आप सरस साहित्यिक हैं या घनघोर असाहित्यिक हैं, इससे आपके ससुराल पक्ष को कोई अन्तर नहीं पड़ता है। समस्या तब होती है जब उनकी पुत्री को आपकी साहित्यिक अभिरुचियों से व्यवधान होने लगता है। आभूषणग्रस्त भारतीय नारियों के लिये पति का साहित्याभूषण पहन लेना जहाँ एक ओर अभिरुचियों की समानता के रूप में भी देखा जा सकता है वहीं दूसरी ओर आभूषणों के ऊपर एकाधिकार हनन के रूप में भी। साहित्य के प्रति प्रदर्शित प्रेम और व्यतीत किया हुआ समय कई ब्लॉगरों के लिये संवेदनात्मक झड़पें लाता रहा है।
हमें समय दे दिया जाता है, ब्लॉगिंग के लिये, बिना किसी विवशताओं के। अतः अभी तक हमारे साहित्यिक झुकाव को लेकर ससुराल पक्ष से कोई स्वर नहीं उभरा।
पहला संवेदी स्वर तब उठा जब रवीश जी ने हमारे ब्लॉग को अपने स्तम्भ में स्थान देने की महत कृपा की। दैनिक हिन्दुस्तान में पढ़ी यह बात हमारे श्यालों तक भी पहुँची। फोन आया और पहला प्रश्न था कि यह तो राष्ट्रीय स्तर पर आपका नाम आया है। हाँ, बात छिपाने का कोई लाभ नहीं था। तब तो बहुत बड़ी पार्टी बनती है। ठीक है, सुबह पाबला जी को भी पार्टी का वचन दिया था अतः अब उसके लिये पीछे हटने का प्रश्न नहीं था। मान गये और होटल व समय निश्चित करने के लिये कह दिया।
सायं श्रीमान भाईसाहब अपनी बहन के साथ तैयार थे, चलने के लिये। होटल का नाम था समरकंद। पहले तो समझ में नहीं आया कि उजबेकिस्तान की राजधानी और सिल्क रोड के महत्वपूर्ण नगर का बंगलुरु में क्या औचित्य। जब अन्दर पहुँचे तब नामकरण का कारण समझ में आया। लकड़ी के कटे दरख्तों के आकार की मेजें, बाँस और लकड़ी के पट्टों से बनी कुर्सियाँ, पुराने गाँवों के घरों की तरह पोती गयी दीवारें, पुराने नक्काशीदार काँसे के बर्तन, अखबार की खबर जैसा मेनू, पश्तूनी पोशाक में वेटर। हाथ में यदि मोबाइल फोन न होता तो हम यह भी भूल गये होते कि हम किस कालखण्ड में जी रहे हैं।
वातावरणीय आवरण से उबरे तो सारा भोजन भी विशुद्ध उजबेकी स्वरूप लिये था। घोंटी हुयी दाल, रोटियों का थाल, अलग ही स्वाद लिये छौंकी हुयी सब्जियाँ, विभिन्न प्रकार की चटनियाँ, सब कुछ न कुछ विशेष था। बच्चों को भी यह नयापन भा रहा था। भोजन न केवल स्वादिष्ट था वरन सन्तुष्टिदायक भी था। मन समरकंद के मानसिक धरातल पर विचरण कर रहा था।
प्रवाह अवरुद्ध तब हुआ जब बिल आया। बिल आते ही हम बंगलुरु वापस आ चुके थे। कितना हुआ यह मत पूछियेगा, बस प्रसन्नचित्त मुद्रा में प्रसिद्धि का प्रथम मूल्य चुका कर हम बाहर आ गये। वापस घर आने की तैयारी कर ही रहे थे कि बच्चे अपने मामा के साथ एक आइसक्रीम की दुकान में मुड़ गये। वनीला आइसक्रीम में फलों और सूखे मेवों की कतरनें और उस पर गर्म चॉकलेट उड़ेल दी गयी, नाम था "डेथ बाइ चॉकलेट"। डरते डरते खा गये, कुछ नहीं हुआ।
हमारे साथ जो कुछ भी हुआ, ईश्वर करे सबके साथ हो। ससुराल आपकी साहित्य साधना को इतना मूल्यवान कर दे कि आपको मुझसे और मेरे साहित्यप्रेम से और भी अधिक संवेदना होने लगे। कल आपका भी नाम रवीश जी निकालें और आपके ससुराल वाले भी आपको समरकन्द की यात्रा पर ले जायें।
पूरे प्रकरण में बस एक ही लाभ हुआ कि श्याले महोदय ने अब हमारे ब्लॉग पर दृष्टि रखनी प्रारम्भ कर दी है।
'श्याले' शब्द खूब जमा। भगवद्गीता से सीधा टाँग लाए हैं लेकिन है मज़ेदार। अब गाली से अलग हो जाएगा। गाली देनी हो तो 'साला' नहीं तो 'श्याला' ;)
ReplyDeleteएक साहित्यिक डायलॉग याद आ गया:
प्रसिद्धि अपनी कीमत वसूल ही लेती है बेनीमाधव!
