चालीस वर्षों में एक पीढ़ी दूसरी में पदोन्नति पा जाती है पर नहीं भुलाये जा पाते हैं वह अनुभव व भावनायें जो हम जी आये होते हैं। बहुत से गुदगुदा जाने वाले क्षणों में हमारे प्रेम की अवधारणा कहीं न कहीं छिपी रहती है। किसी व्यक्ति विशेष के लिये प्रेम की यह अवधारणा भले ही न बदले पर समाज में आया बदलाव भी आँखों से ओझल नहीं किया जा सकता है। 1970 से 2010 तक, ये बदलाव क्या रंग लाये हैं, यदि देखना चाहें तो आपको मैं टहला लाता हूँ।
कटी पतंग नामक फिल्म आयी थी 1970 में। एक विधवा(कटी पतंग) के प्रति उमड़ता नायक का प्रेम व्यक्त होता है, एक गीत के माध्यम से। राजेश खन्ना आशा पारिख को नाव में बिठा कर ले जा रहे हैं और गा रहे है "जिस गली में तेरा घर न हो बालमा, उस गली से हमें तो गुज़रना नहीं"। पूरा गीत सुने तो भाव निकलेगें पूर्ण समर्पण व एकनिष्ठता के। आज भी जब कोई युवा नायिका वह गीत सुनती है तो स्वयं को सातवें आसमान में पाती है, जबकि वही गीत सुनकर युवा नायक स्वयं को सात कारागारों में घिरा पाता है।
इस वर्ष एक फिल्म आयी, इश्किया। इसमें भी एक विधवा के प्रति नायकों का प्रेम उमड़ता है, एक दूसरे गीत के माध्यम से। नसीरुद्दीन शाह व अरशद वारसी विद्याबालन को देख गाना गाते हैं "डर लगता है तनहा सोने में जी, दिल तो बच्चा है जी"। इस गीत के बोल दिल की असंतुलित, बच्चासम और कुछ भी कर जाने की प्रवृति पर केन्द्रित हैं। इस गाने को सुन भले ही नायिकायें उतना सहज न अनुभव करें पर नायकगण अपनी उन्मुक्तता दिल के बच्चेपन पर न्योछावर कर बड़ा स्वच्छन्द अनुभव करते हैं।
जिन्होने अपनी युवावस्था में कटी पतंग आधारित प्रेम अवधारणा अपनी मानसिकता में सजायी है, उन्हें इश्किया के विचार भाव छिछोरापन लगेंगे, वहीं आज की पीढ़ी को कटी पतंग जैसा समर्पण सम्पूर्ण-मूर्खता लगती है।
1970 में मेरा जन्म नहीं हुआ था और 2010 में हम प्रेम के अवस्था को पार कर गृहस्थी में बँधे हैं। इस प्रकार हम तो कोई भी छोर नहीं पकड़ पाये। पर कुछ वयोवृद्ध व कुछ उदीयमान ब्लॉगर अब तक इस पोस्ट की तह तक पहुँच चुके होंगे और करने के लिये टिप्पणी भी सोच ली होगी। उन्हीं का प्रकाश, प्रेम के इस अन्धतम में जी रहे हम अल्पज्ञों का ज्ञान बढ़ा पायेगा। कुछ व्यक्तित्व जो प्रेमजगत के अत्याधिपति हैं, निश्चय ही अल्पज्ञों के मार्गदर्शन में स्वतः आगे आयेंगे।
पता नहीं कि कौन सा सच आपके हृदय की धड़कन है?
आपके प्रेम की अवधारणा जिस पर भी ठीक उतरती हो आप वह गाना सुन लीजिये। दोनों के ही सुर उतने ही उखड़े हैं जितना इस काल में प्रेम पर विश्वास। मेरे गाने के पूर्व दुस्साहस को सराहने का फल मात्र है यह श्रवण। अपना बढ़ना बन्द करने के प्रयास में मैंने कुछ दिन पहले ये दोनों गीत मंच से गाये थे। जब गीत चयन कर रहा था तब यह आशा नहीं थी कि मैं प्रेम के दो छोरों में, सारे सुनने वालों को बाँधने का प्रयास कर रहा हूँ।
जिस गली में तेरा घर न हो बालमा
दिल तो बच्चा है जी
वाह ... बढ़िया प्रस्तुति...
ReplyDeleteमित्र,आज वास्तव में प्रेम के मायने ही बदल चुके हैं,नयी पीढ़ी वासना को प्रेम समझने लगी है !
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
ReplyDeleteसाहित्यकार-महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
नैतिक मर्यादाएं ध्वस्त हो रही हैं , बदलते समय का असर फिल्मों पर भी पड़ा ही है ...मगर फिर भी वासनारहित प्रेम अपनी सर्वोच्चता नहीं खो सकता ...प्रेम के पीछे डर बदर भागते युवक युवतियां भी इसका महत्व देर सबेर समझ ही लेते हैं ...
ReplyDeleteगीत तो आज भी अच्छे लिखे जा रहे हैं , मगर उनका भौंडा प्रस्तुतीकरण गीत की भावना को मिटा देता है ...
गीत अभी सुन नहीं पा रही हूँ ...इसलिए इस पर कुछ नहीं ...!
बहुत अच्छी प्रस्तुती है ...
ReplyDeleteमै संतोष जी से सहमत हू नयी पीढ़ी प्रेम के मायनेभूलते जा रही है
अच्छा तुलनात्मक विवेचन.. वह दौर, जब आप पैदा भी नहीं हुए थे, रोमांटिक फिल्मों का दौर था और उस ज़माने के मिल्ल्स एण्ड बून थे गुलशन नंदा... कटी पतंग, दाग़, काजल, झील के उस पार आदि कई फ़िल्में उनके उपन्यास पर बनीं.. हालँकि मैं हमेशा एक बात कहता था उन दिनोंजो आपने आज पुनः याद दिला दिया.. एक गाना था जिस गली में तेरा घर न हो बालमा उस गली से हमें तो गुज़रना नहीं और दूसरा उसके विपरीततेरी गलियोंमें ना रक्खेंगे क़दम, आज के बाद… ख़ैर यह तो बस यूँ ही..
ReplyDeleteइश्क़िया तो बंदूक और तमंचा वाली विधवा की प्रेमकथा है. विशाल भारद्वाज की अनोखी लव स्टोरी. और आपका गीत, एक ठण्डी हवा का झोंका...
'आज की पीढ़ी' वाली बात क्या हर पीढ़ी आने वाली पीढ़ी के लिए नहीं कहती आई है? हर सीनियर बैच हर जूनियर बैच को... हर पिछली पीढ़ी आने वाली पीढ़ी को. 'हमारा जामना क्या जमाना था !', 'वो क्या दिन थे'... वेल... जहाँ तक मैं जानता हूँ नयी पीढ़ी प्रेम को वासना समझती है ये सच नहीं है. और अगर समझती है तो कल की पीढ़ी नहीं समझती थी ये भी सच शायद सच नहीं है.
