ब्लॉगरों से संक्षिप्त पर स्नेहमयी भेंट के पश्चात जब चला, तब मन प्रसन्नचित्त था, वातावरण में शीतलता थी और मार्ग के दोनों ओर बिखरी हरियाली नयनों को आनन्द प्रदान कर रही थी। पता नहीं क्यों, पर जैसे जैसे सेवाग्राम स्थिति गांधी आश्रम की ओर बढ़ रहा था, मन में व्यग्रता और हृदयगति बढ़ रही थी। आज जो प्रश्न मुझसे पूछे जाने वाले थे, गांधी के प्रतीकों द्वारा, उनका उत्तर नहीं था मेरे पास। बिना कुछ भेंट लिये कैसे कोई जाता है अपने प्रिय के पास? मैं जा रहा था निरुत्तर। मुझे बहुत पहले से ज्ञात था कि यह क्षण मेरे जीवन में एक न एक दिन आयेगा अवश्य पर मैंने इस प्रश्न का उत्तर यथासम्भव नहीं ढूढ़ा। रीते हाथ जाने की व्यग्रता थी मन में और वर्षों तक गांधी से आँख न मिलाने की कायरता भी।
आश्रम सहसा ही आ गया, बिना किसी गुम्बदीय भौकाल के। जिस देश में जीवित आत्माओं के महिमा मण्डन में कुबेर के हाथों नहाने का प्रचलन हो, उस तुलना में अव्यक्त सा लगा आधुनिक भारतीय इतिहास के मर्म का निवासस्थल। मेरी व्यग्रता सहसा ढल गयी, स्थान का प्रभाव था संभवतः। राजनीति के कई शलाका पुरुषों को 1934 से 1948 के बीच ऐसी ही शान्ति मिल जाया करती होगी इस आश्रम में घुसते ही।
कुटिया में घुसते ही पर, बहुत ही करुण स्वर में गांधी जी ने मुझसे वह प्रश्न पूछ ही लिया। प्रश्न बहुत सरल था और मुझे पहले से ज्ञात भी। क्या मेरे देश के लोग सत्य और अहिंसा को अभी भी समझते हैं? राजनीति तो तब भी स्वार्थतिक्त थी और आज भी होगी, पर कहीं मेरे नाम का दुरुपयोग तो नहीं कर रहे हैं, आज के नेता?
मैं क्या कहता, आँख नम किये स्तब्ध सा खड़ा रहा अपने ही स्थान पर, किवाड़ पर मले हुये कड़वे तेल से अधिक आँखों को रुलाने वाले थे उत्तर। अपनी वृद्धावस्था से हिलने में असमर्थ उस निराश मुख के पीछे दुख का सागर हिलोरें ले रहा था। 76 वर्ष पहले वायसरॉय द्वारा लगाये गये फोन से अभी तक केवल समस्या के समाधान के लिये प्रार्थनायें ही तो आयी हैं, मेरे सत्य और अहिंसा के संदेशे को तो सदा ही म्यूट में ही रखा है सबने। मेरे अश्रु यह कह कर टपकने नहीं दिये कि यदि अश्रु टपक गये तो आँखों से इनका खारापन चला जायेगा। आज या तो अन्याय हो रहा है या अन्याय सहा जा रहा है, प्रतिकार न मेरी विधि से हो रहा है और न ही उन क्रान्तिकारियों की विधि से, जिनसे मेरा सैद्धान्तिक मतभेद रहा है। मैं कुछ सोचकर अश्रु पी गया।
सोचा, यदि सुबह ही यहाँ आ गया होता तो देश के सजग औऱ निर्भय ब्लॉगर बन्धुओं से इस प्रश्न का उत्तर पूछता। समय की कमी ने जीवन का क्रम तोड़ मरोड़ कर रख दिया है, जीने के समय मरने सी हड़बड़ी और मरने के समय शान्ति से जीने की उत्कट चाह।
गांधीजी और कस्तूरबा की सरल और अनुशासित जीवनचर्या का साक्षात दर्शन कर, अपनी पत्नी से विनोदवश पूछा कि यहाँ पर रह पाओगी, इस प्रकार का जीवन। पत्नी, जो थोड़ा आर्थिक सम्पन्न परिवार से है, का उत्तर भी आईना दिखाता हुआ सपाट था। हाँ, यदि आप गांधीजी की तरह रह सकते हो तो। गांधीजी के आदर्शों का पालन करने का दम्भ भरते हुये और ज्ञान बाटते हुये नेताओं को ऐसे उत्तर क्यों नहीं मिल पाते? क्यों नहीं इस बात पर सहमति बनती है कि किसी भी व्यक्ति के लिये गांधीजी का नाम और आदर्श का उपयोग करने की पहली शर्त उस प्रकार का जीवन व्यतीत करना है जिससे गांधीजी के विचारों को दृढ़ता व परिपक्वता मिली थी।
64 वर्ष की आयु में गांधी जी वर्धा स्थित इस आश्रम में रहने आये थे। आज मेरे देश की स्वतन्त्रता को भी 64वाँ वर्ष लगा है, उसे भी वर्धा के आश्रम जैसे सरल, अनुशासित और कर्मशील जीवन जीने को कौन प्रेरित करेगा?
