बंगलोर जैसे बड़े नगर में एक छोर से दूसरे छोर पहुँचने में दो घंटे तक का समय लग जाता है। वैसे तो मुख्य सड़क से ही चलना श्रेयस्कर होता है, आप रास्ता नहीं भूल सकते हैं। जब मुख्य सड़कें रास्ता न भूलने वालों से भर जाती हैं और पूरा यातायात कछुये की गति पकड़ लेता है तब उन मुख्य सड़कों को जोड़ने वाली उपसड़कें बहुत काम आती हैं। सड़क-जाल के ज्ञाता ड्राइवर उस समय अपना प्रवाह उपसड़कों पर मोड़ लेते हैं और नगरीय चक्रव्यूह भेदते हुये गन्तव्य तक पहुँच जाते हैं। सभी मुख्य सड़कें एक-मार्गी हैं पर उपसड़कें द्विमार्गी हैं।
हमारे ड्राइवर महोदय जब वाहन चलाते हैं तो उनके मन में कितनी गणनायें चलती रहती हैं, इसका अनुमान नहीं होता है हमें। सामने का धीरे बढ़ता यातायात, अगला यातायात सिग्नल कहाँ आयेगा, पहली वह सड़क जहाँ से मुड़ा जा सकता है उपसड़कों पर, एक-मार्गी रास्तों का ज्ञान और मस्तिष्क में बसा पूरे बंगलोर का मानचित्र, इन सबके सुसंयोग ने कभी विलम्बित नहीं होने दिया हमें, अभी तक।
एक बार जब न रहा गया तो हम पूछ बैठे कि इतने रास्ते कैसे याद रह पाते हैं, इतने बड़े बंगलोर में। जो वाहन अधिक चलाते हैं, उनके उत्तर भिन्न हो सकते हैं पर यह उत्तर वैज्ञानिक लगा। मोड़ पर बने भवनों का एक चित्र सा बना रहता है मन में, उसी से दिशा मिलती रहती है। किन्ही और चिन्हों की आवश्यकता ही नहीं है। बहुत समय तक तो यह विधि सुचारु चली पर पिछले कुछ वर्षों से समस्या आ रही है। कारण उन कोनों के भवनों का पूर्ण कायाकल्प या उनके स्थान पर किसी और ऊँचे भवन का निर्माण हो जाना है। जिस गति से बंगलोर का विकास या निर्माण कार्य हो रहा है, यह भ्रम संभव है।
बहुत दिनों के बाद वाहन-कला का एक और गुण समझ में आया कि उस रास्ते से तीव्रतम पहुँचा जा सकता है जिस पर कम से कम यातायात सिग्नल मिलें। कैसे यातायात सिग्नलों को छकाते हुये, उपसड़कों में घूमा जा सकता है, यह बड़ा रुचिकर प्रकल्प हो सकता है।
कभी कभी जब यातायात धीरे धीरे बढ़ता है और उपसड़कों की सम्भावना भी नहीं रहती है तो किस प्रकार से विभिन्न लेन बदलकर बहुमूल्य एक घंटा बचाया जा सकता है, यह कर दिखाना भी एक कला है। इस कलाकारी से कई बार समय बचा कर सार्थक कार्यों में लगाया गया है।
गाने चलते रहते हैं, कभी किशोर, कभी मुकेश, कभी रफी या कभी नये। अवलोकन के क्रम को थोड़ा विश्राम मिल जाता है संगीत से।
छोटे नगर के भ्रमण में भला कहाँ से मिल पायेगा इतना अनुभव। नगर भ्रमण जब एक पोस्ट में नहीं सिमट पाया तो अन्य अनुभव तो अध्यायवत हो जायेंगे बड़े नगरों में।
नगर भ्रमण जब एक पोस्ट में नहीं सिमट पाया तो अन्य अनुभव तो अध्यायवत हो जायेंगे बड़े नगरों में।
ReplyDelete:) सच में...
वैसे बड़े शहरों की यह समस्या विश्व व्यापी है..कहीं ज्यादा कहीं कम.
पिछली बार दिल्ली/मुंबई की हालत देख घबराहट होने लगी थी.
बड़े नगर के रास्ते (सड़क) पर चलता हुआ इंसान अक्सर भीड़ में खो जाता है और एक समानांतर मार्ग (अंतस में) पर खुद को ढूढता है.
ReplyDeleteक्या इन मार्गों पर चलते हुए हम खुद सागर के बूँद से नहीं लगते.