ReplyDeleteशायद मैं विषय से भटक रहा हूँ.
प्रेम तब और अब...... बड़ा अच्छा खाका खिंचा है आपने.....
ReplyDeleteआज के दौर में फिल्म ही नहीं असल जिंदगी में भी प्रेम के क्या मायने है ?
अखबारों की सुर्खिंयां बता ही देती हैं......
गीत गायक प्रवीण पांडे! स्टैंडिंग ओवेशन -कुछ लोगों को मिलती चुनौतियां! अब वे जानें और अपनी तैयारी करें - एक महा ब्लॉगर आर्केस्ट्रा कहीं न कहीं होना है ,निकट भविष्य में !हमारी तो आडियेंस में सीट पक्की !
ReplyDeleteरही बात भावनाओं के ग्राफ की अधो या उर्ध्व गति की तो यह एक लम्बा विवेचन मांगता है !
बेहतरीन विवेचन...पसंद आया.
ReplyDelete1970 के बाद की पैदाइश, अरे आप तो अभी बच्चे हैं जी। हमारे जमाने को आप क्या समझेंगे? खिड़की के पल्लू कब खुलते और कब बन्द होते थे? आँखों ही आँखों में न जाने कितने साल गुजर जाते थे? प्यार के साथ में घर वालों का डर भी साथ-साथ पलता था। लेकिन अब तो कुछ नहीं है जी। घरों में खिड़कियां बन्द रहती हैं बस मोबाइल खुले हैं। डर? अजी डर किस चिड़िया का नाम है?
ReplyDeleteलेकिन प्रेम तो शाश्वत है, जब तक सृष्टि में युगल हैं प्रेम तो रहेगा चाहे इसे कुछ भी नाम दिया जाए। बस वातावरण के साथ प्रकटीकरण बदल जाता है। भाषा भी बदली है तो उसके प्रयोग भी बदलेंगे ही।
बढ़िया प्रस्तुति ! दोनों वक्त की फिल्मों की तुलना अपने आप करता आलेख , मसलन कटी पतंग के जमाने में लोग तमीजदार और सलीखेमंद थे इसलिए भावनाओं को सलीखे से पेश किया गया उस गाने ने मगर आज के लोग .....???????????
ReplyDeleteआपकी आवाज़ ऐसी है जैसे आतिफ अस्लम classical गाने की कोशिश कर रहा है, अब आतिफ अस्लम है pop star , तो classical उसपे जमेगा नहीं, पर pop में उसकी जोरदार fan following होगी. तो यही बात दौर में भी लागू होती है. सभी अपनी अपनी जगह ठीक है. .... appreciate दोनों चीज़ों को किया जा सकता है, और दुहाई भी दोनों तरफ से दी जा सकती है. बात तो हमेशा से सीधी साधी ही है, आदमी आता है, जीता है और मरता है. सबको इतना ही पता है. तो सबको आज़ादी है अपने हिसाब से अपनी जिंदगी और मौत चुनने की ...
ReplyDeleteक्या कहा जा सकता है - कटी पतंग का प्रेम - "अमर-प्रेम" वाला प्रेम है और इश्किया की नायिका जहाँ एक और अमर-प्रेम की कल्पना करती है - वहीँ दूसरी और नयी उम्र के लड़के के साथ वासना के तालाब में भी गोता लगाती है.
ReplyDeleteयानी बिलकुल नयी पीडी कि तरह...... जहाँ एक और दीर्ध कालीन योजनायें है - दूसरी और क्षणिक सुख के लिए "कुछ भी करेगा"
अभिषेक ओझा से सहमत होते हुये संतोष और कोरल जी की कही इस पंक्ति से असहमति जताता हूँ..
ReplyDelete"नयी पीढ़ी वासना को प्रेम समझने लगी है"
( इसी बहाने अपने आप को ’नयी पीढी’ में शामिल करने का मौका मिल रहा है.. )
प्रेम हमेशा से ही ’दूर’ की चीज रही है और जितना मैंने देखा है हम ’करीब’ की सच्चाईयों से ज्यादा ’दूर’ की कल्पनाओं में जीना पसंद करते हैं। हम रीयलिटी से ज्यादा फ़िक्शन में जीते हैं और ’प्रेम’ एक फ़िक्शन ही है..
और दौर चाहे जो हो, जब हम पर्दे और किताबों के प्रेम को जीवन में ढूढते हैं तब हमें एक गैप नज़र आता है जिसे भरने के लिये हम वापस कल्पनाओं में चले जाते हैं
दौर कोई भी हो, प्रेम की सबकी अपनी अपनी परिभाषायें होती हैं.. इस नये दौर के लोग बस थोडे से ज्यादा मुखर हैं.. और लिखी गयी परिभाषायें उन्हे समझ नहीं आती.. वांग कर वुई की एक फ़िल्म है - ’डेज ऑफ़ बीईंग वाईल्ड’ जरूर देखें.. ये कुछ कुछ जगजीत सिंह की गायी एक गज़ल की एक पंक्ति जैसी है..
’वो जो इश्क था, वो जुनून था..’
बहुत पहले मैने भी प्रेम की परिभाषा अपनी एक ’कविता सी’ में ढूढने की कोशिश की थी:-
मैंने किसी को कुछ फूल भेजे थे
कुछ खिली,
कुछ अधखिली कलियाँ,
एक डोर मैं बंधी…
कोशिश थी अपने निस्वार्थ नेह को
अभिव्यक्त करने की।
उसने मुझे वही सूखे,
मुरझाये हुए फूल
उसी डोर मैं बांधकर भेजे हैं
एक पत्र भी है संलग्न
जिसकी कुछ पंक्तियाँ निम्न हैं--
"हम रहे न रहे
तुम रहो न रहो
हमारा यौवन रहे न रहे
पर यह प्रेम डोर रहेगी...
हमेशा रहेगी"
प्रेम की अवधारणा ... क्या कहूं ... गुलज़ार साहब को ही याद कर लेता हूं...
ReplyDeleteप्यार अहसास है
प्यार कोई बोल नहीं,
प्यार आवाज़ नहीं
एक ख़ामोशी है,
सुनती है, कहा करती है।
न यह बुझती है,
न रुकती है,
न ठहरी है कहीं
नूर की बूंद है,
सदियों से बहा करती है। --- गुलज़ार
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
फ़ुरसत में … हिन्दी दिवस कुछ तू-तू मैं-मैं, कुछ मन की बातें और दो क्षणिकाएं, मनोज कुमार, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!
