किसी से आपको अपने शारीरिक बल की तुलना करनी है, उसके द्वारा निचोड़े कपड़े को निचोड़ें, यदि कुछ जल निकले तो जान लीजिये कि आपका बल अधिक है। बचपन में यह एक साधन रहता था खेल का और बल नापने का। कुछ दिन पहले पुत्र महोदय को हमसे शक्ति प्रदर्शन की सूझी तो यह प्रकरण याद आया, साथ ही यह भी याद आया कि पहले अपने कपड़े हम स्वयं ही धोते थे।
स्वयं नहाना सीखने के कुछ दिन बाद ही हाथ में पहलवान साबुन हुआ करता था और अपने छोटे वस्त्रों को धोने का उत्तरदायित्व भी। नहाने के पहले बनियाइन, शर्ट, हॉफ पैण्ट और नहाने के बाद शेष वस्त्र। हाथों का व्यायाम, शीतल जल से स्नान और अन्त में बल परीक्षण। वस्त्र भी इतना प्यार पा प्रसन्न, उसी दिन सूख कर अगले दिन शरीर ढक लेने को प्रस्तुत। दो जोड़ी वस्त्रों में कटता, बढ़ता जीवन। अतिरिक्त वस्त्र वर्षा या अन्य अवसरों में ही प्रयोग में आ पाते थे।
छात्रावास में सारे कपड़ों को बाहर से धुलवाने की सुविधा थी पर धुलाई का पैसा बचाने के लिये, कम वस्त्रों से काम चलाने के लिये और शरीर का स्वास्थ्य बनाने के लिये कपड़ों से हमारा आत्मीय सम्बन्ध बना रहा। चद्दरें ही दी जाती थीं धुलने के लिये पर यदि रौ में आ जाते तो किसी रविवार को उनको भी धो डालने का उत्साह था हम लोगों में। हम मित्रों के लिये कपड़े धोते धोते लन्तरानी मारने का समय सबसे आनन्द देने वाला होता था, वहाँ अनुशासन की बयार नहीं पहुँच पाती थी। आई आई टी में भी हम अपनी मस्ती में अपने कपड़े धोते रहे, किसी उपसंस्कृति में बहे बिना।
विवाह कुछ पाने और बहुत कुछ खो जाने का नाम है। जहाँ एक ओर कपड़ों के प्रति हमारी आत्मीयता का गला घोंट कर उसे वाशिंग मशीन में डाल दिया गया वहीं दूसरी ओर रहा सहा समय नौकरी खा गयी। व्यस्तता और सुख के नाम पर उन लघु-विनोदों की तिलांजलि दे बैठे हम। अब तो वॉशिंग मशीन के अन्दर, कभी हमारे हाथों का स्नेह-स्पर्श पाये कपड़े, अनमने से धुलते और निचुड़ते रहते हैं। कपड़े की संख्या बढ़ जाने से, उनके प्रति रही सही आत्मीयता भी बँट गयी।
बंगलोर में अब कपड़ों की धुलाई एक बहुत बड़ा व्यवसाय बन चुका है। स्वयं अपने हाथों से धोने की बात तो दूर, आई टी के महाशयों के पास इतना भी समय नहीं है कि वाशिंग मशीन में ही धोकर प्रेस कर लें। सुबह पति देव निकलते हैं, पत्नी, बच्चे, कपड़े और समान की सूची लेकर। सबको एक एक कर छोड़ते हुये और सायं पुनः सबको एक एक कर लेते हुये।
बंगलोर में कार्यरत विलेज लॉन्ड्री सर्विस के सर्वेसर्वा और भारतीय प्रबंधन संस्थान से निकले श्री अक्षय मेहरा से जब इस क्षेत्र की संभावनायें सुनी तो गांधी और विनोबा जैसे नेताओं को न पालन करने वाले महान जन समूह की शक्ति और उस पर आधारित अर्थतन्त्र का आभास हुआ। वर्धा के आश्रमों की अपना कार्य स्वयं करने की परम्परा बंगलोर में ढहती दिखी।
अभी कुछ दिन पहले रेलवे के कार्य से एक कपड़े धोने वाली कम्पनी में गया, अन्तर्राष्ट्रीय मानकों और गुणवत्ता को पछाड़ती उस कम्पनी में एक शर्ट की धुलाई 200 रु में होती है। मेरे बचपन का कार्य जब इतना मँहगा हो गया है तो सोचता हूँ कि अपने कपड़े अब ढंग से धोऊँ अन्तर्राष्ट्रीय मानकों से और अपने शारीरिक और आर्थिक स्वास्थ्य को एक और अवसर प्रदान करूँ।
