जितनी बार भी राम का चरित्र पढ़ा है जीवन में, आँखें नम हुयी हैं। कल मेरे राम को घर दे दिया मेरे देशवासियों ने, कृतज्ञतावश पुनः अश्रु बह चले। धार्मिक उन्माद के इस कालखण्ड में भी सदैव ही मेरे राम मुझे दिखते रहे हैं, त्याग में, मर्यादा में, शालीनता में, चारित्रिक मूल्यों में। पृथु(पुत्र जी) के बाल्यकाल में मुझे तुलसी वाले राम और सूरदास के श्याम अभिभूत कर गये थे और लेखनी मुखरित हो चली थी।
मन्त्र-मुग्ध मन, कंपित यौवन, सुख, कौतूहल मिश्रित जीवन ।
ठुमक ठुमक जब पृथु तुम भागे, पीछे लख फिर ज्यों मुस्काते ।
हृद धड़के, ज्यों ज्यों बढ़ते पग, बाँह विहग-पख, उड़ जाते नभ ।
विस्मृत जगत, हृदय अह्लादित, छन्द उमड़ते, रस आच्छादित ।।
तेरे मृदुल कलापों से मैं, यदि कविता का हार बनाऊँ ।
मन भाये पर, तुलसी वाला राम कहाँ से लाऊँ ।।१।।
सुन्दर गीतों में बसता जो, बाजत पैजनियों वाला वो ।
छन्दों का सौन्दर्य स्रोत बन, तुलसी का जीवन-आश्वासन ।
अति अनन्द वह दशरथ-नन्दन, ब्रम्हविदों का मन जिसमें रम ।
कोमल सा मुखारविन्दु जो, कौशल्या-सुत आकर्षक वो ।
कविता का श्रृंगार-पूर्ण-अभिराम कहाँ से लाऊँ ।
मन भाये पर, तुलसी वाला राम कहाँ से लाऊँ ।।२।।
चुपके चुपके मिट्टी खाना, पकड़ गये तो आँख चुराना ।
हर भोजन में अर्ध्य तुम्हारा, चोट लगी तो धा कर मारा ।
भो भो पीछे दौड़ लगाते, आँख झपा तुम आँख बताते ।
कुछ भी यदि मन को भा जाये, दे दो कह उत्पात मचाये ।।
तेरे प्यारे प्यारे सारे कृत्यों से यदि छन्द बनाऊँ ।
मन भाये पर, सूरदास का श्याम कहाँ से लाऊँ ।।३।।
घुटनहिं फिरे सकल घर आँगन, ब्रजनन्दन को डोरी बाँधन ।
दौड़ यशोदा पीछे पीछे, कान्हा सूरदास मन रीझे ।
दधि, माखन और दूध चुराये, खात स्वयं, संग गोप खिलाये ।
फोड़ गगारी, दौड़त कानन, चढ़त कदम्ब, मचे धम-ऊधम ।।
ब्रज के ग्वाल-ग्वालिनों का सुखधाम कहाँ से लाऊँ ।
मन भाये पर, सूरदास का श्याम कहाँ से लाऊँ ।।४।।
सुखद आश्चर्य आपको पढ़कर ...गज़ब का लिखते हैं आप ! अपने आपको आपकी लेखनी की तारीफ़ के योग्य भी नहीं पा रहा ! बेहतरीन रचना के लिए शुभकामनायें !
ReplyDeleteसादर
जय श्री राम :)
ReplyDeleteवो राम -श्याम कहाँ से लाऊँ ...
ReplyDeleteसमय के साथ थोडा उन्हें भी बदल लेने दीजिये ...
बहुमुखी प्रतिभा के धनी है आप ...!
... bahut badhiyaa, badhaai !!!
ReplyDeleteआज सुबह सुबह तो आनंद ही आ गया प्रवीण जी..
ReplyDeleteकितना खूबसूरत लिखा है आपने..क्या कहूँ.
बिलकुल बेहतरीन...
रार मची रघुकुल नगरी पर, ठुमक-ठुमक थी जिस डगरी पर
ReplyDeleteतुलसी की करवट का आंगन, रामचरित रचना का दर्पन
लक्षालक्ष हृदों की भावना सदियों की जो दमित कामना
बर्बर बाक़ी के गुम्बद पर, रामादल ने आरोहण कर
पल में कर डाला था जो प्रतिकार उसे बिसराऊँ?