अजीत जी की टिप्पणी पर अपने जमाने का प्रेम याद आया जो कुछ "लव आजकल" के "कल" में देखा ऋषि कपूर के रूप में और अपने जमाने में हमने आमोल पालेकर में देखा था "रजनी गंधा" और "छोटी-छ्टी सी" बात में।
ReplyDeleteऔर वो गाना
"आज कल पांव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे
तुमने देखा है मुझे उड़ते हुए"
या शंकर हुसैन का गाना
"कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की बहुत खूबसूरत मगर सांवली सी।" इससे बेहतर तो कोई गाना मुझे आज तक लगा ही नहीं।
और आपने जो प्रश्न आपने रखा है शायद "लव आजकल" में उसका "आज" आज का प्रेम भी दर्शा देता है, और अंत में तो वही बचता है, जो उस फ़िल्म में है, कि जो कल था वह प्रेम आज भी है, बस रूप बदल गया है।
ReplyDelete@ 1970 में मेरा जन्म नहीं हुआ था और 2010 में हम प्रेम के अवस्था को पार कर गृहस्थी में बँधे हैं। इस प्रकार हम तो कोई भी छोर नहीं पकड़ पाये।
ReplyDeleteबीच के चालीस साल ....
आपकी बात मान लें?
हम्म
चलिए मान लेता हूं फिल हाल...
आपके ब्लॉग के हम फ़ॉलोअर हैं ...!!!:)
दो अलग अलग समय के विचारों का अंतर आपने बखूबी बता दिया है |
ReplyDeleteबहुत फर्क पड़ गया है. उन दिनों का प्रेम बहुत लम्बा खिंचता था अब उतना समय कोई गवाना नहीं चाहता. सब कुछ फटा फट.
ReplyDeleteआपका जन्म भले ही न हुआ हो ?१९७० में ?कितु आपने उस समय का गीत सुनाकर हमारे दिल की धडकनों को फिर से धड़का दिया |हमारे गोल्डन जमाने का गोल्डन गीत |सहेलियों से बतियाते (उस समय हम जैसे छोटे शहर की लडकियों को प्रेम करना वर्जित था |प्रेम हो भी कैसे ?कन्या पाठशाला ,कन्या कालेज में पढना बाजार के रस्ते कभी नजाने दिया गया बी.ए.अनितं वर्ष में शादी ) घरके सारे काम करते यही गाना गाते और राजेश खन्ना की अदाओ की चर्चा करते |वैसे प्रेम करने में हिंदी फ़िल्मी गीतों की बहुत अहम भूमिका रही है |४० साल की प्रेम यात्रा को बहुत अछे से निरुपित किया है |और आपका गानाआपकी आवाज तो बस मन में बस गई |
ReplyDeleteअगले गीत की टिप्पणी बाद में |
क्यूँ "पहला नशा,पहला खुमार..."...."तुझे देखा तो ये जाना सनम...."...इस जमाने के तो आप जरूर रहें होंगे..:)
ReplyDeleteअतिसुन्दर.
ReplyDeleteयहाँ सब पुराने और नए प्रेम की तुलना कर रहे है. पर प्रेम तो समय और पीड़ी से परे है. अभिव्यक्ति बदल सकती है पर भावना तो वही रहेगी जो सदियों पहले थी या अभी है या सदियों बाद रहेंगी. वर्त्तमान को कोसना तो भूत की आदत सी है. कृपया प्रेम को मलिन न करे.
दोनों में से छोर तो कोई भी मैं भी नहीं पकड पाया जी।
ReplyDeleteलेकिन "कटी पतंग" के गाने (खासतौर पर यह वाला) इतनी बार और लगातार सुने हैं कि इसके आगे आजका कोई भी गीत प्रेम की अवधारणा, अभिव्यक्ति और समर्पण के भाव में फीका ही लगता है।
आपकी आवाज में दोनों गीत सुने हैं।
बहुत अच्छा लगा, आपकी एक और प्रतिभा से रुबरु होना।
प्रणाम स्वीकार करें
एक अनासक्त प्रेम का उदाहरन त हमहूँ रखते हैं, मुकेस बाबू का गाया हुआ
ReplyDeleteकोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे, तडपता हुआ गर तुम्हें छोड़ दे
तब तुम मेरे पास आना प्रिये, मेरा दर खुला है खुला ही रहेगा
तुम्हारे लिए!
आज भी प्रेम तो है, प्रदर्सन का तरीका अलग हो सकता है... जमाना “ छोड़ दो आँचल ज़माना क्या कहेगा” से “सरकाइ लेयो खटिया जाड़ा लगे” तक आ गया है!!
प्रवीण जी ,
ReplyDeleteअजीत जी ने सही कहा कि आप तो सच ही बच्चे ही हैं :):)
अब हमारे सामने तो बच्चे ही हुए न ...
आपने दोनों गाने बताये पुराना भी और नया भी ...पर आज भी कुछ गाने ऐसे होते हैं जो बहुत अच्छे और कर्णप्रिय होते हैं ..हांलांकि पुराने गाने ज्यादातर सुनने में अच्छे लगते हैं ...
आज कल के कुछ गानों में अश्लीलता झलकती है ..
‘कटी पतंग नामक फिल्म आयी थी 1970 ’
ReplyDeleteहाय़! कहां गए वो दिन गुलशन नंदा के :)
१९७० में तो मैं भी नहीं पैदा हुआ था ... और यह कटी पतंग फिल्म ऐडोल्सेंस की एज में देखी... और अब मैंने पिछले अट्ठारह सालों से फिल्म देखना छोड़ दिया है.... इश्किया फिल्म का डाइरेक्टर ...हमारे शहर गोरखपुर का ही है... और मेरा क्लासमेट रह चूका है... जब वो इस फिल्म की शूटिंग गोरखपुर में कर रहा था... मैं उसके साथ था... उसने मुझे प्रीमियर पर भी बुलाया था... लेकिन फिल्म मैंने नहीं देखी ... क्यूंकि मैं अब हिंदी फ़िल्में देखता ही नहीं... क्यूंकि सब कि सब रीमेक होतीं हैं... और प्यार जैसे इमोशनल सब्जेक्ट को नकार दिया है... जबकि मैं बहुत इमोशनल आदमी हूँ... मैंने इश्किया फिल्म नहीं देखी ... इसीलिए... नयी फ़िल्में देखने का मन ही नहीं करता... अभी कुछ लोगों ने कहा है... कि दबंग देख आओ... तो बाकी लोग मजाक उड़ाने लगे कि अब सलमान खान भी सलमान खान कि फिल्म देखेगा... हे हे हे हे ..........मैं प्यार जैसी चीज़ों पर अपना सेंट-परसेंट देना चाहता हूँ.... अब यह बात अलग है कि कोई लेना ही नहीं चाहता.. ही ही ही ही ही .......मैं गाने भी ऐसे सुनता हूँ... जो मीनिंगफुल हों.... और सुनकर ...अपनी पुरानी यादों में खो जाता हूँ... हाय! पता नहीं यह लड़कियां ऐसी क्यूँ होतीं हैं... जो उन्हें सेंट-परसेंट देने को तैयार है... साला...उसे ही लतिया देतीं हैं... कि ...साला ... ***या है... हा हा हा हा हा .... अब तो गाने भी सुनो...तो उसमें जिगर, गुर्दा, फेफड़ा ... पैसा... और भी ना जाने क्या क्या रहते हैं... मैं तो बिलकुल कटी पतंग की अवधारणा से ही अभिभूत हूँ.... पता नहीं क्यूँ ऐसा लग रहा है कि मेरी हिंदी यहाँ गलत हो गयी है.... हीहिहिहिहिही.....
