मेरी दादी मुझे स्वर्ग में मिली थी, मेरे जन्म लेने के पहले, प्यारी सी, दुग्ध धवल, प्रेममयी, बिल्कुल वैसी ही जैसी अभी भी पिताजी की कोमल स्मृतियों में आती हैं, बिल्कुल वैसी ही जैसी पिताजी बताते बताते सब भूल जाते हैं। दादी के पास मेरे हिस्से की जितनी भी कहानियाँ थीं, पिताजी ही सुन चुके थे अपने बचपन में। गर्मियों में छत में सोने के पहले, तारों को निहारते निहारते, कभी कभी पिताजी उन्ही कहानियों के एकान्त जंगल में ले जाते थे, मैं चलता जाता सप्रयास ऊँगली पकड़े, मन में उत्सुकता, बस एक क्षण का विराम-प्रश्न 'फिर क्या हुआ', पुनः पगडंडियाँ, अन्ततः स्वप्न-उपवन में जाकर समाप्त होती थीं सारी की सारी यात्रायें। अब मैं पिता होकर भी कहानी नहीं सुना पाता हूँ बच्चों को, बिस्तर पर लेटते ही नींद पहले मुझे घेर लेती है। एक ऋण सा चिपका हुआ है यह भाव।
कहानी सुनाना एक कला है, अभिनय है, शब्दों को आरोह-अवरोह में उतराने का रोमांच है, सहसा रुककर गति पकड़ लेने की नाटकीयता है, सुनने वाले को निहित भावों के प्रवाह में मुग्ध कर बहा ले जाने का उपक्रम है, ज्ञान है, अनुभव है, संतुष्टि है। बच्चों को नित्य एक कहानी सुनाने के इतने लाभ।
यह सब कुछ याद नहीं आता, यदि "इस्मत आपा के नाम" नहीं देखा होता। प्रस्तावना में नसीरुद्दीन शाह ने जब बताया कि आपको आज बस तीन कहानी सुनायी जायेंगी, इस्मत चुगताई की, वैसी ही जैसी लेखिका ने लिखी, बिना किसी नाटकीय रूपान्तरण के, एक बार में एक ही कलाकार के द्वारा और बिल्कुल वैसे ही जैसे आपकी दादी माँ सुनाती थीं। रंगमंच में यह विधा एक नया प्रयोग है, दायित्व गुरुतर हो जाता है तब कलाकार पर, अपने दर्शकों को बच्चों की तरह बाँधे रहने का। दादी माँ की जगह लेने के लिये, पता नहीं कितना वैचारिक संक्रमण किया गया होगा, संप्रेषण में।
पहली कहानी "छुईमई" हीबा शाह ने, दूसरी कहानी "मुगल बच्चे" रत्ना पाठक शाह ने और तीसरी कहानी "घरवाली" स्वयं नसीरुद्दीन शाह ने सुनायी। कुल 80 मिनट तक बिना पलकें झपकाये हजारों दर्शकगण कहानी सुनते रहे, सारी संचित ऊर्जा अन्ततः तालियों की अनवरत गड़गड़ाहट में व्यक्त हुयी।
नसीरुद्दीन शाह जैसे रंगमच के सिद्धहस्त कलाकारों के लिये हर शब्द जैसे अपने आप में अभिनय की अभिव्यक्ति है। व्यावसायिक सिनेमा से कहीं दूर, अभिनय की उपासना में रत इस परिवार के लिये भारतीय लेखकों की साहित्यिक क्षमता और संप्रेषणीयता को सबके सम्मुख लाना एक हठ है, भारतीयता के सशक्त पक्षों को उजागर करने का। उस यज्ञ की इन तीन आहुतियों की सुगन्ध अभी भी मन में बसी हुयी है।
इस्मत चुगताई (1915-1991) संभवतः भारत की सर्वाधिक दिलेर लेखिका रही हैं। विवादों ने उन्हें जी भर कर घेरा, उन पर फूहड़ लिखने का मुकदमा चलाया गया, मुस्लिम समाज के सत्यों को बेढंगे ढंग से उछालने का आरोप लगाया गया, पर निर्भीकता से जीवनपर्यन्त अपना लेखन जारी रख उन्होने भारतीय समाज के उस उदार पक्ष को सत्यापित और स्थापित कर दिया जहाँ पर एक महिला को भी सत्य कहने की छूट मिलती है। अन्य कहानियाँ भी पढ़ी हैं मैंने, मानवीय दृष्टिकोण को थोड़ी उदारता दी जाये तो ऐसा कुछ भी नहीं है उन कहानियों में जो कि निन्दनीय हो या फूहड़ता की संज्ञा लिये हो।
कहानी बनाना सरलतम है, हम सभी बनाते रहते हैं। कहानी लिखना कठिन है, सामाजिक और मानसिक पक्षों की समझ आनी चाहिये उसके लिये। कहानी सुनाना तो भावों की प्रवाहमयी गंगा बहाना है।
दादी, सुन रही हो ना।
पढ़ा है ’इस्मत चुगताई’ को, और उनके बेलौस अंदाज के फ़ैन भी रहे हैं। पढ़ते समय बिल्कुल उसी दौर में पहुंच जाते हैं जैसे, लेकिन सुनने का अनुभव नहीं है। निश्चित तौर पर कभी न भूलने वाला रहा होगा यह अनुभव।
ReplyDeleteकहानी सुनाना भी एक कला है बिल्कुल बराबर, यह ऋण हम भी महसूस करते हैं, जैसी कहानियाँ हमने अपने बुजुर्गों से सुनीं थीं, वे कहानियाँ हमारे बच्चों तक नहीं पहुँच पा रही हैं।
ReplyDeleteइस्मत आपा के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा।
आपकी दादी तो सुन ही रही हैं अपने लाडले के लाडले की बात। अपने बदायूं की इस बेटी इसमत आपा के बारे में पढकर अच्छा लगा। किस्सागोयी वाकई एक कला है।
ReplyDeleteहम तो बहुत खुश किस्मत है कि अपनी दादी से ढेरों कहानियां सुन पाए सर्दियों में अलाव के पास बैठे रोज नई कहानी सुना करते थे |
ReplyDelete... bahut badhiyaa ... ekaad kahaani bhi lagaa denee thee post ke saath ... behatreen post !!!
