एक लेखक की कई पुस्तकें एक सूत्रीय विचारधारा व्यक्त करती हुयी लग सकती हैं। दो लेखकों की पुस्तकों में भी कुछ न कुछ साम्य निकल ही आता है, तीन लेखकों में यही समानता उत्तरोत्तर कम होती जाती है, पर जब लगातार 7 लेखकों की लगभग 36 पुस्तकों में एक ही सिद्धान्त रह रह कर उभरे तब सन्देह होने लगता है, ईश्वर की योजना पर। वही प्रारूप, वही योजना, वही सन्देश, कहाँ ले जाने का षड़यन्त्र रच रहे हो, हे प्रभु। मान लिया कि पढ़ने में रुचि है, पर उसका यह अर्थ तो नहीं कि अब पुस्तकों के माध्यम से वही बात बार बार संप्रेषित करते रहोगे !
मेरे जीवन की जिज्ञासा आपकी भी बनकर न रह जाये अतः पहले ही आगाह कर देना चाहता हूँ इस पोस्ट के माध्यम से। पहला तो यह कि कितनी भी रोचक हों, इनमें से किसी भी लेखक की सारी पुस्तकें न पढ़ें, यह लेखक के विचारों को आपके मन में सान्ध्र नहीं होने देगा। दूसरा यह कि इन 7 लेखकों में से किन्ही दो या तीन लेखकों को न पढ़ें, यह उस विचार को आपके मन में धधकने से बचा लेगा। पिछले तीन वर्षों में 36 पुस्तकें पढ़, हम यह दोनों भूल कर बैठे हैं, आप न करें अतः शीघ्रातिशीघ्र आगाह कर अपनी आत्मीयता प्रदर्शित कर रहे हैं।
सर्वप्रथम तो सन्दर्भार्थ उन पुस्तकों का विवरण यहाँ पर दे रहा हूँ।
लेखक
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पुस्तकें
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रॉबिन शर्मा
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'द मोन्क व्हू सोल्ड हिज़ फेरारी' से 'द ग्रेटनेस गाइड' तक 9 पुस्तकें
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मार्शल गोल्ड स्मिथ
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मोज़ो
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रहोन्डा बर्न
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सीक्रेट
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पॉलो कोल्हो
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'द एलकेमिस्ट' से 'विनर स्टैंड एलोन' तक 14 पुस्तकें
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जेम्स रेडफील्ड
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'द सेलेस्टाइन प्रोफेसी' से 'द सीक्रेट ऑफ सम्भाला' तक 4 पुस्तकें
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ब्रायन वीज़
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'मैनी लाइफ, मैनी मास्टर्स' से 'मेडीटेशन' तक 6 पुस्तकें
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वेद व्यास
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श्रीमद भगवतगीता
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भगवतगीता को छोड़कर सारी पुस्तकें अंग्रेजी में पढ़ीं, अंग्रेजी सीखने में हुये कष्ट का मूल्य अधिभार सहित वसूल जो करना है। साथ ही सारी पुस्तकें मेरे शुभचिन्तकों द्वारा भिन्न भिन्न कालखण्डों में सुझायी गयीं। पढ़ना जिस क्रम में हुआ, उस क्रम में लेखकों को न रख विचार सूत्र के क्रम में व्यवस्थित किया है। सभी पुस्तकें अपने प्रस्तुत पक्ष में पूर्ण हैं और चिन्तन की जो भावी राहें खोल जाती हैं, उसे आगे ले जाने का कार्य अन्य पुस्तकें करती हैं। सभी पुस्तकों का विवरण एक साथ देने का उद्देश्य उस विचार सूत्र को उद्घाटित करना है जो उसे तार्किकता के निष्कर्ष तक ले जाने में सक्षम है। सार यह है।
वैचारिक विश्व भौतिक विश्व से अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि आपकी वैचारिक प्रक्रिया भौतिक जगत बदल देने की क्षमता रखती है। वैचारिक दृढ़निश्चय से आप कुछ भी कर सकने में सक्षम हैं। अतः आपकी मनःस्थिति का उपयोग परिवेश में उत्साह और प्रसन्नता भरने के लिये किया जाना चाहिये, इसके निष्कर्ष आश्चर्यजनक होते हैं। विचारों का एक अपना जगत है, आप जो सोचते हैं वह विचारजगत से अपने जैसे अन्य विचारों को आकर्षित कर लेता है जिससे उस विषय में आपके विचार प्रवाह को बल मिलता है। नकारात्मक विचार अपने जैसा प्रभाव आकर्षित करते हैं। आप यदि भयग्रस्त हैं तो आपके विरोधी को उस विचार से मानसिक बल मिलेगा आपको और सताने का, आपकी आशंकायें इसी कारण से सच होने लगती हैं। नकारात्मक विचारों को सकारात्मकता से पाट दें। आपका दृढ़निश्चय जितना घनीभूत होता जाता है, परिस्थितियाँ उतनी ही अनुकूल होती जाती हैं, कई बार तो आपको विश्वास ही नहीं होता कि सारा विश्व आपके विचारानुसार कार्यप्रवृत्त है। आपका जीवन, आपका विश्व आपके विचारों से ही निर्धारित है, सृजनात्मक शक्तियाँ प्रचुर मात्रा में अपना आशीर्वाद लुटाने को व्यग्र हैं। मृत्यु के समय की यह विचार स्थिति आपका अगला जीवन, आपका परिवेश और यहाँ तक कि आपके सम्बन्धियों का भी निर्धारण करती है। आप माने न माने, आप जिनसे अत्यधिक प्रेम करते हैं या अत्यधिक घृणा करते हैं, वह आपके अगले जीवन में आपके संग उपस्थित रहने वाले हैं। आपके जीवन की अनुत्तरित विशेष घटनायें आपके आगामी जीवन में कुछ न कुछ प्रभाव लिये उपस्थित रहती हैं। अतः विचारों को महत्तम मानें और पूरा ध्यान रखें उनकी गुणवत्ता पर।
इतनी पुस्तकों को कुछ शब्दों में व्यक्त करना कठिन है, पर भारतीय दर्शन के वेत्ताओं को यह विचार सूत्र बहुत ही जाना पहचाना लगता है। भगवतगीता को घर की मुर्गी दाल बराबर समझने की मानसिकता उस समय वाष्पित हो जायेगी जब शेष 35 पुस्तकों के निष्कर्ष आपको भगवतगीता पुनः समझने को उत्प्रेरित करेंगे। इन पुस्तकों को पढ़ने का श्रेष्ठतम लाभ भगवतगीता में मेरी आस्था का पुनः दृढ़ होना है।
आपको पुनः चेतावनी दे रहा हूँ, एक तो इतना व्यस्त रहें कि पुस्तकों की दुकान जाने का समय न मिले। यदि मिले भी तो आप याद कर के इन पुस्तकों को न खरीदे। यदि लोभ संवरण न कर पायें तो घर में लाकर बस सजाने के लिये रख दीजिये। अन्ततः इतने भौतिक प्रपंच पल्लवित कर लीजिये कि पढ़ने का समय न मिले। फिर भी यदि आप नहीं माने और पढ़ ही लिया तो आपके अन्दर आये परिवर्तन का दोष मुझे मत दीजियेगा क्योंकि वह विचार भौतिक जगत से अधिक ठोस होगा।
(निशान्त के द्वारा अंग्रेजी के कई श्रेष्ठ विचारों को हिन्दी में अनुवाद कर प्रस्तुत करने का एक महत कार्य हो रहा है, उन जैसे अन्य प्रयासों को समर्पित है यह पोस्ट।)
अपने बुद्धि की छलनी से छानकर जो विचार सूत्र प्रस्तुत किया, वह अद्भुत है। सलाह पर अमल तो करना ही पड़ेगा। धन्यवाद।
ReplyDeleteहा हा हा, प्रवीण जी, क्या बात है!!! मेरे मन और मुंह की बात कहने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद. हमको तो चार्वाक के दर्शन के सिवा और कुछ भी या किसी का भी दर्शन या सूत्र अपने मन-माफिक नहीं लगा ;)
ReplyDelete1998-99 के दौरान अपने मार्केटिंग के प्रोफेसर साब ने covey साब को पढ़ने के लिए कहा और साथ में एक और पुस्तक - "The road less travelled". सात आदतों वाली किताब का सातवां पन्ना पढ़ते-पढ़ते लगा कि ........ वह दिन और आज का दिन...भगवान ना करें कि इन पुस्तकों को टाइमपास के लिए भी पढ़ना पड़े...
