बचपन में मुहल्ले में शतरंज का खेल होता था। बाल सुलभ प्रश्न उठता था कि क्या करते रहते हैं दो लोग, घंटों बैठकर, घिरे हुये बहुत लोगों से, आँखे गड़ाये सतत। मस्तिष्क की घनीभूत प्रक्रिया किन मोहरों के पीछे इतना श्रम करती रहती है और वह भी किस कारण से। उत्सुकता खींच कर ले गयी वहाँ तक, पता ही नहीं चलता था, घंटों खड़ा रहता था, देखता रहता, सुनता रहता, गुनता रहता, समझता रहता। हाथी और ऊँट जैसे सीधे चलने वाले मोहरों से परिचय शीघ्र ही हो गया, जीवन में भी यही होता है। घोड़े की तिरछी चाल, प्यादे का तिरछा मारना, राजा की असहायता और वजीर का वर्चस्व उन 64 खानों में बिछा देखा तो उत्सुकता भी नशेड़ी हो गयी। कितनी संभावनायें, कोई दो खेल एक जैसे नहीं, कभी हार, कभी जीत और कभी कोई निष्कर्ष नहीं।
हृदय सरल होता है, मन कुटिल। शतरंज के खेल में मन को पूर्ण आहार मिलने लगा, उसे अपने होने का पूर्ण संतोष प्राप्त होने लगा। धीरे धीरे ज्ञान बढ़ने लगा और लगने लगा कि सभी मोहरों के मन की बात, उनकी शक्ति, उनकी उपयोगिता मुझे समझ में आने लगी है। कौन कब खतरे में है, किसे किस समय रक्षार्थ आहुति देनी है, किसे अन्य मोहरों से और सुरक्षा प्रदान करनी है, धीरे धीरे दिखने लगा। यद्यपि छोटा ही था पर कुछ ऐसी परिस्थितियाँ देख कर किसी के कान में बता देता था, जिससे लाभ होना निश्चित होता था। धीरे धीरे तीक्ष्ण प्रशिक्षु के रूप में उन बाजियों का दरबारी हो गया।
शतरंज का नशा मादक होता है, हर दिन छुट्टी के बाद और माता पिता के घर आने तक का समय शतरंज की बाजियों में बसने लगा। खाना खाते समय, गृहकार्य करते समय, सोने के पहले, उठने के बाद, मोहरों के चेहरे अन्तर्मन में घुमड़ने लगे।
शतरंज की गहराई, अगली कई चालों तक उन संभावनाओं को देखने की बौद्धिक शक्ति है, जो आपको हानि या लाभ पहुँचा सकती हैं। सामने वाले की चालें क्या होंगी, यह भी सामने वाले की ओर से आपको सोचना होता है, आपको दोनों ओर से खेलना है पर स्वयं की ओर से थोड़ा अधिक और थोड़ा गुप्त। हर चाल के बाद रणनीति बदल जाती है, हर चाल के बाद बौद्धिक प्रवाह पुनः मुड़ जाता है।
प्रारम्भ में मोहरों की सम्भावनायें, मध्य में उनकी शक्ति के आधार पर प्रबल व्यूह संरचना और अन्त में उनकी पूर्ण शक्ति का उपयोग किसी भी खेल के महत्वपूर्ण पक्ष हैं। हार और जीत का अवसाद व उन्माद, चालों के बीच की अर्थपूर्ण चुप्पी, मोहरा घेर कर चेहरे पर आयी कुटिल मुस्कान और मोहरा मार दम्भयुक्त अट्टाहस किसी भी राजप्रासाद या मंत्रीपरिषद के मंत्रणा कक्ष से कम रोचक नहीं लगते हैं। एक खाट पर बैठे हुये ही सिकन्दर सा अनुभव होने का भान होता है।
