कुछ शब्द स्मृतिपटल पर स्थायी रूप से विराजमान हो जाते हैं, विशेषकर जब उनके साथ कोई घटना सम्बद्ध हो। बचपन, दस वर्ष से कम की आयु, एक दिन विद्यालय के बाद घर यह सोच कर नहीं आया कि अभी घर में माताजी और पिताजी को आने में देर है। मित्र के साथ नदी किनारे निकल गया, रेतीले किनारे, छोटे छोटे पत्थर नदी में डब्ब डब्ब फेंकता रहा। नदी की धार में बालसुलभ प्रश्नों की श्रंखला डुबकी लगा लेती थी पुनः सूखने के पहले। समय चुपके से कई घंटों सरक गया। सायं घर पहुँचता हूँ, कुछ कहता उसके पहले पड़ा चेहरे पर एक सन्नाट झापड़ और शब्द सुनाई पड़ा, आवारा हो गया है। आँख में बसी नदी आँख से पुनः बाहर आ गयी। माँ ने दौड़कर चिपटा लिया, समझाती रही, बहुत देर तक। हाथ पकड़ भैया के दुख भी बाँटने के प्रयास में छोटे भाई-बहन। पिता की व्यग्रता, पिछले चार घंटे से, पूरे नगर को जा जा कर टटोल डाला, अनर्थ की सम्भावनायें मन में बार बार। उस समय तो समझ नहीं आया कि व्यग्रता दोषी है या आवारगी, बस आवारा शब्द एक पूरी घटना बन स्मृति से चिपक गया।
तब से अब तक आवारगी और व्यग्रता एक दूसरे के विरोधी से लगते हैं।
जब भी कोई विचार, व्यक्ति या घटना घेरने का प्रयास करती है, छिपा हुआ आवारा जाग जाता है। पहले मुझे लगता था कि इस तरह का उन्मुक्त दिशाहीन भ्रमण, सड़कों पर, कल्पना पर, दृष्टिपथ पर, यह एक अभिरुचि है और इसे पाले जाने की आवश्यकता है। स्वयं से साक्षात्कार करने पर यह लगने लगा कि मेरी यथासंभव न हिलने की अजगरीय प्रवृत्ति में आवारगी कहाँ से आ गयी? देर से सही पर पता लग गया है कि बन्धनों की व्यग्रता मे छिपा है, मेरी आवारगी का स्रोत।
टीशर्ट, जीन्स, स्पोर्ट्स जूते और उन्मुक्तता पहन, काले चश्में में मन के भाव छिपा, विचार प्रक्रिया को रिसेट मोड पर वापस ला, कोई भी अवधि सीमा न रख, सरक लेता हूँ घर से। 5-6 किमी निष्प्रयोजनीय भ्रमण सड़कों पर, मॉल में, पार्क में, कॉफी की दुकान में, नितान्त अकेले, अपने भूत से विलग, भविष्य से विलग, वर्तमान को धोखा देते, किसी से कोई बात ऐसे ही अकारण, दिशाहीन, अन्तहीन, ध्येयहीन। न किसी को प्रसन्न रखने की बाध्यता, न किसी को दुख देने का मन, मैं और मेरी आवारगी, समय से उचटी, अपने में रमी। दृश्य रोचक हैं तो मुख में स्मित मुस्कान, दृश्य कटु हैं तो तनिक संवेदनीय खेद। पुनः चार घंटों के बाद घर में, अब कोई आवारा नहीं कहता है। दृष्टि से पर पढ़ लेता हूँ, ये नहीं सुधरेंगे। बच्चों को लगता है कि अब इतने हुड़दंग के बाद थोड़ा पढ़ते हुये प्रतीत हुआ जाये।
वैचारिक आवारापन, बौद्धिक आवारापन, दैनिक आवारापन, सब के संग जीवन के अंग बन गये हैं, व्यग्रता से जूझने को तत्पर। अब आवारापन में बँधता जा रहा हूँ, पुनः बन्धन। दवा दर्द बन रही है। आवारगी से बाहर कैसे आऊँ, या पड़ा रहूँ दिशाहीन, जीवनपर्यन्त।
यूँ तो ये आवारगी ही जीने का संबल देती है मगर कई बार अजगरीय अवस्था में डले विचारों की आवारगी बड़े खतरनाक मोड़ों से गुजरती है..बस, उसे ही संभालना है बाकी तो उम्र के साथ आया विवेक संभाल ही लेगा. :) चलने दिजिये और मस्त रहिये..लेखनी की यह आवारगी भी वैसे काबिले तारीफ है..बधाई.
ReplyDeleteचमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला , मेरी आवारगी ने मुझको आवारा बना डाला ...गुलाम अली जी ने आवारगी को बहुत ही खूबसूरत अंदाज में गाया है ...
ReplyDeleteकभी कभी ऐसी आवारगी भी अच्छी है ...भीड़ को एक अलग नजर से देखना ...बस घरवाली या घर वालों को सूचित कर दिया करें ...उनकी फिक्र का खयाल भी जरुरी है ..!
अवारा हूं, या गर्दिश में हूं आसमान का तारा हूं।
ReplyDeleteइस आवारगी को कभी कभी जीने का मन करता है।
आवारगी मुबारक हो जी। बनाये रहिये।
ReplyDeleteआवारगी न तो ध्येय होता है न साध्य. आवारगी विचारों और सोच के अंतर्द्वन्द के कारण भी सम्भव है. और फिर सकारात्मक अंतर्द्वन्द हो तो ....
ReplyDeleteये आवारगी में बिताए पल ही अपने होते है !
ReplyDeleteअरे साहब, ये हमारी वाली आवारगी आपके पास क्या कर रही है?
ReplyDeleteबिल्कुल अपनी सी लगी ये प्रस्तुति, बस हाई प्रोफ़ाईल नहीं रही हमारी आवारगी। कभी बिना वजह ही उठकर चल देना किसे ओर, और चलते रहना जबतक पैर आगे बढ़ने से मना न कर दे।
अब कम हो गई है थोड़ी सी, लेकिन जानता हूँ कि कमबैक करेगी।
एक्दम टचिंग पोस्ट।
अकेलेपन में अपने साथ जुड़ने की जरूरत
ReplyDeleteकभी चुपचाप चल कर बहल जाती तबियत
कभी वो शख्स कहलाता है आवारा
जिसके विपरीत चल रही हो धारा
अशोक व्यास
आवारा हूँ… सुनने में मामूली सब्दे लगता है, लेकिन कुछ बात है इसमें कि यूरी गैगरीन भी हाथ जोड्पकर नमस्ते नहीं कह पाता है अऊर बोलता है आवारा हूँ... गजब का मंतर है.. इसका जाप करके बढने वाला गौतम बनकर घर से निकलता है अऊर बुद्ध बनकर लौटता है...ई आवारपन का कमाल था कि घर का सुध बुध खोकर नदी में कंकड़ फेंककर साम कर देने वाला बच्चा आज ब्लॉग के सरिता में अईसा अईसा अनमोल पत्थर फेंक रहा है!! प्रवीन बाबू, बनाए रखिये आवारपन!!
ReplyDeleteNamaskar Parveen ji..
ReplyDeleteAwargi mubarak ho.......
बढ़िया प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
ReplyDeleteढेर सारी शुभकामनायें.
संजय कुमार
हरियाणा
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
हम तो ज्यादातर घर में ही रहते है, दिमाग का आवारापन मगर नहीं जाता; कभी इधर कभी उधर जाता है आवारा , एक जगह टिकना इसको नहीं गंवारा ... शायद बचपन जीना चाहता है दोबारा ...
ReplyDeleteलिखते रहिये ...
...कदम दर कदम हम बढ़ते गए
ReplyDeleteज़िन्दगी के उजाड़ रास्तों पर
हम गिरते गिरते सँभालते गए
तजुर्बे इकठ्ठा करते गए .....
...आवारगी हमें रास आती गयी
हम आवारगी को रास आते गए ....
बहुत अच्छी पोस्ट ... शुभकामनाएं
प्रवीण जी, मुझे लगता है कि आवारगी के लिए बहुत बड़ा कलेजा चाहिए। फकीर अपनी धुन में अकेला चला जाता है लेकिन शायद उसकी मजबूरी भी हो कि वह साथ नहीं ढूंढ पाता है। जब हमारे पास भीड़ होती है तो हम एकान्त ढूंढते हैं और जब अकेले होते हैं तो भीड़ ढूंढते हैं। कभी मन का अकेलापन भी होता है जो भीड़ में भी अकेला ही रहता है। और कभी मन में इतने उहापोह होते हैं कि सभी से बचने के लिए ऐसी ही आवारगी ढूंढता है।
ReplyDeleteअपनी सी लगी यह पोस्ट ...कभी लिखूंगा इस विषय पर प्रवीण भाई ! शुभकामनायें !
ReplyDeleteआमतौर पर जिसे लोग समझ ही नहीं पाते आपने जीवन के
ReplyDeleteउस हिस्से को बड़ी गरिमा के साथ जिंदादिल रूप में पेश किया .....बहुत बढ़िया पोस्ट.....अलग सी .....अच्छी सी .....!
