दोपहर के बाद कार्यालय में अधिक कार्य नहीं था अतः निरीक्षण करने निकल गया, टिकट चेकिंग पर। बाहर निकलते रहने से सम्पूर्ण कार्यपरिवेश का व्यवहारिक ज्ञान बना रहता है। सयत्न आप भले ही कुछ न करें पर स्वयं ही कमियाँ दिख जाती हैं और देर सबेर व्यवस्थित भी हो जाती हैं। पैसेंजर ट्रेन में दल बल के साथ चढ़ने से कोई भगदड़ जैसी नहीं मचती है यहाँ, सब यथासम्भव टिकट लेकर चढ़ते हैं। उत्तर भारत में अंग्रेजों से लड़ने का नशा अभी उतरा नहीं है। अब उनके प्रतीकों से लड़ने के क्रम में बहुत से साहसी युवा व स्वयंसिद्ध क्रान्तिकारी ट्रेन का टिकट नहीं लेते हैं। दक्षिण भारत में यह संख्या बहुत कम है अतः टिकट चेकिंग अभियान बड़े शान्तिपूर्वक निपट जाते हैं।
बिना टिकट यात्री पूरा प्रयास अवश्य करते हैं कि वे आपकी बात किसी ऊँचे पहुँच वाले अपने परिचित से करा दें अतः पकड़े जाने के तुरन्त बाद ही मोबाइल पर व्यग्रता से ऊँगलियाँ चलाने लगते हैं, यद्यपि लगभग हर समय वे प्रयास निष्प्रभावी ही रहते हैं। दूर से 13-14 साल के दो बच्चों को देखता हूँ, अपने विद्यालय की ड्रेस मे, पकड़े जाने के बाद भी चुपचाप से खड़े हुये। कुछ खटकता है, अगले स्टेशन पर अपने साथ उन्हें भी उतार लेने को कह देता हूँ। हमारे मुख्य टिकट निरीक्षक श्री अकबर, अनुभव के आधार पर बच्चों से दो तीन प्रश्न पूछने के बाद, उनसे उनके अभिभावकों का फोन नम्बर माँगते हैं। फोन नम्बर देने में थोड़ी ना नुकुर के बाद जब अभिभावकों से बात होती है तो अभिभावक दौड़े आते हैं और जो बताते हैं वह हम सबके लिये एक कड़वा सत्य है।
दोनों बच्चों के पिछली परीक्षा में कम अंक आने से घर में डाँट पड़ती है। घर की डाँट और विद्यालय के प्रतियोगी वातावरण से क्षुब्ध बच्चे इस निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं कि उन्हें न विद्यालय समझ पा रहा है और न ही घर वाले। दोनों बच्चे आपस में बात करते हैं जिससे उनकी क्षुब्ध मनःस्थिति गहराने लगती है। परिस्थितियों का कोई निष्कर्ष न आते देख दोनों भाग जाने का निश्चय करते हैं। शिमोगा भागने की योजना थी, वहाँ जाकर क्या करना था उसका निश्चय नहीं किया था। अन्ततः उनके अभिवावकों को समझा दिया जाता है, उन्हे भी अपनी भूल का भान होता है।
मैं घर आ जाता हूँ और धन्यवाद देता हूँ ईश्वर को कि मेरे हाथों एक पुण्य करा दिया।
पर क्यों कोई बच्चा अपने परिवेश से क्षुब्ध हो? जो पढ़ाई का बोझ सह नहीं पाते हैं, क्यों सब कुछ छोड़ भागने को विवश हों? क्या इतना पढ़ाना ठीक है जिसका जीवन में कोई उपयोग ही न हो? शिक्षा पद्धति घुड़दौड़ बना कर रख दी गयी है, जो दौड़ नहीं सकते हैं उसमें जीवन से भाग जाने का सोचने लगते हैं। ग्रन्थीय पाठ्यक्रम पढ़कर जीवन में उसका कुछ उपयोग न होते देख, सारा का सारा शिक्षातन्त्र व्यर्थ का धुआँ छोड़ता इंजिन जैसा लगने लगता है, कोई गति नहीं।
रटने के बाद उसे परीक्षाओं में उगल देना श्रेष्ठता के पारम्परिक मानक हो सकते हैं पर इतिहास में विचारकों ने इस तथ्य को घातक बताया है। उद्देश्य ज्ञानार्जन हो, अंकार्जन न हो। रवीन्द्रनाथ टैगोर की विश्वभारती इसका एक प्रयास मात्र था। चेन्नई में किड्स सेन्ट्रल और उसके जैसे अन्य कई विद्यालय हैं, जो बच्चों के लिये तनावरहित और समग्र शिक्षा के पक्षधर हैं और वह भी व्यवहारिक ज्ञान और प्रफुल्लित वातावरण के माध्यम से। बच्चों के लिये विशेषकर पर सम्पूर्ण शिक्षा पद्धति के यही गुण हों, समग्रता, व्यवहारिकता, ऊर्जा और मौलिकता।
अभिभावक यह तथ्य समझें और विद्यालय इसको कार्यान्वित करें। बच्चों का बचपन व भविष्य हम सबकी धरोहर है। जीवन जीने के लिये है, पलायन के लिये नहीं।
मा पलायनम्।
संयोग से मेरी आज की पोस्ट और कल या परसों आने वाली पोस्ट भी ऐसे ही जद्दोजहद के आसपास थी ! भारत में बिना शोध के हम पढाई के समस्या जनित पाठ्यक्रम पर ध्यान देने के बजाय बस परीक्षा में उत्तम अंको के लिए ही पढते हैं !
ReplyDeleteनिकुंज पांचवे क्लास तक बिना बस्ते और बिना ड्रेस के विद्यालय जाएगा पर ज्ञान के हिसाब से सिर्फ प्रोजेक्ट और रीडिंग के बल पर जो उच्च स्तर पढाई का दिखा से बेस्ट नहीं तो बेहतर जरूर कहूँगा !
बच्चे अभी से लिखना सीख रहे हैं , लेखक बन रहे हैं और अपने रूचि के हिसाब से एक विषय विशेष में पारंगत बन रहे हैं पर ऐसे पढाई में घर ध्यान न दिया जाए तो बच्चा पिछड भी सकता है क्यूंकि यहाँ बच्चे पर पढाई के लिए दबाब नहीं डाला जाता !
भारत में सबसे बड़ी समस्या है हर क्षेत्र में शोध की ! बिना शोध के हम पुराणी पगडंडियों पर बिना सुधार और उन्नयन के चलते रहते हैं और हाथ लगता है तो बस कठिन परिश्रम - आईडिया तो शोध से ही आते हैं , उन्नयन तो शोध से ही आता है अन्यथा मानसिक तनाव या कठिन परिश्रम के दो किनारों के बीच झुलसते रहते हैं हम !!