इस संस्मरणात्मक आलेख का उत्कर्ष ही यही है कि यह जीवन के ऐसे प्रसंगों से उपजा है जो निहायत खुले रूप से हमारे आसपास सघन हैं लेकिन हमारे लिए उनकी कोई सचेत संज्ञा नहीं बनती। एक सूक्ष्म ऑबज़रवर के रूप में लेखक उन प्रसंगों को चेतना की मुख्य सड़क पर लाकर पाठकों से उनका जुड़ाव स्थापित करता है। सड़क कभी संकेत बन जाती है संकेत कभी सड़क, अंत में मंज़िल तो एक ही है ..!बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteराजभाषा हिंदी पर मुग़ल काल में सत्ता का संघर्ष
मनोज पर फ़ुरसत में...भ्रष्टाचार पर बतिया ही लूँ !
महानगरों में गंतव्य पर निकलना और समय पर पहुँच जाना लगातार दुष्कर होता जा रहा है,ख़ासकर दिल्ली में तो यातायात व्यवस्था दम तोड़ रही है.मुख्य सड़कें रेंग रही हैं तो उप- सड़कों में लोगों ने अपनी गाड़ियाँ खड़ी कर रखी हैं.यानी कहाँ से निकल के जाओगे बच्चू!रही बात'भ्रमण'की तो वह इस आपाधापी में हो ही नहीं पाता,समय इसी जुगत में बीतता है कि कैसे गंतव्य तक पहुंचा जाये !'भ्रमण' तो बिना किसी चिंता के ही हो सकता है !
ReplyDeleteमैं हर ड्राईवर महोदय का उनके अतिशय नगर ज्ञानी होने की वजह से बहुत आदर करता हूँ !
ReplyDeleteबहुत अच्छा !
ReplyDeleteसमय बचाने व नियत समय पर गंतव्य पर पहुँचने का सबसे बढ़िया विकल्प है उपसड़कें पर आजकल एक दिक्कत है इन उपसड़कों पर पुलिस वाले | पुलिस वालों ने मुख्य सडकों के बजाय उपसडकों पर ज्यादा डेरा जमाया होता है और वे बिना बात तंग करने से नहीं चुकते |
ReplyDeleteआपका सूक्ष्म अवलोकन सब कुछ जीवंत सा बना देता है। प्रभावशाली प्रस्तुति...........जो हालात आपने बयां किए हैं कमाबेश हर शहर का यही हाल है। बस घर से निकलना हमारे हाथ है...... कब तक और क्या-क्या झेलकर गंतव्य तक पहुंचेंगें कुछ पता नहीं होता...........
ReplyDeleteआप बहुत सही कहते हैं.
ReplyDeleteमैं सालों से लोगों की इस सलाह को दरकिनार करता आ रहा हूँ कि मुझे मुख्य मार्ग को छोड़कर अंदरूनी रास्तों से जाना चाहिए ताकि मैं भारी ट्रेफिक से बच जाऊं और समय पर पहुँच जाऊं. लेकिन मेरा अनुभव यह कहता है कि मुख्य मार्ग पर हमेशा ही रहने वाले भारी आवागमन के कारण लोग अंदरूनी रास्तों पर जाम लगा देते हैं जिसे खुलने में बहुत वक़्त लगता है.
मेरी राय में सीधे और लम्बे-चौड़े मार्ग से जाना बेहतर है बजाय संकरे और ज़िग-ज़ैग रास्ते से जाने के. भले इसमें एक-दो मिनट ज्यादा ही क्यों न लग जाएँ. जल्दी किसे है!
और ऐसा ही ज़िंदगी के साथ भी है.
आप क्या कहते हैं?
सबसे बड़ा अवसरवादी वही है जो गलती से तालाब में गिर जाय तो नहा धो कर बाहर निकले।
ReplyDelete...जाम झेले तो उसी में अच्छा ढूंढ लिए..क्या बात है !
सहज सरल , छोटे शहर की सड़क जैसी पोस्ट!
ReplyDeleteबैंगलोर के ट्रैफिक का बड़ा रोचक अनुभव है अपना. मैं भी एक पोस्ट लिखता हूँ कभी :)
ReplyDeleteप्रवीण जी! सच है कि गंतव्य भले एक हो, किंतु वहाँ तक पहुँचने के रास्ते अलग अलग होते हैं.. और इस दुनिया में सारी मारा मारी इन्हीं रास्तों को लेकर है... महनगर के इस महाजाल की व्यथा कथा बहुत अच्छी लगी... बिना मीटर टैक्सी (जी हाँ दिल्ली में आम है, रिक्शे की तरह भाव करते हैं ये मीटर युक्त ऑटो वाले) चलाने वाला हर तरह के रास्तों से परिचित होता है.. सबका अनुभव साझा किया आपने, अच्छा लगा!
ReplyDeleteबढ़िया रही भीडभाड वाले शहर की यात्रा और रास्ता ढूंढना !
