शब्दों को जीकर दिखला देने से आपकी वाणी, पता नहीं, कितना कुछ बोलने से बच जाती है। चित्र शब्दों से कई गुना दिखा देते हैं, चरित्र शब्दों से कई गुना सिखा देते हैं। इतिहास साक्षी है कि महापुरुषों को यह तथ्य भलीभाँति ज्ञात था और यही कारण रहा होगा कि पूरे इतिहास में किसी भी प्रेस कांफ्रेंस के बारे में कोई भी प्रमाण नहीं मिलता है। आज तो अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिये आपको शब्दों का आधार लेना पड़ेगा, हो भी क्यों न, चित्र व चरित्र देखने का समय कहाँ है किसी के पास? श्रेष्ठता के मानक वक्तव्यों में ही छिपे हैं और उन मानकों को सर्व प्रचारित करते फिर रहे हैं, वक्तव्यों के देवता।
कोई समस्या हो, कोई विजय ध्वनि हो, कोई निन्दा प्रकरण हो या कोई तथ्य बाँटना हो, वक्तव्य देकर कार्य की इतिश्री हो जाती है। उस क्षेत्र से सम्बद्ध ख्यातिप्राप्त या सत्तासीन व्यक्ति का वक्तव्य उस विषय पर अन्तिम प्रमाण स्वीकार कर लिया जाता है। तर्कशास्त्र में शब्द प्रमाण की प्रभुता को सर्वत्र प्रतिपादित करते फिर रहे हैं स्वनामधन्य, वक्तव्यों के देवता। प्रत्यक्ष या अनुमान भी नतमस्तक हो खड़े हो जाते हैं जब ये देवता उस बारे में अपनी वाणी के स्वर खोल देते हैं। हमारी आस्था भी इतनी परिपक्व हो गयी है कि हमें भी गरीबों की गरीबी में 9 प्रतिशत की वृद्धि दर देख प्रसन्नता होने लगती है।
समाचार पत्रों की विवशता है या पाठकों की रसिकता, कोई भी समाचार बिना वक्तव्य पूरा ही नहीं लगता है। हर सामाचार के अन्त में एक पुछल्ला लगा रहता है वक्तव्यों का, अन्तिम अर्ध्य के रूप में, वक्तव्यों के देवताओं के द्वारा। बिना 'बाइट' किसी टेलीविज़नीय समाचार को सत्यता का प्रमाण पत्र नहीं मिलता। जब तक प्रसिद्धिप्राप्त देवगण अपना सौन्दर्यमुखीय व्यक्तित्व कैमरा के सामने प्रदर्शित नहीं कर लेते हैं, समाचार को नैसर्गिक निष्पत्ति नहीं मिल पाती है। तब जो भी शब्द उनके आभामण्डल से टपक जाये, सत्य की संज्ञा से पूर्ण हो जाता है।
भारत वैसे ही देवताओं की विविधता व अधिकता से ग्रस्त और त्रस्त है, उस पर नये दैवीय प्रतीकों का उदय। इस युग में हमारी बुद्धि को विकसित करने का और कोई उपाय मिले न मिले, पर इन वक्तव्यों को समझ सकने का प्रयास बुद्धि के विकास के लिये नितान्त प्रभावी हो सकता है। वक्तव्यों के प्रवाह से जल निकाल कर चर्चा में उड़ेलना और समय पड़ने पर प्रतिद्वन्दी के वक्तव्यों से उसी को भिगो देना बौद्धिक श्रेष्ठता के पर्याय हो गये हैं। देवता समुद्रमंथन में अमरत्व को प्राप्त हो चुके हैं पर ये आधुनिक कुलीन अपने विषवमन करने के गुण से सहस्त्र सर्पों को निष्प्रभ करने की क्षमता रखते हैं।
वक्तव्यों की अधिकता से उनका मूल्य कम होने लगा है। कोई अब उन पर विश्वास ही नहीं करता। चन्द्रकान्ता सन्तति के पात्रों से भी अधिक काल्पनिक हो गयी है उनकी छवि। क्या करें? किसको अवकाश पर भेजा जाये? वक्तव्यों को या उनके देवताओं को?
शब्दों को जीकर दिखलाने वालों के बारे में कब जानेगे हम?