:)
शब्दों का उद्धार भी बढ़िया .
ReplyDeleteबधाई हो!
कुछ अजीब सा लगा शब्द श्याला .......श्वान में भी एक संयुक्ताक्षर ऐसा ही तो है बस व् और य का फर्क है (ससुराल पक्ष के प्रति कोई श्लेष इच्छित नहीं ,बोले तो नो पन इन्टेन्टेड..जुर्रत नहीं कर सकता ..)
ReplyDeleteबाकी आप भाग्यशाली हैं उभय पक्षों में साहित्यानुराग तो है .....उनसे पूछिए जहां यह भी नदारद है ..मगर एक तरह से छुपा वरदान ..जेबें ढीली होने से बची रहती हैं !
और हाँ समरकंद में कश्मीरी/पेशावरी नान तो आपने श्याले साहब ,भाभी ,बच्चों को खिलया ही होगा ..
नहीं तो फिर ले जाईये ....
(कश्मीरी ,खासकर पेशावरी नान मुख्यतः मेवे से बनता है )
पार्टी और समरकंद का विवरण अच्छा लगा ...
ReplyDeleteबहुत बधाई व शुभकामनायें !
रवीश जी को धन्यवाद करें!
ReplyDeleteबहुत खूब ...फिर पढने का मन करेगा ..शुभकामनायें
ReplyDeleteरेस्टोरेन्ट का नाम देखते ही मामला हजारों में पहुंचा होगा, मन की आवाज निकल पड़ी..
ReplyDeleteखैर जोरू का भाई एक तरफ...
अपनी समरकंद की दावत में आपने भले ही हमें शामिल न किया हो पर आपकी साहित्यिक-दावत तो हम ज़बरिया जीम ही रहे हैं !एक नये शब्द (श्याले)से भी परिचय हुआ.
ReplyDeleteप्रसिद्धि का प्रथम मूल्य चुकाने को हम जैसे 'छपास-रोगी'बिलबिला रहे हैं,पर कोई 'बिल'देने को ही तैयार नहीं है !
गिरिजेश भाई के शब्द हमारे भी मान लिए जाएँ !
ReplyDeleteससुराल >>>>>>नो कमेन्ट !
मुन्ने की अम्मा कहती है ब्लॉगर सुनो फ़साना
ReplyDeleteपार्टी किस होटल में दोगे पहले यह बतलाना।
फिर पढ लूंगी लंबी-चौड़ी जो कुछ भी लिखते
समरकन्द में होगी डिनर अब न करो बहाना।।
यह संस्मरण मन को स्फ़ूर्तिमय बना गया। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
फ़ुरसत में .... सामा-चकेवा
विचार-शिक्षा
मजेदार संस्मरण।
ReplyDeleteप्रसिद्धि की कुछ तो कीमत चुकानी ही पड़ती ...समरकंद का विवरण अच्छा लगा ...और रही सही कसर आइसक्रीम के नाम ने पूरी कर दी ..यह संस्मरण तरोताजा कर गया ...
ReplyDeleteवाह समरकंद में जश्न मना आए, प्रसिद्धि का। आपने इतने अच्छे से वर्णन किया है तो मन कर रहा है,
ReplyDeleteसमरकन्द की सीढिया चढने का। बिल भी बता देते तो अभी से पाई पाई जोड़ना शुरू कर देते। आप किस्मत वाले हैं जो दावत दे रहे हैं, यहाँ तो कोई जिक्र भी नहीं करता। चाहे आप अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत ही क्यों ना हो जाएं। आपको बधाई।
chha gaye bhai sahab.......pyara sansmaran!!
ReplyDeleteऊऊऊऊऊऊ श्याला
ReplyDeleteशाबजी रवीश जी को धन्यवाद दो शशुराल में अब ज्यादा आवभगत होगी।
प्रणाम
स्वाद , साहित्य और संबंधों में ....हर तरफ कुछ खुशनुमा हो रहा है.... बधाई स्वीकरें
ReplyDeleteआप बार बार समरकंद जाए और साहित्य सृजन करते रहें. आभार.
ReplyDeleteश्याला शब्द सम्मानित सा लगता है ...:-) साला भी कोई चीज है ??
ReplyDeleteकाश हम भी होते समरकंद में ! शुभकामनायें !
