बड़ा सरल प्रश्न है। इस पर जब इतना कहा जा चुका है, इस पर जब इतना सहा जा चुका है, तब पूछने का औचित्य? राजनीति में जाना है या समाज को बाटने की एक नयी विधि का श्रेय लेना है? नहीं, तब क्या बौद्धिकता में खुजली हो रही है जो इतना विवादास्पद विषय उठा रहे हो? यह एक ऐसा शब्द है, जिसे सुन बहुतों की भृकुटियाँ तन जाती हैं पर मेरा वचन है, कुछ भी ऐसा न लिखने का, जिससे किसी को ठेस पहुँचे।
मेरे परम मित्र हैं, श्री लक्ष्मण सिंह। उनके पिताजी न्यायिक सेवा में ऊँचे पदस्थ रहे, घर में सुसंस्कृत संस्कार। सेवा की अनिवार्यताओं के कारण आम समाज से थोड़ा अलग रहा उनका प्रारम्भिक जीवन। युवक होने तक जाति जैसे किसी शब्द के सम्पर्क में नहीं आयी उनकी विचारधारा। उन्हें अटपटा लगना तब प्रारम्भ हुआ, जब जाति जैसी उपाधि के नाम पर समाज की ऊर्जा को कई दिशाओं में भटकते देखा। मेरा अनुभव भले ही कमलपत्रवत न रहा हो पर मुझे भी सदैव ही जाति के प्रसंग पर चुप रहना श्रेयस्कर लगा है। पता नहीं आज क्यों लिखने की ऊर्जा जुटा पा रहा हूँ?
कोई भी ऐसी विचारधारा जिसमें बाटने के बीज छिपे हों, लक्ष्मण सिंह जैसे व्यक्तियों को दुख देगी।
तब क्या विविधतायें न हों जगत में?
विविधतायें हों, उनकी नग्नता न हो। विविधतायें भी शालीन स्वरूप धरे रह सकती हैं।
समृद्धि के समय विविधतायें बाग में खिले हुये पुष्पों की भाँति होती हैं, सबका अपना महत्व, सबकी अपनी प्रसन्नता। जब संसाधन कम पड़ते हैं और विपत्ति आती है, तब यही अन्तर शूल की भाँति हृदय में चुभने लगता है। किसी की उपलब्धि को उसको दी हुयी उपाधि से जोड़कर देखा जाने लगता है, उसी उपाधि को अपने कष्ट का कारण बनाकर विचार प्रक्रिया में रोपित कर दिया जाता है। अपने दुख का कारण अपने भीतर न ढूढ़कर दूसरे की उपाधियों में ढूढ़ने का प्रयत्न होने लगता है। समूह बनने लगते हैं, उनकी स्तुतियाँ होने लगती हैं, अपना तुच्छ भी उनके श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर लगता है।
जो भी पौराणिक कारण हो पर हर समूह की अपनी स्वस्थ परम्परायें होती हैं और अपने हिस्से की दुर्बलतायें। विकासशील समूह अपनी दुर्बलताओं की निर्मम बलि देकर आगे बढ़ते जाते हैं और मानसिक, बौद्धिक व आर्थिक रूप से सुदृढ़ होते जाते हैं। जो उन्मत्त रहते हैं अपने इतिहास के महानाद से, उन्हे भविष्य की पदचाप नहीं सुनाई पड़ती है और समय के चक्र में उनके क्षरित शब्द ही गूँजते रहते हैं।
हमें यदि आपस में लड़ने का बहाना चाहिये तो दसियों कारण उपस्थित हैं। भाई भाई पर घात लगाये बैठे हैं। लड़ाके शेर मेमनों को किसी न किसी विधि से लील ही जायेंगे। हमें यदि अपनी विविधता संरक्षित रखनी है तो आपत्ति काल में उसे सुरक्षित रख, कौरव व पाण्डव न बन, 105 बन खड़े हों। होना यह चाहिये कि विपत्ति के समय हमें अपनी समानतायें उभारनी चाहिये, विपत्ति से जूझने के लिये। जब देश डूबा हो, समाज रुग्ण हो, तब भी हमें यदि अपने समूह का गुणगान करने का समय मिल जाये तो आश्चर्य होना चाहिये। जीत के बाद जब विजयोत्सव मनेगा, तब अपनी परम्पराओं के अनुसार आनन्द मनायेंगे हम सब, अपने अपने इष्ट पूजेंगे हम सब।
उद्गार एक कविता के माध्यम से बहा है,
नर-नारी की मान-प्रतिष्ठा, पाने नित अधिकार लड़ रही,
भाषा लड़ती, वर्ण लड़ रहे, बुद्धि विषमता ओर बढ़ रही ।
देश, प्रदेश, विशेष लड़ रहे, भौहें सकल प्रकार चढ़ रहीं,
नयी, पुरातन पीढ़ी, पृथक विचार, घरों के द्वार लड़ रही ।
धर्म लड़े, बन हठी खड़े हैं, उस पर भी अब जाति लड़ी है,
देखो तो किस तरह मनुज की, लोलुपता हर भाँति लड़ी है ।।
Bahut achchi post!
ReplyDeleteबहुत सटीक बात की है पाण्डेय साहब।
ReplyDeleteवयं पंचाधिकमशतकम, आज के समय में बैस्ट अवेलेबल ओप्शन है।
धर्म लड़े, बन हठी खड़े हैं, उस पर भी अब जाति लड़ी है,
ReplyDeleteदेखो तो किस तरह मनुज की, लोलुपता हर भाँति लड़ी है ।।
सही कहा । यह समय कठिन है जब देश की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है । शत्रू ताक में है कि कब वार करे । और तो और प्रकृति भी क्रुध्द है । आइये इन सबका मुकाबला एक जुट हो कर करें ।
बहुत ताज़ा विचार और शैली.
ReplyDeleteहम संग हैं तो बाग बाग है,
ReplyDeleteतब यह बन क्यों जले आग है
-विचारणीय बात तो है मगर ...
