न जाने कितनी बार आपको ऐसा लगा होगा कि कोई ऐसा ही गीत है जो बस आपके लिये लिखा गया है। उन्मत्त सुख के अवसरों पर, विदारणीय दुख की घड़ियों में, आपके द्वारा सुने जा रहे गीत आपसे बातें करने लगते हैं। गीतों में निहित मूल भाव, उनके कारण और प्रभाव आपसे पहले का परिचय रखते हुये से दिखते हैं।
मुझे कई गीत बहुत भाते हैं, जब भी सुनता हूँ, साथ में गाने लगता हूँ, बहुधा परिवेश भूल जाता हूँ। पता नहीं कि शब्द अच्छे लगते हैं या भाव या संगीत या स्वयं का गाना। कभी कभी जब विचार भटकाने लगते हैं अन्धे कूप में तो वहाँ इन्हीं गीतों की प्रतिध्वनियाँ सुनायी पड़ने लगती हैं, मैं पुनः गुनगुनाने लगता हूँ और बाहर निकल आता हूँ अपनी भँवरों से। जब गाना बन्द करता हूँ तब सब समझ जाते हैं कि अब बात की जा सकती है श्रीमानजी से।
साहित्य की पवित्रता भंग न होने देने वालों के लिये फिल्मी गीतों को साहित्य न मानना एक हठ हो सकता है, पर पता नहीं क्यों भावों का गहरापन आपको इन गीतों के सतरंगी स्वरूप को स्वीकार करने को बाध्य कर देगा। ऐसा लगने लगेगा कि बिना अनुभव की तीक्ष्णता के ऐसे उद्गार निकलना असम्भव है। कल्पना की राह जहाँ समाप्त हो जाती है, वहाँ से प्रारम्भ होता होगा इन गीतों के सृजन का क्रम, अनुभव की तीक्ष्णता में। आपके सामने कईयों ऐसे गीत आ चुके होंगे जिनको बार बार आप याद करते होंगे गुनगुना कर, हर बार वही विशुद्ध भाव।
गीतों में पूरा का पूरा साहित्य बसा है, कवियों ने लिखा है, आप उन्हें मान्यता प्राप्त कवि न माने, न सही। सूर का सौन्दर्य, तुलसी की संवेदना, निराला की फक्कड़ी, दिनकर का ओज, पन्त की सुकुमारता, महादेवी की पीड़ा, नागार्जुन की बेबाकी भले ही उनकी साहित्यिक साधना में न हो, भले ही उनकी प्रतिभा धनोपार्जन और जीविकोपार्जन में तिक्त रही हो, भले ही गीतों के सीमित स्वरूप ने उनके भावों की जलधार को रूद्ध कर दिया हो, पर जो भी उनकी लेखनी से बहा है भावों का नीर बहाने के लिये पर्याप्त है।
फिल्मों की अपनी साहित्यिक सीमायें हैं। गीत व कहानी लेखन फिल्म के अंग अवश्य हैं पर संप्रेषण के एक मात्र आधार नहीं। व्यावसायिक कारणों से जनसाधारण के लिये बनायी गयी फिल्मों में आप भले ही सान्ध्र साहित्यिक अनुभव न पा पायें, पर गीतों के रूप में कवि बहुधा ही सुधीजनों को जीवन दर्शन के गहरे पाठ सुनाते आये हैं। उससे अधिक की आस करना, माध्यम की व्यावसायिक उपयोगिता को सीमाओं से अधिक खीचने जैसा हो संभवतः।
कभी मन में टीस तो अवश्य उठती होगी कि इतने सशक्त माध्यम का प्रयोग साहित्य संवर्धन के लिये उतना नहीं हो पा रहा है जितना मनोरंजन के लिये। हिन्दी की कई कविताओं को फिल्मों ने अपनाया है पर जिस स्तर के प्रयोग लोकसंगीत के लेकर हुये हैं फिल्मों में, हिन्दी की कवितायें उस अपनत्व से अछूती रही हैं अब तक। संभव है कि हिन्दी शब्दों की क्लिष्टता बाधक हो सकती है, पर साहित्य को जनप्रचार में भी अपनी धार बचा के तो रखनी ही है। संभव है कि फिल्मकारों को लगे कि यह गीत सब लोगों तक नहीं पहुँच पायेंगे, पर साहित्य का अमृत उस माध्यम को असाधारण अमरत्व भी दे जायेगा, व्यवसायिकता की राहों से परे।
आवश्यकता है तो जनमानस को समझने वाले एक प्रयोगधर्मी फिल्मकार की, साहित्य के अमृत को सरलता से शब्दों में ढाल कर पिलाने वाले कवि की, लोक संगीत के थापों में उस शब्द-संरचना को पिरोने वाले संगीतकार की और सबके अधरों पर उसे सजा देने वाले गायक की। आज भी चाहिये न जाने कितने राजकपूर, शैलेन्द्र, शंकर-जयकिशन और मुकेश।
फिल्मों के माध्यम से साहित्य संवर्धन का प्रवाह वही कालजयी गीत बहायेंगे।
"किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार" जैसा कोई गीत।
गाता हूँ, खो जाता हूँ, आप खोना चाहेंगे इसमें?