ना ना बिल्कुल नहीं, मत छोड़ियेगा इसे. बड़ी कीमती चीज़ है ये आवारगी. अगर ये ना होती तो इतने महत्त्वपूर्ण पद पर रहते हुए आप नियमित पोस्ट नहीं लिख पाते. विचार कहाँ से लाते?
ReplyDeleteबचपन में "आवारा" की उपाधि से मैं भी विभूषित हो चुकी हूँ कई बार, इसीलिये मुझे तो ये बहुत अच्छी लगती है...
हाँ, वाणी जी की भी बात सही है कि घरवालों को सूचित कर दिया करें. मुझे कुछ लाइनें बहुत पसंद आयीं..
"समझ नहीं आया कि व्यग्रता दोषी है या आवारगी, बस आवारा शब्द एक पूरी घटना बन स्मृति से चिपक गया।
तब से अब तक आवारगी और व्यग्रता एक दूसरे के विरोधी से लगते हैं।".
nahi Praveen ji....ye koi aawargi nahi...ha apne se bado k liye ye aawargi ho sakti hai.....par isme tanhai k wo khubsurat pal ji liye jate hai jo sabke sath nahi jiye ja sakte....kuch palo ki ye tanhai ya kuch b kah lijiye ki aawargi....man ko naye vicharo se ya kabi na khatam hone wali energy se bhar deti hai....bahut hi achi post....bhadai ! thanks Archana
ReplyDeletehum paidaa he awaargi ki fitrat ke saaath hue hai ..par anushasan aur samaaj ke bandhan inkaa kyaa karein ...to bas khayaal aaj bhi aawara hai
ReplyDeleteआपकी आवारगी जानकर मुझे भी क़रीब बीस साल पहले अपने को ले जाना पड़ा.तब मैं फ़तेहपुर में रहकर पढाई करता था.ख़ाली समय में यूँ ही बस-स्टाप पर ,बुक-स्टाल,पर या यूँ ही सड़क के किनारे,चलते जाना उद्देश्य-हीन.उस समय मुझसे कोई पूछता कि कहाँ जा रहे हो तो कोई जवाब नहीं था,पर आज लगता है कि जवाब मिल गया है...पर सही रास्ते की तलाश ज़ारी है...ऐसी आवारगी को सलाम !
ReplyDeleteबन्धनों की व्यग्रता मे छिपा है, मेरी आवारगी का स्रोत
ReplyDeleteक्या बात कही है ..
वैसे आवारगी का अपना अलग ही मजा है परन्तु इसे किसी कि चिंता का कारण भी नहीं बनना चाहिए.
अगर आवारगी बिचारो में बहुरंगी क्रांति लाती है , हमारी सोच को नए आयाम देती है तो ये आवारगी बहुत अच्छी है . सांकृत्यायन की आवारगी एक ज्वलंत उदहारण है
ReplyDeleteबड़ों और अपनों का डर या व्यग्रता भी अपनी जगह ग़लत नहीं होती और हमारी आवारगी भी...
ReplyDeleteवैसे ये आवारगी कहाँ ये तो आत्म-साक्षात्कार के पल हैं... और ख़ुद को जानने के लिये बेहद ज़रूरी हैं शायद...
‘आवारा हूं...’ तो इसमें अनाउंस करने की का जरूरत आन पडी :)
ReplyDeleteखुद के जीने के लिये ऐसी आवारगी भी बहुत जरूरी है।
ReplyDeletebhai
ReplyDeleteaksr sahityik goshthiyo se wapsi me us pr chrcha krte , tfri marte , raste me chat vgairah khate ,rat ka khana bnane ke liye sbji aadi le kr ghr wapsi ko bhi khi aavargi to nhi khte hai ?
hlki fulki umda post ke liye sadhuvad .
न किसी को प्रसन्न रखने की बाध्यता, न किसी को दुख देने का मन, मैं और मेरी आवारगी, समय से उचटी, अपने में रमी।
ReplyDeleteआवारा शब्द के महत्व बेहद सलीके से प्रस्तुत किया है आपने |
वो नदी का किनारा तब की बात और थी तब आप पर भरपूर संरक्षण था माता पिता भाई का आज आप है संरक्षक है पूरे परिवार के |
सुन्दर उपमाओ से सजी ,आवारा शब्द का समर्थन करती सुन्दर पोस्ट |
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ReplyDeleteजब इंसान स्वयं से प्यार करने लगता है , तो तन्हाई में बैठकर खुद से बात करना चाहता है। बंधनों के बोझ से खुद को स्वतंत्र कर लेना चाहता है , कुछ पलों के लिए । मैं खुद भी ऐसी आवारगी पसंद करती हूँ , इसलिए यही कहूँगी कि -बनाये रखिये इस आवारगी को।
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हम भी आवारा हैं जी, लेकिन आप जैसे ५ - ६ किलोमीटेर नहीं बल्की हजारों किलोमीटर भटकते हैं!