जाति जैसी उपाधि के नाम पर समाज की ऊर्जा को कई दिशाओं में भटकते देखा।
ReplyDeleteविविधता जब विवशता बन जाये तो विविधिता के औचित्य पर सवाल उठने शुरू हो ही जाते हैं.
आपकी शैली अलग सी है और ..
हम तो गांव में इसी जातिय विविधता से सजी बगिया में पैदा हुए थे जहाँ सभी जातियों के लोग आपस में ऐसे ही घुलमिलकर रहते थे जैसे बगिया में विविध फूल , जिनके बीच में न कोई कडवाहट ,न कोई स्पर्धा पर धीरे धीरे हाय रे वोट की राजनीती ,जिसने सभी जातियों को यह अहसास करा दिया कि दूसरी जाति तुम्हारी विरोधी है | और लोगों ने बिना ये सोचे कि वो दूसरी जाति उसकी विरोधी कैसे बन गई ,राजनेताओं की बात मान ली |
ReplyDeleteआना भी नहीं चाहिए जाति जैसे अटपटे शब्द के संपर्क में किसी को ....
ReplyDelete.... बेहतरीन अभिव्यक्ति !!!
ReplyDeleteविचारणीय पोस्ट, उत्तम छंदबद्ध हृदयोद्गार के साथ. हांलांकि आप बहुत खुलकर फिर भी कुछ न कह सके.
ReplyDeleteबहुत आवश्यक, सामयिक और विचारणीय लेख , कविता बहुत अछि लगी ! शुभकामनायें !!
ReplyDeleteइसका शीर्षक होना था लड़ाकू मानव :)
ReplyDeleteजातियां तो समाज में हमेशा बनती ही रहती हैं जैसे अब एक नयी जाति बन गयी है ब्लागर, पत्रकार, साहित्कार, नेता आदि। आपने इस बार बात को गोल-गोल घुमा दिया है।
ReplyDeleteजाति आज के समाज में आसानी से नहीं जाती है... हमारे ऑफिस में एक बार किसी के काम को तकनीकी कारन से मना कर देने पर उस आदमी का आरोप हमरे ऊपर यही था कि अमुक जाति का होने के कारन यह काम मना कर दिया गया है. वो तो अच्छा था कि उसी की जाति के लोगों ने उसको फटकार दिया कि उनके (हमरे) बारे में ई बात बर्दास नहीं किया जाएगा, नहींत बबाल हो जाता.
ReplyDeleteसंदेस स्पस्ट है और कविता उत्कृस्ट!!
आज का ज्वलंत मुद्दा.. बहुत अच्छा लिखा है प्रवीणजी. आप ही की तरह मुझे भी जाति पर चुप रहना ठेक लगता है.
ReplyDeleteकविता अच्छी है.
सही बात यही है कि यदि हमें लड़ना ही है तो सैकड़ों बहाने हैं , जाति भी उनमे से एक है ..
ReplyDeleteलेख सुन्दर
कविता अतिसुन्दर ...
और फूलों की बगिया , फूलों के शहर से महा सुन्दर ...!
जाति का क्या कहिये, निदा फाजली साहब ने तो सब आदमी को एक ही जात पे ला दिया :
ReplyDeleteहर तरफ हर जगह, बेशुमार आदमी,
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी !
लिखते रहिये ..
जातिगत विद्वेष समाज का कुष्ठ.
ReplyDeleteस्फुलिंग, इस विद्रूप जड़ता का , कही और प्रखर ना हो जाये
बहुत बढिया विचार
ReplyDeleteकौरव-पाण्डव की बजाय 105 बनकर खडे हों।
बेहतरीन लगी यह पोस्ट
अपने बारे में इतना ही कह सकता हूँ कि शायद ही किसी से उसका पूरा नाम जानने की कोशिश की होगी।
कई बार ट्रेन में (पहले स्कूल में भी) एक दूसरे का टिफिन खाते हैं। हमारे ग्रुप में से हमें किसी का पूरा नाम नहीं मालूम है।
प्रणाम स्वीकार करें
"हर समूह की अपनी स्वस्थ परम्परायें होती हैं और अपने हिस्से की दुर्बलतायें।"
ReplyDeleteयह बात बहुत अच्छी लगी जी
प्रणाम
जाति के बहाने मानवीय भावों की सुंदर मींमासा की है आपने। बधाई।
ReplyDelete--------
प्यार का तावीज..
सर्प दंश से कैसे बचा जा सकता है?
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteसही में समय आ गया है कि हम हममे अपनी समानताएं पहचाने.
ReplyDeleteयह प्रश्न तो हर बुद्धिजीवी को एक बार परेशान जरूर करता है...
ReplyDeleteसुन्दर शब्दों में व्यक्त ह्रदय के उदगार...अच्छी कविता
.
सचमुच आप सौम्यता निभाने में सफल रहे...
ReplyDeleteमेरा मन इस विषय पर इतना उग्र हो जाता है कि शब्दों पर नियंत्रण नहीं रह पाता...इसलिए कहने से बचती हूँ...
समाज में जो जाति की बात करे उसे भी झकझोर कर पूछने को जी करता है कि जाति विशेष का कौन सा धर्म/नियत कर्म निभा रहे हैं आप....
और आरक्षनासुर को तो सीधे सीधे माँ दुर्गा के त्रिशूल से बेध देने को जी छटपटा उठता है...
दोनों ही स्थिति समाज के अधोपतन का कारण है...
सुन्दर भाषा में कल्याणकारी सन्देश दिया है आपने...
यूँ वर्तमान का सच तो यही है कि रोटी की जद्दोजहद में फंसी आम जनता इससे किनारा किये जा रही है...लेकिन यह जितना ही इस मुद्दे को भूलना चाहती है, विभिन्न उपायों से राजनेता उनके दिमाग में यह ठूंसने को तत्पर रहते हैं...
सटीक विश्लेषण...एक समसामयिक विषय को भी आवाज़ दी..साधुवाद.
ReplyDeleteआपने बहुत सौम्यता से इस विषय को उठाया है ...