दैवीय योजना की देन यह हो या ना हो, आर्थिक योजना की तो है हीं, मेरा तो यही मानना है. बाकी, भगवतगीता तो नहीं पढ़ी आज तक (हर जगह मुफ्त में गीतासार पढ़ने को जो मिल जाता है, हा हा हा) लेकिन हाँ, अज्ञेय रचित शेखर-एक जीवनी के सूत्रों ने बहुत परेशान किया है, अभी तक करते हैं.....
शायद समय आ गया है भगवतगीता पढ़ने का, क्यों कि मेरा यह मानना है कि आपकी भौतिकता की धरातल आपके वैचारिक विश्व का निर्माण करती है जब कि आपका और, और कई लेखकों का निष्कर्ष इसके विपरीत है.
भगवत गीता पढ़ने के बाद मैं आप से पुनः संपर्क करूंगा. धन्यवाद
इत्ती सारी किताबें तो पढ नहीं पायेंगे सो आपके अवलोकन को पढ कर ही अपने को पढाकू मान ले रहे हैं हम। देखते हैं कि इस अवलोकन पर हमारे मित्र क्या कहते हैं।
ReplyDeleteआप भाग्यशाली हैं कि आपको ऐसी भूलें करने का समय मिलता है... आपके द्वारा प्रस्तुत ३६ पुस्तकों के सार और विचार सूत्र भगवत गीता के एक एक सूत्र में समाहित हो सकते हैं, इसी सूत्र पर आधारित अन्य कई पुस्तकें अंग्रेजी में मिल सकती हैं. महत्वपूर्ण सूत्र और विचारों की सार प्रस्तुति के लिए धन्यवाद !
ReplyDeleteबहुत पसंद आई आपकी यह पोस्ट। बहुत ही ज्यादा। एकदम से मेरे मन माफिक।
ReplyDeleteयह तो होता ही है कि जैसे हमारे विचार होते हैं हम उसी तरह के विचारों वाले व्यक्तियों से ज्यादा संपर्क में आते हैं।
इसमें से कुछेक तो पढ़ी हुई हैं. Born to win तथा Dr Eric Berne पढ़ने के बाद गीता से इनकी तुलना सूझी थी, यह भी आपकी सूची में शामिल हो सकता है. गीता दैनंदिनी तो हाथ में ही है, बाकी का इस पोस्ट से काम चला लेंगे.
ReplyDeleteहमने तो साहब कुछ पढ़ने की आदत डाली ही नहीं.. अब देखिये न आपके बिलाग को भी नहीं पढ़ा :)
ReplyDeleteआपके साथ घर पर चर्चा हुई थे तो ब्रायन वीस के बारे में इंटरनेट पर खोज कर पढ़ा. उनके अनुसार मानव चेतना का कोई बिंदु निश्चित ही 'पूर्वजन्म' की और इंगित करता है पर यह अत्यधिक विवादस्पद है, यहाँ तक की इस विषय पर वैज्ञानिक शोध करनेवाले डॉ. इयान स्टीवेंसन ने भी ऐसे किसी प्रत्यय के अस्तित्व को नकार दिया है.
ReplyDeleteकहना चाहूँगा कि इस विषय पर अपना कुछ निजी अनुभव है पर वह इतना निजी है कि उसका उल्लेख कर देने मात्र से ही वह निजी तो न रह जायेगा, दुविधा और संकटों में भी डाल सकता है.
बौद्ध धर्म जैसे अनीश्वरवादी और कुछ सीमा तक आत्मा के अस्तित्व को भी अस्वीकार करनेवाले दर्शन ने भी यह सुझाया है कि मनुष्य की चेतना पर हर कर्म की छाप लगती रहती है जो अगले जन्म में उसकी नियति का निर्धारण करती है.
कुल मिलाकर, बड़ा घालमेल वाला मामला है.
कल रात ही क्वांटम फिजिक्स के बारे में गहन अध्ययन कर रहा था. उसमें भी देश, काल, और चेतना कहीं स्पष्टतः है, कहीं उसकी प्रतीति मात्र है, और कहीं उनका अस्तित्व ही नहीं है.
ऐसे में हमारी छोटी बुद्धि यही मानकर मन को दिलासा दे लेती है कि कुछ भी एब्सोल्यूट नहीं है, कुछ भी असंभव नहीं है, कुछ भी (अभी तो) इतना सरल नहीं है कि बोधगम्य हो.
रॉबिन शर्मा की तीन पुस्तकें पढीं. प्रसन्नता और सफलता अर्जित करने के अंकुर भीतर से ही तो फूटते है! एक जैसी पुस्तकें और एक जैसी बातें.
इसलिए अब पुस्तकें खरीदना बंद. वैसे भी इंटरनेट पर लाखों भाइयों ने बहुत से फ़ोकट के जुगाड़ बिठाए हैं.
इन्टरनेट ने किताबों पर होने वाले खर्चे को कम तो किया है , मगर आरामदायक तरीका पुस्तक पढना ही है ...
ReplyDeleteगंभीर पुस्तकें मैं बहुत छोटी -छोटी किश्तों में पढ़ती हूँ ...इसलिए दिमाग पर एक साथ ज्यादा वजन नहीं होता ...उसकी नाजुक मिजाजी का खयाल भी रखना पड़ता है ..!
@ नकारात्मक विचारों को सकारात्मकता से पाट दें। आपका दृढ़निश्चय जितना घनीभूत होता जाता है, परिस्थितियाँ उतनी ही अनुकूल होती जाती हैं, कई बार तो आपको विश्वास ही नहीं होता कि सारा विश्व आपके विचारानुसार कार्यप्रवृत्त है...
एक एक शब्द से सहमत ...
सार्थक , सकारात्मक पोस्ट !
