श्री विश्वनाथजी |
पूर्वज तमिलनाडु से केरल गये, पिता महाराष्ट्र में, शिक्षा राजस्थान में, नौकरी पहले बिहार में शेष कर्नाटक में, निजी व्यवसाय अंग्रेजी में और ब्लॉगिंग हिन्दी में। पालक्काड तमिल, मलयालम, मराठी, कन्नड, हिन्दी और अंग्रेजी। कोई पहेली नहीं है पर आश्चर्य अवश्य है। आप सब उन्हें जानते भी हैं, श्री विश्वनाथजी। जहाँ भाषायी समस्या पर कोई भी चर्चा मात्र दस मिनट में धुँआ छोड़ देती हो, इस व्यक्तित्व को आप क्या नाम देंगे? निश्चय ही भारतीयता कहेंगे।
पर कितने भारतीय ऐसे हैं, जो स्वतः ही श्री विश्वनाथजी जैसे भाषाविद बनना चाहेंगे? बिना परिस्थितियों के संभवतः कोई भी नहीं। दूसरी भाषा भी जबरिया सिखायी जाती है हम सबको। जब इस भारतीयता के भाषायी स्वरूप को काढ़ा बनाकर पिलाने की तैयारी की जाती है, आरोपित भाषा नीति के माध्यम से, देश के अधिनायकों द्वारा, राजनैतिक दल बन जाते हैं, विष वमन प्रारम्भ हो जाता है, भाषायी उत्पात मचता है और पूरी रोटी हजम कर जाता है, अंग्रेजी बंदर।
पिछले एक वर्ष से कन्नड़ सीख रहा हूँ, गति बहुत धीमी है, कारण अंग्रेजी का पूर्व ज्ञान। दो दिन पहले बाल कटवाने गया था, एक युवक जो 2 माह पूर्व फैजाबाद से वहाँ आया था, कामचलाऊ कन्नड़ बोल रहा था। वहीं दूसरी ओर एक स्थानीय युवक जिसने मेरे बाल काटे, समझने योग्य हिन्दी में मुझसे बतिया रहा था।
कार्यालय में प्रशासनिक कार्य तो अंग्रेजी में निपटाना पड़ता है पर आगन्तुक स्थानीय निवासियों से दो शब्द कन्नड़ के बोलते ही जो भाषायी और भावनात्मक सम्बन्ध स्थापित होता है, समस्याओं के समाधान में संजीवनी का कार्य करता है। अंग्रेजी में वह आत्मीयता कहाँ? सार्वजनिक सभाओं में मंत्री जी के व अन्य भाषणों में केवल शब्दों को पकड़ता हूँ, पूरा भाव स्पष्ट सा बिछ जाता है मस्तिष्क-पटल पर। एक प्रशासनिक सेवा के मित्र ने मेरी इस योग्यता की व्याख्या करते हुये बताया कि कन्नड़ और संस्कृत में लगभग 85% समानता है, कहीं कोई शब्द न सूझे तो संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग कर दें। किया भी, नीर, औषधि आदि।
तेजाब फिल्म के एक गाने 'एक दो तीन चार....' ने पूरे दक्षिण भारत को 13 तक की गिनती सिखा दी। अमिताभ बच्चन की फिल्मों का चाव यहाँ सर चढ़कर बोलता है। यहाँ के मुस्लिमों की दक्खिणी हिन्दी बहुत लाभदायक होती है, नवागुन्तकों को। भाषायी वृक्ष भावानात्मक सम्बन्धों से पल्लवित होते दिखा हर ओर, धीरे धीरे। इस वृक्ष को पल्लवित होते रहने दें, बिना किसी सरकारी आरोपण के, भाषायी फल मधुरतम खिलेंगे।
प्रश्न उठता है कि तब प्रशासनिक कार्य कैसे होंगे, विज्ञान कैसे बढ़ेगा? आईये गूगल का उदाहरण देखें, हर भाषा को समाहित कर रखा है अपने में, किसी भी साइट को आप अपनी भाषा में देख सकते हैं, भले ही टूटी फूटी क्यों न हो, अर्थ संप्रेषण तो हो ही जाता है। राज्यों को अपना सारा राजकीय कार्य स्थानीय भाषा में ही करने दिया जाये। इससे आमजन की पहुँच और विश्वास, दोनों ही बढ़ेगा, प्रशासन पर। प्रादेशिक सम्बन्धों के विषय जो कि कुल कार्य का 5% भी नहीं होता है, या तो कम्प्यूटरीकरण से अनुवाद कर किया जाये या अनुवादकों की सहायता से। तकनीक उपस्थित है तो जनमानस पर अंग्रेजी या अन्य किसी भाषा का बोझ क्यों लादा जाये।
त्रिभाषायी समाधान का बौद्धिक अन्धापन, बच्चों पर लादी गयी अब तक की क्रूरतम विधा होगी। भाषा का माध्यम स्थानीय हो, सारा ज्ञान उसमें ही दिया जाये। अपने बच्चों को हिन्दी अंग्रेजी अनुवाद के दलदल में नित्य जूझते देखता हूँ तो कल्पना करता हूँ कि विषयों के मौलिक ज्ञान के समतल में कब तक आ पायेगें देश के कर्णधार। विश्व का ज्ञान उसके अंग्रेजी अर्थ तक सिमट कर रह गया है। एक बार समझ विकसित होने पर आवश्यकतानुसार अंग्रेजी सहित किसी भी भाषा का ज्ञान दिया जा सकता है। भविष्य में आवश्यकता उसकी भी नहीं पड़नी चाहिये यदि हम मात्र वैज्ञानिक शब्दकोष ही सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा संस्कृत में विकसित कर लें।
भाषायी उत्पात पर व्यर्थ हुयी ऊर्जा को देश के विकास व अपनी भाषायी संस्कृति हेतु तो बचाकर रखना ही होगा।
भाषा है तो हम हैं।
भाषा है तो हम हैं।
बहुत जटिल है यह भाषा की समस्या। स्वेच्छा से मातृ भाषा से इतर भाषा सीखने वाले कम ही मिलेंगे। प्राथमिकता तो पहले मातृ भाषा में प्रवीणता पाने की ही होनी चाहिए, उसके बाद दूसरी भाषा पर जोर देना चाहिए। दूसरी ओर हम लोग बिना जबरदस्ती के कुछ सीखते भी नहीं हैं। अंग्रेजी बंदर का ग्लैमर जरूर सर चढ़ कर बोल रहा है। हमारा तो काम ही पब्लिक डीलिंग है, जो खुद अपने फ़ार्म भरते हैं उनमें से अस्सी फ़ीसदी अंग्रेजी का उपयोग करते हैं। ये अलग बात है कि उन अस्सी फ़ीसदी के अस्सी फ़ीसदी हंड्रेड या थाऊजैंड की स्पैलिंग गलत लिखते हैं। हैरान होता हूँ कि यहाँ तो अंग्रेजी की कोई बाध्यता नहीं, फ़िर भी प्रयोग क्यों, और वो भी गलत?