छात्रावास में सारे कपड़ों को बाहर से धुलवाने की सुविधा थी पर धुलाई का पैसा बचाने के लिये, कम वस्त्रों से काम चलाने के लिये और शरीर का स्वास्थ्य बनाने के लिये कपड़ों से हमारा आत्मीय सम्बन्ध बना रहा। चद्दरें ही दी जाती थीं धुलने के लिये पर यदि रौ में आ जाते तो किसी रविवार को उनको भी धो डालने का उत्साह था हम लोगों में। हम मित्रों के लिये कपड़े धोते धोते लन्तरानी मारने का समय सबसे आनन्द देने वाला होता था, वहाँ अनुशासन की बयार नहीं पहुँच पाती थी। आई आई टी में भी हम अपनी मस्ती में अपने कपड़े धोते रहे, किसी उपसंस्कृति में बहे बिना।
बंगलोर में अब कपड़ों की धुलाई एक बहुत बड़ा व्यवसाय बन चुका है। स्वयं अपने हाथों से धोने की बात तो दूर, आई टी के महाशयों के पास इतना भी समय नहीं है कि वाशिंग मशीन में ही धोकर प्रेस कर लें। सुबह पति देव निकलते हैं, पत्नी, बच्चे, कपड़े और समान की सूची लेकर। सबको एक एक कर छोड़ते हुये और सायं पुनः सबको एक एक कर लेते हुये।
बंगलोर में कार्यरत विलेज लॉन्ड्री सर्विस के सर्वेसर्वा और भारतीय प्रबंधन संस्थान से निकले श्री अक्षय मेहरा से जब इस क्षेत्र की संभावनायें सुनी तो गांधी और विनोबा जैसे नेताओं को न पालन करने वाले महान जन समूह की शक्ति और उस पर आधारित अर्थतन्त्र का आभास हुआ। वर्धा के आश्रमों की अपना कार्य स्वयं करने की परम्परा बंगलोर में ढहती दिखी।
अभी कुछ दिन पहले रेलवे के कार्य से एक कपड़े धोने वाली कम्पनी में गया, अन्तर्राष्ट्रीय मानकों और गुणवत्ता को पछाड़ती उस कम्पनी में एक शर्ट की धुलाई 200 रु में होती है। मेरे बचपन का कार्य जब इतना मँहगा हो गया है तो सोचता हूँ कि अपने कपड़े अब ढंग से धोऊँ अन्तर्राष्ट्रीय मानकों से और अपने शारीरिक और आर्थिक स्वास्थ्य को एक और अवसर प्रदान करूँ।
:-) very interesting post!!!
ReplyDeleteमैं तो अब तक गृहणियों द्वारा बचाए गए धन का लेखा- जोखा देख रही हूँ ...कपड़े धोना इतना महंगा !!
ReplyDeleteमशीन से काम तो बहुत हल्का हो जाता है....!
बड़ा मंहगा बताया जी २०० रुपये में शर्ट...की धुलाई.
ReplyDeleteखैर, वक्त ऐसा बदला कि अब इसमें न धोयें तो काम भी न चले.
अच्छा आलेख एवं चिन्तन.
एक अछूते से विषय पर उत्तम पोस्ट.
ReplyDeleteमैं अपने कपड़े खुद ही धोना पसंद करता हूँ. घर में कपड़े हाथ से ही धुलते हैं पर वाशिंग मशीन के आने के आसार नज़र आ रहे हैं:)
कपड़े धोने के विषय पर श्रीमती जी से अक्सर बहस हो जाते है. मैं हफ्ते भर के कपड़े एक साथ धोना पसंद करता हूँ. श्रीमती जी रोज़ के कपड़े उसी रोज़ धोकर छुट्टी पाना प्रिफर करती हैं. उन्हें गंदे कपड़े हफ्ते भर तक एक कोने में रखे देखना सुहाता नहीं.
औफ़िस में ज्यादातर लोग यह मानते हैं की यदि मैं अपने कपड़े अभी भी खुद ही धोता हूँ तो मेरे शादीशुदा होने का कोई मतलब नहीं है.
एक शर्ट की धुलाई 200 रुपये! इतने में तो बिग बाज़ार में एक चालू शर्ट आ जाती है!
कपड़े धोना अच्छा स्ट्रेस बस्टर है. आदमी को कम-से-कम अपने अन्तःवस्त्र तो खुद ही धोने चाहिए. इतना भी नहीं करें तो फिर क्या रह जाता है?
कपड़े धोना और आटा लगाना, इन दो कामों के बदले मैं हमेशा एसे काम खुशी खुशी किया हूँ जो और लोगों को अपेक्षाकृत कठिन लगते हों ।
ReplyDeleteवे दिन भी कितने सुन्दर थे!