न्यायपीठ ने दिया हमें उपहार उसे मन लाऊँ
मन भाए, पर सेकुलर वादी तब कैसे कहलाऊँ?
राजनीति तज रसमय राम कृपा से खूब नहाऊँ
कवि प्रवीण का छंद पकड़कर बार-बार यह गाऊँ
मन भाये पर, तुलसी वाला राम कहाँ से लाऊँ?
वो तुलसी वाला राम कहाँ से लाऊँ? प्रवीण जी आज तो आपकी रचना के शब्द-
ReplyDeleteशब्द से राम निकल रहा है और ऐसा लग रहा है कि आपके रोम-रोम में राम बसा है। इतनी मनमोहक रचना तो नेट पर कम ही पढ़ने को मिलती है, आज तो मन प्रफुल्लित हो गया। आप सही कह रहे हैं कि इस देश को वापस राम मिल गया है और अब हमारा भाग्योदय होगा। जिस भोग वाद ने हमें जकड़ा था अब राम के वापस आने पर हम पुन: त्याग के मार्ग पर चल सकेंगे। आपको पुन: बधाई और आभार।
बेह्तरीन
ReplyDeleteतुलसी वाले राम को साकार न कर पाने की पीड़ा निराला की भी थी -और आपकी यही पीड़ा आपके इस राम काव्य कर्म को सहज बुद्धिगम्यता प्रदान कर रही है ....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिराम ....आप फ़िल्मी गानों को गाते हैं मगर इस श्रेष्ठ रचना को स्वर क्यों नहीं ?
बहुत अच्छा लगा पढकर। जय श्री राम!
ReplyDeleteसुन्दर छंद , राम के रस में पगी हुई , पहली बार अंतर्जाल पर ऐसी कविता का रसास्वादन करने का सौभाग्य मिला . आभार आपका .
ReplyDeleteबहुत मनभावन रचना ..राम और श्याम दोनों को एक ही रचना में उतार लाना ...अभिभूत कर गया ..आभार
ReplyDelete.
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा पढकर।
जय सिया-राम !
.
श्रीराम बहुआयामी नहीं अनन्तआयामी व्यक्तित्व हैं। जितनी मर्जी बार रामकथा पढ़ो लगता है अरे इस आयाम पर तो पहले मैने ध्यान ही नहीं दिया था।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर पोस्ट | राम तो केवल आदर्श स्थति का नाम है |
ReplyDeleteबच्पन को निरखना एक स्वर्गिक अनुभूति से कम नहीं...आपकी लेखनी ने समाँ बाँध दिया!!
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को मैंने ज़ोर-ज़ोर से बोल कर पढ़ा.... बहुत अच्छा लगा....
ReplyDeleteजय राम जी की....
मैं तो तय ही नहीं कर पा रहा हूं कि इतनी शुद्ध भाषा भला कौन कौन लिख सकता है....पशोपेश में हूं :)
ReplyDeleteक्या बात है...
ReplyDeleteबहुत सुंदर लिखा आप ने, अगर हम सब राम को मानते है, तो हमे उन का कहा भी मानना चाहिये, उन के रास्ते पर चलना चाहिये, वो पुजा के भुखे नही, अगर उन्हे खुश करना है तो हम भी वेसे ही बने
ReplyDeleteबहुत ही ख़ूबसूरत रचना....
ReplyDeleteव्यस्क होने पर तुलसी के राम या सूरदास के श्याम भले ही ना मिलें....पर बचपन में तो अभी भी बच्चे राम या कृष्ण के प्रतिरूप ही लगते हैं...
बढिया संस्मरण:)
ReplyDeleteपर पांडेय जी, अभी-अभी राम का चैप्टर क्लोज़ हुआ है, अब श्याम का.....>:)
बहुत ही अच्छी रचना ...बधाई
ReplyDeleteगाने का मौका देने के लिए... धन्यवाद
ब्लॉग पर जगह देने के लिए.......आभार
झूम उठा मन .... राम की महीमा यूँ तो अपरंपार है ..... और राम कृपा से आपके रचे छन्द बहुत ही कमाल हैं ... आनद आ गया ..... साथ साथ ...... गाँधी जयंती और शास्त्री जी का जनम दिन की बधाई ...
ReplyDeleteउत्तम, कितुं अभी राम जी को घर मिला नही सिर्फ़ मार्ग प्रसस्थ हुआ !