ReplyDeleteजी हा! मैं साइबर स्पेस की बात कर रहा हूँ।
कभी कभी तो दिन भर कंप्यूटर के साथ लगा रहता हूँ और अंतरजाल में यहाँ वहाँ दिशाहीन होकर भटकता हूँ।
यह आधुनिक हाई टेक आवारापन मुझे मन की शांति देती है और अब तक किसी ने झापड नहीं मारा।
बस केवल श्रीमतीजी डाँटती रहती है!
जी विश्वनाथ
भगवान् का लाख-लाख शुक्रिया कि मेरे बेटा-बेटी ऐसे आवारा नहीं है :)
ReplyDeleteव्यग्रता दोषी है या आवारगी-थप्पड़ यही न समझ पाने के लिए था :)
ReplyDeleteऔर अब तो इस बोहेमियन जिन्दगी की मुबारकबाद !
ना जी ना, यह आवारा तो हम भी घुमे ओर मार भी खुब खाई पिता जी से अब यह सब छोड दिया
ReplyDeleteहाय... आपने मुझे मेरी गुज़रे ज़माने की आवारगी याद दिला दी.
ReplyDeleteमाता-पिता ने कभी ध्यान नहीं रखा बेटा कहाँ जा रहा है, किसके साथ रहता है, रात को कभी-कभी देर से क्यों आता है.
लेकिन शादी होते ही वह नकेल पडी कि आवारा-बंजारा मन नून-तेल-एलपीजी के फेर में ही पिस गया!
अब सोचा है कि बच्चों के तनिक इन्डिपेंडेंट होते ही बेसबब-बेझिझक राह-बेराह चल पड़ेंगे...
लेकिन पीछे से कोई पुकारेगा - "इस समय कहाँ चल दिए?"
असलियत में मैंने ज़िन्दगी में दोस्ती-यारी बहुत रखी और बहुत निभाई. इसके उलट श्रीमतीजी बड़े कुनबे में रहीं और बाहर कभी नहीं निकलीं. इसलिए उन्हें मेरा पंख फड़फड़ाना कुछ खास पसंद नहीं आता. क्या किया जाय!
आपने बहुत ही अच्छा लिखा है। बधाई।
ReplyDeletehttp://sudhirraghav.blogspot.com/
बनी रहें यह आवारगी....
ReplyDeleteजब इनटर्न पर गया था तो ३ महीनों के लिए अनलिमिटेड पास बनवाया था ट्रेन का. और अक्सर शाम को निकल जाता था किसी ओर. बिना किसी प्लान के. बहुत दिनों से सोच रहा हूँ फिर वैसा ही करने का पर हो नहीं पा रहा. आवारगी के लिए भी योजना बनानी पड़ रही है :(
ReplyDeleteएक गज़ल है बहुत प्यारी
ReplyDeleteआवारगी में हद से गुज़राना चाहिए
लेकिन कभी-कभार तो घर जाना चाहिए
बनाए रखिए इसे...जिंदगी कभी यूं भी जीनी चाहिए
बढ़िया प्रस्तुति। कुछ पुरानी यादें हमारी भी ताजा कर गई गई आपकी ये आवारगी।
ReplyDelete@ Udan Tashtari
ReplyDeleteअजगरीय मानसिकता वालों की आवारगी बहुत खतरनाक होती है। औसत बनाना जो होता है। मानसिक घुमक्कड़ी और बौद्धिक आयाम पर भी कोई नियन्त्रण नहीं। आवारगी बनी रहेगी।
@ वाणी गीत
घर वालों को बताने का अर्थ है कि तुरन्त समाधान मिल जायेगा। मन की व्यग्रता पर ढेरों पानी पड़ जायेगा। जो ऊष्मा धीरे धीरे उतरनी चाहिये, आवारगी उसका संबल हैं।
@ मनोज कुमार
अपने ऊपर जीवन का केन्द्र बिन्दु हटाकर परिधि में पहुँच जाना ही आवारगी है।
@ अनूप शुक्ल
बहुत धन्यवाद, बनी रहेगी मेरी आवारगी।
@ M VERMA
नकारात्मकता से बचने के लिये किसी भी प्रकार के बन्धनों से बाहर आना आवश्यक है, अतः मेरे लिये तो आवारगी सकारात्मक है।
@ Ratan Singh Shekhawat
ReplyDeleteन अपना होता है, न सपना होता है,
आवारगी तो निर्विकार स्वच्छन्दता है।
@ मो सम कौन ?