ReplyDeleteभाषायी और भावनात्मक सम्बन्ध स्थापित होता है, समस्याओं के समाधान में संजीवनी का कार्य करता है'
ReplyDeleteबिना भावनात्मक सम्बन्ध के समस्या या सामाजिक सरोकारों की ठीक से पहचान हो नहीं सकती है और इसके लिये स्थानीय भाषायी सम्बन्ध आवश्यक हो जाता है.
'पूरी रोटी हजम कर जाता है, अंग्रेजी बंदर।', बहुत खूब है. आंचलिक भाषा और बोलियों का पक्ष लेते हुए अक्सर हम उन्हें हिन्दी के विरुद्ध खड़ा कर अनजाने ही अंग्रेजी को पुष्ट करते होते हैं.
ReplyDelete'भाषा' की इस चर्चा के साथ 9 'लिपियों' का चित्र है, बात बोलने की चलाई है आपने, लिखने की नहीं, फिर चित्र के साथ 'यही हो हमारा माध्यम' कैप्शन, यह ठीक समझ नहीं पा रहा हूं.
प्रवीण जी , भाषा सिर्फ भावनाओं की अभिव्यक्ति का साधन हैं ..परन्तु आज भाषा एक "स्टेट्स सिम्बल" बन गया है ..हम अंग्रेजी बोलकर क्या दर्शाना चाहते हैं? ...वैसे जहाँ तक मोलिकता की बात है वो अपनी भाषा में सोचने, समझने से ही आती है ,इसलिए हमें पूरा प्रयास करना चाहिए की हम अपनी भाषा में सब कार्य करें ताकि व्यव्हार और समझ के स्तर पर मोलिकता बने रहे ...सार्थक पोस्ट ...शुभकामनायें
ReplyDeleteकई भाषाओँ में प्रवीणता हासिल करना अपने व्यक्तित्व के लिए ही नहीं बल्कि समाज और देश के भी हित में हो सकता है..... आज भाषा भी दिखावटीपन का शिकार हो गयी है.... यह अंग्रेजी का भूत इसी का परिणाम है.....पता नहीं वो दिन कब आएगा या आएगा भी की नहीं जब हमारे देश की विभिन्न भाषाए एक दूजे के खिलाफ ना होकर एक दूसरे को और समृद्ध करने का काम करेंगीं...... बहुत सुंदर विषय .....
ReplyDelete'एक बार समझ विकसित होने पर आवश्यकतानुसार अंग्रेजी सहित किसी भी भाषा का ज्ञान दिया जा सकता है।,
ReplyDelete...समझ विकसित करने को प्रथम प्राथमिकता देनी चाहिए।
..सहमत।
नमन है इस व्यक्तित्व और चिन्तन को !
ReplyDeleteसच लिखा आपने अंग्रेजी बन्दर ने तो जयादा ही तबाही मचा रखी है . दक्षिण भाषा के कई शब्द या कहे बहुत से शब्द संस्क्रत भाषा के ही होते है लेकिन बोलने के तरीके के कारण समझ नही आते . अगर देवनागरी मे यह भाषाये सिखायी जाये तो लिखने के अलावा बोली और समझी तो जाही सकती है .
ReplyDelete"एक दो तीन चार....' ने पूरे दक्षिण भारत को 13 तक की गिनती सिखा दी। "
ReplyDeleteबढ़िया और अति आवश्यक लेख के लिए आभार ! श्री विश्वनाथ जी के ब्लाग का इंतज़ार है , शुभकामनायें !
... behatreen post !!!
ReplyDeleteशिक्षा तो मातृ भाषा में ही होनी चाहिए। अंग्रेजी ने अन्य भारतीय भाषाओं के विस्तार में अकल्पनीय बाधाऍं खडी कर रखी हैं। यदि अंग्रेजी बीच में न हो तो लोग एक दूसरे की भाषा जानने को विवश होंगे। अपरिहार्यता होगी तब दूसरी भाषा जानना-समझना। अंग्रेजी ने इस अपरिहार्यता का हरण कर लिया और इसीलिए भारतीय भाषाऍं न केवल संकुचित हो गईं अपितु उनके नाम पर राजनीति भी होने लगी और फलस्वरूप भारतीय भाषाऍं 'मौसेरी बहनों' की जगह 'सौतनें' बन गईं।
ReplyDeleteविश्वनाथ जी का बहुत सुन्दर उदाहरण दिया है आपने। वैसे कर्णाटक सच में उत्तर-दक्षिण का संगम है। बैंगलोर मेरे हृदय में एक विशेष स्थान रखता है। संस्कृत तो सभी भारतीय भाषाओं को जोडती है। सन्योग से एक फिलिपीनो सहकर्मी ने आज भारतीय शास्त्रीय नृत्यों के नाम पूछे। जब मैने कथकली कहा तो उसने कथा का अर्थ पूछा और जब मैने बताया तो पता लगा कि उनकी एक भाषा में भी यह शब्द समानार्थी है। Culturala overlap?
ReplyDeleteउफ़ यह तीसरी बार कमेन्ट टाईप कर रहा हूँ ,दो बार की टिप्पणियाँ अंतिम शब्दों तक पहुँचते पहुँचते विद्युत् अवरोधों की भेंट चढ़ चुकीं ..इसलिए ही यह सहज और त्वरित तो नहीं ,हाँ सटीक और संक्षिप्त हो सकती है --
ReplyDeleteभारत की विडम्बना -संविधान द्वारा अभिस्वीकृत २४ भाषाएँ,क्षेत्रीय श्रेष्ठता का निराभिमान ,संस्कृत जैसी वैज्ञानिक भाषा की उपेक्षा ,हिन्दी के नाम पर राजनीति ,एक राष्ट्रभाषा का न होना ,अन्यथा भारत में बौद्धिकता की कमी नहीं ....एक ही रास्ता -हिन्दी में सारे राज काज और अकादमीय सरोकार ,तीन भाषाएँ तो सीखनी ही पड़ेगीं -एक हिन्दी ,एक राज्य की जनभाषा और एक अंगरेजी जो आज की बेहतर सम्पर्क भाषा है ......