"दुनिया को शास्त्र की भूख नहीं, आस्थापूर्वक की हुई कृति की आवश्यकता है।" - महात्मा गांधी
समाचार पत्रों की विवशता है या पाठकों की रसिकता, कोई भी समाचार बिना वक्तव्य पूरा ही नहीं लगता है। हर सामाचार के अन्त में एक पुछल्ला लगा रहता है वक्तव्यों का, अन्तिम अर्ध्य के रूप में, वक्तव्यों के देवताओं के द्वारा। बिना 'बाइट' किसी टेलीविज़नीय समाचार को सत्यता का प्रमाण पत्र नहीं मिलता। जब तक प्रसिद्धिप्राप्त देवगण अपना सौन्दर्यमुखीय व्यक्तित्व कैमरा के सामने प्रदर्शित नहीं कर लेते हैं, समाचार को नैसर्गिक निष्पत्ति नहीं मिल पाती है। तब जो भी शब्द उनके आभामण्डल से टपक जाये, सत्य की संज्ञा से पूर्ण हो जाता है।
भारत वैसे ही देवताओं की विविधता व अधिकता से ग्रस्त और त्रस्त है, उस पर नये दैवीय प्रतीकों का उदय। इस युग में हमारी बुद्धि को विकसित करने का और कोई उपाय मिले न मिले, पर इन वक्तव्यों को समझ सकने का प्रयास बुद्धि के विकास के लिये नितान्त प्रभावी हो सकता है। वक्तव्यों के प्रवाह से जल निकाल कर चर्चा में उड़ेलना और समय पड़ने पर प्रतिद्वन्दी के वक्तव्यों से उसी को भिगो देना बौद्धिक श्रेष्ठता के पर्याय हो गये हैं। देवता समुद्रमंथन में अमरत्व को प्राप्त हो चुके हैं पर ये आधुनिक कुलीन अपने विषवमन करने के गुण से सहस्त्र सर्पों को निष्प्रभ करने की क्षमता रखते हैं।
वक्तव्यों की अधिकता से उनका मूल्य कम होने लगा है। कोई अब उन पर विश्वास ही नहीं करता। चन्द्रकान्ता सन्तति के पात्रों से भी अधिक काल्पनिक हो गयी है उनकी छवि। क्या करें? किसको अवकाश पर भेजा जाये? वक्तव्यों को या उनके देवताओं को?
शब्दों को जीकर दिखलाने वालों के बारे में कब जानेगे हम?
"दुनिया को शास्त्र की भूख नहीं, आस्थापूर्वक की हुई कृति की आवश्यकता है।" - महात्मा गांधी
'हमारी आस्था भी इतनी परिपक्व हो गयी है कि हमें भी गरीबों की गरीबी में 9 प्रतिशत की वृद्धि दर देख प्रसन्नता होने लगती है।'
ReplyDeleteऔर फिर उन व्यक्तव्यों का क्या जो आम आदमी के दिल में अव्यक्त रह जाते हैं?
वर्धा से लौट कर आपका यह पहली पोस्ट है इसलिए हम इसे कार्य कारण सम्बन्ध से जोड़ने की स्वच्छन्दता ले लेते हैं ..
ReplyDeleteअपरंच बहुत मौलिक सृजनात्मक निबंध है यह आपका और कांफ्रेंस उपरान्त रिपोर्ताज भी ...
हम भारतीय भी एक साथ कई वैचारिक विरासतों को जीते हैं -
एक ओर तो शब्द ब्रह्म है फिर वहीं वचने का दरिद्रता ...
मैं आपका द्वंद्व समझ सकता हूँ ....
मेरा विचार है चरित्र स्वयं को ही अर्जित करना पड़ता है, किसी को वह उत्तराधिकार के रूप में नहीं मिलता। शायद इसीलिए पूजा चित्र की नहीं, चरित्र की होती है....बेहतर कहूँ तो होनी चाहिए |
ReplyDeleteदूसरी बात !!
घटिया चरित्र के लोगों को ऊंचे पदों पर पहुंचा दिया है और अच्छे काम को निपटाने का ठेका निम्न और घटिया चरित्र के लोगों को मिलने लगा है। सबसे बड़ी समस्या है सज्जनों की निष्क्रियता और बुद्धिजीवियों का यथास्थितिवादी रवैया है। इसीलिये ही तो ....श्रेष्ठता के मानक वक्तव्यों में ही छिपे हैं और उन मानकों को सर्व प्रचारित करते फिर रहे हैं, वक्तव्यों के देवता।
Very Impressive!
ReplyDeleteआप सभी को हम सब की ओर से नवरात्र की ढेर सारी शुभ कामनाएं.
