रहा, समय बड़ा गतिपूर्ण बह रहा,
आज शान्ति के शब्द न बोलो, आज समय का शून्य बह रहा,

आज नहीं यदि कह पायेगा, मन स्थिर न रह पायेगा,
जीवन बहुत झुलस जायेंगे, यदि लावा न बह पायेगा,

मन का कहना कहाँ रुका है, मदमत बहना कहाँ रुका है,
हम हैं मोम, पिघल जायेंगे, जलकर ढहना कहाँ रुका है?

24.12.11

बूढ़े बाज की उड़ान

बाज लगभग ७० वर्ष जीता है, पर अपने जीवन के ४०वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निर्णय लेना पड़ता है। उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निष्प्रभावी होने लगते हैं। पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है और शिकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं। चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है। पंख भारी हो जाते हैं और सीने से चिपकने के कारण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमित कर देते हैं। भोजन ढूढ़ना, भोजन पकड़ना और भोजन खाना, तीनों प्रक्रियायें अपनी धार खोने लगती हैं। उसके पास तीन ही विकल्प बचते हैं, या तो देह त्याग दे, या अपनी प्रवृत्ति छोड़ गिद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निर्वाह करे, या स्वयं को पुनर्स्थापित करे, आकाश के निर्द्वन्द्व एकाधिपति के रूप में।

जहाँ पहले दो विकल्प सरल और त्वरित हैं, तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा। बाज पीड़ा चुनता है और स्वयं को पुनर्स्थापित करता है। वह किसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है, अपना घोंसला बनाता है, एकान्त में और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रक्रिया। सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है, अपनी चोंच तोड़ने से अधिक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज के लिये। तब वह प्रतीक्षा करता है चोंच के पुनः उग आने की। उसके बाद वह अपने पंजे उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की। नये चोंच और पंजे आने के बाद वह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की।

१५० दिन की पीड़ा और प्रतीक्षा और तब कहीं जाकर उसे मिलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी। इस पुनर्स्थापना के बाद वह ३० साल और जीता है, ऊर्जा, सम्मान और गरिमा के साथ।

प्रकृति हमें सिखाने बैठी है, बूढ़े बाज की युवा उड़ान में जिजीविषा के समर्थ स्वप्न दिखायी दे जाते हैं।

पंजे पकड़ के प्रतीक हैं, चोंच सक्रियता की द्योतक है और पंख कल्पना को स्थापित करते हैं। इच्छा परिस्थितियों पर नियन्त्रण बनाये रखने की, सक्रियता स्वयं के अस्तित्व की गरिमा बनाये रखने की, कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की। इच्छा, सक्रियता और कल्पना, तीनों के तीनों निर्बल पड़ने लगते हैं, हममें भी, चालीस तक आते आते। हमारा व्यक्तित्व ही ढीला पड़ने लगता है, अर्धजीवन में ही जीवन समाप्तप्राय लगने लगता है, उत्साह, आकांक्षा, ऊर्जा अधोगामी हो जाते हैं।

हमारे पास भी कई विकल्प होते हैं, कुछ सरल और त्वरित, कुछ पीड़ादायी। हमें भी अपने जीवन के विवशता भरे अतिलचीलेपन को त्याग कर नियन्त्रण दिखाना होगा, बाज के पंजों की तरह। हमें भी आलस्य उत्पन्न करने वाली वक्र मानसिकता को त्याग कर ऊर्जस्वित सक्रियता दिखानी होगी, बाज की चोंच की तरह। हमें भी भूतकाल में जकड़े अस्तित्व के भारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी, बाज के पंखों की तरह।

१५० दिन न सही, तो एक माह ही बिताया जाये, स्वयं को पुनर्स्थापित करने में। जो शरीर और मन से चिपका हुआ है, उसे तोड़ने और नोंचने में पीड़ा तो होगी ही, बाज की तरह।

बूढ़े बाज तब उड़ानें भरने को तैयार होंगे, इस बार उड़ानें और ऊँची होंगी, अनुभवी होंगी, अनन्तगामी होंगी।

(कुछ पाठकों ने बाज के जीवन की इस घटना पर संशय व्यक्त किया है। मैंने यह एक जगह पर पढ़ा था, इसकी तथ्यात्मक सत्यता या असत्यता प्रमाणित नहीं की जा सकती है। यदि यह कहानी भी हो तब भी सत्य से अधिक प्रभावी है। जीवन नवीन ऊर्जा की स्तुति करता है, नवीनता के लिये प्रयास और पीड़ा दोनो ही लगते हैं)

21.12.11

आत्मीय अनुपात

एक बड़े होटल का परिवेश, सामने रखे विविध प्रकार के व्यंजन, विकल्पों में भ्रमित होती आपकी चयन प्रक्रिया, क्या लें, क्या न लें, किसमें कितना मसाला है, किसमें कितनी कैलोरी है, फाइबर है या नहीं, देश विदेश की सांस्कृतिक महक समेटे, कलात्मकता में सजे, आप के द्वारा आस्वादित किये जाने की राह देख रहे हैं, सब के सब। आपको क्या अच्छा लगता है? बड़ा ही व्यक्तिगत प्रश्न है, ढेरों विमायें समेटे है, भोजन को स्वाद का उद्गम मानने वाले भक्तगण बड़ा ही निश्चयात्मक उत्तर देंगे, भोजन को पोषण का आधार मानने वाले अनिश्चय की स्थिति में रहेंगे, बहुतों के लिये कुछ स्पष्ट सा, कुछ अस्पष्ट सा, या कुछ भी।

स्वाद, पोषण और संतुष्टि। स्वाद और पोषण का पुराना बैर है। विशुद्ध प्राकृतिक अवयवों में स्वाद भले ही न हो, पोषण पूर्ण रहता है। तेल, मसाले, घी आदि में स्वाद निखरता है पर शरीर उससे सशंकित रहता है। संतुष्टि का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, परिभाषित करना भी कठिन है। खुलकर भूख लगना संतुष्टि का प्रमुख कारक है, जब जठराग्नि धधकती है तो स्वाद भी आता है, पोषण भी होता है और संतुष्टि भी होती है। संतुष्टि मापने का एक आधार हो सकता है कि आपको भोजन के बाद कैसा लगता है, उत्साह आता है, उबाल आता है, उनींदापन आता है या उन्माद आता है। कहने को तो भोजन भी त्रिगुणी होता है, सतो, रजो और तमो, गीता में इसकी विस्तृत व्याख्या भी की गयी है। भोजन का गुण उसके प्रभाव में छिपा रहता है।

आप याद कीजिये कि आपको सबसे अधिक संतुष्टि कहाँ का भोजन करने के बाद प्राप्त होती है। बहुत कम ही लोग ऐसे होंगे जो किसी होटल का नाम लेंगे। बहुत से लोग अपनी माताजी या श्रीमतीजी का नाम लेंगे। घर में बनी एक कटोरी दाल और चार रोटी के सामने किसी बड़े होटल का पूरा मीनू लघुतर लगता है। बाहर जाकर न खाने की मेरी प्रवृत्ति को श्रीमतीजी द्वारा मेरी कृपणता से जोड़ने के कारण ही बाहर जाना पड़ता है। वैसे भी महीने में दो-तीन बार बाहर जाकर अन्य स्वादों को चखने में घर की अन्नपूर्णा को ही विश्राम मिलता है और हमारा स्वाद भी बदल जाता है।

ऐसा क्या है घर के खाने में जो इतनी संतुष्टि उत्पन्न करता है। कहते हैं जिस भाव से भोजन बनाया जाता है वह भाव हम भोजन के साथ ग्रहण करते हैं। घर में अशिक्षित माँ के हाथों से प्रेमपूर्वक बना हुआ भोजन, बड़े होटल के प्रशिक्षित रसोईये के हाथों से बने पकवानों से कहीं सुस्वादु और संतुष्टिकारक होता है। माँ के लिये बेटे का महत्व, रसोईये के लिये ग्राहक के महत्व से कहीं अधिक प्रेमासित व वात्सल्यपूर्ण होता है। वह भाव जब भोजन में पड़ता है तो स्वाद निराला हो जाता है। इसके विपरीत एक बार एक छात्रावास में आत्महत्यायें बढ़ने का विशेष कारण नहीं मिल रहा था, कारण का अनुमान तब लगा जब वहाँ के प्रमुख रसोईये ने भी आत्महत्या कर ली। आत्महंता मनःस्थिति में भोजन बनाने का कुप्रभाव यदि भोजन करने वाले पर पड़ जाये तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये।

भले ही इस अवधारणा का कोई वैज्ञानिक आधार न हो, भले ही भौतिक और मानसिक धरातलों के बीच के संबंध के सूत्र न मिले हों, भले ही भोजन-पाचन को रसायनिक क्रियाओं के परे न समझा जा सका हो, भले ही आज भी कई घरों में भोजन बनाने वाले के ऊपर पवित्रता की घोर कटिबद्धता हो, भले ही चुपके से बाहर भोजन करना कई घरों में हीन दृष्टि से देखा जाता हो, पर हम सब कहीं न कहीं यह अनुभव अवश्य करते हैं कि प्यार से बनाये खाने में एक आत्मीय अनुपात होता है।

भोजन पौष्टिक तत्वों से बने, स्वादपूर्ण हो, प्रेमनिहित हो और घर की आर्थिक क्षमता के अनुरूप हो, संभवतः यही आत्मीय अनुपात हो हमारे भोजन का।

17.12.11

शत प्रतिशत

कितना बड़ा आश्चर्य है कि जहाँ एक ओर मन को सदा ही नयापन सुहाता है वहीं दूसरी ओर वह किसी के बारे में पुरानी धारणाओं को इतना दृढ़ कर लेता है कि उसमें कुछ नया देखने के लिये शेष बचता ही नहीं। मन ऊबने लगता है पर पुरानी धारणायें नहीं त्यागता, पति पत्नी घंटों चुपचाप बैठे रहते हैं पर कोई नया शब्द नहीं बोलते हैं, किसी की बात में कुछ नयापन ढूढ़ने के स्थान पर उसके बारे में वक्र टिप्पणी तैयार करने लगता है मन। पुराना छोड़ नहीं पाता और नये के लिये तरसता रहता है मन।

प्रकृति के पास मन के लिये पर्याप्त आहार है। प्रकृति में नित नया घटता ही रहता है, पेड़ों में नित कोपलें फूटती हैं, पुष्प खिलते हैं, फल रसपूर्ण हो रंग बदलते हैं। मानव मन में भी सृजनात्मकता गतिमान होती है, नये विचार कौंधते है। बच्चों का खिलखिलाना, चिडियों का चहकना, झमझम बारिश का बरसना, सूरज का लालिमामय हो सहसा उगना और अस्त हो जाना, सब हमारे आस पास हो रहे नयेपन के सुन्दर संकेत हैं। भविष्य का अनिश्चय अपने आप में ही एक नयापन है हम सबके लिये। जब सब ओर सब कुछ हर पल बदल रहा है तो ऊब कैसी और किससे।

क्या पहले से ही इतना भर लिया है हमने कि नये के लिये कोई स्थान ही नहीं? क्या पहले से भरा हुआ इतना सड़ने लगा है कि उसमें नकारात्मकता व ऊब की गंध आने लगी है? पूर्वाग्रहों का ग्रहण हमारे जीवन उत्सव पर काली छाया डालकर तो नहीं बैठा है? क्या पहले से ही व्यस्त हमारी इन्द्रियों में भविष्य की संभावनायें अस्तप्राय हैं।

कहने को तो प्रेमभरी एक दृष्टि ही सक्षम होती श्रंगार का संवाद ढोने में। किसी के सर पर धीरे से फिराया गया हाथ जीवन भर का सहारा बताने में समर्थ होता। आँख बन्द करते हुये सर हिला देना आश्वासन के सारे अध्याय कह जाता। शब्दों से हमने उन भावों का गाढ़ापन कम कर दिया है। विश्वास को दृढ़ मानने के लिये शब्दों में उसे व्यक्त करने की परम्परा हमारी असहजता का आधार है। सुबह शाम अपने प्रेम की शाब्दिक अभिव्यक्ति की आदत बना चुके युगल भावों और शब्दों पर बराबर का अविश्वास किये बैठे हैं।

उत्साह से किसी कार्य में लगना और शीघ्र ही उससे ऊब जाना आधुनिकता की नियति बन गयी है। यदि तुलना की जाये तो पेट भरे हुये व्यक्ति को नया व्यंजन अच्छा तो लगता है पर वह उससे शीघ्र ही ऊब जाता है। स्वाद के लिये भूख लगनी आवश्यक है। नयापन हर क्षण में विद्यमान है पर उसे पूरा सहेज पाने के लिये जो भूख हो उसका प्रकटीकरण उस कार्य में हमारे शत प्रतिशत जुड़ाव से हो।

एक प्रयोग करें। व्यवहार की सारी कृत्रिमता रात भर ओढ़ी हुयी चादर के साथ ही बिस्तर पर छोड़कर उठें, अपने पूरे पूर्वाग्रह स्नान करते समय बहा दें, सुबह से शाम तक प्रयासपूर्वक भावों को व्यक्त करने के लिये शब्दों से अधिकतम बचें, अपने हर कार्य, हर संवाद, हर स्पर्श पर शत प्रतिशत ध्यान दें। हो सकता है कि ऊर्जा थोड़ी अधिक लगे, आप वो न लगें जो आप हैं, अन्य आप पर भृकुटियाँ ताने, संभव है हँसें भी, हो सकता है कि आपको बहुत अटपटा भी लगे, असहज भी लगे, पर दिन को विशेष मानकर यह निभा डालिये।

रात को सोते समय आपको पुनः आश्चर्य होगा, पर इस बार आश्चर्य का विषय भिन्न होगा। तब आपके लगेगा कि एक दिन भर में कितना कुछ नया है, मन के बन्द कपाट हमें वंचित कर देते हैं वह सब पाने से। इस जीवन के लिये प्रकृति कितने दृश्य समेटे बैठी है, हम ही थेथर की तरह आँख बन्द किये बैठे हैं। जीवन का व्यर्थ किया समय आये न आये पर हर व्यक्ति, हर संबंध में नयापन और रोचकता से भरा दिखेगा भविष्य। घर के कंकड़ गिनने से ध्यान हटेगा तब बाहर बिखरे माणिकों पर दृष्टि पड़ेगी।

बस आप हर क्षण को अपना शत प्रतिशत देने की ठान तो लें।

14.12.11

हमारे पारितन्त्र

शब्दकोष में अंग्रेजी के एक शब्द ईकोसिस्टम का हिन्दी में यही निकटतम शाब्दिक अर्थ मिला। यह कई अवयवों के ऐसे समूह को परिभाषित करता है जो एक दूसरे के प्रेरक व पूरक होते हैं। मूलतः जैविक तन्त्रों के लिये प्रयोग में आया यह शब्द अन्य क्षेत्रों में भी उन्हीं अर्थों को प्रतिबिम्बित करता है। किसी भी पारितन्त्र में एक प्रमुख चरित्र होता है, जिसके द्वारा वह पहचाना जाता है। जंगल हो या जल, शरीर हो या घर, नगर हो या विश्व, सब के सब कुछ तन्तुओं से जुड़े रहते हैं और एक दूसरे को सामूहिक आधार प्रदान करते हैं। बहुधा तो उसके अवयवों का महत्व पता नहीं चलता है पर किसी एक अवयव की अनुपस्थिति जब अपने कुप्रभाव छोड़ने लगती है तब उसका पूरा योगदान समझ में आता है हम सबको। किसी एक पारितन्त्र में सारे बिल्लियों को मार देने से जब प्लेग फैलने लगा तब लगा कि उनका रहना भी आवश्यक है।