दृष्टि भेद से दृश्य भेद होता है ,यह तो पुरानी मान्यता है .विचार ही प्रधान हैं ...दर्शनशास्त्री ने कहा मैं सोचता हूँ इसलिए मैं हूँ !इसी सिलसिले में सोलोप्सिज्म का विचार भी काफी रोचक है (http://en.wikipedia.org/wiki/Solipsism )....मुझे लगता है कि गीता बस आत्मसात कर ली जाय -वही हजारो वर्ष के चिंतन का निचोड़ है ....और कुछ पढ़ें या न पढ़े -टेकनलोजी विकास और उदरपोषण के लिए जो भी करें वह अलग है -वैचारिक परिपक्वता के लिए गीता पाठ की सिफारिश है !
ReplyDeleteगीता के अलावा इनमें से किसी को नहीं पढा है। मुझे तो अंगरेज़ी की किताब पढने में बहुत कष्ट होता है। इसलिए पढता ही नहीं।
ReplyDeleteहां, आपकी सलाह पर अमल करना पड़ेगा।
प्रवीण भाई आज लग रहा है कि ठीक ही किया ... इन पुस्तकों को नहीं पढ़कर... इनमे से बस एक पुस्तक पढ़ी है वो है श्रीमद भगवदगीता...
ReplyDeleteएक बेहतरीन पोस्ट के लिए आभार..... अब तो जितनी जल्दी हो सके यह भूल करने की इच्छा है....गीता को पढ़ा है और यक़ीनन यह गूढ़ रहस्य समेटे है वैचारिक यात्रा के.......
ReplyDeleteअन्तरजाल के आने के बाद, पुस्तकों पर जोर कुछ अपने आप ही कम हो गया। फिर भी, अगाह करने के लिये शुक्रिया।
ReplyDeleteतीन वर्षों का निचोड़ यहाँ रख दिया है ..
ReplyDeleteभगवतगीता को छोड़कर सारी पुस्तकें अंग्रेजी में पढ़ीं, अंग्रेजी सीखने में हुये कष्ट का मूल्य अधिभार सहित वसूल जो करना है।
चलिए इस अधिभार को आपने अच्छे से वसूला ..
सबसे अच्छी बात कि इतनी पुस्तकें पढ़ कर जो आप को सूत्र मिला उसे अपने हम सब तक पहुँचाया ...
@@नकारात्मक विचारों को सकारात्मकता से पाट दें। आपका दृढ़निश्चय जितना घनीभूत होता जाता है, परिस्थितियाँ उतनी ही अनुकूल होती जाती हैं, कई बार तो आपको विश्वास ही नहीं होता कि सारा विश्व आपके विचारानुसार कार्यप्रवृत्त है..
बहुत ज्ञानवर्द्धक पोस्ट ...आभार
आपकी एक बात बहुत अच्छी लगी और मेरे विचारों के अनुकूल लगी। कि जिसे आप बहुत अधिक प्रेम करते हैं या घृणा करते हैं वह आपके अगले जन्म में भी साथ रहता है। मैं इसीलिए अपने दुश्मन से अधिक दुश्मनी नहीं पालती क्योंकि मुझे बस इसी बात का डर रहता है कि यह अगले जन्म में भी पीछा नहीं छोडेगा।
ReplyDeleteबहुत ज्ञानवर्धक पोस्ट ...शीर्षक बहुत कुछ वयां करता है ....शुक्रिया
ReplyDelete........ज्ञानवर्धक
ReplyDeleteबहुत पसंद आई आपकी यह पोस्ट।
अर्थात सभी पुस्तके गीता से प्रेरित लगती है इसी लिए भारत विश्वगुरु कहलाता है . पुस्तके पढना दिवास्वप्न सा हो गया है
ReplyDeleteJo kuchh bhi gyanarjan hua ya nahi hua-sari chhijen aaapke jivan ki anmol thatihain. Aapka vichar vicharniya hai.PLz. visit my blog.
ReplyDeleteजब आपने ही प्रश्नपत्र तैयार कर किया ,पढाई भी आपने ही की ,परीक्षा भी आपने ही दी और नतीजे भी आपने ही निकाल लिए |
ReplyDeleteहम तो केवल कापियां ही जांचते रहे |
बहुत बढ़िया पोस्ट |कभी कभी मेरे बच्चे मुझसे कहते है क्या आप इतने सालो से वही गीताजी पढ़ते हो ?
मै कहती हूँ -क्या करू ?हर बार मुझे नए अर्थ मिलते है |
इन सारी पुस्तकों में से एकाध को छोड़कर सारी पढ़ी हुई है..'सीक्रेट' को पढना मैं एक साल तक टालती रही पर सबके हाथों में देख...सबको इसकी चर्चा करते देख..लगा जैसे युवा लोगों की 'गीता' है, यह.'पॉलो कोल्हो' तो वैसे ही युवाओं में हिट हैं.
ReplyDeleteबड़ी कुशलता से हर पुस्तक का निचोड़....एक-एक वाक्य में रख कर सुन्दर गद्यांश लिख डाला है. प्रत्येक पुस्तक का बस एक ही सन्देश है..."Positive thinking and "Power of subconscious mind" इसपर अमल कर लें...तो ज़िन्दगी के सारे मुश्किल आसान भले ही ना हों...मुस्कुराते हुए उन्हें झेलने की शक्ति जरूर मिल जाती है.
वैसे 'ब्रायन वीज़' की थ्योरी पर यकीन करके यह विश्वास करने का मन हो रहा है कि दो-चार जन्म पूर्व पूरे ब्लॉग-जगत के ब्लॉगर्स किसी एक ही कॉलोनी के बाशिंदे थे...:)
पुस्तक पढने का बहुत शौक था लेकिन कुछ व्युत्क्रम आने से व्यवधान हुआ और आपके द्वारा बताई एक-दो पुस्तके भी पढ़ी गयी है . भगवद गीता तो दिनचर्या में शामिल है , स्कूल के दिनों से ही. अच्छा निचोड़ निकला है .
ReplyDelete‘आप माने न माने, आप जिनसे अत्यधिक प्रेम करते हैं या अत्यधिक घृणा करते हैं, वह आपके अगले जीवन में आपके संग उपस्थित रहने वाले हैं।’
ReplyDeleteतो क्या ये ब्लागर भाई भी...... :(
एक विद्वता भरा लेख और समस्त विद्वजनो की टीप पढ़ का एक ही निष्कर्ष निकाला है कि
ReplyDelete@-वैचारिक परिपक्वता के लिए गीता पाठ की सिफारिश है
भागवत गीता पढ़ना जरूरी लग रहा है.
साधुवाद
आज तो बहुत पते की सलाह दे डाली है :) माननी ही पड़ेगी
ReplyDeleteशाश्वत विचार सार्वकालिक होते हैं।
ReplyDelete---------
ईश्वर ने दुनिया कैसे बनाई?
उन्होंने मुझे तंत्र-मंत्र के द्वारा हज़ार बार मारा।
आज आपकी बात से सबक लेते हुये मध्य में आजाते हैं, "ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर", जिससे अगले जन्म का झंझट तो मिटेगा.:)
ReplyDeleteरामराम.
7 लेखक, 36 पुस्तकें, एक सूत्र ....सुन्दर व्याख्या...साधुवाद !!