सचमुच व्यवसायिकता के दौर में भी कभी कभी इस प्रकार के साहित्यिक गीत सुनने को मिल जाते है | संगीत का जादू तो उस पर और भी गहरा असर करता है |
ReplyDelete... sangeet-geet man ko sukoon, shaanti, raahat, oorjaa pradaan karane men sadaiv hi sahaayak rahe hain ... shaandaar post !!!
ReplyDeleteसुबह सुबह ये गाना और तीन ऐसे लोगों के दर्शन जिनसे जुडी हर बात मैं खोज खोज के जानता था कभी...शंकर जयकिशन मेरे सबसे पसंदीदा संगीतकार, राजकपूर की फ़िल्में जबरदस्त पसंद है मुझे...और मुकेश के गाने मैं कब से सुनता आ रहा हूँ मुझे भी याद नहीं...
ReplyDeleteसुबह बना दी आपने...
एकदम सही बात "आज भी चाहिये न जाने कितने राजकपूर, शैलेन्द्र, शंकर-जयकिशन और मुकेश।"
बहुत अच्छी पोस्ट
kehne layak kuch bcha hi nahi ...Parveen ji.
ReplyDeleteAbhi ji ne sab kuch byan kar diya
खो गए जी...
ReplyDelete(विस्तृत टिप्पणी बाद में.)
इस बेहतरीन गीत को सुनवाने के लिए आभार। मेरा पसंदीदा गीत है।
ReplyDeleteफ़िल्मी गीतों में कई साहित्यिक और दार्शनिक कविताये भी हैं ...कम मात्रा में ही सही ...
ReplyDeleteये गीत तो मुझे बहुत पसंद है ही ...
एक और कवितानुमा गीत याद आ रहा है ... "सुमन सुधा रजनीगंधा , आज अधिक क्यूँ गाये "
अच्छी पोस्ट!
ReplyDeleteइसे पढ़कर मुकेश कुमार तिवारी की कविता याद आ गयी।
http://tiwarimukesh.blogspot.com/2008/11/blog-post_25.html
ये वाला गीत और ’नदिया चले चले रे धारा’ हमारे पसंदीदा गीतों में से एक है। जीवन में थोड़ा सा भी उतार सकें तो जीवन सफ़ल हो जाये।
ReplyDeleteअरे वाह ! आप तो छुपे रुस्तम निकले....:)
ReplyDeleteगज़ब किया .... !
साहित्य जगत में कुछ लोगों की सोच कूपमण्डूक जैसी है। जबकि फिल्म जगत में कई ऐसे गीतकार हुए हैं जिनके गीत साहित्य की कसौटी पर अव्वल दर्जे के हैं। वर्तमान में तो गीत को साहित्य ही मानने से इंकार किया जा रहा है। ऐसे ही अकवियों ने नयी कविता का प्रारम्भ किया है जिसमें गद्य को तोड़कर पंक्तिबद्ध कर दिया है और कविता का नाम दे दिया गया है। इस कारण बिना ज्ञान लिए ही लाखों कवि पैदा हो गए हैं। और जो वास्तव में अच्छे गीत लिख रहे हैं उन्हें साहित्य नहीं माना जा रहा। साहित्य जगत के लिए यह दुर्भाग्य है। आपका गाया गीती मनभावन था आपको बधाई।
ReplyDeleteकाश,कि आप जिस आवश्यकता की चर्चा कर रहे हैं ,उस पर वांछित लोंगों का ध्यान जाए और कुछ कार्य होने लगे !
ReplyDeletesunder sandesh sunder awaz subah kee shuruaat badee acchee huee.dhanyvad.