आज के ये वक्तव्य देवता सिर्फ वक्तव्य झाड़ते है , सड़कों पर भीड़ इकट्ठा कर जोशीला भाषण झाड़ देंगे पर जब देश के लिए कभी प्राणोत्सर्ग की जरुरत पड़ेगी तब भी ये वक्तव्य झाड़ कर इतिश्री कर लेंगे |
ReplyDeleteदीधाँ भासण नह सरै,कीधां सड़कां सोर |
सिर रण में भिड़ सूंपणों,आ रण नीती और ||
सड़कों पर नारे लगाने व भाषण देने से कोई कार्य सिद्ध नहीं होता | युद्ध में भिड़ कर सिर देने की परम्परा तो शूरवीर ही निभाते है |
ऐसे तथाकथित महापुरुषों व देवताओं से प्रेरणा लेकर देश का युवा भी वक्तव्य वीर ही बनेगा !
जब देश को कभी अपनी युवा पीढ़ी के बलिदान की जरुरत पड़ेगी तो शूरवीरों की जगह उसे वक्तव्य वीर ही मिलेंगे !!
वक्तव्यों कि सार्थकता भी एक महत्व पूर्ण है | देवताओं को अवकाश पर भेज दीजिये ,सुंदर लेख इसके लिए आप प्रेस कांफ्रेंस कब करेंगे
ReplyDeleteयत्र तत्र सर्वत्र उपलब्ध हो ही जाते हैं वक्तव्यों के देवता। कोई सभा बिना उनके पूर्ण नहीं होती। तत्क्षण सभी उनकी ओर इस प्रशंसा/मंत्रमुग्धता के भाव से देखते हैं कि आगे से वे उनका अक्षरशः उनके उपदेशों का पालन करने वाले हों...मानों कल से उनके जीवन में आमूलचूल परिवर्तन आने ही वाला हो..भाग्य का वरण कर लिया हो उन्होने ..लेकिन हाय, सभागार से निकलते ही, जीकर दिखलाने की प्रतिबद्धता कपूर की तरह उड़ जाती है!
ReplyDelete.....सुंदर आलेख।
अब क्या वक्तव्य दिया जाय.... ?
ReplyDeleteअर्थपूर्ण या अर्थहीन ..... किसी भी व्यक्ति के शब्द बात के मायने ही बदल देते हैं.....वैचारिक पोस्ट
ise vatvriksh ke liye bhejen taki aur logon tak yah baudhhik prashn pahunche
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteनो वक्तव्य फ्रॉम माइ साइड!
ReplyDeleteप्रवीण जी, बहुत अच्छा विषय है लेकिन संक्षिप्त है। यह सच है कि आज कथनी और करनी में अन्तर बढ़ता जा रहा है। यदि हम प्रयास करें कि जिन शब्दों के सहारे अपने व्यक्तित्व को महान बनाते रहते हैं उन्हीं शब्दों को अपने अन्दर भी उतार लें और अपना प्रतिबिम्ब वैसा ही हो जैसा सत्य और आईने में होता है। वर्धा में आपसे संक्षिप्त मुलाकात हो पायी लेकिन आपसे और श्रीमती पाण्डेय से मिलना ( क्षमा चाह रही हूँ कि मैं उनका नाम नहीं जान पायी) बहुत अच्छा लगा। आप इतने युवा हैं कि अब मुझे आप लिखने में भी संकोच हो रहा है।
ReplyDeleteआप तो घूम भी आये और तभी यह बढ़िया सी पोस्ट भी...
ReplyDeleteसार्थक लेख ...व्यक्त करने के लिए संतुलित शब्दों का प्रयोग किया जाना चाहिए ...
ReplyDeleteआपने एक सूत्र वाक्य लिखा है - 'इतिहास साक्षी है कि महापुरुषों को यह तथ्य भलीभाँति ज्ञात था और यही कारण रहा होगा कि पूरे इतिहास में किसी भी प्रेस कांफ्रेंस के बारे में कोई भी प्रमाण नहीं मिलता है।' इसी बात को तनिक विस्तार देने की धृष्टता को अन्यथा बिलकुल मत लीजिएगा।
ReplyDeleteवक्तव्य केवल प्रेस कान्फ्रेन्स में ही नहीं दिए जाते। प्रेस कान्फ्रेन्स तो आयाजित करनी पडती है। वक्तव्यों के इन देवताओं का 'प्रेस वक्तव्य' या कि 'प्रेस विज्ञप्ति' अत्यधिक घातक और मारक औजार है। करना-धरना कुछ नहीं, बन्द कमरे से एक वक्तव्य जारी कर दिया।
'इतिहास में किसी भी प्रेस कांफ्रेंस के बारे में कोई भी प्रमाण नहीं मिलता है' को तनिक आगे बढाइए और तलाश करके बताइएगा कि 'प्रेस वक्तव्य' की घातक शुरुआत किसने, कहॉं और कब की।
धरती पर उन्मुक्त विचरण करने वाले, वक्तव्य के देवताओ के वक्तव्य , चाहे वो किसी परिप्रेक्ष्य में हो , हमारे लिए कुपाच्य हो चले है , बढ़िया आलेख .