ReplyDeleteअंग्रेजी किताबे हम पढते नही और श्री मद भगवदगीता से उत्तम कुछ है नही ………ज़िन्दगी का सारा सार समाया है उसमे……………फिर और पढकर क्या करेंगे।
ReplyDeleteसुंदर व्याख्या! अब तो शायद ही फ़ुरसत मिले पढने की।
ReplyDeleteआपकी पोस्ट ने आतंकित कर दिया। मॉं की कही बात याद आ गई - समझदार की मौत है।
ReplyDeleteमैं नासमझ, नादान ही भला।
आपने बचा लिया। धन्यवाद।
भगवतगीता मैंने नहीं पढ़ा...पढ़ने की ईच्छा है..
ReplyDeleteमैंने इनमे से केवल "द मोन्क व्हू सोल्ड हिज़ फेरारी" पढ़ा है...
सीक्रेट बहुत के पास देख चूका हूँ..बहुत दिन से उसे पढ़ने का दिल था..लेकिन जब भी जाता हूँ बुक स्टोर तो हिन्दी किताब ही लेते आता हूँ..
बहुत बहुत अच्छी पोस्ट और बहुत सही बात..
36 पुस्तकें तो नहीं पढ़ पायेंगे, इन लेखकों में से आधे को पढ़ डालने कि इच्छा भरपूर है. मोंक हू... काफी दिन से अलमारी में है, क्रिसमस ब्रेक में पढ़ने का मूड है. आपकी सलाह सर आँखों पर.
ReplyDeleteमनोज खत्री
... saarthak abhivyakti !!!
ReplyDeleteकिसी भी एक व्यक्ति या विचारधारा या ब्लॉग =) का अनुसरण करने से स्वयं के विचार एकोन्मुखी हो जाते हैं.
ReplyDeleteमैं एडवर्ड डी बोनो की पुस्तकें बहुत पसंद करता हूँ .. मगर अब पाता हूँ कि वे सारी पुस्तकों में एक ही नदी के अलग अलग घाटों में डुबकी लगाते रहते हैं.
बाईबिल में भी कहीं पर लिखा है कि - पहाड़ को पूरी आत्मशक्ति से कह दो कि तू राई हो जा तो वो यकीनन राई बना जाएगा. आत्मशक्ति का इससे बड़ा उद्धरण नहीं हो सकता. पर, इतनी बड़ी आत्मशक्ति दरअसल हम पैदा ही नहीं कर सकते नहीं तो हर पहाड़ राई बन जाए.
ReplyDeleteवैसे, गीता के अलवा द अलकेमिस्ट को मैंने इसलिए भी पढ़ी कि इसका हिंदी अनुवाद उपलब्ध था. बाकी को छुआ भी नहीं और अब आपके बताने के बाद तो देखेंगे भी नहीं उधर. बल्कि आत्मशक्ति बढ़ाने की कोशिश करेंगे :)
इन पुस्तकों में से एक गीता को छोड़ कर अन्य के आज तक दर्शन भी नहीं किये है| पढ़ना तो दूर की बात है |
ReplyDeleteग़ज़ब का एनालिसिस किया है आपने... काफी दिनों के बाद आया हूँ.... ब्लॉग पर..... और सबसे पहले आपको पढना बहुत अच्छा लगा... वैसे भी आपका फैन हूँ.... तो आपको पढना तो हमेशा से ही अच्छा लगता है... अब तो छूटी हुई पोस्ट पढनी हैं....
ReplyDeleteभगवत गीता और द मॉन हू सोल्ड माई फरारी तो पढ़ ली...अब नहीं भटकेंगे. :)
ReplyDeleteआभार आपका.
इस बहुमूल्य सुझाव के लिए आभार।
ReplyDeleteअब तो जरूर पढ़ेंगे, वर्जित काम करने में मजा आता है। समय बेशक लग जाये, विशलिस्ट में ये सूची डाल दी है।
ReplyDeleteचलिए आप ने पढ़ लिया तो अपना भी फाएदा हो गया.
ReplyDelete.
ReplyDelete.
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लाल रंग से जो आप ३६ किताबों से निकलते विचार सूत्रों का सार लिखे हैं... उसे सही से समझने के लिये समय चाहिये... फिर भी जितना समझा है उससे सहमत हूँ... असहमति सिर्फ एक है... जो कुछ है यही जीवन है... 'अगला जीवन' नहीं होता मेरी समझ से... तो जब न अगला Destination है न Journey तो Baggage कहाँ जायेगा ?
...
@ देवेन्द्र पाण्डेय
ReplyDeleteबहुधा पुस्तकें किसी एक विचार पर ही लिखी जाती हैं और उससे सम्बन्धित पक्ष को सप्रयास उभारा जाता है, उदाहरण, तर्क आदि उस पक्ष को आकार देने में प्रयोग किये जाते हैं।
पर पुस्तक पढ़ लेने के बाद मनुष्य का मन शान्त नहीं बैठता है, पहला ही प्रश्न होता है कि, ठीक है पर इसके बाद का क्या।
संयोग से विचार के उदय से लेकर विचार के संवहन तक के विषय इन पुस्तकों में अलग अलग समेटे गयें हैं, उन सबका निष्कर्ष आप सबसे बाटने की इच्छा बलबती हो उठी थी।
कभी कभी विचार मन में पहले से ही होता है, पुस्तकें बस उसे बल देने का ही कार्य करती हैं।
@ Lalit
ReplyDeleteपता नहीं क्यों पर जीवन कभी एक दर्शन की राह नहीं पकड़ता है, कहीं से भी मन उचटा तो चार्वाक जी तो बैठे ही हैं सहारा देने के लिये। चार्वाक का दर्शन कभी कभी सुहाता भी इस लिये ही है कि वह मन के आवारापन को बल प्रदान करता है। समाज में यदि सभी यही अपना लें तो सामूहिक जलसमाधि लेनी पड़ जायेगी हम सबको।
किसी का त्याग ही किसी को चार्वाक बनने की जगह प्रदान कर सकता है।
समय व्यतीत करने के लिये भारी पुस्तकों का पढ़ना परिस्थितिजन्य अन्याय लग सकता है पर बहुधा ऐसा होता है कि जो प्रश्न मन में कई दिनोंम से घुमड़ रहा होता है, उसे अपने उत्तर मिलने लगते हैं उन पुस्तकों में।
यदि किसी पुस्तक में कुछ भी सार्थक व नया मिल जाये तो वह पढ़ने को तैयार रहता हूँ मैं।
भगवतगीता को मात्र धार्मिक मान लेने वालों पर दया के अतिरिक्त कोई और भाव नहीं उमड़ते हैं। बिना जाने पुस्तकों का वर्गीकरण करने में उद्धतजन, स्वयं को धर्मनिरपेक्ष सिद्ध करने की चाह में यह स्वर्णकोष खो बैठते हैं।
आत्मा की नश्वरता को मान लेने का आनन्द एक कूप मण्डूक के लिये सागर में पहुँचने जैसा है। इस जीवन में सब कुछ व्यग्रता से जी लेने की विकलता और अपने द्वारा निर्धारित सुख के मानकों में उलझ जाने की लाचारी, बड़ी तुच्छ सी लगती है उस विशालता के सम्मुख।