ReplyDeleteआपकी भाषा पर पकड़ हैरान करती है..... और इस रचना के तो क्या कहने
ReplyDeleteसचमुच निशब्द हूँ....
अभी तो आपने अभिभूत कर दिया है।
ReplyDeleteइस बार आपकी हिन्दी का स्तर मेरी पहुँच के ऊपर है, जी।
ReplyDeleteकोई बात नहीं। आपको दोष नहीं दूँगा! कमी तो मुझमें है।
अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है।
इसे पुन: पढूँगा। शब्दकोष का सहारा भी लूँगा।
आपने एक अच्छा अवसर दिया है मुझे ।
हिन्दी में मेरा शब्द भंडार खाली लगने लगा है आपके इस पोस्ट को पढ़कर।
इस लेख का स्तर इतना ऊँचा है कि हम टिप्पणी करने में अपने आप को सक्षम नहीं मानते।
मन के लिए भी व्यायाम की आवश्यकता है और आपके लेखों से हमे भरपूर व्यायाम मिल जाता है।
At first reading, the whole thing went over my weak head!
During the second reading, something sank in.
I need to read this again and again to fully appreciate your writing skills in pure Hindi.
Please treat this as a compliment, not a complaint.
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteकोटि-कोटि नमन बापू, ‘मनोज’ पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
बहुत सुन्दर रचना .बधाई
ReplyDeleteवाह मजा आ गया आपकी रचना पढ़ कर.
ReplyDeleteबस इतना ही कह सकती हूँ आपकी आभारी हूँ जो मुझे ये मौका मिला पढ़ने का.
************ॐ************
ReplyDeleteजय श्री राम ! जय श्री श्याम !
प्रियवर प्रवीण पाण्डेय जी
आभार !
बधाई !
शुभकामनाएं !
बहुत अच्छी रचना लिखी है । साधु साधु !
पृथु का चित्र लगाना था , हम भी इतनी सुंदर श्रेष्ठ रचना के प्रेरणा पुंज को निहार कर दृष्टि-सुख पा लेते ।
पढ़ते हुए मां भगवती शारदा की कृपा से बनी ये पंक्तियां आपको सादर सस्नेह समर्पित हैं -
आज प्रवीण नवीन निरख कर ।
चकित धरा , विस्मित है अम्बर ॥
राम-कृपा से यह रचना की ।
कृष्ण-प्रसादी ज्यूं हमको दी ॥
करती मम वाणी जो बक बक ।
मूक भयी है तव लीला लख ॥
रचदूं पद राजेन्द्र राम अरु श्याम छवि , सुख पाऊं ।
शब्द भाव तुम-से मैं ललित ललाम कहां से लाऊं ?
- राजेन्द्र स्वर्णकार
तुलसी के राम और सूर के श्याम तो हिंदुस्तान की माटी में रच-बस चुके हैं,प्रवीण जी !कुछ लोगों के लिए वे अंतर्धान हो जाते हैं पर आपने उन्हें सजीव (सशरीर) कर दिखाया...
ReplyDeleteअब तो यही कहूँगा....''प्रवीण के राम कहाँ से लाऊं ?''
आज सुबह सुबह तो आनंद ही आ गया प्रवीण जी..
ReplyDeleteकितना खूबसूरत लिखा है आपने..क्या कहूँ.
बिलकुल बेहतरीन..
बेहतरीन..
बेहतरीन..
बेहतरीन..
बेहतरीन..
बहुत आनंद आया आपके ब्लॉग पर आकर ... जाते जाते फोलो किया जा रहीं हूँ आगे भी ज़रूर पढना चाहूंगी .....
ReplyDeletebahut khushi hui aap mere blog par padhare ... abhi 4-5 mahine hue hai bhaavnaon ko shabd dete hue ... koshish karti hoon ki achha likh paaun ...
ReplyDeleteapne bhaav ko aapke shabdon mein pad kar bahut khushi hui ... aage bhi utsah badhaate rahiyega ... dhanyawaad..
हे रोम रोम में बसने वाले राम
ReplyDeleteजगत के स्वामी
हे अन्तर्यामी
मै तुझसे क्या मांगू
मै तुझसे क्या मांगू .......