ReplyDelete5/10
ReplyDeleteपठनीय
वक्तव्यों के प्रवाह से जल निकाल कर चर्चा में उड़ेलना और समय पड़ने पर प्रतिद्वन्दी के वक्तव्यों से उसी को भिगो देना बौद्धिक श्रेष्ठता के पर्याय हो गये हैं। देवता समुद्रमंथन में अमरत्व को प्राप्त हो चुके हैं पर ये आधुनिक कुलीन अपने विषवमन करने के गुण से सहस्त्र सर्पों को निष्प्रभ करने की क्षमता रखते हैं।
ReplyDeleteप्रवीण जी ! आज तो आपने वो लिख दिया जो न जाने कब से मेरे ज़हन में था पर मुझे उचित शब्द ही नहीं सूझ रहे थे लिखने के लिए .आपने बेहतरीन लिख दिखाया..
बहुत सार्थक और अच्छा लिखा है आपने ..बहुत आभार.
.
ReplyDeleteकथनी और करनी दोनों का अपना-अपना महत्त्व है। दोनों को करने की परिस्थितियाँ भिन्न होती है। सही समय पर सही का चुनाव कर लेना चाहिए।
सड़क पे कोई छटपटा रहा हो तो तत्काल मदद करनी चाहिए , लेकिन घर बैठे इन्टरनेट पर अच्छी कथनी का भी महत्पूर्ण योगदान है।
किसी की अच्छी करनी में , किसी की अच्छी कथनी निहित होती है।
आभार।
.
बहुत ही मार्के की बात उठाई आपने प्रवीण भाई ...दरअसल होता तो ये है शायद कि ये भी होते तो ये भी वाक्यों के प्राणी ही हैं मगर ..जब देखते हैं कि इनके वचनों को शास्त्र की भांति लिया दिया जा रहा है तो फ़िर सोचते हैं कि जब कथ्य ही पूज्य हो रहा है तो फ़िर देवतई में विलंब क्यों । हालांकि मुझे कभी नहीं लगा कि इन देवताओं के अलावा भी कभी किसी को गरीबों की गरीबी में ९ प्रतिशत की वृद्धि देख पाने का हुनर होता है ...
ReplyDelete‘तब जो भी शब्द उनके आभामण्डल से टपक जाये, सत्य की संज्ञा से पूर्ण हो जाता है।’
ReplyDeleteहां जी, अभी कुछ दिन पहले एक साहित्यकार की आभामण्डल से टपका शब्द बवाल मचा गया :)
जब इंसान की कथनी और करनी एक जैसी हो जायेगी तभी वो वक्तव्य का देवता बन जायेगा मगर कम से कम ऐसा इस युग मे तो संभव नही है……………विचारणीय आलेख्।
ReplyDeleteमुझे तो लगता है वक्तव्य बहुत हो चुके अब कुछ सार्थक हो जाये |ये वक्तव्य नहीं है |
ReplyDeleteबहुत दिनों से मन में घुमड़ रहा था |बचपन से स्कूली किताबो में ,पत्र पत्रिकाओ में , पढ़ते आये है ऐसा होना चाहिए ,वैसा होना चाहिए ऐसा नहीं होना चाहिए ?अगर ये शब्द" चाहिए "सायलेंट हो जाय ,तो अमरत्व से बाहर निकला जाय |
शब्दों के जाल में हमे
न उलझाइये
हमें ये मालूम है की
कविता रच देने से भूख मिटती नहीं ?
सशक्त आलेख |
सहमत।
ReplyDeleteDeeds speak louder than words.
But today, we have more words and statements than action from our politicians and leaders.