इसी प्रकार पारितन्त्र में किसी नये अवयव का आगमन भी अस्थिरता उत्पन्न करता है। समय बीतने के साथ या तो वह उसमें ढल जाता है या उसका स्वरूप बदल देता है। इसी प्रकार विकास के कई चरणों से होता हुआ उसका एक सर्वथा नया स्वरूप दिखायी पड़ता है। न केवल भौतिक जगत में वरन विचारों के क्षेत्र में भी पारितन्त्रों की उपस्थिति का अवलोकन उनके बारे में हमारी समझ बढ़ा जाता है। विचारधारायें विचारों का पारितन्त्र स्थापित करती हैं। साम्यवाद हो या पूँजीवाद, भारतीय संस्कृति हो या पाश्चात्य दर्शन, सबके अपने पारितन्त्र हैं। उनमें वही विचार पोषित और पल्लवित होते हैं जो औरों के प्रेरक होते हैं या पूरक। विरोधी स्वर या तो दब जाते हैं या पारितन्त्रों की टूट का कारण बनते हैं। जो भी निष्कर्ष हो, जब तक एक स्थिरता नहीं आ जाती है तब तक संक्रमण होता रहता है इनमें।

किसी क्षेत्र में कोई बदलाव लाने के लिये उसके पारितन्त्र के हर अवयव के बारे में विचार करना आवश्यक है। बिना सोचे समझे बदलाव कर देने से उसके परिणाम दूरगामी होते हैं। पॉलीथिन का प्रयोग प्रारम्भ करने के पहले किसी ने नहीं सोचा था कि एक दिन यह गहरी समस्यायें उत्पन्न कर देगा। पर्यावरण के बारे में मची वर्तमान बमचक, पारितन्त्रों की अधूरी समझ का परिणाम ही है।

आज के समय में हम भारतीयों की स्थिति सबसे अधिक गड्डमड्ड है। कोई एक पारितन्त्र है ही नहीं, बचपन संस्कारों में बीतता है, सभी परिवार अपने बच्चों को घर में संस्कृति का सबसे उत्कृष्ट पक्ष सिखाते हैं, शिक्षापद्धति की प्राथमिकतायें दूसरी हैं, समाज में फैली राजनीति पोषित भिन्नतायें तीसरा ही संदेश देती हैं, वैश्विक होड़ में जीवन का चौथा रंग दिखायी देता है, स्वयं की विचार प्रक्रिया इन सब पंथों की खिचड़ी बन जाती है। प्राच्य से पाश्चात्य तक की यह यात्रा एक पारितन्त्र से दूसरे में कूदते कूदते बीतती है। जीवन की ऊर्जा कब कहाँ क्षय हो जाती है, हिसाब ही नहीं है। कह सकते हैं कि काल संक्रमण का है पर कोई निष्कर्ष दिखता ही नहीं है, न जाने कौन सी नस्ल तैयार होने वाली है, हम भारतीयों की।

ऐसे संक्रमण में कुछ सार्थक उत्पादकता देने वाले विरले ही कहलायेंगे। देश, समाज और परिवार के ध्वस्तप्राय पारितन्त्र कब ठीक होंगे और कैसे ठीक होंगे? कब व्यक्ति, परिवार, समाज, दल, प्रदेश एक दूसरे के प्रेरक व पूरक बनेंगे? भले ही कई परिवार अपना अस्तित्व अक्षुण्ण बनाये रखें पर उनके पारितन्त्र को हर स्तर पर बल मिलता रहेगा, इसकी संभावना बहुत ही कम है।

निश्चय मानिये कि आने वाली पीढ़ियों के पास पंख तो होंगे, पर उड़ानें भरने के लिये मुक्त गगन नहीं। क्या हमारे पारितन्त्र उस आकाश को बाधित करते हैं? ऊर्जा का एक अथाह स्रोत भी चाहिये लम्बी उड़ाने भरने के लिये, एक बार पुनः देख लें कि हमारी पद्धतियाँ उन्हें ऊर्जा देती हैं या उड़ने के पहले ही थका देती हैं? न जाने किन आशंकाओं से बाधित है, हमारी भविष्य की परिकल्पना? जटिलतायें रच लेना सरल हैं, समस्याओं को जस का तस छोड़ दीजिये, नासूर बन जायेंगी। सरलता की संरचना स्वेदबिन्दु चाहती है, मेधा की आहुति चाहती है, निश्चयात्मकता चाहती है निर्णयों में, सब के सब अनवरत।

क्या आने वाली पीढ़ियों को हम वह सब दे पा रहे हैं, क्या हमारे पारितन्त्र स्वस्थ हैं, क्या हमारे पारितन्त्र सबल हैं?

10.12.11

आईपैड या मैकबुक एयर

एक मित्र मिले, हमारा नया मैकबुक एयर देखे, प्रभावित हुये, बोले बड़ा हल्का है, पर जाते जाते संशय की एक कील ठोंक गये, कहे कि हल्का ही लेना था तो आईपैड ले लेते, हल्का भी पड़ता, सस्ता भी। बात ठीक ही थी, सहसा लगा कि कहीं गलत निर्णय तो नहीं ले लिया है। ऐसा नहीं था कि निर्णय प्रक्रिया में यह तथ्य ध्यान में नहीं था, पर किसी और के आत्मविश्वास को त्वरित झुठलाया भी नहीं जा सकता है।

पहले आईपैड के उन तीन पक्षों को समझ लें जो मैकबुक एयर पर भारी हैं। पहला, मैकबुक एयर के १००० ग्राम की तुलना में आईपैड का भार ७०० ग्राम है। ३०० ग्राम की कमी के कारण आप आईपैड को लम्बे समय तक एक हाथ से पकड़ कर उपयोग में ला सकते हैं, कोई पुस्तक पढ़ सकते हैं। लैपटॉप से पुस्तक पढ़ने के प्रयास में दोनों हाथ लगाने पड़ते हैं, पर उसमें भी लम्बे समय तक पढ़ भी सकते हैं और पढ़ने के बाद पुस्तक की तरह बन्द भी कर सकते हैं। दूसरा, आईपैड की बैटरी १० घंटे चलती है जबकि लैपटॉप की ७ घंटे, ३ घंटों का अतिरिक्त समय आपको आईपैड बिना चार्जर कहीं भी ले जाने की सुविधा देता है। तीसरा, यदि आप आईपैड का ६४ जीबी व वाई-फाई वाला मॉडल लें तब भी आईपैड लगभग ४६,००० रु का पड़ता है, मैकबुक एयर से २०,००० रु सस्ता।   

हिन्दी के कीबोर्ड की अनुपस्थिति आईपैड का सर्वाधिक निर्बल पक्ष था। यह एक प्रमुख कारण था कि आईपैड के बारे में और अधिक नहीं सोच सका। यद्यपि हिन्दीराइटर सॉफ्टवेयर के माध्यम से हिन्दी फॉनेटिकली टाइप की जा सकती थी पर लम्बे समय के लिये अंग्रेजी की वैशाखियों पर चलना बड़ा ही असहज और कठिन था। मैकबुक एयर में देवनागरी इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड में टाइप करने का आनन्द आईपैड में नहीं है। अब तो आईपैड में हिन्दी कीपैड आ भी  गया है तो भी स्क्रीन पर लम्बे समय के लिये टाइप करना बड़ा ही असुविधाजनक है। लगभग आधा स्क्रीन कीपैड से घिर जाने के बाद एक पूरा पैराग्राफ भी नहीं दिखता है, इससे लेख और विचारों की तारतम्यता बनाये रखना कठिन होता है। आईपैड पर वाह्य कीबोर्ड का भी प्रावधान है, पर  दो भागों को सम्हालने और समेटने का कष्ट देखते हुये मैकबुक एयर आईपैड की तुलना में कहीं अच्छा विकल्प है। यदि वाह्य कीबोर्ड और स्क्रीन कवर के भार व मूल्य को आईपैड में जोड़ दें तो हल्कापन घटकर १०० ग्राम व सस्तापन घटकर १०,००० रु भर रह जाता है। 

आईपैड की स्क्रीन लगभग २ इंच छोटी है। वैसे तो बहुत सारे कार्यों के लिये बड़ी स्क्रीन की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है, पर कई कार्यों के लिये स्क्रीन पर अधिक सूचना की उपस्थिति बड़ी उपयोगी होती है। लैपटॉप की निकटता, आँखों पर बनने वाले ठोस कोण, एक दृष्टि में दृष्टिगत पठनीय सामग्री और विशुद्ध लेखकीय बाध्यताओं के कारण १२ इंच की स्क्रीन ही सर्वोत्तम लगी।

आईपैड में बाह्य सम्पर्कों का नितान्त अभाव है, कोई यूएसबी नहीं, बाहर की फाईलों पर बड़ा पहरा है, संगीत आदि भी केवल आईट्यून के माध्यम से। अपनी फाइलों को स्थानान्तरित करने में आपका पसीना निकल आयेगा। वहीं दूसरी ओर मैकबुक एयर एक पूर्ण लैपटॉप होने के कारण पहले दिन से ही एक सुदृढ़ सहयोगी की तरह साथ में लगा है। साथ ही साथ अधिकतम ६४ जीबी के आईपैड में अपनी सारी फाइलें रख पाना संभव नहीं लगा। मैकबुक एयर में १२८ जीबी और यूएसबी के माध्यम से ५०० जीबी का साथ होने से सारी फाइलें एक जगह पर ही रखने का आराम है। यदि प्राथमिक और एकल कम्प्यूटर के लिये चयन करना हो तो आईपैड की तुलना में मैकबुक एयर कोसों आगे है।

आईपैड या कहें कि किसी भी टैबलेट के लिये उसे सम्हालना, सहेजना, रखना और यात्राओं में सुरक्षित रखना थोड़ा कठिन कार्य है, कारण स्क्रीन का खुला हुआ होना। उसके साथ में एक पैडेड बैग रखना अतिआवश्यक है। वहीं दूसरी ओर मैकबुक एयर की एल्यूमिनियम एलॉय काया स्क्रीन को न केवल सुरक्षित रखती है वरन लाने ले जाने भी सुविधाजनक है। चार-पाँच दिन तो एक फोल्डर में रखकर मैकबुक एयर को ऑफिस ले गया था। एक सोफे या कुर्सी पर बैठकर व लैपटॉप को गोद में रखकर घंटों कार्य कर सकने की सहजता आईपैड या किसी अन्य टैबलेट में अनुपस्थित है।

कहने को तो सैमसंग का गैलेक्सी टैब आईपैड से भी १५० ग्राम हल्का है, पर बात जब कार्यगत उपयोगिता की हो मैकबुक एयर बेजोड़ है। लगता है आने वाले मित्रों और उनके संशयों के समक्ष मेरे निर्णय को सुस्थापित रख पायेगा मैकबुक एयर। तीन माह बाद भी पहली नज़र का प्यार अपनी कसक बनाये हुये है।

7.12.11

ब्लॉग लेखन की बाध्यतायें

स्वयं पर प्रश्न करने वाला ही अपना जीवन सुलझा सकता है। जिसे इस प्रक्रिया से परहेज है उसे अपने बोझ सहित रसातल में डूब जाने के अतिरिक्त कोई राह नहीं है। प्रश्न करना ही पर्याप्त नहीं है, निष्कर्षों को स्वीकार कर जीवन की धूल धूसरित अवस्था से पुनः खड़े हो जीवन स्थापित करना पुरुषार्थ है। इस गतिशीलता को आप चाहें बुद्ध के चार सत्यों से ऊर्जस्वित माने या अज्ञेय की ‘आँधी सा और उमड़ता हूँ’ वाली उद्घोषणा से प्रभावित, पर स्वयं से प्रश्न पूछने वाले समाज ही अन्तर्द्वन्द्व की भँवर से बाहर निकल पाते हैं।

ब्लॉग लेखन भी कई प्रश्नों के घेरों में है, स्वाभाविक ही है, बचपन में प्रश्न अधिक होते हैं। इन प्रश्नों को उठाने वाली पोस्टें विचलित कर जाती हैं, पर ये पोस्टें आवश्यक भी हैं, सकारात्मक मनःस्थिति ही तो पनप रहे संशयों का निराकरण करने में सक्षम नहीं। और प्रश्न जब वह व्यक्ति उठाता है जो अनुभवों के न जाने कितने मोड़ों से गुजरा हो, तो प्रश्न अनसुने नहीं किये जा सकते हैं। अन्य वरिष्ठ ब्लॉगरों की तरह ज्ञानदत्तजी ने हिन्दी ब्लॉगिंग के उतार चढ़ाव देखे हैं, सृजनात्मकता को संख्याओं से जूझते देखा है, खुलेपन को बद्ध नियमों में घुटते देखा है, आधुनिकता को परम्पराओं से लड़ते देखा है, प्रयोगों के आरोह देखे हैं, निष्क्रियता का सन्नाटा और प्रतिक्रिया का उमड़ता गुबार देखा है।

प्रतिभा को सही मान न मिले तो वह पलायन कर जाना चाहती है, अमेरिका भागते युवाओं का यही सारांश है। स्थापित तन्त्रों में मान के मानक भी होते हैं, बड़ा पद रहता है, सत्ता का मद रहता है, और कुछ नहीं तो वाहनों और भवनों की लम्बाई चौड़ाई ही मानक का कार्य करते हुये दीखते हैं। समाज में बुजुर्गों का मान उनकी कही बातों को मानने से होता है। भौतिक हो या मानसिक, स्थापित तन्त्रों में मान के मानक दिख ही जाते हैं। ब्लॉग जगत में मान के मानक न भौतिक हैं और न ही मानसिक, ये तो टिप्पणी के रूप में संख्यात्मक हैं और स्वान्तः सुखाय के रूप में आध्यात्मिक। ज्ञानदत्तजी यहाँ पर अनुपात के अनुसार प्रतिफल न मिलने की बात उठाते हैं जो कि एक सत्य भी है और एक संकेत भी। ब्लॉग से मन हटाकर फेसबुक पर और हिन्दी ब्लॉगिंग से अंग्रेजी ब्लॉगिंग में अपनी साहित्यिक गतिविधियाँ प्रारम्भ करने वाले कई ब्लॉगरों के मन में यही कारण सर्वोपरि रहा होगा।

ब्लॉग पर बिताये समय को तीन भागों में बाँटा जा सकता है, लेखन, पठन और प्रतिक्रिया। प्रतिक्रिया का प्रकटीकरण टिप्पणियों के रूप में होता है। प्रशंसा, प्रोत्साहन, उपस्थिति, आलोचना, कटाक्ष, विवाद, संवाद और प्रमाद जैसे कितने भावों को समेटे रहती हैं टिप्पणियाँ। ज्ञानदत्तजी के प्रश्नों ने इस विषय पर चिंतन को कुरेदा है, मैं जिस प्रकार इन तीनों को समझ पाता हूँ और स्वीकार करता हूँ, उसे आपके समक्ष रख सकता हूँ। संभव है कि आपका दृष्टिकोण सर्वथा भिन्न हो, प्रश्नों के कई सही उत्तर संभव जो हैं इस जगत में।

लेखन, पठन और प्रतिक्रिया पर बिताया गया कुल समय नियत है, एक पर बढ़ाने से दूसरे पर कम होने लगता है। अपनी टिप्पणियों को संरक्षित करने की आदत है क्योंकि उन्हें भी मैं सृजन और साहित्य की श्रेणी में लाता हूँ, कई बार टिप्पणियों को आधार बना कई अच्छे लेख लिखे हैं। इस प्रकार मेरे लिये उपरिलिखित तीनों अवयव अन्तर्सम्बद्ध हैं। केवल की गयी टिप्पणियों को ही पोस्ट बनाऊँ तो अगले एक वर्ष नया लेखन नहीं करना पड़ेगा। मुझे यह स्वीकार करना चाहिये कि मेरी टिप्पणियों की संख्या बहुत बढ़ गयी है, आकार कम हो गया है, गुणवत्ता भगवान जाने।