ReplyDeleteहिंदी को जितना पोषित किया है फिल्मों ने और किसी ने नहीं किया.. हिंदी गीतकारों ने सहित्यकार से कम सेवा नहीं की है हिंदी की.. धनार्जन करना मुख्य मकसद नहीं था प्रारंभ में .. अन्यथा शैलेन्द्र की ये गति ना हुई होती और गुरुदत्त फाकाकशी में ना जिए होते... बढ़िया आलेख.. आज के कुछ गम्भीर, कर्णप्रिय और मकसद भरे गीत लिखे जा रहे हैं.. पैनी दृष्टि डाली है प्रवीण जी आपने..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गीत आज तो दिन भर के लिये यही गुनगुनाना है। पुराने जैसे गातकार आज कहां मिलते हैं आज तो मुनी शीला की ही धूम है लेकिन पुराने गीत जितना सकून देते हैं वो सकून आज के गातों मे नही मिलता। धन्यवाद इस प्रस्तुति के लिये।
ReplyDeleteहिंदी फिल्मो में शायद गीतों की सस्ती लोकप्रियता के लिए हिंदी की साहित्यिक सर्व ग्राह्य रचनाओ का अकाल सा है . शैलेन्द्र और नीरज जैसे मूर्धन्य गीतकारो के गीतों से सजी चित्रपट अभी भी जान मानस में बसी है . उम्मीद है की ऐसा फिर कभी सुनने की मिलेगा .
ReplyDeletepraveen ji
ReplyDeletebahut hi achha post dala hai aapne is baar .
vaise mujhe to puraane filmi geet baht hi pasand hain .khaskar muhammd rafi sahab mukesh ji v kishor kumaar ji.
aise gaane sun kar man ko bahut hi achha lagata hai aur aadatan jo achha lagta hai man ko vo anjaane ham bhi gungunane lagte hain.
bahut hi achha laga aapka yah gana sunana aur yah bhi ki aap sirf shastriy gyata hi nahi,sangeet premi bhi hain.---:
bahut badhiya.
poonam
आवश्यकता है तो जनमानस को समझने वाले एक प्रयोगधर्मी फिल्मकार की, साहित्य के अमृत को सरलता से शब्दों में ढाल कर पिलाने वाले कवि की, लोक संगीत के थापों में उस शब्द-संरचना को पिरोने वाले संगीतकार की और सबके अधरों पर उसे सजा देने वाले गायक की।
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने...हमें भी उन दिनों का इंतज़ार रहेगा...जब सदाबहार गीतों का दौर आएगा..
विचारणीय बात कही है ...बहुत अच्छे गीत हैं जिनको वाकई साहित्य का दर्ज़ा मिलना चाहिए ....
ReplyDeleteगीत बहुत अच्छा लगा सुकून देता हुआ ..
बढ़िया पोस्ट और सुन्दर गीत...बढ़िया कॉम्बिनेशन
ReplyDeleteआपको फोन करने पर जब यह गीत बजता है तब सोचता हूं कि आप आराम से फोन उठायें.. :)
ReplyDeleteयही इस गीत का जादू है..
praveen ji aapke baat se sahmat hhon:)
ReplyDeletelekin ye bhi sach hai....aaj maximum bekar sangeet sunane ko milta hai, par kuchh aise bhi hote hain jo mukesj , sanker jaikishan ke takkar ke hote hain....hai na!!
वाह गीत तो एकदम चुन कर लगाया है आपने.सच कुछ गीत मानसपटल पर ऐसे जम जाते हैं कि निकलते ही नहीं.
ReplyDeleteगहन पोस्ट लिख डाली है.बढ़िया.
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (23/12/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com
एक प्रेरणादायक गीत ...मधुर .....नई आवाज मे ...आभार....
ReplyDeleteबहुत अच्छे गीत हैं जिनको साहित्य का दर्ज़ा मिलना चाहिए ....
ReplyDeleteफ़िल्मी गीतों में जैसे आम आदमी ही बोलता हो ,उसके स्वप्न दुःख दर्द और रंजन सभी बड़े ही सम्प्रेषनीय होते हैं -बहुत बढियां प्रस्तुत किया है आपने इस पक्ष को -
ReplyDeleteएक एक शब्द से सहमति....
ReplyDeleteआपका कंठस्वर...लाजवाब !!!
एकदम मुग्ध कर देने वाला...और इस गीत के भाव...सचमुच क्या कहने...