हमारा भी कुछ कुछ यही हाल है. तामिलनाडू से हैं, पूर्वज केरल में जा बसे. रोजी रोटी के चक्कर में उडीसा, आंध्र, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, बुंदेलखंड सब जगह रह आये और विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओँ में पढाई भी की. भाषाओं को सीखना अच्छी बात है. जैसे किसी ने कहा, जिस प्रांत में भी जाएँ, वहां, वहां के लोगों से उनकी भाषा में बात करने पर बड़ी आत्मीयता बनती है. हमें चेन्नई के लिए रेलगाड़ी पकड़ने जेपोर (उडीसा) से विजियानगरम जाना (आन्ध्र) बस में जाना पड़ता था. कभी बस उडीसा की मिलती तो कभी आन्ध्र की. टिकट लेने के लिए भीड़ इकट्ठी हो जाती. उडीसा के बस के लिए उड़िया में अनुरोध किया जावे तो कंडक्टर तुरंत टिकट दे देता था जबकि कुछ लोग तेलुगु में मांगते थे. उन्हें तो अंत में ही उपकृत करता. यही हाल आन्ध्र के बसों के साथ था, वहां तेलुगु में मांग करनी पड़ती थी.
ReplyDeleteअन्तिम लाइनों में सबकुछ कह दिया..
ReplyDeleteभाषायी समस्या के कई पहलुओं को उदघाटित करती, इस यथार्थपरक, सामयिक और विचारोत्तेजक आलेख के लिए बहुत बहुत धन्यवाद. आभार
ReplyDeleteसादर,
डोरोथी.
बच्चे दो भाषाएँ शुद्धतापूर्वक सीख लें यह उनके लिए कठिन नहीं है पर तकनीकी युग में भाषाएँ बहुत तेजी से भ्रष्ट हो रही हैं.
ReplyDeleteमेरा बेटा ही बोल-चाल में बहुत ही दोयम दर्जे की भाषा का प्रयोग करने लगा है जो उसने अपने समूह में सीखी है या टीवी पर सुनी है. ऊपर से उनकी मम्मी चाहती हैं की मैं उनसे ज्यादा से ज्यादा अंग्रेजी में बात करूं. अब क्या बच्चे को यह भी पता नहीं होना चाहिए कि किसी मसाले या सब्जी को हिन्दी में क्या कहते हैं?
मैं चाहता हूँ कि मेरे बच्चों की हिंदी और अंग्रेजी दोनों ही अच्छीं हों पर इस बात के आसार स्पष्ट हैं कि बच्चे हिंदी में पिछड़ते जायेंगे.
श्री विश्वनाथ जी की भाषाई क्षमता से परिचित हूँ. मेरे द्वारा किये गए अनुवाद को वे भली-भांति आंक लेते हैं.
सर्वप्रथम कन्नड सीखने के लिये आपको मेरी शुभकामनायें ! उत्तम विचार है ! खासकर जिस व्यवसाय से आप जुडे है, उसमे पब्लिक समपर्क एक मह्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, और स्थानीय भाषा का ग्यान इसमे चार चांद लगायेगा !
ReplyDeleteसरकारी नौकरी की यात्रा के दौरान विभिन्न प्रांतों में काम करने का लाभ यह हुआ कि वहां की भाषा सीखी। और इस भाषा में काम करते वक़्त वहां के लोग सहज ही अपना लेते हैं यह जाना।
ReplyDeleteतेलुगु से बहुत मिलता जुलता है कन्नड़ का स्क्रिप्ट।
और हां, आज भी, जब कि आंध्र छोड़े लगभग १० वर्ष होने को आए तेलेगु फ़िल्म, टीवी पर, सप्ताह में एक तो ज़रूर देखता हूं।
भाषा की समस्या आजकल बहुत जटिल हो गयी है | बगैर क्षेत्रीय भाषा जाने ,एक दूसरे के विचार का आदान प्रदान बहुत कठिन है |
ReplyDeleteभारत अभी भी गाँव में ही बसा हुआ है। गाँव के व्यक्ति को अपनी भाषा भी स्पष्ट रूप से नहीं आती और उस पर अंग्रेजी का जिन्न सवार करा दिया जाता है। बेचारा पढ़ाई से ही भाग छूटता है। ऐसी क्रूर व्यवस्था भारत के अलावा शायद ही किसी और देश में हो। यदि हो तो वह भी बताएं।
ReplyDelete.
ReplyDeleteविश्वनाथ जी को मेरा नमन।
.
भाषायी वृक्ष भावानात्मक सम्बन्धों से पल्लवित होते दिखा हर ओर, धीरे धीरे। इस वृक्ष को पल्लवित होते रहने दें, बिना किसी सरकारी आरोपण के, भाषायी फल मधुरतम खिलेंगे..
ReplyDeleteलेकिन ऐसा हो कहाँ पता है ...शिक्षा का प्रथम पाठ अपनी मातृ भाषा में होना चाहिए ..पर यहाँ तो अन्तराष्ट्रीय भाषा प्रारंभ कर दी जाती है ..
भारत में भाषा विवाद, कतिपय राजनीतिक लाभ के लिए समय समय पर सामने आते है . बंगलोर के शिवाजी नगर और सिटी मार्केट इलाके में मुस्लिम बाहुल्यता होने के कारण दक्खन भारतीय हिंदी सुनने का मज़ा आता है . रही बात अंग्रेजी रूपी बन्दर की तो वो तो उछ्ल कूद मचाता ही रहेगा.भारतेंदु की बात याद आयी "निज भाषा उन्नति अहै साब उन्नति का मूल "
ReplyDeleteबहुभाषी होना आसान नहीं है,और अगर दूसरी भाषा समझ में आने लगे तो भी कम नहीं है
ReplyDelete‘पिछले एक वर्ष से कन्नड़ सीख रहा हूँ, गति बहुत धीमी है,....’
ReplyDeleteखबरदार, विश्वनाथ बनने की कोशिश मत करो :)
प्रवीणजी
ReplyDeleteजब जब विश्वनाथजी की हिंदी में टिप्पणी पढ़ती हूँ तो मन ही मन में उनके लिए प्रशंसा के भाव होते थे आपने उनके बारे में विस्तार से बताकर सराहनीय कार्य किया है |भाषा सिखने का मुझे भी बहुत शौक है और अच्छा भी लगता है बेंगलोर में जब होती हूँ रामकृष्ण मिशन में सरकारी स्कूल के बच्चो को
बिना शुल्क लिए अतिरिक्त कोचिंग दी जाती है जिसमे मुझे हिदी पढाने का सौभग्य मिला है सरे बच्चे कन्नड़ माध्यम में पढ़ते है और अंग्रेजी भी भी उन्हें हिंदी की तरह ही आती है ,सिर्फ पासिंग मार्क्स के लिए |तब मुझे भी हिंदी पढ़ाते हुए कन्नड़ सीखने का मौका मिल गया |
बहुत बढिया आलेख \आभार
हमेशा की तरह विश्लेषण उच्चकोटि का ...धन्यवाद विश्वनाथ जी से मिलाने का ...उनको ज्ञान जी के ब्लॉग पर पद रहा हूँ सतत !!