वर्धति गांधी कर्मम्, वर्धति गांधी मर्मम्, स वर्धा।
आश्रम सहसा ही आ गया, बिना किसी गुम्बदीय भौकाल के। जिस देश में जीवित आत्माओं के महिमा मण्डन में कुबेर के हाथों नहाने का प्रचलन हो, उस तुलना में अव्यक्त सा लगा आधुनिक भारतीय इतिहास के मर्म का निवासस्थल। मेरी व्यग्रता सहसा ढल गयी, स्थान का प्रभाव था संभवतः। राजनीति के कई शलाका पुरुषों को 1934 से 1948 के बीच ऐसी ही शान्ति मिल जाया करती होगी इस आश्रम में घुसते ही।
कुटिया में घुसते ही पर, बहुत ही करुण स्वर में गांधी जी ने मुझसे वह प्रश्न पूछ ही लिया। प्रश्न बहुत सरल था और मुझे पहले से ज्ञात भी। क्या मेरे देश के लोग सत्य और अहिंसा को अभी भी समझते हैं? राजनीति तो तब भी स्वार्थतिक्त थी और आज भी होगी, पर कहीं मेरे नाम का दुरुपयोग तो नहीं कर रहे हैं, आज के नेता?
सोचा, यदि सुबह ही यहाँ आ गया होता तो देश के सजग औऱ निर्भय ब्लॉगर बन्धुओं से इस प्रश्न का उत्तर पूछता। समय की कमी ने जीवन का क्रम तोड़ मरोड़ कर रख दिया है, जीने के समय मरने सी हड़बड़ी और मरने के समय शान्ति से जीने की उत्कट चाह।
64 वर्ष की आयु में गांधी जी वर्धा स्थित इस आश्रम में रहने आये थे। आज मेरे देश की स्वतन्त्रता को भी 64वाँ वर्ष लगा है, उसे भी वर्धा के आश्रम जैसे सरल, अनुशासित और कर्मशील जीवन जीने को कौन प्रेरित करेगा?
वर्धति गांधी कर्मम्, वर्धति गांधी मर्मम्, स वर्धा।
मन में जो शुरू हो गया है मंथन -कुछ सार्थक तत्व प्रकट हो कर सामने आएँगे ही ,साधु!
ReplyDeleteमेरे सामने एक कस्तूरबा गाँधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट इंदौर द्वारा प्रकाशित "गाँधी-प्रसाद" नामक पॉकेट बुक है उससे कुछ अंश---"मेरा जीवन ही मेरा संदेश है....."
ReplyDelete"मैं आपके दोषों की तरफ़ आपका ध्यान खींचकर आपकी सबसे अच्छी सेवा कर सकता हूँ। वही मेरे जीवन का मंत्र रहा हैक्योंकि उसी में सच्ची दोस्ती समाई हुई है, और मेरी सेवा सिर्फ़ आपके या हिन्दुस्तान के लिए नहीं ह\, वह तो सारी दुनिया के लिए है,क्योंकि मैं जाति या धर्म की सीमाओं को नहीं मानता।"
अब तो गाँधीवाद किताबों व भाषणों में ही रह गया है , खुद गांधीवाद के उतराधिकार का दावा करने वाले भी असल व्यवहार में अब गांधीवाद से कोसों दूर हो गए | अब तो गांधीवाद के नाम पर सिर्फ ढोंग करने वाले ही बचे है |
ReplyDeleteअंतर्मन ही प्रेरित करेगा, अगर आत्मा जिंदा हो तो।
ReplyDeleteकिसी क्षण कालजयी लगने वाली विचारधारायें भी समय के साथ बदलती हैं या लोप हो जाती है - जो जितना ज़्यादा टिकेगा वह उतना ही टिकाऊ सत्य है।
ReplyDeleteसत्यमेव जयते!