आपकी सो कॉल्ड बददुआ मेरे जैसे सारे ब्लॉगरों के लिये दुआ साबित हो शायद । पहले प्रसिध्दी तो मिले फिर समरकंद भी झेल लेंगे और डेथ बाइ चॉकलेट भी । समरकंद की फोटोज अच्छी हैं । खाना अलग तो था पर बञिया था कि नही । चलिये आपके चाहने वालों में एक नाम और जुड गया आपके श्याले साहब का ।
ReplyDeleteपार्टी भी हुयी और एक विजिटर भी बढ़ गया | दोहरा लाभ हुआ | लेकिन पर्स का वजन कम हो गया |
ReplyDeleteवाह, समरकन्द के बारे में पढ़कर बहुत अच्छा लगा, हम भी उस कालखण्ड में पहुँच ही लिये थे, पर ये बिल बहुत ही बुरी चीज है जो आज के कालखण्ड में ले आयी।
ReplyDeleteहम भी ऐसे ही हैं, ससुराल >>> नो कमेंट
भाई आप जैसी किस्मत सबकी कहा. माँ तो माँ अब बेटा लोग भी कापी किताब लेकर सर पे सवार रहता है और मन ही मन बका जाता है कि बाप के साथ बेटा लोग भी बिगड़ेगा . मगर आप को बधाई हो.
ReplyDeleteये तो बहुत अच्छी खबर है ... आप प्रसिद्ध हो रहे हैं ... ऐसी पार्टियाँ तो होनी ही चाहियें ... हमारे लिए भी कुछ बचा कर रखना ... जब आपके शहर आयेंगे ले लेंगे ...
ReplyDeleteबधाई स्वीकार कीजिये प्रसिद्धी के तरफ बढ़ते हुए प्रथम कदम के लिए. श्याला शब्द सुनकर मजा आया , कृपया इसके उदगम पर प्रकाश डाले .
ReplyDelete‘ साहित्य के प्रति प्रदर्शित प्रेम और व्यतीत किया हुआ समय कई ब्लॉगरों के लिये संवेदनात्मक झड़पें लाता रहा है।’
ReplyDeleteफिर भी, महिलाओं को ब्लाग जगत में लाने के आह्वान नित नई मांग के साथ उभरते देखे गए हैं:)
प्रसिद्धि की कीमत तो चुकानी ही पडती है…………मज़ेदार्।
ReplyDelete... bahut badhiyaa ... shaandaar post !!!
ReplyDeleteमजेदार पोस्ट ..मज़ा आ गया पढ़कर
ReplyDeleteश्याले साहब के साथ जियाले अनुभव का वर्णन बड़ा ही स्वादिष्ट रहा... बिल की राशि भले ही आप छिपा गए, इतना तो बताने का कष्ट करें कि वो रुपये में था अथवा स्वर्ण मुद्राओं या मोहरों में था...
ReplyDeleteहमने तो पढ़ने के पहले ही आपसे थोड़ा सा विवरण सुन लिया था इस "समरकन्द" का...
ReplyDeleteइसलिए अभी घर पहुँचते ही सीधा आपके ब्लॉग पे चला आया....:)
बिल कितना आता है, इसकी चिंता मैं क्यों करूँ...ये तो आप सोचिये, हमें तो बस खाने से मतलब रहेगा...और बिल की पूरी ज़िम्मेदारी आपकी रहेगी :)...और हाँ, डेथ बाइ चॉकलेट हम नहीं खाने वाले...एक बार एक दोस्त ने खाई थी ये आइसक्रीम...अगले ही दिन उसे प्रेम रोग हो गया(मजाक नहीं कर रहा, सच्ची :P)
सचमुच में साहसी हैं आप। साले साहब बजरिए आपके ब्लॉग, आप पर नजर रखेंगे और आप खुश हो रहे हैं? सचमुच में हिम्मत की बात है।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रविशजी ने लिखा है और उतनी ही सुन्दर ता से आपने प्रस्तुति दी है |आप भाग्यशाली है जो आपको साहित्य कि क़द्र करने वाली ससुराल मिली वरना हमारे यहाँ तो(ससुराल में )इसे किताबो में और अब इस मरे? कम्प्यूटर में माथा पचाना ही कहते है |
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई |
aur benglor me ak achhe jgh btane ka dhnywad
समरकन्द के बारे में पढ़कर बहुत अच्छा लगा प्रसिद्धि की कुछ तो कीमत चुकानी ही पड़ती ,
ReplyDeleteप्रवीण भाई अच्छा संयोग है.. मेरी छोटी सी विज्ञापन एजेंसी में एक त्रवेल एगेंट है क्लाएंट .. उसका पोस्टर आदि बना रहा था.. नए साल का टुअर उज्बेकिस्तान जा रहा है... तभी समरकंद से परिचय हुआ और इसी बीच में आपकी पोस्ट भी पढ़ लिए..आपका विवरण अच्छा लगा... जीवंत चित्रण...
ReplyDeleteकम से कम 'डेथ बाई चोकलेट .. तो हम टिप्पणीकार और फालोवर का भी बनता है.. जिन्होंने आपको समरकंद पहुचाया...
सर्वप्रथम तो वधाई दुंगा और साथ ही आगाह भी करुगा कि साले महोदय का आपके ब्लोग पर नजर रख्नना भविष्य मे नुक्शान्देह हो सकता है ! :)
ReplyDeleteसाले के लिये समरकंद और भाईयो के लिये समर ..........बहुत नाइंसाफ़ी है .