ReplyDeleteआप जितनी ज्यादा भाषाएँ जानते हैं ,आपकी अभिव्यक्ति उतनी ही आसान और प्रभावशाली होती है ये मेरा निजी अनुभव है .परन्तु हमारी विडम्बना ये है कि हमने एक भाषा की गुलामी कर ली है बस समस्या यहीं है.जहाँ अंग्रेजी को सिर्फ एक भाषा के तौर पर मान लिया जायेगा सब ठीक हो जायेगा.
ReplyDeleteबढ़िया! हम क्या कहें - हम तो भाषाई बन्दर हैं। चार साल से हिन्दी ब्लॉग लिख रहे हैं, पर अभी भी कुछ सोचना तो अंग्रेजी में होता ही है।
ReplyDeleteबहुत से शब्द नहीं मिलते। या तो क्वाइन करने पड़ते हैं। या अंगेजी शरणम्!
प्रवीन जी .... ज्यादा कह नहीं सकती ... क्यूंकि भाषा को ले कर मेरा ज्ञान भी कुछ बहुत ज्यादा नहीं है ... जो भाषा आज कल हम बोलते हैं ... वो मिश्रण है बहुत सी भाषाओँ का ... हमारी भाषा में अंग्रजी उर्दू और हिंदी के शब्द होते हैं ....आजकल मुझे नहीं लगता की कोई कहता है 'विद्यालय' जाना है सब 'स्कूल' जाना ही कहते हैं ... और हम जिस जगह के रहने वाले होते हैं .. हम उस जगह की भाषा में से भी शब्द बोलते हैं ... मैंने एक बार राजीव दीक्षित जी का एक समेलन सुना था ... उसमें उन्होंने काफी अछि जानकारी दी थी हिंदी के बारे मैं ...
ReplyDeleteआपने बहुत अछि बातें कही हैं लेख में की बच्चों पे कुछ भी थोपा नहीं जाना चाहिए ...
बाकी ये ही कह सकती हूँ की जो चल रहा है उसे बदलना लगभग नामुमकिन है... सिर्फ एक चीज़ है जो की जा सकती है ... की हम हिंदी के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी समझें ... और अपने बच्चों को हिंदी का महत्व समझें ...
मुझे राहुल सिंह जी की बात मे भी दम लगा
ReplyDelete"आंचलिक भाषा और बोलियों का पक्ष लेते हुए अक्सर हम उन्हें हिन्दी के विरुद्ध खड़ा कर अनजाने ही अंग्रेजी को पुष्ट करते होते हैं"
क्यों नही भारत की एकता अखडता के लिये हिन्दी कोमातृ भाषा के रूप मे समृद्ध करने के लिये अधिक जोर दिया जाता। दूसरे नम्बर पर प्रादेशिक या आँचलिक भाषा होनी चाहिये। धन्यवाद।
"एक दो तीन चार....' ने पूरे दक्षिण भारत को 13 तक की गिनती सिखा दी। "
ReplyDeleteआपकी पोस्ट और उसमें विश्लेषण बहुत जोरदार है. मुझे तो गुजराती आती है सरकारी नौकरी के चलते जाना पड़ा पर सीखी अपने शौक के लिए ताकि वहां के लोगों से घुल मिल सकूँ
praveen ji ,
ReplyDeleteaapke is lekh me aaj bahut kuchh padhne v -seekhne ko mila.bahut hi badhi dhang se kisi bhi baat ko kahane ki xhmta aapme addbhut hai.main aapke vicharo ka dil se swgat karti hun.
कन्नड़ और संस्कृत में लगभग 85% समानता है, कहीं कोई शब्द न सूझे तो संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग कर दें। किया भी, नीर, औषधि आदि।
is nai jaankaari ko dene ke liye dhanyvaad.
ek baat aur puchhna chahati hun ki aadarniy sir gyandutt ji kaise hain
.unka swasthy kaisa hai ,batlaiyega,
aabhari hungi-------
poonam
@ मो सम कौन ?
ReplyDeleteमैंने यह पाया है कि यदि आपका एक भाषा का गूढ़ ज्ञान है और आप तब दूसरी भाषा सीखने का प्रयत्न करते हैं तो सीखी हुयी भाषा का ज्ञान भी वैसा ही गूढ़ होता है। दूसरों को गुच्छेदार भाषा से प्रभावित करने वाले न घर के होते हैं न घाट के, किसी भी भाषा का समुचित ज्ञान नहीं। बच्चों को भाषायें लादने के प्रयास में मौलिक ज्ञान देने का कार्यक्रम पिछड़ जाता है और बच्चे रटी हुयी मशीनों के समान व्यवहार करने लगते हैं। ज्ञान मातृभाषा में ही हो, किसी को दूसरी भाषा सीखनी हो, उसकी भी सुविधा हो सरकारी स्तर पर। सभी भाषाओं का विकास करना होगा, सश्रम।
जहाँ पर कोई बाध्यता नहीं वहाँ भी लोग अंग्रेजी का अज्ञान क्यों बघारने लगते हैं।
भाषा को लेकर इत्ता कुछ....बढ़िया लिखा है आपने.