गाँधी के नाम का दुरूपयोग तो उनके जीवन काल में ही प्रारंभ हो गया था ...
ReplyDeleteइस समय में गाँधी के जैसा जीवन और व्यक्तित्व दोनों ही मुश्किल हैं ...
मगर ये सुझाव अच्छा है कि कम से कम जनसेवा या लोकसेवा के कार्य से जुड़े लोगों को कुछ समय के लिए ही सही , यहाँ रहना अनिवार्य कर दिया जाए ...!
उम्दा पोस्ट।
ReplyDelete..लेशन शैली रोचक ... वर्तमान राजनैतिक अवसर वादिता पर करारा व्यंग्य होने के साथ-साथ यह आलेख एक आध्यात्मिक चिंतन भी अच्छे ढंग से रखने में समर्थ है। ये पंक्तियाँ डायरी में लिखने लायक है...
..समय की कमी ने जीवन का क्रम तोड़ मरोड़ कर रख दिया है, जीने के समय मरने सी हड़बड़ी और मरने के समय शान्ति से जीने की उत्कट चाह। ....
गांधीजी, कस्तूरबा और मीरां बहन की कुटिया में साक्षात जीवन के दर्शन होते हैं। भारत की आजादी का कालचक्र आँखों के समक्ष आ जाता है। स्वयं के लिए कुटिया भर और देश के लिए पूर्ण स्वराज, बस यही है महात्मा गांधी। आज सुबह से ही एक भजन स्मृति में आकर जुबान पर चढ़ गया है - मन की तरंग साध लो बस हो गया भजन। गांधी यही है। नमन।
ReplyDeleteवर्धा भाग २ भी बहुत अच्छा लिखा आपने .....
ReplyDeleteगांधीजी के जीवन दर्शन के बारे में तो जितना पढ़े-लिखें कम ही लगता..... हाँ तकलीफ होती यह देखकर की गाँधी का नाम मजबूती से जोड़ा जाना चाहिए ..पर इसे मजबूरी से जोड़ दिया मजाक हो गया है सब और बन गया मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी.....
कभी कभी लगता है कि भाव तो हम सबके आते हैं पर व्यक्त करने की कला कोई आपसे सीखे !
ReplyDeleteबचपन में गांधी जी की कई पुस्तकें पापा ने मुझे पढवाई और अभी भी यदा कदा कुछ पढ़ लेता हूँ , हर बार आदर्श , सत्य , सदाचार, संयम, निष्ठा और त्याग के भाव जैसे चारों और से गदगद सा कर देते हैं , फिर घर में भी एक स्वरुप गाँधी का देखता हूँ, मेरे पिता, जो हर बार अपनी पोस्टिंग ऐसे गाँव में कराते हैं जहाँ कोई और जाना नहीं चाहता और फिर खुद रोज कर्तव्यनिष्ठ होकर अपनी ड्यूटी पर जाते हैं , चिकित्सा विभाग में उनके साथ के लोग गरीबों के लिए आ रहीं दवाईयों को बेच और अपनी खुद की क्लिनिक खोल हजारो कमा कर शहरों में जब मदमस्त पर ग्लानिरत होकर जी रहे हों तब ये अपनी तनख्वाह भी आदिवासियों में बाँट आते हैं , लड़कियों की शादी कराने से लेकर उनके साथ हर परिस्थिति में जैसे साथ रहने का उन्होंने उन गाँव वालों को वचन दे दिया हो, सुब्बाराव , विनोवा भावे , स्वेट मार्डेन, श्रीराम शर्मा आचार्य से प्रभावित वो अपनी दैनिक गतिविधियों से हमारे क्षेत्र में एक निर्विवाद छवि के रूप में जाने जाते हैं और मुझे हर वक्त यही अहसास होता है कि मैं अपनी क्षमता से नहीं बल्कि उन सैकड़ों गरीबों के आशीर्वाद की वजह से ही कुछ कर पाने में समर्थ हूँ, कभी कभी हम भी पिता का पूरा समय और प्यार ना पाने से खीज पड़ते थे पर आज उनके त्याग का अहसास हर पल मुझे एक स्फूर्ति और सत्य पर चलने की प्रेरणा देता है ! बचपन में सिखाये गए डायरी लेखन से लेकर , सादगी के पाठ, मेहनत की कमाई तक हर चीज मुझे मेरे असल गांधी से मिलती रही है ! पर कभी कभी दुःख होता है कि ऐसे लोग जिन्दा रहते कभी मानव द्वारा बनायीं गयी सुविधाओं का उपयोग अपनी कर्तव्यनिष्ठता के सामने कर ही नहीं पाते, पर फिर सुकून मिलता है कि जब वो बुलाएं - कई लोग आ खड़े होते हैं ! जब वो मेहतर, चमार या कोरी के घर उनके साथ बैठकर खाना खाते हैं तो लोग पागल तक की संज्ञा दे देते हैं पर उस गरीब को जो संबल , स्वाभिमान और ऊर्जा उस साथ से मिलती है वो अपने आप में एक प्रेरणा और यादगार बन जाती है ! उनके लिए सब इंसान जाती भेद से दूर होकर एक समान हैं ! और इसलिए घर में गीता, रामायण के साथ कुरआन को भी जगह मिलती है !