ReplyDeleteकितने लोंग हैं जो जाति से ऊपर उठ पाए हैं ..बस अनेकता में एकता लाने का प्रयास करना चाहिए ...बाग तभी सुन्दर लगता है जहाँ अनेक तरह के फूल अपनी अपनी सुगंध फैला रहे हों ...कविता कि पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं
आप बहुत सौम्य हैं. एकदम सच्चा, हीरे सा दिल है आपका. इसलिए आपने जाति को भी समाज की विविधताओं में से एक माना है. एक हद तक ये बात सही भी है. भारत में जितनी जातियाँ हैं, उन सबकी अपनी संस्कृति है. बहुत सी बातें हैं, जो उन्हें अन्य जातियों से अलग करती हैं. पर जाति, विविधता नहीं है क्योंकि उसमें उच्चावच है. एक पदसोपानीय व्यवस्था के तहत एक जाति को पायदान पर सबसे ऊपर और एक को सबसे नीचे "अछूत" बना दिया गया. समाज पर उसका असर इतना गहरा हुआ कि अब जबकि काफी कुछ बदल चुका है, उसका प्रभाव नहीं जा रहा है. हमारे पूर्वजों ने जो व्यवस्था बनायी उसका परिणाम आज की पीढ़ी आरक्षण के नाम पर झेल रही है. "विपरीत भेदभाव" के सिद्धांत के तहत ये जाने कब तक झेलना पड़ेगा. राजनीति ने इस मुद्दे को इतना उलझा दिया है कि इसका सुलझना लगभग असंभव दिख रहा है.
ReplyDeleteआपके मित्र की ही तरह और भी बहुत लोग हैं जिन्हें इस मुद्दे से ठेस पहुँचती है, पर क्या किया जाए ? ये समाज का सच है. अच्छा है कि इसका सामना किया जाए.
मेरे दोस्तों में ये मुझे पता भी नहीं की कौन किस जाति का है..और नाही मैंने जानना चाह....
ReplyDeleteएक बार एक दो बड़े लोग ही ऐसा सवाल पूछ चुके हैं की "फलाना कौन से जाति से है" तो मुझे गुस्सा आ जाता है...
कविता बेहतरीन है.. और पोस्ट भी वैसी ही सुन्दर...
सुन्दर लेख , विविधता में एकता को दर्शाता बाग़ ! तुम्ही तुम हो तो क्या तुम हो......!
ReplyDeleteक्या प्रवीण जी इत्ता सीरीयस होकर लिखेंगे तो फ़िर कैसे चलेगा , हमसे पूछते तो हम कहते ,
ReplyDeleteजाति ..वो टायटल है जिसपर संभावना व्यक्त की जा सकती है कि ..प्रकाश झा ..जल्दी ही राजनीति पार्ट टू का अनाउंसमेंट कर सकते हैं ...और पार्ट थ्री में ..आरक्षण ..।
खैर मजाक से इतर सच कहूं तो मुझे लगता है कि अब समय आ गया है , जब इंसान के पहचान सिर्फ़ उसका नाम और काम हो , और कुछ नहीं ..कोई सरनेम परनेम नहीं । मगर यहां तो सरकार खुद ही आवेदन पत्र पर लिखवाती है ...धर्म , जाति ...हो सकता है आगे जाकर ये भी पूछा जाए ..बजरंग बली , राम चंद्र जी , शंकर भगवान , या साईं बाबा ....टिक करिए
जाति क्या है? कभी किसी ने इन गोरो से पुछा है जिन के पिछे सभी दुम हिलाते है,हम तब तक पिछडे ही रहेगे जब तक हम जात पात, ओर धर्म के चक्कर मै आपस मे लडते रहेगे, जिस का जेसा काम है, जितनी उस की शिक्षा है उसी हिसाब से उस की जात है कोई बडा नही कोई छॊटा नही, सब अपना अपना कमा कर खाते है, छॊटी जात का वो है जो दुसरो का हक मार कर खाता है, दुसरो का हक छीनता है, आओ सब मिल कर एक जात बने, ओर देश को आगे ले जाये.
ReplyDeleteआप का लेख बहुत अच्छा लगा, काश हम सब ऎसा ही सोचे
Pandey ji hum ,
ReplyDeletebahut accha hai,
hum to jati ko is tarah sai mante hai jaisa A ke bad B aur b kai bad C aur c kai bad D
Ab agar A B C D aapas main kehe ki A ko pahele kiyu bulate hai--A hamse uper kiyu hai
bas Yahi Samaj ki samajh hai---
baki duniya gol hai
जाति का नाश नहीं हो सकता...
ReplyDeleteजाती बनाम राजनीति |
ReplyDeleteAfter seeing the title, I started reading your post with great trepidation!
ReplyDeleteI was relieved after reading it.
आपका पोस्ट बहुत ही Politically Correct था!
मेरा अनुभव है कि यह मामला बहुत ही संवेदनशील है और इसपर बेहिचक लिखने से हाहाकार मच सकता है। एक गर्मी से भरी विवाद के लिए यदि कोई तैयार हो तो इस पर नि:संकोच होकर लिखें अन्यथा इस विषय से दूर रहने में ही समझदारी है।
poorviyaa जी की बात पढ़कर हम आगे सोचने लगे।
A, B, C, D की बात आगे लेकर चलते हैं।
1, 2, 3, 4 का क्या?
क्या 1, 2 se "ऊपर" है? क्या 4, 3 से "नीचे" है?
क्या "UP", "DOWN" से, और "‘North" "South" से, और "Right", "Left" से श्रेष्ठ है?
क्या "White" "Black" से और "Big" "Small" से, "Tall" "Short" से अच्छा है?
