यदि यह एक टिप्पणी नहीं आती तो संभवतः तड़प, उत्साह, परिपक्वता, प्रश्न और निष्कर्ष जैसे शब्द मुँह बाये न खड़े होते। साहित्य का विषय जब विषयों से परे जा इन शब्दों में ठिठक जाता है, रोचकता अपने चरम पर पहुँच जाती है। ऐसे में उस पर कुछ न कहना मानसिक प्रवाह की अवहेलना करना सा होता।
कप्पा अधिवेशन के तीसरे स्तम्भ का परिचय नहीं दे पाया था, भूल मेरी ही थी, शीर्षक की झनझनाहट उस भूल का कारण थी। कप्पा अधिवेशन का आयोजन अनिल महाजन जी के भारत आगमन के उपलक्ष्य में ही किया गया था। तीन उन्मत्त साहित्य प्रेमियों का यूँ मिल जाना एक सुयोग ही था। मैं जो अवलोकन न कर पाया, उस पर टिप्पणी कर पोस्ट को पूर्णता प्रदान करने की महत कृपा की है। अनिल महाजन जी भी मेरे वरिष्ठ रहे हैं। पहले वह टिप्पणी पढ़ लें।
पोस्ट जोरदार है। नीरज का यह परिचय, मेरे ख्याल से बहुत उपयुक्त है। उसकी तड़प, उत्साह, दोनों घुले मिले हैं। तड़प छेड़ो तो उत्साह भड़कता है। उत्साह कुरेदो तो अनुभव, तड़प निकल निकल आते हैं। साहित्यकार का इससे अच्छा परिचय, लक्षण क्या हो सकता है। नीरज को हिन्दी के झरोखे तक ले जाने के लिये धन्यवाद। इससे उपयुक्त क्या हो सकता था, मुझे भी नहीं मालूम। अब झक मारकर वे और लिखेंगे और हमें पढ़ने को मिलेगा अलग से।
बात आगे बढ़ाने की कोशिश करता हूँ। परिपक्व लेखन हम किसे माने? जो समाधान दे, निष्कर्ष दे या जो प्रश्नों को सचित्र सामने ला रखता जाये। जो समाधान, निष्कर्ष देगा, उसने तो सब समझ लिया। उसे सिर्फ यही लगेगा न, कि मुझसे मार्गदर्शन लो। प्रश्नों की उलझन, प्रक्रिया जो ऊर्जा, जो आनन्द देती है, वह समाधानों में नहीं। अज्ञेय, मुक्तिबोध में प्रश्नों की छटपटाहट दिखती है, चित्र दिखते हैं, राह दिखती है, पर अन्त नहीं, समाधान नहीं। पर, इसका अर्थ यह भी कतई नहीं कि साहित्य सिर्फ यथातथता है या फिर इतिवृत्तात्मक है। नहीं, मेरे जैसे पाठक यह भी नहीं मान पायेंगे। उनके लिये तो प्रश्नों के झगड़े ही लेखन है। जीवन का अनुभव सिर्फ प्रश्न है और उन प्रश्नों को उकेर कर सामने रख देना ही संभवतः लेखन है। परिपक्वता तो मानसिक कयास है। हाँ यदि, पाठक कितनी जल्दी से तदात्म्य बना ले, यह कसौटी है, तो बात अलग है, क्योंकि तब दुनिया का लिखा प्रत्येक वाक्य किसी न किसी को भाता जरूर है और अपने जीवन के धुँधले चित्र(विचारी या अविचारी) वहाँ उसे दिख जाते हैं। वह उसके लिये अपना बन जाता है, साहित्य बन जाता है। कितना परिपक्व, वह सुधीजन जाने, हम तो ठहरे निपठ।
इति
अनिल
ब्लॉग जगत में इस तड़प और उत्साह का मिश्रण देखने को तरसते रहते हैं हम। आकाशीय बिजलियों की भाँति चमक कर पुनः छिप जाते हैं बादल के पीछे अपने सुरक्षा कवचों में। कहीं कोई बखेड़ा न खड़ा कर दे हमारी स्पष्टवादिता।
साहित्य में प्रश्न उठें या उत्तर मिलें या हो कोई उपनिषदों जैसा प्रश्नोत्तरी स्वरूप, पूर्वपक्ष, प्रतिपक्ष और निष्कर्ष। जीवन भर प्यास जगाना या प्यासों को अमृत चखाना। हमें क्या अच्छा लगता है, वह प्रश्न जो हमारा चिन्तन प्रवाह बढ़ायें या वह निष्कर्ष जो सागर सी स्थिरता मन में लाये।
प्रश्न अनिल महाजन जी के हैं, चर्चा ब्लॉग पर है, संवाद का मूक दर्शक बन ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा में स्थित मैं, तड़प और उत्साह की साधना में रत।