कभी कभी जब आप भूल जाते हैं इसे तो मेरे पास चली आती है आपकी आवारगी। मन को मना ले जाती है सदैव यह आवारगी।
@ Ashok Vyas
न धारा है, न प्यारा है,
बस यही है,
न कोई दर हमारा है।
@ चला बिहारी ब्लॉगर बनने
बिना आवारगी जिन्दगी के कारागार में बन्द सा लगता है आत्म।
@ संजय भास्कर
बहुत धन्यवाद।
@ Majaal
ReplyDeleteमन की आवारगी तो जग जाहिर है, दिशाहीन भटकता रहता है। आवारगी कुछ स्वभाव में जुड़ा हुआ सा तत्व लगता है।
@ क्षितिजा ....
बिना आवारगी, लगता है कि कुछ सृजनात्मकता छूटी जा रही है।
@ ajit gupta
आप व्यग्रता से भागने को मेरी पलायनवादी प्रवृत्ति कह सकती हैं या यह भी कह सकती हैं कि समस्या के सामने स्वयं को तुच्छ मानने की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है आवारगी।
@ सतीश सक्सेना
आपकी पोस्ट से इस विषय पर कुछ और माणिक निकलेंगे।
@ डॉ. मोनिका शर्मा
बहुत दिनों तक तो मैं इसकी उत्पत्ति तक नहीं समझ पाया। अपने को जानने का प्रयास मुझे मेरी आवारगी के इतना करीब ले आया।
@ mukti
ReplyDeleteबन्धनों में आवारगी छटपटाती हैष मन का फक्कड़पन घर में अधिक सामान देख भड़भड़ाने लगता है। कुछ तो अपनापन है आवारगी में, सुकून देती है।
@ zindagi-uniquewoman.blogspot.com
तनहाई को बहुधा चिन्ता से सम्बद्ध कर जोड़ा जाता है। निर्विकार भ्रमण कई विकारों को वाष्पित कर देने की क्षमता रखता है।
@ Sonal Rastogi
अनुशासन, बन्धन और कर्तव्य में घुट जाती है सृजनशीलता जिसे अनुप्राणित करती है मेरी आवारगी।
@ संतोष त्रिवेदी ♣ SANTOSH TRIVEDI
आवारगी के दौरों के पश्चात बहुधा मन शानत हो जाता है व्यग्रता के आक्रमण से।
@ shikha varshney
कहने को तो मन भागता है पर अन्ततः ठहर जाता है मेरी आवारगी पर। अनियन्त्रित नहीं हो पाता है।
@ ashish
ReplyDeleteअधिकतर आवारगी के दौरों की परिणिति शान्तिप्रद अस्तित्व में होती है।
@ richa
पता नहीं पर आत्मचिन्तन को मन अलग से व्यक्त नहीं कर पाया है अभी तक।
@ cmpershad
राजकपूर जी पिक्चर बना दिये, हम तो पोस्ट ही लिख पाये।
@ वन्दना
हाँ, स्वयं के बारे में जानते रहने के लिये तो आवश्यक है।
@ RAJWANT RAJ
मैं बता नहीं सकता पर किसी भी कार्य की दिशाहीनता उसके अन्दर की आवारगी का निर्धारण करती है।
@ शोभना चौरे
ReplyDeleteपता नहीं मेरे बच्चे यदि आवारगी करेंगे तो हो सकता है कि मुझे अपने पिताजी जैसा क्रोध आये पर स्वयं की आवारगी पर अभी तक तो कोई नियन्त्रण नहीं है।
@ ZEAL
अपने अस्तित्व को टटोलने का एक सशक्त माध्यम है आवारगी।
@ G Vishwanath
इण्टरनेटीय आवारगी तो हमने व्यक्त ही नहीं की, वह भी बड़ी मात्रा में है। सब प्रकार की आवारगी से सज्जित है जीवन।
@ पी.सी.गोदियाल
आपको कम से कम इस कारण से व्यग्रता तो नहीं ही होती होगी।
@ Arvind Mishra
समझना तो आ गया, सुधरना न आया।
@ राज भाटिय़ा
ReplyDeleteआपने तो छोड़ दिया, अब मेरा क्या होगा।
@ निशांत मिश्र - Nishant Mishra
आपके द्वारा वर्णित बन्धनों से ही मन छटपटाता है। वही मेरे बन्धन की व्यग्रता भी हो संभवतः।
@ सुधीर
बहुत धन्यवाद आपका।
@ rashmi ravija
यह आवारगी तो बनी रहेगी।
@ अभिषेक ओझा
आवारगी की योजना बनाने का उपक्रम तो सच में रोचक होगा।
@ वीना
ReplyDeleteजीवन का वह पक्ष तो अब तक जीवन्त है।
@ परमजीत सिँह बाली
बहुत धन्यवाद, आपको आवारगीय शुभकामनायें।
आवारगी का अपना अलग ही लुत्फ है जो सिरफ मरदों को हासिल है । राजकपूर के ये गाने तो हमारे भी प्रिय हैं । नदी का आंखों मे सिमट कर बहने लगना बहुत भाया ।
ReplyDeleteमुझे तो ये आवारगी कहीं दिशाहीन नहीं लगती आपको देखकर - हाँ क्यूंकि उस चांटे ने आपको परिभाषा जो सिखा दी थी !