ReplyDeleteफिलहाल कटी-पतंग के गाने ही सुन रहा हूँ...
Sorry for late coming... as u know well ... time never stands still....
प्रेम के इस छोर से उस छोर की यात्रा में बहुत कुछ बदला है ... शायद प्यार भी
ReplyDeleteप्रवीण जी पहले तो आप की दाद देनी पड़ेगी। आप ने बड़े भोलेपन से कह दिया प्रेम का ये छोर भी मेरा नहीं (पैदा ही नहीं हुआ) और वो छोर भी मेरा नहीं( ग्रहस्थ हो गया)। तो आप का कोई तो छोर रहा होगा, उसकी चर्चा तो करते…।:) गायक प्रवीण बहुत मधुर है, थोड़ा और गीत में डूब के गाते तो गीत को चार चांद लग जाते।
ReplyDeleteअब आप के सवाल का जवाब्…॥
पंकज ने सही कहा प्रेम सिर्फ़ एक कल्पना है कोई ठोस चीज नहीं। प्रेम की परिभाषा हर युग में बदल जाती है जैसे सुंदरता की परिभाषा हर युग में और हर संस्कृति के साथ बदल जाती है। प्रेम की अभिव्यक्ति एक सीखा हुआ रिस्पोंस है जो हम अक्सर फ़िल्मों के माध्यम से या उपन्यासों के माध्यम से सीखते हैं।
एक जमाना था जब रोमांस को प्रेम समझ लिया जाता था और त्याग को प्रेम की अभिव्यक्ति। ये वो जमाना था जब मनपसंद व्यक्ति/नारी आंख उठा के भी देख ले तो जीवन सफ़ल लगता था। मुझे याद आ रही है फ़िल्म 'काला पत्थर'-अमिताभ, राखी, शत्रुघन और नीतू। पूरी फ़िल्म में शत्रुघन और नीतू एक दूसरे से अपने प्रेम का इजहार नहीं करते पर फ़िल्म के अंत में भीड़ के बीच खड़े खड़े पहली बार शत्रुघन नीतू का हाथ पकड़ता है और वो सीन आज भी रोमांचित कर जाता है। उस एक छुअन में कितना कुछ कह गये दोनों एक दूसरे से। ऐसे ही 'मेरे महबूब' फ़िल्म में। आज के जमाने में जो फ़िल्म बनती हैं उनमें रोमान्स को बेवकूफ़ी समझा जाता है और वासना को प्रेम्।
उपन्यासों का भी यही हाल है। तो बताइए बिचारी नयी पीढ़ी क्या करे, जो सिखाया गया है वही तो महसूस करेगी और करेगी।
अजी नयी पीढ़ी की क्या बात करें, आज कल की फ़िल्में तो पुरानी पीढ़ी को भी चक्कर में डाल रही हैं निशब्द जैसी फ़िल्में बना के और दिल तो बच्चा है जी जैसे गाने
बहुत जल्द नयी पुरानी दोनों पीढियाँ गाती नजर आयेगीं दिल तो बच्चा है जी
... behatreen post !!!
ReplyDeleteDear Praveen ji
ReplyDeletemore than the content of text i am overwhelmed with your ability to sing so nicely. After listenting to your voice i think i have known you bit more.
Thanks for your well wishes for mother's health. she is much better now.
I will apologise for writing in english, but i have not yet discovered the easy way to type in devnagari while posting a comment.
"Kati patang" is the divine love we all long for, and few lucky one get a glimpse of it, but "Isqia" is the truth of day to day life and no denial that at times "dil to bachcha hai ji".
it takes long long time for "dil" to mature.
shayad isi liye khuda ne aadmi ko itni lambi umar di hogi
rr
इतने लोगों की टिपण्णी पढ़ने के बाद कुछ नहीं बोलूँगा मैं...बस इतना ही की
ReplyDeleteप्रवीण जी, आपकी आवाज़ मस्त है...लगता है गाने सुनने के लिए आपके घर आ धमकना परेगा एक दिन :)
और वैसे आपको मैं बता नहीं सकता की मुझे फिल्म "कटी पतंग" कितनी पसंद है...
जिन्होने अपनी युवावस्था में कटी पतंग आधारित प्रेम अवधारणा अपनी मानसिकता में सजायी है, उन्हें इश्किया के विचार भाव छिछोरापन लगेंगे ।
ReplyDeleteसही कहा ।
प्रेम अगर सच्चा है तो गहरा ही होता है । छिछला नही ।
सफ़र मजेदार रहा जी।
ReplyDeleteएक और गायक ब्लॉगर का स्वागत। हमारी अपेक्षायें हर पोस्ट में बढ़ जायेंगे अब से।
सफ़र मजेदार रहा जी।
ReplyDeleteएक और गायक ब्लॉगर का स्वागत। हमारी अपेक्षायें हर पोस्ट में बढ़ जायेंगे अब से।
"अनंत प्रतिभा और प्रेम के धनी" आपको कहें तो अतिशयोक्ति न होगी। सुनना एक बार फिर अच्छा लगा।
ReplyDeleteवाह! बहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteव्यंग्य: युवराज और विपक्ष का नाटक
आपने दो फिल्मों का सहारा लेकर प्रेम का ज़बरदस्त अनालिसिस किया है. रश्मि रविजा की टिप्पणी से सहमत हूँ.. आप पहला नशा पहला खुमार वाले टाइम से तो होंगे ही, तो अगली बार वोह गीत या फिर आपके समय का कोई और मनभावन गीत गाना और हमें ज़रूर सुनाना.
ReplyDeleteफ़िलहाल मैंने तो पहले वाला गीत डाउनलोड कर लिया है ... मस्त..
मनोज खत्री
.
ReplyDelete.
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एक बार पहले भी अली सैय्यद साहब की इस पोस्ट पर यह सवाल किसी दूसरे संदर्भ में पूछा था...