ReplyDeleteहमने भी आपकी ही तरह कपड़ों से हमेशा आत्मीयता रखी , गांव में बचपन में कंधो पर मटके रखकर पानी लाना होता था अत : कपडे माँ से धुलवाने के बजाय कुँए पर जाकर खुद धोना पानी ढ़ोने के बजाय ज्यादा सुविधाजनक लगता था बाद में छात्रावास में यह अनुभव लगातार काम आया और वर्षों तक कपड़ों से आत्मीयता बनी पर पत्नी के ज्यादा हस्तक्षेप के बात कई वर्षों तक हम कपड़ों की धुलाई से दूर हो गए |
ReplyDeleteलेकिन तीन साल पहले एक दिन गाँव प्रवास के दौरान कपड़ों से आत्मीयता फिर जाग उठी और अपने कपड़ों के साथ पिताजी के कपडे भी भिगो डाले ढ़ोने को , पर ये क्या थोड़ी देर में ही शरीर टें बोल गया , बैठकर पुरे कपड़ों पर साबुन भी न लगा पाए और कपड़ों ने हमें अपनी शारीरिक क्षमता की औकात याद दिला दी , पर उस दिन से फिर निश्चय किया कि अब कपड़ों से आत्मीयता हमेशा रखी जाएगी जो आज तक खुद हाथ से (बिना वाशिंग मशीन) कपडे धोने के रूप में वापस चालू है |
बड़े महंगे मोल धुल रहे हैं कपड़े.......इसीलिए अब कपड़ों से भी पहली जैसी अनमोल आत्मीयता कहाँ रही है.......? सोच रही हूँ यह भी एक विषय हो सकता है....! जीवन के बदलते मूल्यों को समझने का.... विचारणीय पोस्ट ..बधाई
ReplyDeleteहिंदी अखबार "हिंदुस्तान" में रविश कुमार ने ब्लॉग चर्चा में आज आपके इस ब्लॉग की चर्चा की है |
ReplyDeleteआपके ब्लॉग की अखबार में चर्चा होने की खुशी में बधाइयाँ और शुभकामनाएँ |
नहाने के बाद शेष वस्त्र-बहुवचन में! इस सब को देखते हुये लगता है कि महिलाओं की प्रोडक्टिविटी कितनी अधिक है...
ReplyDeleteइस मामले में तो हम परम आलसी हैं। अकेले रहने को मिलता है तो जब तक आखिरी धुली प्रैस की हुई कपड़ों की जोड़ी रहती है, सोचते भी नहीं।
ReplyDeleteलेकिन दो सौ रुपये? वाकई श्रम की कीमत समझने लगे हैं हम।
बहुत सी ऐसी बातें है जिनकी और लौटने का मन करता है पर फिर समय के साथ बहना भी है - बस थोडा सामंजस्य बिठा कर चलें :)
ReplyDeleteअति सुन्दर. मेरे भतीजे ने (IIT चेन्नई का स्नातक) जो अमरीका से एम् एस कर लौटा है, बता रहा था की वहां लोग एक जोड़ी कपडे ५/६ बार से अधिक नहीं पहनते.
ReplyDeleteअंत तक रुचिकर ...कपडे धोने की याद दिला दे ! साभार
ReplyDeleteinteresting post.......
ReplyDeleteaapne to spa kee baat kardee .
किसी भी सामान्य से विषय को अपनी शैली से रोचक बना देने का अनूठा गुण है आपमें.बहुत खूब कहा है.अच्छा लगा आपका चिंतन.
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा पोस्ट पढ़ के ... और आश्चर्य हुआ २०० रुपये मैं शर्ट धुलाई... इतने मैं तो नई शर्ट आजाएगी ... :)... सिर्फ इतना कहूँगी की ये तो शुरुआत है ... :))
ReplyDeleteघर परिवार के श्रम के ऐसे कितने ही विषय हैं जो हमें पहले परिवार से जोडते थे लेकिन अब वे सब व्यवसाय बन चुके हैं। महिला श्रम का आकलन करना हो तो ऐसे ही कार्यों से किया जा सकता है। आपने बचपन की याद दिला दी जब दो जोडी कपड़ों को कैसे सहेज कर रखा जाता था और लोगों की नजरों में एकदम अमीर दिखायी देते थे। अच्छा आलेख।
ReplyDeleteकपड़े धोते-धोते आपने हमारे मन को धो दिया! पता नहीं ,इस शहरी ज़िन्दगी में हम कितने मैले हो गए!ख़ैर कपड़ों के बहाने आपने उनमें भी प्राण डाल दिए.कपडे भी अपने को धन्य समझेंगे,उनके प्रति ऐसी श्रद्धांजलि दुर्लभ है !