ReplyDeleteइस्मत जी अपने बेलौस अंदाज के लिए जानी जाती रही है ...उनकी कहानी को दादी नानी की कहानी की तरह सुनना अच्छा लगा ही होगा ...
ReplyDeleteएकल परिवार में होने का खामियाजा है कि बच्चे दादी की कहानी से वंचित रह जाते हैं ...मगर हम तो बच्चों को रोज कहानी सुनाकर अपना क़र्ज़ उतार चुके हैं ..!
इस प्रस्तुति से कुछ लोगों को सुध आए कि अच्छे चरित्र के निर्माण में दादी-नाई की कहानियां कितनी बड़ी भूमिका अदा करती थी। और शायद घर में कहानी सुनने सुनाने का महौल बने, गढने का नहीं।
ReplyDeleteसहज, सरल और सुंदर शैली में लिखा गया यह आलेख काफ़ी प्रभावशाली है। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
हिन्दी साहित्य की विधाएं - संस्मरण और यात्रा-वृत्तांत
परत्परा तो है ही, यह तो पूरी एक विधा भी है 'दास्तांगोई' महमूद फारुखी (वही पीपली लाइव वाले)हैं जो दास्तांगो के रूप में जाने जाते हैं. शुक्रिया, इस्मत आपा का सादर स्मरण.
ReplyDeleteसहजता और उत्कृष्टता की मिसाल है आपकी लेखनी.. अचानक मुझे अपनी नानी की याद आ गयी... माँ की एक बुआ आती थीं हमारे यहाँ.. उनकी कई कहानियाँ दो दिन या तीन दिन तक लंबी होती थीं... रजाइयों में घुसे सुना करते और सो जाते... राजा रानी, शीत बसंत, तोता मैना, कौवा हकनी जैसी कहानियाँ आज भी स्मृति में ताज़ा हैं
ReplyDeleteआजकल बहुत वयस्त हूँ और आपके और अन्य मित्रों के ब्लॉग पर टिप्पणी करने के लिए समय नहीं मिल रहा है।
ReplyDeleteबस थोडा समय चुराकर ब्लॉग को पढता हूँ।
कल कुछ दिनों के लिए हैदरबाद जा रहा हूँ और शाय्द इंटर्नेट से दूर रहूँगा।
सोमवार वापस आ जाऊंगा और इस बीच यदि हम सम्पर्क में नहीं रहते तो कृपया अन्तथा न लें।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
ismat chugtayi ko padhna jaise ek naya andaaz ko jaana hota hai ... aapa ko salaam aur aapki is post ke liye dhanywad.
ReplyDeletevijay
poemsofvijay.blogspot.com
09849746500
इनके बारे में पढ़कर अच्छा लगा....
ReplyDeleteलेकिन इनकी रचनायें नहीं पढ़ी हैं ...साथ में कोई लिंक जोड़ देते तो अच्छा रहता...
क्या क्या बदल गया है ....
यह बात अकसर सालती है मुझे कि मैं अपने बेटे को सोते वक़्त ,उसकी इच्छा के बावज़ूद कहानी नहीं सुना पता.इस मामले में हम भाग्यशाली रहे कि बचपन में हमारी अम्मा ज़रूर हमें कहानी सुनाकर सुलाती थीं.शायद ,जो कुछ क्रियात्मकता का समावेश हुआ है,उन्हीं कहानियों की वज़ह से .कहानी सोचना आसान लगता है,पर उसको अंत देना सबके बूते का नहीं है.
ReplyDeleteआपकी दादी देख रही हैं कि वे भले ही अपने पोते को कहानी न सुना पाई हों पर वह अब सारी दुनिया को अपनी 'कहानी' तो सुना ही रहा है !