ReplyDelete@ M VERMA
ReplyDeleteथोड़ा आप चलने के लिये तैयार हो तो सामने वाला आपकी ओर और अधिक चलने को तैयार रहता है। सामाजिकता को ऐसे सम्बन्धों से ही बल मिलता है। स्थानीय भाषा निश्चय ही एक सशक्त माध्यम है।
@ Rahul Singh
आंचलिक भाषाओं और हिन्दी में कोई विरोधाभाष नहीं, संस्कृत के माध्यम से ये भाषायें एक दूसरे को पुष्ट ही करती हैं। यदि कोई भाषा है जिससे इनकी कोई समानता नहीं है, वह है अंग्रेजी।
चित्र तो लिपियों का है और भारतीय भाषाओं का प्रतीकात्मक चित्रण ही है। किसी भी भाषा को सीखने का प्रारम्भ सुनने से, फिर बोलने से और उसके बाद लिखने से होता है।
@ केवल राम
पता नहीं क्यों, अंग्रेजी को अधिकार व आत्मविश्वास की भाषा मान लेने वाले लोग अभी तक मानसिक परतन्त्रता में जी रहे हैं। मौलिक ज्ञान मातृभाषा के अतिरिक्त और किसी में मिल ही नहीं सकता है। दो भाषाओं के अधकचरे ज्ञान का मूल्य परम्परागत विषयों में पिछड़ना होने लगे तो कष्ट होता है।
@ डॉ॰ मोनिका शर्मा
कई भाषाओं के जानकार सदा ही उन संस्कृतियों के संवाहक रहे हैं, स्तुत्य हैं। अंग्रेजी का ज्ञान तब भी ठीक है, नशा घातक है।
@ देवेन्द्र पाण्डेय
शिक्षा का उद्देश्य मौलिक समझ विकसित करना होना चाहिये। उसके बाद कोई अन्य भाषा सीखना न केवल सरल होता है अपितु उसमें गहराई भी होती है।
@ प्रतिभा सक्सेना
ReplyDeleteआपका स्नेहमयी आशीर्वाद बना रहे, मेरे ऊपर।
@ dhiru singh {धीरू सिंह}
भारत विभिन्न भाषाओं का देश होने पर भी यहाँ की शिक्षा पद्धति व प्रशासन में विभिन्न भाषाओं को सिखाने का व अनुवाद करने का विशेष आग्रह नहीं दिखता है। अंग्रेजी का प्रयोग कर व हिन्दी को राजभाषा घोषित कर कर्तव्यों की इतिश्री कर ली जाती है। सारे भाषाओं के विकास के सार्थक प्रयास हों और अन्य राज्यों में जाने वाले व्यक्तियों के लिये माह भर का निशुल्क पाठ्यक्रम हो, वह भी सायंकालीन। अंग्रेजी पर निर्भरता कम करनी ही होगी।
@ सतीश सक्सेना
विश्वनाथ जी के चित्र और भाषायी जीवनी सहित उनके कुछ विचार भी पोस्ट में निहित हैं। विश्वनाथ जी से पोस्ट के माध्यम से और अधिक न्याय होगा विषय के साथ। मुझे भी प्रतीक्षा है।
@ 'उदय'
बहुत धन्यवाद आपका।
@ विष्णु बैरागी
सच कहा, अंग्रेजों ने जहाँ भारतवासियों को आपस में लड़वाया, भारतीय भाषाओं को भी एक दूसरे के सम्मुख खड़ा कर दिया। अब मौसेरी बहने, सौतनों की तरह लड़ रही हैं। अंग्रेजी भाषा की अवैज्ञानिकता हमारी मानसिकता की अटूट हिस्सा बन चुकी है।
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
ReplyDeleteजब तक अंग्रेजी का बादल हम सबके ऊपर चढ़ा रहेगा, हम संभवतः वह प्रकाश नहीं पा पायेंगे जिसमें हम निहित समानता देख पायें। दो भाषाओं में 85% समानता, हमें इस बात के लिये प्रेरित क्यों नहीं करती की 15% और प्रयास कर हम एक दूसरे की पूरी भाषा सीख ले और पूरे प्रदेश से संवाद स्थापित कर लें। अभी तो 100% अंग्रेजी सीखने के प्रयास के बाद भी 10% नागरिकों से भी संवाद नहीं हो पाता है।
पता नहीं क्यों, भाषाओं में समानतायें हैं, मनों में नहीं।
@ Arvind Mishra
संस्कृत भारतीय भाषाओं की माँ है, अपनी माँ के माध्यम से हम अपने सम्बन्ध प्रगाढ़ कर सकते हैं। भाषा की समस्या सबकी नहीं है, जो कहीं लम्बे समय के लिये रहने जा रहे हैं, वे वहाँ की भाषा सीख लें और सीखते भी हैं। पर्यटकों को उनकी भाषा में आतिथेय मिले।
@ P.N. Subramanian
तब तो भाषायी उत्पात पर आपका भी आलेख हम सबका मार्गदर्शन करेगा। कामचलाऊ ज्ञान तो होना ही चाहिये हम सबको, स्थानीय भाषा का।
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
हमारी अभिव्यक्ति हमारे होने का प्रमाण है। जितनी ऊर्जा मानसिक विघटन में लगी है, उसकी आधी भी सृजन में लग जाये तो 5 वर्ष ही पर्याप्त हैं हमारे गौरवमयी भविष्य के लिये।
@ Dorothy
संवाद बना रहे, भाषायें बनी रहें, संस्कृतियाँ बनी रहें। यदि किसी को बल मिले तो पारस्परिक समन्वय को।
@ निशांत मिश्र - Nishant Mishra
ReplyDeleteजब वस्तु ज्ञान से अधिक से भाषा ज्ञान पर बल दिया जाता है तो सारी की सारी विषयगत धारणायें गड्मगड्ड हो जाती हैं। दुविधा बनी रहती है कि किस भाषा के माध्यम विषयगत धारणाओं को विस्तार दिया जाये।
जब मातृभाषा में विषयों की मूल तक जा मौलिक ज्ञान हो जाता है तो उसे किसी भी भाषा में रूपान्तरित करने में कोई कठिनाई नहीं आती है।
व्यक्ति मात्र एक ही भाषा में सोचता है औऱ वही मौलिक भाषा होती है। अनुवाद पर व्यर्थ ऊर्जा महासृजन कर सकती है।
अंग्रेजी का समुचित ज्ञान होने पर भी मेरी चिन्तन प्रक्रिया हिन्दी में ही रहती है सदा। यदि सच कहूँ तो वर्षों बाद ब्लॉग के माध्यम से उस चिन्तन को समुचित उभार व आधार मिला है। अंग्रेजी में भी एक दो पोस्ट लिखी हैं पर मेरा ही मन जानता है कि उसमें मौलिकता नहीं ला पाऊँगा।
@ पी.सी.गोदियाल
ReplyDeleteस्थानीय भाषा का ज्ञान सदा ही सहायक होता है। जनमानस से जुड़े विभागों के लिये तो यह सोने में सुहागा है।
@ मनोज कुमार
जब कोई भाषा आपको हल्की हल्की आती हो तो उस भाषा की फिल्में देखने में और भी आनन्द आता है।
@ नरेश सिह राठौड़
दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के पश्चात संवाद वैचारिक स्तर तक भी उठाया जा सकता है।
@ ajit gupta
अंग्रेजी के भूत ने पता नहीं कितनी स्थानीय प्रतिभाओं का आत्मविश्वास तोड़ा है। यदि उदाहरण देखना हो तो सिविल सेवा और आई आई टी के सफल प्रतियोगियों की सूची का विश्लेषण कर लिया जाये, जब से अंग्रेजी को अनिवार्य विषयों से हटा दिया गया।