प्यादों को शहीद कर राजा की रक्षा करना शतरंज की बाजियों पर बहुत पहले देख चुके हैं पर उसमें दुख नहीं होता था। राजनीति का चरित्र शतरंजी होते देख हृदय चीत्कार कर उठता है। मन की कुटिलता मोहरों की नाटकीयता में आनन्दित रहती थी, हृदय की संवेदना मनुष्यों के मोहरीकरण में द्रवित हो जाती है। नित एक मोहरा गिर रहा है रक्षार्थ, बस राजा का राज्य बना रहे।
एक बड़े फुफेरे भाई जो बहुत अच्छा खेलते थे और साथ ही बड़ा स्नेह भी रखते थे, शतरंज की बाजियों में साथ में बिठा लेते थे। जो शतरंजी चालें बचपन में समझ नहीं आती तो पूछ लेता था, कभी कभी सार्थक उत्तर मिल जाते थे, पर कभी यदि कुछ छिपाना होता था तो यही कहते थे।
"तुम क्या जानो राजनीति की घातें और प्रतिघातें"
पता नहीं क्यों पर अब तो राजनीति की हर चाल के पश्चात यही अट्टाहस अनुनादित होता है।
सच ही है, हम क्या जानें, राजनीति की घातें और प्रतिघातें।
सच ही है, हम क्या जानें, राजनीति की घातें और प्रतिघातें।
प्रवीन जी ... सही कहा ... राजनीति और शतरंज एक सी है.. बस राजा को बचाना है .. बाकी किसी चीज़ का कोई महत्व नहीं ... अगर इतिहास पर भी नज़र दालिएँ तो कुछ ऐसा ही देखने को मिलेगा.. फिर चाहे वो किसी भी वजह से हो ..शायद ये ही राजनीति है ... एक सार्थक लेख ... शुभकामनाएं ..
ReplyDeleteक्या सुन्दर संजोग है जी.....आज तो मैंने भी शतरंज के बारे में ही कुछ उड़ेला है अपनी पोस्ट में, लेकिन यह शतरंजी बिसात तो मजा दे गई। एकदम राप्चिक।
ReplyDeleteसंभवत: शतरंज की खोज मंदोदरी ने की थी ऐसा कहीं पढ़ा है (कन्फर्म नहीं कह सकता)। उद्धेश्य था रावण को ज्यादा से ज्यादा वक्त अपने महल में बनाये रखना। अब इसमें कितना सही है कितना गलत ये तो विद्वान लोग ही बता सकते हैं :)
शानदार पोस्ट है।
राजनीति की बातें समझनी पड़ेंगी। मन की राजनीति के स्थान पर हृदयवान राजनीति स्थापित करनी पड़ेगी।
ReplyDeleteआपका पोस्ट पढ़कर कहूंगा कि ''शतरंज (सौ रंज हों, जिसमें) की बिसात और खेल, मानों राजनीति का व्यंग्य चित्र. ऐसा कभी सोचा नहीं था.
ReplyDeleteमैं जीवन में कुछ चीजें कर नहीं पाया जिसमें एक शतरंज की बिसात जमाना भी है -यह खेल मुझसे अधिक प्रतिभाशाली लोगों का एकाधिकार ही लगा मुझे ..कभी सीख नहीं पाया ..मैं इससे कुछ कमतर आई क्यू के खेल जरूर खेलता रहा हूँ .....
ReplyDeleteघात- प्रतिघात ...अब सिर्फ राजनीति में कहाँ रहा ....लोक व्यवहार में शामिल हो गया है !
ReplyDeleteसतीश जी ने भी रोचक जानकारी दी ...
कम्प्युटर पर शतरंज खेलते हैं क्या? किसी बड़ी हस्ती ने कहा है की कम्प्युटर मुझे शतरंज में तो हरा सकता है पर किक-बौक्सिंग में मेरे सामने कुछ नहीं है.
ReplyDeleteराजनीति और शतरंज. कहें कि शतरंज के खेल में फिर भी कुछ नियम कायदे हैं और खेल ईमानदारी मांगता है. शतरंज की घातें-प्रतिघातें सुनिश्चित और स्वीकार्य हैं.
बहुत मुश्किल है और बेहतर ही है कि नहीं जानते राजनीति की घातें और प्रतिघातें।
ReplyDeleteबहुत रोचक लेखन!!