टिप्पणी देने की प्रक्रिया की यदि किसी ज्ञात से तुलना करनी हो तो इस प्रकार करूँगा। जब परीक्षा के पहले किसी विषय का पाठ्यक्रम अधिक होता था तो बड़े बड़े भागों को संक्षिप्त कर छोटे नोट्स बना लेता था, जो परीक्षा के एक दिन पहले दुहराने के काम आते थे। किसी का ब्लॉग पढ़ते समय उसका सारांश मन में तैयार करने लगता हूँ, वही लिख देता हूँ टिप्पणी के रूप में और संरक्षित भी कर लेता हूँ भविष्य के लिये भी। कभी उस विषय पर पोस्ट लिखी तो उस विषय पर की सारी टिप्पणियाँ खोज कर उनका आधार बनाता हूँ। अच्छी और सार्थक पोस्टें अधिक समय और चिन्तन चाहती हैं, लिखने में भी और पढ़ने में भी।

मुझपर आदर्शवाद का दोष भले ही लगाया जाये पर हर पोस्ट को कुछ न कुछ सीखने की आशा से पढ़ता हूँ। यदि कोरी तुकबन्दी ही हो किसी कविता में पर वह भी मुझे मेरी कोई न कोई पुरानी कविता याद दिला देती है, जब मैं स्वयं भी तुकबन्दी ही कर पाता था।

प्रकृति का नियम बड़ा विचित्र होता है, श्रम और फल के बीच समय का लम्बा अन्तराल, कम श्रम में अधिक फल या अधिक श्रम में कम फल, कोई स्केलेबिलटी नहीं। पोस्ट भी उसी श्रेणी में आती हैं, गुणवत्ता, उत्पादकता व टिप्पणियों में कोई तारतम्यता नहीं। इस क्रूर से दिखने वाले नियम से बिना व्यथित हुये तुलसीबाबा का स्वान्तःसुखाय लिये चलते रहते हैं। किसी को अच्छी लगे न लगे, पर स्वयं की अच्छी लगनी चाहिये, लिखते समय भी और भविष्य में पुनः पढ़ते समय भी।

भले ही लोग सुख के संख्यात्मक मानक चाहें पर यह निर्विवाद है कि सुख और गुणवत्ता मापी नहीं जा सकती है। प्रोत्साहन की एक टिप्पणी मुझे उत्साह के आकाश में दिन भर उड़ाती रहती है। सुख को अपनी शर्तों पर जीना ही फन्नेखाँ बनायेगा, ब्लॉगिंग में भी। बहुतों को जानता हूँ जो अपने हृदय से लिखते हैं, उनके लिये भी बाध्यतायें बनी रहेंगी ब्लॉगिंग में, साथ साथ चलती भी रहेंगी कई दिनों तक, पर उनका लेखन रुकने वाला नहीं।

प्रश्न निश्चय ही बिखरे हैं राह में, आगे राह में ही कहीं उत्तर भी मिलेंगे, प्रश्न भी स्वीकार हैं, उत्तर भी स्वीकार होंगे।

3.12.11

गूगल का गणित

विश्व ने सदा ही अन्वेषकों को बड़ा मान दिया है, कुछ ने लुप्त प्रजातियाँ ढूढ़ निकाली, कुछ ने लुप्त सभ्यतायें, कुछ ने जीवाणुओं को तो कुछ ने पूरे के पूरे महाद्वीपों को ढूढ़ निकाला। आस्ट्रेलिया और अमेरिका न खोजे जाते तो विश्व का इतिहास और भूगोल, दोनों ही बदले हुये होते। जो भी ब्रह्माण्ड में बिखरा पड़ा है, उस बारे में हमारी उत्सुकता की प्यास बुझाने का कार्य करते हैं अन्वेषक। ज्ञान का विश्व इतना विशाल है कि कोई एक अन्वेषक कुछ विषयों से परे आपको संतुष्ट नहीं कर सकता है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो ज्ञान-संतुष्टि के बाजार में माँग बहुत अधिक है, माँग पूरी करने वाले बहुत कम।

इस क्षेत्र में एक नया व्यापारी उभरा है, गूगल। यदि आपका बाजार व्यवस्था और व्यापारियों से विरोध है तो आप उसे कॉमरेड भी कह सकते हैं, पर उसका कार्य सारे ज्ञान का संग्रहण और व्यापार करना ही है और इस तथ्य पर हम सबकी सहमति निश्चयात्मक ही होगी। जैसे मोबाइल का नाम लेते ही आपके मन में नोकिया या एप्पल का नाम उभरता है उसी तरह ज्ञान का संदर्भ आते ही लोग गूगलाने लगते हैं।

तो क्या गूगल के पहले ज्ञान नहीं था? बिल्कुल था, पर थोड़े भिन्न स्वरूप में। पुस्तकों में था, बुजुर्गों के अनुभवों में था, गुरुजनों की मेधा में था, संस्कृति की परम्पराओं में था, हमारे संस्कारों में था, था ऐसे ही थोड़ा बिखरा हुआ सा। हमारे प्रश्न या तो तथ्यात्मक होते थे या निर्णयात्मक होते थे, उत्तर कहीं न कहीं मिल ही जाते थे, श्रम भले ही थोड़ा अधिक लग जाये। प्रश्न जितना गहराते थे, उत्तर उतने ही गम्भीर होते जाते थे। पीड़ा की निर्बल घड़ियों में हमारे ज्ञान के पारम्परिक स्रोत हमारे बिखरे अस्तित्व को एक स्थायी संबल दे जाते थे।

आज विदेशी महाव्यापारियों के आगमन से और उनके द्वारा खुदरा क्षेत्र पर होने वाले संभावित आक्रमण से आधा देश व्यथित है। पर ज्ञान के क्षेत्र में गूगल के द्वारा हमारे पारम्परिक ज्ञानस्रोतों के संभावित शतप्रतिशत अधिग्रहण से हम तनिक भी संशकित नहीं दिख रहे हैं। ज्ञान के क्षेत्र में सबका अधिकार है और सारी जानकारी किसी पर निर्भर हुये बिना मिलनी भी चाहिये। देखा जाये तो गूगल बौद्धिक स्वतन्त्रता का प्रतीक बनकर उतरा है, ठीक उसी तरह जिस तरह वालमार्ट आर्थिक लोकतन्त्र के राग आलाप रहा है।

गूगल का गणित जो भी हो पर गूगल के द्वारा गणित का गहन प्रयोग ही उसे वर्तमान स्थान पर ले आया है। ज्ञान के हर शब्द को गणितीय विधि से विश्लेषण कर उन्हें आगामी खोजों के लिये सहेज कर रखना ही गूगल की कार्यशैली है। किसी भी शब्द को खोज में डालते ही लाखों लिंक छिटक कर सामने आ जाते हैं, जिसमें हम अधिकतम पहले दस ही उपयोग में ला पाते हैं। कई मित्रों ने इस बात की सलाह दी कि किस तरह से खोज-शब्द डालने से निष्कर्ष सर्वाधिक प्रभावी होते हैं। कई बार यह सलाह काम आयी तो कई बार दसवें पन्ने तक पढ़ने का धैर्य। पहले कुछ निष्कर्षों में उनकी कम्पनी का नाम आ जाये, इसके लिये कम्पनियों में कुछ भी करने की होड़ लगी रहती है। गूगल किस लिंक को किस आधार पर वरीयता देता है, यह घोर गणितीय शोध का विषय है और यही उसका धारदार हथियार।

ज्ञान के किसी भी पक्ष को लेकर हमारी निर्भरता इतनी बढ़ गयी है कि छोटी छोटी बातों के उत्तर जानने के लिये हम कम्प्यूटर खोलकर बैठ जाते हैं और खो जाते हैं गूगल की अनगिनत गलियों में। कहीं एक दिन ऐसा न हो जाये कि हमारे ज्ञान-प्रक्रिया पर गूगल का एकाधिकार हो।

यहाँ तक तो ठीक है कि हम जो जानना चाहते हैं, जान जाते हैं। पर पता नहीं कितना और सम्बद्ध ज्ञान है जिसके बारे में हमें पता ही नहीं चल पाता है क्योंकि उसके बारे में हम कभी गूगल से पूछते ही नहीं, तो वह कभी बताता ही नहीं। मैं सगर्व कह सकता हूँ कि ज्ञान की बहुत सी अनुपम फुहारें मित्रों के द्वारा पता लगी हैं, न कि गूगल से। हाँ गूगल से उनके बारे में और जानकारी प्राप्त होती है।

ज्ञात के बारे में अधिक ज्ञान पर अज्ञात के बारे में मौन, गूगल का गणित बस यहीं पर ही गच्चा खा जाता है। ज्ञान की मात्रा तो ठीक है पर उसकी दिशा कौन निर्धारित करेगा? प्रसन्न रहने के ढेरों उपाय तो निश्चय ही गूगल बता देगा पर उसमें कौन सा आप पर सटीक बैठेगा, आपको ढंग से जानने वाले आपके शुभचिन्तक या आपके मित्र ही बता पायेंगे, अतः उनसे सम्पर्क में बने रहें। गूगल की गणितीय पहुँच उन क्षेत्रों में निष्प्रभ हो जाती है। सम्बन्धों के सम्बन्ध में गूगल का गणित निर्बन्ध हो जाता है।

तथ्यात्मक ज्ञान मिलने के बाद उन पर निर्णय लेने की समझ गूगल नहीं सिखा सकता। ज्ञान के परम्परागत स्रोत भले ही कई क्षेत्रों में गूगल से कमतर हों पर उसमें जो समग्रता हमें मिलती है, गूगल का गणित वहाँ नहीं पहुँच पाता है।

कृपया इस तर्क को खुदरा क्षेत्र से जोड़कर न देखा जाये, ज्ञान और सामान में कई असमानतायें भी हैं।

30.11.11

नये फिल्म समीक्षक

भोजन पर सब साथ बैठे थे, टेलीविजन को विश्राम दे दिया गया था, सबकी अपनी व्यस्तता में यही समय ऐसा मिलता है जब सब एक साथ बैठकर इधर उधर की बातें करते हैं। बच्चों के प्रति मन में स्नेह सदा ही रहा है, उनकी ऊर्जा एक प्रकाश स्तम्भ की तरह हम जैसे दूर जाते जहाजों को जीवन से जुड़े रहने का संकेत देती रहती है। यद्यपि स्वयं भी बचपन की राहों से होकर बड़ा हुआ हूँ पर अब भी औरों के बचपन से कुछ न कुछ सीखने की ललक बनी रहती है। उनको कभी हल्के में लेने का प्रश्न ही नहीं रहा, पहले उनके पालन में, फिर उनके प्रश्नों के उत्तर ढूढ़ने में और उनकी विचार प्रक्रिया समझने में समुचित सतर्कता बनाये रखनी पड़ती है। निश्चय मान लीजिये यदि आज उन्हें हल्के में लिया तो भविष्य में वही हल्कापन ससम्मान वापस मिल जायेगा।

यदि बच्चे आपकी व्यस्तता में आपका समय चाहते हैं तो या आप अपने कार्य को थोड़ा विराम देकर उनकी शंकाओं का समाधान कर दें या उन्हें यह बता दें कि आप उन्हें कब समय दे पायेंगे। झिड़क देने से या टहला देने से, आत्मीयता कुंठित होने लगती है और धीरे धीरे अपने आधार ढूढ़ने कहीं और चली जाती है। बच्चों को सम्मान देने का अर्थ यह कभी नहीं है कि उन्हें अनुशासन में न रहने का अधिकार मिल गया, वरन यह संदेश स्पष्ट करने का उपक्रम है कि उन्हें सकारात्मकता में पूर्ण सहयोग मिलेगा और नकारात्कता में पूर्ण विरोध।

भोजन के अतिरिक्त बच्चों को सोते समय कुछ न कुछ सुनाते अवश्य हैं, मुझे या श्रीमतीजी, जिसको  भी समय मिल जाये। श्रीमतीजी कहानी सुनाती हैं और मेरे हिस्से पड़ती हैं शेष जिज्ञासायें। मुझे कोई एक विषय देते हैं बच्चे और उस पर मुझे जो भी आता है, मुझे वह उनके समझने योग्य भाषा में सुनाना पड़ता है। पता नहीं कि कहानी सुनाने से मेरे लेखन को बल मिलता है या मेरे लेखकीय कर्म कहानी सुनाने को सरल बना देते हैं, पर इस कार्य में रोचकता सदा ही बनी रहती है। यह बात अलग है कि कभी कहानी सुनाते सुनाते मुझे भी नींद आ जाती है। बच्चों द्वारा प्रदत्त पिछले पाँच विषयों को देखकर आप मेरी दशा का अनुमान लगा सकते हैं। ये थे मौसम की भविष्यवाणी, टैंक की कार्यप्रणाली, फिल्मों का निर्माण, विद्युत का आविष्कार और कम्प्यूटर एनीमेशन। दिन भर थक जाने के बाद आपको इन विषयों पर बोलने को कहा जाये तो संभवतः आपको भी बच्चों के पहले ही नींद आ जाये। बच्चे भी अब ढूढ़ ढूढ़कर विषय लाने लगे हैं और मेरी परीक्षा लेने लगे हैं। जो भी परिणाम आये इस परीक्षा के, पर अब धीरे धीरे इस प्रक्रिया में आनन्द आने लगा है।

अन्य संवादों का संदर्भ देने का अभिप्राय उस स्तर को बताने का था जिस पर बच्चों का बौद्धिक आत्मविश्वास अधिकार बनकर झलकता है। यदि कहा जाये कि भोजन की मेज पर सबके बीच बराबर के स्तर पर बातचीत होती है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
विषय था रॉकस्टार के गानों का, घर में सबको ही बहुत अच्छे लगे वे गाने, और उनके बोल भी। निर्णय लिया गया कि बच्चों की परीक्षाओं के बाद देखी जायेगी। गानों की तरह ही उसकी कहानी भी अच्छी होनी चाहिये। इतने में आठ वर्षीय बिटिया बोल उठीं कि मुझे मालूम कि कहानी क्या होगी। अच्छा, जब फिल्म देखी नहीं तो कैसे पता चली? बिटिया बोलीं, उसके गानों से। आश्चर्य, बड़े बड़े फिल्म समीक्षक भी किसी फिल्मों की कहानी उसके गाने देखकर नहीं बता सकते हैं, टीवी पर पाँच गाने देखकर बिटिया कहानी बताने को तैयार हैँ। भोजन का कौर जहाँ था, वहीं रुक गया, बिटिया कहानी बताने लगी।

रणबीर कपूर एक अच्छा लड़का होता है, गिटार बजाता है मंदिर में, हल्का हल्का अच्छा गाना गाता है (गीत फाया कुन)। फिर एक लड़की आती है जिसे वह मोटर साइकिल में घुमाता है, वही लड़की हीरो को बिगाड़ देती है, दोनों बेकार पिक्चर देखने जाते हैं (गीत कतिया करूँ)। लड़का उस लड़की के साथ और बिगड़ जाता है, दाढ़ी बढ़ा लेता है, बेकार से कपड़े पहनता है और तेज तेज गाना गाता है (गीत जो भी मैं)। फिर वह सबके साथ लड़ाई करने लगता है, गाने में एक बार गाली भी देता है, पुलिस से भी लड़ता है और पुलिस उसे पकड़कर भी ले जाती है (गीत साडा हक)। जब उसे अपनी गलती पता चलती है तो उसे बहुत खराब लगता है और वह पहले जैसा होना चाहता है (गीत नादान परिन्दे)।