आज सचिन तेंतूलकर ने करके दिखाया।
अपने बल्ले के माध्यम से हम सबको संदेश दिया कि विश्व का सबसे अच्छा क्रिकेट खिलाडी वही है।
यही बात उसने अपने मुँह से या वक्तव्यों से कही होती तो हम विश्वास नहीं करते।
विश्वनाथन आनंद तो बिल्कुल बोलते ही नहीं। वे तो शतरंज की चालों के माध्यम से बोलते हैं।
कलमाडी बहुत बोलते हैं। अंत में उनके वक्तव्यों से कुछ नहीं हुआ।
जिन्होंने खेलों को सफ़ल बनाया, उनकी हम ने आवाज़ ही नहीं सुनी।
श्रीधरनजी की याद आती है। कोंकण रेलवे और दिल्ली मेट्रो प्रोजेक्ट की सफ़लता उनके कर्म से हुई, वक्तव्यों से नही.
मनमोहन सिंहजी मुझे अच्छे लगते हैं। कम बोलते हैं, ज्यादा सोचते हैं।
आपकी हिन्दी हम साधारण पाठकों के लिए क्लिष्ट लगती है।
हमें शब्दकोश का सहारा लेना पडता है।
कोई बात नहीं, हम शिकायत नहीं कर रहे हैं। यह आपका स्टाइल है। उसे कायम रखिए।
इस बहाने आज हम ने आधे दर्जन नये शब्द सीखे। मुझे विश्वास है कि आपको पढते पढते हम जल्द ही पंडित बन जाएंगे।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
वक्तव्यों के प्रवाह से जल निकाल कर चर्चा में उड़ेलना और समय पड़ने पर प्रतिद्वन्दी के वक्तव्यों से उसी को भिगो देना बौद्धिक श्रेष्ठता के पर्याय हो गये हैं।
ReplyDeleteबस यही हो रहा है...मौलिकता कहीं नहीं रह गयी है....वक्तव्य देने वाले भी नया क्या बोल जाते हैं.
... saarthak va prabhaavashaalee abhivyakti !
ReplyDeleteघटिया चरित्र के लोगों को ऊंचे पदों पर पहुंचा दिया है
ReplyDeletekisane humane hee to. Media ke tejee se hue vikas ka bhee isamen bada yog dan hai. Agar aapko prabhaw banana hai to waktawya ke bina chalega nahee. aur media.... TRP bhee to badhanee hai.
सच कहा है आपने बिना वक्तव्यों के समाचार भी अधूरे ही है |
ReplyDeleteबिना वक्त्व्य दिये अब कमेन्त भी क्या करें लेकिन पोस्ट इतनी विचारणीय है कि व्क्त्व्य देने से रह भी नही सकते। मुझे तो लगता है कि वक्त्व्य के सिवा लोगों के पास रहा ही कुछ नही अन्दर से खोखले और शब्द देखो तो आम आदमी का पेट भरने के लिये जैसे काफी हों। आपका चिन्तन प्रभावित करता है। शुभकामनायें।
ReplyDeleteआप की एक एक बात से सहमत हे जी, आप के इस अति सुंदर लेख के लिये धन्यवाद,
ReplyDeleteआपके विचारों से मैं पूर्णतः सहमत।...मैं तो आपकी भाषा पर मुग्ध हूं...शैली भी प्रभावशाली...वाह।
ReplyDelete@ M VERMA
ReplyDeleteआम आदमी के वक्तव्यों का कोई मोल नहीं। होता तो लोग कृतित्व के सहारे उनका मान रखते।
@ Arvind Mishra
वर्धा मे तीन पड़ाव थे। ब्लॉगर मीट, गांधी आश्रम व विनोबा आश्रम। यह पोस्ट ब्लॉगर मीट के किसी पहलू को छूते हुये भी नहीं लिखी गयी है, सारा का सारा प्रभाव गांधी व विनोबा के कर्मशील जीवन का है।
@ प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI
चित्र से मेरा आशय सही वस्तुस्थिति से है। जब चित्र ही बिगाड़ दिया जायेगा तो चरित्र किसका पहचाना जा सकेगा। घटिया लोग निसन्देह ऊपर पहुँच गये हैं पर उनके वक्तव्यों को ही मान देना कहीं हमारा बौद्धिक घटियापन तो नहीं।
@ संजय भास्कर
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Ratan Singh Shekhawat
भाषणीय नेतागिरी की तुलना वीरों से कहाँ कर दी आपने। दृढ़ता और कृतनिश्चय जिस दिन व्यक्तित्व में आ जाये बकर बकर छोड़ सब के सब काम में लग जायेंगे। जो कार्य कर स्वयं को सिद्ध करे, उसी को बोलने का अधिकार हो।
@ Sunil Kumar
ReplyDeleteसच कहा जाये तो स्वयं को भी घिरा पाता हूँ बहुधा। हर लिखे को पालन करने का प्रयास करता हूँ पर आंशिक अनुपालन ग्लानि भर देता है। मात्र वक्तव्य देता ही न रह जाऊँ अतः उसकी भर्त्सना कर रहा हूँ।
@ देवेन्द्र पाण्डेय
हमारा सारा ध्यान जब तक सभागृहों में रहेगा, हम स्वयं को छलते रहेंगे। जनप्रतिनिधि जन तक पहुँचे, स्वयं नहीं, अपने कर्मों से।
@ डॉ. मोनिका शर्मा
सच कहा आपने, ढोंगी के मुख से निकला सत्य भी झूठ लगता है।
@ रश्मि प्रभा...