"उत्तर भारत में अंग्रेजों से लड़ने का नशा अभी उतरा नहीं है। अब उनके प्रतीकों से लड़ने के क्रम में बहुत से साहसी युवा व स्वयंसिद्ध क्रान्तिकारी ट्रेन का टिकट नहीं लेते हैं।"
ReplyDeleteस्वागत है श्रीमान, जैसे अंबानी यार्न किंग बनकर ही खुश नहीं थे, अपने व्यवसाय में विविधता ले आये, आईये आप का भी ये नया अंदाज कुछ वैसे ही देख रहे हैं और क्या खूब लिखा है।
अभी परसों ही ’तारे जमीन पर’ देखी, फ़िर से याद आ गई। नार्थ में भी किसी ऐसे विद्यालय का पता चले तो जानकारी देने का कष्ट करें।
आकाश गिर रहा है...आकाश गिर रहा है...सभी भाग रहे हैं...अपने बच्चों को भी भगा रहे हैं...अभी ठीक से आँख नहीं खोली स्कूल जा रहे हैं..होम वर्क ला रहे हैं...देर तक जाग रहे हैं..जल्दी उठ रहे हैं...माँ-बाप भी जुटे हैं..स्कूल पहुंचा रहे हैं..कोचिंग पहुंचा रहे हैं..बच्चों के साथ खुद भी पढ़ रहे हैं..आकाश गिर रहा है..आकाश गिर रहा है...सभी भाग रहे हैं।
ReplyDelete...भागते को देखना हो तो रूकना पड़ता है।
उद्देश्य ज्ञानार्जन हो, अंकार्जन न हो।
ReplyDeleteपर आजकल तो उद्देश्य सिर्फ अंकार्जन ही रह गया है | व्यवहारिकता से दूर हो शिक्षा सिर्फ रटंत रह गई है
हमारे यहाँ अभी हालात बहुत बुरे हैं. मैं आयेदिन देखता हूँ की कार्यालय में मेरे सहकर्मी अपने बच्चे के होमवर्क से सम्बंधित कोई चीज़ छूट जाने के कारण या नहीं मिलने पर परेशान से घूम रहे हैं.
ReplyDeleteदेखने में यह आता है कि स्कूल में बच्चों से वह कार्य करने की अपेक्षा की जाती है जो उनके बस का नहीं है. ऐसे में उनके माता-पिता पर यह जिम्मा आ जाता है कि यह तो वे स्वयं वह कार्य पूरा करें या किसी की सेवा लें. होमवर्क और असाइंमेंट करवाने का धंधा भी फलफूल रहा है. सरकारी स्कूलों में यह नीति नहीं है पर उनकी पढ़ाई महज खानापूरी है.
हम अपने घर में यह प्रयास कर रहे हैं कि बच्चा अपना स्कूली कार्य स्वयं करे भले ही वह दुसरे 'बच्चों द्वारा किये गए' कार्य जितना उत्कृष्ट न हो. इसके परिणाम भी अच्छे हैं.
मैने अपनी बेटी से कह रखा है तुम अपना १००% दो यह चिन्ता ना करो कि वह कुल मिला कर कितना % है .मै जानता हूं वह ९०%+ स्टुडेंट नही लेकिन जो वह पढई करना चाहती है उसके कम्प्टीशन के लिये ६०% की है जरुरत होती है . और वह बिना टेन्शन के उस से कही ज्यादा % ला सकती है
ReplyDeleteयह मैने इस बात सीखा है मेरे साथ पढने वाले टापर मे से कूछ क्लर्क है और सामन्य लोग उनसे कही ऊचे पदो पर है
ReplyDeleteबहुत ही शोचनीय स्थिती में है हमारी शिक्षा पद्धति, जल्दी ही इसे ठीक करने के लिये प्रयास करने होंगे।
ReplyDeleteअभी तक तो हमने यही देखा है जो टॉपर होता है वह सामान्य छात्र के यहाँ नौकरी करता है, जो कि व्यापारी होता है।
कुछ अपवाद हो सकते हैं, परंतु व्यवाहिर स्तर पर टॉपर केवल नौकरी करते हैं।
सचमुच मा पलायनम मगर बच्चे समझे तब न !
ReplyDeleteकेरियर अर्थात घुड़दौड़ में प्रथम आने की मशक्कत। सारा ही परिवार लग जाता है एक घोड़े को तैयार करने में। अब बेचारा घोड़ा यदि खच्चर निकल जाए या गधा ही साबित हो जाए तो वह भागे नहीं तो और क्या करे? पता नहीं हम कब तक इस केरियर की दौड़ में अपने बच्चों को दौड़ाने पर मजबूर करते रहेंगे? अच्छा विषय उठाया है।
ReplyDeleteसरल भाषा में आपके अनुभव बाँटने के लिए आपका आभार !
ReplyDeleteआज के समय का ज्वालंत मुद्दा है ...वो बच्चे तो भाग ही रहे थे ..आज कल तो बच्ची ज़िंदगी से पलायन कर जाते हैं ...इतना अधिक दबाव होता है बच्चों के दिमाग पर ...और यह तनाव स्कूल के साथ साथ माता - पिता भी देते हैं ...शिक्षा के ढाँचे को ही बदलने की ज़रूरत है ...विचारणीय पोस्ट
ReplyDeleteमुझे लगता है, पूरी दो पीढियों को यह संक्रमण काल भुगतना ही पडेगा। पाश्चात्य जीवन मूल्यों के प्रति ललक की ऑंधी हमारे पैर उखाड रही है और हमारी परम्परावादी मानसिकता हमें जमीन और जडों से दूर नहीं होने दे रही। हम कुछ भी खोने को तैयार नहीं है इसीलिए कुछ भी हासिल नहीं कर पा रहे हैं। हमें दो मे से कोई एक चुनना पडेगा। हम 'परिवारवादी' बने रहकर 'व्यक्तिवादी' सुख हासिल नहीं कर सकते। पूँजीवादी और समाजवादी अर्थ व्यवस्थाओं को मिला कर हमने जो मिश्रित अर्थ व्यवस्था अपनाई, उसके परिणाम अपेखित तो नहीं रहे किन्तु शोचनीय भी नहीं हुए। किन्तु आज तो हम पूरी तरह पूँजीवादी रास्तों पर चल पडे हैं। बच्चों को इसी अनुरूप बनाने की कोशिशों का ही परिणा है - बच्चों का इस तरह घर से भागना।
ReplyDeleteपीठ पर बस्ते का बोझ ढोते, बाजुओं पर बिल्ला नम्बर 786 लगाए हर कुली बच्चा इसी कम्पिटीशन में लगा है कि एक दिन कैरियर में विजय बन जाएगा, विजय दीनानाथ चौहान.. पूरा नाम! और आख़िर में आनंद के उस शिखर पर जाकर गाड़ी रुकती है जिसे कहते हैं ड्रग्स, ख़ुदकुशी या पलायन! …किताबी बातें नहीं, निजी अनुभव बाँटा है आपने. साधुवाद!
ReplyDeleteमैं खुद झेल चूका हूँ ऐसे दबाव...पर हाँ, एक ये बात रही की मेरे घर में माँ,पापा, बहन ने पढ़ाई में कभी असफल होने पे भी मुझे डांटा नहीं...
ReplyDeleteलेकिन कई बार ऐसा हुआ की अपने परफोर्मेंस से निराश हम अपने आप को अजीब से कशमकश में पाते...
वहीँ एक अपने मित्र थे, जिन्होंने ऐसा कदम भी उठा ही लिया था :(
फिर वो वापस घर आ तो गए लेकिन ऐसी बातें बेहद अफसोसजनक हैं...
क्या कर सकते हैं..
ज्ञानवर्धक लेख के लिए धन्यवाद !
ReplyDeleteआपको देवउठनी के पावन पर्व पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं !
आज जीवन एक दौड़ मात्र रह गया है ,ऊपर से माता-पिता की महत्वाकांक्षाएं बच्चों पर लदी हैं अक्सर ही उनकी मनोदशा कोई नहीं समझता. उनके जीवन की तो सारी स्वाभाविकता ही दांव पर लगी रहती है .
ReplyDeleteआपने इस प्वाइंट को उठा कर बहुत अच्छा किया ,और उन बच्चों को भटकने से बचा कर उबार लिया आपने.आप ऐसे ही सद्कार्यों के माध्यम बने रहें यही मनाती हूँ.
एक बात लिखना भूल गया था जो हम कहते थे पहले - "आना फ्री , जाना फ्री , पकडे गए तो खाना फ्री "
ReplyDelete‘ स्वयं ही कमियाँ दिख जाती हैं ’
ReplyDeleteदिखने और दूर करने के प्रयास ही मनुष्य के सफ़लता की सीढी है॥
उद्देश्य ज्ञानार्जन हो, अंकार्जन न हो।
ReplyDeleteआज बच्चे बस्ते का भारी बोझ उठाते हुये अपना बचपन भी भूल गये हैं। सारा दिन स्कूल , फिर होम वर्क। और आज संयोग से मैने भी इसी पर एक कविता लगायी है। धन्यवाद।
उद्देश्य ज्ञानार्जन हो, अंकार्जन न हो .....| लेकिन आजकल का उद्देश्य धनार्जन है |
ReplyDeleteविषय बहुत अच्छा है आज बहुत कुछ है कहने को पर अभी सिर्फ़ ये लिन्क...शेष फ़िर...
ReplyDeletehttp://vatsalchaoji.in/2010/10/journey-life/
"सफलता = केवल पढाई" नहीं है.. और भी कई रास्ते है.. जब तक पेरेंट्स ये नहीं समझते बच्चे तनाव में रहेंगे..
ReplyDeleteबच्चों पर पढ़ाई का दबाव नहीं होना चाहिए। पढ़ाई के लिए उन में स्वयं इच्छा होनी चाहिए।
ReplyDeleteआपकी पोस्ट सच में एक कड़वा सच बयान कर रही है ... कुछ समय पहले मैं खुद इस दौर से गुजरी हूँ ... हाल ही में जम्मू से कानपूर आना हुआ ... बेटे को नुर्सरी में एक स्कूल में डाला तो यहाँ का सलेबस देख कर होश उड़ गए ... शुरू में बहुत चिंता हुई पर फिर मैंने कभी भी उस पर जोर डालने की कोशिश नहीं की ... उसको अपनी काबिलियत के मुताबिक ही चलने देना बेहतर है... मुझे समझ नहीं आता की हम क्यूँ भाग रहे हैं .. हमें क्यूँ और किस से पीछे रह जाने का डर है ... इस भाग दौड़ के चलते तो हम जीना ही भूल गए हैं ...
ReplyDeleteआपने इस घटना के बहाने आज की कड़वी सचाई बयान की है. मैं शिक्षक हूँ इसलिए समझ सकता हूँ कि बच्चे क्या सोचते हैं और अभिभावक या सरकार उनके बारे में क्या सोचती है ?दर-असल,वर्तमान शिक्षा-पद्धति ऐसी बन गयी है,जिसमें शिक्षा को एक 'घूँट' में उतार देने का जतन सरकार कर रही है.विद्यालयों में शैक्षणिक माहौल गायब है,बच्चे कक्षा से गायब हैं,शिक्षकों के पास इतने काम हैं कि पढ़ाई के अलावा वे सब-कुछ करते हैं!सरकार का ज़ोर केवल 'परिणाम' पर है और वह कागजों पर ख़ूब आ रहा है.
ReplyDeleteइस विषय पर मेरी पोस्ट "कैसी शिक्षण -व्यवस्था" भी देखें तो ज़्यादा ख़ुलासा हो सकेगा !
सारगर्भित आलेख सोचने को विवश करता है।
ReplyDelete... saarthak abhivyakti ... behatreen post !
ReplyDeleteआदरणीय प्रवीण पाण्डेय जी
ReplyDeleteनमस्कार !
पूँजीवादी और समाजवादी अर्थ व्यवस्थाओं को मिला कर हमने जो मिश्रित अर्थ व्यवस्था अपनाई, उसके परिणाम अपेखित तो नहीं रहे किन्तु शोचनीय भी नहीं हुए। किन्तु आज तो हम पूरी तरह पूँजीवादी रास्तों पर चल पडे हैं।
आलेख सोचने को विवश करता है।
३ इडीयटस की याद दिला दी.. शिक्षा तंत्र ऐसा ही है जो सिर्फ़ किताबी ज्ञान देता है. एक दसवीं कक्षा के छात्र से अगर बैंक से डी डी बनवाने के लिए कहें तो वह नहीं कर पायेगा.. मगर लॉग तथा एंटीलॉग के बारे में पूरी तरह वाकिफ होगा.. कब खत्म होगी यह व्यवस्था..
ReplyDeleteमनोज खत्री
यूनिवर्सिटी का टीचर'स हॉस्टल-३
भारत में, दुर्भाग्यवय शिक्षा के मानसिक पहलू पर ध्यान नहीं देने का ही रिवाज़ रहा है
ReplyDeleteउत्तर भारत की तुलना में दक्षिण में नागरिक अधिकारों एवं कर्तव्यों के प्रति ज्यादा जागरूकता देखी गयी है . हमारी शिक्षा पद्धति अभी भी मैकाले वाली है . और अभी भी हम इसे जीविकोपार्जन के लिए ही अपनाते है . जरुरत है इसमें आमूल चूल परिवर्तन की .
ReplyDeleteईश्वर का शुक्र है ...दो बच्चे सकुशल अपने घर पहुँच गए !
ReplyDeleteइससे जागरूकता ही इन नौनिहालों को सुरक्षित रख सकती है !
इतनी निराशाजनक स्िथति भी नहीं हे। समझने की बात बड़ों के लिए है बच्चों के लिए नहीं।
ReplyDeleteप्रवीण भाई हालत बदलने में काफी समय लगेगा अभी... बच्चों का बोझ कम होने का नाम नहीं ले रहा... क्लास तीन का बच्चा कम से कम १० किलो बजन ढोता है पीठ पर और क्विटल भर दिमागे में...
ReplyDeleteपाता नहीं क्यों लोग ये नहीं समझते कि किताबी शिक्षा से पहले व्यक्तित्व निर्माण आवश्यक है,रटकर नंबर लेन से ज्यादा विषय का ज्ञान आवश्यक है .
ReplyDeleteबहुत सही मुद्दा उठाया है बच्चों के साथ यह बात माता पिता और शिक्षकों को भी समझने की जरुरत है.
शिक्षापाद्धत्ति, अभिभावकों का दवाब और बच्चों की योग्यता, निष्ठा, लगन सब मिलाकर एक चिंतनीउ स्थिति। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteविचार-श्री गुरुवे नमः
रोचक!