आपसे संवाद की प्रतीक्षा रहेगी हमें भी।
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
ReplyDeleteअनुभव पुस्तकीय ज्ञान से अधिक धारदार होता है। गाँ में रह रहे बुजुर्ग इस वाक्य को प्रमाणित कर सकते हैं। पुस्तकों में पढ़ा हुआ या तो आपके अन्दर पहले से ही उपस्थित किसी विचार को दृढ़ता देता है या आपको अनुभव की एक नयी डगर को ओर प्रस्तुत करता है। लाभ दोनों में ही है।
@ पद्म सिंह
मैं कल्पना करता हूँ कि यदि मुझे भगवतगीता का पूर्व ज्ञान नहीं होता तो इन पुस्तकों में उपस्थित भिन्न भिन्न सत्य सूत्रवत न दिखते। हीन भावना से ग्रस्त हम भारतीयों को जब यह सत्य समझ आयेगा, वह दिन मेरे लिये अलमस्त हो नाचने का दिन होगा।
@ सतीश पंचम
विचारों के संवहन का विज्ञान सदियों से हम सबको अचम्भित करता रहा है। बहुधा यह कैसे हो जाता है कि हम दूसरों के मन के भाव पढ़ लेते हैं। कैसे हमारे जीवन के ठहराव को खोलने के लिये कोई व्यकित या परिस्थिति सहसा उपस्थित हो जाती है।
@ Rahul Singh
आपके द्वारा सुझायी पुस्तकों को भी पढ़ने का यत्न करता हूँ। बहुत आभार।
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
अवलोकन भी पुस्तक पढ़ने के समतुल्य है। जीवन अनुभव भी कुछ न कुछ सिखाते रहते हैं, अनजाने ही।
@ निशांत मिश्र - Nishant Mishra
ReplyDeleteइस पोस्ट का बीज, आपसे इस विषय पर हुयी संक्षिप्त चर्चा के बाद ही उपजा था। पुस्तकों के भी आपसी सम्बन्ध होते हैं, इतनी पुस्तकें पढ़ने के बाद ही समझ में आया।
किसी जिज्ञासु की विवशता है कि एक तथ्य मान लेने के बाद उन प्रश्नों के भी उत्तर ढूढ़ना जो उस तथ्य द्वारा खण्डित होते हैं। खण्डित करने का अर्थ है, उस राह से वापस मूल प्रश्नों तक वापस आना।
खण्डन का अपना अलग शास्त्र है, किसी भी खण्डन में अपनी कोई भी अवधारणा डाल देने से, उसकी तार्किकता नष्ट हो जाती है। जब ईश्वर नाम को अपनी सुविधानुसार गुण देकर उनका खण्डन करने का कार्य होता है तो खण्डनकर्ता अपने ज्ञान के चिथड़े उड़ाता हुआ सा लगता है।
जिनका चिन्तन एक जन्म के परे जा ही नहीं सकता है, उनके विचारों को उस विषय में क्यों मान्यता दें।
पर एक बात तो निश्चित है कि यदि आत्मा एक शरीर के बाद दूसरा शरीर ग्रहण करती है और कर्म के नियम दृढ़वत हैं तो उसका भौतिक संवहन विचारों के माध्य से हो ता होगा। भारतीय दर्शन में इस विचार समुच्चय को सूक्ष्म शरीर भी कहते हैं।
भौतिक विज्ञान की निश्चितता को क्वांटम फिजिक्स छिन्न भिन्न कर देती है और अन्ततः जो मॉडल निकलता है विश्व सृजन का वह शास्त्रों में वर्णित सृजन जैसा ही है। यह संयोग ही है संभवतः। यदि इलेक्ट्रॉन देखा नहीं गया है, केवल अनुभव ही किया गया है, तो रिग्रेशन थ्योरी मान लेने में इतना पूर्वाग्रह क्यों।
संवाद अभी चलता रहेगा...
@ वाणी गीत
ReplyDeleteइण्टरनेट पर उपस्थित ज्ञान की प्रचुरता और उसका अनबँधा प्रारूप, एक नकारात्मक प्रभाव लाते हैं। एक पुस्तक में विचारों का प्रवाह नियत रहता है और वही पढ़ने का आनन्द भी है।
आपसे सहमत हूँ कि जब मन हो तभी पढ़ना चाहिये।
@ Arvind Mishra
गीता जब भी पढ़ता हूँ तो लगता है कि चिन्तन प्रक्रिया के सबसे ऊँचे पहाड़ों से होकर चर रहा हूँ, सारी छोटी छोटी पहाड़ियाँ स्पष्ट और अपने नियत स्थान पर दिख रही हैं।
जिस स्तर से चिन्तन किया जाता है, उस स्तर के बारे में चिन्तन नहीं किया जा सकता है। चिन्तन के बारे में चिन्तन अपनी चिन्तनेन्द्रियों से क्यों किया जाये? यह तार्किक नहीं है।
@ मनोज कुमार
आपने तब तो सार ही पढ़ लिया। आप अब इन सभी पुस्तकों के बारे में किसी से भी चर्चा कर सकते हैं।
@ अरुण चन्द्र रॉय
सार ही पढ़ लिया आपने, पुनः पढ़ेंगे तो कोई न कोई अन्य पक्ष निकल आयेगा।
@ डॉ॰ मोनिका शर्मा
गीता विचारों की गूढ़तम यात्रा है।
@ उन्मुक्त
ReplyDeleteअब यह निर्भर करता है कि ज्ञान को फुटकर रूप में पढ़ा जाये या संकलन रूप में।
@ संगीता स्वरुप ( गीत
गीता तो पहले से ही पढ़ी थी पर शेष पुस्तके पिछले तीन वर्षों में ही पढ़ीं। प्रबल राष्ट्रीयता के उपासकों को सकल अंग्रेजी साहित्य को अचिन्तनीय नहीं बताना चाहिये, वहीं पाश्चात्य जगमगाहट से अभिभूत जनों को अपनी संस्कृति की मौलितका को नहीं खोना चाहिये।
@ ajit gupta
संभवतः तभी "सुख दुखे समेकृत्वा" की शिक्षा दी जाती है गीता में।
@ केवल राम
बहुत धन्यवाद आपका।
@ संजय भास्कर
बहुत धन्यवाद आपका।
@ गिरधारी खंकरियाल
ReplyDeleteगीता ने दर्शन और जीवन से सम्बन्धित हर पक्ष को समाहित करने का प्रयास किया है, कम से कम शब्दों में, यही कारण रहा होगा कि बहुत सा ज्ञान बिना उदाहरण के सूत्रवत ही व्यक्त कर दिया गया है यहाँ पर। अन्य पुस्तकों में किसी एक पक्ष पर विशद चर्चा होने से वह अधिक तार्किक लगता है। विचार सूत्र के आधार पर देखने से सारे के सारे सूत्र अन्ततः गीता पर ही जाकर समाप्त होते हैं।
@ प्रेम सरोवर
बहुत धन्यवाद आपका।
@ शोभना चौरे