आज फिर पूछता हूँ...
यह प्रेम वाकई कुछ होता है क्या... कहीं ऐसा तो नहीं कि जिस्मानियत को लपेट कर पेश करने वाला चांदी-सोने का वर्क मात्र हो यह...
हर दौर अलग होता है... और हर दौर के वर्क बनाने वाले भी... अंतर लाजिमी है!
... :)
...
प्रशंसनीय ।
ReplyDeleteaajkal koi abhibhavak apanee betee ko ye kah kar vidaa nahee karta ki us ghar se ab tumharee arthee hee uthanee chahiye.............
ReplyDeleteshiksha aatmnirbharta bhee laaee hai .isliye parivesh me badlaav aaya hai.......sanskaro aur moulikta kee dor agar pakde to aaj kee peedee ka bhavishy ujwal hee hai......Cinema to samaj ka darpan hee hai.par itnee vividhata hai bharat me jeevan stur me ki pooree tour par representation nahee ho pata.
ek khaas jan samuday ko lekar hee pictures ban rahee hai........
Aisee meree soch hai.isliye jo bhee rai log rakhe ve sabhee apanee apanee jagah sahee hai............
mere pati jub IIT Kanpur se B tech kar nikle aapka to janm hee nahee huaa tha pooree ek peedee ka antar hai.............
post acchee lagee .
Navvivahit ho aur fir bhee blog ke liye itana samarpan......... saraahneey hai .
Aasheesh .
कल आपसे और आपके परिवार से मिला था.
ReplyDeleteIt was a most memorable visit!
You are a wonderful family.
आपके बच्चे भी बहुत प्यारे हैं
आज पहली बार आपका ब्लॉग पढ रहा हूँ।
यह पोस्ट और पिछले चार पोस्टों को पढा।
अच्छा लगा।
हर चिट्ठाकार का लिखने का अपना अलग अंदाज़ होता है।
शुद्ध हिन्दी पढना हमें भी पसन्द है और आपके ब्लोग की यही खासियत है।
हम तो बाज़ारी, सीधे साधी बोल-बोलचाल की हिन्दी ही जानते हैं और इसी भाषा में लिखते भी हैं।
आशा करता हूँ कि यहाँ पधारकर हम अपनी हिन्दी को सुधारेंगे।
भविष्य में यहाँ आते रहेंगे। और विषय पर टिप्पणी भी करेंगे।
यह तो केवल मेरे आपके यहाँ बार बार आने की घोषणा और वादा है।
हिन्दी ब्लॉग जगत में बस आप ही हैं जो यहाँ बेंगळूरु में रहते हैं और जिससे मेरी साक्षात भेंट भी हो गई है।
ब्लॉग जगत में और प्रत्यक्ष संपर्क भी जारी रहे।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
सच्चे प्रेम के बारे में एक ही उक्ति सत्य लगती है कि यह एक ऐसी चीज है जिसके बारे में हर व्यक्ति बात करता है लेकिन देखा किसी ने नहीं होता है...
ReplyDelete.
ReplyDeleteजो मुझे जानते हैं, वो यही कहते हैं की मेरे अन्दर कोई बहुत पुरानी आत्मा है, शायद इसीलिए पुरानी फिल्मों के गीत ही मुझे अच्छे लगते हैं। एक गाना है - " ये वादा करो चाँद के सामने , भुला तो न दोगे मेरे प्यार को "। इसे हमेशा सुनती हूँ...आँख में आंसू आ जाते हैं... जो मुझे जानते हैं, वो यही कहते हैं की मेरे अन्दर कोई ancient soul [बहुत पुरानी आत्मा] है, शायद इसीलिए पुरानी फिल्मों के गीत ही मुझे अच्छे लगते हैं। एक गाना है - " ये वादा करो चाँद के सामने , भुला तो न दोगे मेरे प्यार को "। इसे हमेशा सुनती हूँ...आँख में आंसू आ जाते हैं...
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बदलते समाज में बदलते नियमों और धारणाओ को चित्रित करती पोस्ट है आपकी .... मूल्यजरूर बदल गये हैं ... विश्वास भी बदल गये हैं पर प्रेम के कोमल एहसास अभी भी वही हैं .... दोनो पिक्चरों में दिखाने / फिमांकन का फ़र्क ज़रूर है पर प्रेम तो दोनो में ही है ....
ReplyDelete@ महेन्द्र मिश्र
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका, पर आपसे विचार विनिमय की आशा थी इस विषय पर।
@ संतोष त्रिवेदी ♣ SANTOSH TRIVEDI
आपका कहना संस्कृतियों के उभरते स्वरूप को देख कर सही माना जा सकता है पर अभी भी पवित्र प्रेम के बहुत उपासक मिल जायेंगे आपको। प्रेम का आनन्द ही समर्पण में है।
@ राजभाषा हिंदी
बहुत धन्यवाद आपका।
@ वाणी गीत
प्रेम का महत्व दैहिक आकर्षण के ढलने पर समझ में निश्चय ही आ जाता है पर तब तक कई वर्ष निकल गये होते है। यौवन में प्रेम का गाढ़ापन सारा जीवन अमृतवत नवीनता बनाये रखता है।
@ Coral
दैहिक आकर्षण में प्रेम का स्वरूप ढूढ़ने वालों को अधिक समय नहीं लगता है यह समझने में वे गलत राह पर हैं। कष्ट अधिक होता है पर प्रेम का स्वरूप समझ में आ जाता है। समर्पण का फल समर्पण है। धूर्तता का उत्तर भी वैसे ही मिलता है।
@ सम्वेदना के स्वर
ReplyDeleteनिश्छल प्रेम की कथायें अभी भी हृदय छू जाती हैं। पुराने गीतों के शब्दों में वह निश्छलता छलकती है। मन की प्रवृत्ति है उत्श्रंखलता पर प्रेम जैसे जीवन को प्रभावित किये जाने वाले विषय मन के विकारों के सहारे नहीं छोड़े जा सकते हैं। मेरी पसन्द अभी भी पुराने गीत हैं।
@ अभिषेक ओझा
आपका अवलोकन सटीक है और आप तनिक भी नहीं भटके हैं। जिस तरह समाज की भौतिक सीमायें ध्वस्त हो रही हैं, विचारधारा में खुलापन आना स्वाभाविक है। खुलेपन से उत्श्रंखलता बढ़ेगी ही अतः सबको ही आने वाली पीढियों पर लांछन लगाने का अधिकार है। प्रेम का स्वरूप बदल गया हो पर भावना अभी भी नहीं बदली है।
@ डॉ. मोनिका शर्मा
अखबार का पहला पन्ना तो भयकथा सा लगता है। प्रेम की कथाओं में वह भय उतर आया है। प्रेम का कोमल स्वरूप आधुनिक समय का आपाधापी में भयाक्रान्त है।
@ Arvind Mishra
हर दिल जो प्यार करेगा, वो गाना गायेगा।
इस गाने के आधार पर प्रेम समझने वाले के लिये गाना गाना आवश्यक है। इस विषय पर साधिकार लिखने के लिये गाना गाया, बस।
@ Udan Tashtari
कौन सा छोर पकड़े हैं आप, पर यह नहीं बताया।
@ ajit gupta
ReplyDeleteसच्ची बात तो सदा ही समझ में आती है पर। प्रेम के पहले का पर्दों के पीछे छिपा उन्माद, प्रेम से अधिक रोमांचक रहा होगा, इसकी कल्पना कर सकता हूँ मैं। प्रेम का शास्वत स्वरूप उसमें पूर्ण रूप से डूबने वालों को ही दिखता है। छिछले जल में डूबने का आनन्द कहाँ?