नई पीढ़ी तो 'बिग-बॉस' देखकर सो(खो)रही है !
आप सही कह रहे हैं कि सम्प्रेषण की कला बहुत दुरूह है। इसलिए पहले के जमाने में कहानियां सुनाते-सुनाते यह कला स्वत: ही आ जाती थी लेकिन आज तो अबोला ही पसरा रहता है। इस अबोलेपन के कारण ही दूरियां बनती जा रही हैं। कोई अपनी मन की बात भी नहीं कह पाता। ज्यादा जोर लगा लिया तो आई लव यू ही कह पाता है बस।
ReplyDeleteआप सही कह रहे हैं कि सम्प्रेषण की कला बहुत दुरूह है। इसलिए पहले के जमाने में कहानियां सुनाते-सुनाते यह कला स्वत: ही आ जाती थी लेकिन आज तो अबोला ही पसरा रहता है। इस अबोलेपन के कारण ही दूरियां बनती जा रही हैं। कोई अपनी मन की बात भी नहीं कह पाता। ज्यादा जोर लगा लिया तो आई लव यू ही कह पाता है बस।
ReplyDeleteनानी और दादी की कहानियोंमें निहित निजता असामान्य को भी सहज और सरल बना कर अपने प्रवाह में बहा ले जाती है. बच्चे की कल्पना को विस्तार दे कर नये संसार के द्वार खोल देती है,वह नेह और निजता और कहाँ !
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी थी।
ReplyDeleteआज कल बचचों को कौन कहानी सुनाता है?
बच्चे तो टी वी देखते हैं, और दादा दादी नाना नानी तो उनके साथ रहते भी नहीं।
फ़िर भी कुछ साल पहले एक टी वी सीरियल की याद आ गई।
सीरियल का नाम था "दादा दादी की कहानी"।
अभिनेता अशोक कुमार और अभिनेत्री लीला मिश्र कहानी सुनाते थे।
============
कुछ दिनों के लिए कंप्यूटर और इंटर्नेट से दूर रहूँगा।
अब सोमवार को फ़िर आपके यहाँ ब्लॉग पढने आएंगे।
तब तक के लिए आज्ञा दीजिए
Feeling too nostalgic & missing my Dadi.. :(
ReplyDeleteदादी -नानी की कहानियों से बच्चे कितना कुछ सीख जाते थे ...कहानी कहना भी एक कला है ...पूरा अभिनय करना पड़ता है कहानी सुनाने में ....भाव भंगिमा से आवाज़ से ...
ReplyDeleteइस्मत चुगताई की कुछ कहानियाँ पढ़ी हैं ..बेख़ौफ़ लिखती हैं ...उनके बारे में यहाँ पढ़ना अच्छा लगा ..
@ Shekhar Suman जी
ReplyDeleteआप इस लिंक पर जाकर उनकी कहानिया पढ़ सकते है |http://www.hindikunj.com/search/label/%E0%A4%87%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%A4%20%E0%A4%9A%E0%A5%81%E0%A4%97%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%88
इस लिंक को अपने यूआरएल में कोपी पेस्ट करे |
आजकल के बच्चे भी कहानी सुनने को आतुर है लेकिन सुनाने वालो के पास ना वो जज्बा है और ना ही समय है |
ReplyDeleteइस्मत आपा के बहाने से ही सही - इस पोस्ट में आपने सही बहस छेड़ी है कि आजकल बच्चों को कार्टून नेटवर्क और पोगो से फुर्सत मिले तो दादा दादी के आपस दो घडी बैठ कर कहानी सुने....
ReplyDeleteऔर सही मायने में, हमारा बचपन कल्पना की उड़ान पर होता था.. जब दादाजी कहानी सुनाते तो आँखों के आगे उड़ते हुए घोड़े से कल्पना की उड़ान से उतरते थे.. पर आज बच्चे ये सब साक्षात देख रहे हैं..... बिना दिमाग पर जोर डाले....
साधुवाद.
हम खुशकिस्मत है की दादी नानी और माँ सभी से कहानिया सुनी है और आज बेटी को सुना कर उस ऋण को उतार रहे है, पर अब कहानी सुनते समय अभिनय भी करना पड़ता है खुद कहानी के सभी पात्र बन कर | एक बात समझ नहीं आती की हमेसा देखा है कि कहानी सुनाने वाले को सुनने वाले से पहले नीद आने लगती है | पोस्ट अच्छी लगी |
ReplyDeleteअभी मेरी माँ कुछ दिनों से साथ है और बच्चे हमारे साथ सोना छोड़ दिए हैं.. बस कहानियों के कारण.. रामायण के जितने पात्र और कृष्ण से जुडी कहानिया उन्होंने अपनी दादी से सीखा है कार्टून चैनल , अनिमतिओं फिल्मे नहीं सिखा पाए... दादी-नानी के कहानियों का आकर्षण ही कुछ और है.. उन्होंने टी वी देखना भी कम कर दिया है.. आपका आलेख अच्छा लगा.. इस्मत चुगताई का पाठक रहा हूँ...