पहले भी कहा है कि आपकी क्वालिटी है ये, हर चीज में सकारात्मक अर्थ ढूंढ लेते है, जबकि आम लोग सिर्फ़ बाहरी आवरण में व्यस्त रहते हैं। अपने को शतरंज बहुत बोरिंग खेल लगा शुरू से ही, not happening टाईप का, लेकिन आपकी बातें सौ फ़ीसदी सही है।
ReplyDeleteहृदय सरल होता है, मन कुटिल।
ReplyDeleteप्रवीण जी
आपने बहुत गंभीर जीवन दर्शन सामने रख दिया ...विश्लेषण की आवश्यकता है ..खुद को ...शुक्रिया
बचपन में मैं पापा, अपने मामा, बहन और भैया के साथ खेलता था शतरंज...लेकिन इस खेल से अलग हुए कुछ दस बारह साल हो गए :(
ReplyDeleteअब तो सारी चालें और रणनीति भूल चूका हूँ...
वैसे जबरदस्त लेख है, रोचक और मस्त..
ताली बजा दी है मैंने इस लेख पे :)
पता नहीं कितनी कुटिलतायें अन्दर समेटे रहते है मैकियावलियन राजनीतिबाज
ReplyDeleteशतरंज की विसात पर योद्धाओ की शह- मात, एक दुसरे पर प्रतिघात . अवध के नवाब से लेकर विश्वनाथन आनंद तक . कही राजपाट के लिए विष तो कही देश के लिए सम्मान अर्जित करने का खेल.
ReplyDeleteARE BHAI GHAT AUR PRATGHAT SE PALA PADTA HEE RAHTA HAI AUR AB TO GHOR KALIYUG CHAL RAHA HAI NA.....? ISSE KANHA CHUTKARA.........
ReplyDeleteSHATRANJ KYA KOI BHEE KHEL KYO NA HO . CHALE SHADYANTREE HEE PADNE LAGEE HAI.
अत्यंन्त पठनीय लेख!
ReplyDeleteहम भी खेलते थे, एक जमाने में।
एक दिन देर रात तक खेलते गए और उस रात को हम सो न सके।
शंतरंज की मोहरें हमारे मन में सारी रात घूमती फ़िरती थी।
अगले दिन हम क्लास में ठीक से ध्यान भी नहीं दे पा रहे थे।
हम तो कई बार शंतरंज के पहेलियों से भी जूझते थे।
(White to play and mate in two, or white to play and mate in three)
Graduation के बाद हमने खेलना छोड दिया।
हाँ, कंप्यूटर के साथ एक दो बार खेला था
इतनी बुरी तरह मेरी हार हुई के हम उस दिन से शतरंज से दूर रहे हैं।
कुछ वर्ष पहले तक कहा गया था के दुनिये के सर्वश्रेष्ठ खिलाडी कंप्यूटर को हरा सकते हैं
आज क्या स्थिति है? किसी को इसके बारे में जानकारी है?
राजनीति और शतरंज दो बिल्कुल अलग चीज़ें हैं।
राजनीति में नियम, कायदे और सिद्दान्त ही है कहाँ?
शतरंज का एक अच्छा खिलाडी क्या एक अच्छा राजनीतिज्ञ बन सकता है?
क्या हम विश्वनाथन आनंद को प्रधान मंत्री बनने दें?
नहीं जी!
शतरंज का ६४ खानों वाला मैदान को साफ़ रहने दिया जाए।
राजनीति का मैदान तो एक दलदल है।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
नित एक मोहरा गिर रहा है रक्षार्थ, बस राजा का राज्य बना रहे।
ReplyDeleteकितनी गहरी बात कह दी प्रवीणजी, शै और मात का खेल चल रहा है लेकिन राजा अभी बचा हुआ है।
बहुत ही बढिया पोस्ट, बधाई।
hindizen की बात से सहमत कि " शतरंज के खेल में फिर भी कुछ नियम कायदे हैं और खेल ईमानदारी मांगता है. शतरंज की घातें-प्रतिघातें सुनिश्चित और स्वीकार्य हैं."
ReplyDeleteशतरंज तो बहुत प्यारा खेल है, रिसोर्स और प्लानिंग का एंगल भी है उसमें।
पर राजनीति की तो कोई नीति ही नहीं, इसमें न खेल भावना, न हार को स्वीकारना है।
प्यादों को शहीद कर राजा की रक्षा करना शतरंज की बाजियों पर बहुत पहले देख चुके हैं पर उसमें दुख नहीं होता था। राजनीति का चरित्र शतरंजी होते देख हृदय चीत्कार कर उठता है।
ReplyDeleteनित एक मोहरा गिर रहा है रक्षार्थ, बस राजा का राज्य बना रहे।
बहुत सार्थक लेख ....मुंशी प्रेम चंद की"शतरंज के खिलाड़ी " याद आ गयी ...