ReplyDeleteहमारे एक परिचित थे उन्हे नेता बनने का शौक हुआ लेकिन उनकी पत्नी ने हिंसक विरोध किया जो उनके हाथ पर बंधी पट्टी देखकर पता चलता था . लेकिन कुछ समय बाद उन्होने अपने श्याले के माध्यम से पत्नी को भी नेता बना दिया और उनकी पत्नी उन्से भी ज्यादा बडी नेता बन गई .
.
ReplyDeleteश्याले साब को नमन ! बधाई व शुभकामनायें !
.
समर्कन्द?
ReplyDeleteवही जो Infantry road पर स्थित है?
अरे बाप रे!
वह तो बहुत महंगा है।
आपके बहनोई का बटुआ तो हलका हो गया होगा!
वहाँ शाकाहारी ग्राहक तो अपना पैसा वसूल कर ही नहीं सकते।
हमारी जब पैसे उडाने की बारी आती है तो पास में १९४७ नाम का एक रेस्टॉराँट है जहाँ प्रति व्यक्ति का खर्च २०० से लेकर ३०० रुपये होता है। माहौल ऐसा कि १९४७ की याद आती है। (स्व्तम्त्रता संग्राम, गान्धी, साबर्मति आश्रम, चर्खा वगैरह)
खाना केवल शुद्ध शाकाहारी।
मेरा अंदाजा है कि समर्कन्द में प्रति व्यक्ति खर्च हजार से कम नहीं हुई होगी!
कोई बात नहीं । धन्य हैं आप जिन्हे एसे ससुराल वाले मिल गए!
बच्चों को यदि Ice cream पसन्द है तो MG Road पर स्थित Lakeview ले जाइए।
हमारे जमाने में यहाँ नाना प्रकार के Ice cream उपलब्ध है। "गडबड" ice cream आजमाइए! हम तो हमेशा यही चुनते हैं।
"श्याला" शब्द हमें शब्दकोश में ढूँढना पडा।
एक जमाने में हम अपनी अंग्रेजी शब्द भंडार सुधारने के लिए Word a day जाल स्थल का सहारा लेते थे। अब हिन्दी (और वह भी शुद्ध हिन्दी) शब्द भंडार जुटाने के लिए आपका ब्लॉग काम आ रहा है।
लगे रहिए!
अरे वाह आपसे सबक लिया की वहां फिलहाल तो खाने नहीं जाना है क्यूंकि जो कीमत विश्वनाथ जी बता रहे हैं उस हिसाब से तो एक ही पार्टी में दिवाला निकल जायेगा......
ReplyDeleteवैसे विश्वनाथ जी कीमत श्याले साहब को नहीं हमारे प्रवीण भैया को चुकानी पड़ी है...
आपकी टिपण्णी पढ़ कर तो मुझे दुबारा जाकर पोस्ट पढनी पढ़ी | बड़ा मजेदार प्रसंग रहा आपका...
वैसे एक बात बताएं ये अखबार में खबर कैसे छपती है ?? मतलब अगर छापना चाहें तो क्या करना होगा ????
रोचक संस्मरण तथा उत्तम वर्णन -
ReplyDeleteशुभकामनाएं. -
"हमारे साथ जो कुछ भी हुआ, ईश्वर करे सबके साथ हो।"
ReplyDelete्वाह जी वाह, ये तो वही बात हुई हम तो डूबेगें सनम तुम को भी ले डूबेगें…॥:)
बहुत बहुत बधाई आप को।
इस पोस्ट से एक सीख मिल गयी कि सावधान प्रसिद्ध होना हल्की जेब वालों के लिए नहीं , पहले जेब भारी करो फ़िर ऐसे सपने देखना।
हमको समरकंद नहीं तो कम से कम आइस्क्रीम खिला दीजिए
मतलब इलाहाबाद आने के बाद हम लोगों की भी दावत पक्की है ना।
ReplyDeleteमैं अपने ‘श्याले’ के घर ही रुका हुआ हूँ और अभी-अभी जो पोस्ट शिड्यूल की है उसमें उसका जिक्र पत्नी के भाई के रूप में कर चुका हूँ। साला लिखने में थोड़ा संकोच हुआ। अब यह ‘श्याला’ तो कमाल का है। कल सुधारता हूँ।
ReplyDeleteऔर हाँ, पूरी पोस्ट मजेदार है। बधाई।
कार्तिक पूर्णिमा एवं प्रकाश उत्सव की आपको बहुत बहुत बधाई
ReplyDeleteकार्तिक पूर्णिमा एवं प्रकाश उत्सव की आपको बहुत बहुत बधाई
ReplyDelete@शेखर सुमन
ReplyDeleteओफ़ फ़ो!
हमने ठीक से पढा ही नहीं!