@ सतीश सक्सेना
ReplyDeleteआपका अतिशय धन्यवाद। लिखना हो जाता है, पता नहीं प्रेरणा कहाँ से मिलती है?
@ Ratan Singh Shekhawat
उत्साह व्यक्त करने का आभार।
@ वाणी गीत
बचपन के मानक बन गये हैं राम-श्याम। अब हर बचपन में उनके दर्शन हो जाते हैं।
@ 'उदय'
बहुत धन्यवाद।
@ abhi
राम और श्याम का बचपन कितना आनन्द देता होगा उनके माता पिता को।
@ सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
ReplyDeleteतुलसी वाला राम मिला था जब मर्यादा पीड़ासित थी,
मर्यादा की आँच अभी भी, खड़ा राम है झेल रहा।
@ ajit gupta
रोम रोम में राम बसे हों, रोम रोम में श्याम रहें,
उनकी पीड़ा अब भी लखकर, अश्रु मेरे अविराम बहें।
@ M VERMA
बहुत धन्यवाद।
@ Arvind Mishra
प्रयास किया गाने का, हो न सका। गला रूँध गया।
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
बहुत धन्यवाद।
@ ashish
ReplyDeleteशब्द कभी कभी भावों को धोखा दे जाते हैं। आप सुधीजनों की प्रतिक्रिया देखकर लग रहा है कि इस बार शब्द साथ दे गये।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
राम और श्याम का बचपन साहित्य की धरोहर है। उसी को पढ़ कर थोड़ा लेखनी चला दी है, शेष राम की कृपा।
@ ZEAL
जय जय सिया राम।
@ ePandit
जितनी बार पढ़ता हूँ, मुझे भी नये आयाम मिल जाते हैं। यही कारण है कि बार बार पढ़ने का मन भी करता है।
@ नरेश सिह राठौड़
राम की स्थिति हम सबके लिये पथ प्रदर्शक है।
@ चला बिहारी ब्लॉगर बनने
ReplyDeleteबचपन आनन्द देता है, उस पर राम और श्याम का और तुलसी और सूर सम महान कवियों के द्वारा।
@ महफूज़ अली
ईश्वर करे आपके भी पुत्र हों और आप भी अभिभूत हो कुछ लिखें, भले ही अंग्रेजी में सही।
@ काजल कुमार Kajal Kumar
आपके कार्टून में भी वह तीक्ष्णता होती है।
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
बहुत धन्यवाद आपका।
@ राज भाटिय़ा
करना वह है जो राम ने किया और जो श्याम ने कहा।
@ rashmi ravija
ReplyDeleteबचपन में सब भाते हैं। बड़े होकर तो समाज के हो जाते हैं।
@ cmpershad
मैं कोई भी संकेत नहीं दे रहा हूँ।
@ Archana
आपके स्वर ने कविता के भाव जीवित कर दिये।
@ दिगम्बर नासवा
राम का चरित्र पढ़ने के बाद आप आप नहीं रहेंगे। तुलसीदासजी ने तो विनम्रतावश यह उद्घोषणा नहीं की, मैं कर देता हूँ।
@ पी.सी.गोदियाल
विरोधी तो सदैव ही रहेंगे, पर न्यायालय ने न्याय तो दिया।
@ डॉ. मोनिका शर्मा
ReplyDeleteमुझे तो भाव में डूबना अच्छा लगता है, शब्द स्वयं ही जूड़ने लगते हैं।
@ मो सम कौन ?
रामजी की ही कृपा है।
@ G Vishwanath
आपकी भाव पर पकड़ स्थिर है, शब्द स्वयं ही मुँह खोल अपना अर्थ बता देते हैं। आपने पढ़ा, मेरे लिये वही आशीर्वाद है।
@ मनोज कुमार
बहुत धन्यवाद आपका।
@ अशोक बजाज
बहुत धन्यवाद आपका।
@ अनामिका की सदायें ......
ReplyDeleteआप स्वयं कवियत्री हैं, आपकी कविता पर पकड़ है।
@ Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार
आपने प्रमाणपत्र दे दिया, बस रामकृपा हो गयी। साथ में छंद उपहार में दे दिये। आभार अनन्त तक।
@ संतोष त्रिवेदी ♣ SANTOSH TRIVEDI
मेरे राम तो जन जन के राम हैं।
@ संजय भास्कर
बहुत बहुत बहुत बहुत धन्यवाद आपका।
@ क्षितिजा ...