ऐसे और भी सवाल पूछ सकते हैं जिसका कोई संतोषजनक जवाब कोई नहीं दे सकता।
मेरे लिए जाति की कोई importance नहीं है।
मेरे सबसे अच्छे मित्र सभी जाती के हैं और मैंने उनसे कभी जात जानना नहीं चाही और कभी किसी से पूछा भी नहीं। पर कभी कभी अपने surname से , या अपने रहने, जीने, और बोलने का ढंग से जाति का पता चल जाता है। अब अगली जनगणना में जात पूछी जाएगी। इससे मुझे दु:ख होता है। हम तो इस आशा में रहते थे कि हमारी पीढी में न सही पर भविष्य में कभी जाति पूरी तरह मिट जाएगी। वैसे भी सभी जाति के लोग, हर तरह का काम कर रहे हैं और जात तो अब irrelevant हो गया है। पर लगता है कि मेरा यह सपना पूरा नहीं होगा। कोई बात नहीं। किसी के लिए यह identity का सवाल है जिसे वे खोना नहीं चाहते। तो रहने दीजिए जात को। पर कम से कम यह उँच - नीच की भावना तो मिटे।
जाते जाते हम एक बात कह देते हैं। यदि आप सोचते हैं कि आप जाति से ऊपर उठ गए हैं तो इसे आजमाने के लिए बस एक ही इम्तेहान है। क्या आप अपनी बेटी की शादी किसी अन्य जाती के लडके से होने देंगे? (बशर्ते और सभी बातें favourable हो). कुछ लोग तो जाति को genes का भंडार मानते हैं और अंतरजातीय विवाह को genes का प्रसूषण मानते हैं। यह mindset क्या कभी बदल सकता है?
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
प्रवीण जी आपके ब्लाग लेखन की शॆली बेहतरीन हॆ..मॆ जितने भी ब्लागो का भ्रमण करता हू उन सबसे अलग आपकी शॆली हॆ..इसके लिये तहे दिल से मॆ आपको धन्यवाद..
ReplyDeleteजाति के बारे मे मॆ सिर्फ इतना कहू जाति समाज को जोडता नही बल्कि तोडता हॆ...जाति प्रथा हमारी सामाजिक एकत के लिये कलंक हॆ..जो बदकिस्मती से 30 साल बाद जाति जनगणना के रूप मे फिर से मूर्त रूप लेने जा रहा हॆ...
जिस दिन इंसान जातिगत भेद से ऊपर उठ जायेगा उसी दिन से समाज नये युग की ओर एक कदम बढा देगा।
ReplyDelete@ ajit gupta जी ब्लागर, पत्रकार, साहित्कार, नेता ये सब वर्ग हॆ ना कि जाति...माडर्न भाषा मे कहे तो वर्ग मे इनकमिग ऒर आऊट्गोईग दोनो सुविधा हॆ पर जाति मे केवल इनकमिग हॆ...
ReplyDeleteवर्ग मे आज आप ब्लागर हॆ तो क्या हुआ कल आप अपनी इच्छा से दूसरा वर्ग ज्वाइन कर सकती हॆ पर जाति ? आप गुप्ता हॆ क्या आप कोई दूसरी जाति बन सकती हॆ? जाति आप पर थोपी जाति हॆ...जबकि वर्ग आप खुद चुनते हॆ..
जाति न पूछो साधू की.... पर जब साधू ही नहीं तो जाति तो पूछनी ही पडेगी :)
ReplyDelete.
ReplyDeleteआदरणीय प्रवीण जी,
शीर्षक देखकर उत्सुकता तो जगी लेकिन पोस्ट समाप्त होने तक आशानुरूप लेख का रुख बदल चुका था।
जैसा की विश्वनाथ जी ने कहा - " लेख पोलिटिकली करेक्ट है "
कोई भय का विषय ही नहीं है। पाठक को वही परोसा गया जो वो पढना और सुनना चाहता है।
" It's better to be safe than sorry "
आपको आखिर हिम्मत क्यूँ जुटानी पड़ी ? वो कोन से भय थे जो आपके मन-मस्तिष्क को मथ रहे थे , और इतनी हिम्मत के बाद भी , बाहर भी नहीं आये ?
वैसे प्रवीण जी , आपकी लेखनी इतनी सधी हुई है की , आसानी से कुछ विवादास्पद नहीं लिखा सकेगी आपसे।
हमारे अन्दर की हिम्मत दिल खोल कर तब बाहर आती है जब हम दो-चार कमज़ोर पाठकों के चले जाने का भय अपने मन से निकाल कर फ़ेंक देते हैं।
The post would have been hit, had it been written with utmost honesty.
Regards,
.
बहुत ही शालीन तरीके से मुद्दे को उठाया है आपने ...अलग अलग रंग के फूलों से ही बगीचा अच्छा लगता है बस उलझकर मुसें नहीं .
ReplyDeleteकविता बहुत बहुत अच्छी लगी.
आपने तो बहुत अच्छी बात लिखी ...
ReplyDelete_________________________
'पाखी की दुनिया' में- डाटर्स- डे पर इक ड्राइंग !
पुनश्च आपका सुंदर लेख पढ़ कर खुशी हुई. सार्वजनिक रूप से भारत मे अब जाति के ऊपर अब शायद ही चर्चा होती है. यह है भी और हम इसे छुपाना भी चाहते हैं. धर्म के मामले मे भी ऐसी ही बात है. दूसरों को बात बुरी लग सकती है इस लिए हम इसपर चर्चा करने से बचते हैं. कुछ हद तक सेक्स की तरह की हालत है. यह सर्वत्र है भी और इस पर चर्चा करना वर्जित भी. अगर कोई बोले तो बात सनसनीखेज़ हो जाती है- कान खड़े करने वाली.
ReplyDeleteयह बंधन टूटे ही तो अच्छा है, मगर तोड़ने की हिम्मत खुद मे नही लगती.
आखिर आप को इस सफाई को क्यों बयां करना पड़ रहा है की जाती जाती का भेद जैसी कोई समस्या है ही नहीं.
ReplyDeleteकितनी चतुराई से लेख में आपको यह नकारने के लिए उठानी पड़ी की जाती-भेद से यह देश कराह रहा है को बयां न करना पड़े और सारा दोष उनका है जो उस कराह को चिन्हित करना चाहते है.