हम तो समझ रहे थे कि प्रवीण जी बडे भाग्यशाली हैं!
Quote:
हमारे साथ जो कुछ भी हुआ, ईश्वर करे सबके साथ हो। ससुराल आपकी साहित्य साधना को इतना मूल्यवान कर दे कि आपको मुझसे और मेरे साहित्यप्रेम से और भी अधिक संवेदना होने लगे। कल आपका भी नाम रवीश जी निकालें और आपके ससुराल वाले भी आपको समरकन्द की यात्रा पर ले जायें।
Unquote:
इन पंक्तियों में छिपा हुआ व्यंग्य तो हमने पहचाना नहीं।
काश प्रवीणजी South Indian होते!
यहाँ दामाद की खतिरदारी जीवन भर होती है।
बच्चों के लिए मामाजी किसी santa Claus से कम नहीं।
कोई बात नहीं। प्रवीणजी को अपने बेटे की शादी किसी दक्षिण भारती लडकी से करनी चाहिए।
फ़िर वह निडर होकर प्रसिद्ध ब्लॉग्गर बन सकता है।
और हाँ, अपनी लडकी की शादी किसी ब्लॉग्गर से कभी नहीं करनी चाहिए।
और शेखर, तुम्हारी तो शादी हुई ही नहीं।
कहो तो यहाँ केसी से बात चलाउं?
तुम्हे समरकन्द तो क्या, ताज ले जाने वाले "श्याले" मिल जाएंगे।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
ऐसी बात नहीं है, उत्तर भारत में भी दामादो की खातिर होती है पर पाण्डेय जी इतने भाग्यशाली नहीं है.
ReplyDeleteदेरी से आने के लिए माफ़ी चाहूंगी प्रवीन जी ... जब भी banglore आना होगा एक शिवसमुन्द्रम और समरकंद ... ये दो जगह तो पक्की हो गयी देखने के लिए ... और "डेथ बाइ चॉकलेट" का मज़ा भी ज़रूर लेंगे :)
ReplyDeleteबहुत अच्छे..आपके चिट्ठे का सम्मान तो सर्वोचित है. बधाई!
ReplyDeleteऔर अब समरकंद 'सिल्क रूट' पर है तो महंगा तो होगा ही :)
पार्टी तो अपनी भी बनती है। कब आएं लेने?
ReplyDeleteसमरकंद में ही जरुरी नहीं है, ;)
बधाई
श्याले महोदय ने अब हमारे ब्लॉग पर दृष्टि रखनी प्रारम्भ कर दी है।
ReplyDeleteमतलब यह कि टिप्पणीकार के रूप में अब हमें अधिक सजग रहना पडेगा।
समरकन्द के मेनू में कलाकन्द, जमींकन्द और शकरकन्द थे या नहीं?
@ गिरिजेश राव
ReplyDeleteअब साला शब्द ही उपयोग कर लिये होते तो व्यंग कहाँ रहता। पत्नी के भाई का सम्मान तो बनता ही है, प्रसिद्धि का अनुभव और गाढ़ा बनाने के लिये।
@ प्रतिभा सक्सेना
सारा का सारा पौरुषेय दम्भ जिनके सामने नत हो जाता है उसे लोग साला जैसा शब्द दे देते हैं। अब जैसा सम्मान हो, वैसे ही तो शब्द भी हो।
@ Arvind Mishra
मन के दबे भाव संयुक्त होकर ही निकलते हैं, संयुक्ताक्षर के रूप में। "या" और "व" का अन्तर गूढ़ है, दर्शन अद्वैत व द्वैत का हो जाता है।
यदि यही भाग्य है तो आपको भी मिले, वह भी समुचित। साहित्य-प्रेम के प्रति अर्धांगिणी का पूर्ण सहयोग है, अभिभूत हूँ।
भोजन बहुत स्वादिष्ट था, बस इतना ही याद रहा। सूखे मेवे कितने थे, यह उतर गया, वहीं पर।
@ वाणी गीत
बहुत धन्यवाद आपका।
@ दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi
रवीश जी को धन्यवाद ज्ञापन कर चुके हैं, अब श्याले महोदय ने इस कृतज्ञता को सदैव के लिये घनीभूत कर दिया है।
@ केवल राम
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
सही बात है, जोरू का भाई एक तरफ, हजारों एक तरफ।
@ संतोष त्रिवेदी ♣ SANTOSH TRIVEDI
आप बंगलोर पधारें आपको विशुद्ध दक्षिण भारतीय दावत देंगे, साहित्यिक केवल चर्चायें ही होंगी। मन में यदि बिल देने का निश्चय कर ही लिया है तो प्रसिद्धि का बहाना भी मिल जायेगा।
@ प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI
ससुराल शब्द पर हृदय इतना अर्धकम्पित क्यों हो जाता है? सारे ससुराल हमारे जैसे तो नहीं होते होंगे।
@ मनोज कुमार
अब तो एक ब्लॉगरकन्द नामक होटल खोला जा सकता है, उत्कोच-स्वरूप मुन्ने की अम्मा को बाहर खिलाने के लिये।
@ विनोद शुक्ल-अनामिका प्रकाशन
ReplyDeleteपर असली मजा किसको आया?