ReplyDeleteस्नेह का साया भी सीख भी .... सच दादी नानी की कहानियां कमाल हुआ करतीं थीं.... यक़ीनन इन्हें कहना भी आसान नहीं होता यह एक मनोहारी कला है ..... इस्मत आपा को पढ़ा है .....उनका स्मरण मन को छू गया ...आभार
ReplyDeleteमुझे तो दादी की याद भी नहीं :(
ReplyDelete,.
प्रवीण जी, आपसे बहुत जलन हो रही है...मैंने सोचा था की मैं भी जाऊँगा ये प्ले देखने...लेकिन कुछ दिक्कतें आ गयीं थी..
मुझे काफी मन था देखने का.... :(
इस्मत चुगताई जी को पढ़ा है और उनके बेलौस लेखन को सराहा भी है . दादी की किस्सागोई याद आयी . पौराणिक पात्रों और उनकी गाथाये से पहला परिचय दादी की जुबानी ही हुआ .
ReplyDeletebahut hi sahaj our sundar lekhani hai aapki.
ReplyDeleteइस्मत जी का नाम बहुत सुना है कुछ कहानियां पढ़ी भी हैं पर अब ध्यान नहीं ..आपकी पोस्ट से यादें ताज़ा हो गईं..
ReplyDeleteनानी भी बहुत याद आई :(
आभार सहज ,रोचक अभिव्यक्ति के लिए.
संजोने लायक अनुभव...बेमिसाल होती है इनकी किस्सागोई
ReplyDeleteबहुत बढिया संकलन्।
ReplyDeleteआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (9/12/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
कई बार कई कहानियाँ पढ़ी हैं इस्मत जी की ... अपनी अलग क्रन्तिकारी सोच की मल्लिका इस्मत आपा की याद कारा दी अपने ... आज ही अपनी लाइब्रेरी तलाशता हूँ ...
ReplyDeleteसचमुच कहानी लिखने से कहीं ज्यादा मुश्किल विधा है कहानी कहना।
ReplyDeleteवाह ! एक पोस्ट में कई बातें... इस्मत आपा के बारे में, नसीर एंड फैमिली के बारे में, कहानी सुनाने की कला के बारे में और दादी-नानी की कहानियों के बारे में.
ReplyDeleteमैंने अपनी नानी और दादी को देखा भी नहीं कहानी की तो बात ही नहीं, पर मैं अपनी दीदी के बच्चों को खूब कहानियाँ सुनाती हूँ :-)
इस्मत जी की कुछ कहानियाँ मैंने पढीं हैं और उनके बेलौस अंदाज़ की फैन हूँ. और नसीर और रत्ना के नाटकों के बारे में बहुत सुना है, पर देखा नहीं. फ़िल्में ज़रूर देखी हैं. महसूस कर सकती हूँ कि जब नसीर कहानी सुना रहे होंगे तो कैसा लग रहा होगा? क्योंकि उनकी आवाज़ मुझे बेहद पसंद है. इस्मत आपा की कहानी और नसीर की आवाज़ . क्या बात है !
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति... इस्मत चुगताई पर केन्द्रित बहुत ही सुंदर पोस्ट
ReplyDeleteबहुत कुछ समेट लिया आपने अपनी एक पोस्ट में...
ReplyDeleteमैं भी अपनी दादी-नानी को बहुत याद करती हूँ, कहानियां नानी से सुनीं थीं और दादी तो लाड़ बहुत करती थीं... मैं उस दोनों को बहुत miss करती हूँ... नाने की अनिमेटेड कहानियां" एक पोस्ट भी लिखी थी...
हीबा जी, रत्ना जी, नसीरुद्दीन जी हों या इस्मत जी... ये सब अपने-आप में institutions हैं... हमेशा इनसे कुछ-न-कुछ सीखने को ही मिलता है... यदि इनका 0.5% भी बन गए तो बहुत है...
शुक्रिया...
इस बहाने इस्मत आपा को नमन॥
ReplyDeleteअच्छा लगा पढ़ कर...इस्मत जी का जवाब नहीं है..प्रवीण पाण्डेय जी आप के लेख़ का इंतज़ार है....
ReplyDeleteइस्मत आपा और मण्टो… इनका अंदाज़ शायद कोई भी चुरा न पाया... कई कहानियाँ पढीं इन दोनों की. और हर बार पढकर ज़िंदगी दिखाई दी. जिन तीनों कलाकारों का आपने ज़िक्र किया उनकी आवाज़ का मैं कायल हूँ, लिहाजा क्या माहौल होगा सोचना बहुत आसान है.
ReplyDeleteहाँ इस्मत आपा की ऐक्टिंग देखनी हो तो श्याम बेनेगल की फ़िल्म जुनून देखें. इस्मत आपा का एक जीवंत अभिनय!!