@ ZEAL
आपके भारतीयता के प्रति स्नेह को मेरा भी नमन।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
ReplyDeleteप्रारम्भ से ही वैश्विक उड़ानों के प्रणेताओं को यह बात भी समझ नहीं आता है कि जो चलना नहीं सीख पाता है वह उड़ना क्या सीखेगा भला।
@ ashish
कहानी अभी भी दो बिल्लियों और बन्दर वाली ही है। हमारी मूर्खता है कि हम अभी तक बन्दर को निर्णायकों का स्थान दिये बैठे हैं।
@ जितेन्द़ भगत
पूरी की पूरी मौलिक व प्रारम्भिक शिक्षा मातृभाषा में ही दी जाये, उसी में सर्वहित है।
@ cmpershad
यदि विश्वनाथ जी जैसी प्रतिभा होती तो दो माह ही में सीख गये होते। प्रेरणस्रोतों अनुकरण हो सकता है प्रतिस्थापन नहीं।
@ शोभना चौरे
कन्नड विद्यार्थियों को हिन्दी सिखाने में आपकी कन्नड भी अच्छी हो जाती होगी। जब एक भाषा को सीखने में किये गये श्रम का भान होता है तो भाषाविदों का मान हृदय में और बढ़ जाता है।
@ राम त्यागी
ReplyDeleteयहाँ बंगलुरु में विश्वनाथ जी से प्रत्यक्ष मिलने का सौभाग्य है मेरे पास। उनके लेखों को पहले से ही सराहता रहा हूँ।
@ shikha varshney
अंग्रेजों के प्रति माई बाप का भाव रखे रखे अब अंग्रेजी के प्रति भी वही भाव रखे हुये हैं हम सब। सच कहा आपने, यदि अंग्रेजी को एक भाषा के रूप मे देखा जाये तो भाषायी समस्यायें हल हो जायेंगी।
@ ज्ञानदत्त पाण्डेय Gyandutt Pandey
आपने जो विषय उठाये हैं उनमें सदियों से अंग्रेजी का वर्चस्व रहा है। उसे हिन्दी भाषा में उतारना ही स्तुत्य है। जहाँ तक शब्द न मिलने की बात है, संप्रेषण कभी नहीं चूका आपका, शब्द पीछे पीछे आकार विषय को कब्जिया लेंगे।
@ क्षितिजा ....
एक दो शब्द दूसरी भाषा से ले लेने से कभी भाषा दूषित नहीं हो सकती है अपितु संवर्धित ही होती है।रेलगाड़ी व क्रिकेट के लिये हिन्दी नाम ढूढ़ने की मसखरई विचार संप्रेषण की अधमता है, ऐसे प्रयासों से बचना होगा।
@ निर्मला कपिला
श्री राहुल सिंह जी के विचारों से सहमत हूँ, भाषा एक ही हो, मातृभाषा, पूर्ण शिक्षा और उसके बाद अन्य भाषाओं का ज्ञान और वह भी आवश्यकतानुसार।
@ रचना दीक्षित
ReplyDeleteस्थानीय भाषा जानने से स्थान अपना ही लगने लगता है।
@ JHAROKHA
यह तथ्य कन्नड सुनने के बाद ही समझ आया। समानतायें सामने आयें, असमातायें नहीं।
आदरणीय ज्ञानदत्त जी प्रयाग में स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं, बहुत तेजी से।
@ Akshita (Pakhi)
बहुत धन्यवाद आपका। आप भी अण्डमान की भाषाओं पर कुछ लिखें।
इस अंग्रेजी ने तो वाकई लोगों को बन्दर बनाकर छोड़ा है..शानदार पोस्ट.
ReplyDeleteये सच है आत्मीय सम्बन्ध भाषा आने पर ही बनते हैं ... और भाषा को समस्या कि तरह न लेकर विकास के साधन कि तरह मानना चाहिए ... आपकी बात से सहमत हूँ मैं .......
ReplyDeleteप्रवीणजी,
ReplyDeleteभाषा के मामले में आप मुझे आवश्यकता से ज्यादा श्रेय दे रहे हैं
साफ़ साफ़ बताना चाह्ता हूँ मैं हालत का मारा एक victim हूँ।
मेरी असली मात्रभाषा का कोई नाम या पहचान या मान्यता ही नहीं है।
बचपन में घर में हम एक अजीब बोली बोलते थे जो मूलत: तमिल ही है पर मलयालम स्टाइल में बोलते थे और मलयालम के कई शब्दों का प्रयोग करते थे।
तमिल भाषी लोग हमें अर्ध-मलयाली मानते थे और हमारी बोली का मज़ाक भी उडाते थे
केरळ के लोग हमें अर्ध-तमिल मानते थे।
हम बीच में त्रिशंकु बने।
हमारे पूर्वज किसी जमाने में तमिलनाडु में रहते थे पर अठारहवी सदी में मेरे पूर्वज हजारों और तमिल भाषियों के साथ केरळ में, पालक्काड जिले में आकर बस गए। यह तमिलनाडु और केरळ के बीच सरहदी इलाका था और इतने साल यहाँ रहने से हमारा यह हाल हुआ है। १९५६ में पालक्काड जिला केरळ के साथ जोडा गया।
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१९४५ में मेरे पिताजी मुम्बई आकर बस गए थे और मेरा जन्म भी मुम्बई में हुआ।
ReplyDeleteअब तो धर में तमिल और मलयालम के साथ साथ हिन्दी/मराठी/गुजराती के शब्द भी मिश्रित होते गए।
अब कहने के लिए हमारे पास कौनसी भाषा है? या तो कोई भी नहीं या कहिए सभी भाषाएं!
बचपन में पिताजी ने अंग्रेजी स्कूल में दाखिल किया। मेरी सर्व प्रथम भाषा अंग्रेजी बन गई।
गुजराती कोलोनी में रहते रहते, और स्कूल में पारसी दोस्तों से मिलकर, और स्कूल में गुजराती एक अनिवार्य विषय होने के कारण हम गुजराती भी सीख गए। आठवी कक्षा से फ़्रेंच भी अनिवार्य था और चार साल फ़्रेंच सीखी।
हिन्दी से प्यार तो हिन्दी फ़िल्मों और गानों के कारण अपने आप हो गया। स्कूल में अनिवार्य विषय भी था।
मेरी माँ तब मुम्बई में राष्त्रभाषा प्रचार सभा की हिन्दी कक्षाएं में भर्ती होकर बडी चाव से हिन्दी सीख रही थी।
उनसे भी मुझे प्रेरणा मिली थी।
पहले पहल हम बंबई की मुन्नाभाई वाली हिन्दी बोलते थे। बाद में राजस्थान और यू पी में ७ साल रहकर अपनी हिन्दी की शुद्धीकरण करवाई।
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कालेज शिक्षा के बाद करनाटक में नैकरी लग गई और मेरे भाषाई हार में एक और फ़ूल जुड गया।
ReplyDelete१९७४ से हम यहीं बस गए. मेरे बच्चे तो कन्नड अच्छी तरह बोल लेते हैं और घर की बोली में कन्न्ड के शब्द भी मिलाने लगे हैं।
पत्नि का हाल मेरे जैसा ही है। वह तो तेलुगु से भी परिचित है और थोडी बहुत बंगाली समझ लेती है क्योंकि विशाखपट्टनम और कलकता में रही है।
जाहिर है के इतनी सारी भाषाओं सो कोई जूझ नहीं सकता।
हमने हालत से समझौता कर लिया और सभी भाषाओं से उपरी या सतही परिचय रखकर, केवल अंग्रेज़ी और हिन्दी पर ध्यान दिया।
यही है मेरी दास्तान!