सटीक मुद्दा...
ReplyDeleteसाहित्य की पवित्रता भंग न होने देने वालों के लिये फिल्मी गीतों को साहित्य न मानना एक हठ हो सकता है
-इसी टंटे में हाल फोलहाल ब्लॉग लेखन भी अटका हुआ है.
शानदार पोस्ट-जानदार गीत!
फिल्म संगीत पर बिहार-मध्यप्रदेश के श्री पंकज राग(आजकल फिल्म इंस्टीट्यूट, पुणे में) तथा श्री राजकुमार केसवानी जी ने उल्लेखनीय काम किया है. आपने इस संक्षिप्त पोस्ट में पूरे महत्व के साथ बात आई है.
ReplyDeleteसवाल ये भी है की क्या गीतकार अपनी गानों को साहित्य की श्रेणी में लाने के इच्छुक है या उन्हें इसकी जरुरत है |
ReplyDeleteपुराने गीत या ग़ज़लें मेरी हमेशा से पसंद रही हैं. उन फ़िल्मों के बोल ग़ज़ब के मायने लिए हुए और बहुत संवेदनशील होते थे,इसलिए साहित्य भी प्रचुर मात्रा में था भले ही उर्दू के शब्द ज़्यादा रहते थे.
ReplyDeleteऐसे गीत सदाबहार रहेंगे,आजकल की तरह 'साप्ताहिक' नहीं !
रफ़ी,मुकेश,किशोर,मेहंदी हसन,मुन्नी बेगम,नूरजहाँ,जगजीत सिंह आदि ऐसे कई गायक हैं जो श्रोताओं की धड़कन 'बंद' करने के लिए पर्याप्त हैं.
आपकी आवाज़ भी सम्मोहक है !
ReplyDeleteयह गाना मुझे बहुत पसंद है मगर लगता है यह बाद में किसी और की आवाज़ में गया गया है ! मूल आवाज शायद यहाँ है ...
http://www.youtube.com/watch?v=awelkdyDTBc
बहुत अच्छा गाना है. ऐसे कई गाने हैं जो दिल को छु जाते हैं. ये भी उनमें से एक है.
ReplyDeleteयह गीत शायद आपने ही गाया है कराओके पर, क्या मैं सही हूँ?
ReplyDeleteयदि हाँ, तो आपसे और भी गीतों की फरमाइश है.
पले-बढे छायागीत और गीतमाला सुनते हुए इसलिए फिल्म संगीत को अभी साहित्य कविता आदि के आगे गौण मानते नहीं बनता. अनगिनत महान गीतकार जैसे शकील बदायूनी से लेकर हसरत जयपुरी और प्रदीप से लेकर इन्दीवर तक - सभी के गीतों में उद्दात्त तत्व ढूंढ लेते हैं. भला कविता में वह बात कहाँ आ पाती जो इन गीतों में है? दोनों के फ्लेवर और माधुर्य अलग-अलग हैं.
अभी सुन रहा था 'गुज़रा हुआ ज़माना, आता नहीं दोबारा'... न आये, हम तो मोरी-रत्नादि चुनकर पहले ही अपना कोष संपन्न कर चुके हैं.
यह तुलनात्मक अध्ययन बहुत उपयोगी रहा!
ReplyDeleteलग रहा है आपने "शीला की जवानी" नहीं सुना है और न ही पढ़ा है... अन्यथा ऐसी बात न कहते...
ReplyDeleteप्रवीण जी अच्छा विषय उठाया है आपने. गीतों की मधुरता मन को आल्हादित करती है बस इतना पर्याप्त है कोई इसे साहित्य माने या ना माने.
ReplyDeleteमेरी एक रचना जिसमें मैंने गुलज़ार को कोट किया था,एक पत्रिका में छपी, मगर उसमें से वह कोट काट दिया गया..कारण यह बताया गया कि हम साहित्यिक रचना में फ़िल्मी गीतकारों की कवितायें नहीं छापते... गुलज़ार साहब को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला तो मैंने उनसे पूछा कि कौन साहित्यिक है. उनका सर झुक गया.
ReplyDeleteबस ऐसा ही फिल्म संगीत..धन्यवाद मेरे प्रिय संगीतकार कि तस्वीर के लिए!!
प्रवीन जी
ReplyDeleteइतना प्यारा गाना सुनवाने के लिए धन्यवाद पर ये ओरिजिनल नहीं है,उसका तो कोई जवाब नहीं...डुप्लीकेट में वो बात कहां...