सच राजनीति की घातें प्रतिघातें हम जैसे आम जनता कैसे जानेगी ? आपका हर लेख गहन विचार रखता है ..और लेखन ऐसा कि पढ़ने में आनन्द आता है ..
बिल्कुल सही कहा। आपकी पकड़ काबिले तारीफ है
ReplyDeleteप्रवीण भाई सच कहा आपने.. राजनीति शतरंज से ही उपजी प्रतीत होती है.... रोचक आलेख लगा...
ReplyDeleteमैं तो बिलकुल भूल ही गयी थी....आपकी पोस्ट ने याद दिला दिया...कि कभी मैं भी शतरंज खेला करती थी और कॉलेज में फाइनल राउंड तक भी गयी थी...वो मेडल मैं जीतती या हारती...ये पता नहीं चल पाया क्यूंकि फाइनल के एक दिन पहले माँ की तबियत खराब होने से अचानक घर जाना पड़ा...
ReplyDeleteपर इसका नशा होता भयंकर है...अपने बेटों को शतरंज की क्लासेज़ में डाला. बस यह सोच कि कंसंट्रेशन बढेगा....पर ये लोंग एक घंटे की क्लास में 5 घंटे बिता देते थे...टीचर भी इम्प्रेस्ड हो कुछ नहीं कहते...लिहाज़ा निकालना पड़ा.
राजा की असहायता और वजीर का वर्चस्व हर जगह देखने को मिल जाता है.
...shatranj se raajneeti seekhee jaa saktee hai par kootneeti naheen ... shaandaar-jaandaar post !!!
ReplyDeleteखेल को कल ही रहने दो कोई नाम न दो ...
ReplyDeleteHa ha ...vaise इस खेल का नशा कभी कभी राजनीति के नशे से भी ज्यादा होता है ...
राजनीती की घाट प्रतिघातें आज हर स्तर पर बनी हुई हैं ऑफिस में, शहर में , गाँव में हर जगह यही खेल बन हुआ है
ReplyDeleteक्या असहाय राजा को बचाना ही शतरंज के खेल का निचोड़ है |
ReplyDeleteहाँ जब राजनीती राजतन्त्र तक हो तो शतरंज का खेल सार्थक है |
लोकतंत्र की राजनीती घात प्रतिघात से भरती जा रही है |
शतराज के खेल और आज के राजनैतिक गलियारों के सन्दर्भ में बहुत सार्थक आलेख |
राजनीति के घाट और प्रतिघात को ना जानना ही श्रेयस्कर है |
ReplyDeleteप्रवीन जी, पोस्ट पढते समय बार बार देश की तस्वीर आ रही थी। जनता शतरंज की बिसात , राजा पस्त, वजीर मस्त , कुर्बान होते प्यादे सबकुछ है यहाँ।
ReplyDeleteनित एक मोहरा गिर रहा है रक्षार्थ, बस राजा का राज्य बना रहे
ReplyDeleteक्या बात कही है ,वैसे राजनीती ही क्या अब तो जीवन भी शतरंज की बाजी सा ही लगता है.कभी हार ,कभी जीत और कभी कोई निष्कर्ष नहीं
बेहतरीन पोस्ट.
तभी तो ये शतरंज का खेल हर किसी के बस का रोग नही।
ReplyDeletepraveenjee uprokt blog ko paryapt samay deejiye.......ek ek TAB par CLICK kariye............
ReplyDeleteSAMADHAN bhee dekhiye............
BANGALORE KEE CHURCH STREET KEE KAYA PALAT DEKHIYE..........
PL TJODA SAMAY DEEJIYE ISE.........
SAHEE DISHA KEE SAKARATMAK SOCH HAI...
ISE AAP BHEE PROMOTE KARANE ME SAHYOG DEEJIYE
DHANYVAD
क्या राजनीति शतरंज की खेल है //
ReplyDeleteshatranj ka khel aur rajneeti........kitni samaantayen hai.....acha aalekh!!