कितने ऐसे गाँधी है आज भी, उसके लिए वर्धा या साबरमती भी शायद न जाना पड़े पर ऐसे धार्मिक स्थलों से प्रतीकात्मक प्रेरणा की स्फूर्ति तो शारीर में आती ही है !
आभार आपका !
वर्धा व्याख्यायित -बहुत सुन्दर
ReplyDeleteमुझे लगता है कि वर्धा का आनंद आपने खूब लिया प्रवीण भाई ! बधाई !
ReplyDeleteभाग दो भी बढ़िया लगा।
ReplyDeleteगांधी जी से कभी मै खुद को प्रेरित न कर सका...लेकिन हाँ, उनके लिए जुरूर एक बहुत ही आदर भाव है मन में...
ReplyDeleteवर्धा -२ भी बहुत अच्छा लगा..
बहुत मर्मस्पर्शी पोस्ट। साधुवाद।
ReplyDelete2 अक्टूबर, 2008 को ऐसे ही विचारों ने मुझे घेरा था तो ये पंक्तियाँ निकल आयी थीं मेरी माइक्रो पोस्ट में (http://satyarthmitra.blogspot.com/2008/10/blog-post.html)
बापू,
सादर नमन्…
ये अच्छा ही है जो आज तुम हमारे बीच नहीं हो…।
यदि होते तो बहुत तकलीफ़ में रहते…।
…
आसान नहीं है आँख, कान, मुँह बन्द रखना…
AATMA KEE PUKAR SUN SAKE USE PAR CHAL SAKE TO JEEVAN SARTHAK HOGA.......
ReplyDeleteaaj ke parivesh me paribhashae hee badal gayee hai.....saadgee gareebee aur shanti kee.......
accha lekh........
बहुत ही प्रेरक, शालीन, शांत पोस्ट। गांधी जी के जीवन की तरह....
ReplyDeleteप्रेरित और सोचने को मजबूर करता एक गंभीर आलेख्।
ReplyDeleteप्रवीण जी
ReplyDeleteआपके लेखन को एकाग्रचित होकर पढना पढता है कुछ अजीब-सा स्टाईल है ... प्रसंशनीय पोस्ट, बधाई !
उदय
मै सहमत हूँ कि गांधीवाद कि बात करने वालो को गाँधी जी कि रहन सहन से प्रेरणा लेना ही चाहिए ,
ReplyDeleteक्या कहूँ,कुछ समझ नहीं आ रहा..
ReplyDeleteबचपन में एक बार मुझे भी सौभाग्य मिला था यह देखने का सच ही उस समय इतिहास में पढ़ा सब चलचित्र की मानिंद घूम गया था आँखों के सामने.
ReplyDeleteबहुत ही शालीन और रोचक शैली में लिखा है आपने.
और मानना पड़ेगा आपकी पत्नी श्री ने क्या जबाब दिया :) मेरी शुभकामनाये उनतक पहुंचाइएगा .
64 वर्ष की आयु में गांधी जी वर्धा स्थित इस आश्रम में रहने आये थे। आज मेरे देश की स्वतन्त्रता को भी 64वाँ वर्ष लगा है, उसे भी वर्धा के आश्रम जैसे सरल, अनुशासित और कर्मशील जीवन जीने को कौन प्रेरित करेगा?******इस सवाल का जवाब ढूँढना शायद मुश्किल हो गया है हम भारतवासियों के लिए !!