ReplyDeleteअन्तर्राष्ट्रीय मानकों और गुणवत्ता को पछाड़ती उस कम्पनी में एक शर्ट की धुलाई 200 रु में होती है।
ReplyDeleteदरअसल ये अंतराष्ट्रीय मानक और गुणवत्ता आधारित धुलाई शर्ट के साथ-साथ और भी बहुत कुछ धोती है इसलिए ये महंगा पड़ता है ..मसलन शर्ट पहनने वाले की इंसानियत,ईमानदारी,निष्ठां इत्यादि को भी ये अंतराष्ट्रीय मानक और गुणवत्ता धो डालती है...इस अंतराष्ट्रीय मानक और गुणवत्ता की ही देन हैं ये शरद पवार और मनमोहन सिंह जी जैसे गुणवत्ता आधारित उत्पाद जिससे देश और समाज अंतराष्ट्रीय मानकों और गुणवत्ता आधारित विकास कर रहा है और हर व्यक्ति चोरी और बेईमानी के बगैर जिन्दा ही नहीं रह सकता है .... आने वाले दिनों में ये अंतराष्ट्रीय मानक और गुणवत्ता से हर इंसान, इंसान की जगह हैवान होने वाला है क्योकि हमारे देश में ये मानक शिक्षा को भी धोने वाली है ...आप एक अच्छे इंसान हैं जो उस कंपनी के निरिक्षण पर गए आपसे आग्रह है की आप एक दिन उस कंपनी से धुलकर आये रेलवे के कपड़ों की धुलाई की गुणवत्ता की अचानक व्यक्तिगत रूप में निरिक्षण करें तब जाकर आपको पता चलेगा की यह कितना गुणवत्ता आधारित है ...इसके लिए मैं आपका सदा आभारी रहूँगा..इस काम में अगर मेरे सहयोग की जरूरत परे तो मैं कभी भी बेंगलोर आपने खर्चे पर पहुँच जाऊंगा अगर आप चाहेंगे तो
सबसे पहले तो आपको बहुत बहुत बधाई आज आपके बारे मे हिन्दुस्तान मे ब्लोग वार्ता मे पढा ……………अच्छा लगा……………आपके ब्लोग की चर्चा है उसमे।
ReplyDeleteबाकी वक्त के साथ सब बदलता है तो कपडे धोने के बारे मे क्या कहा जा सकता है।
प्रवीण जी फिर से एक लाजवाब पोस्ट, अच्छा लगा पढ़ना. हाँ ये भी सच है की एक जेंट्स रुमाल की धुलाई ४५ रूपये है. हमें तो कभी सरकारी खर्च पर भी धुलवाना हो (कभी सरकारी काम से पतिदेव बाहर हों) तब भी नहीं धुलवाते क्योंकि हमारा मन ये गवाही नहीं देता की एक रुमाल के लिए हम सरकार का ४५/ खर्च करें और रही कपड़े निचोड़ने की बात "किसी से आपको अपने शारीरिक बल की तुलना करनी है, उसके द्वारा निचोड़े कपड़े को निचोड़ें, यदि कुछ जल निकले तो जान लीजिये कि आपका बल अधिक है।" तो इसके जवाब में मैं ये कहूँगी की एक इन्सान नहीं मैं एक पूरा विभाग बता सकती हूँ जो कपड़े तो क्या मशीन से निचोड़ा हुआ नींबू भी दे देंगे तो रसा निकल देगी. दिमाग पर जोर डालिए, याद आया, अरे वही अपना आयकर विभाग (इनकम टैक्स). हा हा...... हा.....(ये बात किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं लिखी है सो अन्यथा न लें)
ReplyDeleteघरेलू और निजि कार्यों में बस यही काम मुश्किल लगता है जी। साफ-सफाई जितनी मर्जी करवा लो, लेकिन कपडे ना धुलवाओ :)
ReplyDeleteशारीरिक बल है ही नही नापें क्या :)
प्रणाम
हम ने भी एक बार नीचोडी थी मां की साडी... फ़िर बहुत मार पडी थी.... क्योकि वहां दिमाग लगना था... हमे ने ताकत लगा दी , ओर उस किमती साडी का क्या हाल हुआ होगा:) वेसा ही हाल हमारा हो गया था
ReplyDeleteये पोस्ट मैं जरा बच्चों को जोर-जोर से पढ़ कर सुनाने वाली हूँ...
ReplyDeleteजब छुट्टियां शुरू होती हैं...मेरा भाषण शुरू हो जाता है,'कम स एकं एक टी शर्ट तो धोना सीखो."
भाषण चलता ही रहता है...और छुट्टियां ख़तम हो जाती हैं.
जल्दी से टिप्पणी दे दू नहीं तो कही श्री मति जी की नजर इस पोस्ट पर पड गयी तो ... कल से मुझे ही धोने ना पड जाए हा हा हा....|
ReplyDeleteएक श्र्ट 200 रुपये मे? तो फिर हर बार एक नई शर्ट ही क्यों न खरीद ली जाये। लगता है बेटा बाप का दर्द समझने लगा है। शुभकामनायें।
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने...
ReplyDeleteपर यह कंपनी कौन सी है भाई,जो एक कपडे की धुलाई २०० रुपये लेती है ??
वैसे जब २०० रुपये की एक साधारण शर्ट नामी ब्रांड का ठप्पा लगते ही २००० की हो जाती है,तो यह इतना भी अविश्वसनीय नहीं..
अपना काम स्वयं करने का अनुशासन व्यक्तित्व में क्या जोडती है,जिन्होंने इसका अनुपालन किया है,वे ही जान सकते हैं..
