कुछ दिन हुये अभिषेकजी घर पधारे, एक क्षण के लिये भी नहीं लगा कि उनसे यह प्रथम भेंट है। सहजता से बातें हुयीं, घर की, नौकरी की, जीवन के प्रवाह की, न किये विवाह की, ब्लॉगरों की, अभिरुचियों की, त्रुटियों की, सम्बन्धों की, प्रबन्धों की और विविध विविध। वातावरण आत्मीय बना रहा, बिना विशेष प्रयास के, दोनों ही ओर से। एक श्रेय तो निश्चय ही अभिषेकजी के मिलनसार व्यक्तित्व को जाता है, पर साथ ही साथ हिन्दी-ब्लॉग जगत की भी सक्रिय भूमिका है, मिलनों की इस अन्तर्निहित सहजता में। श्री विश्वनाथजी और श्री अरविन्द मिश्रजी से भी स्नेहात्मक भेटें इसी प्रकार की रही थी। वर्धा का सम्मिलित उल्लास तो संगीतात्मक स्वर बन अभी तक मन में गूँज रहा है।
बहुत से ऐसे ब्लॉगर हैं जिनसे अभी तक भेंट तो नहीं हुयी है पर मन का यह पूर्ण विश्वास है कि उन्हें हम कई वर्षों से जानते हैं। उनकी पोस्टें, हमारी टिप्पणियाँ, हमारी पोस्टें, उनकी टिप्पणियाँ, सतत वार्तालाप, विचारों के समतल पर, बीच के सारे पट खुलते हुये धीरे धीरे, संकोच के बंधन टूटते हुये धीरे धीरे। इतना कुछ घट चुका होता है प्रथम भेंट के पहले कि प्रथम भेंट प्रथम लगती ही नहीं है।
किसी को भी जानने का एक भौतिक पक्ष होता है और एक मानसिक। भौतिक पक्ष को जानने में कुछ ही मिनट लगते हैं और उसके बाद मानसिक पक्ष उभर कर आने लगता है। ब्लॉग पढ़ते रहने से मानसिक पक्ष से कब का परिचय हो चुका होता है, ऐसी स्थिति में भौतिक पक्ष बस एक औपचारिकता मात्र रह जाता है।
यदि कुछ छिपाने की इच्छा होती तो कोई ब्लॉगर बनता ही क्यों? हृदय को सबके सामने उड़ेल देने वाली प्रजाति का व्यक्तित्व सहज और सरल तो होना ही है। यदि नहीं है तो प्रक्रियारत है। यही कारण है एक अन्तर्निहित पारस्परिक आत्मीयता का।
हिन्दी-ब्लॉग ने भले ही कोई आर्थिक लाभ न दिया हो, पर विचारों का सतत प्रवाह, घटनाओं को देखने का अलग दृष्टिकोण, नये अनछुये विषय, भावों के कोमल धरातल और व्यक्तित्वों के विशेष पक्ष, क्या किसी लाभ से कम है? नित बैठता हूँ ब्लॉग-साधना में और कुछ पाकर ही बाहर आता हूँ, हर बार। ब्लॉग को तो नशा मानते हैं सतीशजी, पर यह तो उससे भी अधिक धारदार है।
धन कमा कर भी इन्ही सब सुखों की ही खोज में तो निकलेंगे हम।