इतनी स्पष्ट कहानी सुन मेरी बुद्धि स्तब्ध सी रह गयी। पता नहीं, कहानी यह है कि नहीं, वह तो देखने पर ही पता चलेगा, पर अपने घर में एक नये फिल्म समीक्षक को पाकर हम धन्य हो गये।

26.11.11

कुम्भकर्ण का श्राप

कुम्भकर्ण शान्ति का प्रतीक था, उसे सोते रहने का वरदान मिला था। हम दैनिक रूप से जगने वालों को कुम्भकर्ण की मानसिक शान्ति की कल्पना भी नहीं हो सकती है, हमें लग सकता है कि वह सोकर जीवन व्यर्थ कर रहा था। हमें लग सकता है कि सोते रहना उसकी बाध्यता थी पर यह तथ्य किसी को ज्ञात ही नहीं है कि कुम्भकर्ण की शान्तिसाधना अपने आप में एक अनुकरणीय आदर्श थी जो राम और रावण के भारी व्यक्तित्वों के बीच कहीं छिप गयी। काश किसी ने कुम्भकर्ण के मन को समझने का प्रयत्न किया होता। उसका तो जीवन आनन्द से सोते हुये कट ही रहा था, रावण की व्यग्रता के कारण कुम्भकर्ण को असमय जगना पड़ा। रावण को कितना समझाया उसने कि युद्ध छोड़ शान्ति से रहो, सीता मैया को ससम्मान वापस कर दो, पर जिस विचार को आज के समय में फलीभूत होना लिखा हो, वह भला उस समय रावण के समझ में कैसे आता। रावण नहीं माना, कुम्भकर्ण को युद्ध करना पड़ा, राम के हाथों शान्ति के अग्रदूत को चिरनिद्रीय निर्वाण मिला।

रामायण समाप्त हो गयी, रावण रूपी समस्या समाप्त हो गयी, राम प्रसन्नचित्त अयोध्या लौट आये, उनके स्वागत में दिये जलाये गये, देवताओं ने पुष्पवर्षा की। हम सब भी निश्चिन्त हो गये कि अब कोई युद्ध नहीं होगा, बुराई का समूल नाश हो गया है, रावण का उदाहरण दुष्टों के हृदयों में स्थायी डर बन कर धड़केगा। आनन्द और आश्वस्तता के वातावरण में इस बात पर किसी का ध्यान नहीं गया कि हम सबको कुम्भकर्ण का श्राप लग गया है।

जहाँ एक ओर रामायण के सारे चरित्रों ने अपने चरित्र को अपनी बातों व अपने कर्मों से प्रकाशित किया और उन सबको इस बात के लिये पर्याप्त अवसर भी मिला, दुर्भाग्यवश यह अवसर कुम्भकर्ण को नहीं मिल पाया। बलात नींद से उठाये जाने के बाद थोड़ी सी शान्तिवार्ता और तत्पश्चात युद्ध में अवसान। ऐतिहासिक साक्ष्य तो नहीं है कि कुम्भकर्ण ने आने वाली पाढ़ियों को कोई श्राप दिया हो, पर थोड़ा अवलोकन करने से यह तथ्य स्वयं उद्घाटित हो जाता है।

रामराज्य की आस थी, शाश्वत, पर विश्व क्या पुनः वैसा हो पाया? नहीं, एक शान्तिप्रिय का श्राप हम सबको लग गया, कुम्भकर्ण मरा नहीं वरन हम सबके अन्दर आकर सो गया। अब उसका क्रोध न अपने भाई रावण से है, न अपने हन्ता राम से है, न उसका विरोध सच से है, न झूठ से है, उसका तो विरोध तो उनसे है जो लोग नींद में विघ्न डालते हैं और उनसे तो और भी है जो युद्ध के लिये उकसाते हैं।

यह श्राप का ही प्रभाव है कि हम लोगों की नींद गहरी और लम्बी हो गयी है, समाज स्वस्थ रहे न रहे, शान्ति बनी हुयी है। कितनी बड़ी से बड़ी समस्या आ जाये समाज में, हमारी नींद में विघ्न नहीं पड़ता है। कोई कितना भी चीखता रहे, कोई कितने भी दुख में हो, कोई अन्तर नहीं पड़ता है, बस शान्ति बनी रहे, नींद बनी रहे। हम सबकी काया में घुसकर कुम्भकर्ण अब और आलसी हो गया है। ६ माह के स्थान पर ५ वर्ष सोना प्रारम्भ कर दिया है। पंचवर्षीय कर्म हेतु उठता है, खा पीकर पुनः ५ वर्ष के लिये सो जाता है। चादर तनी है, निद्रा चरम पर है, कुम्भकर्ण का श्राप लय में है, न रावण के दुष्कर्म को अनुचित बताया जाता है और न ही राम के गुणों का वर्णन होता है, शान्ति और निद्रा युगशब्द बन जी रहे हैं, बीच बीच में बमचक मचती है पर शीघ्र ही दम तोड़ देती है।

संभवतः सोते सब रहते हैं पर इस तथ्य को सगर्व स्वीकार कर लेना अध्यात्मिकता की पहली किरण है। जागने का अभिनय करना जागने से कहीं अधिक कष्टकर है।

एक शान्तिप्रिय के बलिदान के श्राप की परिणति ऐसी स्याह शान्ति के रूप में होगी कि न प्रसन्न होते बनेगा और न ही दुख को व्यक्त करते बनेगा। अजब सी शान्ति है, विस्फोट के पहले सी। यह श्राप कैसे उतरेगा, कोई राह नहीं दीखती। हम सबके अन्दर सो रहे उदासीन कुम्भकर्ण को मारने के लिये अब तो आ जाओ राम, यह शान्ति काटती है।

23.11.11

चेतन भगत और शिक्षा व्यवस्था

चेतन भगत की नयी पुस्तक रिवॉल्यूशन २०२० कल ही समाप्त की, पढ़कर आनन्द आ गया। शिक्षा व्यवस्था पर एक करारा व्यंग है यह उपन्यास। शिक्षा से क्या आशा थी और क्या निष्कर्ष सामने आ रहे हैं, बड़े सलीके से समझाया गया है, इस उपन्यास में।

इसके पहले कि हम कहानी और विषय की चर्चा करें, चेतन भगत के बारे में जान लें, लेखकीय मनःस्थिति समझने के लिये। बिना जाने कहानी और विषय का आनन्द अधूरा रह जायेगा।

चेतन भगत का जीवन, यदि सही अर्थों में समझा जाये, वर्तमान शिक्षा व्यवस्था को समझने के लिये एक सशक्त उदाहरण है। अपने जीवन के साथ हुये अनुभवों को बहुत ही प्रभावी ढंग से व्यक्त भी किया है उन्होंने। फ़ाइव प्वाइण्ट समवन में आईआईटी का जीवन, नाइट एट कॉल सेन्टर में आधुनिक युवा का जीवन, थ्री मिस्टेक ऑफ़ माई लाइफ़ में तैयारी कर रहे विद्यार्थी का जीवन, टू स्टेट में आईआईएम का जीवन और इस पुस्तक में शिक्षा व्यवस्था का जीवन। हर पुस्तक में एक विशेष पक्ष पर प्रकाश डाला गया है, या संक्षेप में कहें कि शिक्षा व्यवस्था के आसपास ही घूम रही है उनकी उपन्यास यात्रा।

जिसकी टीस सर्वाधिक होती है, वही बात रह रहकर निकलती है, संभवतः यही चेतन भगत के साथ हो रहा है। पहले आईआईटी से इन्जीनियरिंग, उसके बाद आईआईएम से मैनेजमेन्ट, उसके बाद बैंक में नौकरी, सब के सब एक दूसरे से पूर्णतया असम्बद्ध। इस पर भी जब संतुष्टि नहीं मिली और मन में कुछ सृजन करने की टीस बनी रही तो लेखन में उतरकर पुस्तकें लिखना प्रारम्भ किया, सृजन की टीस बड़ी सशक्त जो होती है। कई लोग कह सकते हैं कि जब लिखना ही था तो देश का इतना पैसा क्यों बर्बाद किया। कई कहेंगे कि यही क्या कम है उन्हें एक ऐसा कार्य मिल गया है जिसमें उनका मन रम रहा है। विवाद चलता रहेगा पर यह तथ्य को स्वीकार करना होगा कि कहीं न कहीं बहुत बड़ा अंध स्याह गलियारा है शिक्षा व्यवस्था में जहाँ किसी को यह नहीं ज्ञात है कि वह क्या चाहता है जीवन में, समाज क्या चाहता है उसकी शिक्षा से और जिन राहों को पकड़ कर युवा बढ़ा जा रहा है, वह किन निष्कर्षों पर जाकर समाप्त होने वाली हैं। इस व्यवस्था की टीस उसके भुक्तभोगी से अधिक कौन समझेगा, वही टीस रह रहकर प्रस्फुटित हो रही है, उनके लेखन में।

कहानी में तीन प्रमुख पात्र हैं, गोपाल, राघव और आरती। गोपाल गरीब है, बिना पढ़े और अच्छी नौकरी पाये अपनी गरीबी से उबरने का कोई मार्ग नहीं दिखता है उसे। अभावों से भरे बचपन में बिताया समय धन के प्रति कितना आकर्षण उत्पन्न कर देता है, उसके चरित्र से समझा जा सकता है। शिक्षा उस पर थोप दी जाती है, बलात। राघव मध्यम परिवार से है, पढ़ने में अच्छा है पर उसे जीवन में कुछ सार्थक कर गुजरने की चाह है। आईआईटी से उत्तीर्ण होने के बाद भी उसे पत्रकार का कार्य अच्छा लगता है, समाज के भ्रष्टाचार से लड़ने का कार्य। आरती धनाड्य परिवार से है, शिक्षा उसके लिये अपने बन्धनों से मुक्त होने का माध्यम भर है।

वाराणसी की पृष्ठभूमि है, तीनों की कहानी में प्रेमत्रिकोण, आरती कभी बौद्धिकता के प्रति तो कभी स्थायी जीवन के प्रति आकर्षित होती है। तीनों के जीवन में उतार चढ़ाव के बीच कहानी की रोचकता बनी रहती है। कहानी का अन्त बताकर आपकी उत्सुकता का अन्त कर देना मेरा उद्देश्य नहीं है पर चेतन भगत ने इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि इस पुस्तक पर भी एक बहुत अच्छी फिल्म बनायी जा सकती है।

कहानी की गुदगुदी शान्त होने के बाद जो प्रश्न आपके सामने आकर खड़े हो जाते हैं, वे चेतन भगत के अपने प्रश्न हैं, वे हमारे और हमारे बच्चों के प्रश्न हैं, वे हमारी शिक्षा व्यवस्थता के अधूरे अस्तित्व के प्रश्न हैं।

प्रश्न सीधे और सरल से हैं, क्या शिक्षा हम सबके लिये एक सुरक्षित भविष्य की आधारशिला है या शिक्षा हम सबके लिये वह पाने का माध्यम है जो हमें सच में पाना चाहिये।

मैं आपको यह नहीं बताऊँगा कि मैं क्या चाहता था शिक्षा से और क्या हो गया? पर एक प्रश्न आप स्वयं से अवश्य पूछें कि आज आप अधिक विवश हैं या आपके द्वारा प्राप्त शिक्षा। चेतन भगत तो आज अपने मन के कार्य में आनन्दित हैं, सारी शिक्षा व्यवस्था को धता बताने के बाद।

19.11.11

लेखकीय मनःस्थिति

कहते हैं कि किसी लेखक की पुस्तक उसके व्यक्तित्व के बारे में सब स्पष्ट कर के रख देती है। सही भी है, जब लेखक किसी पुस्तक में अपना हृदय निकाल के रख दे तो उसके बारे में जानना कौन सा कठिन कार्य रह जाता है? वर्षों का अनुभव जब पुस्तक में आता हो, तो उन वर्षों में लेखक किन राहों से चलकर आया है, पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है। पुस्तकों को पढ़ना लेखक से बतियाने जैसा ही है और बात करने से कितना कुछ पता चल जाता है किसी के बारे में।

यह संभव है कि किसी पुस्तक में लेखक के व्यक्तित्व के सारे पक्ष व्यक्त न हो सकें। किसी विषय विशेष पर लिखी पुस्तक के बारे में यह संभव भी है। यदि ध्यान से देखा जाये तो कोई भी विषय अपने से संबद्ध विचारों के एकांत में नहीं जीता है, कहीं न कहीं उस पर लेखक के पूरे व्यक्तित्व का प्रक्षेप अवश्य पड़ता है। विषय को दूर से छूकर निकलती उन विचार तरंगों को समझने में संशय बना रहता है। यदि लेखक जीवित है तो वह संशय दूर कर देता है पर जो हमारे बीच में नहीं हैं वे सच में क्या कहना चाह रहे थे, इस पर सदा ही विवाद की स्थिति बनी रहती है। सर्वाधिक विवाद के बिन्दु मूल विषय से बहुत दूर इन्ही तटीय भँवरों में छिपे रहते हैं।

लेखक से कालखंडीय-निकटता अधिक होने से पाठक उन संदर्भों को समझ लेता है जिन पर वह विषय अवस्थित रहा होगा। तत्कालीन परिवेश और परिस्थिति विषय पर हर ओर से प्रकाश डालते हैं। कालखंड में लेखक जितना हमसे दूर होता है, उसे समझने में अनुमान की मात्रा उतनी ही बढ़ जाती है। इतिहास में गहरे छिपे पन्ने, जो हमें दिग्भ्रमित करते हैं, अपना मंतव्य अपने उर में छिपाये रहते हैं, उनका मूल कहीं न कहीं लेखक के व्यक्तित्व में छिपा होता है।

यदि आपको लेखक के जीवन के बारे में ज्ञात है तो उनका लेखन समझने में जो स्पष्ट दृष्टि आपके पास रहती है, उसमें उनका लेखन और उभरकर सामने आता है। निराला की फक्कड़ जीवन शैली जानने के बाद जब आप सरोज-स्मृति पुनः पढ़ेंगे तो आपके आँसुओं की संख्या और गति, दोनों ही दुगने हो जायेंगे। मीरा के भजन साहित्य की शैली न होकर, अध्यात्म की रुपहली छाया बनकर आयेंगे। सूर, तुलसी, कबीर का व्यक्तिगत जीवन उनके कृतित्व के मर्म को गहराता जाता है।

अब किसी के लेखन से संबंधित विवादित विषयों का निर्णय कैसे हो? किसी महापुरुष व उनके लेखन को स्वार्थवश अपने अनुसार प्रचारित करना तो उन्हें प्रयोग की वस्तु बनाने जैसा हुआ। ग्रन्थों का निष्कर्ष अपने आग्रहों पर आधारित करना भला कहाँ का न्याय हुआ? गीता के ७०० श्लोकों पर हजार से ऊपर टीकायें, प्रत्येक में एक नया ही अर्थ निकलता हुआ, सत्य हजारमुखी कब से हो गया? यह सत्य है कि सत्य के कई पक्ष हो सकते हैं, पर दो सर्वथा विलोम पक्ष एक सत्य को कैसे परिभाषित कर सकते हैं? तर्कशास्त्र के अनुसार यदि किसी तंत्र में दो विरोधाभासी पक्ष एक साथ उपस्थित हैं तो वहाँ कुछ भी सत्य सिद्ध किया जा सकता है, कुछ भी।

किसी के लेखन पर अन्तिम निर्णय केवल लेखक ही दे सकता है, विवाद के विषयों पर अपना कोई आग्रह थोपने से पहले, हमें लेखक की मनःस्थिति समझनी होगी, स्थापित करनी होगी, तार्किक आधार पर, यही एकमात्र विधि है जिससे शब्द का मर्म समझा जा सकता है। आधुनिक शिक्षा पद्धति के प्रभाव में शास्त्रों को दर्शनीय पिटारा मान चुके आधुनिकमना व्यक्तियों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि ग्रंथों की प्रस्तावना में विषयवस्तु, लेखक की योग्यता, पाठक की योग्यता, विषयवस्तु का पाठक से संबंध, लेखन का अभिप्राय, लेखकीय कारणों का वर्णन और अपेक्षित प्रभावों जैसे बिन्दुओं को स्थान मिलता था। यह लेखकीय मनःस्थिति की प्रथम अभिव्यक्ति होती है।

कहते हैं, पुस्तक का प्राकट्य मन में पहले ही हो जाता है, एक समूह के रूप में, एक संकेत के रूप मे, लेखन प्रक्रिया बस उसे शब्दों में क्रमबद्ध उतारने जैसा है, ठीक वैसे ही जैसे हम एक दूसरे से बातचीत करते हैं, ठीक वैसे ही जो पाठकों को समझ में आ सके। पॉलो कोहेलो तो कहते हैं कि पुस्तक लिखना तो किसी से प्यार करने जैसा होता है, आप पहले थोड़ा तटस्थ से रहते हैं, थोड़ा असमंजस सा होता है, थोड़ी शंकायें होती हैं, पर एक बार लेखकीय कर्म में पूर्णतया उतर जाने के पश्चात आपको लगता है कि किस तरह अपना श्रेष्ठ पक्ष रखना है, कैसे इस प्रक्रिया में आनन्द उड़ेलना है, कैसे आनन्द उठाना है? 