ReplyDeleteआजकल नोकिया ने जीपीएस मोबाइल में दे रखा है ! रास्ता भूलते समय इसका उपयोग बेहद सुविधाजनक रहता है !आजमाइए एक दिन !
बीमा व्यवसाय के कारण कुछ टैक्सी चालक मेरे परिचय क्षेत्र में हैं - भोपाल, इन्दौर, जयपुर जैसे नगरों की यात्रा प्राय: ही करते रहते हैं। ये बताते हैं कि अब उन्हें इन शहरों में गन्तव्य तक पहुँचने के लिए किसी से रास्ता नहीं पूछना पडता। मैंने अचरज किया तो लगभग सबने कारण वहीं बताया - मकानों, कार्यालयों को पहचान के चिह्न के रूप में याद रखना।
ReplyDeleteसजग दृष्टि और सम्प्रेषणीय अभिव्यक्ति वाला, बार-बार उल्लेख योग्य, सहज-प्रवाहमय अविस्मरणीय पोस्ट, साबित करता हुआ कि सार्थक पोस्ट के लिए विषय की कमी नहीं, न ही वह विषयों पर आश्रित होती.
ReplyDelete'मुख्य सड़क से ही चलना श्रेयस्कर होता है, आप रास्ता नहीं भूल सकते हैं।' पढ़कर बच्चन जी याद आए-
ReplyDeleteअलग-अलग पथ बतलाते सब
पर मैं ये बतलाता हूं
राह पकड़ तू एक चला चल
पा जाएगा मधुशाला.
चेन्नई आ जाएँ, बंगलौर से कम ट्रैफिक की समस्या रहती है.. :)
ReplyDeleteवैसे अपना बंगलौर के ट्रैफिक का अनुभव बढ़िया रहा है अभी तक.. कभी फँस नहीं पाए हैं, जबकि अंदरूनी सडकों का बहुत अनुभव नहीं है मेरे पास.. हाँ चेन्नई में अब कभी ना फंसेंगे यह भरोसा हो चला है अब.. :)
कितना बदल गया है सब कुछ बंगलोर में , दो दशक पहले मेजेस्टिक से whitefileld जाने में 45 मिनट लगते थे . कुछ गिनी चुनी बहु मंजली इमारते. बाइक से चलते थे इसलिए उप रास्ते बहुत काम आते थे , इंधन बचाने के .
ReplyDeleteआपके भ्रमण को पढ कर मुझे अपनी बैंगलोर यात्रा याद आ गयी। यहाँ के आटोरिक्शा का एक कडुवा अनुभव है जिसे जब याद करती हूँ तो डर जाती हूँ। मै और मेरी बेटी बाजार से घर जा रहे थे।औटो वाला हमे घुमा फिरा कर हमारे घर की बजाये किसी और रास्ते से ले गया। मेरी बेटी को सभी रास्ते पता थे उसने औटो वाले को कहा कि हमे गलत रास्ते से ले जा रहे हो मगर उसने सुनने की बजायरउटो तेज कर दिया। तभी मैने शोर मचाया और उससे छलाँग लगाने लगी थी तब जा कर उसने औटो रोका। उसके बाद मैने अपने दामाद को फोन किया वो आफिस से आये और हमे घर छोडा। लेकिन किसी ने भी उस औटो वाले को कुछ नही कहा वो हमे उतार कर भाग गया। आपकी पोस्ट पर आते ही मुझे ये घटना याद आ जाती है इस लिये सोचा आज बता ही दूँ। धन्यवाद।
ReplyDeleteएक बार बैंगलोर जाना हुआ था। स्टेशन से गंतव्य तक पहुंचने में पूरा एक घण्टा लग गया था जबकि रास्ता महज 10 मिनट का था। जब वापस लौट रहे थे तब हमसे कहा गया कि शाम को पाँच बजे से पहले ही निकल जाना नहीं तो यातायात बहुत बढ़ जाएगा। हमने ऑटो लिया और समय के काफी पहले ही निकल लिए लेकिन यह क्या ऑटो वाले ने तो न जाने कहाँ-कहाँ से लेकर हमें 10 मिनट में ही पहुंचा दिया। अब बैठे रहे स्टेशन पर दो घण्टा। ऑटो वाले सारे रास्ते जानते हैं लेकिन गाडी वाले नहीं जानते। अच्छा विषय है।
ReplyDeleteलौह पथ परिवहन से इस ओर भी विहगावलोकन -अच्छा लगा !