ReplyDeleteबढ़िया लेख - बधाई स्वीकारें !
... बहुत खूब ... प्रसंशनीय पोस्ट !
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
ReplyDeleteमध्यकालीन भारत-धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-२), राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
तीर्थ नहीं है, केवल यात्रा, लक्ष्य नहीं है केवल पथ ही (शायद बादल सरकार की पंक्तियां). वैसे व्यग्रता ही आवारगी का मार्ग प्रशस्त करता है और जिसने भटकने का साहस किया, राह भी वही खोज पाता है.
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteआवारगी के बहाने सुन्दर संस्मरण...कई बार पुराने पन्नों को पलटना अच्छा लगता है.
ReplyDelete__________________________
"शब्द-शिखर' पर जयंती पर दुर्गा भाभी का पुनीत स्मरण...
आपने बहुत अच्छा लिखा है, हमेशा की तरह,
ReplyDeleteमुबारक हो.
ांअवारगी अपने अस्तित्व को निखारने और जीने की कला सीखने के लिये बहुत जरूरी है आवारगी चिन्तन की राह पर ले जाती है तभी तो आपकी हर पोस्ट चिन्तनपरक होती है। बहुत बडिया पोस्ट। शुभकामनायें।
ReplyDeleteआवारगी के बगैर अपने आपको खोजना मुश्किल है |
ReplyDeleteये दिल ये पागल दिल मेरा ....
ReplyDeleteइस आवारगी में भी ग़ज़ब का नशा होता है ... अपने आपसे उलझे रहना, बातें करना .... कभी कभी अपनी उदासी में भी एक प्रकार का आवारापन रह जाता है जो खुद में ही जीना चाहता है ...... खुशनसीब हो जो इस आवारगी और मस्ती में जी पाते हो ....
ऐसी आवारगी पर कौन न क़ुरबान हो जाय...! गजब ढाते हैं आप भी। मैं खुद ही आजकल आवारगी का मजा ले रहा हूँ। इस परिवार में आना कम ही हो पा रहा है।
ReplyDeleteवैसे इस आवारगी के पीछे भी यह ब्लॉगरी ही है। वर्धा में आप सबको साथ-साथ देखने की तैयारी है।
बहत ही शानदार पोस्ट.... मुझे तो अपनी जवानी के दिन याद आ गए...जैसे ही बिली जौएल का नाम देखा तो.... मुझे आज भी वी दिंट स्टार्ट द फायर... बट द किंग एंड आई... वी ट्राइड टू फायट... गाना पूरा याद है... और अपने स्कूल के फंक्शन में पूरा गाया था... वो भी क्या दिन थे... जब सिर्फ और सिर्फ अंग्रेज़ी गाना ही सुनते थे... ख़ैर...आज भी मैं अंग्रेज़ी गाना ही ज़्यादा सुनता हूँ... हाँ! यह है कि ....जब किसी लड़की से फ्लर्ट करते करते... सेंटी हो जाता हूँ तो हिंदी गाने भी ज़रूरत और इमोशंस के मुताबिक़ सुन लेता हूँ... मेरे साथ यह बहुत बड़ी प्रॉब्लम है... मैं करता तो फ्लर्ट हूँ.... और हो इमोशनल जाता हूँ... महीने में सात -आठ बार तो इमोशनल ज़रूर होता हूँ... फिर यही सोच कर आगे बढ़ लेता हूँ... कि लड़कियों का क्या है.... एक जाती है तो दूसरी ज़रूर आती है... आएगी ही... आएगी... नहीं आएगी तो ऐसी पर्सनैलिटी पर लानत है... क्यूँ सही कह रहा हूँ ना मैं? ही ही ही ... मेरे पिताजी कहा करते थे.... कि ...साला... आवारा है... अपने आपको दिलीप कुमार समझता है.... मैं कहता था कि गलती आपकी ही है... काहे पैदा किये... इतना हैंडसम लड़का... मैंने तो कहा नहीं था... फिर दो-चार गाली खाता था... और चल देता था अपने कमरे की ओर... वैसे आवारा होने का एक अपना ही मज़ा है... बस यह है कि ... अगर आप आवारा हैं... तो पढने में ज़रूर अच्छे रहिये... पता है ... टॉपर लड़का अगर आवारा भी होगा तो सब उसकी तारीफ़ ही करेंगे... और उसके डेढ़ सौ गुनाह माफ़ होंगे... इसलिए अगर आप आवारा हैं... तो हर जगह टॉप पर ही रहिये... फिर सब उसी आवारगी को स्टाइल कहेंगे...