आपका अतिशय धन्यवाद।
@ शोभना चौरे
राम से जिसने जो माँगा है, उन्होने बिना कुछ अपना देखे दे दिया है।
बहुत सुंदर । तुलसी वाला राम कहांसे लाऊँऔर सूरदास का शाम कहां से लाऊँ . आपकी लेकनी ने तो दोनों के ही दर्शन करा दिये ।
ReplyDeleteवास्तव में आप पर कृपा दृष्टि जो है जिसकी है ........बहुत उम्दा है !
ReplyDeleteअपनी माता जी को पढ़ा और सुना रहा हूँ !
रविवार को पुन: पढा। वह भी धीरे धीरे और बार बार.
ReplyDeleteहमारे लिए शब्द कठिन थे पर बार बार पढने पर आनन्द का अनुभव हुआ।
शब्द कोश तो बिल्कुल नाकाम रहा।
पहले अनुच्छेद में ही अधिकांश शब्द तो शब्दकोश में भी नहीं मिले।
लगता है यह बहुत ही पुरानी हिन्दी है, आधुनिक हिन्दी नहीं।
हम जैसे लोग अवश्य handicapped हैं क्योंकि हिन्दी हमारी मतृभाषा नहीं है।
हम ने शबदकोश को तयागकर, शब्दों का मिठास, और कविता के लय पर ध्यान देते हुए पढने लगे।
पहली बार अर्चनाजी का गायन की तरफ़ मेरा ध्यान नहीं गया था।
बाद में नोटिस किया।
संगीत अद्भुत कला है। आनन्द उठाने के लिए शब्द समझना आवश्यक नहीं।
हम तो मुग्ध होकर अर्चना की मीठि आवाज़ सुनने में लग गए।
अर्चना को मेरा धन्यवाद और नमस्कार।
मेरा सुझाव है जब जब उपयुक्त हो, अवश्य audio clip जोड़ दीजिए।
ब्लॉग में विविधता आ जाती है।
अगली पोस्ट की प्रतीक्षा में।
जी विश्वनाथ
प्रवीण जी आप की लेखनी की लिखि मनोंन्माद भरने वाली है, या तो मुझे सूरदास के पद अच्छे लगे या फिर आप की रचना पड़ने के बाद जो अनुभूति हुई उसकी व्याख्या नहीं कर सकता
ReplyDeleteमन्त्र-मुग्ध मन, कंपित यौवन, सुख, कौतूहल मिश्रित जीवन,ठुमक ठुमक जब पृथु तुम भागे, पीछे लख फिर ज्यों मुस्काते,हृद धड़के, ज्यों ज्यों बढ़ते पग, बाँह विहग-पख, उड़ जाते नभ,विस्मृत जगत, हृदय अह्लादित, छन्द उमड़ते, रस आच्छादित।तेरे मृदुल कलापों से मैं, यदि कविता का हार बनाऊँ,मन भाये पर, तुलसी वाला राम कहाँ से लाऊँ?
ReplyDelete--
बहुत सुन्दर!
पढ़कर आनन्द विभोर हो गये!
@ Mrs. Asha Joglekar
ReplyDeleteदोनों को ही ढूढ़ता रहा हूँ, पहले बच्चों के बचपन में ढूढ़ा, अब अपने स्वभाव में ढूढ़ता हूँ।
@ प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI
आपकी माता जी का आशीर्वाद चाहिये, मेरा प्रणाम कहियेगा।
@ G Vishwanath
अब हम आपके घर टपकते हैं और कॉफी के साथ ही चर्चा होगी।
तुलसी ने अवधी में और सूरदास ने ब्रज में यह आनन्द बिखराया है। कुछ उन शब्दों का प्रयोग किया है। अब पहले से ही आपको भावार्थ भेज दिया करूँगा।
@ deep2087
पद तो तुलसी और सूर दोनो के ही अच्छे हैं, मैने तो बस उन्हें अपने लिये ढूढ़ने का प्रयास किया है।
@ डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण)
काव्य का आनन्द आपको आ जाना श्रम की सफलता है।
अर्चना चावजी के मधुर स्वरों में तुलसी वाला राम..