इस प्रक्रिया में जो तत्व प्रारम्भ से लेखन के साथ जुड़ा रहता है और जिसके आधार पर लेखन समझना श्रेयस्कर है, न्यायोचित है, तो वह है लेखकीय मनःस्थिति।

16.11.11

मल्टीटास्किंग

मल्टीटास्किंग एक अंग्रेजी शब्द है जिसका अर्थ है, एक समय में कई कार्य करना। इस शब्द का आधुनिक प्रयोग मोबाइलों की क्षमता आँकने के लिये होता रहा है, अर्थ यह कि एक समय में अधिक कार्य करने वाला मोबाइल अधिक शक्तिशाली। गाना भी चलता हो, ईमेल भी स्वतः आ रहा हो, मैसेज का उत्तर भी लिखा जा सके, और हाँ, फोन आये तो बात भी कर लें, वह भी सब एक ही समय में। कान में ठुसे ईयरफोन, कीबोर्ड पर लयबद्ध नाचती उँगलियाँ, छोटी सी स्क्रीन पर उत्सुकता से निहारती आँखें, एक समय में सब कुछ कर लेने को सयत्न जुटे लोगों के दृश्य आपको अवश्य प्रभावित करते होंगे। आपको भी लगता होगा कि काश हम भी ऐसा कुछ कर पाते, काश हम भी डिजिटल सुपरमैन बन पाते।

ईश्वर ने आपको ५ कर्मेन्द्रियाँ व ५ ज्ञानेन्द्रियाँ देकर मल्टीटास्किंग का आधार तो दे ही दिया है। पर यह तो उत्पाद के निर्माता से ही पूछना पड़ेगा कि दसों इन्द्रियों को एक साथ उपयोग में लाना है या अलग अलग समय में। एक समय में एक कर्मेन्द्रिय और एक ज्ञानेन्द्रिय तो कार्य कर सकती हैं पर दो कर्मेन्द्रिय या दो ज्ञानेन्द्रिय को सम्हालना कठिन हो जाता है। दस इन्द्रियों के साथ एक ही मन और एक ही बुद्धि प्रदान कर ईश्वर ने अपना मन्तव्य स्पष्ट कर दिया है।

खाना बनाते हुये गुनगनाना, रेडियो सुनते हुये पढ़ना आदि मल्टीटास्किंग के प्राथमिक उदाहरण हैं और बहुलता में पाये जाते हैं। जटिलता जैसे जैसे बढ़ती जाती है, मल्टीटास्किंग उतनी ही विरल होती जाती है। मोबाइल कम्पनियों को संभवतः पता ही न हो और वे हमारे लिये मल्टीटास्किंग के और सूक्ष्म तन्त्र बनाने में व्यस्त हों।

आप में से बहुत लोग यह कह सकते हैं कि मल्टीटास्किंग तो संभव ही नहीं है, समय व्यर्थ करने का उपक्रम। एक समय में तो एक ही काम होता है, ध्यान बटेगा तो कार्य की गुणवत्ता प्रभावित होगी या दुर्घटना घटेगी। एक समय में एक ही विषय पर ध्यान दिया जा सकता है। मैं तो आपकी बात से सहमत हो भी जाऊँ पर उन युवाओं को आप कैसे समझायेंगे जो एक ही समय में ही सब कुछ कर डालना चाहते हैं, ऊर्जा की अधिकता और अधैर्य में उतराते युवाओं को। जेन के अनुयायी इसे एक समय में कई केन्द्र बिन्दुओं पर मन को एकाग्र करने जैसा मानते हैं, जिसके निष्कर्ष आपको भटका देने वाले होते हैं। हमारे बच्चे जब भी भोजन करते समय टीवी देखते हैं, दस मिनट का कार्य आधे घंटे में होता है, पता नहीं क्या अधिक चबाया जाता है, भोजन या कार्टून।

थोड़ी गहनता से विचार किया जाये तो, मल्टीटास्किंग का गुण अभ्यास से ही आता है। अभ्यास जब इतना हो जाये कि वह कार्य स्वतः ही होने लगे, बिना आपके ध्यान दिये हुये, तब आप उस कार्य को मल्टीटास्किंग के एक अवयव के रूप में ले सकते हैं। धीरे धीरे यह कलाकारी बढ़ती जाती है और आप एक समय में कई कार्य सम्हालने के योग्य हो जाते हैं, आपकी उत्पादकता बढ़ जाती है और सामने वाले का आश्चर्य।

क्या हमारे पास सच में समय की इतनी कमी है कि हमें मल्टीटास्किंग की आवश्यकता पड़े? क्या मल्टीटास्किंग में सच में समय बचता है? औरों के बारे में तो नहीं कह सकता पर मेरे पास इतना समय है कि एक समय में दो कार्य करने की आवश्यकता न पड़े। एक समय में एक कार्य, वह भी पूरे मनोयोग से, उसके बाद अगला कार्य। वहीं दूसरी ओर एक समय में एक कार्य को पूर्ण एकाग्रता से करने में हर बार समय बचता ही है। इस समय लैपटॉप पर लिख रहा हूँ तो वाई-फाई बन्द है, शेष प्रोग्राम बन्द हैं, एक समय में बस एक कार्य। मेरे लिये कम्प्यूटरीय या मोबाइलीय सहस्रबाहु किसी काम का नहीं।

आजकल कार्यालय आते समय एक तेलगू फिल्म का पोस्टर देखता हूँ, बड़ी भीड़ भी रहती है वहाँ, कोई बड़ा हीरो है। आप चित्र देख लें, मल्टीटास्किंग का बेजोड़ उदाहरण है यह, बदमाश की गर्दन पर पैर, खोपड़ी पर पिस्तौल तनी, मोबाइल से कहीं बातचीत और बीच सड़क पर ‘विनाशाय च दुष्कृताम्’ का मंचन।

क्या आप भी हैं मल्टीटास्किंग के हीरो?

12.11.11

सोने के पहले

बच्चों की नींद अधिक होती है, दोनों बच्चे मेरे सोने के पहले सो जाते हैं और मेरे उठने के बाद उठते हैं। जब बिटिया पूछती है कि आप सोते क्यों नहीं और इतनी मेहनत क्यों करते रहते हो? बस यही कहता हूँ कि बड़े होने पर नींद कम हो जाती है, इतनी सोने की आवश्यकता नहीं पड़ती है, आप लोगों को बढ़ना है, हम लोगों को जितना बढ़ना था, हम लोग बढ़ चुके हैं। बच्चों को तो नियत समय पर सुला देते हैं, कुछ ही मिनटों में नींद आ जाती है उनकी आँखों में, मुक्त भाव से सोते रहते हैं, सपनों में लहराते, मुस्कराते, विचारों से कोई बैर नहीं, विचारों से जूझना नहीं पड़ता हैं उन्हें।

पर मेरे लिये परिस्थितियाँ भिन्न हैं। घड़ी देखकर सोने की आदत धीरे धीरे जा रही है। नियत समय आते ही नींद स्वतः आ जाये, अब शरीर की वह स्थिति नहीं रह गयी है। बिना थकान यदि लेट जाता हूँ तो विचार लखेदने लगते हैं, शेष बची ऊर्जा जब इस प्रकार विचारों में बहने लगती है तो शरीर निढाल होकर निद्रा में समा जाता है। आयु अपने रंग दिखा रही है, नींद की मात्रा घटती जा रही है। जैसे नदी में जल कम होने से नदी का पाट सिकुड़ने लगने लगता है, नींद का कम होना जीवन प्रवाह के क्षीण होने का संकेत है। अब विचारों की अनचाही उठापटक से बचने के लिये कितनी देर से सोने जाया जाये, किस गति से नींद कम होती जा रही है, न स्वयं को ज्ञात है, न समय बताने वाली घड़ी को।

जब समय की जगह थकान ही नींद का निर्धारण करना चाहती है तो वही सही। अपनी आदतें बदल रहा हूँ, अब बैठा बैठा कार्य करता रहता हूँ, जब थकान आँखों में चढ़ने लगती है तो उसे संकेत मानकर सोने चला जाता हूँ। जाते समय बस एक बार घड़ी अवश्य देखता हूँ, पुरानी आदत जो पड़ी है। पहले घड़ी से आज्ञा जैसी लेता था, अब उसे सूचित करता हूँ। हर रात घड़ी मुँह बना लेती है, तरह तरह का, रूठ जाती है, पर शरीर ने थकने का समय बदल दिया, मैं क्या करूँ?

क्या अब सोने के पहले विचारों ने आना बन्द कर दिया है? जब बिना थकान ही सोने का यत्न करता था, तब यह समस्या बनी रहती थी, कभी एक विचार पर नींद आती थी तो कभी दूसरे विचार पर। जब से थकान पर आधारित सोने का समय निश्चित किया है, सोने के पहले आने वाले विचार और गहरे होते जा रहे हैं। कुछ नियत विचारसूत्र आते हैं, बार बार। सारे अंगों के निष्क्रियता में उतरने के बाद लगता है कि आप कुछ हैं, इन सबसे अलग। कभी लगता है इतने बड़े विश्व में आपका होना न होना कोई महत्व नहीं रखता है, आप नींद में जा रहे हैं पर विश्व फिर भी क्रियारत है।

हर रात सोने के पहले लगता है कि शरीर का इस प्रकार निढाल होकर लुढ़क जाना, एक अन्तिम निष्कर्ष का संकेत भी है, पर उसके पहले पूर्णतया थक जाना आवश्यक है, जीवन को पूरा जीने के पश्चात ही। हमें पता ही नहीं चल पाता है और हम उतर जाते हैं नींद के अंध जगत में, जगती हुयी दुनिया से बहुत दूर। एक दिन यह नींद स्थायी हो जानी है, नियत समय पर सोने की आदत तो वैसे ही छोड़ चुके है। एक दिन जब शरीर थक जायेगा, सब छोड़कर चुपचाप सो जायेंगे, बस जाते जाते घड़ी को सूचित कर जायेंगे।

9.11.11

संदेश और कोलाहल

कभी किसी को भारी भीड़ में दूर खड़े अपने मित्र से कुछ कहते सुना है, अपना संदेश पहुँचाने के लिये बहुत ऊँचे स्वर में बोलना पड़ता है, बहुत अधिक ऊर्जा लगानी पड़ती है। वहीं रात के घुप्प अँधेरे में झींगुर तक के संवाद भी स्पष्ट सुनायी पड़ते हैं। रात में घर की शान्ति और भी गहरा जाती है जब सहसा बिजली चली जाती और सारे विद्युत उपकरण अपनी अपनी आवाज़ निकालना बन्द कर देते हैं। पार्श्व में न जाने कितना कोलाहल होता रहता है, हमें पता ही नहीं चलता है, न जाने कितने संदेश छिप जाते हैं इस कोलाहल में, हमें पता ही नहीं चलता है। जीवन के सभी क्षेत्रों में संदेश और कोलाहल को पृथक पृथक कर ग्रहण कर लेने की क्षमता हमारे विकास की गति निर्धारित करती है। 

किसी ब्लॉग में पोस्ट ही मूल संदेश है, शेष कोलाहल। यदि संवाद व संचार स्पष्ट रखना है तो, संदेश को पूरा महत्व देना होगा। जब आधे से अधिक वेबसाइट तरह तरह की अन्य सूचनाओं से भरी हो तो मूल संदेश छिप जाता है। शुद्ध पठन का आनन्द पाने के लिये एकाग्रता आवश्यक है और वेबसाइट पर उपस्थित अन्य सामग्री उस एकाग्रता में विघ्न डालती है। अच्छा तो यही है कि वेबसाइट का डिजाइन सरलतम हो, जो अपेक्षित हो, केवल वही रहे, शेष सब अन्त में रहे, पर बहुधा लोग अपने बारे में अधिक सूचना देने का लोभ संवरण नहीं कर पाते हैं। आप यह मान कर चलिये कि आप की वेबसाइट पर आने वाला पाठक केवल आपका लिखा पढ़ने आता है, न कि आपके बारे में या आपकी पुरानी पोस्टों को। यदि आपका लिखा रुचिकर लगता है तो ही पाठक आपके बारे में अन्य सूचनायें भी जानना चाहेगा और तब वेबसाइट के अन्त में जाना उसे खलेगा नहीं। अधिक सामग्री व फ्लैश अवयवों से भरी वेबसाइटें न केवल खुलने में अधिक समय लेती हैं वरन अधिक बैटरी भी खाती हैं। अतः आपके ब्लॉग पर पाठक की एकाग्रता बनाये रखने की दृष्टि से यह अत्यन्त आवश्यक है कि वेबसाइट का लेआउट व रूपरेखा सरलतम रखी जाये।

यह सिद्धान्त मैं अपने ब्लॉग पर तो लगा सकता हूँ पर औरों पर नहीं। अच्छी लगने वाली पर कोलाहल से भरी ऐसी वेबसाइटों पर एक नयी विधि का प्रयोग करता हूँ, रीडर का प्रयोग। सफारी ब्राउज़र में उपलब्ध इस सुविधा में पठनीय सामग्री स्वतः ही एक पुस्तक के पृष्ठ के रूप में आ जाती है, बिना किसी अन्य सामग्री के। इस तरह पढ़ने में न केवल समय बचता है वरन एकाग्रता भी बनी रहती है। सफारी के मोबाइल संस्करण में भी यह सुविधा उपस्थित होने से वही अनुभव आईफोन में भी बना रहता है। गूगल क्रोम में इस तरह के दो प्रोग्राम हैं पर वाह्य एक्सटेंशन होने के कारण उनमें समय अधिक लगता है।

किसी वेबसाइट पर सूचना का प्रस्तुतीकरण किस प्रकार किया जाये जिससे कि अधिकाधिक लोगों को उसका लाभ सरलता से मिल पाये, यह एक सतत शोध का विषय है। विज्ञापनों के बारे में प्रयुक्त सिद्धान्त इसमें और भी गहनता से लागू होते हैं, कारण सूचना पाने की प्रक्रिया का बहुत कुछ पाठक पर निर्भर होना है। यदि प्रस्तुतीकरण स्तरीय होगा तो पाठक उस वेबसाइट पर और रुकेगा। अधिक सूचना होने पर उसे व्यवस्थित करना भी एक बड़ा कार्य हो जाता है। कितनी सूचियाँ हों, कितने पृष्ठ हों, वे किस क्रम में व्यवस्थित हों और उनका आपस में क्या सम्बन्ध हो, ये सब इस बात को ध्यान में रखकर निश्चित होते हैं कि पाठक का श्रम न्यूनतम हो और उसकी सहायता अधिकतम। उत्पाद या कम्पनी की वेबसाइट तो थोड़ी जटिल तो हो भी सकती है पर ब्लॉग भी उतना जटिल बनाया जाये, इस पर सहमत होना कठिन है।