ReplyDeleteअगर सब अपनी अपनी लाईन मे चले तो यह झंझट थोडा कम हो सकता हे, वेसे जब मेरे पास नेविगेशन नही था तो हम भी दुकानो, मकानो ओर अन्य चीजो के सहारे ही रास्ते को याद रखते थे, अगर कही दो तीन साल के बाद गये ओर वहां कुछ नया बन गया तो हम भी रास्ता भुल जाते थे, अब तो नेविगेशन ही सहारा हे भगवान के बाद.....
ReplyDeleteहर बड़े नगर की समस्या है सड़कें और यातायात ...उपसदक बहुत काम आती है पर इसकी सही जानकारी होनी चाहिए नहीं तो घूमते रह जाओगे ..जैसी स्थिति आ जाती है ...सूक्ष्म अवलोकन पर आधारित अच्छी पोस्ट
ReplyDeleteशहरो का ज्यादा अनुभव नहीं रहा है | हां पाच छ साल पहले सूरत में जब रहता था तब इतना आत्मविश्वास था कि कोइ भी सूरत का स्थानीय निवासी मुझसे ज्यादा रास्तों कि जानकारी नहीं रखता है| दिन भर वंहा कि गलियों में इधर उधर जाना पड़ता था हमेशा ही ट्रैफिक वालो को चकमा देकर रोंग साईड से निकल जाना,नो पार्किंग में गाड़ी पार्क कर देना | मुझे तो यह तक याद रहता था कि कौन से नंबर कि क्रेन किस रास्ते पर कितनी देर पहले वाहनों को उठाकर ले गयी है यानी नो पार्किंग का रास्ता कितनी देर तक क्लीयर है |यह सब तेज दिमाग तेज नजर और अनुभव का परिणाम है|
ReplyDeleteबंगलौर भ्रमण हम तो बस में करते हैं। और बस में तो यह सुविधा ही नहीं होती कि उपमार्गों से निकला जाए। पर हां भाषा के कारण मुख्य मार्गों पर भी गंतव्य की दूरी का अंदाजा लगाने के लिए वही चीजें काम आती हैं जो आपके वाहन चालक महोदय इस्तेमाल करते हैं।
ReplyDeleteप्रवीण जी आपकी यह महज और सहज पोस्ट अच्छी लगी। एक बात कहनी थी। आपके ब्लाग का नाम संस्कृत में है। कोई आपत्ति नही है। पर क्या ही अच्छा हो कि महज और सहज हिन्दी के कोई शब्द लेकर इसका नामकरण करें। यह भी एक महज और सहज सुझाव है।
`छोटा नगर, सीमित आवश्यकताये, सरल जीवन शैली। '
ReplyDeleteआज का बाज़ारवाद इन छोटे नगरों की वादी को भी प्रदूषित कर रहा है॥
प्रवीण भाई, अच्छा लगा बैंगलौर वर्णन। मैं भी मोड पर बने मकानों से रास्तों को याद रखता हूं।
ReplyDelete---------
सुनामी: प्रलय का दूसरा नाम।
चमत्कार दिखाऍं, एक लाख का इनाम पाऍं।
6/10
ReplyDelete"सड़क कभी संकेत बन जाती है संकेत कभी सड़क, अंत में मंज़िल तो एक ही है ..!"
आपको पढना दिलचस्प है. बहुत खोजी दृष्टि पायी है. शहरों का बढ़ता यातायात किसी का भी रक्तचाप बढ़ा देता है. आपका सूक्ष्म अवलोकन शब्दों के जरिये बहुत अच्छा व्यक्त हुआ है.
हम यहाँ १९७४ में पहली बार आए थे। अब यहाँ रहते रहते ३६ साल हो गए हैं ।
ReplyDelete१९७४ में आबादी करीब २० लाख थी। अब ८० लाख से भी ज्यादा है।
उन दिनों नगर में शहर के सभी सडक द्विमार्गी थे। ट्रैफ़िक, आज की ट्रैफ़िक की तुलना में १० प्रतिशत ही थी।
स्टेशन से जयनगर (जो दक्षिण छोर पर था) अपनी मोटर साईकल पर १० मिनट में पहुँच जाता था। आज पैंतालीस मिनट से कम नहीं लगता और कभी कभी तो एक घंटा भी लग जाता है।
अब फ़्लाई ओवेर और अंडरपास बनने लगे हैं। पर उससे भी ट्रैफ़िक की यह समस्या का हल नहीं होने वाला है। क्या आपको पता है के डबल रोड के फ़्ल्योवेर के चोटी पर एक ट्रैफ़िक सिग्नल हुआ करता था? अब हटा दिया गया है और ट्रैफ़िक के रास्ते अलग कर दिए गये हैं।
अच्छा हुआ मैंने अपनी मारुति वैगन आर बेच दी। तीन साल से अपनी रेवा कार में मजे से घूम रहा हूँ।
पार्किन्ग आसान, चलाना आसान, पेट्रोल का खर्च भी नहीं।
हम मियाँ बीवी के लिए यह काफ़ी है। हमारा घूमना औसत तौर पर दिन में २० किलोमीटर से ज्यादा नहीं होता।
एक बार चार्ज करने पर ७२ किलोमीटर चला सकते हैं और बिजली का खर्च केवल ३६ रुपये।
यानी कि चलाने का खर्च केवल ५० पैसे प्रति किलोमीटर।
इसी गाडी में पिछले महीने आपके घर आया था।
अगली बार आपको इस गाडी में सैर कराऊँगा।
इस गाडी के बारे में अधिक जानकारी के लिए देखिए :revaindia.com
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
आपकी सीधी-सादी पोस्ट में हेमशा एक दर्शन रहता है. मैं सोचती हूँ कि बड़ी सड़क से जाएँ या शार्टकट रास्ते से? इसके विषय में आपके ड्राइवर जैसे किसी अनुभवी व्यक्ति से सलाह लेना अच्छा होता है. आखिर कोई तो बात होगी कि अर्जुन ने इतनी लंबी-चौड़ी सेनाओं को ठुकराकर कृष्ण का साथ चुना? अगर कृष्ण जैसा सारथी हो, तो कैसे भी भीडभाड वाले कठिन रास्ते हों कट जाते हैं, नहीं?