एक घटना याद आ रही है द्वापर में 'सुदामा' नाम के एक के एक गरीब ब्राह्मण बहुत कष्ट झेल रहे तो उनकी पत्नी ने उन्हें याद दिलाया था की आप बताते थे की आप के बालसखा विद्यार्थी काल में कृष्ण नामक कोई राजा के पुत्र थे , सो एक बार आप उनको मिल के आइये न ..............
देखि सुदामा की दीन दशा
करुना करिके करुना निधि रोये,
पानी परात..........
पता है आपको यही 'सुदामा पांडे'
कभी पांडे इनके बंशज नहीं बनते.
पर
कृष्ण के बन्शजों को क्या क्या नहीं किस किस किनारे से कौन कौन सुना रहे है?
उनसे पूछिए "जाति क्या है?"
और उनसे भी जो बिना ज्ञान पाए अंगूठा दे दे रहे है. और आज भी .
हम संग हैं तो बाग बाग है,
ReplyDeleteतब यह बन क्यों जले आग है
------------------------------
बस यही नहीं समझ रहे हैं हम......
देखो तो किस तरह मनुज की, लोलुपता हर भाँति लड़ी है ।।
ReplyDeletewaah... sateek ,sargarbhit!
regards,
@ Anjana (Gudia)
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद
@ मो सम कौन ?
ReplyDeleteकिसी भी व्यक्ति को देख यदि यह लगे कि हम उससे कितना समान हैं तो सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। जिस स्तर पर हैं, उससे एक ही स्तर ऊपर सोचे तो दुनिया की आधी समस्यायें हल हो जायेंगी।
सबसे पहले वयं पंचाधिकमशतकम के आधार पर सबसे बड़ी समस्यायें हल करें। सम्पूर्ण विश्व खडा हो उनके लिये। एक बार कन्धे से कन्धा मिला जूझ लेंगे तो छोटे छोटे अन्तर दिखायी ही नहीं पड़ेंगे। यदि देखना हो तो सेना में देख लें।
जिनको अन्तरविरोधों की रोटियाँ सेकनी हैं, वे तो आग लगायेंगे ही और बुझने भी नहीं देंगे। निर्भर हम पर करेगा कि किस के लिये जलें।
@ Mrs. Asha Joglekar
ReplyDeleteधार्मिक दंगे इस देश को अंग्रेजों की देन हैं। एक भेंट बटे रहने के लिये शाश्वत ताकि कॉमनवेल्थ बचा रहे। 1857 में पूरे समाज को साथ में खड़ा देखने का डर अंग्रेज सहन न कर सके। हमारी दुर्बलतायें हमारी थी पर उस पर राजनीति क्यों?
हर वो अन्तर ढूढ़े गये जिन पर बाटा जा सके हम सबको। बहुत सफल भी हुये वे।
आज उन्ही अंग्रेजों की मानसिक सन्तानें कई और विधियाँ ढूढ़ ढूढ़ कर ला रहीं हैं समाज को जलाने की।
कुछ तो करो जिससे सुकूँ मिले सबको,
तुम्हारे दोनों हाथों में मशाल क्यों है?
@ Bhushan
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ Udan Tashtari
...मगर भरे हैं इस झील में, मछलियाँ कब तक खैर मनायेंगी।
@ M VERMA
आपसे सहमत हूँ, विविधता जब विवशता बनने लगती है तो अस्तित्वों के युद्ध उसी पर लड़े जाने लगते हैं।
@ Ratan Singh Shekhawat
पता नहीं कितना हित किया है और कितना अहित, इन राज नेताओं ने। न लोग समझना चाहते हैं न राज नेता उन्हें समझने देना चाहते हैं। वादे मिले हैं सबको कुछ तत्व नहीं मिला किसी को भी, कोई अपवाद नहीं। अधिकतम लाभ परिवारजनों को ही मिला है।
@ Archana
व्यक्तिगत जीवन में निषेध है, सामाजिक जीवन में अग्राह्य।
@ 'उदय'
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद
@ निशांत मिश्र - Nishant Mishra
सच कह रहे हैं आप, कई स्थानों पर दृष्टिगत विद्रूपता पर आवेश रोक कर ही लिखा। इस विषय पर तो लोग सदा ही बुखारवत गरम बने रहते हैं, बस उन्हें बताने की देर रहती है।
@ सतीश सक्सेना
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Arvind Mishra
जिसके मन में लड़ लेने के बीज छिपे हों वह विविधता में कोई न कोई विषय पल्लवित कर लेते हैं। शीर्षक सच में लड़ाकू मानव होना चाहिये था।
@ ajit gupta
बात अब भी विविधता की है और उस विविधता को बचाये रखने की है, बिना उसको द्वेष का विषय बनाये।
@ चला बिहारी ब्लॉगर बनने
ReplyDeleteयही विष अब हर जगह घुस रहा है। कष्ट होता है जब सरल सी लगने वाली चीजों को जाति का रूप दे दिया जाता है।
@ Manoj K
धर्म के बाद अब जाति को इतना रक्तमय बना दिया है कि कोई भी शान्तिप्रिय मनुष्य इससे दूर रहना चाहेगा।
@ वाणी गीत
क्योंकि जाति हर एक से जुड़ी है अतः अपनों और परायों के पाले बनाने में कठिनाई नहीं होती है।
@ Majaal
तनहाई तो आपके अन्दर की विविधता को भी दो फाड़ कर डालती है।
@ ashish
डर इसी बात का है और इसके नग्न ताण्डव की पीड़ा ही समाज को इससे विमुख भी करेगी।
@ अन्तर सोहिल
ReplyDeleteजहाँ पर बातचीत के अन्य विषय रहते हैं, जाति कभी सामने नहीं आती है। जहाँ पर आगामी बातचीत इस आधार पर की जाये कि सामने वाले की जाति क्या है, तो उस बातचीत का मसौदा क्या होगा, आप अन्दाज़ लगा सकते हैं।
कितना धैर्य बरतना पड़ता है इन कृत्रिमताओं पर और कितना असामाजिक हो जाता है हमारा व्यवहार।
बचपन में स्कूल में जाते थे, छुट्टी के बाद बतियाते हुये किसी दोस्त के यहाँ निकल जाते, खा पीकर और खेल कर आते थे। कभी न मन में यह विचार आया कि हम दोस्त जातीय आधार पर बटे हैं। न हमारे माता पिता ने मना किया और दोस्त के घर भी मातृवत स्नेह। वह सम्बन्ध अभी भी हैं।
वर्तमान में पर इतनी उन्मुक्तता दिखायी ही नहीं देती है, वातावरण विषाक्त हो गया है, हर ओर संशयात्मक दृष्टि दिखती है। आत्मीयता का मानक जाति हो गयी है, दुर्भाग्य ही तो है यह।
@ ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
ReplyDeleteसच कह रहे हैं, फूट के बीज तो मानवीय दुर्बलता है। जाति तो एक बहाना मात्र है।
@ हास्यफुहार
बहुत धन्यवाद आपका।
@ P.N. Subramanian
गर्त में ले जाने के बहुत कारक हैं पर आगे बढ़ने के लिये समानतायें ढूढ़नी पड़ेंगी।
@ rashmi ravija
और जब बुद्धिजीवी ही जातीय आधार ढूढ़ने लगें अपनी बौद्धिकता को परोसने के लिये.....