अन्य सूचनाओं के कोलाहल में संदेश की तीव्रता नष्ट हो जाने की संभावना बनी रहती है। यदि हम उल्टा चलें कि ब्लॉग व पोस्ट के शीर्षक के अतिरिक्त और क्या हो पोस्ट में, संभवतः परिचय, सदस्यता की विधि, पाठकगण और पुरानी पोस्टें। ब्लॉग में इनके अतिरिक्त कुछ भी होना कोलाहल की श्रेणी में आता है, प्रमुख संदेश को निष्प्रभावी बनाता हुआ। बड़े बड़े चित्र देखने में सबको अच्छे लग सकते हैं, प्राकृतिक दृश्य, अपना जीवन कथ्य, स्वयं की दर्जनों फ़ोटो, पुस्तकों की सूची और समाचार पत्रों में छपी कतरनें, ये सब निसंदेह व्यक्तित्व और अभिरुचियों के बारे एक निश्चयात्मक संदेश भेजते हैं, पर उनकी उपस्थिति प्रमुख संदेश को धुँधला कर देती है।

गूगल रीडर की फीड व सफारी की रीडर सुविधा इसी कोलाहल को प्रमुख संदेश से हटाकर, प्रस्तुत करने का कार्य करते हैं। यह भी एक अकाट्य तथ्य है कि गूगल महाराज की आय मूलतः विज्ञापनों के माध्यम से होती है और ब्लॉग के माध्यम से आय करने वालों के लिये विज्ञापनों का आधार लेना आवश्यक हो जाता है, पर विज्ञापन-जन्य कोलाहल प्रमुख संदेश को निस्तेज कर देते हैं।

मेरा विज्ञापनों से कोई बैर नहीं है, पर बिना विज्ञापनों की होर्डिंग का नगर, बिना विज्ञापनों का समाचार पत्र, बिना विज्ञापनों का टीवी कार्यक्रम और बिना विज्ञापनों का ब्लॉग न केवल अभिव्यक्ति के प्रभावी माध्यम होंगे अपितु नैसर्गिक और प्राकृतिक संप्रेषणीयता से परिपूर्ण भी होंगे।

आईये, अभिव्यक्ति का भी सरलीकरण कर लें, संदेश रहे, कोलाहल नहीं।

5.11.11

ब्राउज़र

ब्राउज़र का प्रयोग आप सब करते हैं, यही एक सम्पर्क सूत्र है इण्टरनेट से जुड़ने का और ब्लॉग आदि पढ़ने का। कई प्रचलित ब्राउज़र हैं, क्रोम, फायरफॉक्स, सफारी, इण्टरनेट एक्सप्लोरर आदि। सबके अपने सुविधाजनक बिन्दु हैं, पुरानी जान पहचान है, विशेष क्षमतायें हैं। इसके पहले कि उनके गुणों की चर्चा करूँ, तथ्य जान लेते हैं कि किसका कितना भाग है?

लगभग २ अरब इण्टरनेट उपयोगकर्ता हैं, ९४% डेक्सटॉप(या लैपटॉप) पर, ६% टैबलेट(या मोबाइल) पर। डेक्सटॉप पर ९२% अधिकार विण्डो का व शेष मैक का है। टैबलेट पर ६२% अधिकार एप्पल का व शेष एनड्रायड आदि का है। टैबलेट में ब्राउज़र का हिसाब सीधा है, जिसका टैबलेट या मोबाइल, उसका ही ब्राउज़र, बस ओपेरा को मोबाइल धारकों के द्वारा अधिक उपयोग में लाया जाता है। डेक्सटॉप पर ब्राउज़र का हिस्सा बटा हुआ है, मुख्यतः चार के बीच, क्रोम, फायरफॉक्स, सफारी और इण्टरनेट एक्सप्लोरर के बीच।

२००४ तक ब्राउज़र पर लगभग इण्टरनेट एक्सप्लोरर का एकाधिकार था। २००४ से लेकर २००८ तक फायरफॉक्स ने वह हिस्सा आधा आधा कर दिया। २००८ में गूगल ने क्रोम उतारा और २०११ तक इन तीनों का हिस्सा लगभग एक तिहाई हो गया है। मैक ओएस में मुख्यतः सफारी और थोड़ा बहुत क्रोम भी प्रचलित है। जहाँ प्रतिस्पर्धा से सबसे अधिक लाभ उपयोगकर्ता को हुआ है, वहीं ब्राउज़र उतारने वालों के लिये यह इण्टरनेट के माध्यम से बढ़ते व्यापार पर प्रभुत्व स्थापित करने का उपक्रम है। पिछले दो वर्षों में जितना कार्य ब्राउज़र को उत्कृष्ट बनाने में हुआ है, उतना पहले कभी नहीं हुआ। सबने ही एक के बाद एक ताबड़तोड़ संस्करण निकाले हैं, अपने अपने ब्राउज़रों के।

कौन सा ब्राउज़र उपयोग में लाना है, इसके लिये कोई स्थिर मानक नहीं हैं। जिसको जो सुविधाजनक लगता है, उस पर ही कार्य करता है, धीरे धीरे अभ्यस्त हो जाता है और अन्ततः उसी में रम जाता है। या कहें कि सबका स्तर एक सा ही है अतः किसी को भी उपयोग में ले आयें, अन्तर नहीं पड़ता है। फिर भी तीन मानक कहे जा सकते हैं, गति, सरलता व सुविधा, पर उन पक्षों के साथ कुछ हानि भी जुड़ी हैं। यदि गति अधिक होगी तो वह अधिक बैटरी खायेगा, सुविधा अधिक होगी तो अघिक रैम लगेगी और खुलने में देर भी लगेगी, सरल अधिक होगा तो हर सुविधा स्वयं ही जुटानी पड़ेगी।

जिस दिन से क्रोम प्रारम्भ हुआ है, उसी दिन से उस पर टिके हैं, कारण उसका सरल लेआउट, खोज और पता टाइप करने के लिये एक ही विण्डो, बुकमार्क का किसी अन्य मशीन में स्वयं ही पहुँच जाना, उपयोगी एक्सटेंशन और साथ ही साथ उसका अधिकतम तेज होना है। क्रोम के कैनरी संस्करण का भी उपयोग किया जिसमें आने वाले संस्करणों के बारे में प्रयोग भी चलते रहते हैं। मात्र दो अवसरों पर क्रोम से दुखी हो जाता था, पहला अधिक टैब होने पर उसका क्रैश कर जाना और दूसरा किसी भी वेब साइट को सीधे वननोट में भेजने की सुविधा न होना। बीच बीच में इण्टरनेट एक्सप्लोरर का नये संस्करण व फॉयरफाक्स पर कार्य किया पर दोनों ही उपयोग में बड़े भारी लगे। कुछ दिन घूम फिर कर अन्ततः क्रोम पर आना पड़ा।

जहाँ विण्डो में क्रोम का कोई विकल्प नहीं, मैक में परिस्थितियाँ भिन्न हैं। सफारी का प्रदर्शन जहाँ विण्डो में चौथे स्थान पर रहता है, मैक में उसे अपने घर में होने का एक बड़ा लाभ रहता है। मैक ओएस के अनुसार सफारी की संरचना की गयी है। क्रोम और सफारी दोनों में ही काम किया, बैटरी की उपलब्धता लगभग एक घंटे अधिक रहती है सफारी में। थोड़ा अध्ययन करने पर पता लगा कि कारण मुख्यतः ३ हैं। पहला तो क्रोम में प्रत्येक टैब एक अलग प्रोसेस की तरह चलता, यदि आपके १० टैब खुले हैं तो ११ प्रोसेस, एक अतिरिक्त क्रोम के लिये स्वयं, और हर प्रोसेस ऊर्जा खाता है। सफारी में कितने ही टैब खुले हों, केवल २ प्रोसेस ही चलते हैं, यद्यपि दूसरे प्रोसेस में रैम अधिक लगती है पर बैटरी बची रहती है। दूसरा कारण मैक ओएस के सुदृढ़ पक्ष के कारण है, मैक में यदि कोई प्रोसेस उपयोग में नहीं आता है तो वह तुरन्त सुप्तावस्था में चला जाता है। सफारी के उपयोग में न आ रहे टैब अवसर पाते ही सो जाते हैं, पर क्रोम की संरचना सुप्तावस्था में जाने के लिये नहीं बनी होने के कारण वह जगता रहता है और ऊर्जा पीता रहता है।

तीसरा कारण ग्राफिक्स व फ्लैश से सम्बन्धित है। एप्पल फ्लैश को छोड़ एचटीएमएल५ आधारित वीडियो लाने का प्रबल पक्षधर है, एप्पल का कहना है कि फ्लैश बहुत अधिक ऊर्जा खाता है और इस कारण से अन्य प्रक्रियाओं को अस्थिर कर देता है। एडोब व एप्पल का इस तथ्य को लेकर बौद्धिक युद्ध छिड़ा हुआ है। एचटीएमएल५ फ्लैश की तुलना में बहुत कम ऊर्जा खाता है। क्रोम में फ्लैश पहले से ही विद्यमान है और मैक में फ्लैश सपोर्ट न होने पर भी निर्बाध चलता है। सफारी में फ्लैश नहीं है, पर एक एक्सटेंशन के माध्यम से सारी फ्लैश वीडियो एचटीएमएल५ में परिवर्तित होकर आ जाते हैं, वह भी तब जब आदेश होते हैं। क्रोम प्रारम्भ करते ही उसकी जीपीयू(ग्राफिक्स प्रोसेसर यूनिट) स्वतः चल जाती हो, फ्लैश चले तो बहुत अधिक और न भी चले तब भी कुछ न कुछ ऊर्जा खाती रहती है।

मैक में अब हम वापस सफारी में आ गये हैं, क्रोम जितना ही तेज है, सरल भी है, पठनीय संदेश को बिना कोलाहल दिखाता है, कहीं अधिक स्थायी है और अथाह ऊर्जा बचाता है। क्यों न हो, देश की ऊर्जा जो बचानी है।

@ विवेक रस्तोगी जी - विण्डो में IE9 सबसे कम ऊर्जा खाता है पर सबसे तेज अभी भी क्रोम है। सफारी का प्रदर्शन मैक में ही सर्वोत्तम है।

2.11.11

विदाई संदेश

आदरणीय महाप्रबंधक महोदय, मैडम, उपस्थित महानुभावों और साथियों

आज सुबह जब रेलवे क्लब के सचिव श्री हरिबाबू ने मुझे आपके विदाई समारोह में बोलने का आग्रह किया तो मन में एक अवरोध सा था। प्रमुखतः दो कारण होते हैं इस अवरोध के, या तो सेवानिवृत्त हो रहे व्यक्ति के पास उल्लेखनीय गुण ही न हों, या व्यक्तिगत कारण हों जिनके कारण आप उनके बारे में कुछ कहना न चाह रहे हों। मेरा कारण तीसरा था। आपके लिये मन में जितना आदर निहित है, उसे शब्दों में पिघला पाना मेरी सामर्थ्य के बाहर था। कैसे उस आदर को वाक्यों में संप्रेषित कर पाऊँगा, यह दुविधा थी मेरी। भाव शब्दों में ढल कहीं अपनी महक न खो दे, यह भय था मेरा। फिर भी मैंने बोलने का निश्चय किया, क्योंकि आज भी यदि मैं नहीं बोलता तो यह अन्तिम अवसर भी खो देता और वे सारे भाव मेरे हृदय और आँखों को सदा ही नम करते रहते, अप्रेषित और रुद्ध।

आने वाले कई वक्ता आपकी प्रशासनिक उपलब्धियों पर निश्चय ही प्रकाश डालेंगे, मैं केवल उन बातों की चर्चा करूँगा जिन्होंने मुझे व्यक्तिगत रूप से प्रभावित किया है।

एक ही सेवा में होने के कारण, अपने प्रशिक्षण के समय में, मैं आपसे पहली बार १९९६ में मिला था, उस समय आप पश्चिम रेलवे में मुख्य वाणिज्य प्रबन्धक थे। जिस तन्मयता से आपने हमारी समस्या सुनी और जिस सहज भाव से उसका समाधान किया, वह मेरे लिये प्रबन्धन की प्रथम शिक्षा थी। उसके पश्चात कई बार आपसे भेंट हुयी, पर दक्षिण-पश्चिम रेलवे में पिछले २ वर्षों के कार्यकाल में आपसे ३ बातें सीखी हैं। कहते हैं कि प्रसन्नता बाटने से बढ़ती है। मैं आपसे अपनी वह प्रसन्नता बाटना चाहता हूँ जो मुझे इन ३ शिक्षाओं के अनुकरण से मिली है।

पहला, आपके चेहरे का समत्व व स्मित मुस्कान किसी भी आगन्तुक को सहज कर देती है, अतुलनीय गुण है किसी के हृदय को टटोल लेने का। आगन्तुक का तनाव, पद का भय, बीच में आने का साहस भी नहीं कर पाता है। पूरा अस्तित्व और संवाद शान्तिमय सागर में उतराने लगता है। लोग कह सकते हैं कि यह एक व्यक्तिगत गुण है, प्रशासनिक नहीं, पर अपने कनिष्ठों को सहजता की अवस्था में ले आना, उन्हें उनकी सर्वोत्तम क्षमता के लिये प्रेरित करने की दिशा में पहला पग है। केवल अभागे और मूर्ख ही इस गुण का लाभ नहीं ले पाते हैं।

दूसरा, आपकी उपस्थिति पूरी टीम में ऊर्जा का संचार करती है। मुझे स्पष्ट रूप से याद है, दो वर्ष पूर्व जब मुझे वाणिज्य प्रबन्धक के रूप में मन्त्रीजी के द्वारा होने वाले एक साथ कई उद्घाटनों की व्यवस्था सम्हालनी थी। मंडल रेल प्रबन्धक किसी कार्यवश बाहर थे। कार्यक्रमों की अधिकता और कई स्थानों पर समन्वय करने के कारण गड़बड़ी की पूरी आशंका बनी हुयी थी। पर आपके वहाँ आ जाने से और अन्त तक बने रहने से सारे कार्यक्रम सुन्दरतम तरीके से सम्पन्न हो गये। इसी तरह न जाने कितने अन्य कार्यक्रमों में भी आपकी उपस्थिति हम सबकी ऊर्जा बढ़ाती रही, हम लोग सदा ही अपने चारों ओर एक अव्यक्त सुरक्षा कवच का अनुभव करते रहे।