ReplyDeleteरोचक आलेख...बधाई।
ReplyDeleteप्रवीण जी छोटे छोटे शहरों में अलग तरह के अनुभव होते हैं.. अलग तरह के चिन्ह होते हैं जैसे चाय वाला, पान वाला, पीपल का पेड़, बड़ा सा बोर्ड, हाई स्कूल, आदि आदि... बड़े शहरों की बात अलग होती है... मिजाज अलग होता है.. गति भिन्न होती है और पहचान भी जल्दी जल्दी बदलते हैं... अच्छा लगा.. मुझे तो जीवन दर्शन सा लगा आपका आलेख..
ReplyDeleteअरे वाह प्रवीण भाई क्या ख़ूबसूरत लेख लिखा है .... बिल्कुल ही सच्चाई है ये तो...
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर इस बार चर्चा है जरूर आएँ...लानत है ऐसे लोगों पर ....
बढ़िया लिखा है बेंगलोर के यातायात के बारे में |जिस रस्ते से जाना हो उस रस्ते से तो आ ही नहीं सकते |
ReplyDeleteऔर हाँ अधिकतर शनिवार शाम से ही सफेद टेढ़ी हेट वाले ट्रेफिक पोलिस के महानुभाव कही पेड़ की आड़ में खड़े मिल जावेंगे कब यु टर्न लेने वाला गलती करे और ये उसे धर ले |
मै तो बस ओल्ड एयर पोर्ट रोड से अह्ल्सुर रामकृष्ण मिशन और वही से वापिस रिक्शा से ही घर आ सकती हूँ |बाकि अपनी पहुँच से बाहर |
बहुत बड़ी समस्या बनने जा रही है भीड़...मतलब बढ़ती जनसंख्या..
ReplyDeleteबहुत बड़ी समस्या बनने जा रही है भीड़...मतलब बढ़ती जनसंख्या..
ReplyDeleteअच्छा लगा नगर भ्रमण।
ReplyDeleteबैंगलोर की सड़कें...हाय, सब जानते हैं...खास कर यहाँ रहने वाले लोग तो जानते ही हैं...
ReplyDeleteवैसे एक मेरे मित्र हैं, उन्हें कई रास्ते पता हैं जहाँ से कम सिग्नल मिले...हमें भी बहुत ऐसे रास्ते पता चल गए हैं लेकिन फिर भी ट्रैफिक तो बैंगलोर की है ही मस्त....समय पे पहुँच जाएँ तो बड़ी बात..:)
हमारे शहर में जहाँ उपमार्ग हों ही नहीं या नाम मात्र के वहाँ यातायात का आनंद कुछ और ही है। बाइक वाला देखता है कि सिपाही कहाँ देख रहा है? फिर फर्राटे से लाल बत्ती पार....
ReplyDelete.
ReplyDeleteकुछ वर्ष पूर्व बैगलोर आ चुकी हूँ। साफ सुथरी सडकें और शांत शहर । सुना है अब काफी कुछ बदल गया है। ख़ास कर वायु प्रदुषण का प्रादुर्भाव ज्यादा हो गया है।
I envy the tall girls there.
.