@ रंजना
ReplyDeleteआपने उस मौलिक प्रश्न को उठा दिया है जिससे जाति के वाहक नेतागण सदा ही बचने का प्रयास करते हैं।
जाति या कोई विविधता अपने आप में बुरी नहीं हो सकती है। लोगों को अखरने तब लगता है जब उस आधार पर लोग अपनी श्रेष्ठता थोपने में लग जाते हैं।
श्रेष्ठता पर थोपी नहीं जा सकती है, श्रेष्ठता तो स्वतः आदर उत्पन्न करती है, अपने प्रति। किसी विद्वान को देख मन शान्त और नम हो जाता है, उसी के व्यक्तित्व की तरह। किसी वीर के साथ खड़े हो शरीर में एक तरंग दौड़ जाती है उत्साह की। ऐसे नेता हुये हैं इतिहास में जिनकी एक पुकार पर लोगों ने सर्वस्व न्यौछावर कर दिया है। उनकी श्रेष्ठता आदर स्वतः उत्पन्न करती है।
कोई भी कार्य श्रेष्ठ व निम्न नहीं, सबका अपना अलग स्थान है समाज में। घास दूसरी ओर अच्छी लगती है। सबको अन्य कार्य करने में मन लगता है।
अतः यदि बात हो, गुणों की हो और इस बात से मैं पूर्णतया सहमत हूँ।
@ Akanksha~आकांक्षा
ReplyDeleteआपका बहुत धन्यवाद।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
विविधता का आनन्द शान्ति और समृद्धि में ही है। अतः उसके लिये समृद्धि आवश्यक है तभी यह आग स्वतः बुझ पायेगी। पर जाति विकास में बाधक न बने, उसके लिये प्रयत्न अभी से करना पड़ेगा।
@ mukti
जिसके हाथ में सत्ता रहती है, सिद्धान्त उसके अनुसार ही बनते हैं। अंग्रेजों ने White man's burden के नाम पर देशों की दुर्दशा की है। हिटलर ने आर्यवाद के नाम पर। आजकल के इतिहासकार एक नया सिद्धान्त चला रहे हैं, उन तथ्यों पर जिनको बहुत लोग संदिग्धता से देखते हैं। यदि न्याय उनके कृत्यों पर हो जो यहाँ है ही नहीं और उस आधार पर दण्ड किसी और को दिया जाये तो समाज में दरार आना एक नियत निष्कर्ष है।
@ abhi
जातिगत उत्कण्ठाओं के टाल जाना ही उसका सही उत्तर है।
@ पी.सी.गोदियाल
आनन्द बाग का ही है।
@ अजय कुमार झा
ReplyDeleteसही कह रहे हैं। प्रकाश झा तीनों फिल्में जरूर बनायेंगे और पूज्य आधारित जनगणना भी होगी।
@ राज भाटिय़ा
सच कह रहे हैं, सपाट समाज है इनका, हमारे जैसा उबड़ खाबड़ नहीं बना रखा है।
@ Poorviya
ऊपर बने रहने का क्रम सदा ही रहेगा। पर बिना किसी एक के वर्णमाला अधूरी अवश्य हो जायेगी।
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
तब इसके द्वारा अपना नाश क्यों करें।
@ नरेश सिह राठौड़
सच में चारों ओर राजनीति ही छायी है।
@ G Vishwanath
ReplyDeleteआपका कमेंट विचारणीय हैं। दो दोष हैं, उत्पत्ति और उपाय।
श्रेष्ठता रोपित करने के प्रयास ने यह असमानता उत्पन्न की और उस असमानता को अंग्रेजों द्वारा और आधुनिक राजनीति द्वारा पर्याप्त हवा दी गयी। आग भड़क उठी।
लोग जाति को सारी समस्याओं की जड़ मानने लगे, कई लोग अपना क्षेत्र छोड़ पलायन कर गये और बहुत लोग अपने नामों से जाति छिपाने का प्रयास करने लगे।
कई लोग कहने लगे कि हम जाति नहीं मानते हैं तो अन्य लोगों ने कहा कि तब क्या आप रोटी और बेटी का सम्बन्ध कर सकते हैं?
भृकुटियाँ सदा ही इसी प्रश्न पर चढ़ती हैं।
समाज का क्या उत्तर होना चाहिये।
प्रारम्भ रोटी के सम्बन्ध से करें और यदि आपके बच्चे अन्तर्जातीय प्रेम विवाह करना चाहें तो उन्हे रोके नहीं। दोनों बातें कड़वी हैं पर यही धीरे धीरे इस कड़ुवाहट को घोल सकेगी। हम चाहें न चाहें समाज इस ओर बढ़ रहा है। आने वाली पीढ़ी अब उन अन्तरों को अधिक हवा नहीं देने वाली जिन पर बाटने की राजनीति की गयी है।
@ Ashish (Ashu)
ReplyDeleteसमस्या यही है कि राजनेता भी इसका मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं। वे इस बात की पुष्टि कर लेना चाहते हैं कि उनका कितना वोट बैंक है?