@ पी.सी.गोदियाल
मन के भावों को रायते जैसे फैला देने की रीति है आजकल। धैर्य तो किसी से ही नहीं होता है आजकल।
@ Majaal
3 महीने पहले आतिफ का लाइव शो देखा था। नये गानों में उसकी धूम है।
अपना तरीका चुनने व उसका फल भोगने का निर्णय तो अन्ततः व्यक्ति का ही है। प्रेम का आनन्द अभी भी डूब जाने में ही है।
@ DEEPAK BABA
काश होता कि प्रेम में दीर्घकालिक व लघुकालिक योजनायें सहअस्तित्व में रह पातीं। प्रेम वह साधना है जो सिद्ध न हो पाने की स्थिति में घोर अहित कर जाती है। दो मत जी पाना असम्भव सा ही है, प्रेम में।
@ Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय)
मुझे ज्ञात था कि नयी पीढ़ी के बहुत लोग प्रेम की वासनात्मक परिभाषाओं को अभी भी नकार देते हैं। यदि कुछ दैहिक-साहस करना ही है तो उसे प्रेम का नाम क्यों दिया जाये? प्रेम की अति भावनात्मक राहें और भी पीड़ादायी होती हैं और असफलता की वितृष्णा भर जाती हैं। मध्यमार्गी पथ असाध्य नहीं पर कठिन अवश्य है और प्रेम का आनन्द उसी में ही है।
@ मनोज कुमार
ReplyDeleteआपके द्वारा उद्धृत गीत भी गुजार साहब का है और दिल तो बच्चा है जी भी उन्हीं का। उन्होने प्रेम की कई विमाओं को गीतों के माध्यम से व्यक्त किया है।
लोग कहते हैं कि प्रेम को व्यक्त करने का तरीका ही बदला है अभी पर मुझे तो उसकी सांध्रता भी बदली बदली दिखती है अभी।
इस पोस्ट के माध्यम से मैं आप ज्ञानीजनों से प्रेम की सही स्वरूप जानने का यत्न भर कर रहा हूँ।
@ नरेश सिह राठौड़
पर आपने अपना छोर नहीं बताया।
@ P.N. Subramanian
उस लम्बे खिचे समय की हर धड़कन अपने आप में प्रेम का आनन्द स्थापित करती थी। अतिशीघ्र प्रेम सम्पादित करने में उसका तत्व खो जाता है। हर प्रक्रिया की एक गति होती है।
@ शोभना चौरे
कई घरों में लड़कियों को शीघ्रातिशीघ्र ससुराल भेज देने का चलन है। जब तक प्यार की समझ आये आटा चूल्हा में लग चाती हैं लड़कियाँ। हमें पर अभी भी पुराना समय अच्छा लगता है।
@ rashmi ravija
आपने हमारा छोर भी ढूढ़ लिया अन्ततः। पर हमें कयामत से कयामत तक के गाने बहुत सुहाते रहे हैं।
@ TheChosenOne
ReplyDeleteप्रेम तो कभी मलिन नहीं रहा है, आक्षेप उसकी अभिव्यक्ति पर उठे हैं सदैव।
@ अन्तर सोहिल
कटी पतंग की अवधारणा अभिभूत तो करती है, फिर भी दिल तो बच्चा है जी।
@ चला बिहारी ब्लॉगर बनने
कोई जब तुम्हारा वाला गाना तो बहुत गाते हैं घर में, पर चिढ़ाने के लिये।
सरकाइ लेयो तो प्रेम की विकृतियाँ ही कहलायेगीं।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
समाज की फूहड़ता तो गानों में रिस रिस कर आयेगी ही। पुराने गीत अभी भी मन मोहते हैं।
@ cmpershad
जाने कहाँ गये वो दिन...
@ महफूज़ अली
ReplyDeleteजिन विषयों में गहराई न हो उनमें उतरने की इच्छा नहीं होती है। लालच क्षणिक हो सकता है पर जीवन की गुणवत्ता के मूल्य पर नहीं। मैं आपसे पूर्णतया सहमत हूँ।
@ पद्म सिंह
प्यार सामाजिक से व्यक्तिगत हो गया संभवतः।
@ anitakumar
अब धीरे धीरे प्रेम में डूबेंगे तो सुर अपने आप आ जायेंगे।
एक जमाना था जब रोमांस को प्रेम समझ लिया जाता था और त्याग को प्रेम की अभिव्यक्ति।
इस वाक्य में पिछले समय को व्यक्त करने की पूर्णता है। कुछ लोग पर अभी भी इसी को महत्ता देते हैं।
दिल तो बच्चा है जी तो सदैव ही मन में थिरकता रहा है और अब प्रेम की प्रमुख अभिव्यक्ति बन उभर रही है।
@ 'उदय'
बहुत धन्यवाद।
@ rakesh ravi
आपकी माताजी शीघ्र ही स्वास्थ्य लाभ करें, यही प्रार्थना है।
इन दो छोरों के बीच हमारा मन सदा सदा ही भटकता है पर सही छोर पर जीवन को रोकना ही पड़ेगा क्योंकि दोनो विचारधारायें साथ साथ नहीं चल सकती हैं।
@ abhi
ReplyDeleteआप घर आ जाइये, पिछले कई दिन बेवजह ही जा रहे हैं। मेरे ईमेल पर अपना मोबाइल नम्बर दे दें, शेष मुझपर छोड़ दें।
@ Mrs. Asha Joglekar
सच कहा आपने, सच्चा प्रेम गहरा ही होता है।
@ मो सम कौन ?