ये तो सच है ... और ऐसे मानचित्र दिमाग के किसी कोने में पड़े रहता है और समय आने पर अचानक निकल आते हैं ... वैसे आपको दुबई क़ि बताऊँ ... यहाँ तो घरों के नंबर नहीं के बराबर हैं ... किसी को बताना हो तो ऐसे ही बताना पढता है ... उस बिल्डिंग के पास ... फलानी बिल्डिंग के मोड़ पर ... और फिर लोग पहिंच पाते हैं ...
ReplyDeletevery logical and analytical article
ReplyDeletebadhai
आपके लेख का भ्रमण भी खूब लगा ... अच्छा यातायात था चर्चामंच से .. आपके लेख तक.. धन्यवाद इस सुन्दर पोस्ट के लिए..
ReplyDeleteहमारे छोटे से शहर मे भी एक छोर से दूसरे छोर तक पहुचने मे भी दो घंटे से कम नही लगते .
ReplyDeleteजब तक हम बड़े होंगें...क्या हाल हो जायेगा...
ReplyDeleteहर जगह ये ही हाल है प्रवीन जी ...
ReplyDeleteअभी फिलहाल कानपूर में हूँ ... यहाँ की सडकें और यातायात देखा तो सच में भगवान् पर विश्वास बढ़ गया... गड्डों में सडकें बिछी हैं और यातायात नियम क्या होते हैं शायद ही कोई जानता हो ...
@ Udan Tashtari
ReplyDeleteघर से निकलता हूँ तो यातायात देख कर घबराहट तो होने लगती है पर यहाँ के नियमपालक नागरिकों पर इतना विश्वास रहता है कि यातायात धीरे ही सही पर बढ़ता रहेगा।
@ M VERMA
दूसरे चित्र को देखें तो कारें चीटियों जैसी दिख रही हैं। एक महासमुद्र में उतरने जैसा अनुभव होता है पर अन्ततः घर पहुँच कर किनारा मिल ही जाता है।
@ मनोज कुमार
मुख्य और उपसड़कें जीवन की भी हैं, निर्णय वहाँ भी लेना पड़ता है कि धीरे चलें सबके साथ या बढ़ जायें उपसड़कों पर।
@ संतोष त्रिवेदी ♣ SANTOSH TRIVEDI
यहाँ पर इतनी गाड़ियाँ हो गयी हैं कि पार्किंग भी एक समस्या बन गयी है। हर जगह जहाँ यातायात सम्भव नहीं है, गाड़ियाँ खड़ी कर दी जाती हैं।
@ राम त्यागी
आभारी होता बनता है, गन्तव्य तक जो पहुँचाते हैं जो आपको।
@ अशोक बजाज
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ Ratan Singh Shekhawat
अब तो पुलिस वालों ने भी इस बात को स्वीकृति दे दी कि जिसे जल्दी है, वह या तो कुछ गड़बड़ करेगा या अधिक पैसे वाला होगा।
@ डॉ॰ मोनिका शर्मा
नगर के बाहर खाली सड़कों पर जब गति से गाड़ी चलता देखता हूँ तब नगर की गतिहीनता कचोटने लगती है।
@ निशांत मिश्र - Nishant Mishra
जीवन में तो मुख्यमार्ग मं ही चल रहा हूँ, गन्तव्य ज्ञात है और वहाँ पहुचने की शीघ्रता भी नहीं है। यातायात अब नदी के प्रवाह जैसे लगने लगा है, जैसे जैसे मात्रा बढ़ती है, विस्तार फैल जाता है।
@ देवेन्द्र पाण्डेय
जब अवरूद्ध यातायात में इतना समय व्यर्थ होता दिखता है तो कुछ उपयोगी निकालने का प्रयास तो निपट मानवीय ही है। वही कर डाला है बस।
@ अनूप शुक्ल
ReplyDeleteछोटे नगर का अपना महत्व है क्योंकि उसे समझे बिना बड़े नगर का यातायात प्रवाह समझा ही नहीं जा सकता है।
@ अभिषेक ओझा
बहुत भुक्तभोगी हैं, प्रतीक्षा रहेगी।
@ सम्वेदना के स्वर
सारी मारामारी तो इन्ही रास्तों को लेकर है पर अच्छे सारथी मिलते कहाँ हैं।
@ सतीश सक्सेना
बंगलोर में वह सुविधा चलती तो है पर बादल छाये रहने के कारण व्यवधान बना रहता है।
@ विष्णु बैरागी
लोग समझ नहीं पाते हैं कि उनके द्वारा बनाया हुआ अलग ढाँचे का घर किसी का पथ-प्रदर्शन कर रहा है।
@ Rahul Singh
ReplyDeleteराहों का दिग्भ्रम ही सोचने को उकसाता है। छोटे नगर में रहकर यह विचारक्रम संभव न होता। एक सीधी राह पकड़कर मधुशाला ही मिलेगी यहाँ पर, बल गोवा की तुलना में थोड़ा सा अधिक चलना पड़ेगा।
@ PD
चेन्नई में एक ओर समुद्र है अतः उस दिशा से यातायात आने की कोई सम्भावना नहीं है। संगीत ही फसने की पीड़ा कम कर पाता है।
@ ashish