आपका अधिकार है, कृति ले लें।
@ हास्यफुहार
बहुत धन्यवाद।
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
ReplyDeleteवक्तव्य न देना भी एक वक्तव्य है, इन परिस्थितियों में। उपाय मन बोलना है।
@ ajit gupta
श्रद्धा है उनका नाम। जहाँ शब्द जीने की बात हो, स्वयं के नाम भी बहुत मायने रखते हैं। आप से वर्धा में मिलकर मन प्रफुल्लित हो गया। आपका चित्र थोड़ा गम्भीर दिखता है। आप मुझे नाम से ही बुलायें, हो सकता है कभी आशीर्वाद बन कर लग जाये।
@ Akshita (Pakhi)
अभी घूमने पर तो पोस्ट लिखी ही नहीं।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
कर्म का आधार हो तो बड़बोलापन भी सध जाता है।
@ विष्णु बैरागी
विषय में गहराई भी है और अपरिमित मारक क्षमता। प्रेस वक्तव्य तो देश को पेरे पड़े हैं। इतिहास खंगालना पड़ेगा, उस प्रथम उत्पाती को जानने के लिये।
@ ashish
ReplyDeleteअति हो गयी है इस भोजन की, चलिये सामूहिक उपवास रखते हैं।
@ उस्ताद जी
बहुत धन्यवाद पढ़ने का।
@ shikha varshney
आपके मन के उद्गार मेरी लेखनी से यदि निकल ही गये तो मैं पारिश्रमिक देने को तैयार हूँ। आपका बंगलोर में स्वागत है।
@ ZEAL
महत्व दोनो का है पर बिना करनी, कथनी बेईमानी लगती है।
@ अजय कुमार झा
जो झोपड़ी का जीवन देख आयेगा वह या तो इस बारे में मौन रखेगा या उसकी बात करके आँखें नम कर लेगा।
@ cmpershad
ReplyDeleteआभामण्डलीय टपकाव ही तो खतरनाक है।
@ वन्दना
कर्म से दिशा दिखाने वाले दो महापुरुषों का निवास स्थान देख कर आया हूँ, वर्धा में। गांधी व विनोवा।
@ शोभना चौरे
शब्द तभी प्रभावशाली होते हैं जब क्रियाशील के मुख से निकलें।
@ G Vishwanath
भारी शब्दों में संभवतः अपनी लघुता छिपाने का प्रयास करता हूँ। जब लघुता का भाव न रहेगा, शब्द भी सरल हो जायेंगे।
सचिन, आनंद, श्रीधरन, मनमोहन आदि कृतित्व के उपमान हैं। हमें यदि वे अच्छे लगते हैं तो भी हम अन्य वक्तव्यों के देवताओं को कैसे सहन कर लेते हैं।
@ rashmi ravija
जब बोलना ही ध्येय है तो किसी भी समय कुछ भी बोल जा सकता है और समय आने पर उसे पलटा जा सकता है। जब उसको जीकर दिखलाने की बात आयेगी तो बोलना भी कम हो जायेगा।
@ 'उदय'
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आपका।
@ Mrs. Asha Joglekar
जैसे लोगों के हाथ में अधिकार रहेंगे, गुणवत्ता के मानक भी वैसे ही आयेंगे।
@ नरेश सिह राठौड़
यही अर्धविक्षिप्तता इन्हे ले डूबती है।
@ निर्मला कपिला
तथाकथित महानों के ज्ञान से बजबजाता समाज का क्या हश्र होगा।
@ राज भाटिय़ा
बहुत धन्यवाद आपका उत्साहवर्धन के लिये।
वक्तव्य देने और छापने/दिखाने की होड चल पड़ी है. अपने को बेहतर और दूसरे को निम्न दिखाना शायद यही उद्देश्य है इनका ..