तीसरा, यद्यपि नेतृत्व का अपने सारे कर्मचारियों से नियमित सम्पर्क न हो पर वह नेतृत्वशैली संस्था के हर कार्य में परिलक्षित होती है, ऊपर से नीचे सभी परतों पर। मैंने रेलवे सेवा में १५ वर्ष पूरे कर लिये हैं और २१ वर्ष और सेवारत रहना है। किसी का भी सेवाकाल एक बड़ी दौड़ के जैसा होता है और जिस प्रकार किसी भी बड़ी दौड़ में गति और स्टैमना का संतुलन बिठाना पड़ता है उसी प्रकार एक लम्बे सेवाकाल में कार्य, स्वास्थ्य और परिवार के बीच भी एक संतुलन आवश्यक होता है। यह संतुलन तब ही आ सकता है जब सब अपना अपना कार्य समझें और करें। किसी और के कार्य करने की व स्वयं के कार्यों को टालने की प्रवृत्ति न केवल आपका तनाव बढ़ाती है वरन औरों के विकास का मार्ग भी अवरुद्ध करती है। सब अपने अपने वेतन का औचित्य व सार्थकता सिद्ध करें, तभी संस्था को सामूहिक गति व दिशा मिल सकती है। आपकी नेतृत्वशैली में इस तथ्य की छाप स्पष्ट रूप से अंकित थी। आपने सबको इस बात की पूरी स्वतन्त्रता भी दी कि वे अपना कार्य अपनी पूर्ण क्षमता व नयेपन से कर सकें और सतत यह भी निश्चित किया कोई और उनके कार्य में दखल न दे पाये। प्रबन्धन का यह मूल तत्व नेतृत्व का स्थायी गुण है जो आपने बड़ी सहजता व सरलता से निष्पादित किया।

उपरोक्त तीन गुण, सामने वाले को तनावमुक्त कर देना, टीम में ऊर्जा का संचार करना और सबका कार्य उसके पदानुसार करते रहने देना, इन तीनों को मैं अपने जीवन में उतारने का प्रयास कर रहा हूँ और बड़े निश्चयात्मक रूप से कह सकता हूँ कि इसके लिये न केवल आप जैसी स्थिर और शान्तिमय बुद्धि चाहिये वरन आप जैसा ही एक हीरे का हृदय भी चाहिये।

ईश्वर करे, आप जहाँ भी रहें, हीरे की तरह चमचमाते रहें। आपका अनुसरण कर मैं भी हीर-कणिका बनने का प्रयास कर रहा हूँ, आवश्यक भी है क्योंकि मेरी श्रीमतीजी बहुधा हीरे की माँग करती रहती हैं।

मैं सच में बहुत बड़ा अन्याय करूँगा यदि आप जैसे विरल हीरे को तराशने में मैडम द्वारा प्रदत्त योगदान का उल्लेख नहीं करूँगा।

अन्ततः मेरा भय फिर भी सिद्ध हुआ, हृदय भरा सारा आदर शब्दों में नहीं पिघल पाया। वे कोमल मृदुल भाव मेरे हृदय और आँखों को सदा ही नम करते रहेंगे, अप्रेषित और रुद्ध।

धन्यवाद

(यह विदाई संदेश मैंने अपने महाप्रबन्धक श्री कुलदीप चतुर्वेदी के लिये पढ़ा था। श्री चतुर्वेदी पिछले माह सेवानिवृत्त हुये हैं और अभी कोलकता में उप चेयरमैन रेलवे दावा प्राधिकरण में पदस्थ हैं। उन्ही पर देवेन्द्रजी के भावमयी व काव्यमयी उद्गारों को भी रख रहा हूँ।)

कुलदीप हो 

गरिमामयी,सौम्यतामयी
करुणामयी व्यक्तित्व हो
नैनृत्य रेल कुटुम्ब के,
ज्योतिमय देवदीप हो
कुलदीप हो।

प्रदीप्त भाल देह विशाल
दिव्य प्रभाष गजमय चाल
मधुर संवाद करते निहाल
शुभ कांतिमय स्नेह हो,
कुलदीप हो।

प्रभातरवि सम कांति मय
शशि पूर्णिमा सम शांति मय
व्यवहार अमृत प्रेममय,
ज्ञानमय तुम कल्पनामय हो
कुलदीप हो।

29.10.11

दीवाली और घर की सफाई

दीवाली के पहले की एक परम्परा होती है, घर की साफ़ सफाई। घर में जितना भी पुराना सामान होता है, वह या तो बाँट दिया जाता है या फेंक दिया जाता है। वर्षा ऋतु की उमस और सीलन घर की दीवारों और कपड़ों में भी घुस जाती है। उन्हें बाहर निकालकर पुनः व्यवस्थित कर लेना स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बहुत आवश्यक है। जाड़े के आरम्भ में एक बार रजाई-गद्दों और ऊनी कपड़ों को धूप दिखा लेने से जाड़ों से दो दो हाथ करने का संबल भी मिल जाता है। पुराने कपड़ों को छोड़ने का सीधा सा अर्थ है नयों को सिलवाना। नयेपन का प्रतीक है, दीवाली का आगमन।

बचपन से यही क्रम हर बार देखा। इस प्रक्रिया के बाद, घर के वातावरण में आया हल्कापन सदा ही अगली बार के उत्साह का कारण बना रहा। विवाहोपरान्त नयी गृहस्थी में भी वार्षिक नवीनीकरण से ऊर्जा मिलती रही। अभी तक तो सबका सामान व्यवस्थित रखने में स्वयं ही जूझना पड़ता था, सामान मुख्यतः व्यक्तिगत और सबके साझा उपयोग का, साथ में बच्चों का भी थोड़ा बहुत। श्रीमतीजी का सामान व्यवस्थित करने की न तो क्षमता है और न ही अनुमति। इस बार हमने बच्चों को भी इस प्रक्रिया में सक्रिय भाग लेने को कहा, उन्हे अपने सामान के बारे में निर्णय लेने को भी कहा। बच्चों को अपने सामान की उपयोगिता समझने व उसे सहेजने का गुण विकसित होते देखना किसी भी पिता के लिये गर्व का विषय है।

दोनों बच्चों के अपने अलग कमरे हैं। दोनों को बस इतना कहा गया कि कोई भी वस्तु, कपड़ा या खिलौना, जो आप उपयोग में नहीं लाते हैं, आप उन्हें अपने कमरे से हटा दें, वह इकठ्ठा कर घर में काम करने वालों को बाँट दिया जायेगा। उसके पहले उदाहरण स्वरूप मैंने अपना व्यक्तिगत सामान लगभग २५% कम करते हुये शेष सबको एक अल्मारी में समेट दिया। साझा उपयोग के सामान, फर्नीचर व पुराने पड़ गये इलेक्ट्रॉनिक सामानों को निर्ममता से दैनिक उपयोग से हटा दिया। अपने कमरे में जमीन पर ही बिस्तर बिछा कर सोने से एक बेड को विश्राम मिल गया। ऊर्जा सोखने वाले डेस्कटॉप को हटा वहाँ अपना पुराना लैपटॉप रख दिया। एक अतिरिक्त सोफे को भी ड्रॉइंग-कक्ष से विदा दे गैराज भेज दिया गया।

अपने कक्ष व ड्राइंग-कक्ष में इस प्रकार व्यवस्थित किये न्यूनतम सामान से वातावरण में जो ऊर्जा व हल्कापन उत्पन्न हुआ, उसका प्रभाव बच्चों पर पड़ना स्वाभाविक था। उन्हें यह लगा कि कम से कम सामान में रहने का आनन्द अधिकतम है। अधिक खिलौनों का मोह निश्चय ही उनपर बना रहता यदि न्यूनतम सामान का आनन्द उन्होने न देखा होता। आवश्यक दिशानिर्देश देकर हम तो कार्यालय चले गये, लौटकर जो दृश्य हमने देखा, उसे देखकर सारा अस्तित्व गदगद हो उठा।

एक दिन के अन्दर ही दोनों के कमरे अनावश्यक व अतिरिक्त सामानों से मुक्ति पा चुके थे। पुराने के मोह और भविष्य की चिन्ता से कहीं दूर वर्तमान में जीने का संदेश ऊर्जस्वित कर रहे थे दोनों कमरे। न्यूनतम में रह लेने का उनका विश्वास, उनके स्वयं निर्णय लेने के विश्वास के साथ बैठा निश्चिन्त दिख रहा था। उनके द्वारा त्यक्त सामानों से उठाकर कुछ सामान मुझे स्वयं उनके कमरे में वापस रखना पड़ा।

पुराने सामानों को सहेज कर रख लेने का मोह, संभवतः वह आगे कभी काम आ जाये, या उससे कोई याद जुड़ी हो, साथ ही भविष्य के लिये सुदृढ़ आधार बनाने की दिशा में घर में ठूँस लिये गये सामान, दोनों के बीच हमारा वर्तमान निरीह सा खड़ा रहता है। वर्तमान का सुख अटका रहता है, अस्तित्व के इसी भारीपन में। मेरे लिये यही क्या कम है कि बच्चों में यह समझ विकसित हो रही है कि उनके लिये क्या आवश्यक है, क्या नहीं? हल्केपन के आनन्द के सामने त्यक्त व अनुपयोगी सामानों का क्या मूल्य, संभवतः उन्हें अपना उचित स्वामी मिल ही जायेगा।

घर आयी इस नवप्राप्त ऊर्जा में दीवाली के दियों का प्रकाश जगमगा उठा है। हर वर्ष के क्रम को इस वर्ष एक विशेष सम्मान मिला है, मेरे घर में दीवाली इस बार सफल हुयी है। बस एक कमरा अभी भी भण्डारवत है, श्रीमतीजी का, पर हम तीनों का दबाव उस पर बना रहेगा, अगली दीवाली तक।

26.10.11

बैटरी

बैटरी का अधिक व्यय एक प्रमुख कारण रहा मैक में विण्डो न लोड करने का, बात २५% अपव्यय की हो तो संभवतः आप भी वही निर्णय लेंगे। यह निर्णय न केवल मैक सीखने के लिये विवश कर गया वरन बैटरी की कार्यप्रणाली सम्बन्धी उत्सुकता को भी बढ़ा गया। ऐसा भी क्या कारण है कि दो भिन्न संरचनाओं में बैटरी का व्यय इतना अधिक हो जाता है?

एक मित्र ने बहुत पहले एक सलाह दी थी कि बैटरी की पूरी कार्यक्षमता के दोहन के लिये बैटरी-चक्र १००% पर रखिये। कहने का आशय यह कि पूरी चार्ज बैटरी को पूरी डिस्चार्ज होने के पहले चार्ज न करें। इससे बैटरी न केवल एक चक्र में अधिक चलती है वरन उसका जीवनकाल भी बढ़ जाता है। संभवतः इसका कारण हर बैटरी की डिजाइन में नियत चार्जिंग-चक्रों का होना हो। अभी तक यथासंभव इस सलाह को माना है और परिणाम भी आशानुरूप रहे हैं। इसी सलाह पर पिछले ३० दिनों से अपनी मैकबुक एयर को भी कसे हुये हूँ और इसी कारण ५ घंटे की घोषित क्षमता की तुलना में ७ घंटे की बैटरी की उपलब्धता बनी हुयी है।

मेरी मैकबुक एयर में ३५ वॉट-ऑवर की बैटरी लगी है, चलती है ६ घंटे, अर्थात लगभग ६ वॉट प्रतिघंटा का व्यय। पुराने लैपटॉप तोशीबा में ९०  वॉट-ऑवर की बैटरी थी, चलती थी ५ घंटे, अर्थात १८ वॉट प्रतिघंटा का व्यय। डेक्सटॉप में यही व्यय ९० वॉट प्रतिघंटा व मोबाइल में १ वॉट प्रतिघंटा के आसपास रहता है। यदि ईमेल देखने व कमेन्ट मॉडरेट करने में आप अपने डेक्सटॉप के स्थान पर मोबाइल का प्रयोग करते हैं तो आप न केवल अपना समय बचा रहे हैं वरन बिजली की महाबचत भी कर रहे हैं। अपने ब्लैकबेरी पर यथासंभव कार्य कर मैं अपने हिस्से को कार्बन क्रेडिट हथिया लेता हूँ। लेखन, पठन व ब्लॉग संबंधी कार्य मोबाइल पर असहज हैं अतः उसके लिये लैपटॉप ही उपयोग में लाता हूँ, डेक्सटॉप का उपयोग पिछले ५ वर्षों से नहीं किया है। जहाँ एक ओर बड़ी स्क्रीन, चमकदार स्क्रीन, वीडियो और ऑडियो कार्यक्रम, वीडियो-गेम आदि ऊर्जा-शोषक हैं वहीं दूसरी ओर लेखन, ब्लॉग, पठन आदि ऊर्जा-संरक्षक हैं। यूपीएस तो डेक्सटॉप में प्रयुक्त ऊर्जा के बराबर की ऊर्जा व्यर्थ कर देता है, बैटरी उसकी तुलना में कहीं अधिक ऊर्जा-संरक्षण करती है।

मोबाइल, लैपटॉप व डेक्सटॉप का अन्तर तो समझ में आता है पर उसी कार्यप्रारूप के लिये विण्डो लैपटॉप पर मैकबुक एयर की तुलना में बैटरी का तीन गुना व्यय क्यों? जब दो दिनों में यह दूसरा प्रश्न मुँह बाये खड़ा हो गया तो उत्सुकता शान्त करने के लिये बैटरी की ऊर्जा के प्रवाह का अध्ययन आवश्यक हो गया। विण्डो लैपटॉप पर धौकनी जैसे गर्म हवा फेकते पंखों की व्यग्रता और मैकबुक एयर की शीतल काया के भेद का रहस्य इसी अध्ययन में छिपा था।

तेज गति के प्रॉसेसर अधिक ऊर्जा चूसते हैं वहीं कम गति के प्रॉसेसर आपका धैर्य। कार्यानुसार दोनों का संतुलन कर सामान्य कार्य के लिये आई-३ से ऊपर जाने की आवश्यकता नहीं है, भविष्य के लिये भी आई-५ युक्त मेरा मैकबुक एयर पर्याप्त है। एसएसडी हार्डड्राइव में परंपरागत घूमने वाली हार्डड्राइव की तुलना में नगण्य ऊर्जा लगती है। किसी भी फाइल ढूढ़ने में परंपरागत हार्डड्राइव को जहाँ अपनी चकरी रह रहकर घुमानी पड़ती है वहीं एसएसडी हार्डड्राइव में यह कार्य डिजिटल विधि से हो जाता है, यह मैकबुक एयर की तकनीक का उनन्त पक्ष है।

आपके लैपटॉप पर नेपथ्य में सैकड़ों प्रक्रियायें स्वतः चलती रहती हैं, संभवतः इस आशा में कि आप उनका उपयोग करेंगे। आपकी जानकारी में हों न हों, आपके उपयोग में आयें न आयें, पर ये प्रक्रियायें ऊर्जा बहाती रहती हैं। यदि ओएस इन पर ध्यान नहीं दे पाता है तो व्यर्थ ही आपकी बैटरी कम हो जायेगी। मैक ओएस में ऐसी प्रक्रियाओं को तुरन्त ही शान्त कर देने का अद्भुत समावेश है। ऐसे में बची उर्जा उन प्रक्रियाओं को पुनः प्रारम्भ करने में लगी ऊर्जा से बहुत अधिक है क्योंकि एसएसडी हार्डड्राइव में प्रक्रिया प्रारम्भ करने में नगण्य ऊर्जा लगती है।

मैक में विण्डो चलाने में व्यय अतिरिक्त ऊर्जा का कारण हार्डवेयर और ओएस के बीच के संबंधों में छिपा है। ये संबंध ड्राइवरों के द्वारा स्थापित होते हैं। हार्डवेयर और ओएस के बीच सामञ्जस्य बना रहने से ड्राइवरों को कम भागदौड़ करनी पड़ती है। मैक मशीन में विण्डो ठूसने से इन ड्राइवरों का कार्य व धमाचौकड़ी कई गुना बढ़ जाती है जो अन्ततः २५% अधिक ऊर्जा व्यय का कारण भी बनती है। 

कमरे में अंधकार है, स्क्रीन पर न्यूनतम चमक, बैकलिट कीबोर्ड का उपयोग, घर में शेष परिवार निद्रामय हैं, मैकबुक में शेष प्रक्रियायें भी सो रही हैं, बस जगे हैं, मैं, मेरी मैकबुक, बहते विचार, अधूरा आलेख, आपकी प्रतीक्षा और बैटरी। 