ReplyDeleteकाफ़ी समय तक शतरंज खेली और जो एहसास किया उसको आज आपकी पोस्ट के माध्यम से अभिव्यक्त होते पाया. वाकई घात और प्रतिघात का खेल है और शायद जीवन के हर पहलू को अभिव्यक्त करता है. बहुत ही सुंदर, सहज और सशक्त आलेख, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
शतरंज की चालें तो जीवन में आजकल आम हो गयी | प्रोफेशन में भी घात प्रतिघात चलता ही रहता है |
ReplyDelete.
ReplyDeleteशतरंज और राजनीती तो एक दुसरे के पूरक हैं। खेलने वालों की दिमागी कसरत भी अच्छी हो जाती है।
.
बचपन में बहुत इच्छा होती थी इस गेम को खेलने और सीखने की. स्कूल कॉलेज में हमें कोई मिला नहीं जिसे हम गुरु बना सकें.
ReplyDeleteखैर अब तो सिर्फ अपनी खाल बचाना आता है,
‘शतरंज का नशा मादक होता है’
ReplyDeleteहां जी, देखा नहीं असली राजा मर रहा था पर दो ‘शतरंज के खिलाड़ी’ अपने शतरंजी राजा के लिए मर-खप गए!!!
हृदय सरल होता है, मन कुटिल। शतरंज के खेल में मन को पूर्ण आहार मिलने लगा, उसे अपने होने का पूर्ण संतोष प्राप्त होने लगा। धीरे धीरे ज्ञान बढ़ने लगा और लगने लगा कि सभी मोहरों के मन की बात, उनकी शक्ति, उनकी उपयोगिता मुझे समझ में आने लगी है। कौन कब खतरे में है, किसे किस समय रक्षार्थ आहुति देनी है...
ReplyDelete----------------------------
निशब्द देने वाले हैं यह शब्द ..... ना जाने क्यों इनमे राजनीती ही नहीं आम ज़िन्दगी भी नज़र आती है....वैसे दिमागी कसरत वाला यह खेल कभी नहीं खेला मैंने ..... पर खेल को जानने समझने की इच्छा हमेशा से रही है।
@ क्षितिजा ....
ReplyDeleteकितने राजाओं पर पैदल न्योछावर होते आये हैं। राजा से निकटता का यह लाभ है कि हानि। राजनीति में सर्वजन का भला हो, यही राजा का धर्म भी है।
@ सतीश पंचम
आपकी पोस्ट का छद्म-वक्तव्य देखा, बहुत सुहाया भी। यह तो सत्य ही है कि इसमें बहुत समय जाता है। अभी भी खेलता हूँ, कम्प्यूटर के साथ पर समयाभाव में उतनी एकाग्रता नहीं आ पाती है।
@ दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi
राजनीति के केन्द्र में जनता का सुख रखा जायेगा तो उसका स्वरूप पवित्र होगा, राजा को केन्द्र में रखने वाले कितने युग देख चुके हैं हम, विनाश के।
@ Rahul Singh
राजनीति की बिसात तो बरसों बिछी रहती है, चालें बहुत देर में उभरती हैं, अतुलनीय धैर्य चाहिये होता है उन्हें समझने के लिये।
@ Arvind Mishra
ऐसा कुछ नहीं है, अभ्यास से धीरे धीरे समझ में आने लगता है। राजनीति से मिलाकर देखते हैं तो अब यह खेल भी समझ आने लगता है।
@ वाणी गीत
ReplyDeleteसामाजिक जीवन में राजनीति का प्रादुर्भाव, उसके दुष्प्रभावों को और सान्ध्र कर जायेगा।
@ hindizen.com
कम्प्यूटर से शतरंज खेले हैं, किक बॉक्सिंग अभी तक नहीं खेली है। शतरंज के नियम हम अनुसरण करते हैं, राजनीति को नियम विहीन कर यह शतरंज हो रहा है।
@ Udan Tashtari
कभी कभी इन सबका तथ्य जानना बहुत पीड़ा दे जाता है।
@ मो सम कौन ?