शुभकामनाएं
जी विश्व्नाथ
बढ़ते संचार व सस्ते व तीब्र यातायात ने भाषायी विभिन्नताएं मिटाने में बहुत योगदान दिया है बस नेता लोगों को ही यह रास नहीं आ रहा...
ReplyDeleteकुछ लोगों में देखा है नैसर्गिक प्रतिभा होती है....नई नई भाषाएँ बहुत जल्दी सीख जाते हैं....सबसे बड़ी शर्त है...."गलत ना बोल जाएँ ,इसका संकोच ना होना"...तभी बहु-भाषाएँ सीखी जा सकती हैं.
ReplyDeleteकहते हैं कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। और यह भी कहते हैं कि करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
ReplyDeleteप्रवीण जी मैं भी लगभग डेढ़ साल से बंगलौर में हूं। अंग्रेजी इतनी आती है कि पढ़कर समझ लेता हूं। मप्र से हूं। मप्र में हम जिस समय स्कूल में थे उस समय अंग्रेजी को लेकर कोई स्पष्ट नीति नहीं थी,सो किसी साल वह ऐच्छिक थी और किसी साल अनिवार्य। तो हमारी पीढ़ी के अधिकांश लोग अंग्रेजी ठीक से सीख ही नहीं पाए। बहरहाल मैंने भी यहां कन्नड़ सीखने की कोशिश की पर सफल नहीं हो पाया।
पर देखता हूं कि मेरे आफिस के रास्ते पर भजिए का ठेला लगाने वाला,जो बिहार से आया धड़ल्ले से कन्नड़,तेलुगू,तमिल और मलयालम बोलता है। बरतन की दुकान चलाने वाला मारवाड़ी युवक भी यह सब भाषाएं बोलता है। दोनों ने ही अपने व्यवसाय के लिए इन भाषाओं को सीखा है और वह भी लोगों से बातचीत करके ही । वे किसी कोचिंग क्लास में नहीं गए। हां वे शायद लिपि पढ़ना और लिखना न जानते हों।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 कहती है कि प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ाई की औपचारिक भाषा के साथ साथ उसे स्थानीय भाषा भी पढ़ाई जानी चाहिए। यानी उसे भी कक्षा में स्थान मिलना चाहिए।
आपने एक जरूरी विमर्श किया। पर मुझे लगता है इस पर और गंभीरता से चर्चा होनी चाहिए।
भाषा हैं तो हम हैं लेकिन शायद ये सभी के लिये सत्य है, हिन्दी या अपनी मातृभाषा से जो हमें आत्मीयता होती है जाहिर है वो किसी और भाषा से नही नो पायेगी। ऐसा ही शायद अंग्रेजी भाषी भी सोचते होंगे उन्हें अंग्रेजी से जितनी आत्मीयता होगी उतनी किसी और भाषा से ना हो। अंत में शायद मायने यही रखता है कि बगैर अर्थ का अनर्थ किये हम एक दूसरे से वार्तालाप कर पायें।
ReplyDeleteजहाँ हर चीज़ में अन्धानुकरण हो रहा हो,वहाँ भाषा कैसे अछूती रह सकती है ? अपने देश में अंग्रेज़ी भद्रजनों की भाषा समझी जाती है,यह अलग बात है कि इस वर्ग में अधिक लोग अभद्र हैं.किसी भाषा से बैर की बात नहीं है,लेकिन यह तभी अखरता है जब इसका विकास हमारी मातृभाषा की क़ीमत पर होता है !
ReplyDeleteप्रवीण भाई, भाषा की समस्या सचमुच दु:खी करती है।
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जानिए गायब होने का सूत्र।
….ये है तस्लीम की 100वीं पहेली।
हमेशा की तरह सुन्दर एवं सार्थक बात...सोचने पर मजबूर करती है यह पोस्ट.
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'शब्द-शिखर' पर पढ़िए भारत की प्रथम महिला बैरिस्टर के बारे में...
बहुत ही संतुलित भाषा में आपने बात रखी है...आपके एक एक शब्द में मैं अपने शब्द मिलाती हूँ...
ReplyDeleteजबतक मातृभाषा और हिन्दी को समुचित सम्मान नहीं मिलेगा,हम आशा नहीं रख सकते कि प्रतिभाएं खुला आसमान पाएंगी.