प्रवीण भाई ,
ReplyDeleteआवाज में दम है यार ...शुभकामनायें !
बहुत ही सुंदर जी यह गीत, सच मे बहुत सुंदर हे, ओर आप की आवाज ने तो जादू कर दिया,धन्यवाद
ReplyDeletesundar prastuti.
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteबच्चन जी ने भी लिखा था,
कोई गाता मैं सो जाता
संसृति के विस्तृत सागर पर
उठता गिरता बहता जाता।
आपने बिलकुल ठीक कहा है।
ReplyDeleteयह रोचक संयोग ही है कि यह गीत मेरी पसन्द के चुनिन्दा गीतों में से एक है।
"पता नहीं कि शब्द अच्छे लगते हैं या भाव या संगीत या स्वयं का गाना।"
ReplyDeleteभाव की गहराइयों में पहुँचा देने वाले शब्द और संगीत ही व्यक्ति को स्वयं गुनगुनाने के लिए विवश कर देता है।
शैलेन्द्र जी तथा अन्य उच्चकोटि के गीतकारों के गीतों को महज फिल्मी गीत मानकर साहित्य में स्थान न देना वास्तव में दुःखद है।
जीना इसी का नाम है ! चलिए आपने भी कुछ ख्याली पुलाव पकाने पर मजबूर किया !
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर गीत अपने इस लेख के विषय में आपने चुना है । जब भी किसी के मोबाईल की रिंगटोन में भी सुनने को मिलता है मन मगन हो जाता है, लगता है फोन थोडी देर बाद ही उठे.
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर लेखन के साथ इस गीत को सुनवाने के लिये आभार ....।
ReplyDeleteवाह... बहुत खूब...
ReplyDeleteगीत को इस आवाज़ में share करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद... ये भी अच्छा हुआ...
और बात तो आपने एकदम खरी-खरी कही है... इस विषय पर विचार अत्यंत आवश्यक है...
माना अपनी जेब से फकीर हैं
ReplyDeleteफिर भी यारों दिल के हम अमीर हैं ......... लगता है जिनको ऐसा वे यहाँ मौजूद हैं ....
संयोग से मेरे मोबाइल फोन में भी यही रिंगटोन है। खैर गीत तो निसंदेह कालजयी है। यहां यह बहस बेमानी है कि वह साहित्य है या नहीं। साहित्य आखिर क्या है। इस पर बहस हो सकती है।
ReplyDelete*
बहरहाल यहां लगे गीत में आवाज किसकी है यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है। कई साथियों ने यह अंदाज लगाया कि आपकी आवाज है। निसंदेह आवाज बहुत अच्छी है,पर इस गाने में नहीं जम रही। साथ ही संगीत किसने दिया है यह भी उल्लेख करें। संभवत: वह भी आपका ही होगा। बधाई।
कालजयी गीत पर अच्छी पोस्ट!
ReplyDeleteप्रवीण भाई, बहुत सारे ऐसे गीत हैं, जो इस श्रेणी में आते हैं। पर अब जमाना बदल रहा है, इसलिए अब सब कुछ चायनीज माल की तर्ज पर बन रहा है।
ReplyDelete---------
मोबाइल चार्ज करने की लाजवाब ट्रिक्स।
@ नरेश सिह राठौड़
ReplyDeleteकई ऐसे गीत हैं जो सुनकर डूब जाने का मन करता है, उनका अर्थ, संगीत अभिभूत कर जाता है।
@ 'उदय'
गीतों में एक विशेष प्रभाव रहता है, मन को विशेष शान्ति मिलती है, यदि शब्द दार्शनिक हों तो और भी अधिक।
@ abhi
उस दौर के गीतों का इतना अम्बार है कि एक बार सुनना प्रारम्भ करता हूँ तो समय बह जाता है, पता ही नहीं चलता है। आपकी सुबह बन गयी, यह जानकर मेरा दिन बन गया।
@ संजय भास्कर
हम भी बस सुन रहे हैं सुबह से, ऐसे ही गीत।
@ निशांत मिश्र - Nishant Mishra
जीवन में खोने लायक कुछ न कुछ मिलता रहे, सच्चाई भरे तथ्य बड़े काटते हैं।
@ ZEAL
ReplyDeleteआपको अच्छा लगा, पोस्ट सार्थक हो गयी। किसी की मुस्कराहटों पे...