लगता है, आप किसी आयोजन का वर्णन कर रहे हैं। मराठी में 'कथोपकथन' की सुदीर्घ परम्परा है। स्वर्गीय वसन्त पोत्दार ने इसी कला को विस्तारित कर एकल अभिनय में ढाला था। इन दिनों शेखर सेन कबीर और विवेकानन्द पर एकल प्रस्तुतियॉं दे रहे हैं।
ReplyDeleteलगता है, 'कुछ नया' के नाम पर पुराने दिन, पुरानी परम्पराऍं लौट रही हैं।
यही आश्वस्ति देती है आपकी यह पोस्ट।
दूरदर्शन पर बरसों पहले इस्मत आप का इंटरव्यू याद आ गया. उँगलियों में दबी सिगरेट के छल्लों के बीच बेतकल्लुफ हंसी के ठहाके. उनकी कहानियां बहुत पहले पढी थी. उन्होंने अपने तईं एक शानदार और मुकम्मिल ज़िंदगी जी और इच्छानुसार उन्हें अग्नि के हवाले किया गया जो कि एक घोर गैर-इस्लामी रिवायत है.
ReplyDeleteकथावाचन तो भारतीय परंपरा का बहुत सशक्त पक्ष रहा है, फिर वह रात में बच्चों के साथ बीतनेवाला पल हो या राजदरबार का चारण कर्म. अभी हाल में ही बच्चे के लिए एक ऑडियो बुक ली है जिसे चलाने में इतनी झंझट है कि फिलहाल कहानी के नाम पर कुछ भी अंड-बंड सुनाकर बच्चे को बहला देते हैं:)
’इस्मत चुगताई’ को पढना एक अलग ही अनुभव है. रही दादी नानी के किस्सों की बात, तो हकीकत ये है कि दादी और नानी तो आज भी मौजूद है पर उनके लाडले और उनके लाडलों को ही शायद फ़ुरसत नही है. और वो भी क्या करें? टीवी, कार्टून नेटवर्क, विडियो गेमिंग इत्यादि ने सब कुछ छीन लिया है. अगर ये कहूं कि इनने बचपन की तो हत्या ही कर दी है तो अतिशयोक्ति नही होनी चाहिये.
ReplyDeleteवैसे जो आनंद किस्सागोई में है वो और कहां?
रामराम.
बहुत सुंदर लगी आप की यह पोस्ट,दादी के मुख से कहानी सुनना अपने आप मे बहुत सुखद होता हे, धन्यवाद
ReplyDelete@ मो सम कौन ?
ReplyDeleteपढ़ना अच्छा लगता है पर अभिनय के साथ सुनाया जाना पूरा मन मस्तिष्क में छा गया। अभी भी एक एक शब्द गूँज रहा है मन में।
@ Vivek Rastogi
बच्चों को कहानी सुनाने के लिये बहुत सोचना पड़ता है और साथ ही साथ धैर्य भी रखना पड़ता है। दोनों गुण ब्लॉगरों के लिये, अतः अच्छे ब्लॉग लिखने हों तो बच्चों को कहानी सुनाईये।
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
बदायूँ की लड़की इतनी बेबाकी से लिख सकती है और हम समस्यायें देखकर भी मुँह ताकते रहते हैं। दादी जहाँ भी होगी, किसी न किसी को तो कहानी सुना ही रही होगी।
@ Ratan Singh Shekhawat
दादी की कहानियाँ जीवन भर याद रहती हैं। आप भाग्यशाली हैं, यह भाग्य आने वाली पीढ़ियों को भी दें।
@ 'उदय'
कहानियाँ तो बैठकर सुकून से पढ़ने लायक हैं। पोस्ट से बहुत लम्बी हैं सब।
शुक्रिया प्रवीण जी इस कहानी पर एक अच्छा लेख तैयार हो गया.
ReplyDeleteआप जैसा अपराध बोध मुझे भी हो रहा है कुछ दिनों से क्युकी बच्चों को कहानी सुनाने की ये दिनचर्या छूट गयी मेरी इस नेट के चक्कर में.