@ cmpershad
सच है ऐसा साधु तो कोई नहीं है।
@ ZEAL
जातिजनित दुर्भाव उभारना उद्देश्य नहीं था, उस बुखार में तो लोग सदा ही पड़े रहते हैं, बस याद दिलाने की देर रहती है।
उद्देश्य एक राह खोजनी थी।
कटु और स्पष्ट लिख सकता हूँ, समय आने पर लिखूँगा अवश्य, कमज़ोर पाठक जाने का भय नहीं है।
@ shikha varshney
जब फूलों को ज्ञात होता है कि बाग के लिये पानी और खाद सीमित है तो यही फूल अपने अपने अस्तित्व के युद्ध लड़ने लगते हैं।
@ Akshita (Pakhi)
बहुत धन्यवाद आपका।
@ rakesh ravi
ReplyDeleteकर्म ने सारे बन्धन तोड़ दिये हैं, धीरे धीरे जन्म से भी लोग इस विविधता की विवशता को भुला देंगे।
@ Aavaj
प्रश्न विचारणीय हैं पर उत्तर आग न लगा जायें।
@ डॉ. मोनिका शर्मा
बाग का महत्व तब समझ में आयेगा जब यह बर्बाद हो जायेगा।
@ अनुपमा पाठक
मनुष्य का लालच अभी और अन्तर खोजेगा, लड़ने के लिये।
बेमेल और विशिष्ट बना रहने की चाह रखने वाला सबको अपने रंग में क्यों रंग लेना चाहता है. पोस्ट के साथ चित्र उसे अधिक सार्थक बना रहा है.
ReplyDeleteजाति बुरी नहीं जातिगत भेदभाव और जातियों में परस्पर मनमुटाव गलत है | जातियों ही की तरह आज भी समाज में भी सत्ता , शक्ति और धन के आधार पर अलग अलग प्रकार के समूह बन गए हैं |
ReplyDelete"मुझे भी सदैव ही जाति के प्रसंग पर चुप रहना श्रेयस्कर लगा है। पता नहीं आज क्यों लिखने की ऊर्जा जुटा पा रहा हूँ?"
ReplyDeleteइस प्रश्न का उत्तर नहीं मिला.
यह लेख अपने 'logical conclusion' पर नहीं पहुंचा लगता है :)
बहुत अच्छा लेख...
ReplyDeleteमें सारे देश की बात नहीं करती...सिर्फ ब्लॉग वाले ही जाती - पाती छोड़ दे...तो वो भी बहुत होगा...लेकिन एक बार आप हिंदू - मुस्लिम विरोधी बातें लिख कर देखो...सब खड़े हो जायेंगे...
काश कहीं से तो शुरुआत हो.
सुंदर कविता. और कुछ पंक्तियाँ भी बहुत पसंद आई.
आभार.
आदरणीय प्रवीण जी,
ReplyDeleteबहुत बढिया विचार
.........बेहतरीन लगी यह पोस्ट
प्रणाम स्वीकार करें
ब्लॉग को पढने और सराह कर उत्साहवर्धन के लिए शुक्रिया.
सटीक बात.
ReplyDelete@ Rahul Singh
ReplyDeleteअपने जीवन की विविधता में यदि हम जीवन की ऊर्जा बाटने लगे तो जीवन ढह जायेगा। वही समाज के साथ हो रहा है।
@ hem pandey
आपसे शत प्रतिशत सहमत। विषयगत समूह बनते बिगड़ते रहते हैं।
@ Saurabh
जिस विषय पर लोग भावनात्मक हो जाते हैं और Logic को दर किनार कर देते हैं, उसके निष्कर्षों को तार्किक बनाने को प्रयास नहीं कर पाया। विविधता की विवशता व्यक्त कर पाया मात्र।
@ अनामिका की सदायें ......
लोग तो सदा ही इन विषयों को ले आवेश में रहते हैं, पूर्वाग्रहों से ग्रसित। निवारण कैसे होगा, समझ नहीं आता कभी कभी।
@ संजय भास्कर
बहुत धन्यवाद
@ सत्यप्रकाश पाण्डेय
बहुत धन्यवाद
जाति है,तो राजनीति है, राजनीति है तो नेताजी हैं...जय हो आज़ाद भारत की ....
ReplyDelete"जिस विषय पर लोग भावनात्मक हो जाते हैं और Logic को दर किनार कर देते हैं, उसके निष्कर्षों को तार्किक बनाने को प्रयास नहीं कर पाया"
ReplyDeleteआपसे सहमत हूँ.मगर मैं कुछ और आगे की उम्मीद कर रहा था. किसी हल या उपाय की. खैर... :)
कल मेरे बॉस बता रहे थे कि उन्हें पूरे बचपन में पता ही नहीं था कि रेस क्या होता है वो हर तरह के बच्चों के साथ खेलते हुए बड़े हुए. उन्हें पहली बार इस बात का एहसास हुआ जब वो हार्वर्ड गए ! बड़ी विचित्र सी बात लगती है पर वैसे ही जाति का मामला भी हम जितना सोचते हैं आसान नहीं.
ReplyDeleteजाति के आनुंवशिक विश्लेषण, सामाजि, धार्मिक, भौगोलिक, राजनैतिक इन सब्विषयों पर बन्धु कई खण्डों वाली पुस्तक की आवाश्यकता है आप ने तो एक ही पोस्ट में समेट कर रख दिया ..खैर..
ReplyDeleteजब तक स्वाभाविक प्रकारों का वर्गीकरण हो 'जातियों'का महत्व है जब निहित स्वार्थ के लिए होने लगे तो यह व्यर्थ का आरोपण और दूषण बन जाता है.
ReplyDeleteप्रवीण जी ,यह चेतना जगाने के लिए ,धन्यवाद आपको .पर इसका प्रभाव जहाँ पड़ना चाहिये वहाँ पड़े तब न !