बहुत धन्यवाद पर गानों पर आधारित पोस्ट पर ही तो गा पायेंगे।
@ विनोद शुक्ल-अनामिका प्रकाशन
बहुत धन्यवाद आपका इस उत्साहवर्धन के लिये।
@ Shah Nawaz
बहुत धन्यवाद।
दोनो गाने सुने और मन लगाकर सुने। बहुत अच्छा लगा इनको सुनना। अपना गाने का अभ्यास जारी रखें।
ReplyDeleteआपने लिखा दोनों के ही सुर उतने ही उखड़े हैं जितना इस काल में प्रेम पर विश्वास। तो गाने के सुर के बारे में हम कुछ न कहेंगे बस हमको अच्छा लगा इनको सुनना। लेकिन इस काल में प्रेम पर विश्वास उखड़ने वाली बात सही नहीं लगती। प्रेम हर काल में आश्वस्त करता है। समय, पीढ़ी और समाज के हिसाब से उसका प्रकटकरण भले बदल जाये लेकिन यह यह कभी उखड़ने वाला विश्वास नहीं हो सकता। कत्तई नहीं!
@ Manoj K
ReplyDeleteरश्मि जी ने बिल्कुल ठीक छोर पकड़ा है पर अपनी पीड़ायें कौन बताता है।
@ प्रवीण शाह
जब मानवता के समुद्र में युगलों को संग संग डुबकी मारते देखता हूँ तब यह नहीं मान पाता हूँ कि प्रेम आभासी है। विशुद्ध दैहिक आकर्षण नकारा नहीं जा सकता है पर उससे परे कुछ बन्ध हैं जिसे प्रेमी प्रेम नाम से परिभाषित करते हैं।
@ अरुणेश मिश्र
बहुत धन्यवाद आपको।
@ Apanatva
पीढ़ियाँ कभी कभी उतनी मूढ़ होती नहीं कि पुरानी स्वस्थ परम्परायें निभा न पाये। खुलापन बढ़ा है पर प्रेम का निश्छल स्वरूप अभी भी युवाओं के हृदय में जीवित है।
@ G Vishwanath
आपका उत्साह और जीवन जीने की पूर्णता मेरे हृदय में एक अनुनादित उमंग उतार गयी।
आपकी रेवा में बैठ कर बंगलोर देखना है।
@ भारतीय नागरिक - Indian Citize
ReplyDeleteहम तो कब से ढूढ़ रहे थे उनको जिन्हे इसकी गूढ़ता ज्ञात हो।
@ ZEAL
नयी पीढ़ी का रंग ढंग देखकर तो पुरानी पीढ़ी के साथ बैठने में सुकून मिलता है।
@ दिगम्बर नासवा
प्रेम का कोमल स्वरूप वही बना रहे, इसी से हमारी आस्थायें बल पाती हैं।
@ अनूप शुक्ल
गाना जारी रहेगा, स्वान्तः सुखाय। जिन्हे प्रेम पर विश्वास है उन्हें मेरे सुर भी उखड़े नहीं लगेंगे क्योंकि गाने के शब्द और मेरे भाव कुछ न कुछ तो असर डालेंगे ही। प्रेमशुष्क आत्माओं को सुर न सुहायेंगे।
प्रस्तुति अच्छी है मगर मेरे कम्प्यूटर के स्पीकर खराब हैं सुन नही सकी
ReplyDeleteबुक मार्क कर लिये है
धन्यवाद
..नैतिकता, प्रेम के पैमाने ज़माने के साथ बदलते रहते हैं।
ReplyDeleteगृहस्थ क्या प्रेम नहीं करते ??????????????
ReplyDeleteअरे यह क्या!
ReplyDeleteआप इतना अच्छा गाते भी हैं?
सुबह आपका यह ब्लॉग जल्दी में पढा था।
गाना तो सुना ही नहीं।
सोचा था कि आप मूल गाने का रेकॉर्डिंग पेश कर रहे हैं
बाद में इत्मिनान से सुना तो नोट किया कि यह तो आप ही की आवाज है।
बैकग्रौन्ड म्यूज़िक आप कैसे जोडे? क्या आपके साथ कोई वाद्य बजा रहा था?
या यह कोई सोफ़्टवेर का जुगाड है?
यदि हमें पता होता कि आप गाते भी हैं तो कल शाम को, जब आपसे मिले थे, अवश्य कुछ गँवाते।
अरविन्द मिश्रा जी से आपने कहा हैं "हर दिल जो प्यार करेगा, वो गाना गाएग"
मेरा दिल कुछ अलग है। जब प्यार करता है तब बाँसुरी बजाता है।
लीजिए इसी गाने का एक अंश बाँसुरी पर आपको ई मेल द्वारा भेज रहा हूँ।
अधिक अपेक्षा न रखें। हम तो quack बाँसुरी वादक हैं।
कई चालीस/पैंतालीस साल पहले जब हम विद्यार्थी थे, शौक से फ़िल्मी धुनें बजाते थे।
फ़िर आदत और अभ्यास छूट गई और यदा कदा, जब मूड बनता, उसे उठाकर कुछ बजा लेता था। श्रीमति तो अपनी कानें बन्द कर लेती हैं मेरी बाँसुरी वादन से राहत पाने के लिए। अब, इस उम्र में फ़ेफ़डों में उतना दम नहीं है फ़िर भी बाथ्रूम सिंगर का स्टैन्डर्ड के हिसाब से मेरी बजायी धुनें शायद चल जाएंगी।
दो नमूने भेज रहा हूँ।
१) "हर दिल जो प्यार करेगा" का आरंभ का एक अंश.
२) बैजु बावरा का वह पुराना गाना "मोहे भूल गए साँवरिया"
यदि आपके पाठकों को शोर पसन्द है तो इसे आप अपने ब्लॉग में मेरी यह टिप्पणी के साथ जोड सकते हैं।
यदि सचमुच पसन्द आ गई तो बता दीजिए
कुछ और पुरानी धुनें मेरी पुरानी बाँसुरी पर बजाकर, रेकार्ड करके भेज दूँगा।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
@ निर्मला कपिला
ReplyDeleteआराम से सुनियेगा। अभी तो गाना प्रारम्भ किया है. जब तक आप लोग मना नहीं कर देगें, हम तो गाते रहेंगे।
@ बेचैन आत्मा
प्रेम में नैतिकता - हम इस जमाने के नहीं लगते हैं।
@ पंकज
आप से पहले 50 लोगों ने इसका विरोध नहीं किया। आपको बहुत शुभकामनायें, आपसे हमें भी प्रेरणा मिल जाये, ईश्वर करे।
@ G Vishwanath
डमरू की धुन छोड़ गोकुलनाथ का यन्त्र उठा लिया है आपने। बाँसुरी की धुनों में मधुरता व जीवन्तता आपके व्यक्तित्व में भी गूँजती है। बहुत ही सुन्दर। अब अरविन्द मिश्र जी का स्वप्न और शीघ्र साकार होगा।
स्पीकर की अपनी मर्जी़. नहीं ही चला. आपको सुन नहीं पाया. खै़र कोई मलाल नहीं. फिर सही.