@ वाणी गीत
बहुत अच्छा गीत है यह। साहित्यिक और दार्शनिक मात्रा बहुत अधिक है कई गीतों में, पर दुख है कि उन्हें साहित्य की श्रेणी में कभी नहीं रखा गया।
@ अनूप शुक्ल
सच है लडकियाँ तितलियों की तरह होती हैं।
@ मो सम कौन ?
यह गीत तो जब बजता है, एक विशेष भाव उठता है मन में, चलते रहने का, जीवन्त रहने का।
@ 'अदा'
आपसे थोड़ा बहुत भी गीत सीख लें, बहुत है मेरे लिये।
@ ajit gupta
ReplyDeleteयह माना जा सकता है कि फिल्मों में सारे गीत स्तरीय नहीं होते हैं पर जो स्तरीय होते है उन्हे तो साहित्य की श्रेणी में रखा जा सकता है। अकविता में मेरी भी रुचि नहीं है, यदि वह लिखता हूँ तो उसे गद्यगीत ही कहता हूँ।
@ प्रतिभा सक्सेना
सबसे अधिक पहुँच वाले माध्यम को उपयोग में लाना है साहित्य के प्रचार प्रसार में। यह आवश्यक होगा कि हमें ऐसे लोग मिलें जिन्हे इस माध्यम का आधार मिला हो।
@ Apanatva
बहुत धन्यवाद आपका, प्रसन्नता है मुझे कि आपको अच्छा लगा।
@ अरुण चन्द्र रॉय
हिन्दी के प्रचार में फिल्मों का योगदान अतुलनीय है, यह तथ्य तो सब मानते हैं पर जब फिल्मी गीतों को साहित्य की संज्ञा देने की बात आती है तो पूर्वाग्रह सामने आ जाते हैं। अपनत्व पूर्ण हो, आधा-अधूरा नहीं।
@ निर्मला कपिला
हजारों मुन्नी और शीला जैसे गीत जो रस न दे पायेंगे, यह गीत देगा। यही कारण है कि यह गीत आज भी जीवित है।
@ ashish
ReplyDeleteसच कह रहे हैं कि आज ऐसे गीत नहीं मिलते हैं। सस्ती लोकप्रियता के दो गीत आजकल छाये हुये हैं। पुराने गीतकार जिस दर्शन की गहरी बातें सुना जाते थे, वही उन गीतों की महानता थी। पुनः इस तरह के गीत लिखे जायें और गाये जायें, यही इस माध्यम का सुनहरा भविष्य है।
@ JHAROKHA
गीत सुनकर गुनगुनाने का मन न करे तो वह गीत लिखना व्यर्थ हो जाता है, पुराने गीतों में वह बात हैं, नयों में नहीं।
@ shekhar suman
काश वे दिन पुनः आयें, हम सबको प्रतीक्षा है।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
बहुत चिन्तनशील गीत हैं यह सब, मन के तार झंकृत करते हुये।
@ rashmi ravija
बहुत धन्यवाद आपका।
@ PD
ReplyDeleteसच में, यह रिंगटोन इसीलिये रखा है कि यदि फोन उठाने में देर हो तो आप इतने अच्छा गाना सुन सकें।
@ Mukesh Kumar Sinha
आजकल उन गीतों को बनाने की टीम ही नहीं है, उस समय जैसा जुनून भी नहीं है, ऐसे साहित्यिक गीत लिखने का और गाने का।
@ shikha varshney
यह गीत स्थायी रूप से मनस पटल पर जमा हुआ है।
@ वन्दना
बहुत धन्यवाद इस सम्मान का।
@ Archana
आपसे प्रेरणा लेकर हम भी गा लेते हैं, थोड़ा बहुत।
@ Sunil Kumar
ReplyDeleteमैं आपसे पूर्णतया सहमत हूँ।
@ Arvind Mishra
आम आदमी के द्वारा गीतों का अपनत्व, इन गीतों की संप्रेषणीयता सिद्ध करता है।
@ रंजना
बहुत धन्यवाद, गा लेते हैं, अपने लिये ही।
@ Udan Tashtari
ब्लॉग भी साहित्य की संज्ञा कभी न कभी ग्रहण कर लेगा, ससम्मान। गुणवत्ता धीरे धीरे आ ही जाती है।
@ Rahul Singh
श्री पंकज राग जी तथा श्री राजकुमार केसवानी जी से जानने पड़ेंगे और तथ्य, इस संदर्भ में।
@ anshumala
ReplyDeleteआजकल भी गीतकार अच्छे गीत लिख रहे हैं, पर बहुधा फिल्मों की कहानी उन्हे यह स्वतन्त्रता नहीं देती है।