22.10.11

मैक या विण्डो - वैवाहिक परिप्रेक्ष्य

कहते हैं यदि व्यक्ति तुलना न करे तो समाज संतुष्ट हो जायेगा और चारों ओर प्रसन्नता बरसेगी। पड़ोसी के पास कुछ होने का सुख आपके लिये कुछ खोने सा हो जाता है। औरों का सौन्दर्य, धन, ऐश्वर्य आदि तुलना के सूत्रों से आपको भी प्रभावित करने लगते हैं। आप बचने का कितना प्रयास कर लें पर यह प्रवृत्ति आपकी प्रकृति का आवश्यक अंग है, बहुत सा ज्ञान हमारी तुलना कर लेने की क्षमता के कारण ही स्पष्ट होता है।

हमारे लिये मैकबुक एयर पर कार्य सीखना, पहली नज़र के प्यार के बाद आये वैवाहिक जीवन को निभाने जैसा था। प्रेम-विवाह को विजयोत्सव मान चुके युगल अपने वैवाहिक जीवन व मेरी स्थिति में बड़ी भारी समानता देख पा रहे होंगे। सम्बन्धों को निभाने और कम्प्यूटर से कुछ सार्थक निकाल पाने में लगी ऊर्जा के सामने प्रथम अह्लाद बहुधा वाष्पित हो जाता है। कितनी बार विण्डो की तरह कीबोर्ड दबा कर मैक से अपनी मंशा समझ पाने की आस लगाये रहे, विवाह में भी बहुधा ऐसा ही होता है। मैक सीखने की पूरी प्रक्रिया में हमें विण्डो ठीक वैसे ही याद आया जैसे किसी घोर विवाहित को विवाह के पहले के दिनों की स्वच्छन्दता याद आती है।

देखिये, तुलना मैक व विण्डो की करना चाह रहा था, वैवाहिक जीवन सरसराता हुआ बीच में घुस आया। तुलना में वही पक्ष उभरकर आते हैं जो बहुत अधिक लोगों को बहुत अधिक मात्रा में प्रभावित करते हैं। किसी बसी बसायी शान्तिमय स्थिरता को छोड़कर नये प्रयोग करने बैठ जाना, स्वच्छन्द जीवन छोड़ विवाह कर लेने जैसा ही लगता है।

जैसे वैवाहिक जीवन में कई बार लगता है कि काश पुराना, जाना पहचाना एकाकी जीवन वापस मिल पाता, मैक सीखते समय वैसा ही अनुभव विण्डो में लौट जाने के बारे में हो रहा था। अनिश्चित उज्जवल भविष्य की तुलना में परिचित भूतकाल अच्छा लगता है। निर्णय लिये जा चुके थे, उन्हे निभाना शेष था।

बीच का एक रास्ता दृष्टि में था, मैकबुक एयर में ही विण्डो चलाना। बहुत लोग ऐसा करते हैं, प्रचलन में तीन विधियाँ हैं, तीनों के अपने अलग सिद्धान्त हैं, अलग लाभ हैं, अलग सीमायें हैं। कृपया इनको वैवाहिक जीवन से जोड़कर मत देखियेगा। फिर भी आप नहीं मानते हैं और आपको बुद्धत्व प्राप्त हो जाता है तो उसका श्रेय मुझे मत दीजियेगा, मैं आने वाली पीढ़ियों के ताने सह न पाऊँगा।

पहला है, बूटकैम्प के माध्यम से मेमोरी विभक्त कर देना, एक में मैक चलेगा एक में विण्डो, पर एक समय में एक। एक कम्प्यूटर में दो ओएस, उनके अपने प्रोग्राम, एक उपयोग में तो एक निरर्थ। ठीक वैसे ही जैसे कुछ घरों में दो पृथक जीवन चलते हैं, दोनों अपने में स्वतन्त्र। जब जिसकी चल जाये, कभी किसी का पलड़ा भारी, कभी किसी का।

दूसरा है, वीएमवेयर(वर्चुअल मशीन) के माध्यम से, मैक में ही एक प्रोग्राम कई ओएस के वातावरण बना देता है, आप विण्डो सहित चाहें जितने ओएस चलायें उसपर। ठीक वैसे ही जैसे कोई रहे आपके घर में पर करे अपने मन की। ऐसे घरों में अपनी जीवनशैली से सर्वथा भिन्न जीवनशैलियों को जीने का स्वतन्त्रता रहती है।

तीसरा है, पैरेलल के माध्यम से विण्डो को मैक के स्वरूप में ढाल लिया जाता है और विण्डो के लिये एक समानान्तर डेक्सटॉप निर्मित हो जाता है। ठीक वैसे ही जैसे अपने पुराने स्वच्छन्द जीवन को नयी वैवाहिक परिस्थितियों के अनुसार ढाल लेना।

दो विचारधाराओं को एक दूसरे में ठूसने के प्रयास में जो होता है, भला कम्प्यूटर उससे कैसे अछूता रह सकता है। मैक में विण्डो चलाने की दो हानियाँ हैं, पहला लगभग २५जीबी हार्ड डिस्क का बेकार हो जाना और दूसरा २५% कम बैटरी का चलना। कारण स्पष्ट है, कम्प्यूटर में भी और वैवाहिक जीवन में भी, सहजीवन में विकल्पीय विचारधारायें संसाधन भी व्यर्थ करती हैं और ऊर्जा भी।

आप बताईये मैं क्या करूँ, पहली नज़र के प्यार के सारे नखरे सह लूँ और मैक सीखकर उसकी पूर्ण क्षमता से कार्य करूँ या फिर पुराने और जाने पहचाने विण्डो को मैक में ठूँस कर मैक की क्षमता २५% कम कर दूँ?

देखिये लेख भी खिंच गया, वैवाहिक जीवन की तरह।

19.10.11

आनन्द मनाओ हिन्दी री

पिछला एक माह परिवर्तन का माह रहा है मेरे लिये, स्वनिर्मित आवरणों से बाहर आकर कुछ नया स्वीकार करने का समय। स्थिरता की अकुलाहट परिवर्तन का संकेत है पर बिना चरम पर पहुँचे उस अकुलाहट में वह शक्ति नहीं होती जो परिवर्तन को स्थिर रख सके, अगली अकुलाहट तक। मन संतुष्ट नहीं रहता है, सदा ही परिवर्तनशील, सदा उसकी सुनेगे तो भटक जायेंगे, अकुलाहट तक तो रुकना होगा। विकल्प की उपस्थिति, उसकी आवश्यकता और उसे स्वयं में समाहित कर पाने की क्षमता परिवर्तन के संकेत हैं, यदि वे संकेत मिलने लगें तो आवरण हटा कर बाहर आया जा सकता है।

एक माह पहले मैक पर जाने के बाद से समय बड़ा गतिशील रहा है, पहले मेरे लिये, फिर एप्पल के लिये और अब हिन्दी के लिये। नये परिवेश को समझने के साथ साथ प्रशासनिक व साहित्यिक गतिशीलता बनाये रखना कहीं अधिक ऊर्जा माँगती है। आत्मीयों का प्रयाण, पहले हिमांशुजी, फिर स्टीव जॉब, मन को विचलित और दृष्टि को दार्शनिक रखने वाली घटनायें थीं। नये एप्पल आईफोन के साथ में आईओएस५ और आईक्लाउड का आगमन नयी संभावनाओं से पूर्ण था, पिछला सप्ताह उन संभावनाओं को खोजने और उस पर आधारित कार्यशैली की रूपरेखा बनाने में निकल गया।

ऐसा नहीं है कि एप्पल हर कार्य को सबसे पहले कर लेने हड़बड़ी में रहता हो, यद्यपि कई नयी तकनीकों व उत्पादों का श्रेय उसे जाता है। जिस बात के लिये उसे निश्चयात्मक श्रेय मिलना चाहिये, वह है उसकी अनुकरणीय गुणवत्ता और उत्पादों को सरलतम और गहनतम बना देने का विश्वास। मैकिन्टॉस, आईपॉड, आईफोन, आईपैड, मैकबुकएयर, सब के सब अपने क्षेत्रों के अनुकरणीय मानक हैं। आईओएस५ और आईक्लाउड के माध्यम से वही कार्य क्लॉउड कम्प्यूटिंग के क्षेत्र में भी किया गया है। आईओएस५ में अन्य तत्वों के अतिरिक्त आईक्लाउड ऐसा तत्व है जो क्लॉउड कम्प्यूटिंग के आगामी मानक तय करेगा।

क्लॉउड कम्प्यूटिंग अपनी सूचनाओं और प्रोग्रामों को इण्टरनेट पर रखने व वहीं से सम्पादित करने का नाम है। मूलतः दो लाभ हैं इसके, पहला तो आपकी सूचनायें सुरक्षित रहती हैं, इण्टरनेट पर जो कि आप कहीं से भी देख सकते हैं और साझा कर सकते हैं। दूसरा लाभ उन लोगों के लिये है जो मोबाइल और कम्प्यूटर, दोनों पर सहजता से कार्य करते हैं और उन्हें दोनों के ही बीच एक सततता की आवश्यकता होती है। कई स्थूल विधियाँ हैं, या तो आप याद रखें कि कहाँ पर क्या सहेजा है और उसे हर बार विभक्तता से प्रारम्भ करें, या आप अपना सारा कार्य बस इण्टरनेट पर ही निपटायें, या एक पेन ड्राइव के माध्यम से अपनी सूचनायें स्थानान्तरित करते रहें। उपरोक्त विधियाँ आपका कार्य तो कर देंगी पर अनावश्यक ऊर्जा भी निचोड़ लेंगी।

अब आईक्लाउड की सूक्ष्म प्रक्रिया देखिये, मैं अपने आईपॉड में एक अनुस्मारक लगाता हूँ, वाहन में, कार्यालय आते समय। कार्यालय आकर बैठकों में व्यस्त हो जाता हूँ, आकर लैपटॉप पर देखता हूँ, तो वही अनुस्मारक उपस्थित रहता है उसमें। सायं बैठकर बारिश में कविता की कुछ पंक्तियाँ लिखता हूँ लैपटॉप पर, अगली सुबह एयरपोर्ट जाते समय झमाझम होती बारिश में आधी पंक्तियों को पूरी करने की प्रेरणा मिलती है, आईपॉड पर स्वतः आ चुकी कविता पर लिखना प्रारम्भ कर देता हूँ। जितनी सूक्ष्मता से सततता बनी रहती है, उतनी ही विधि की गुणवत्ता होती है। प्रयोग कर के देखा, एक अनुस्मारक को मोबाइल से लैपटॉप पर पहुँचने में केवल १६ सेकण्ड लगे, अविश्वसनीय!

आईक्लाउड मेरे लिये संभवतः अर्धोपयोगी ही रहता यदि आईओएस५ में हिन्दी न आती। हिन्दी कीबोर्ड, अन्तर्निहित शब्दकोष और आईक्लाउड ने मेरी मैकबुक एयर और मेरे आईपॉड में न केवल प्रेरणात्मक ऊर्जा भर दी वरन उनको सृजनात्मकता से अन्तर्बद्ध कर दिया है। अब न कभी कोई विचार छूट पायेगा कहीं, कोई प्रयास न व्यर्थ जायेगा कहीं, बनी रहेगी उत्पादक सततता सभी अवयवों के बीच। आपने यदि अब तक अनुमान लगा लिया हो कि यह नया आईफोन खरीदने की बौद्धिक प्रस्तावना बनायी जा रही है, तो आप मेधा अब तक गतिशील है।

आईफोन की उमड़ती इच्छाओं के अब चाहें जो भी निष्कर्ष हों, पर हिन्दी लेखन के लिये निसन्देह एक उत्सवीय क्षण आया है, वह भी इतनी प्रतीक्षा के पश्चात, भरपूर प्रसन्न होने के लिये, मुदित हो मगन होने के लिये।

आनन्द मनाओ हिन्दी री..

15.10.11

मेरी बिटिया पढ़ा करो

माना तुमको गुड्डे गुड़िया पुस्तक से प्रिय लगते हैं,
माना अनुशासन के अक्षर अनमन दूर छिटकते हैं,
माना आवश्यक और प्यारी लगे सहेली की बातें,
माना मन में कुलबुल करती बकबक शब्दों की पातें,
पर पढ़ने के आग्रह सम्मुख, प्रश्न न कोई खड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।१। 

विद्यालय जाना बचपन का एक दुखद निष्कर्ष सही,
रट लेने की पाठन शैली लिये कोई आकर्ष नहीं,
उच्छृंखल मंगल में कैसे भाये सध सधकर चलना,
बाहर झमझम बारिश, सूखे शब्दों से जीवन छलना,
पर भविष्य को रखकर मन में, वर्तमान से लड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।२।

बालमना हो, बहुत खिलौने तुमको भी तो भाते हैं,
मन में दृढ़ हो जम जाते हैं, सर्वोपरि हो जाते हैं,
पढ़ने का आग्रह मेरा यदि, तो तुम राग वही छेड़ो,
केवल अपनी बातें मनवाने को दोष तुरत मढ़ दो, 
आज नहीं तो कल आयेंगे, हठ पर न तुम अड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।३।

नहीं अगर कुछ हृदय उतरता, झरझर आँसू बहते क्यों,
बस प्रयास कर लो जीभर के, ‘न होगा यह’ कहते क्यों,
देखो सब धीरे उतरेगा, प्रकृति नियम से वृक्ष बढ़े,
बीजरूप से महाकाय बन, नभ छूते हैं खड़े खड़े,
बस कॉपी में सुन्दर लेखन, हीरे मोती जड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।४।

शब्द शब्द से वाक्य बनेंगे, वाक्य तथ्य पहचानेंगे,
तथ्य संग यदि, निश्चय तब हम जग को अच्छा जानेंगे,
ज्ञान बढ़े, विज्ञान बढ़े, तब आधारों पर निर्णय हो,
दृष्टि वृहद, संचार सुहृद, तब क्षुब्ध विषादों का क्षय हो,
आनन्दों का आश्रय होगा, शब्दों से नित जुड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।५।

है अधिकार पूर्ण हम सब पर, घर में जो है तेरा है,
एक समस्या, आठ हाथ हैं, संरक्षा का घेरा है,
सबका बढ़ना सब पर निर्भर, यह विश्वास अडिग रखना,
संसाधन कम पड़ते रहते, मन का धैर्य नहीं तजना,
छोटे छोटे अधिकारों पर, भैया से मत लड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।६।

यही एक गुण भेंट करूँगा, और तुम्हें क्या दे सकता,
जितना संभव होगा, घर की जीवन नैया खे सकता,
एक सुखद बस दृश्य, खड़ी तुम दृढ़ हो अपने पैरों पर,
सुख दुख तो आयें जायेंगे, रहो संतुलित लहरों पर, 
निर्बन्धा हो, खुला विश्व-नभ, पंख लगा लो, उड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।७।

क्या बनना है, निर्भर तुम पर, स्वप्न तुम्हे चुन लाने हैं,
मन की अभिलाषा पर तुमको अपने कर्म चढ़ाने हैं,
साथ रहूँगा, साथ चलूँगा, पर निर्भरता मान्य नहीं,
राह कठिनतम आये, आये, तुम भी हो सामान्य नहीं,
तुम सब करने में सक्षम हो, स्वप्न हृदय का बड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।८।

है पितृत्व का बोध हृदय में, ध्यान तुम्हारा रखना है,
मिला दैव उपहार, पालना सृष्टि श्रेष्ठ संरचना है,
रीति यही मैं रीत रहूँ, लेकिन तू जिस घर भी जाये,
प्रेम हृदय में संचित जितना, उस घर जाकर बरसाये,
मेरे मन में, यह दृढ़निश्चय, नित-नित थोड़ा बड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।९।