फिर से कोशिश करुँगी...लेकिन कहानी ढूँढना भी तो मुश्किल हो गया है :)
@ वाणी गीत
ReplyDeleteएकल परिवार में भी जो माता पिता यह कर्तव्य निभा पाते हैं, उन्हें विशेष प्रयास करना पड़ता है। यह देख कर संयुक्त परिवारों की उपयोगिता और घर के वयोवृद्धों का सम्मान बढ़ता है।
@ मनोज कुमार
अच्छी कहानियाँ पढ़ी जायें और सुनायी जायें। हितोपदेश, पंचतंत्र, महाभारत, रामायण आदि कथायें तो भरी पड़ी हैं, हमारी संस्कृति में।
@ Rahul Singh
बहुधा दास्तांगोई बहुत लोग रंगमंच की विधा के रूप में नहीं देख पाते हैं पर यह प्रस्तुति देख कर आनन्द आ गया, आगे भी देखने की इच्छा है।
@ पद्म सिंह
कहानियाँ पता नहीं क्या क्या मोड़ ले लेती थी, हम लोग मुँह बाये सुनते रहते थे, जैसे कि कहानी के अन्दर रह कर जी रहे हैं।
@ G Vishwanath
आप अपनी व्यस्तता की कहानी ही सुना दीजिये, हैदराबाद की भी।
अब बच्चों के दादा, दादी और नाना, नानी से प्रार्थना करनी है कि आकर बच्चों को कहानियाँ सुनायें।
@ Vijay Kumar Sappatti
ReplyDeleteजिस समय इस्मत चुगताई ने ये कहानियाँ लिखी थीं, उस समय किसी ने भी कल्पना नहीं की थी इस बेखौफी की। बहुतों को तो हज़म ही नहीं हुआ था उनका खुलापन।
@ Shekhar Suman
बहुत लिंक हैं इण्टरनेट पर, देखिये कुछ लगाता हूँ।
@ संतोष त्रिवेदी ♣ SANTOSH TRIVEDI
आप सच में भाग्यशाली हैं कि आपकी अम्माजी ने आपको इतनी कहानियाँ सुनायी हैं। ज्ञान का वह अथाह सागर कभी कमतर नहीं आँका जा सकता है। हमारे संस्कार, संस्कृति और कितना ज्ञान भरा है उन कहानियों में।
@ ajit gupta
सच कह रही हैं, जो कहानी सुनता है, उसी को अनुभव आता है कि कैसे सुनानी है कहानी। अब प्रयास तो करना ही है।
@ प्रतिभा सक्सेना
इतने स्नेह भरे वातावरण में भला कहाँ इतना ज्ञान और विवेकपूर्ण बातें संप्रेषित होंगी। कल्पनाशीलता तो निश्चय ही उन्हीं कहानियों का निष्कर्ष है।
@ PD
ReplyDeleteमैं तो सदा ही अपनी दादी के कल्पना-चित्र ही बनाता रहा। कोई फोटो भी तो नहीं थी उनकी।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
पूर्ण अभिनय से सुनाने पर ही आनन्द आता है बच्चों को। ढीले ढंग से सुनाने में न उनको सुहाता है और न आपको।
@ नरेश सिह राठौड़
सभी बच्चों को कहानियाँ अच्छी लगती हैं। यदि हम नहीं सुनाते हैं तो अपना जीवन नीरस कर जीना बच्चे भी सीख लेते हैं।
@ दीपक बाबा
बच्चों के द्वारा पूछे गये प्रश्न बड़े ही गहरे व रोचक होते हैं, कहानी सुनाने वाले को भी बहुत कुछ सिखा जाते हैं।
@ anshumala
आप बड़ा अच्छा कार्य कर रही हैं पर हमें तो पहले ही नींद आ जाती है।
@ अरुण चन्द्र रॉय
ReplyDeleteसच में दादी नानी की कहानियों में वह जादू है कि टीवी जैसा बुद्धू बक्सा चुपचाप बैठ जाता है।
@ डॉ॰ मोनिका शर्मा
जीवन के अनुभव का निचोड़ रहता है इन कहानियों में।
@ abhi
मन में जो आये वह कर लेना चाहिये। अगली बार जायेंगे तो आपको बता देंगे।
@ ashish
पौराणिक पात्रों में न जाने कितनी पर्तें छिपी रहती हैं, व्यक्तित्वों की। कितने अनकहे, अनसुने पक्ष, बस मन में बस जाते हैं।
@ arvind
बहुत बहुत धन्यवाद आपका।
@ shikha varshney
ReplyDeleteएक बार अवश्य पढ़ी जानी चाहिये ये कहानियाँ। जिस परिवेश में लिखी गयी और जिस साहस से लिखी गयीं, सच में एक मिसाल है।
@ rashmi ravija
कहानी का एक एक शब्द मन में बस गया है, इस प्रस्तुति के माध्यम से।
@ वन्दना
बहुत धन्यवाद आपका, निश्चय ही आयेंगे।
@ दिगम्बर नासवा
मै भी पहली बार जाना था इनके बारे में, वह भी नसीरुद्दीन शाह के माध्यम से।
@ राजेश उत्साही
स्वयं की कहानी कहने के प्रयास में यह अन्तर समझ में आ जाता है।
@ mukti
ReplyDeleteउनके हाव भाव व हर शब्द में जैसे कहानी बसी हो। पूरी कहानी सुनाते जाना जैसे एक एक शब्द स्वयं ही पिरोया हो। अद्भुत। आपके बांजे अपनी मौसी को बहुत याद रखेंगे।
@ उपेन्द्र ' उपेन '
बहुत धन्यवाद आपका।
@ POOJA...