‘स्वयं नहाना सीखने के कुछ दिन बाद ही हाथ में पहलवान साबुन हुआ करता था और अपने छोटे वस्त्रों को धोने का उत्तरदायित्व भी।’
ReplyDeleteअब कोई चिंता नहीं... सर्फ़ की खरीदारी में ही समझदारी है:)
वाह बढ़िया विषय्। एक बात तो साफ़ है कि बैंगलोर अब इतना मंहगा शहर हो गया कि वहां रहने की सोचना भी पागलपन है। मैं ने सुना है वहां आसानी नौकरानियां भी नहीं मिलतीं।
ReplyDeleteकपड़े धोने से हमारी कभी दोस्ती नहीं हो पायी। बचपन में एक बार माँ ने जोर दे कर कपड़े (सब कपड़ों की बात कर रहे हैं बेसिकस की नहीं) धोने को बैठा दिया था अगले घर जाने का डर दिखाते हुए और उसी दिन रात को हमें बुखार चढ़ आया, बस फ़िर क्या था, पिता जी ने अल्टिमेटम दे दिया कि मेरी बिटिया से ऐसे मेहनती काम न कराए जाए और हम ये जा और वो जा…।:)
हाँ शादी के बाद कपड़े भी धोने पड़े और प्रेस भी करने होते थे, शुरु शुरु में शौक था कि साथ में पतिदेव के कपड़े भी हमीं धोयें, पर जब जब धोये सर्दी बुखार साथ ले आये(हफ़्ते में एक बार)।प्रेस करने की भी पहले से आदत नहीं थी तो शादी में मिली सब साड़ियों पर प्रयोग हो गये…:) कोई जली, किसी का रंग पतिदेव की शर्ट से प्यार कर बैठा और सास ने कहा छोड़ो ये काम तुम बाई से ही करा लो, बाकी सब चकाचक है…॥:)
आपने तो मेरे अतीत और वर्तमान का बखान कर दिया। स्कूली दिनों में पूरे घर के कपडे बाहरमास प्रवाही नाले में धोता था। मित्रों का झुण्ड जाता था। जाने की उतावली होती थी और लौटने में नानी मरती थी। बिना सिर पैर की वे बातें अब कहॉं।
ReplyDeleteस्वयं वस्त्र प्रक्षालन के बहुत सारे लाभों को दरकिनार करते हुए हम उप संस्कृतियों के चंगुल में है . धन्यवाद पुरानी यादो को पुनः सजोने का मौका देने के लिए.
ReplyDeleteबाप रे! अच्छी धुलाई कर दी आपने एक अनधुले यानि अछूते विषय की.. और अंत में आलेख धुलकर इतना साफ निखरा है कि यह कहने को जी चाहता है कि लगता है कि हाथ से धुला है.. प्रवीण बाबू..मज़ा आ गया!!
ReplyDeleteप्रवीण जी! एकदम धुली धुलाई साफ सुथरी आत्मीय सी पोस्ट... हाथ के धुले कपड़े, माँ के हाथ के बुने स्वेटर, और ख़ुद से पसंद के कपड़े ख़रीदकर मुहल्ले के दर्ज़ी से सिलवाकर दशहरे और होली में पहनना.. एक साथ सब याद दिला दिया आपने..
ReplyDeleteहा हा हा मजेदार .... ये काम तो मेरे लिए आम है पर आपने बताया कि ये आम नहीं है , कही मेरे मशीन में धुले हुए वस्त्र अन्तर्राष्ट्रीय मानकों से मिलते है या नहीं.... कोई चार्ट है आपके पास :)
ReplyDelete--------
अन्तर्राष्ट्रीय मानकों से
कपड़े की संख्या बढ़ जाने से, उनके प्रति रही सही आत्मीयता भी बँट गयी।
ReplyDeleteबहुत खूब
ये आईआईटी तक तो खींच-खांच के अंत तक हम भी चादर और कुछ कपडे ही देते थे. पर पुणे में ये बंद हो गया... रु ४ में धुलाई के साथ आयरन. अब यहाँ आयरन खुद से कर लेते हैं. धुलना-सुखाना मशीन ही करती है. रु २०० थोडा ज्यादा नहीं है :) दो चार बार खुद ही धो के नयी शर्ट ना ले आयें.
ReplyDeleteदो जोड़ी वस्त्रों में कटता, बढ़ता जीवन।
ReplyDeleteवह दिन ज्यादा सुखकर थे . मैने भी लुफ़्त लिया है हमारे यहा तो अंर्त्वस्त्र स्व्यम धोना जरूरी था . बाकि मां धोती थी .
अब तो हम दूध के धुले हो गए..कपड़े तो पिताजी धोते थे।
ReplyDeleteबहुत कुछ याद आ गया कपड़े धोने के नाम पर, जब हम कुंवारे थे और घर से बाहर रहते थे तब हर रविवार हमारे लिये कपड़े धोने का ही दिन होता था, और पूरे सप्ताह के कपड़े धोने में कम से कम २-३ घंटे लगते थे। बहुत मशक्कत करी है, कपड़े धोने में । खैर अब तो पता ही नहीं लगता वाशिंग मशीन आने से, पर अब कपड़े फ़ैलाने में भी आलस आता है, लगता है कि जल्दी ही ड्रायर भी लाना पड़ेगा।
ReplyDeleteकपडे मनमाफिक साफ़ और सेहत का फायदा -पंथ एक दो काज !
ReplyDeleteधोने के मामले में अपन ज़रा कुछ ज्यादा ही काहिल हैं ...सो मुंह बंद रखने में ही भलाई है !