जो शतरंज के मर्म को समझने लगते हैं, उनके लिये कितना नशा हो ता है, यह तथ्य शतरंज के खिलाड़ी नामक फिल्म देखकर ही समझ में आता है।
@ केवल राम
मन की गति कोई न जाने। जब हृदय विचार प्रक्रिया को नियन्त्रण में कर लेता है, शुभ होने लगता है।
@ abhi
ReplyDeleteआपके साथ तो किसी सप्ताहन्त में बैठकर खेला जा सकता है यह खेल। कब समय निकाल रहे हैं।
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
राजनीतिज्ञ के पास 6 से भी अधिक प्रकार के मोहरे होते हैं, एक बार में।
@ ashish
बिसात का खेल तो समझ में आता है पर राजपाठ का जरा भी नहीं।
@ Apanatva
हर अंग में चालें जब आने लगती है, जीवन से सरलता मुँह छिपाने लगती है।
@ G Vishwanath
जितना जितना आप डूबने लगते हैं, शतरंज में, मन में मोहरे उतने ही घुमड़ने लगते हैं। शतरंज की पहेलियों से भी बहुत जूझे, पुस्तकें भी बहुत पढ़ीं। पर अन्त में जो खेल उभरा, वह अपना ही निराला था।
@ ajit gupta
ReplyDeleteशह और मात का खेल चल रहा है, वर्षों से, राजा नहीं पैदल शहीद हो रहे हैं।
@ सम्वेदना के स्वर
आपके कथन से पूर्णरूप से सहमत, बस यही प्रार्थना कर सकते हैं कि राजनीति में भी कुछ नियम होते।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
जिस दिन राजनीति की घातें और प्रतिघातें आमजन को समझ में आ गयीं, विद्रोह सी स्थिति बन जायेगी। पूरी वस्तुस्थिति केवल खेलने वाले को ही समझ में आती है।
@ Satyendra Prasad Srivastava
बहुत धन्यवाद आपका।
@ अरुण चन्द्र रॉय
मुझे लगता है कि राजनीति की शिक्षा और धार तीक्ष्ण करने के लिये शतरंज के ख्ल की संरचना हुयी होगी।
@ rashmi ravija
ReplyDeleteमेरा विश्वास है कि आप जीत अवश्य जातीं। शतरंज का खेल बहुत समय माँगता है। अब जीवन में उतना धैर्य कहाँ रहा?
@ 'उदय'
राजनीति अब इतनी भयावह हो गयी है कि शतरंज के मोहरे भी गश खाकर गिर पड़ें।
@ दिगम्बर नासवा
नशा दोनों में ही है, निर्भर करता है कि आपका स्तर क्या है?
@ गिरधारी खंकरियाल
अब तो राजनीति का भी लोकतन्त्रीकरण हो गया है।
@ शोभना चौरे
लोकतन्त्र में भी लोग मोहरों का रूप धरे हुये सा व्यवहार करते हैं। कोई राजा है, कोई पैदल, यहाँ पर भी।
बढ़िया मनोरंजक लेख ! आपके ब्लॉग की सादगी मनभावन है प्रवीण जी ! शुभकामनायें
ReplyDelete@ नरेश सिह राठौड़
ReplyDeleteसच मे, लगता है कि न जानने से कितनी पीड़ा बच जाती है।
@ उपेन्द्र
इन परिस्थितियों में देश का ध्यान बरबस ही आ जाता है।
@ shikha varshney
बहुत धन्यवाद आपका।
@ वन्दना
पर कभी कभी लगता है कि अपने अपने स्तर की शतरंज सब खेल जाते हैं।
@ Apanatva
बहुत धन्यवाद आपका। आपका लेख भी ढूढ़ते हैं।
@ babanpandey
ReplyDeleteसंभवतः उससे भी अधिक अनुशासनहीन हो गयी है।
@ CS Devendra K Sharma
बहुत कुछ तो समानतायें हैं और थीं भी, पर आज राजनीति अपनी राह चली है।
@ ताऊ रामपुरिया
शतरंज के खिलाड़ी ही इस कशमकश को समझ सकते हैं।
@ Ratan Singh Shekhawat
हर कोई बिसात में अपने मोहरे देखना चाहता है।
@ ZEAL
दिमाग की कसरत तो ठीक है पर तब क्या हो जब लोग उसमें पूरा डूब जाते हैं।
मुझे तो पोस्ट पढ़ते हुए एज ऑफ़ एम्पायर के नशे में डूबे लोग याद आये जो दिन रात रणनीति ही बनाते रहते थे. ऐसे खेलों की आदत भी बड़ी बुरी होती है.