सामयिक लिखा है ..... आज के सन्दर्भ में विचारणीय पोस्ट है .... बहुत कुछ है जिन पर सहमत और असहमत हुवा जा सकता है ... ये सच है की जाती के अलावा भी बहुत कुछ है समाज में ...... और लड़ने की लिए ..... वो तो कोई भी बहाना ढूँढा जा सकता है ...
ReplyDeleteभारत में अब जाती राजनीती की फ़सल बन गयी है,नेता ज़रूर इसे काटेंगे !
ReplyDeleteबहुत ताज़ा विचार और शैली.
ReplyDeleteधर्म लड़े, बन हठी खड़े हैं, उस पर भी अब जाति लड़ी है,
ReplyDeleteदेखो तो किस तरह मनुज की, लोलुपता हर भाँति लड़ी है ।।
बहुत सटीक ....!!
मैं तो जाती -धर्म-रीज्नलिज्म..... इन सबसे ऊपर हो चूका हूँ.... मुझे लगता है कि मैं औल्माईटी गौड... बन गया हूँ...
ReplyDeleteनर-नारी की मान-प्रतिष्ठा, पाने नित अधिकार लड़ रही,
ReplyDeleteभाषा लड़ती, वर्ण लड़ रहे, बुद्धि विषमता ओर बढ़ रही ।
देश, प्रदेश, विशेष लड़ रहे, भौहें सकल प्रकार चढ़ रहीं,
नयी, पुरातन पीढ़ी, पृथक विचार, घरों के द्वार लड़ रही
dono hi rachnaye ati uttam hai .jati-vishya hai hi aesa jahan vivad syam tyar ho jaate hai .
Praveenjee
ReplyDeleteSaaf Suthara Blog aapkee
seedhee sachchee batein
detee hain utsaah naya
aapkee tippaniyon kee saugatein
dhanywaad aur shubhkaamnayen
Ashok Vyas
@ संतोष त्रिवेदी ♣ SANTOSH TRIVEDI
ReplyDeleteमेरे देश के नायक देश जोड़ने की बजाय तोड़ रहे हैं और दुर्भाग्य यह है कि उसे राजनीति कहा जाता है।
@ Saurabh
उपाय मात्र एक ही है कि जाति को झगड़े की विषयवस्तु न बनाया जाये और इस पर राजनीति न की जाये।
@ अभिषेक ओझा
हममें से कईयों को जब पहली बार जाति का नग्न स्वरूप दिखा होगा, पीड़ा अवश्य हुयी होगी। मेरा बचपन विविधता में बीता, कभी किसी ने न रोका न टोका।
@ दुधवा लाइव
इस विषय पर पुस्तक पढ़ने का धैर्य व सामर्थ्य सबके बस की बात नहीं है। सब इस विषय में अपने आप को महान ज्ञानी व न बदले जा सकने वाली मानसिकता का समझते हैं। समय आने पर पुस्तकीय प्रहार किया जायेगा।
@ प्रतिभा सक्सेना
जब नेताओं को समाज बाटने में मलाई मिल रही हो तो ज्ञान भरी बातें मानसिकता के बाहर पड़े पड़े दम तोड़ देती हैं। इन नेताओं पर प्रभाव तब पड़ेगा जब जनता इसका छिछलापन समझ जायेगी।
@ दिगम्बर नासवा
ReplyDeleteतोड़ने का कार्य आसान है, जोड़ने का कठिन। जाति एक सामयिक विषय है जिस पर तोड़ने की राजनीति की जा रही है। यह कह दिया जाये कि जब तक कोई पार्टी 75 प्रतिशत का समर्थन नहीं लायेगी, शासन करने योग्य नहीं समझी जायेगी तो जोड़ने की प्रक्रिया भी प्रारम्भ हो जायेगी।
@ संतोष त्रिवेदी ♣ SANTOSH TRIVEDI
तभी तक काटेंगे जब तक हम इस फसल को अपनी भावना के जल से सिंचित करते रहेंगे। निर्मम होकर इन नेताओं को बाहर की दिशा दिखानी होगी।
@ arun c roy
बहुत धन्यवाद आपका।
@ हरकीरत ' हीर
हमारे अन्दर का लड़ाका भविष्य में और रूप धर कर प्रस्फुटित होगा।
@ महफूज़ अली
आप जैसी समझ वाले हर शहर को एक मिल जाये, देश का नक्शा बदल जायेगा।
@ ज्योति सिंह
ReplyDeleteविवादीय मानसिकता जब जाति का भी अधिग्रहण कर ले तो वही विविधता विवशता लगने लगती है।
@ Ashok Vyas
धन्यवाद का शब्द कहीं कम पड़ जाये न,
हृदयजनित आधार उसे दे, प्रेषित करता।
कहीं जाति तो कहीं रंग - भेदभाव हर समय हर जगह कुछ न कुछ रहता ही है - कुछ नहीँ तो अमीर गरीब का भेदभाव रहेगा !
ReplyDeleteitne najuk vishy ko aise sadhanaa..............
ReplyDeleteprabhavit kar gayaa.............
@ राम त्यागी
ReplyDeleteविविधता और असमानता रहेंगी ही, उनको झगड़े की विषयवस्तु बनाना तो मूर्खता होगी।
@ Apanatva
बहुत धन्यवाद आपका।
मनु और ऊर्मि याद आए हैं।
ReplyDeleteजाने उनकी संतानें किस जाति की होतीं?
@ गिरिजेश राव
ReplyDeleteइस प्रश्न का उत्तर न पा पाना कभी प्रेम की बाधा नहीं हो सकती। जातीय विद्वेष के हन्ताओं की जाति होती वह।
वर्णाश्रम-व्यवस्था के मीट्रिक्स को तोड़कर कब हम जाति-जंजाल में धंस गए पता ही न चला.
ReplyDeleteकविता अच्छी लगी.
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
ReplyDeleteअब वर्णाश्रम जाति-जंजाल बन गया है।