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
बिल के लिये भी वह "डेथ बाइ चॉकलेट" थी। प्रसिद्धि की कीमत चुकानी ही पड़ती है पर लाभ उठाने वालों की सूची में ससुराल पक्ष!
@ ajit gupta
हम तैयार बैठे हैं आपसे पार्टी लेने के लिये। बिल को एक रहस्य ही रहने दीजिये, समरकन्द की तरह। आप आ जाईये बंगलोर, साथ साथ चलेंगे, आपकी दावत देने की इच्छा भी पूरी हो जायेगी।
@ Mukesh Kumar Sinha
बहुत धन्यवाद आपका।
@ अन्तर सोहिल
पता नहीं कि ससुराल वाले कहीं कंधार न ले जायें, जो रहा सहा है, उससे भी चले जायें।
@ डॉ॰ मोनिका शर्मा
ReplyDeleteइस आनन्दोत्सव में सबकुछ हल्का हल्का लग रहा है, जेब भी।
@ P.N. Subramanian
इस कबीलाई अनुभव के चढ जाने कहीं कोमल साहित्यिक संवेदनायें छिप न जायें।
@ सतीश सक्सेना
भगवान आपकी समरकंद में होने की इच्छा पूरी करे, शीघ्र ही और आपके श्याले के साथ।
@ Mrs. Asha Joglekar
मैनें तो सको हार्दिक शुभकामनायें ही दी हैं। खाना बेमिसाल था, अनुभव करने योग्य। काश, श्याले जी भी साहित्यिक हो जायें।
@ नरेश सिह राठौड़
कुछ पाने के लिये कितना कुछ खोना पड़ता है।
@ उपेन्द्र
ReplyDeleteबच्चों को पढ़ाने का दायित्व तो निभाना ही पड़ता है। बेटे जी को तो आनन्द ही है।
@ दिगम्बर नासवा
आपका स्वागत है बंगलोर में, समरकन्द यदि न भी हो तो लाहौर और कन्धार कहीं नहीं गये हैं। आनन्द तो निश्चय ही है।
@ ashish
यह शब्द भगवतगीता के प्रथम अध्याय से लिया गया है जब संजय दोनों सेनाओं का वर्णन कर रहे होते हैं।
@ cmpershad
संभवतः उन्ही झड़पों को कम करने के लिये महिलाओं को ब्लॉग लिखने के लिये प्रेरित किया जाता है।
@ वन्दना
बहुत धन्यवाद आपका।
@ 'उदय'
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ VIJAY KUMAR VERMA
बहुत धन्यवाद आपका।
@ चला बिहारी ब्लॉगर बनने
बिल तो क्रेडिटकार्ड से देना पड़ा। श्याले महोदय के चेहरे पर स्मित मुस्कान आ गयी थी।
@ abhi
आपने सच कहा, कहीं पार्टी लेने जायें तो पूर्ण परमहंसीय व्यक्तित्व अपना लें। धन, मोह, माया क्या है, स्वाद ही निर्वाण है।
@ विष्णु बैरागी
श्रीमतीजी तो पहले से ही गिद्धीय दृष्टि गढ़ाये हैं, श्यालेजी भी सह लिये जायेंगे।
@ शोभना चौरे
ReplyDeleteससुराल उत्साह करने वाली नहीं है तो व्यवधान करने वाली भी नहीं है। हमारे श्याले साहब ने अभी और स्थान दिखाने का वचन दिया है।
@ Sunil Kumar
हम तो वह कीमत चुका ही आये, वह भी प्रथम।
@ अरुण चन्द्र रॉय
समरकन्द के बारे में और सांस्कृतिक स्वाद पता लगे तो बताईयेगा, तुलना करने का प्रयास करूँगा।
@ पी.सी.गोदियाल
अब जब ओखली में सर दे दिया है तो श्यालों से क्या घबराना।
@ dhiru singh {धीरू सिंह}
आपका स्वागत है बंगलोर में। विवाह का मूल्य है, प्रसिद्ध का मूल्य है और भी कई मूल्य हैं जो चुकाने पड़ते हैं। नेता नहीं बस एक संवेदनशील ब्लॉगर ही बन जायें हम, वही बहुत है जीवन में।
अब प्रसिद्धी मिली है तो निभानी तो पड़ेगी ही :) समरकंद देख कर मजा आ गया नाम भी याद कर लिया है और आपकी अगली प्रसिद्धी का इंतज़ार है :)
ReplyDelete@ ZEAL
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ G Vishwanath