समेटना और भी चाह रहा था पर कर नहीं पाया। कहानी भी बतलाना चाह रहा था पर पोस्ट ने बस कह दिया।
@ cmpershad
बहुत धन्यवाद आपका।
@ एस.एम.मासूम
यदि संभव हुआ तो उनकी कहानियों पर भी लिखने का प्रयास करूँगा। हाँ लेख तो लिखना ही है।
@ चला बिहारी ब्लॉगर बनने
ReplyDeleteमण्टो पर भी मुकदमा चला था। उन्हे अधिक नहीं पढ़ पाया हूँ।
@ विष्णु बैरागी
कहानी सुनाने की विधा तो सदियों पुरानी है। कथोपकथन के बारे में जानकर ज्ञान बढ़ा।
@ hindizen.com
जिद थी उनमें अपनी जिन्दगी अपने तरह से जीने के लिये और उन्होने जी भी। कथा सुनाना बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है और अंड बंड कर नहीं टहलाया जा सकता है।
@ ताऊ रामपुरिया
कार्टून इत्यादि में वह बात नहीं जो कहानी सुनाकर बच्चों को बहलाने, सुलाने और जीवन बनाने में है।
@ राज भाटिय़ा
दादी के मुँह से सुनी कहानी कितनी मधुर हो जाती है।
@ अनामिका की सदायें ......
ReplyDeleteब्लॉग लेखन ने इसमें थोड़ा व्यवधान उत्पन्न कर दिया है पर लय को पुनः पाना है।
कहानी सुनाने सुनाने के कई लाभ है. बड़ी भूमिका होती हैं इनकी व्यक्ति के निर्माण में.
ReplyDeleteसुन्दरता से याद किया आपने . इस्मत के लेखन का जोड़ मिलना कठिन है . और कहानी का अभिनय से भरा वाचन , पढने से ज्यादा रुचता है , इसमें कोई दो राय नहीं . एन. शाह के अभिनय की ख़ूबसूरती तो जबरदस्त है ही ! यानी फुल मजे में हैं , इन दिनों !!
ReplyDeleteइस्मत चुगताई व उनकी कहानियों को केन्द्र बनाकर दादी नानी के सरल उवाचों को तसव्वुर में लाने के लिये आभार व बधाई।
ReplyDeleteअच्छी जानकारी दी आप ने ,अपना नाम देख कर आकर्षित हुई :)
ReplyDeleteहालांकि इस्मत चुग़ताई जी को बहुत ज़्यादा तो नहीं पढ़ा है लेकिन ये सही है कि उन के समय में जो लेखन चल रहा था उस के अनुसार वो बहुत बोल्ड थीं पर अपने क़लम से उन्होंने ख़ूब कारनामे किये और आज भी याद की जा रही हैं
ज्ञानवर्धन के लिये धन्यवाद
अंड-बंड से मेरा अभिप्राय है तत्काल मन में ही एक वाक्य को पकड़कर कहानी बुनना और उसे सुनाते समय ही उसे बुनते हुए अंत तक ले जाना. एक वाक्य पकड़ना होता है, जैसे 'एक जंगल में एक शेर रहता था....'. इसके आगे कथा विकसित करने की अनगिनत संभावनाएं हैं:)
ReplyDeletet
इस दौर में नानी और दादी की कहानियाँ न जाने कहाँ खो गई हैं !
ReplyDeleteबचपन में ये कहानियाँ सजीव होकर आँखों में तैरने लगती थीं और कई कई दिनों तक मन पर अपना प्रभाव बनाए रखती थीं ! इन कहानियों का बच्चों के चरित्र निर्माण में भी बहुत बड़ा योगदान होता था !
नासुरुद्दीन जी इस अभिनव प्रयोग के लिए बधाई के पात्र हैं !
प्रवीन जी,इतनी अच्छी पोस्ट लगाने के लिए आपको धन्यवाद !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
@ अभिषेक ओझा
ReplyDeleteव्यक्तित्व निर्माण में बहुत बड़ी भूमिका है बचपन में सुनायी गयी कहानियों की। याद रह जाती हैं वो कहानियाँ जीवनपर्यन्त।
@ अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
निश्चय ही एक अनुभव है इस्मत आपा की कहानियाँ नसीरुद्दीन शाह के बोलों में सुनना। आपको अवसर मिले तो छोड़ियेगा नहीं।
@ ѕнαιя ∂я. ѕαηנαу ∂αηι
यह क्रम प्राकृतिक रूप से ही बन गया है। बहुत धन्यवाद हौसला आफजाई का।
@ इस्मत ज़ैदी
लिखने से पहले आपका नाम भी याद आया था। लगभग एक वर्ष पहले ही पढ़ना प्रारम्भ किया है, इस्मत चुगताई को।
@ Nishant
अंड बंड से निश्चय ही कथा को किसी भी दिशा में मोड़ने की राह मिल जाती है। दो तीन पात्र हमने भी बना रखे हैं, उनमें कुछ वास्तविक पात्र मिला कर बड़ी ही अच्छी कहानी बन जाती है।
@ ज्ञानचंद मर्मज्ञ
ReplyDeleteपुरानी कहानियों की आत्मीयता अब धीरे धीरे कम होती जा रही है। कहानी सुनाने का अभिनव प्रयोग और बहुत कुछ कहती हुयी इस्मत चुगताई की कहानियाँ, दोनों का सम्मलित अनुभव बड़ा ही आनन्ददायक रहा।
दादी की कहानी कित्ती प्यारी होती है...