@ संतोष त्रिवेदी ♣ SANTOSH TRIVEDI
यदि ऐसे गीत गाये जाते रहे, हमारे सांस्कृतिक भण्डार फिल्मों के माध्यम से भरे रहेंगे।
@ सतीश सक्सेना
निश्चय ही मुकेश का स्वर नहीं है, मेरा स्वर कभी इतना अच्छा हो ही नहीं सकता है।
@ अभिषेक ओझा
बहुत अच्छा लगा यह जानकर, आभार।
@ निशांत मिश्र - Nishant Mishra
जी हाँ कराओके पर गाया है और रुचि है, आगे भी गाते रहेंगे, यदि आप लोगों में सुनने की क्षमता बनी रहे। पर आनन्द पुराने गानों में ही आता है।
@ डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक"
ReplyDeleteआभार उत्साहवर्धन का।
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
सुना भी है और पढ़ा भी है, महान विचारणीय कृति है।
@ रचना दीक्षित
जो रचना मन को अह्लादित करे वही साहित्य का अंग, गहरापन लिये हो तो वही अह्लाद बढ़ जाता है।
@ सम्वेदना के स्वर
यही हठ हमारा दुर्भाग्य बनेगा। जिसे सम्मान मिलना चाहिये, उन्हें स्थान नहीं मिल रहा है।
@ वीना
यह गीत मैंने गाया है और सच है, इसमें असली वाली बात नहीं आ पायेगी।
आपकी इस पोस्ट ने बांध कर ही रख दिया
ReplyDeleteकिसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार मेरा भी प्रिय गीत है। साथ ही बीड़ी जलइले जिगर से पिया भी अच्छा लगता है। बदलाव और समय के साथ हो रहे परिवर्तनों के बीच यह सब देखने को मिलता ही है। कुछ साल पहले श्याम बेनेगल से मेरी बात हुई कि पहले जैसी फिल्में क्यों नहीं बनतीं? तो उन्होंने कहा था कि अब फिल्मकारों, गीतकारों या कहें कि पूरी टीम का लक्ष्य होता है कि ऐसी फिल्में बनाई जाएं जो १०-१५ दिन चलें। उतने में ही सारी कमाई कर लेनी पड़ती है, क्योंकि उसके बाद पाइरेटेड सीडी आ जाती है, कोई फिल्म देखने नहीं जाता।
ReplyDeleteनमस्कार जी
ReplyDeleteबहुत खूबसूरती से लिखा है. आपने
मन मोह लिया...
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http://sometimesinmyheart.blogspot.com/
@ सतीश सक्सेना
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ राज भाटिय़ा
उत्साहवर्धन का बहुत आभार।
@ शोभा
बहुत धन्यवाद आपका।
@ मनोज कुमार
गीत और संगीत में वह शक्ति है जो हमको बहा जाती है।
@ विष्णु बैरागी
यह संयोग हमारा है कि हम सबको यह अच्छा गीत अच्छा लगता है।
@ जी.के. अवधिया
ReplyDeleteजहाँ गीत के भाव मन के भावों से अनुनादित हों, गुनगुनाना स्वाभाविक हो जाता है।
@ पी.सी.गोदियाल "परचेत"
बहुत धन्यवाद आपका।
@ सुशील बाकलीवाल
सच कहा आपने, यह सुनने का मन करता है।
@ sada
बहुत धन्यवाद आपका।
@ POOJA...
यह दुर्भाग्य ही है कि जो गीत मन में स्थान पाये हुये हैं, वे साहित्य में स्थान नहीं पा रहे हैं।
@ रश्मि प्रभा...
ReplyDeleteचलिये, हम सबमें कोई तो आधारभूत समानता है।
@ राजेश उत्साही
कराओके पर गाया है, मुकेश जी के स्वर में सुनने के बाद यह उतना अच्छा न लगेगा, पर गाने की रुचि छूटती ही नहीं।
@ अनुपमा पाठक
बहुत धन्यवाद आपका।
@ ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
बाजार की गति माल का निर्धारण करने लगी है। सदाबहार गानों का आभाव स्वाभाविक है।
@ रचना दीक्षित
गीत हम सबको ही बाँध देते हैं, भावों से।
@ satyendra...