ReplyDeleteहमारे प्रोफेशन में इसे कहते हैं काम कम, बातें ज़्यादा. सेल्स वाले वैसे भी बोलने का ही खाते हैं पर नतीजे सबसे अच्छा वक्तव्य होते हैं..
i m feeling lucky, read two absorbing posts today :)
मनोज
@ mahendra verma
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आपके उत्साहवर्धन का।
पिछली तीन प्रविष्टियाँ झांकी मैंने !
ReplyDeleteआप पर्याप्त छाँटू-प्रतिभा से लैस हैं !
बिंदास ! बंगलौरी रापचिक ! [ सतीश जी ई न कहने लगें कि रोपचिक तो बम्बैया है ! :) ]
सोचा था आप वर्धा से लौट कर कुछ व्यक्तव्य जारी करेंगे मगर आप ये क्या लेकर बैठ गये.
ReplyDeleteमाना देवता के समान नहीं तो आम आदमी के समान ही दे देते..कुछ तो कहते.
वैसे मस्त रहा...
:)
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeletewhen quality disappears then we take help of different other things to beautify and hide our weakness ...so let's better try to be qualitative 'not quantitative'
ReplyDeletesorry to write in english ....as I do not have my laptop with me :(
@ Manoj K
ReplyDeleteजब कर्मों से ध्यान हट जाये तो बातें ही सब कुछ हो जाती हैं और यही हमारी विडम्बना है।
@ अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
आपकी उपाधियाँ मन में झनझनाहट उत्पन्न कर रही हैं, ... हाँ अब थोड़ा संयत है। बंगलोर तो बड़ा ही शान्तप्रिय स्थान है, बिंदासीय उन्मुक्तता तो सतीश पंचमजी के मुम्बई में ही है।
@ Udan Tashtari
वर्धा बहुत ज्ञानवर्धन कर गया, किश्तों में बहेगा। यह पोस्ट तो गांधीजी को समर्पित है।
@ काजल कुमार Kajal Kumar
आपने भी प्रतीकों में बात कर ली।
@ हास्यफुहार
बहुत धन्यवाद।
@ राम त्यागी
ReplyDeleteसच कह रहे हैं आप, जब चरित्र छिपता है तो चित्र और वक्तव्य ही यथार्थ को ढक लेते हैं।
यह सूचना का युग, सूचना-संकट का दौर भी माना जा रहा है क्योंकि हम तक ढेरों अवांछित सूचनाएं आ जाती हैं और अपने जरूरत की बात कई बार सूचना-भीड़ में खो जाती है. आपके मन्तव्य के साथ, भारतीय इतिहास में नियमित लेखन-लिपि के प्रमाण, अशोक के शासन और धर्मादेश, शिलालेख, देश के लगभग सभी हिस्सों में मिलने के तथ्य को जोड़कर देख रहा हूं और अंशतः असहमत हो कर भी आनंदित हो रहा हूं.
ReplyDeletePraveen bhai yaha to kathye he kathanak he lekin hero/heroin gayab hain/ ye hindustaan he is tarike se chlata he/ ab aap CWG ka example lo,
ReplyDeleteJan thu thu ho rahi thi to SheelaqDixit ji keh rahi thi ki me hi akeli jimmebar nhi hun., ab jab game kamyab ho gaye to keh rahi hain, me hi akeli jimmebar hun.
nice article
वक्तव्यों के देवता ने सचमुच मन को झकझोर दिया।
ReplyDelete................
वर्धा सम्मेलन: कुछ खट्टा, कुछ मीठा।
….अब आप अल्पना जी से विज्ञान समाचार सुनिए।
ये आज का समय है शब्दों से खेलना बहुत से लोग जानते हैं .... फिर चित्र तो प्रचार का माध्यन भर रह गया है ... चरित्र की प्रधानता को शब्दों और चित्रों में ढाल कर परोसा जाता है आज ... उनको अंदर तक उतारा नही जाता ....
ReplyDeleteवाह सर जी, आज तो कमाल का लेख पढ़ने को मिला...आपसे १००% सहमत...बाकी मैं विशेष क्या कहूँ...बहोत से लोगों ने अपनी राय कह दी..
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा पढ़ना...
आपके शब्दों से एक बात याद आई,कई बार किसी के बारे में हम सोचते कुछ हैं और कह कुछ जाते हैं !ऐसे में हमारा चित्र उसके मन में उसी तरह का बन जाता है जिस तरह के हमारे शब्द होते हैं.अंतर-मन को झाँकने के लिए किसी के वक्तव्य के बजाय उसके चरित्र और क्रिया-कलाप पर ध्यान देना चाहिए.यहाँ तक कि हमारे देवता भी ऐसे बनावटी शब्दों से परिचित होते हैं,इसीलिये मंदिर में हमें शब्दों के बजाय शुद्ध मन के साथ जाना चाहिए!