ReplyDeleteहोटल निश्चय करने निर्णय श्याले साहब को दे देना मँहगा पड़ गया पर स्वाद और संतुष्टि पूर्ण मिली। उन्हें पूरा शोध करने में रुचि है, कहीं भी जाने के पहले। इण्टरनेट के माध्यम से इस होटल के बारे में कई अनुकूल टिप्पणियाँ पढकर संभवतः इसके बारे में निर्णय लिया होगा। हमने निर्णय लिया होता तो बड़ा ही साधारण स्वाद रहता, स्वयं के जीवन की तरह। हमें तो शाकाहार में भी आनन्द आया, लोग कहते हैं कि नॉनवेज और भी स्वादिष्ट है।
अब अगली बार जब श्याले कहेंगे तो उन्हें स्वतन्त्रता संग्राम में ले जायेंगे, 1947 में। आइसक्रीम भी गड़बड़ ही खिलायेंगे।
श्याला शब्द भगवतगीता के प्रथम अध्याय में है, वहीं से लिया है। मामा को मातुल भी कहते हैं।
भाग्य कहते हैं कि घरवाली से आता है, साथ में ससुराल भी।
जीवन एक ही है, अब चाह कर भी दक्षिण भारतीय दामाद नहीं बन सकते हैं, पर सुपुत्रजी के लिये वह द्वार अभी भी खुले हैं।
यह निश्चय ही विवाद और चर्चा का विषय हो सकता है कि विवाह के पहले साहित्यिक ग्रुप मिलाया जायेगा, 36 के ऊपर 9 गुण साहित्यिक अभिरुचियों के रखे जायें।
@ Shekhar Suman
ReplyDeleteदीवाली के बाद दीवाला, क्या शाब्दिक साम्य है परिस्थितियों का। हम तो रवीशजी को क्या कहें, चलिये शुभकामनायें और धन्यवाद ही दे देते हैं, उनके भी तो श्याले होंगे।
@ anupama's sukrity !
बहुत धन्यवाद आपका।
@ anitakumar
इससे तो यही सीख मिलती है कि जब जेब में पैसा हो तभी अच्छी पोस्ट लिखी जाये। तो यदि पोस्ट ठीक न आये तो समझ लीजियेगा कि बजट बिगड़ा है।
@ इलाहाबादी अडडा
बिल्कुल पक्की, आखिरकार आतिथेय धर्म तो निभायेंगे ही आप।
@ सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
श्याले को साहित्यिक स्वरूप दे दें, सुप्रभाव पड़ेगा परिवार के वातावरण पर। और अभी तो उन्ही के घर में ही हैं।
@ अशोक बजाज
ReplyDeleteआपको भी बहुत बहुत बधाई।
@ Shraddha
उफ्, न याद दिलाया जाये।
@ क्षितिजा ....
चलिये दो जगह तो हो गयीं। हफ्ते भर का कार्यक्रम बना लीजिये।
@ Saurabh
सिल्क रूट में यही कारण था कि केवल व्यापारी ही जाते थे वहाँ और वह भी कारवाँ में।
@ Sanjeet Tripathi
आप जब भी आयें, स्वागत है। जगह का निर्धारण विश्वनाथजी करेंगे या आप करें।
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
ReplyDeleteमीनू में तो वही होना चाहिये था। जब विवाह कर बैठे हैं तब टिप्पणियों से कैसे घबराना।
@ shikha varshney
तब कब आ रही हैं बंगलोर, प्रतीक्षा रहेगी आपकी।
आपने बिल बताया नहीं, तो सोच नहीं पा रहे कि बैंगलोर आना हुआ तो वहाँ जाएँ कि नहीं :)
ReplyDeleteरवीश जी की रिपोर्टिंग अच्छी है। इस वाले पोस्ट को होटल मालिक को दिखाएं...वह बिल का पैसा वापस कर देगा।
ReplyDelete..बहुत खुशी हुई पढ़कर...देर से आने का अफसोस है।
..बधाई।
मेरी टिप्पणी गायब हो गई लगती है....
ReplyDeleteकृपया बधाई तो सहेज ही लें...नेट भी न ..श्या..
@ अभिषेक ओझा
ReplyDeleteहमारा घर जो है, विशुद्ध उत्तर भारतीय खाना रहेगा। पर स्वाद पाने हेतु एक बार जाना तो बनता है समरकंद।
@ देवेन्द्र पाण्डेय
सच ही है, ब्लॉग जगत में ही इतने अधिक लोगों में प्रचारित हो गया। श्याले साहब को ही लगाते हैं, कुछ डील निकाल कर अवश्य लायेंगे।
बधाई के लिये बहुत धन्यवाद।
सर्वप्रथम बधाई और शुभकामनाएं स्वीकारें. रोचक और सजीव संस्मरण के लिए आभार.
ReplyDeleteसादर,
डोरोथी.
प्रवीण भैया, दुखती रग पर हाथ रख दिया है आपने अंजाने में।
ReplyDeleteवैसे एक पाठक बढने की बधाई।
---------
ग्राम, पौंड, औंस का झमेला। <
विश्व की दो तिहाई जनता मांसाहार को अभिशप्त है।
बधाई हो !!!