ReplyDeleteआज पहली बार आपके ब्लाग पर आना हुआ अरविंद मिश्र जी के ब्लाग पर आपकी और उनकी मुलाकात का विवरण पढ़ा।
ReplyDeleteकपड़ों की धुलाई की पोस्ट लगाकर तो जैसे आपने सबकी धुलाई कर दी। मैं भी अपने कपड़े बचपन से खुद ही धोता रहा हूं और आज भी धो रहा हूं। संयोग से मैं भी बंगलौर में ही हूं।
कभी मौका हुआ तो आपसे भेंट होगी। शुभकामनाएं।
यहाँ तो काफी कपड़ो की धुलाई हो चुकी है क्या इतनी धुलाई की वजह से यहाँ सब कुछ इतना साफ सुथरा सफ़ेद है :-)
ReplyDeleteविषय और लिखने के अंदाज दोनों बहुत अच्छा लगा अंत तक पढ़ने में रूचि बनी रही , भावना से भौतिकवाद तक |
@कपड़े की संख्या बढ़ जाने से, उनके प्रति रही सही आत्मीयता भी बँट गयी।
ये लाइन सबसे अच्छी लगी |
हम मित्रों के लिये कपड़े धोते धोते लन्तरानी मारने का समय सबसे आनन्द देने वाला होता था, वहाँ अनुशासन की बयार नहीं पहुँच पाती थी। आई आई टी में भी हम अपनी मस्ती में अपने कपड़े धोते रहे, किसी उपसंस्कृति में बहे बिना।
ReplyDeleteबहुत रोचक प्रस्तुति है ...बल प्रदर्शन की बात भी सटीक है ....आप सहजता से ही एक विचारणीय बात कह जाते हैं ...
कपड़ों के आवरण में ढकी सूक्ष्म चिंतन दृष्टि.
ReplyDeleteहम ने भी कपडे खूब धोए हैं ।
ReplyDeleteआजकल तो अवसर नहीं मिलता।
वाशिंग मशीन जो है।
पर एक बात याद आ गई।
गीले शर्ट या पैंट को निचोडने के बाद, हम आखरी बून्द हटाने के लिए उसे और जोर से निचोडते नहीं थे।
collar पकडकर, तीन या चार भार उसे जोर से झटका देते थे।
पानी की micro बून्दें हवा में उडते नजर आते थे।
कपडों मे शिकन भी कम हो जाते थे और कभी कभी हम शर्ट को हैंगर में लगाकर उस हैंगर को हम clothesline पर लटकाते थे।
कभी कभी शर्ट या पैंट शिकन के बिना सूख जाते थे और ironing की आवश्यकता भी नहीं होती।
एक और टिप:
कभी कभी कपडे जब ज्यादा हो जाते हैं और वाशिंग मशीन भर जाता है और कुछ कपडों के लिए जगह नहीं होती, तो उसे एक अलग बालटी में डालकर धोते हैं।
सर्फ़ से मिला हुआ पानी में उन कपडों को डुबाते हैं कुछ देर के लिए और बाद में खुद बालटी के अन्दर पैर रखकर लेफ़्ट राइट marching करते है!
बस दो मिनट में कपडे साफ़।
Added bonus: फ़्री में तलवे भी साफ़
यदि आपकी रेल्वे एक शर्ट धोने के लिए २०० रुपये देने के लिए तैयार है तो हम अपनी इंजिनीयरी त्याग कर hi-tech धोबी बनने के लिए तैयार हैं
कहाँ और किससे संपर्क करूँ?
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
हमेशा की तरह एक अछूते विषय को रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है आपने , प्रवीण जी , सच और सही को अभिव्यक्त किया है आपने ...!
ReplyDeleteशुभकामनायें
agar 200 rs me dhulai isse to behtar
ReplyDeleteuse & throw shirt istemal kare, 1 ya 2 roz bad badli, mere hisab se 100-150 ke beech me kam chalau shirt aa hi jati he,
interesting laga , badhai
रोचक लेख.
ReplyDeleteकल आपके ब्लॉग की चर्चा दैनिक हिंदुस्तान में पढ़ी.
बहुत ही अच्छे ढंग से आपके ब्लॉग के बारे में बताया गया था .
पढ़कर अच्छा लगा . आपकी इस उपलब्धि पर आपको बधाई .
बैंगलोर में इतनी महंगी धुलाई...हमें तो मालुम ही नहीं था...वैसे हम तो कोशिश करते हैं की कपड़े खुद ही धोयें लेकिन लौंडी में भी कपड़े देते हैं...
ReplyDeleteऔर कॉलेज के ज़माने में भी पहले सेमेस्टर मैंने भी पैसे बचाने के लिए कपड़े खुद धोने शुरू कर दिए थे ;)
बहुत अच्छी पोस्ट थी..