ReplyDelete:निर्मल-मन जन सो मोहि पावा. मोहि कपट छल-छिद्र न भावा'ऐसा राम जी ने स्वयं कहा है.....
वक्तव्यों के प्रवाह से जल निकाल कर चर्चा में उड़ेलना और समय पड़ने पर प्रतिद्वन्दी के वक्तव्यों से उसी को भिगो देना बौद्धिक श्रेष्ठता के पर्याय हो गये हैं....सटीक विश्लेषण...दिलचस्प पोस्ट...आभार.
ReplyDelete________________
'शब्द-सृजन की ओर' पर आज निराला जी की पुण्यतिथि पर स्मरण.
अच्छी प्रस्तुति .
ReplyDeleteभाई विज्ञापन का युग है ... और लेखकों या फिर यूँ कहें तथाकथित लेखक वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग के लिए शब्द ही तो विज्ञापन का माध्यम है ...
ReplyDeleteयह तो सोचने वाली बात हो गई....
ReplyDeleteनवरात्र और दशहरा...धूमधाम वाले दिन आए...बधाई !!
@ Rahul Singh
ReplyDeleteउस युग में भी जो लिखते थे या कहते थे, वह करते भी थे। आजकल केवल बोलने से ही इतिश्री हो जाती है।
@ ALOK KHARE
इस फिल्म के हीरो हीरोइन तो हर जगह मिल जाते हैं, कभी कभी हम भी बन जाते हैं वही।
@ ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
वक्तव्य मन झकझोर देते हैं, कर्म कुछ करने को प्रेरित करते हैं।
@ दिगम्बर नासवा
अन्दर चरित्र न उतरेगा तो अवसाद ग्रसित हो जायेंगे वक्तव्य।
@ abhi
बहुत धन्यवाद अभिषेक।
@ संतोष त्रिवेदी ♣ SANTOSH TRIVEDI
ReplyDeleteरामजी सच ही कह गये हैं, यही हो रहा है।
@ KK Yadava
इससे ही सबकी धुलाई भी हो रही है।
@ डा० अमर कुमार
बहुत धन्यवाद।
@ Indranil Bhattacharjee ........."सैल"
निश्चय ही शब्द कृतित्व को उद्घोषित करें तो ठीक है, पर केवल शब्द ही गूँजे तब घबराहट होने लगती है।
@ Akshita (Pakhi)
आपको भी दुर्गाष्टमी की बहुत बहुत बधाईयाँ।
"शब्दों को जीकर दिखलाने वालों के बारे में कब जानेगे हम?"
ReplyDeleteभारत की संस्क्रिति और इतिहास इससे भरा पडा है। कितना पढते है हम? कितना जानते हैं हम उनके बारे में और कितना जानना चाहते हैं हम?
इनके बिना मजा भी तो नहीं आता :)
ReplyDeletemaine dekha hai shavdo ka vajan vyktitv se judaa hota hai.........sadharan baat asaadharan ban saktee hai....aur asadharan baat sadharan...........sara daramdar vaktvy dene wale par hai.........
ReplyDeleteदेवता समुद्रमंथन में अमरत्व को प्राप्त हो चुके हैं पर ये आधुनिक कुलीन अपने विषवमन करने के गुण से सहस्त्र सर्पों को निष्प्रभ करने की क्षमता रखते हैं।
ReplyDeleteक्या बात कही है आपने........
राजनीति शब्दों का ही तो खेल है..तो क्यों न शब्दों की तलवारें भजेंगी...
@ विनोद शुक्ल-अनामिका प्रकाशन
ReplyDeleteकर्मशील नरों से यह विश्व भरा है, सम्मान पाने में पर वक्तव्य भाँजने वाले क्यों आगे निकल जाते हैं।
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
पर कष्ट तब हो जाता है जब लोग इन पर अपनी निष्ठायें उड़ेल देते हैं।
@ Apanatva
सच कहा आपने। कर्मशील व्यक्तित्व के सरल शब्द भी महान प्रभाव डालते हैं।
@ रंजना
वह खेल तब तक रहता है जब तक हम उसे मनोरंजन के रूप में लें। पर यदि हम भी उस दलदल में उतर जायें तब काहे का आनन्द।