किसी एक पुस्तक पढ़ लेने के बाद बुद्धि इतना ग्रहण कर लेती है कि पुनः उस पुस्तक को दुबारा पढ़ने की आवश्यकता नहीं पढ़ती है। गीता के साथ यह नहीं है, जितनी बार पढ़ी जाये, नये अर्थ उद्घाटित हो जाते हैं। आप पढ़ते रहिये, बच्चे भी धीरे धीरे पढ़ेंगे, बड़ों से ही सीखना होता है।
@ rashmi ravija
यदि सारे ब्लॉगर एक कॉलोनी के बन्दे नहीं थे तो होने वाले हैं। क्यों न उन्हें एक कॉलोनी में रख तारक मेहता का उल्टा चश्मा जैसा कोई नाटक लिखा जाये। आप प्रारम्भ कीजिये।
@ ashish
हम भारतीयों को वरदान मिला है उस समाज में जन्म लेने का जहाँ गीता और मानस लोगों की जीवन पद्धति में पगी है। इस वरदान का सन्धान करना कब आयेगा हमें।
@ cmpershad
ReplyDeleteबहुत कुछ रोचक घट गुजरेगा वहाँ पर। आप वहाँ रहने की तैयारी करना तो प्रारम्भ कर दीजिये।
@ दीपक बाबा
कान्हा की गीता तो पढ़नी ही पड़ेगी। दार्शनिक और सामाजिक विचारों का तार्किक प्रतिफल है यह ग्रन्थ।
@ shikha varshney
मान लीजिये, लाभ ही होगा इससे।
@ ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
शाश्वत विचार सार्वकालिक होते हैं।
विचार भी शाश्वत और सर्वकालिक होते हैं।
@ ताऊ रामपुरिया
पर आपके पाण्डव व कौरव आपको अगले जन्मों में मिलने वाले हैं।
@ KK Yadava
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ वन्दना
यदि यह मानकर पढ़ा जाये तो निश्चय ही बहुत कुछ मिलेगा गीता में, तब हम लम्बे मार्गों से बच भी जायेंगे।
@ रामप्यारे
पर ज्ञान तो अर्जित करते रहना पड़ेगा।
@ विष्णु बैरागी
सही बात कही है आदरणीया माताजी ने, इतने समझने की प्रयासों में ही तो कितना कुछ पढ़ बैठे हैं।
@ abhi
हर पुस्तक का समय आता है आपके जीवन में और तब उसी समय उन्हे पढ़ने की इच्छा बलवती होती है। पढ़ना तो पड़ेगा ही अन्ततः।
@ Manoj K
ReplyDeleteतब शीघ्र ही पढ़ डालिये, सबसे पहले तो अपनी व्यस्तता पर हँसी आयेगी आपको और लगेगा कि क्यों नहीं पढ़ पाया अब तक इसे।
@ 'उदय'
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Saurabh
अहा, यह दृष्टान्त बहुत अच्छा लगा कि सभी एक ही नदी के विभिन्न घाट हैं।
@ Raviratlami
आत्मशक्ति बढ़ाने के विचार लाने से आत्मशक्ति बढ़ने लगती है और उपाय स्वयं ही उद्घाटित होने लगते हैं।
@ नरेश सिह राठौड़
गीता को ही पढ़ डालिये, बहुत लाभ होने वाला है उससे आपका।
@ महफूज़ अली
ReplyDeleteविचारजगत से बहुत पहले ही पता चल गया था कि हमारे महफूज़ महफूज़ ही रहेंगें। आप स्वस्थ हो गये हैं, ब्लॉग जगत की जगमगाहट अब बढ़ेगी ही दिनों दिन।
@ Udan Tashtari
आप तो पता नहीं कितनों के पथ प्रदर्शक हैं ब्लॉगजगत में, आपको तो भटकने देंगे ही नहीं। :)
@ ZEAL
बहुत धन्यवाद आपका।
@ मो सम कौन ?
चरस बोने का काम था, वह सफल हो गया है।
@ एस.एम.मासूम
लाभ तो सबका पारस्परिक होना ही है, इस संयुक्त विचार जगत में।
@ प्रवीण शाह
ReplyDeleteचलिये मान लिया जाये कि अगला जीवन नहीं है तब भी विचार महत्वपूर्ण है। पर कहीं एक जीवन की की सीमितता मनुष्य को अधिक व्यग्र व उत्श्रंखल न बना दे। अब यह विचारों का बैगज़ कहाँ जायेगा, यहीं पर ही अन्य लोगों का आतंकित न करे कहीं, पुस्तकों के माध्यम से।
सार्थक आलेख, जरूरी भी, साधुवाद...
ReplyDeleteयहाँ तो अरसा बीत गया है पूरी पुस्तक झेले हुए.इस लिहाज़ से कि आपके द्वारा पढ़ी ३६ पुस्तकों का निचोड़ एक जैसा रहा,आपके पढ़ने का श्रम फिर भी निरर्थक नहीं हो सकता.
ReplyDeleteमदभगवदगीता तो सागर है जिससे छोट-बड़ी नदियाँ निकलती और समाती रहती है.
बहुत शानदार पोस्ट, प्रवीण जी बधाई.--आपके द्वारा पढी गई, बताई गई तथा अन्य हज़ारों पुस्तकें, शास्त्र तथा गीता का भी जो मूल विचार है उसका श्रोत एवं मानव धर्म का श्रेष्ठतम विचार-यज़ुर्वेद के ४० वें अध्याय, ईशोपनिषद के ये तीन श्लोक हैं---
ReplyDelete१.-’अन्धतम प्रविशन्ति अविद्ययाम न उपासते ;
ततो भूय यतो येऊ अविद्याया रता।
--अर्थात जो भौतिकता( अविध्या)संसार में ही रत रहते हैं वे गहन अन्धकार ( कठिनाई) में पडते हैं परन्तु जो संसार की उपेक्षा करते हैं वे और भी अधिक अन्धकार में रहते हैं।
२. अन्धतम प्रविशन्ति ये न विद्ययमुपासते,
ततो भूय यतो यऊ विध्याया रताः।
--अर्थात जो विद्या( ग्यान,अध्यत्म, ईश्वरीय ग्यान,) से दूर रहते हैं वे अन्धकार में रहते हैं , किन्तु उससे भी अधिक वे अन्धकार में रहते हैं जो उसीमें रत रहते है।----अतः मनुश्यको भौतिकता व ग्यान ईश्वर दोनों का समन्वय करके चलना चाहिए।---यथा--
३.’विद्या सह अविद्या यस्तद वेदोभय सह।
अविद्यया म्रित्युं तीर्त्वा विद्ययाम्रतम्नुश्ते।’
या..
’ग्यान और संसार को जो दोनों को ध्याय,
माया बन्धन पार कर अम्रतत्व सो पाय।’
---अविध्या अर्थात संसार; संसार के भौतिक व्रत्तियां, ग्यान, प्रोफ़ेशन, व्यवहारिकता, जीवनयापन यानी सान्सारिकता को जानकर समझकर अर्थात धर्म, अर्थ,व काम-रिद्धि, सिद्दि, प्रसिद्धि को प्राप्त करके---जो विद्या अर्थात ग्यान; ईश्वरीय ग्यान की आराधना करता है वह मोक्ष को प्राप्त होता है और यही अमरता है।
बेहतरीन पोस्ट!