ReplyDeleteतुलसी वाला राम, सूरदास का श्याम
02 October 2010
जितनी बार भी राम का चरित्र पढ़ा है जीवन में, आँखें नम हुयी हैं। कल मेरे राम को घर दे दिया मेरे देशवासियों ने, कृतज्ञतावश पुनः अश्रु बह चले। धार्मिक उन्माद के इस कालखण्ड में भी सदैव ही मेरे राम मुझे दिखते रहे हैं, त्याग में, मर्यादा में, शालीनता में, चारित्रिक मूल्यों में। पृथु(पुत्र जी) के बाल्यकाल में मुझे तुलसी वाले राम और सूरदास के श्याम अभिभूत कर गये थे और लेखनी मुखरित हो चली थी।
मन्त्र-मुग्ध मन, कंपित यौवन, सुख, कौतूहल मिश्रित जीवन,
ठुमक ठुमक जब पृथु तुम भागे, पीछे लख फिर ज्यों मुस्काते,
हृद धड़के, ज्यों ज्यों बढ़ते पग, बाँह विहग-पख, उड़ जाते नभ,
विस्मृत जगत, हृदय अह्लादित, छन्द उमड़ते, रस आच्छादित।
तेरे मृदुल कलापों से मैं, यदि कविता का हार बनाऊँ,
मन भाये पर, तुलसी वाला राम कहाँ से लाऊँ?
सुन्दर गीतों में बसता जो, बाजत पैजनियों वाला वो,
छन्दों का सौन्दर्य स्रोत बन, तुलसी का जीवन-आश्वासन,
अति अनन्द वह दशरथ-नन्दन, ब्रम्हविदों का मन जिसमें रम,
कोमल सा मुखारविन्दु जो, कौशल्या-सुत आकर्षक वो,
कविता का श्रृंगार-पूर्ण-अभिराम कहाँ से लाऊँ?
मन भाये पर, तुलसी वाला राम कहाँ से लाऊँ?
चुपके चुपके मिट्टी खाना, पकड़ गये तो आँख चुराना,
हर भोजन में अर्ध्य तुम्हारा, चोट लगी तो धा कर मारा,
भो भो पीछे दौड़ लगाते, आँख झपा तुम आँख बताते,
कुछ भी यदि मन को भा जाये, दे दो कह उत्पात मचाये,
तेरे प्यारे प्यारे सारे कृत्यों से यदि छन्द बनाऊँ,
मन भाये पर, सूरदास का श्याम कहाँ से लाऊँ?
घुटनहिं फिरे सकल घर आँगन, ब्रजनन्दन को डोरी बाँधन,
दौड़ यशोदा पीछे पीछे, कान्हा सूरदास मन रीझे,
दधि, माखन और दूध चुराये, खात स्वयं, संग गोप खिलाये,
फोड़ गगारी, दौड़त कानन, चढ़त कदम्ब, मचे धम-ऊधम,
ब्रज के ग्वाल-ग्वालिनों का सुखधाम कहाँ से लाऊँ?
मन भाये पर, सूरदास का श्याम कहाँ से लाऊँ?
itne adbhut rachna ke liye shabd hi nahi sujh rahe hame ,laazwaab ,
prabhu lila ka varnan man ko bha gaya .
पुनः
ReplyDeleteबहुत उम्दा!!
गज़ब करते हो बॉस!!
रोम रोम में राम ...
ReplyDeleteभावपूर्ण एवं उत्कृष्ट रचना !!
@ ज्योति सिंह
ReplyDeleteप्रभु का स्मरण मन को शान्ति देता है, आनन्द देता है। मुझे भी लिख कर यह अनुभव हुआ।
@ Udan Tashtari
अब कविगण इतना उत्साह बढ़ाने लगें तो आँख बन्द कर स्थिर हो जाने का मन करता है।
@ राम त्यागी
आपको तो बचपन से ही उसी नाम से बुलाया जा रहा है जो नाम मेरे राम का है।
बस आपकी लेखनी को सलाम कर रही हूँ। माँ शार्दे की पूर्ण कृ्पा है आप पर। बहुत बहुत बधाई इसी तरह लिखते रहिये। मन गदगद हो गया। आशीर्वाद।
ReplyDeletehttp://veeranchalgatha.blogspot.com/
ReplyDeleteकृ्प्या इसे भी देखें। धन्यवाद।
आप तो बहुत अच्छा लिखते हैं अंकल जी...