ReplyDeleteवैसे एक बात बता दूं... मैंने जैंगो से वादा किया था... कि जो लड़की उसे टहलते वक़्त प्यार से पुचकारती थी... उसे किसी दिन ज़रूर पटा लूँगा... साला...पता नहीं था... कि वो दिन देखने के लिए मेरा जैंगो नहीं रहेगा... और आज ही उसे पटा लिया... वो भी ऐसे दिन जब वो जैंगो के कांडोलेंस में आई हुई थी... मैंने ऊपर देख कर जैंगो से कहा... कि अनैदर नम्बर एडेड इन माय डिजिटल डायरी... ही ही ही ही ...
वैसे यह नंबर गेम खेलने का एक अपना ही मज़ा है... देखते हैं कितने दिन अब....
मैं बहुत ही शरीफ आवारा हूँ... ऐसा मेरे फादर का भी कहना था.... और मेरी बहुत सारी पास्ट-प्रेजेंट गर्ल फ्रेंड्स तो कहती ही हैं... कई लोग कहते हैं कि शादी मत करना... बीवी भाग जाएगी... ही ही ही ....
इसे पढ़कर ऐसा लगा जानो आपने मेरे ही मन की बात रख दी हो, देखिये न, मेरे ब्लॉग का नाम ही आवारा बंजारा है . आज से दस साल पहले जब पहली बार इन्टरनेट की दुनिया में आया तो याहू पर आईडी बनाया "आवारा_झोका_हवा_का", और ये आईडी आज तक कायम है. ये आवारगी न जाने क्यं मुझे अपने व्यक्तित्व का एक हिस्सा क्या, सबसे बड़ा हिस्सा लगती है. इस आवारगी में जो सुख है वह अतुलनीय है.
ReplyDelete@ Mrs. Asha Joglekar
ReplyDeleteआवारगी हर मनुष्य के अन्दर बैठी एक उत्कण्ठा है स्वयं में रहने की। घर में यदि वह एकान्त नहीं मिल पाता है तो व्यक्ति बाहर भागता है।
@ राम त्यागी
सच कह रहे हैं, उस चांटे ने एक सीमा निर्धारित कर दी संभवतः। अब चाह कर भी आवारगी की उन्ही गलियों में जा पाता हूँ जिससे लौटकर जीवन में वापस आ सकूँ।
@ 'उदय'
बहुत धन्यवाद।
@ राजभाषा हिंदी
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Rahul Singh
भटकने से राह मिले न मिले पर स्वयं से भेंट हो जाती है।
@ हास्यफुहार
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद।
@ Akanksha~आकांक्षा
पुरानी आवारगीय स्मृतियों में उतरना बहुत भाता है।
@ सत्यप्रकाश पाण्डेय
बहुत धन्यवाद, हर बार की तरह उत्साहवर्धन के लिये।
@ निर्मला कपिला
आवारगी को सृजनात्मकता से जोड़ दिया जायेगा तब तो लाइसेन्स मिल जायेगा दिशाहीन भ्रमण का।
@ नरेश सिह राठौड़
मन पर जब कोई बोझ न रखा जाये तब बहुत कुछ सीखा जा सकता है स्वयं के बारे में।
@ दिगम्बर नासवा
ReplyDeleteखुद से बातें करना अच्छा लगता है, स्वयं के अनछुये पहलू जान लेना, मन का प्रवाह पहचान लेना कितना सुखद है।
@ सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
उसी आवारगी में खिंचे हम भी नागपुर की ट्रेन में बैठ गये हैं।
@ महफूज़ अली
आपकी आवारगी तो अलमस्त है। जिये रहें उसके साथ। जब जैंगोजी नहीं हैं, उनसे किये हुये सारे वचन निभा डालें।
एक बात आपने बहुत पते की की है, वह कि यदि आवारगी स्टाइल में जीनी हो तो बाकी क्षेत्रों में अग्रणी रहा जाये। दिलीप कुमार को भी तो सायराबानू मिल गयी थीं, आपकी कब आ रही हैं।
@ Sanjeet Tripathi
अब जब अगली पोस्ट का नाम बंजारा रखूँगा आपको ट्रीट देने रायपुर आ जाऊँगा, नोटिस से बचना जो है।
आवारगी का सुख वो नहीं समझ सकता जिसने आवारगी अनुभव न की हो।
इस हुड़क को अगर आवारगी के बजाय 'मुक्ति' -कुछ समय की ही सही-कहें तो कैसा रहे ?