अभी कम से कम डेढ़ घंटे लगेंगे। जहाँ पहुंच जाईये, गाड़ियों का महासमुद्र दिखायी पड़ता है।
@ निर्मला कपिला
यहाँ पर 70,000 ऑटो वाले हैं औऱ उनमें से कई बड़े उत्पाती हैं। कई बार नये यात्रियों को घुमाकर ले जाने की घटनायें सुनने में आती हैं। प्रिपेड ऑटों से कुछ राहत है।
@ ajit gupta
ऑटो वाले यहां पर सारे रास्ते जानते हैं। पैसा पहले से पक्का कर के बैठेंगे तो तुरन्त पहुँचा देंगे, मीटर से चलने पर आप को घुमाते रहेंगे।
आपके कुछ लेख आज पढ़े , बंगलोरे की शैर, वर्धा की जानकारी और भी रचनात्मक सन्दर्भ जो कम लिखने और अधिक कहने के प्रयोग से लबालब हैं यानि संक्षिप्तता तेरा ही नाम विद्वता है . कई स्थानों पर तो पढ़ते ही जैसे चित्र उभरने लगते हैं
ReplyDelete@ Arvind Mishra
ReplyDeleteलौहपथ में भी यातायात अवरुद्ध होता है पर चाल इतनी धीमी नहीं होती है। विहगावलोकन होता ही रहेगा।
@ राज भाटिय़ा
अब तो नेविगेशन का ही सहारा है। नये नगर में तो कोई सहारा भी नहीं।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
उपसड़कों का ही भरोसा है नहीं तो नगरीय यातायात ध्वस्त हो जायेगा।
@ नरेश सिह राठौड़
यहाँ पर भी कई क्रेन घूमती रहती हैं, कहीं पर भी खड़े वाहनों को उठाकर ले जाती है। स्थिति फिर भी वैसी ही है।
@ राजेश उत्साही
बस में तो मुख्य सड़कें ही दिखती हैं, उपसड़कों का आनन्द नहीं आ पाता है। ब्लॉग का नाम संस्कृत में अवश्य है पर अर्थ संस्कृति और उत्साह का पर्याय है।
@ cmpershad
ReplyDeleteबढ़ते नगरों में जटिलता भी बढ़ती जाती है। यही तो हमारी विडम्बना है कि हम नगर का आकार बढ़ा रहे हैं, यातायात की सुविधा की बलि देकर।
@ ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
मोड़ के मकान बताते हैं नगर का हाल।
@ उस्ताद जी
बहुत धन्यवाद, अन्त में मंजिल एक ही है।
@ G Vishwanath
आपने बंगलोर को बढ़ते हुये देखा है। अब 10 मिनट की जगह 60 मिनट लग रहे हैं वही दूरियाँ तय करने में।
आपने बहुत अच्छा किया कि रेवा ले ली। मुझे तो बहुत प्यारी लगी यह गाड़ी। मौका मिला तो खरीदी जायेगी।
@ mukti
जीवन में सारथी यदि योग्य हो तो बहुत शीघ्रता से गन्तव्य तक पहुँचा जा सकता है।
@ mahendra verma
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ अरुण चन्द्र रॉय
छोटे नगरों के प्रतीक अब बड़े नगरों में नहीं दिखते हैं। बड़े याद आते हैं वो।
@ Shekhar Suman
बहुत धन्यवाद आपका।
@ शोभना चौरे
यातायात की आपाधापी में लाभ उठाने वालों की कमी नहीं रहती है।
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
नगरों के निर्माताओं को यातायात का ध्यान पहले से रखना पड़ेगा और वर्तमान में उसे सुलझाना पड़ेगा, तब होगा विकास।
@ हास्यफुहार
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ abhi
यदि आप सड़कों में भी आनन्दित रहने के कारण ढूढ़ सकते हैं तो यातायात की गति आपको विचलित नहीं कर सकती है।
@ दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi
छोटे नगरों में सम्बन्धों के व्यक्तिगत होने का प्रभाव यातायात में भी दिख जाता है।
@ ZEAL
वाहनों के साथ वायु प्रदूषण भी आ जाता है।
@ दिगम्बर नासवा
कुछ नगरों में मकान ढूढ़ना बहुत सरल होता है, कई नगरों में कठिन। दुबई तो फिर भी विकसित है।
@ ALOK KHARE
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद।
@ डॉ. नूतन - नीति
बंगलोर का वातावरण बड़ा ही मनोहर है। यातायात अवरुद्ध होने का अधिक कष्ट नहीं होता है।
@ dhiru singh {धीरू सिंह}
छोटे नगरों में एक ही सड़क होती है, उसी से हर जगह पहुँचा जा सकता है। इतना समय नहीं लगता होगा।
@ चैतन्य शर्मा
आपको ऐसे नगर और तकनीक लानी है जिससे यह समस्या न हो।
@ क्षितिजा ....