ReplyDeleteबहुत रोचक...आनन्द आया.
ReplyDeleteबढ़िया लगा!
ReplyDeleteवर्धा और साबर्मति आश्रम दोनों के बारे में बहुत सुन चुका हूँ।
ReplyDeleteवहाँ जाने का कभी अवसर नहीं मिला।
तसवीरें अच्छी हैं।
लेख भी ऊंचे स्तर का। पर हम जैसों को थोडा दिमागी कसरत करना पढता है।
कुछ वाक्यों को दो या तीन बार पढना पडता है।
आप की शुद्ध हिन्दी से हम रोज नये शब्द सीख रहे हैं या पुराने भूले हुए शब्दों को सही ढंग से प्रयोग करना सीख रहे हैं।
हाँ और आपकी पत्नि का जवाब सुनकर हम मुस्कुराए।
मेरी पत्नि से ऐसा सवाल करने की भूल मैं नहीं करूंगा।
जानता हूँ क्या उत्तर देगी।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
गॉंधी बहुत ही सहज और सरल है। दुरुह बिलकुल ही नहीं। गॉंधी का पहला अर्थ है - कथ्ानी और करनी में समानता। गॉंधी का अर्थ है - उपदेश नहीं, आचरण। जो भी करना है, खुद कर लो। दूसरा भी वैसा ही करे, यह न तो आग्रह हो न ही अपेक्षा।
ReplyDeleteगॉंधी को 'वाद' में बदलकर हमने गॉंधी के साथ अत्याचार और अन्याय ही किया है। यही हम लोगों की फितरत है - सहजता को क्लिष्टता में बदल देना।
ईश्वर के बाद गॉंधी ही सर्वाधिक विश्वसनीय मित्र है।
आपकी पोस्ट उत्कृष्ट भाषा का सुन्दर उदाहरण है। अच्छी लगी।
जीने के समय मरने सी हड़बड़ी और मरने के समय शान्ति से जीने की उत्कट चाह।
ReplyDeleteयही जीवन का सत्य रह गया है
.
ReplyDelete.
.
मुझे लगता है कि गाँधी जी की महानता उनकी राजनीति में है... उनके जीवन की सरलता, अनुशासनप्रियता व विचारों की दॄढ़ता को यदि मानक मानें तो आज भी बहुत से पुरूष वैसा जीवन जीते मिल जायेंगे... अपने दॄढ़ विचारों, अनुशासन प्रियता व आधुनिक चिकित्सा कें प्रति दुराग्रह के चलते बा के साथ वे कई बार अन्याय भी कर गये...
देश को आज भी बापू सा कर्मशील व अनुशासनप्रिय जीवन जीने की जरूरत है... पर सरल नहीं... व्यक्ति व समाज द्वारा स्वयं को सुख सुविधाओं से वंचित रखने से प्रगति बाधित होती है... बापू की आर्थिक सोच इस महादेश के लिये आज सामयिक नहीं... हमें अभी पूरा आसमान पाना है!
...
वर्धा के दोनो भाग आज ही पढे . गान्धी बाबा का वर्धा ............. अच्छा लगा
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा सारा विवरण, आप से सहमत हे जी, धन्यवाद
ReplyDeleteसटीक पंच।
ReplyDeleteबड़ी मुश्किल है .... 20.10.2010 को आई नैक्स्ट में प्रकाशित व्यंग्य
बीस दस बीस दस : यह तो लय है जी, लय की जय है जी : पहेली बूझें
सुंदर विवरण
ReplyDeleteमेरे अश्रु यह कह कर टपकने नहीं दिये कि यदि अश्रु टपक गये तो आँखों से इनका खारापन चला जायेगा।
...भीतर तक द्रवित कर गयी ये बात.
हाँ, यदि आप गांधीजी की तरह रह सकते हो तो।
----जवाब सोच रहे हैं ?
‘64 वर्ष की आयु में गांधी जी वर्धा स्थित इस आश्रम में रहने आये थे। आज मेरे देश की स्वतन्त्रता को भी 64वाँ वर्ष लगा है,’
ReplyDeleteपर लगता है ३६ का आंकडा :)
अगर गांधी जी के विचारों का पालन करना उनके नाम लेने की शर्त बन जाए ...तो गाँधी जी का नाम शब्दकोष में ढूंढना पड़ जाए.