ReplyDeleteफिल्मों का लघुमय होता जीवन, अच्छे गीतों के लिये कष्टकर हो गया है। अब आइटेम गीतों में क्या सार्थकता आयेगी भला।
@ विजय प्रताप सिंह राजपूत (निकू )
बहुत धन्यवाद आपका।
अपना भी पसन्दीदा गीत है। फिल्म संगीत बहुत ही सशक्त माध्यम है, जो सर्वश्रेष्ठ हो वही टिकेगा।
ReplyDeleteवास्तव में सिनेमा द्रश्य-विधा है तथा प्रायः सदैव ही पहले से लिखी साहित्यिक क्रितियों पर ही फ़िल्में बनती हैं अत: इसे साहित्यिक मान्यता नही मिलपारही परन्तु एसा नही है, यह निश्चय ही साहित्य की एक विधा है और इतिहास में उच्चकोटि के गीतों, कथाओं को ( गाइड आदि जैसी फ़िल्म के लिये ही लिखी गई कहानियां) याद किया जायगा व मान्य्ता भी मिलेगी...
ReplyDeletebahut upyogi,samyik aue sarthak bahas sahity ke sandarbh me...
ReplyDeletegeet ka to kya kahna!
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
ReplyDeleteजो इतने वर्षों से टिका है, उसे स्वीकार कर लेने में कैसा हठ।
@ Dr. shyam gupta
साहित्य से अपनायी गई कहानियों और गीतों ने सदा ही फिल्म माध्यम को ऊर्जा प्रदान की है।
@ सुरेन्द्र सिंह " झंझट "
एक दूसरे माध्यम को सशक्त करने का क्रम चलता रहेगा, उसे और बढ़ाने की आवश्यकता है।
महिला मंडल के वार्षिक होलिका उत्सव में ये गाना का mujhe टाइटल मिला था |
ReplyDeleteहरी हरी वसुंधरा पे नीला नीला ये गगन
की जिसपे बादलो की पालकी उडा रहा पवन |
दिशाए देखो रंग भरी
चमक रही उमंग भरी
ये किसने फूल फूल पे
किया सिंगार है
ये कौन चित्रकार है ?
फिल्म" बूँद जो बन गई मोती "वी शांताराम की फिल्म का यह गीत साहित्य का एक मोती ही तो है न ?
@ शोभना चौरे
ReplyDeleteसच में साहित्य का अमूल्य मोती है यह फिल्मी गीत।
Sahityik darja mile ya na mile, ye to alochak log hi jane, magar sunkar mood fresh ho jata hai......... jaisa ki abhi- abhi.
ReplyDeleteबहुत खूब प्रवीन भाई, क्या गाया आपने. बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी....:-)
ReplyDeleteआपने कौन से टूल्स उपयोग किये? एक तो Kadoo हैं.
गाते रहिये, सुनाते रहिये.
दो पल ही तो हैं, गुनगुनाते रहिये.....
@ उपेन्द्र ' उपेन '
ReplyDeleteमन को भाये, बार बार जो, ललित साहित्य तो हो ही गया।
@ Rahul Kumar Paliwal
डिवशेयर नामक सॉफ्टवेयर है, जो इन्टरनेट पर अपलोडिंग के काम में आता है। ऑडेसिटी नामक सॉफ्टवेयर में रिकार्डिंग की है।
गीतों की इस श्रेणी में गुलज़ार के लिखे कुछ गीत इसी तरह प्रभावित करते हैं. कविता की बात करें तो 'मेरा कुछ सामान' शायद ऐसी ही किसी श्रेणी में आएगा जो कि गीत बना और बेहद खूबसूरत लगा.
ReplyDelete@ Puja Upadhyay
ReplyDeleteगुलजार के गीतों में वही गहराई दिखती है जिसकी चर्चा यहाँ हो रही है। मेरा कुछ सामान तो अद्भुत अर्थ लिये आता है, पता नहीं चलता कि कब समाप्त हो जाता है, यह गीत।
geet bahut pasand aaya....
ReplyDeleteachi post....zindagi me sangeet na ho to sab bejan sa lagta hai
achi post....
@ zindagi-uniquewoman.blogspot.com
ReplyDeleteशास्त्रों में संगीत को सबसे बड़ी कला माना गया है।