ReplyDeleteकई साल पहले दो लडके (जो भाई थे, उम्र लगबग १४/१२ साल के) मेरे परिवार के साथ ३-टियर डिब्बे में सफ़र कर रहे थे।
लगाता था किसी अच्छे शिक्षित मध्यम वर्गीय परिवार के ही हैं।
उनके पास टिकट भी था। बर्ताव इतना अच्छा था कि हम यह सोचना या पूछना ही भूल गए कि यह लोग अकेले ही क्यों सफ़र कर रहे हैं, शायद स्टेशन पर इन्हें कोई लेने आएगा। यात्रा समाप्त होने पर लडकों ने रोते रोते हमें बताया कि वे घर से भाग निकले हैं ! हम लोगों को उनको उनके हाल पर छोडकर जाने का मन नहीं हुआ। स्टेशन मास्टर को पूरी बात बताकर, हमने उनके माँ-बाप से सम्पर्क की और उनको घर ले गए। अगले दिन उनका कोई रिश्तेदार आकर उन्हें ले गया था। हमने यह जानने की कोशिश नहीं की कि यह लडके किस कारण घर से भाग निकले। घर में एक दिन बहुत अच्छे मेहमान बनकर रहे थे वे लडके! यह कहानी करीब तीस साल पुराना है।
तो आप टिकट भी चेक करते है?
तो यह पुराना चुटकुला भी सुन लीजिए।
शायद आपके लिए चुटकुला नया न हो, पर आशा है अन्य पाठक इसका मज़ा लेंगे।
एक कार सेवक ट्रेन में बिना टिकट सफ़र करते समय पकडा गया।
टी सी ने पूछा : कहाँ जा रहे थे?
कार सेवक ने अकडकर जवाब दिया "जहाँ भगवान राम का जन्म हुआ था।
टी सी ने कहा : तो अब चलो हमारे साथ।
कार सेवक ने पूछा: कहाँ
टी सी ने जवाब दिया : जहाँ भगवान कृष्ण का जन्म हुआ था।
हंसना न भूलिए।
मेरी इज़्ज़त का सवाल है।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
क्लास में पढ़ाने वाले मास्साब खुद रट रट पास हुए है उनका लक्ष्य एक ही है की क्लास में कोर्स पूरा करो और माँबाप की सुई एक जगह अटक जाती है कि बस पढो | बच्चा परेशान की कुछ समझ ही नहीं आ रहा तो पढ़े क्या | समझाने के लिए न मास्साब के पास समय है और न समझ और माँ बाप को तो खुद ही समझ नहीं आ रहा है तो समझाये क्या | बेचारा बच्चा समझे क्या और पढ़े क्या | मुझे लगता है की पहले तो इन मस्साहबो और बहनजियो को ये पढाया जाये की उनको पढ़ना कैसे है | पर हा ये घर से भगाने की सोच ये तो उन बच्चे की समझ की समस्या ज्यादा है ऐसे कदम बहुतकम बच्चे ही उठाते है उन्हें इस बारे में समझाने की जरुरत है |
ReplyDeleteबच्चों का बचपन व भविष्य हम सबकी धरोहर है। जीवन जीने के लिये है, पलायन के लिये नहीं।
ReplyDeleteकेन्द्रीय और प्रादेशिक शिक्षा विभाग, शिक्षक, अभिभावक सभी जिम्मेदार हैं इसके । अभिभावक भी क्या करें इतनी मुश्किलों से डोनेशन जुटा कर दाखिला दिलवाते हैं तो बच्चे से अपेक्षा तो करेंगे ही कि अच्छा पढे । शिक्षक पर कॉपियां जांचना, कोर्स पूरा करना और नयी नयी तकनीकों के साथ पढाना जो खुद कबी देखी सुनी नही होतीं इतना ही नही इलेक्शन ड्यूटी भी करना, तो पढाना तो केवल खानापूरी ही होगा कहां कि क्रियेटिविटी और कहां का शोध । एक एक क्लास में जहां चालीस विद्यार्थी हों कैसे ध्यान दें कि कौन डिप्रेशन में है और कौन कॉम्लेक्स ग्रसित । पूरी शिक्षा पध्दति को ही बदलना होगा । इसके प्रयास हो रहे हैं पर महज़ प्रायोगिक तौर पर ।
ReplyDelete@ राम त्यागी
ReplyDeleteबच्चों के ऊपर दस किलों के बच्चे का बोझ लाद दिया और कहा जा बेटा जग जीत आ। यह सीखूँ, वह सीखूँ कि कुछ न सीखूँ, पशोपेश में है बच्चा। सिखाने के लिये घर में अभिभावक, विद्यालय में बड़े बड़े पाठ्यक्रम याद कर उगलने का उपक्रम। धीरे धीरे इसे अपनी नियति मानकर घोंटता रहता है अनमना सा और वे अटपटे प्रश्न भूल जाता है जिसके लिये बच्चे जाने जाते हैं। ज्ञान प्राप्त करने का परम्परागत साधन, देखकर, समझकर और पूछकर, यह तो विलुप्त सा हो गया है। भारत में शोध का आभाव है, विशेषकर शिक्षा में। कुछ प्रयास हो रहे हैं, टुकड़ों में जो कि अपर्याप्त हैं। ग्रेड सिस्टम, बिना बस्ते के स्कूल, कोई गृहकार्य नहीं।
मुझे जो भविष्य दिखता है, उसमें हर बच्चे का अपना IPad जैसा टेबलेट और कुछ भी नहीं। उसी में देखना, सुनना, खेलना, सीखना, उसी में प्रोजेक्ट इत्यादि। वही संगी रहेगा जीवन पर्यन्त। कागज की पुस्तकें, इतिहास का विषय बन जायेंगी। मन गोते लगाने लगता है, काश जो सत्य देख पाता हूँ, मेरे देश के बच्चों के भाग्य में लिखा हो।
@ मो सम कौन ?
ReplyDeleteव्यवसाय कोई भी रहे पर सामाजिक सारोकार के प्रश्न तो कचोटेंगे ही। जो मुझे समझ में आ पाता है अपनी सीमित बुद्धि में, वह बाँटने का प्रयास कर लेता हूँ।
शिक्षा ऐसा विषय है जिसका स्वस्थ रहना आने वाली पीढ़ियों को प्रभावित कर सकता है अतः उस पर भी झुकाव नैसर्गिक है।
मेरा पूरा विश्वास है कि किड्स सेन्ट्रल जैसे विद्यालय ही समय की माँग है, ऐसे विद्यालय और ऐसी समझ जितनी अधिक पल्लवित हो, उतना ही अच्छा होगा देश के लिये। उत्तर भारत में यह प्रयोग कहाँ चल रहा है, ज्ञात नहीं पर जहाँ भी होगा, तारे पैदा करेगा जमीं पर।
जीवन में 'रटंतुपन' को इतनी अहमियत क्यों है. परीक्षा पद्धति और मूल्यांकन के मापदंड हमेशा से विवादास्पद ही रहे हैं इस शिक्षा व्यवस्था में.
ReplyDeleteमैनें भी अनेक हादसे देखे हैं इस तरह के .. (शिक्षक हूँ न). मन विचलित होता है पर कोल्हू के बैल सा व्यवस्था के अनुरूप कार्य तो करना ही होता है.