ReplyDelete@ Manoj K
ReplyDeleteशतरंज न जानते हुये उसके नियम हम जीवन में पालन करते रहते हैं।
@ cmpershad
उस फिल्म ने तो सब कुछ उधेड़कर रख दिया, शतरंज के बारे में।
@ डॉ॰ मोनिका शर्मा
जीवन के खेल को समझ लेना शतरंज को समझ लेने जैसा है, राजनीति को समझ पाना शतरंज में महारत पाने जैसा होगा।
@ सतीश सक्सेना
बहुत धन्यवाद आपका। शतरंज के विषय में परमहंसीय सादगी आपको ही दिख सकती है।
@ अभिषेक ओझा
ReplyDeleteउनकी आधुनिक सन्ततियाँ तो आज भी लगी रहती हैं रणनीति बनाने में, ध्वंस फैलाने में।
एक अच्छा लेख़ है राजनीती पे
ReplyDeleteशतरंज तो खेलता रहता हूं।
ReplyDeleteराजनीति ... दूर से सलाम।
.
ReplyDelete.
.
शतरंज और शतरंज के बहाने राजनीति का भी सुंदर विवेचन...
पर आप यह भी पायेंगे कि शतरंज के कुछ खिलाड़ी तब ज्यादा कामयाब होते हैं जब उनकी भावभांगिमायें विरोधी देख सके... यदि एक पर्दा डाल दें आप बीच में तो वह एकदम सामान्य स्तर के खिलाड़ी हो जाते हैं... कंप्यूटर अक्सर इसी लिये जीतता है...
राजनीति में भी वही शिखर तक जाता है जिसके Moves Cold, Calm & Calculated होते हैं... राजनीति हो या शतरंज, दोनों में भावनायें आपकी कमजोरी होती हैं।
आभार!
...
प्रवीण जी,
ReplyDeleteअग्री करते हैं हम! प्यादों का कोई मोल नहीं!
आशीष
---
नौकरी इज़ नौकरी!
@ एस.एम.मासूम
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ मनोज कुमार
शतरंज खेलना यदि अच्छा लगता है तो राजनीति समझना भी भायेगा। राजनीति में उतरने के पहले इसका दलदली स्वरूप जानना आवश्यक है।
@ प्रवीण शाह
कई लोग अपने मन के भाव अपने चेहरों और अपने शब्दों में नहीं छिपा पाते हैं, उनकी चालें चलने के पहले ही समझ में आ जाती हैं।
@ आशीष/ ਆਸ਼ੀਸ਼ / ASHISH
रक्षा के अतिरिक्त प्यादों का कभी कोई मोल नहीं रहा है।
हर चाल के बाद रणनीति बदल जाती है,
ReplyDeleteऔर प्रतिपल बदलती रणनीति के अनुसार चाल-प्रतिचाल बदल लेने वाला ही सच्चा खिलाड़ी है.
प्रवीन जी,
ReplyDeleteराजनीति और शतरंज दोनों में ही जीत उसी की होती है जिसके पास शातिर चालें चलने और दुश्मन की अगली चाल भांपने का हुनर होता है!
आपका लेख राजनीति का घिनौना चेहरा साफ़ साफ़ दिखा रहा है !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
एक ही नारा शह और मात
ReplyDeleteराजनिती के घात- प्रतिघात।
बिलकुल सही तुलना की राजनिती और शतरंज की। धन्यवाद।
चतुरंग से होकर शतरंज तक, मीर और मिर्ज़ा के खण्डहर से संसद तक और प्रेमचंद से प्रवीण पाण्डे तक!! बस कुछ नहीं रहा कहने को!
ReplyDeleteशतरंज की बिसात पर तो अपन कभी नहीं बैठे,केवल सुनते हैं कि बड़े दिमाग़ वाला खेल होता है यह.बचपन में ताश ज़रूर लुक-छुप कर खेली है.
ReplyDeleteरही बात शतरंजी और राजनैतिक चालों की तो शतरंज में दिमागी कौशल अधिक काम करता है जबकि राजनीति में कुटिलता से काम लेना ज़्यादा फ़ायदेमंद हो रहा है.इसलिए खेल जानने वाला राजनीति के 'खेल'में 'फिट' हो जाये ,ज़रूरी नहीं.
यह अच्छा है कि आप राजनीति की घातों और प्रतिघातों को न जानें पर आज इन्हें समझना तो ज़रूरी है !