ReplyDelete@ प्रतिभा सक्सेना
ReplyDeleteस्थान का प्रभाव होता है जो कि विचारधारा को आड़ोलित कर जाता है।
@ Archana
जो गांधी जी ने कहा वह उन्होने जिया भी, यह कृतित्व उनकी जीवनी से परिलक्षित था।
@ Ratan Singh Shekhawat
गांधी के नाम पर व्यापार करने वाले, उनको हमारी स्मृतियों से न उतरने देंगे और न ही उनका रंग अपने जीवन में चढ़ने ही देंगे।
@ Vivek Rastogi
अपने हर शब्दों को जीने वाले का आश्रम देख विचारशील न हो पाना कितना कठिन है?
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
विचारधाराओं का क्रियान्वयन बदल सकता है पर अन्तर्निहित सिद्धान्त नहीं।
@ वाणी गीत
ReplyDeleteअनुभव की पीड़ा थोड़ा सम्मान बढ़ायेगी हमारे मन में गांधीजी के प्रति।
@ देवेन्द्र पाण्डेय
समय की कमी न जाने कितनी बार धोखा दे चुकी है, हड़बड़ी तब कचोट जाती है जब मन कहीं रम रहा होता है।
@ ajit gupta
आपको तो लाभ मिला होगा आश्रम जाने का। भजन तभी भाता है जब मन सरल होता है।
@ डॉ. मोनिका शर्मा
आपकी बात गाँठ बाँध ली, गांधीजी का नाम मजबूती से जोड़ा जाना चाहिये, न कि मजबूरी से।
@ राम त्यागी
आपकी टिप्पणी पढ़ आँखें नम हो गयीं, बस देश को आपके पिताजी जैसे ही गांधी आवश्यक थे, शेष सब ढकोसले हैं। अपनी मानवता से किसी एक का भी जीवन का उपकृत करना कितना कठिन है पर कितना संतुष्टि देने वाला।
आपके पिता का जीवन स्तुत्य है, मेरा प्रणाम।
गांधी तो हमेशा से ही आकर्षण का केंद्र बने रहे हैं ......आपकी नजर से देखना और अलग तरह का अनुभव लगा !
ReplyDeleteबकिया धर्म-पत्नी से पूछा गया प्रश्न और उसका उत्तर ....नहले पे दहला जैसा रहा !
मुस्कराहट चालू आहे !
@ Arvind Mishra
ReplyDeleteआपका न होना कुछ अधूरापन छलका रहा था, वर्धा में।
@ सतीश सक्सेना
सबका वर्धन हुआ, तभी तो नाम वर्धा पड़ा।
@ ZEAL
बहुत धन्यवाद।
@ abhi
हो सकता है पूरी विचारधारा से मैं भी सहमत न हूँ, यह भी सम्भव है जिससे सहमत हूँ उस पर अमल न कर सकूँ, फिर भी उनके प्रति आदर का भाव रखना मेरा अधिकार है।
@ सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
सच कह रहे हैं, बापू यह देख कर फूट फूट कर रोये होते।
@ Apanatva
ReplyDeleteसच कह रही हैं आप, सादगी को गरीबी मान लोग उससे दूर भाग रहे हैं।
@ मनोज कुमार
गांधीजी के जीवन सा सरल लिखने में अभी बहुत श्रम करना शेष है।
@ वन्दना
ऐसे स्थानों पर जाकर चिन्तन प्रक्रिया आकार लेने लगती है।
@ 'उदय'
आज अजीब विशेषण पा मेरी आवारगी धन्य हो गयी, शत साधुवाद।
@ ashish
उस जीवन में न जाने कितना सीखने के लिये छिपा है।
@ रंजना
ReplyDeleteपर गांधीजी के सामने जा तो सब सहज हो जाते थे।
@ shikha varshney
अभी भी वो चित्र मेरी आखों से उतर नहीं रहे हैं। वाकपटुता निसंदेह गुण है प इसमें गहरा संदेश छिपा था।
@ Akanksha~आकांक्षा
यदि इस प्रश्न का उत्तर मिलना कठिन है तो हम भारतवासियों का गांधी का आदर्श बखानने से भी परहेज करना चाहिये।
@ Udan Tashtari
बहुत धन्यवाद आपका।
@ डॉ.कविता वाचक्नवी Dr.Kavita Vachaknavee
बहुत धन्यवाद आपका।
@ G Vishwanath
ReplyDeleteआपका अनुराग बना रहे, संवाद तो स्थापित कर लेंगे हम। सरलता की ओर बढ़ना प्रारम्भ कर दिया है, थोड़ा समय तो लगेगा ही।
@ विष्णु बैरागी
सरलता और सहजता देखने में नहीं पर अनुकरण में दुष्कर है। गांधीजी का जीवन तो सरलता के तप में कांचन हो गया।
@ anitakumar
कभी कभी लगता है कि ऐसी कौन सी हड़बड़ी है जिस पर हम भागे जा रहे हैं।
@ प्रवीण शाह
उन जैसा जीवन तो कठिन होगा आज के नर के लिये पर सिद्धान्त फिर भी जिये जा सकते हैं।
@ dhiru singh {धीरू सिंह}
गांधीजी का त्याग प्रभावित करता है।
@ राज भाटिय़ा
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ अविनाश वाचस्पति
यदि पंचों को मान्य हो।
@ अनामिका की सदायें ......