रुचिकर वर्णन
ReplyDeleteमिसफ़िट:सीधी बात
@ Anjana (Gudia)
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ वाणी गीत
गृहणियाँ कितना धन बचा लेती हैं, इसका आकलन बड़ा सरल है पर निष्कर्ष कुपाच्य हो जायेगा पुरुष के लिये।
@ Udan Tashtari
200 रु तो अधिकतम सीमा है, उसमें कई तरह के ट्रीटमेन्ट होते हैं। निश्चय है कि नेताओं और अभिनेताओं के ही होंगे। आप भी उसी श्रेणी में शीघ्र ही आने वाले हैं संभवतः।
@ निशांत मिश्र - Nishant Mishra
सच में कपड़े धोना तनावमुक्त होने का उपाय है। वाशिंग मशीन आने के बाद भी आत्मीयता न खोयें अपने कपड़ों से।
@ विवेक सिंह
मुझे तो यही दोनों कार्य सबसे कठिन लगते हैं।
दो सौ रुपये में खरीदी कमीज़ बस अभी धो-निचोडकर ही आ रहे हैं और आते ही आपका यह लेख दिख गया - सन्योग की बात है।
ReplyDelete@ विनोद शुक्ल-अनामिका प्रकाशन
ReplyDeleteअपने हाथों अपना काम,
जीवन का सीमित आयाम।
@ Ratan Singh Shekhawat
बीच में प्रवास के समय अपने कपड़े स्वयं धोये, बहुत अच्छा लगा था। कपड़े धोने को यदि व्यायाम के रूप में लिया जाये तो समय व्यर्थ होता भी न दिखेगा।
रवीश जी का प्रस्तुतीकरण बड़ा सुन्दर है। प्रसन्नता निसन्देह है पर साथ में आप सबका स्नेह और उत्साह भी सम्मलित है उसमें।
@ डॉ॰ मोनिका शर्मा
अब तो हर कार्य के लिये मशीनी विकल्प उपलब्ध हैं। कुछ तो समय बचाने के सार्थक उपयोग में आते हैं और कुछ सुविधाभोगी जीवनी के लिये।
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
घर के कामों की मात्रा व गुणवत्ता यदि आप देखें तो पायेंगे कि वही सेवायें बाजार में आपको बहुत ऊँचे दामों पर मिलेंगी अतः महिलाओं का योगदान कभी कम करके नहीं आँका जा सकता है।
@ मो सम कौन ?
कपड़े अधिक रहने से आलस्य भी आ जाता है और आलस्य में कहाँ प्रेम।
@ राम त्यागी
ReplyDeleteसमय की कमी और सुविधाओं की उपस्थिति हमें रोकती है वापस पुरानी जीवन शैली में जाने से।
@ P.N. Subramanian
भारत में पर एक जोड़ी 5-6 वर्ष तक चलाते देखा है हमने। सम्पन्नता और विपन्नता।
@ सतीश सक्सेना
बहुत बहुत धन्यवाद।
@ Apanatva
बहुत धन्यवाद आपका।
@ shikha varshney
कपड़े धोना सरल विषय नहीं है, कितना साबुन लगाना है, कितना रगड़ना है, कितना पानी डालना है और भी कई निर्णय लेने पड़ते हैं।
@ क्षितिजा ....
ReplyDelete200 रु में नेताओं और अभिनेताओं की शर्ट धोयी जाती हैं, हम लोगों के लिये नयी शर्ट ही आ जायेगी इतने में।
@ ajit gupta
साफ सुथरे और प्रेस किये गये कपड़े पहन कर तो दो जोड़ी में ही राजा बाबू होने का अनुभव हो जाता था।
@ संतोष त्रिवेदी ♣ SANTOSH TRIVEDI
कपड़े जैसा व्यवहार हम औरों से भी करने लगे हैं। यदि कपड़ों से आत्मीयता दिखायेंगे तो वही बाहर भी दृष्टिगत होगी।
@ honesty project democracy
जिनके पास अथाह पैसा है उनके लिये वैसे उत्पाद व सेवायें भी आ जाती हैं। उस कम्पनी में रेलवे की चादरों की धुलाई प्रक्रिया देखने ही गया था।
@ वन्दना
बहुत धन्यवाद आपका। रवीशजी ने बड़े रोचक ढंग से प्रस्तुत कर दिया है।
कपड़े भी हमारी आधुनिकता के शिकार हैं।
@ रचना दीक्षित
ReplyDeleteसच में, सबसे अधिक बलशाली तो वही हैं। निचुड़े निचुड़ाये में भी कितना निचोड़ लेते हैं।
@ अन्तर सोहिल
गर्मी में तो पानी से खेलना अच्छा लगता है पर जाड़े में कपड़े धोने में बड़ी समस्या लगती है।
@ राज भाटिय़ा
सच है, मँहगी साड़ियाँ निचोड़ने में बहुत से बेल बूटे निकल जाने की सम्भावना बनी रहती है।
@ rashmi ravija
बच्चों की आदत ऐसी पड़ गयी है कि अब तो उसके विरोध में भी 15 बिन्दु बता देते हैं।
@ नरेश सिह राठौड़
घर के कार्य के बटवारे में तो कपड़ा धोना तो पुरुष के माथे ही आयेगा, कब तक बचियेगा।
@ निर्मला कपिला