ReplyDeleteभागवत गीत को छोड़ कर कोई दूसरी पुस्तक नही पढ़ी ... अँग्रेज़ी पुस्तक से अपने आप को जोड़ नही पाता पता नही क्यों ... शायद पुन्ह प्रयास करना ठीक रहेगा ...
ReplyDelete@ योगेन्द्र मौदगिल
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ संतोष त्रिवेदी ♣ SANTOSH TRIVEDI
पुस्तकें कुछ अपनी जैसी लगती हैं, बहुत समय साथ में बीत जाता है। भगवतगीता तो बार बार पढ़ने की इच्छा होती है।
@ Dr. shyam gupta
आपके द्वारा दिये हुये तीनों श्लोक सार ही है जीवन पद्धति के।
@ अनुपमा पाठक
बहुत धन्यवाद आपका।
@ दिगम्बर नासवा
अंग्रेजी पुस्तकों से बहुत कुछ सीखने को मिला है। सबसे बड़ी बात है विचारगत समानतायें, कई लेखकों की रचनाओं के बीच, जिससे कुछ भी पढ़ना व्यर्थ नहीं जाता है।
हम बहुत लायक लोग हैं. हमारी ट्रेनिंग इतनी अच्छी है कि हम कभी सवाल ही नहीं उठाते बस हुकुम बजा लाते हैं....
ReplyDeleteजब अंग्रेज़ बताते हैं कि फलां इंडियन चीज अच्छी है तब कहीं जाकर मानते हैं हम वर्ना क्या रखा है हमारी इन दो-दो कौड़ी की किताबों में ...
कुछ किताबे तो पढ़ी है कुछ पढ़ना बाकि है ...
ReplyDeleteआपके बहुमूल्य सुझाव के लिए धन्यवाद !
ये बड़े लोग जो कहें, हिन्दुइज्म का थियरी ऑफ री-इनकारनेशन में मुझे बहुत सम्बल मिलता है।
ReplyDeleteऑवर ग्लास से जब रेत छन रही है तो यह सम्बल है कि ऑवर ग्लास फिर पलटेगा तो!
नहुष का कथन - फिर भी उठूंगा और चढ़ के रहूंगा मैं। नर हूं, पुरुष हूं मैं, बढ़ के रहूंगा मैं।
"7 लेखक, 36 पुस्तकें, एक सूत्र"
ReplyDeleteलाजवाब, अच्छा विश्लेषण. अब अपने सलाह दी है तो मानना तो पड़ेगा ही .
praveen ji
ReplyDeletekahan -kahan se dhundh kar laate hain itni jaankaari purn baate .mujhe to lagta hai ki aage chal kar aap sabhi shastro ke gyata hi kahlane lagenge jiske pass har sawal ka hal moujood hoga.
adhbhut bahumukhi hain,manana padega-----
poonam
गीता छोड़कर इनमें से कोई ना पढ़ पाया आज तक एक बार अल्केमिस्ट पढ़ने की कोशिश की थी किसी तरह अंतिम पेज तक पहुच पाया था. मेरी प्रोब्लम है मोटिवेशनल बुक्स नहीं पढ़ पाता. आपकी पोस्ट से लगता है कुछ ज्यादा घाटा नहीं हुआ ना पढ़ने से.
ReplyDelete@ Kajal Kumar
ReplyDeleteइतने सालों की गुलामी के बाद वही मानसिकता हो जाना स्वाभाविक है। आत्मसम्मान का नाम लेते ही धर्मसापेक्षता आड़े आ जाती है। भगवतगीता जो कि विशुद्ध वैज्ञानिक पुस्तक है, उसे भी धार्मिक बता जीवनों से निकाल देने पर आमादा हैं हमारे पंथ प्रदर्शक। जब सम्प्रदाय, गुट, जाति, भौगोलिकता आदि ज्ञानदायक पुस्तकों और महापुरुषों पर अपना अधिकार स्थापित करती रहेंगी, हम अपने ही घरों में खंडित प्रतिमाओं से अपूज्य रहेंगे।
कोई भी अच्छी चीज जब विदेशों में अपनी पहचान पा जाती है तो वही हमारी नज़रों में ऊपर चढ़ जाती है। यह मानक त्यागने होंगे नहीं तो, पश्चिमी संस्कृति की पूँछ बनकर रह जायेंगे हम सब।
@ Coral
बहुत बहुत धन्यवाद आपका।
@ ज्ञानदत्त पाण्डेय Gyandutt Pandey
ReplyDeleteजीवन को केवल एक जन्म में बाँध देने से अस्तित्व की घुटन का अनुभव सा होता है। भड़भड़ाहट सब कुछ पा लेने की, कोई कर्तव्य नहीं कुछ भी सार्थक करने का, चार्वाक जैसी मानसिकता। यदि सब के सब चार्वाक हो जायें तो युद्ध निश्चित है संसाधनों पर। यह तो भला हो पुनर्जन्म के मानने वालों का कि चार्वाकवादी अपना दर्शन जी पा रहे हैं।
अपनी दृष्टि विस्तृत कर लेने से जीवन की विशालता को जो आनन्द होता है उसमें सुख दुख आदि का द्वन्द भस्मीभूत हो जाता है।
विज्ञान भले ही असिद्ध न कर पाये, पर पुनर्जन्म को न मानने से सारा का सारा श्रेय प्रायिकता के सिद्धान्त को चला जाता है जो कि सामाजिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से और भी भ्रष्टाचारी सिद्धान्त है। सब यूँ ही हो रहा है और कुछ भी हो सकता है, यह सर्वनिकृष्ट सिद्धान्त हैं और निश्चयात्मक अराजकता की ओर प्रेरित करते हैं।
कर्मफल का सिद्धान्त जहाँ एक ओर स्थिरता लाता है वहीं दूसरी ओर मानसिक व्यग्रता को शमित करता है। सिद्धान्त रूप में ही यह महाशान्तिदायक है।
सततता सदा ही सार्थकता लाती है।
@ रचना दीक्षित
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ JHAROKHA
जीवन में कृपा है ईश्वर की सदा ही कुछ न कुछ सीखने की जिज्ञासा बनी हुयी है। यदि यह न रही तो जीवन ठहर सा जायेगा सहसा। बड़ों का आशीर्वाद बना रहे, जीवनी अपनी गति पा जायेगी। बहुत धन्यवाद आपके उत्साहवर्धन का।
@ अभिषेक ओझा
जब तक अन्दर से उत्साह आता रहे, कार्यरत रहा जाये। वाह्य-उत्साह की आवश्यकता कभी कभी औरों के विचार जानने को प्रेरित करती है। बिना किसी पूर्वाग्रह के रहा जाये, मन हो तो औरों का पढ़ा जाये, मन हो तो अपना गढ़ा जाये।
---बह्त सही कत्थान, प्रवीण जी.....
ReplyDeleteईश्वर, जीवन, अध्यात्म के समन्वयन की एक द्रष्टि----
१.