@ देवेन्द्र पाण्डेय
ReplyDeleteसब भागे जा रहे हैं और किसी को यह तक सोचने का समय तक नहीं कि कहाँ पहुँचेगे इस तरह से भाग भाग कर। इतना रटन्तू ज्ञान तो कभी भी नहीं सीखा जितना आजकल सिखाया जा रहा है।
जीवन में जितना समझा, वही काम आया। जितना रटा, अंकार्जन के बाद भूल गये। जितना पढ़ा, उसका शतांश भी व्यवहारिक और व्यवसायिक जीवन में काम नहीं आया।
यहाँ प्रतियोगी परीक्षाओं में पढ़ने का उपयोग योग्यता निर्धारण में होता है, नौकरी में उसका कोई काम नहीं। वही पढ़ाया जाये जिसका उपयोग हो, वही पढ़ाया जाये जिसमें विद्यार्थी की जिज्ञासा हो। जिज्ञासा तभी आयेगी जब दवाब न हो। यह सब आधुनिक शिक्षा पद्धति में सम्भव नहीं।
@ Ratan Singh Shekhawat
ReplyDeleteव्यवहारिकता तो अब ढूढ़ने से भी नहीं मिलती है आज की शिक्षा पद्धति में।
@ निशांत मिश्र - Nishant Mishra
जिनकी सीखने की उम्र निकल गयी है उन अभिवावकों को यह सब करना पड़ रहा है। विद्यालय अपने होने का सबूत दे रहे हैं, इस माध्यम से। कई बार तो हम लोगों को ही गृहकार्य कराना पड़ जाता है। सरकारी स्कूल सरकारी ही रह गये हैं। व्यवसायी अपनी बुद्धि के अनुसार अभिवावकों के पैसों और बच्चों के भविष्य से खेल रहे हैं।
@ dhiru singh {धीरू सिंह}
बहुत से रटने वालों की अपगति होते देखा है जिससे मन क्षुब्ध हो गया है। समझ विकसित होने में तो शिक्षा पद्धति का कोई योगदान ही नहीं है, वह विद्यार्थियों के व्यक्तिगत प्रयासों का फल होता है बहुधा। अंकों को महत्व और भी अधोगति लायेगा।
@ Vivek Rastogi
असली अर्थतन्त्र तो व्यापारी चला रहे हैं। नौकरी करना सबसे आसान कार्य है। शिक्षा तब अपनी चरमगति पायेगी जब उसके शीर्ष उत्पाद सोगों को नौकरी दे सकेंगे।
@ Arvind Mishra
बच्चों को कहाँ तक दोष दें जब वह सब सह रहे हैं शान्त खड़े हो।
@ ajit gupta
ReplyDeleteसच कह रही हैं आप, सारा परिवार लग जाता है एक घोड़ा तैयार करने में। यदि वह किसी से तेज नहीं दौड़ नहीं पाता है तो वह भावनात्मक दबाव में आ जाता है और किसी लायक नहीं रह पाता है। भागने की सोचने लगता है, परिस्थितियों से।
@ सतीश सक्सेना
बहुत धन्यवाद आपका।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
बिना शिक्षा का ढाँचा बदले, बच्चों पर दबाव कम नहीं होने वाला।
@ विष्णु बैरागी
स्थिति शोचनीय है और वह उस शिक्षा पद्धति का परिणाम है जो मैकाले ने बाबुओं के निर्माण करने में प्रारम्भ की थी। यदि अभी भी लोगों को समझ नहीं आया तो शाश्वत अशक्त हो जायेंगे हम बौद्धिक और मानसिक स्तर पर। ऐसे देशों को तब सदियाँ लग जाती हैं, अंधकार बाहर आने में।
@ सम्वेदना के स्वर
ज्ञान का बोझ ढोते आधुनिक कुली बन गये हैं आजकल के बच्चे। जिज्ञासायुत ज्ञान कब पायेंगे।
@ abhi
ReplyDeleteऐसी घटनायें बहुत कुछ सोचने को बाध्य करती हैं। यदि दोष शिक्षा पद्धति का है तो बच्चों का पलायन क्यों हो।
@ अशोक बजाज
आपका बहुत धन्यवाद।
@ प्रतिभा सक्सेना
अभिवावकों की महात्वाकांक्षा, सरकारी नौकरी की मारीचिका, उद्यमियों की कमी, शिक्षा पद्धति के यही दोष हमारे बच्चों की मौलिकता, स्वाभाविकता और भविष्य खाये जा रहे हैं।
@ राम त्यागी
आजकल फ्री खाना बहुतों को नहीं भाता है, लोग टिकट लेने लगे हैं।
@ cmpershad
कमियाँ स्वयं दिखती हैं पर हम सुविधावश उस पर ध्यान नहीं देना चाहते हैं।
@ निर्मला कपिला
ReplyDeleteकोल्हू के बैल हो गये हैं बच्चे, दिन भर लगे रहते हैं, रात को थक कर सो जाते हैं, अगले दिन पुनः जुतने के लिये।
@ नरेश सिह राठौड़
सच कह रहे हैं आप, उद्देश्य धनार्जन हो गया है।
@ Archana
लिंक पढ़ा, अच्छा लगा। बहुत धन्यवाद।
@ रंजन
सच कह रहे हैं, रास्ते और भी है।
@ दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi
बिना दबाव के पढ़ाई ही कुछ दे सकती है।
@ क्षितिजा ....
ReplyDeleteपाठ्यक्रम ऐसा कर दिया है नौनिहालों का कि उन्हे वैज्ञानिक ही बना देना है। समझ विकसित करना प्राथमिक उद्देश्य हो। यह भी देखा है कि कक्षा 8 तक रट रट कर आगे रहे बच्चे प्रतियोगी परीक्षाओं में पिछड़ जाते हैं। रटने से सच में कोई लाभ नहीं।
@ संतोष त्रिवेदी ♣ SANTOSH TRIVEDI
जब परिणाम पर जोर हो तो माहौल कहाँ से आयेगा। शिक्षा पद्धति हित करने की जगह अहित कर रही है।
@ वन्दना
बहुत धन्यवाद आपका।
@ 'उदय'
बहुत धन्यवाद आपका।
@ संजय भास्कर
सरकारी विद्यालयों का नाश हो चुका है और बच्चों की शिक्षा व्यवसायी के हाथों चली गयी है। सब अपना उत्पाद दिखाना चाहते हैं, बेचारे बच्चे पिस रहे हैं।
More than kids, parents need to learn, how to deal with their children.
ReplyDelete@ Manoj K
ReplyDeleteव्यवहारिक ज्ञान बहुत कम होता है इस शिक्षा पद्धति में। किताबी ज्ञान तो कहीं नहीं ले जायेगा।
@ Kajal Kumar
रटने वाले विद्यार्थी क्या कभी मौलिक चिन्तन कर पायेंगे? बड़ा प्रश्न है यह।
@ ashish
मैकाले शिक्षा पद्धति में मौलिकता कहीं नहीं है क्योंकि अंग्रेजों को ऐसे बाबू चाहिये थ् जिनमें मौलिकता न हो।
@ वाणी गीत
पर पता नहीं कितने बच्चे ऐसे हैं जो घर नहीं पहुँच पाते हैं, खो जाते हैं इस शिक्षायी इमामबाड़े में।
@ राजेश उत्साही
किसी एक पक्ष को भी समझ में आ जाये तो यह आकांक्षाओं का तनाव न होगा।
@ अरुण चन्द्र रॉय
ReplyDeleteसच कह रहे हैं, इस बोझ में मौलिकता कहाँ से आ पायेगी?