@ KK Yadava
ReplyDeleteशीर्षक बदल कर रख लेते हैं, अंग्रेजी मदारी और हम बंदर।
@ दिगम्बर नासवा
जहाँ भी व्यापार व विकास होता है वहाँ की संस्कृति में अन्य संस्कृतियों, भाषा आदि को अपने में समाहित करने का बड़प्पन होता है।
@ G Vishwanath
ReplyDeleteभाषाओं के सतत बदलाव और उस सामाजिक परिवेश में इतना कालखण्ड काटने के पश्चात और कौन परिचित था, जिसका दृष्टान्त मैं दे पाता।
मुझे जो तथ्य समझ में आये वे निम्नांकित हैं।
पहला तो बच्चों को उनकी मातृभाषा में ही ज्ञान देना चाहिये, जिससे उनकी समझ पल्लवित होती है और ज्ञान का स्तर बढ़ता है।
दूसरा, बच्चों को मौलिक विषय जैसे गणित, विज्ञान आदि भी सरल भाषा में सिखाना चाहिये क्योंकि एक बार बुद्धि में वैज्ञानिक धारणायें स्थापित होती हैं तो जीवन भर रहती हैं।
तीसरा, अधिकांश जनमानस अपने प्रदेश से कभी बाहर नहीं आता है और वहीं पर ही जीवन ज्ञापन करता है, उसके लिये अंग्रेजी व अन्य भाषा सीखने का कोई प्रश्न ही नहीं।
चौथा, राज्यों में भी कार्य की भाषा स्थानीय ही रहे। वहाँ के नागरिकों का प्रशासन से जुड़ाव उसी के माध्यम से संभव है।
पाँचवा, स्नातक कक्षाओं में ही यदि कोई बालक भविष्य में कोई अन्य भाषा जानना चाहे तो सीख सकता है, यह उसके भविष्य की योजनाओं के अनुरूप हो।
छठा, किसी अन्य राज्य में नौकरी करने जा रहे व्यक्ति के लिये उस भाषा का कामचलाऊ ज्ञान राज्य के द्वारा ही दिया जाये और वह भी निशुल्क।
कहने का आशय यह है कि अन्य भाषाओं का ज्ञान तब दिया जाये जब आवश्यक हो और उनको दिया जाये, जिनके लिये आवश्यक है।
वैज्ञानिक शब्दावली संस्कृत में ही विकसित की जाये, उससे किसी को भी कोई विद्वेष नहीं होगा क्योंकि सारी भाषायें संस्कृत से ही उपजी हैं और संस्कृत में वैज्ञानिकता की वह क्षमता है।
@ Kajal Kumar
ReplyDeleteजब राजनैतिक जीवन व आदर्श इतने सशक्त न हों, जो समग्रता परिलक्षित कर सकें तो नेता विघटन का सहारा लेने लगते हैं। तोड़ने वाले राष्ट्र को जोड़ नहीं पायेंगे।
@ rashmi ravija
कुछ लोगों में न केवल यह गुण नैसर्गिक होता है अपितु अन्य लोगों से उनकी भाषा में जुड़ने की हार्दिक उत्कण्ठा भी होती है।
@ राजेश उत्साही
बंगलोर में रोजगार की अपार सम्भावनायें हैं अतः अन्य राज्यों से लोग आकर यहाँ जीवन ज्ञापन करते हैं। यही यहाँ के अपरिमित विकास का एक प्रमुख कारण भी है। साथ ही साथ बंगलोर दक्षिण भारत में भ्रमणार्थियों के लिये प्रारम्भिक स्थान है अतः यहाँ के निवासियों को हिन्दी आदि भाषाओं का कामचलाऊ ज्ञान है। सबसे बड़ी बात है कि यहाँ के लोग हृदय से अच्छे हैं और भाषा से अधिक संवाद पर जोर देते हैं।
मुझे भी लगभग हर जगह हिन्दी भाषी लोग मिल जाते हैं।
@ Tarun
अंग्रेजी या किसी अन्य भाषा से बैर का कोई प्रश्न ही नहीं है, सबको अपनी भाषा प्यारी है। पर नीतिगत बात यह है कि अन्य भाषा सीखना, जिसे आवश्यक हो और जब आवश्यक हो, के सिद्धान्त पर ही सीखी जाये।
@ संतोष त्रिवेदी ♣ SANTOSH TRIVEDI
सच कह रहे हैं आप, समस्या तब आती है जब भाषा को संवाद का माध्यम कम और महत्व-चिन्ह अधिक समझा जाता है।
@ ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
ReplyDeleteभारत जैसे बहुभाषी देश में इस पर मौलिक चिन्तन की माँग भी करती है।
@ Akanksha~आकांक्षा
बहुत धन्यवाद आपका।
@ रंजना
बाहर कोई भी भाषा बोली जाये पर अभी भी घरों में मातृभाषा बोली जाती है और वही एक मात्र कारक है जिससे वे संरक्षित हैं।
हे भगवान्...............
ReplyDeleteविश्वनाथ जी के बारे में पोस्ट थी और मैं इतना पीछे रह गया.. उदास हो गया हूँ.. खैर...विश्वनाथ जी का तो मैं बहुत बड़ा फैन हूँ..भले ही वो इसका श्रेय न लें लेकिन उनकी उपलब्धि कम नहीं है..बहुत साड़ी भाषाओँ का ज्ञान रखते हैं हमारे प्यारे विश्वनाथ जी...
उनको मेरा शत शत नमन...
मैं वैसे तो आज तक दक्षिण भारत नहीं गया, लेकिन वहां की सादगी और खाने की दाद देता हूँ... वहां के लोग काफी मैत्री सम्बन्ध रखने वाले होते हैं | पढाई के सिलसिले मैं मैंने लगभग पूरा उत्तर भारत घूमा है और रहा भी हूँ हिमाचल से मैंने इंजीनियरिंग की है, कुछ वक़्त हरियाणा, पंजाब, चंडीगढ़ में भी बिताया... उत्तर प्रदेश , मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड सा जगह गया हूँ लेकिन शायद वैसा खाना और वैसे लोग नहीं मिले....
ReplyDeleteइसी उत्सुकता में वहां की भाषा सीखना चाहता हूँ ताकि कभी वहां जाऊं तो अच्छा लगे...
काफी साड़ी फिल्में देखी है वो भी तेलुगु में बिना subtitls के... ओह लगता है मैं विषय से भटक गया...
सभी भाषाओँ का ज्ञान होना चाहिए ... इससे हमारे देश की कई संस्कृतियों से जुड़ाव महसूस होता है...
श्री विश्वनाथजी पूर्वज तमिलनाडु से केरल गये, पिता महाराष्ट्र में, शिक्षा राजस्थान में, नौकरी पहले बिहार में शेष कर्नाटक में, निजी व्यवसाय अंग्रेजी में और ब्लॉगिंग हिन्दी में। पालक्काड तमिल, मलयालम, मराठी, कन्नड, हिन्दी और अंग्रेजी। कोई पहेली नहीं है पर आश्चर्य अवश्य है। ....
ReplyDeleteविश्वनाथजी का भाषा ज्ञान देख नमन है उनको ....
आपके माध्यम से आज उनका ब्लॉग भी देख आये ....
कैलीफोर्निया की खूबसूरत तसवीरें ....सबकुछ सपना सा लगा ....!!
@ Shekhar Suman
ReplyDeleteविश्वनाथजी का व्यक्तित्व सबको ही प्रभावित करता है। भाषाओं का ज्ञान आवश्कतानुसार ही हो, आरोपित भाषा नीति के अनुसार न हो।
@ हरकीरत ' हीर'
विश्वनाथ जी के ब्लॉगों में अनुभव व सरलता कूट कूट कर भरी है।
भाषा की समस्या का सार्थक हल खोजा जाना चाहिये।
ReplyDelete@ विनोद शुक्ल-अनामिका प्रकाशन
ReplyDeleteइस विषय पर आपसे पूर्णतया सहमत।