कुछ उत्तर न दे पाया, मुस्करा कर रह गया।
@ cmpershad
पर अभी तो देश गांधी से दूर भाग रहा है।
@ rashmi ravija
सच कह रही हैं आप, तब शब्दकोष में सब छिपा देंगे गांधीजी को।
@ प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI
ReplyDeleteसत्य और त्याग तो सबको आकर्षित करते हैं, यही कारण है कि उस समय लोग गांधीजी से तदात्म्य स्थापित कर पाये।
@ यदि आप गांधीजी की तरह रह सकते हो तो।
ReplyDeleteबहुत सही।
गांधी जी के उपदेश सब लोगों ने कहां माने? यहां तक कि जो उनके नाम पर वोटों की मलाई चाट गये, उन्होंने भी उनके उसूलों की गठरी बनाकर ऊपर रख दिया. साल भर में चार बार उठाकर गठरी खोल ली जाती है...
ReplyDeleteपढ़ने के बाद आँखें नम हैं और मन विचलित.. कुछ शर्मिंदगी भी है..
ReplyDeleteमार्मिक और प्रभावी.
ReplyDeleteबधाई!
मैं भी वर्धा घूमने जाउंगी अब...
ReplyDeleteअपकी श्रीमति जी की बात बहुत अच्छी लगी। असल मे आज एक भी आदमी ऐसा नही मिलेगा जो गाँधी जी जैसा त्याग कर सके। उनका नाम तो खुद के स्वार्थ और कमियों को छुपाने के लिये ही किया जा रहा है। नेताओं की तो बात ही छोडिये। सार्थक और चिन्तनपर्क पोस्ट है बधाई।
ReplyDelete@ सतीश पंचम
ReplyDeleteविनोद कभी कभी बड़े गहरे भाव लिये होता है।
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
सच में उनके उपदेशों की गठरी बना कर ही तो रख दी है।
@ दीपक 'मशाल'
जब देश में इतने महान व्यक्तित्वों की फजीहत होते देखता हूँ, आँखें नम हो जाती हैं।
@ ऋषभ Rishabha
बहुत धन्यवाद।
@ Akshita (Pakhi)
आपको इस बार ही मम्मी और पापा को लाना चाहिये था।
@ निर्मला कपिला
ReplyDeleteहताशा की पराकाष्ठा तब होती है जब लोग दूसरे से गाँधी के रास्ते पर चलने को कहे और स्वयं स्वार्थतिक्त होकर जिये। देश में इस तरह के व्यक्तित्व प्रतिदिन बढ़ रहे हैं।
बड़ी प्रेरणादायी बातें ;
ReplyDeleteग्राम -चौपाल में पधारने के लिए आभार .
बंधू चित्र से तो काफी जवान हो .और इतना गंभीर मनन चिंतन अवलोकन .बहुत टिप्पणियां हैं , बहुतों से पूर्णतः , अंशतः सहमत .
ReplyDeleteलेकिन विष्णु वैरागी जी से काफी असहमत .
चर्चिल जैसे साम्राज्यवादी से घोर असहमति के बावजूद उसके एक कथन से खुद को सहमत मानता हूँ की " गांधी संत के वेश में महानतम राज्नितिज्ञं है."
जीने के समय मरने-सी हड़बड़ी और मरने के वक़्त जीने की जिजीविषा --सही आकलन किया है आपने आज की जीती(?)जा रही ज़िन्दगी को लेकर.