@ shikha varshney
रटने के पहले विषय की समझ आवश्यक है।
@ मनोज कुमार
दशा बच्चों की खराब है क्योंकि सारा दबाव उनको ही झेलना पड़ता है।
@ G Vishwanath
आपने बहुत अच्छा किया उन्हें बचाकर। आजकल लोग कृष्णजन्मभूमि नहीं जाना चाहते हैं, जुर्माना भर देते हैं। चुटकुला पर बहुत अच्छा था।
@ anshumala
अध्यापकों का स्तर और उनसे करवाया जाने वाला शिक्षणोत्तर कार्य इतना अधिक है कि वे चाह कर भी अपना कर्तव्य नहीं कर पाते हैं।
प्रवीण जी, इस अच्छी प्रस्तुति के लिए बधाई।
ReplyDeleteप्रो.यशपाल को ‘बस्ते का बोझ कम करो‘ कहते-कहते कई वर्ष हो गए लेकिन इसका अनुपालन न तो शासन ने किया और न निजी संस्थाओं ने। ‘दिगंतर‘ और ‘एकलव्य‘ जैसी कुछ स्वयं सेवी संस्थाएं ‘खेल-खेल में शिक्षा‘, ‘आनंददायी वातावरण में शिक्षा‘ जैसे कुछ प्रयोग कर रहे हैं लेकिन उनका कार्यक्षेत्र बहुत सीमित है। शासकीय विद्यालयों और निजी विद्यालयों में रटन्त विधि आज तक प्रचलित है।
ग्रेडेशन पद्धति का भी कोई लाभ नहीं, परीक्षा तो वहां भी देनी ही होगी। सी और डी ग्रेड पाने वाले बच्चों में हीन भावना तो तब भी आएगी ही।
कुछ अव्यावहारिक से लगने वाले किंतु व्यावहारिक बनाए जा सकने योग्य उपाय ये हैं-
1. -प्रत्येक दस बच्चों के लिए एक शिक्षक की व्यवस्था।
2. -प्रत्यक्ष परीक्षाएं बंद कर दी जाएं।
3. -बच्चों की बजाए शिक्षकों की परीक्षा हो जिसमें यह जांचा जाए कि उनके द्वारा पढ़ाए गए बच्चों में वांछित दक्षताएं विकसित हुईं या नहीं।
4. -ऐसा न कर पाने वाले शिक्षकों की बर्खास्तगी।
@ Poorviya
ReplyDeleteकाश यह सब हम समझ पायें।
@ Mrs. Asha Joglekar
अभिभावक डोनेशन फीस जमा कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं। उसका मूल्य बच्चों को चुकाना पड़ता है।
@ M VERMA
आपसे मैं पूरी तरह से सहमत हूँ, जब प्रतिभाओं को तराशा नहीं जाता है तो हीरे भी कोयले के मोल बिकते हैं।
@ ZEAL
यदि अभिभावक ही यह तथ्य समझ लें, समस्या हल होना प्रारम्भ हो जायेगी।
सच में अभिभावकों की उम्मीदों का बोझ कुछ ज्यादा ही हो गया है..... सफलता पाना..
ReplyDeleteअव्वल आना ही जीवन का ध्येय रह गया है.... अभिभावकों को बहुत हद तक सोच विचार कर बच्चो का पालनपोषण करने की दरकार है.... विचारणीय विषय
कई तरह की व्यवस्था वाले सभी शिक्षण संस्थाओं में मुख्य समस्या और निदान का मुख्य फोकस अभिभावकों पर होना चाहिए ! चाहे वह सरकारी विद्यालय हों याकि कार्पोरेट स्कूल्स !आइये हम सब यह सोचें कि बच्चे पढने के साथ साथ खेलने के लिए भी पर्याप्त समय पाते रहें! आखिर बच्चे हमारी परंपरा के वाहक हैं, और भविष्य की आशा भी ! बच्चे जिज्ञासू होते हैं, और सीखना चाहते हैं| उनकी यही जिज्ञासा उनके सीखने का आधार होती है| ऐसी जिज्ञासा के चलते उनकी खोज-बीन शुरू होती है जिनका सीखने मे महत्त्वपूर्ण स्थान है|
ReplyDeleteसुबह सुबह जब बच्चे को बस स्टॉप तक छोड़ने जाता हूँ, तो सड़क की एक पटरी पर किताबों का बोझ पीठ पर, टीचर के होम वर्क का बोझ दिमाग में, अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी से आगे निकलने का बोझ मन में लिए स्कूली बच्चे खड़े होते हैं और दूसरी पटरी पर पीठ पर बड़ा सा बोरा लिए रास्तों पर कचरा बीनते बच्चे.
ReplyDeleteकब हमारे यह बच्चे भागकर रेल में एक अनजाने सफर पर निकल जाते हैं, सिर्फ इसलिए कि उन्हें उस दिमाग़ी बोझ से suffer न करना पड़े... एक कभी न ख़त्म होने वाली सफरिंग!!
आश्चर्य हो रहा है कि आपका ये ब्लॉग मैंने देखा कैसे नहीं है...एक बार आपकी इंग्लिश वाली पोस्ट पढ़ी थी किसी ब्लॉग पर...कुछ दिन दोबारा जा के भी देखा तो कुछ दिखा नहीं...और आज अचानक यहाँ आती हूँ तो देखती हूँ कि अरे...बहुत कुछ पढ़ना रह गया है.
ReplyDeleteकुछ दिन हुए घर से लौटी हूँ...वहां जिस स्कूल में पढ़े हैं वहां की शिक्षा पद्दति देख कर बेहद अफ़सोस हो रहा है, हमारे वक्त में ऐसा नहीं होता है. निबंध मान लीजिए महात्मा गाँधी या नेहरु या प्रेमचंद पर रटने बोला जाए तो फिर भी एक हद तक समझ आता है...पर अगर निबंध की किताब से 'चिड़ियाघर की सैर' जस का तस उतरने पर ही नंबर मिल रहे हैं तो ये तो निश्चित हो जाता है कि बच्चों की पढाई एकदम गलत दिशा में जा रही है.
आज आई हूँ, देर सही...देर आये दुरुस्त आये.
बहुत अच्छी पोस्ट है प्रवीण जी. सच है आज की शिक्षा पद्धति केवल घुड़दौड़ बन के रह गई है, लेकिन बच्चे तो घोड़े नहीं हैं न? कैसे दौड़ पायेंगे? बहुत बहुत सुन्दर पोस्ट.
ReplyDelete.
ReplyDelete.
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उद्देश्य ज्ञानार्जन हो, अंकार्जन न हो।
एक आदर्श स्थिति में होना तो यही चाहिये परंतु जब उच्च शिक्षा की सीटों व अच्छी नौकरियों की संख्या सीमित हो तो योग्यता के आकलन के लिये कभी न कभी तो अंकों या प्रतियोगिता का पैमाना लगेगा ही... मेरे विचार में समस्या बच्चों के अभिभावकों के साथ अधिक है, जो बच्चे की क्षमताओं की ओर ध्यान दिये बगैर अपनी अपेक्षाओं का बोझ उस पर लाद देते हैं...
एक और बात... आप कितनी ही आदर्श स्थितियाँ बना लें...प्रतिस्पर्धा व मूल्यांकन को समाप्त कर दें... कुछ पलायनवादी फिर भी रहेंगे ही... तमाम दवाइयों व चिकित्सा क्षेत्र के विकास के बावजूद मानव समाज में आत्महत्या की दर लगातार एक सी बनी हुई है।
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आज कम्पीटिशन इतना हो गया है यहाँ तक की बच्चो में भी की वो खुद ही अपने साथियों में हीन भावना का शिकार हो जाता है..ऐसे में अगर अभिभावक भी उसी पंक्ति में आ जाएँ तो बच्चा क्या करेगा ? काश अभिभावक बच्चे के मन को समझ सके.