ReplyDeleteWah!-wah
ReplyDeletepraveen ji kaise tarrif karun aapki.abtak toaapki gahrai se likhi gai posto ko hi padh kar main sohtithi ki shayad lekhni mki koi vidha aapse achhooti nahi hai,par aaj to aapka ek naya hi roop dikha.sach kavita ko padh kar man khushi se jhuum utha.
ek behatreen rachna.
poonam
maza aa gaya bandhuwar....wah...sadhuwaad swikaren...
ReplyDeleteकल केवल पढ कर चली गयी थी, मगर आज सुनने आयी हूँ। अर्चना जी की मधुर आवाज़ मे आपके शब्द कानों मे रस घोल रहे हैं। सुन्दरतम प्रस्तुति। बधाई।
ReplyDeleteघुटनहिं फिरे सकल घर आँगन, ब्रजनन्दन को डोरी बाँधन,दौड़ यशोदा पीछे पीछे, कान्हा सूरदास मन रीझे,दधि, माखन और दूध चुराये, खात स्वयं, संग गोप खिलाये,फोड़ गगारी, दौड़त कानन, चढ़त कदम्ब, मचे धम-ऊधम,ब्रज के ग्वाल-ग्वालिनों का सुखधाम कहाँ से लाऊँ?मन भाये पर, सूरदास का श्याम कहाँ से लाऊँ?
ReplyDelete......मनभावन बालक्रीडा .....बेहद मनमोहक प्रस्तुति के लिए धन्यवाद
@ निर्मला कपिला
ReplyDeleteआपने पढ़ा, पुनः आयीं और सुना भी। आपका आशीर्वाद बना रहेगा तो माँ शारदे भी प्रसन्न रहेंगी।
@ Akshita (Pakhi)
आपकी भी पोस्टें हमें बहुत अच्छी लगती हैं।
@ JHAROKHA
सुधीजन विश्वास बरसाते रहें,विचारों को शब्द मिलते रहें, जीवन में और क्या चाहूँ मेरे राम से।
@ योगेन्द्र मौदगिल
बहुत धन्यवाद आपका कविश्रेष्ठ, उत्साहवर्धन के लिये।
@ कविता रावत
बचपन का हर भाव स्मृतियों में घर बना लेता है।
वो श्याम, वो राम स्वयं जब रीझ जाते हैं
ReplyDeleteशब्द की परत में भी छुप कर आते हैं
लगता है, उन्हें आपके शब्द भाये हैं
पढ़ कर आनंद आया, यानि वो आये हैं
बधाई
अति सुन्दर! इतना अधिक सुन्दर कि लिखने को शब्द नहीं। तुलसीदास जी के ही शब्दों में कहें तो-"गिरा अनयन नयन बिनु बानी।"
ReplyDelete@ Ashok Vyas
ReplyDeleteढूढ़ते रहते उन्हे, मिलते नहीं फिर भी,
जानते सब, क्यों हृदय देखा नहीं हमने।
@ विनोद शुक्ल-अनामिका प्रकाशन
रामचरितमानस पढ़ते पढ़ते पता नहीं चरित्र का कितना खारापन आँखों से निकल गया है।
आपकी इस अद्वितीय रचना के प्रशंशा को मैं शब्द कहाँ से लाऊं ??
ReplyDelete@ रंजना
ReplyDeleteराम और श्याम सम वर्णन करने की सामर्थ्य नहीं है मुझमें और यह तथ्य स्वीकार करने में भी कोई हिचक नहीं। आप सबकी प्रशंसा आशीर्वाद के रूप में ले रहा हूँ।
प्रभू श्री राम से प्रार्थना है कि जल्द जल्द से वे अपने नये घर में पधारें जिसके लिये हम सब प्रयासरत हैं । आपकी वाणी में भी श्री राम बसते हैं । जय श्री राम ।
ReplyDelete"मन भाये पर, तुलसी वाला राम कहाँ से लाऊँ?"राम और कृष्ण तो भारतीय जन मानस के रोम रोम में बसे हैं, आपने तुलसी और सूर दोनों की ही महत्ता बढा दी है।
ReplyDelete@ कृष्ण मोहन मिश्र
ReplyDeleteराम हम सबके हृदय में हैं, स्थिर घर भी मिलेगा।
@ विनोद शुक्ल-अनामिका प्रकाशन
तुलसी और सूर ने जिस सुन्दरता से इनका बचपन उभारा है वह सदियों से हमें लुभा रहा है।