ReplyDeleteआज के नेताओं को गांधीजी के वे प्रश्न सुनायी नहीं देते क्योंकि वे वहां श्रद्धा,आस्था या भक्ति के लिए नहीं अपनी शक्ति बढ़ाने के उपाय ढूँढने जाते हैं.वैसे तो गाँधी के विचार ही बचे हैं,आचार तो कभी अमल में आए ही नहीं !
64 वर्ष की आयु में गांधी जी वर्धा स्थित इस आश्रम में रहने आये थे। आज मेरे देश की स्वतन्त्रता को भी 64वाँ वर्ष लगा हैए उसे भी वर्धा के आश्रम जैसे सरलए अनुशासित और कर्मशील जीवन जीने को कौन प्रेरित करेगा .
ReplyDeleteआज गांधी के त्याग की आवश्यकता है । अपरिग्रह समय की मांग है । स्वदेशी के बिना जन जन का कल्याण असंभव है । उदारीकरण ने अमीरी और गरीबी के बीच की रेखा और गहरी कर दी है । पिछले 20 सालों में देश का सांस्कृतिक, वैचारिक तानाबाना छिन्न भिन्न हो चुका है । अब हर जगह असत्य के लिये आग्रह है । हम अंग्रेजों से भी खतरनाक दुश्मन से लड़ रहे हैं । इतिहास की लाखों किलोमीटर लंबी सड़क पर हम बस 63 डग ही चले थे कि लड़खड़ाने लगे और देश आज फिर विभाजन के दरवाजे पर खड़ा है . वाजिदअली शाहों से पूरा देश पटा पड़ा है । आज गांधी नहीं हैं लेकिन उनके विचार तो हैं । आज हमे अपने आप से ही युद्ध लड़ना है ।
@ अशोक बजाज
ReplyDeleteउत्साहवर्धन का आभार।
@ RAJ SINH
चरित्र की सरलता व सौम्यता सबको प्रभावित करती है और आकर्षित भी। नेता का रहन सहन ही उनके समर्पित लोगों की संख्या निश्चित कर देता है। राजनैतिक शक्ति से तो सभी चिपके रहते हैं जिस व्यक्ति में स्वयं के आधार पर आकर्षित करने का बल हो, वही पूज्य।
@ संतोष त्रिवेदी ♣ SANTOSH TRIVEDI
गांधी जीवन सुधार के स्थान पर चुनाव प्रचार का माध्यम बन गये हैं आज।
@ कृष्ण मोहन मिश्र
आप के कथन से पूर्ण सहमत। हमारा दुर्भाग्य उस व्यक्ति जैसा है जिसके पास विश्व का सर्वोत्तम ज्ञान है पर वह उसका उपयोग नहीं जानता है।
पढ़ते पढ़ते वैसे ही खो गया जैसा कि आश्रम में खो गया था।
ReplyDeleteगांधी जी के सिधान्तो को अपने देशवासीयो से ज्यादा विदेश वालो ने जाना है |
ReplyDeleteआपके साथ हमारी भी 'तीर्थयात्रा' हो गई.
ReplyDelete@ Sanjeet Tripathi
ReplyDeleteआपकी भावनायें अभी भी प्रवाहमान हैं, स्थिर नहीं हुयी हैं।
@ नरेश सिह राठौड़
नेल्सन मण्डेला और मार्टिन लूथर किंग ने उन आदर्शों को जिया है, हम भुला रहे हैं।
@ Rahul Singh
तीर्थयात्रा का पूर्ण पुण्य आपको भी मिले।
आदर्श गांव की कल्पना की शुरुआत भी शायद यहीं से होती है। क्यों न हम इसकी शुरुआत अपने ही गांव से करें। विभूति नारायन राय जी ने तो अपने गांव जोकहरा, आजमगढ से शुरुआत कर भी दी है।
ReplyDeleteप्रिय प्रवीण, दैनिक हिन्दुस्तान तो घूम ही आए होगे, जहां पर प्रसन्नता का मन बनता है। आपकी ही, रेल की तरह, आपकी कलम की, विचार की अद्भुत चर्चा है।
ReplyDeleteहिन्दी ब्लॉगिंग खुशियों का फैलाव है
@ विनोद शुक्ल-अनामिका प्रकाशन
ReplyDeleteहमें भी आदर्श गाँवों का निर्माण करना होगा, हमारा विकास वहीं से ही होगा।
@ अविनाश
बहुत धन्यवाद आपका। रवीश जी का लेख पढ़ बहुत ही प्रसन्नता हुयी।