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट.
कठिन परिस्थिति है। शिक्षा की आवश्यकता बच्चों से कहीं अधिक बडों को है। सन्योग की बात है कि आप और अकबर जी वहाँ थे वरना घर से निकले कितने बच्चों का तो कभी पता ही नहीं चलता।
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति, आभार!
हा हा हा!
ReplyDeleteयह आपकी पोस्ट के लिये नहीं, विश्वनाथ जी के चुटकुले के लिये स्पेशल टिप्पणी है।
@ mahendra verma
ReplyDeleteसंभवतः इसे कहते हैं, सब जानकर भी आँख मूदे रहना। सिक्षा का व्यवसायीकरण सर चढ़कर इस हद तक बोल रहा है कि गुणवत्ता और समर्पण इतिहास की विषयवस्तु बन चुके हैं। पहले जब अध्यापक मेरे घर आते थे औऱ चाय पर मासिक समीक्षा होती थी तब लगता था कि बच्चों पर ध्यान दिया जा रहा है। अब तो लगता है कि किसी के पास समय ही नहीं।
एक शिक्षक 50 के ऊपर बच्चों को सम्हालता है। अध्यापकों की शैक्षणिक और मानसिक स्तर की गुणवत्ता पर कोई ध्यान ही नहीं।
भारत में हमने जड़ों को पानी देना बन्द कर दिया है, निष्कर्ष भयावह और प्रत्यक्ष हैं। बच्चे भाग रहे हैं।
@ डॉ॰ मोनिका शर्मा
ReplyDeleteअभिभावक पर बढ़ती हुयी बेरोजगारी में अपने बच्चों के लिये एक अदद सी नौकरी ढूढ़ लेने का मानसिक दबाव है। उद्यमिता पर कोई ध्यान नहीं देता है। अध्यापकों का कम ध्यान, इस विषय पर स्थितियों को जिस दिशा में प्रेरित करता है, वह उचित नहीं है। भ्रष्टाचार के कारण सरकारी नौकरी पा जाने के लिये लोग कितना भी धन घूस में देने को तैयार बैठे रहते है। यदि वातावरण स्वस्थ नहीं होगा, देश विकास नहीं करेगा।
@ प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI
आपके बिन्दु से सहमत हैं, यदि एक ओर से भी रस्सी ढीली की जायेगी, बच्चों पर तनाव कम हो जायेगा। यदि पढ़ने पर इतना दबाव बना रहा तो खेलने का समय कहाँ से निकाल पायेंगे बच्चे और बचपन कैसे संरक्षित रह पायेगा तब?
@ चला बिहारी ब्लॉगर बनने
बच्चों के बारे में ये दोनो ही तथ्य दुर्भाग्यपूर्ण हैं। या तो रटाया जा रहा है या बच्चे स्कूल ही नहीं जा पा रहे हैं। बच्चों के भविष्य के साथ यह संवेदनहीन खिलवाड़ कम से कम उस देश को शोभा नहीं देता है जहाँ पर ज्ञान और शिक्षा की स्वस्थ परम्परायें रही हों।
@ Puja Upadhyay
अंग्रेजी में थोड़ा लिखने का सोचा था पर चिन्तन ने अंग्रेजी में सोचने से सपाट मना कर दिया। चिन्तन हिन्दी में और अभिव्यक्ति अंग्रेजी में, मौलिकता को मूल्य चुकाना पड़ा।
यदि चिड़ियाघर के अनुभव भी रटाये जायें तो अनुभव की क्या आवश्यकता जीवन में?
@ वन्दना अवस्थी दुबे
कभी कभी तो यह जानकर कि बच्चे दौड़ नहीं पायेंगे घोड़ों की भाँति, अभिभावक हाँक हाँक कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं। यदि अभिभावक ही संवेदना खो बैठे तो अध्यापकों को दोष क्यों दिया जाये?
@ प्रवीण शाह
ReplyDeleteकभी कभी अमानवीय मानक रख दिये जाते हैं तो बच्चा बिना प्रयास किये ही पलायन कर जाता है। अभिभावकों को ही समझना है मूलतः। जैसा कि धीरू सिंह जी ने कहा कि बच्चों को अपना 100% देने के लिये कहा जाये और इस विषय पर कम ध्यान दिया जाये कि बाकी घोड़े कहाँ भागे जा रहे हैं।
जीविकोपार्जन के 80% से भी अधिक साधन बिना प्रतियोगी परीक्षाओं के ही मिल जाते हैं।
@ अनामिका की सदायें .....
यदि अभिभावक ही दबाव में आ जायें तब तो कुछ भी सम्हालना कठिन हो जायेगा।
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
पता नहीं कितने ही ऐसे भागे हुये बच्चे हैं जिन पर अच्छे लोगों की नज़र नहीं पड़ पाती है और दुर्जनों द्वारा उन्हें आसरा दे दिया जाता है।
पता नहीं क्यूँ इस ब्लॉग पर आने में देर हो जाती है ....
ReplyDeleteइस जद्दोजहद का परिणाम हमारी अगली पीढ़ी को भुगतना होगा | पता नहीं भविष्य क्या हो, मेरे भतीजा अभी मात्र ३ साल का है अगले साल से स्कूल जाने लगेगा | मुझे लगता है उसका बचपन इतना छोटा बीता कि बड़े होने पर उसे कुछ भी अच्छा याद न रह जायेगा.. उसकी बचपन की यादों में केवल भारी बस्ते और अधूरा होमवर्क ही होगा |
कब तक माता पिता रेस के घोड़े तैयार करते रहेंगे | आज कल तो अपेक्षाएं सिर्फ पढाई में ही नहीं बल्कि पेंटिंग, सिंगिंग, डांसिंग में भी हो गयी हैं | टीवी में रिअलिटी शो के नाम पर नयी अपेक्षाएं बेचीं जा रही हैं |
जरा अपना फोन नम्बर देना जी, कभी टिकट ना रहने पर काम आयेगा :)
ReplyDeleteईश्वर अपने आप चुन लेता है किसके हाथों क्या कार्य उचित है।
हरियाणा में आठवीं कक्षा तक परीक्षा लेने पर रोक लगा दी गई है। मासिक टेस्ट लिये जा सकते हैं। परीक्षाओं में बच्चे बहुत ज्यादा तनाव में आ जाते हैं।
"शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानार्जन हो नाकि अंकार्जन" यही मैं सोचता हूँ जी, आभार
प्रणाम
आपकी बात से सहमत हूँ पर फिर भी जब अपने बच्चों की बात आती है चाहता हूँ की वो पढ़ें और बस पढ़ते ही रहें .... शायद हमारी शिक्षा पद्धति ही ऐसी है ...
ReplyDeleteschool ka chayan kee aur dhyan dena jarooree hai......aajkal homework nahee milta 4th standard tak to school me exams bhee nahee hote..........mere bacche jis bangalore ke school me pade hai vanha.admission ke baad ek din bhee parents ko school nahee jana hota....... agar baccha class me padaee me pichad raha hai to teachers school ke baad ruk kar padatee hai aur extra fees nahee hotee.........balki dance music jo bhee interest bacche ko hai free me hee school me classes hai.......aur result 100% distinction aap samajh gaye honge kis school kee baat kar rahee hoo.........