यह खेल तो मुझे आता ही नही....
ReplyDelete@ M VERMA
ReplyDeleteशतरंज में तो लोग चाल बदलते हैं, राजनीति में तो आये दिन पार्टियाँ बदल लेते हैं लोग।
@ ज्ञानचंद मर्मज्ञ
शतरंज में मोहरों को मार कर खुश हो जाने की खुशी यदि लोगों को राजनीति में भी जारी रहती है तो देश का दुर्भाग्य बहुत ही निकट है।
@ निर्मला कपिला
राजनीति और शतरंज में घातें और प्रतिघातें ही गूँजती हैं।
@ सम्वेदना के स्वर
हम तो आगे की पंक्ति में खड़े प्यादे ही हैं, ईश्वर कब बढ़ाता है हमें या यूँ ही एक स्थान पर ही जीवन कटने वाला है।
@ संतोष त्रिवेदी ♣ SANTOSH TRIVEDI
ReplyDeleteशतरंज खेलने वाला सरल हृदय मानव राजनीति का अभ्यासी नहीं बन सकता है, उसके लिये उसे बहुत कुटिलता व जटिलता अपनानी पड़ेगी।
@ Manish
जब खेल न आये तो खेल देखना और भी रुचिकर हो जाता है। उपस्थित सैकड़ों चालों में कोई विशेष चाल ही क्यों चली गयी, रोचकता का विषय हो सकता है।
उपेन्द्र ने कहा…
ReplyDeleteप्रवीन जी, पोस्ट पढते समय बार बार देश की तस्वीर आ रही थी। जनता शतरंज की बिसात , राजा पस्त, वजीर मस्त , कुर्बान होते प्यादे सब कुछ है यहाँ।
जब लेख पढ़ रहा था उपरोक्त मनोदश मेरी भी थी.
अत: इसी टीप को मेरी भी मानी जाए.
कोशिश कर भी नहीं सीख पायी यह खेल.....
ReplyDeleteसत्य कहा आपने.....रजा को बचाना ,बस यही एकमात्र उदेश्य है इस शतरंजी राजनीति का...इससे अधिक और कुछ नहीं...
मन अदम्य आक्रोश से भरा है,पर करें क्या,यह ठीक ठीक नहीं सूझ रहा...
प्रवीण जी अच्छी रचना
ReplyDelete@ दीपक डुडेजा DEEPAK DUDEJA
ReplyDeleteदेश की दशा यही है, हमें तो पैदलों पर दया आ रही है।
@ रंजना
राजनीति के शतरंजी स्वरूप को देख बहुतों को क्रोध आता है, बहुतों को दया। पर यह सब होते हुये देखना तो पड़ता ही है, आँख बन्द कर नहीं बैठ सकते हैं।
@ दीप
बहुत धन्यवाद आपका।
रोचक आलेख.नशा तो किसी भी चीज़ का हो सर चढ़ कर ही बोलता है. रही बात घात प्रति घात की तो केवल राजनीति को ही क्यों बदनाम करें...
ReplyDeleteराजनीति की घाते और प्रतिघाते ना ही जाने तो सकून रहेगा .
ReplyDeleteराजनीतिक परिवार से सम्बन्ध रखने एवम एक राजनीतिक पार्टी का प्रदेश पदाधिकारी होने के बाबजूद मुझे लगता है कहां फ़सा हूं मै .छोडो यह सब ............ लेकिन
जनता शतरंज की बिसात , राजा पस्त, वजीर मस्त , कुर्बान होते प्यादे सब कुछ है यहाँ।
ReplyDeleteशानदार पोस्ट है।
@ रचना दीक्षित
ReplyDeleteअब तो हर क्षेत्र में घातें और प्रतिघातें चल रही हैं, सच है, राजनीति ही को दोष क्यों दोष दें।
@ dhiru singh {धीरू सिंह}
आप राजनीति को बहुत पास से जानते हैं, आपके अनुभव इस विषय में बहुत प्रकाश डाल सकते हैं।
@ Poorviya
बहुत धन्यवाद आपका।
क्या आप मै से किसी ने राजनिती की है ?
ReplyDeleteमेरे विचार से राजनिती तो मा रोती रह गई
और मारुती बन गई