" नहीं महत्ता इसकी है कि, ईश्वर ने यह जगत बनाया ।
अथवा वैग्यानिक भाषा में, आति अन्त बिन स्वतः रच गया.।
अथवा ईश्वर की सत्ता है, अथवा ईश्वर कहीं नहीं है।"
२.
यदि मानव खुद ही कर्ता है,और स्वयं ही भाग्य विधाता.
इसी सोच का पोषण हो यदि, अहं भाव जाग्रत हो जाता.
मानव सम्भ्रम में घिर जाता, और पतन की राह यही है।
३.
पर ईश्वर है जगत नियन्ता, कोई है अपने ऊपर भी.
रहे तिरोहित अहं भाव सब, सत्व गुणों से युत हो मानव.
सत्यं शिवं भाव अपनाता, सारा जग सुन्दर होजाता। ----अगीत विधा महाकाव्य " श्रिष्टि"( ईषत इच्छा या बिग-बेन्ग-एक अनुत्तरित उत्तर ) सर्ग--उपसंहार से...
चलो हम भी खंगालते हैं कुछ ...इतने सारे सन्दर्भ सुबह ही सुबह मिल गए अब तो आपकी चेतावनी नजरअंदाज करनी पड़ेगी :)
ReplyDeleteपडःाने की क्या जरूरत है बिना पडःए ही आपका कहा मान लिया हमे तो पहले ही अपने भार्तीय दर्शन पर विश्वास है। धन्यवाद।
ReplyDelete@ Dr. shyam gupta
ReplyDeleteव्यक्त सत्य है, काव्यविधा में।
@ राम त्यागी
आप खंगाल लीजिये, लौटकर वहीं आयेंगे, गीता की भाषा में।
@ निर्मला कपिला
संभवतः, भारतीय दर्शन पर विश्वास कर लेने से ही ज्ञान इतनी सरलता से हृदय में उतर रहा है।
प्रवीण,गीता के बारे में सही कहा--तभी तो कहा है--
ReplyDelete’सर्वोपनिषद गावो दोग्धा नन्द नन्दनम"----सभी उपनिषद रूपी गायों(=ग्यान, बुद्धि) को श्री क्रष्ण ने दुहा तब गीता रूपी माखन प्राप्त हुआ--इसीलिये वे गोपाल हैं...माखन चोर....
बहुत-बहुत धन्यवाद... किताबें पढने का मुझे भी बहुत शौक है, और इन सभी किताबों का नाम लिख लिया है, इन्हें नहीं तो इनके बारे में एक बार जरूर पढूंगी... परन्तु इस जानकारी के लिए बहुत-बहुतशुक्रिया...
ReplyDelete@ Dr. shyam gupta
ReplyDeleteभगवान का गीत है, मधुरतम तो होगा ही।
@ POOJA...
बहुधा पुस्तकें आपके अन्दर छिपे से पर महत्वपूर्ण विचार को उभार लाती है और बल प्रदान करती है। पुस्तकों का यह महत कर्तव्य कभी कमतर नहीं आँका जा सकता है।
प्रवीन जी,
ReplyDeleteआपने जो तथ्य सामने रखा है उसके लिए आपने कितना श्रम किया होगा इसका अंदाज़ा मैं लगा सकता हूँ ! में तो अंग्रेजी की किताबें नहीं पढ़ता फिर भी यह जानकारी आश्चर्य में डालने वाली हैं!
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
@ ज्ञानचंद मर्मज्ञ
ReplyDeleteपुस्तकें पढ़ना अच्छा लगता है अतः कोई श्रम नहीं है। बहुत धन्यवाद आपके उत्साहवर्धन का। बंगलोर में मिलने का प्रायोजन करना होगा।
गंभीर विषय को उठती एक सहज रचना.. जरुरी है कि आप जाने कि क्या पढ़ रहे हैं आप...
ReplyDelete""वैचारिक विश्व भौतिक विश्व से अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि आपकी वैचारिक प्रक्रिया भौतिक जगत बदल देने की क्षमता रखती है"""
ReplyDeleteबहुत बढ़िया विचारणीय आलेख.... आपके विचारों से सहमत हूँ ....
बहुत सुन्दर पोस्ट !
ReplyDeleteबस इतना ही :
मोर आई नो, मोर आई नो, हाउ लिटिल आई नो!
ओशो की कोई किताब?
@ कुमार पलाश
ReplyDeleteपुस्तक पढ़ उसे अपने अनुभव व निहित ज्ञानकोष से जोड़ना एक आवश्यक कार्य है, नहीं तो सारा ज्ञान बिखरा पड़ा रहेगा।
@ महेन्द्र मिश्र
बहुत धन्यवाद उत्साहवर्धन का।
@ सम्वेदना के स्वर
सच ही है कि अधिक जानने से लगता है कि कितना कम जानते हैं हम। ओशो की पुस्तकें आई आई टी में पढ़ीं थी, बहुत याद हैं अब तक।
इनमें से ब्रायन वेइस की कुछ किताबें पढ़ी हैं, अच्छी लगी हैं क्योंकि उनका कहने का तरीका उदाहरणों के साथ था. पाउलो कोएल्हो की अल्केमिस्ट पढ़ी थी, बहुत पसंद भी आई थी, उसके बाद एक दो और किताबें पढ़ी पर जब लगा कि वो खुद को दोहरा रहे हैं तो उनको भी पढ़ना बंद कर दिया.
ReplyDeleteबाकी जो लिस्ट में हैं वो पढ़ने की इच्छा नहीं रही है, सिवाए गीता के. उसपर भी जब आपने आगाह कर दिया है तो किताबों की तरफ देखेंगे भी नहीं.
@ Puja Upadhyay
ReplyDeleteजब प्रारम्भ में घटनायें आपके अनुकूल होने लगती हैं तो हम उसे अपना भाग्य मानने लगते हैं, जब प्रतिकूल होती हैं तो उसे अपना दुर्भाग्य। जब बाद में बैठकर सोचते हैं तो लगता है कि भौतिक अवस्था वैचारिक अवस्था के बाद ही आयी थी। विचार श्रंखला सुदृढ़ रखें तो वही आपका आत्मविश्वास है और वही होता है तब।
sabse pahle is post ke aapka aabhar , mujeh bhi padhne ka bahut shauk hai aur meri personal library me is samay kam se kam 3000 kitaabe hongi .. aapki di hui klist me se kuch kitaabe maine nahi padhi hai .. wo bhi ab doondh loonga..
ReplyDeleteprashaant ji bahut dhanywaad .
vijay
poemsofvijay.blogspot.com
09849746500
@ Vijay Kumar Sappatti
ReplyDeleteअब किसी दिन आकर आपका पुस्तकालय खंगालना पड़ेगा।
मै आज काफी दिनों बाद आपके ब्लाग पर आया, लेख अच्छे लगे किन्तु इतने अच्छे कमेन्ट्स वाकई बहुत अच्छे लगे, कहना ही होगा कि तत्व से बडा मजा तत्व चर्चा मे है। :)
ReplyDelete@ महाशक्ति
ReplyDeleteटिप्पणियाँ तो पोस्ट से भी अधिक रोचक हो जाती हैं, लिखने का आनन्द दूना हो जाता है।