ReplyDelete" रटने के बाद उसे परीक्षाओं में उगल देना श्रेष्ठता के पारम्परिक मानक हो सकते हैं पर इतिहास में विचारकों ने इस तथ्य को घातक बताया है। उद्देश्य ज्ञानार्जन हो, अंकार्जन न हो। "
ReplyDeleteकाश कि अभिभावक और शिक्षण संस्थान दोनों ही यह बात समझ पायें ....
लेकिन ऐसा होता दीखता नहीं...
मैंने अपने विद्यार्थी जीवन में यही मंत्र अपनाया था,लेकिन हर पल मुझे इस तरह बेवक़ूफ़ ठहराया गया कि मुझे सोचने को बाध्य होना पड़ता था कि कहीं मैं गलत तो नहीं...लेकिन मेरे मन ने कभी इसे गलत नहीं माना....
साहस और स्वस्फूर्ति से भरा है आपका चिन्तन..नामकरण सर्वथा उपयुक्त भी है - ‘न दैन्यं न पलायनम्’
ReplyDeleteशिक्षा के स्वरूप पर हमेशा चिन्तापरक चर्चाएं होती रहती हैं और व्यवस्था जन्य कुहासों से सिर्फ अंधेरा सरककर इस तरफ आ जाता है..पर गीता कहती है ..मा क्लैव्यम्
@ Shekhar Suman
ReplyDeleteयदि कुछ धन पास में होता है तो व्यक्ति यही सोचता है कि कितना अभी खर्च करे और कितना भविष्य के लिये बचा कर रखे। धन के क्षेत्र का अनुभव जीवन में भी उपयोगी है। एक संतुलन बना कर रखना होता है कि कितना वर्तमान में जिया जाये और कितना भविष्य के लिये तैयार किया जाये। बचपन तो बिना जिये ही निकले जा रहे हैं, पता नहीं किस भविष्य की तैयारी कर रहे हैं हम?
मानक इतने कठिन कर दिये हैं कि जीवन का सुख ही नहीं रहता है जीवन में। जिनका जीवन में कुछ भी उपयोग नहीं, ऐसी चीजें याद करनी पड़ती है और भी प्रतियोगी परीक्षाओं के लिये। ज्ञानार्जन उतना जितना आवश्यक हो जीवन के लिये और थोड़ा सा अधिक जिससे विकास की प्यास बनी रहे सतत।
@ अन्तर सोहिल
ReplyDeleteआप बंगलोर आ जायें, घुमाने की जिम्मेदारी मेरी। ईश्वर को अपने कार्य करा लेने होते हैं, माध्यम चुन कर वह हमसब पर कृपा करता रहता है बारी बारी।
@ दिगम्बर नासवा
ज्ञानार्जन कर समझभरी बातें करते बच्चे बहुत ही सुहाते हैं। पर जब सारा समय रटने में ही निकल जायेगा, समझ कहाँ से विकसित होगी?
@ Apanatva
पढ़ाई होनी चाहिये पर विधि ऐसी न हो कि मानसिक दबाव पड़े। मानक ऐसे न बनाये जायें कि बच्चा पहले ही हताश हो जाये। असफलता को इतना गम्भीर न बना दिया जाये कि बच्चा घर छोड़ने को बाध्य हो जाये।
बंगलोर में यदि ऐसे विद्यालय हों तो कृपया मुझे भी बता दें।
@ रंजना
वास्तविक समझ तो अनुभव से विकसित होती है न कि रटने से। अनुभव खेल खेल में आता है, वस्तुओं को प्रत्यक्ष निहारने से। खेल पर आधारित प्राथमिक शिक्षा हो हम सबकी।
@ kumar zahid
सच कह रहे हैं आप, व्यवस्था का कुहासा ही आमजन के भाग्य में बदा है। स्वस्थ चिन्तन को अव्यवहारिकता का चोंगा पहना कर देश के कर्णधार छिपाते आये हैं। अब तो क्रियान्वयन हो श्रेष्ठ विधियों का, बस।
अभिभावक यह तथ्य समझें और विद्यालय इसको कार्यान्वित करें। बच्चों का बचपन व भविष्य हम सबकी धरोहर है। जीवन जीने के लिये है, पलायन के लिये नहीं।
ReplyDelete**********चलिए पुण्य भी हो गया और लोगों के लिए सीख भी.
bchchho ko pdhaku bnane se jyada agr bachpan se hi jigysu bnne ki or prerit kiya jaye to kafi had tak smsya se mukabla kiya ja skta hai .knowladge har halat me jyada kargr sidh hoti hai .
ReplyDeleteaaj kal ki shiksha vyavastha vastav me hi bahut bekar hai |
ReplyDeleteIse to badalna hi chahiye
भारत में हर चीज में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकताहै..
ReplyDeleteअपने यहां शिक्षा पद्धति के साथ और बहुत कुछ बदले जाने की जरूरत है। गान्धी जी का ’हिन्द स्वराज’ शिक्षा के संदर्भ में बार बार पढा जाना और अपनाया जाना चाहिये। इस संदर्भ में विस्तार से आप ’वचन’ पत्रिका के ९वे अंक में छपा अरुणेश नीरन का लेख- ’हिन्द स्वराज में शिक्षा विमर्श’ पढ सकते हैं।
ReplyDelete@ Akanksha~आकांक्षा
ReplyDeleteबिना बच्चों के प्रति हुये, सुनहरे भविष्य की कल्पना कैसे कर सकते हैं हम।
@ RAJWANT RAJ
जिज्ञासु बच्चों में एक ललक बनी रहती है कुछ न कुछ सीखते रहने की, हर समय। यह उन्हें प्रेरित करती रहती है कुछ न कुछ सोचते रहने के लिये।
@ kapil
शिक्षा व्यवस्था एक उत्प्रेरक हो जो बच्चों की प्रतिभाओं को निखारती रहे, उभारती रहे। जब तक यह स्थापित नहीं होता तब तक सुधार करते रहने की आवश्यकता है।
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
सच है, स्थितियाँ तो सामान्य रही नहीं।
@ विनोद शुक्ल-अनामिका प्रकाशन
गांधीजी के विचार पढ़े हैं, और गहनता से पढ़ते हैं।
दूर से 13-14 साल के दो बच्चों को देखता हूँ, अपने विद्यालय की ड्रेस मे, पकड़े जाने के बाद भी चुपचाप से खड़े हुये। कुछ खटकता है, अगले स्टेशन पर अपने साथ उन्हें भी उतार लेने को कह देता हूँ।
ReplyDeleteऔर जो आपने लिखा कि घर आकर यह तसल्ली थी कि एक पुण्य का काम हो गया.....
आप की संवेदनशीलता के बारे में क्या कहूं? शब्द नहीं हैं।
शुभकामनायें।
'तारे जमीं पर', इस बार रेलगाड़ी से उतर कर.
ReplyDelete@ Dr Parveen
ReplyDeleteइस उत्साहवर्धन के लिये अतिशय धन्यवाद।
@ Rahul Singh
घर से भागे तारों को आसमान से टपकने नहीं दिया, बस।