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'पाखी की दुनिया' में छोटी बहना के साथ मस्ती और मेरी नई ड्रेस
@ Akshita (Pakhi)
ReplyDeleteआप भी नानी और दादी के घर होकर आयी हैं, बहुत कहानी सुनी होंगी।
bahut badiya post..........
ReplyDeletekahanee sunne sunane ka dour hamare ghar me chal raha hai......dadee nanee se bhee roz kahanee sunke hee sote the.......
dadee kee kahaniya seekh detee thee to nanee kee kahaniya parilok kee sair karatee thee.........mythological kahaniya bhee bahut sunee hai........are aapne to mera , baccho ka bachpan hee yaad dila diya.........
@ Apanatva
ReplyDeleteआपकी नानी और दादी ने तो पूरा ही लोक परीलोक बता दिया, यह तो सचमुच ही बड़ा भाग्यशाली बपचन है।
वाकई, भारतीय कहानी के क्षेत्र में इस्मत जी के सामने कोई दूसरा रचनाकार दूर दूर तक नजर नहीं आता।
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त्रिया चरित्र : मीनू खरे
संगीत ने तोड़ दी भाषा की ज़ंजीरें।
कमाल का आलेख।
ReplyDelete..निबंध शीर्षक से एक पुस्तक की पर्याप्त सामग्री संग्रहित हो गई लगती है।..प्रतीक्षा रहेगी।
ऐसे लेखक विरले ही पैदा होते हैं.
ReplyDeleteइस्मत आपा के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा।
ReplyDelete@ ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
ReplyDeleteउनकी नज़र और हिम्मत सच में काबिले तारीफ है।
@ देवेन्द्र पाण्डेय
इस्मत चुगताई ने तो बहुत लिखा है पर कहानियों के ऊपर तो पुस्तक लिखी जा सकती है।
@ Kajal Kumar
सच कहा है आपने, इस्मत आपा जैसा कोई नहीं।
@ ZEAL
कहानियाँ पढ़ कर देखें, और भी आनन्द आयेगा।
इस्मत आपा के नाम देखने की मेरी भी बहुत इच्छा थी...पर ठीक से प्लान नहीं कर पायी तो मिस हो गयी. लग तो तभी से रहा था कि बड़ी चीज़ छूट गयी है, आज आपसे सुनकर और भी ज्यादा अफ़सोस हो रहा है.
ReplyDeleteइस्मत को अक्सर पढ़ा है, उनकी जीवनी भी एकदम अलग अंदाज़ में लिखी है उन्होंने.
ek dam sahi kaha aapne...mene bhi hal hi me is natak ko dekha....behtreen natak...is lekh ke liye sadhuvad
ReplyDelete@ Puja Upadhyay
ReplyDeleteहाथ में मौका फिर आयेगा, नसीरुद्दीन शाह एक वर्ष पहले और भी यह कर चुके हैं। दो कहानियाँ थी, लिहाफ औऱ मकदमा।
@ Ankur jain
मंत्रमुग्ध हो देखते गये हम, आपको भी वही आनन्द आया होगा।
कहानियों की इस रंगमंचीय प्रस्तुति विधा के बारे में पहली बार जाना ....इस्मत चुगताई के सशक्त कथाकार रही हैं उनकी लिहाफ कहानी सर्वाधिक चर्चित कहानियों में से है !
ReplyDelete@ बहुत लिंक हैं इण्टरनेट पर, देखिये कुछ लगाता हूँ।
ReplyDeleteजो लोग चाहें, इस्मत आपा की कुछ कहानियाँ यहाँ सुन सकते हैं:
दो हाथ
चौथी का जोड़ा
मैं एक बच्चे को प्यार कर रही थी
साहित्य की सबके कठिन या कहें श्रम साध्य विधा मुझे कहानी ही लगती है...इस विधा को जो सफलता पूर्वक साध ले,वह बहुत बड़ा विजेता होता है..
ReplyDelete@ Arvind Mishra
ReplyDeleteपिछले वर्ष लिहाफ का मंचन भी देखा था। वह कहानी भी उनकी अन्य कहानियों की तरह ही सशक्त है।
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
अभी जाकर सुनते हैं।
@ रंजना
सच में कहानी सुनाना श्रम साध्य है, वह भी जब सुनने वाला हठ पर आ जाये।
नसीर जी की आवाज़ में कथा सुनने का अनुभव भी अलग रहा होगा।
ReplyDelete@ Manish Kumar
ReplyDeleteनसीर जी की आवाज में सुनना मुग्धता का चरम था।