ReplyDelete200 रू में नेताओं और अभिनेताओं की ही शर्टें धुलती हैं। बेटा जब पिता का दर्द समझेगा तो कम से कम अपने छोटे वस्त्र तो धोने ही लगेगा।
@ रंजना
यदि आप अपनी सेवाओं को विशेष बता सकें तो उसके लिये लोग 10 गुना तक देने को तैयार हो जाते हैं।
@ cmpershad
पहलवान साबन की महक, मोटाई और रंग अभी भी याद है और बाद में उस पर नील करना भी।
@ anitakumar
विशेष वर्गों के मूल्य भी विशेष हैं। आप तो बच गयीं औरों ने पढ़ लिया तो आन्दोलन हो जायेगा भारत में।
@ विष्णु बैरागी
हमने भी नदी किनारे बैठकर बहुत कपड़े धोये हैं।
@ ashish
ReplyDeleteउपसंस्कृतियों के प्रभाव में आजकल सभी हैं। कुछ पूर्णतया, कुछ धीरे धीरे। इसी तुलना में अपना बचपन बहुत याद आता है।
@ चला बिहारी ब्लॉगर बनने
हाथ से ही टाइप किया है तब तो हाथ से ही धुला माना जायेगा। कपड़े सब पहनते हैं, तब तो यह आत्मीय विषय होना ही था।
@ सम्वेदना के स्वर
यह तो केवल अभी हुआ है कि हम कभी भी जाकर कपड़े खरीद लेते थे, नहीं तो पहले होली दीवाली ही कपड़े सिलते थे और सालों चलते थे।
@ Coral
चार्ट तो नहीं है पर अपने धोये कपड़ों का न्याय तो आप ही कर सकती हैं। 200 रु की धुलाई तो नेताओं और अभिनेताओं की होती है।
@ एस.एम.मासूम
अधिक संख्या होने से ध्यान भी बट जाता है।
@ अभिषेक ओझा
ReplyDeleteकभी कभी धन बचाने की सूझती थी तो सबसे पहला प्रयास कपड़ों पर ही होता था। बहुत आनन्द आता है वह सब सोच कर।
@ dhiru singh {धीरू सिंह}
यदि मस्तमौला जीवन जीना हो तो दो ही जोड़ी वस्त्र बहुत हैं।
@ देवेन्द्र पाण्डेय
तब तो यह पितृऋण भी चुकाना होगा।
@ Vivek Rastogi
मशीन आने पर लगा कि अब सुबह में कोई काम ही नहीं रह गया है।
@ Arvind Mishra
साथ में कम कपड़ों से धन की बचत भी।
@ प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI
ReplyDeleteधोने में ही भलाई है तो धो डालिये।
@ राजेश उत्साही
बड़ा अच्छा लगा कि आप आये। बचपन में कपड़ा धोना बड़ा याद आता है।
@ anshumala
यह धुलाई नहीं वरन मौलिक डिजाइन है ब्लॉग की, अधिकाधिक ध्यान पोस्ट पर रहने के लिये।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
बहुत धन्यवाद आपका, बात तो इतनी गम्भीर नहीं है पर विचारणीय अवश्य है।
@ Rahul Singh
सूक्ष्म दृष्टि तो कपड़ों में मैल देखने के लिये ही चाहिये बस।
@ G Vishwanath
ReplyDeleteआपकी दोनों विधियाँ लिख ली हैं, बहुत काम आयेंगी। कम्पनी में रेलवे की चद्दरें भी धुलती हैं, उसी का निरीक्षण करने गया था।
@ केवल राम
सबके जीवन से जुड़ा है कपड़े धोने का क्रम, वही पक्ष उभारा है बस।
@ ALOK KHARE
नेताओं और अभिनेताओं की थीं वो शर्टें, वे तो कितना भी दे सकते हैं।
@ विरेन्द्र सिंह चौहान
बहुत धन्यवाद आपको।
@ abhi
जब पैसे बचाने की सूझी तब खुद धोये और जब समय बचाने की सूझी तो धुलवाये।
@ गिरीश बिल्लोरे
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद।
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
प्रेम से निचोड़ देने से शर्ट का मूल्य और बढ़ जाता है।
बचपन में तो ये काम हम खुद ही करते थे ... पर आज कल मशीनों ने ले ली है ये जिम्मेवारी ... वैसे दुबई में तो अधिकतर ये काम आउट सोर्से ही होता है .... पर कीमत इतनी नहीं है जितना आप बता रहे हो ... २०० रूपये तो बहुत ज्यादा हैं ....
ReplyDelete-टिप्पणियों पर आपकी टिप्पणी भी बेमिसाल हैं और बेमिसाल हैं आप। आपके पूरे व्यक्तित्व, विचार और लेखन को नमन।
ReplyDelete@ दिगम्बर नासवा
ReplyDeleteखर्च करने वालों की कमी नहीं है, नेता और अभिनेता तो बहाना ढूढ़ते हैं पैसा खर्च करने का।
@ विनोद शुक्ल-अनामिका प्रकाशन
बहुत धन्यवाद। टिप्पणीकर्ता के चिन्तन का आभार प्रकटन है, प्रतिटिप्पणी।