कानपुर जाता रहता हूँ, आपकी पीड़ा समझ सकता हूँ।
@ गिरधारी खंकरियाल
ReplyDeleteब्लॉग पढ़ने के लिये धन्यवाद। प्रयास तो यही करता हूँ कि विषय को संक्षिप्त रखूँ और विषयान्तर भी न हो। लेखन अनुभव और पठन से ही आता है तो साधनारत हूँ।
कभी बैंगलोर एन नगर हुआ करता था..अब तो महानगरों से भी बुरी अवस्था को प्राप्त हो गया है...
ReplyDeleteहमेशा मानती हूँ कि कभी महानगरों में बसने/ रहने की नौबत न बने..
मै भी बहुत छोटी थी तब बंगलौर गयी थी .... ऐसे मम्मा ने बोला है ... याद नहीं है कुछ तस्वीरे देखकर यद् करती हू कही ये वही शहर है या नहीं !
ReplyDeleteप्रवीण जी आपकी पोस्ट पढ़कर , मन सोचने को विवश हो गया , काफी जीवंत है आपका रचना कौशल ...शुभकामनायें
ReplyDeletepravin ji,,,badiya metropolitin sansmarm..........badhaiiiiiiiiii
ReplyDeleteइस पोस्ट ने तो दुखती रग छू ली...मुंबई वालों से ज्यादा ट्रैफिक का दर्द और कौन जानेगा..:(
ReplyDeleteBade shaharon men bhee aksar hume wahee marg yad rahate hain jin par roj ka aana jana ho bakee to hum pooch pooch kar kam chala lete hain.
ReplyDeleteWaise aap to badee khoobsurat nagari ke wasee hain. nagar kee sadken aur unke yatayat par pooraa alekh kamal hai. badhaee.
@ रंजना
ReplyDeleteयहाँ की जलवायु के कारण बंगलोर के प्रति बहुत लोग आकर्षित हुये। यही इसके यातायातीय पतन का कारण बना। विकास प्रारम्भ करना सरल दिख सकता है पर उसे सम्हाल पाना कठिन है।
@ Chinmayee
आप आईये, बहुत कम स्थान ही पहचान पायेंगी आप।
@ केवल राम
अवरुद्ध यातायात में भी विचारों की गति बनी रहे, यही ईश्वर से प्रार्थना है।
@ योगेन्द्र मौदगिल
बहुत धन्यवाद, चतुर्दिक यही स्थिति होगी देश में।
@ rashmi ravija
मुम्बई में तो उपनगरीय रेल सेवा है, उसके माध्यम से बहुत यातायात निकल जाता है। यहाँ अभी मेट्रो आ रही है, वह भी पहले दिन से ही भर कर चलेगी।
@ Mrs. Asha Joglekar
ReplyDeleteबंगलोर बड़ा सुन्दर नगर है, यदि कहीं कुछ खटकता है धीमा सरकता यातायात। ज्ञानी कहते हैं कि आने वाले तीन वर्षों में यदि यातायात नहीं सुधरा, आकर्षण कम होने लगेगा यहाँ का।
ट्राफिक समस्या तो हर जगह बदती जा रही है. बहुत ही अच्छी जानकारी मिली यातायात के बारे मे इस शहर के वास्ते. आभार
ReplyDeleteइस पोस्ट के मद्देनज़र आपको नज़र है ग़ालिब का यह शेर-
ReplyDeleteहैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़े बयां और
आपको पढने के लिये विचारों की एक नदी अपने (पाठक के) भीतर भी बहनी चाहिये।
@ उपेन्द्र
ReplyDeleteयातायात की समस्या तो सुलझानी पड़ेगी, नहीं तो महानगरों का स्वरूप बिगड़ जायेगा।
@ विनोद शुक्ल-अनामिका प्रकाशन
आप जैसे पाठक हैं तो अच्छा लिखने का उत्साह बना रहता है।
दीपावली के इस पावन पर्व पर ढेर सारी शुभकामनाएं
ReplyDeletewish u a happy diwali and happy new year
ReplyDelete@ deepakchaubey
ReplyDeleteआपको भी बहुत बहुत शुभकामनायें।
@ anklet
आपको भी बहुत बहुत शुभकामनायें।