ReplyDeleteचलिए अच्छा हुआ विवरण पहले ही पढ़ लिया ,अब शहर आयेंगे तो आपसे कहाँ पार्टी लेंगे,इसके लिए कुछ सोचना न पड़ेगा...
@ Dorothy
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका इस उत्साहवर्धन के लिये।
@ ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
सारी रगें तो हमारी दुख रही थीं, बिल देने के बाद। पाठक बढ़ तो गया है, देखिये आगे आगे क्या होता है।
@ रंजना
बहुत धन्यवाद। जीतने के लिये और भी नगर हैं, समरकंद के अतिरिक्त।
अरे वाह. यह तो बहुत रोचक वाकया है. आजकल पता नहीं पोस्टें कभी समय पर नहीं पता चलतीं अन्यथा हम इस समय कतार में इतने पीछे नहीं होते.
ReplyDeleteआप समरकंद जाएँ, बुखारा जाएँ, खूब मौके मिलें दावत उड़ाने के. हम एक बार यहाँ गलती से एक उज्बेकी रेस्तरां चले गए और मेनू देखते ही भागे. उसका भी अलग ही किस्सा है.
हम तो रवीश जी का धन्यवाद करेंगे। वैसे पार्टी तो सभी ब्लागर्ज़ की भी बनती है। तो कब तक आशा रखें? दूसरे सम्मान तक?\ बहुत बहुत शुभकामनायें।
ReplyDeleteसबसे पहले ढेर सारी बधाइयाँ स्वीकारें... क्योंकि असाहित्यिक लोगो को यूं रिझा पाना अत्यंत मुश्किल है... मै जानती हूँ, आपके तो ससुराल पक्ष के ऐसे हैं, मुझे अभी ससुराल का पता नहीं पर मायका तो ऐसा ही मिला है...
ReplyDeleteपरन्तु... बढ़िया लेख... यह पढ़कर मुझे भी कुछ-कुछ उम्मीदें समझ आतीं हैं...
@ hindizen.com
ReplyDeleteएक बार समरकन्द हो आये हैं, अब बहुत दिन तक कहीं भी जाने की स्थिति में नहीं हैं। शाकाहारी भोजन तो एक ही जैसा है, उजबेक हो या मलयाली।
@ निर्मला कपिला
ब्लॉगरों की पार्टी तो निश्चय ही बनती है, अभी रोहतक में चल भी रही है। आप बंगलोर आयें, पार्टी पक्की।
@ POOJA...
आपको शुभकामनाये कि आपका ससुराल साहित्यिक हो और आपकी ब्लॉगरीय उपस्थिति को और बल मिले। जीवन में समरकंद, लाहौर और कन्धार तो आते ही रहेंगे।
बंगलोर में आपके द्वारा सर्टिफाइड अच्छी शाकाहारी जगह मिल रही है और क्या चाहिए...बस सैलरी आने देते हैं अगले महीने और फिर खाने पहुँच जायेंगे...आपके प्रसिद्ध होने कि खुशी में खुशी मनाने. वैसे भी खाने वालों को खाने का बहाना चाहिए.
ReplyDeleteगाहे बगाहे ऐसा कोई अखबार मेरे ससुराल पहुँच जाता है तो मेरा तो पूरा बज़ट घाटे में आने वाला होता है, चूँकि संयुक्त परिवार है...वो तो गनीमत है कि सब बंगलोर से इत्ती दूर हैं कि :)
सुरुचिपूर्ण खाना-खुराक.
ReplyDelete@ Puja Upadhyay
ReplyDeleteरिसर्च जारी आहे, और भी शाकाहारी ठिकाने निकल आयेंगे। आपको आना हो तो अगली सैलरी की प्रतीक्षा क्यों? लहरें तो मनमौजी हैं।
हमारे घर वालों ने कभी भी ट्रीट नहीं माँगी और प्रसन्नतापूर्ण आशीर्वाद भी दिया। अब श्यालों को कौन सम्हाले?
@ Rahul Singh
स्वादिष्ट भोजन आनन्दित कर जाता है।
"श्याला"... ये बहुत अच्छा था :)
ReplyDeleteबहुत खूब!
वैसे इतना मंहगा नहीं लगता समरकंद अगर गुडगाँव के "so called restaurants" से तुलना करूँ उस विवरण की जो आपने बताया...
@ Avinash Chandra
ReplyDeleteएक दो समरकन्द तो गुड़गाँव में भी होने ही चाहिये। आप लोगों के लिये भी तो ससुराल पक्ष को घुमाने के लिये कोई निकट में स्थान होना चाहिये।
हा हा हा!
ReplyDeleteअभी चैन से गुज़र बसर के दिन हैं प्रवीण जी. :)
@ Avinash Chandra
ReplyDeleteतब तो आप के जीवन में भी समरकन्द की बहार आये।