ReplyDeleteप्रतिभाजी से सहमत।
ReplyDeleteअवश्य, यह मुक्ती ही है।
हम थोडी देर के लिए स्वतंत्र हो जाते हैं।
समय की कोई पाबन्दी नहीं, दिशा, लक्ष्य की भी कोई पाबन्दी नहीं।
कभी शनिवार/रविवार सुबह सुबह घर से निकल जाता हूँ एक long walk के लिए।
एक घंटे से भी ज्यादा हो जाता है हमारे लौटने तक.
भटकते समय खूब सोचता हूँ, विश्लेषण करता हूँ और मन को शांत करता हूँ।
साथ साथ अच्छा व्यायाम भी हो जाता है।
पत्नि को बताता नहीं हूँ क्योंकि यदि बता दूं तो अवश्य कहेगी अपना मोबाईल साथ ले जाना!
या फ़िर कहेगी आते समय गैस वाले के पास जरूर जाना और पूछना सिलिंडर कब भेज रहा है या फलां दुकान पर जाकर अमुक सामान खरीद लाना।
आवारगी का मज़ा लुट जाता हैं
मोबाइल फ़ोन जंजीर बन जाता है जिसे पत्नि जब चाहे खींच सकती है।
तब तो इसे हम मुक्ति नहीं कहेंगे।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
लाजवाब पोस्ट...शब्दों की जादूगरी तो कोई आपसे सीखे...एक बार नहीं दसों बार पढ़ गया हूँ ये पोस्ट...
ReplyDeleteये दिल ये पागल दिल मेरा क्यूँ बुझ गया आवारगी
इस दस्त में इक शहर था वो क्या हुआ आवारगी
नीरज
फ़िलहाल इसे फेसबुक और बज्ज पे शेयर करने जा रहा हूँ...अपनी सी लगी पोस्ट
ReplyDelete" 5-6 किमी निष्प्रयोजनीय भ्रमण सड़कों पर, मॉल में, पार्क में, कॉफी की दुकान में, नितान्त अकेले, अपने भूत से विलग, भविष्य से विलग, वर्तमान को धोखा देते, किसी से कोई बात ऐसे ही अकारण, दिशाहीन, अन्तहीन, ध्येयहीन। न किसी को प्रसन्न रखने की बाध्यता, न किसी को दुख देने का मन, मैं और मेरी आवारगी, समय से उचटी, अपने में रमी। "
आपने मेरे बारे में कहाँ से जाना :)
आपकी पोस्ट पढकर बचपन का एक दिन याद हो आया.. मैं आठवीं में था और स्कूल के बाद दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलने का प्रोग्राम बन गया. १.३० बजे घर पहुँचता था और अब ४ बज चुके थे. घर पहुंचा तो माँ गेट के बाहर ढलान पर बैठी थी. मैंने तो सिर्फ ७ रुपये मांगे रिक्शे वाले को देने के लिए, लेकिन उत्तर थप्पड़ था.
ReplyDeleteथप्पड़ आखरी था पर याद अब तक है ..
बहुत ही सुन्दर पोस्ट.
6/10
ReplyDeletevery nice
@ प्रतिभा सक्सेना
ReplyDeleteमुक्ति थोड़ा गुरुतर शब्द है, निभाने में थोड़ा कठिन।
@ G Vishwanath
दिशा बता देने से कोई न कोई कार्य याद आ जाता है और आवारापन का क्रम टूट जाता है। निष्प्रयोजनीयता बनाये रखें, आनन्द बना रहेगा।
@ नीरज गोस्वामी
आवारगी में आकर्षण है, शब्दों ने कहाँ सीखा यह गुण।
@ abhi
मेरी आवारगी आपके अधिक निकट है, होनी भी चाहिये। मेरी आवारगी मेरी सदैव रहती ही कब है? ध्यान से देखिये, आपकी आवारगी मेरे पास बैठी होगी अभी।
@ Manoj K
थप्पड़ तो मेरा भी आखिरी था, आवारगी छूटी नहीं, फिर भी।
@ उस्ताद जी
ReplyDeleteआकलन का धन्यवाद।