ReplyDeleteवाह प्रवीन जी कितनी सफाई से कह दिया न वो समय मेरा था न ये मेरा है पर कोई तो आपका समय भी रहा होगा उसका क्या ????
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुती है ...गायक प्रवीण पांडे जी !
माफ कीजियेगा परन्तु नई पीढ़ी को गलत कहना या ये कि उन्हें प्रेम करना नहीं आता इससे में कभी सहमत नहीं होती हूँ ..हाँ स्वरुप जरूर बदल सकता है वक्त के साथ, और वो सदियों से बदलता ही रहा है .जहाँ तक वासना की बात है उस ज़माने में भी विलेन होते थे फिल्मो में :)
ReplyDeleteगाने अभी नहीं सुन पाई हूँ नेट खराब था अभी ठीक हुआ है :)
@ काजल कुमार Kajal Kumar
ReplyDeleteआप सुन अवश्य लीजियेगा, कलाकार ही कला को परख सकता है।
@ रचना दीक्षित
अपने समय में झाकने में किसको रुचि रही अब।
हर दिल जो प्यार करेगा, वो गाना गायेगा।
@ shikha varshney
कल के विलेन आज के हीरो बने फिरते हैं और कल के हीरो आज के चरित्र अभिनेता। इस बदलाव से प्रेम भला कैसे अछूता रहे।
ब्लॉग को पढने और सराह कर उत्साहवर्धन के लिए शुक्रिया.
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा, आपकी एक और प्रतिभा से रुबरु होना।
ReplyDeleteवाकई गायकी में आप भी 'प्रवीण' हैं :)
ReplyDeleteप्रेम के वर्तमान स्वरूप और राजेश खन्ना के जमाने के प्रेम की अभिव्यक्ति में वाकई बहुत बड़ा फासला हो गया...
पर उस समय में और आज में अंतर है...तब लोगों के पास समय था...अब लोगों के पास समय नहीं है...वो इंदिरा का श्याम-श्वेत टाइप का समाजवादी भारत था...आज ब्राडबैंड और ब्लैकबेरी के बगैर जीना मुश्किल हो जाएगा
आलेख पढ़ा परसों ही था,उस समय नेट कनेक्सन बड़ा कमजोर था तो सुन नहीं पायी थी.... सोचा सुन लुंगी तब टिपण्णी करुँगी...पर क्या बताऊँ...अच्छा होता जो केवल पढ़े पर ही टिपण्णी कर देती..
ReplyDeleteबस इतना ही कहूंगी...माँ सरस्वती की साक्षात कृपा है आपपर...नहीं तो इस तरह सुर शब्द चिंतन एक साथ इतनी मात्रा में विरले को मिला होता है...
थोडा सा सुर को और साध लें तो यह उसी ऊंचाई पर पहुँच जायेगा जितने पर आज आपका लेखन स्तर है..कोई फर्क नहीं कर पायेगा गीत के ओर्जिनल और आपके आवाज में ....
जैसे देह वही रहता है उसपर कपडे फैशन के अनुसार बदलते रहते हैं,वैसे ही प्रेम का असल स्वरुप कभी नहीं बदलता....और जो फैशन सा बदले ,वह प्रेम नहीं होता...
प्रेम में यदि यह स्थिति न हो तो फिर बात ही क्या..." खुदा करे कि मुहब्बत में ये मुकाम आये,किसी का नाम लूँ लब पे तुम्हारा नाम आये...."
samay ke saath badalte prem ke do pahluon ko gaaya hai aapne. nishchay hi prem ki satvikta aur samarpan hi prem ki sahi bhasha ko paribhasit karti hai.
ReplyDeleteबहुत ही खूबसूरत जानकारी मिली
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति...
मुझे यहां तक पहुंचने में देर हो जाती है और टिप्पणियों की संख्या देखकर ठिठक जाता हूं, लेकिन... मुझे यह पीढि़यों का नहीं बल्कि मनोभाव और अभिव्यक्ति के क्षणों का अंतर लगता है.
ReplyDeleteमै भी ७० में पैदा नही हुआ था . और अब दिल तो बच्चा है जी लेकिन कमीना नही
ReplyDeleteह्म्म्म्म्म तो अगला अभ्यास कब???
ReplyDeleteye safar rochak raha .bahar hone ke karan waqt par nahi aa saki .
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteप्रवीण जी आज भी फूल खिलते है...आज भी पत्तियो पर ओस की बून्दे गिरती है मोतियो के मानिन्द... आज भी प्रेम होता है... प्रेम मे वासना पहले भी था.. आज भी है.. प्रेम मे श्रद्धा पहले भी थी.. आज भी है.. हा समय के साथ बद्लाव हुए है.. आगे भी होन्गे.. जब तक धरा है प्रेम है... प्रक्रिति है प्रेम है... सिनेमा के माध्यम से अच्छा विष्लेशन किया है आप्ने...
ReplyDeleteज़िस्म से चल कर रुके जो ज़िस्म पर
ReplyDeleteउस सफर का नाम ही अब प्यार है
प्यार की परिभाषा बदल गयी है...इसलिए गीत और बोल भी वक्त के हिसाब से बदल गए हैं...
आज के दौर में जिस गली में...गाने वाले को हो सकता है प्रेमिका पागल खाने भिजवा दे...:))
समय समय की बात है..
नीरज
हम लोगों की पीढ़ी तक तो बहुत कुछ बदल चुका होगा...
ReplyDelete____________________
'पाखी की दुनिया' में 'करमाटांग बीच पर मस्ती...'
claasic!
ReplyDelete@ संजय भास्कर
ReplyDeleteगाना तो अब रुकने वाला नहीं। लोग कहते हैं कि गाना गाने से युवा रहा जा सकता है।
@ भुवनेश शर्मा
श्वेत-श्याम में भाव गहरे थे, रंगीनियत की छिछलापन है वर्तमान।
@ रंजना
सुर तो सध जायेंगे क्योंकि हार मान कर बैठना नहीं भाता मुझे। सुरधने तक तो पर आप सबको झेलना पड़ेगा।
प्रेम की गहराई के अपने अपने स्वरूप हैं। छिछला जल सबको एक जैसा लगता है।
@ मेरे भाव
धैर्य प्रेम को गहरा बना देता है। उस पर तक जीवन भर रहा जा सता है।
@ VIJAY KUMAR VERMA
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Rahul Singh
ReplyDeleteअभिव्यक्ति पर पीढियों का प्रभाव होता है, सब कुछ शीघ्र कर लेने की व्यग्रता प्रेम को कहाँ ले जायेगी?
@ dhiru singh {धीरू सिंह}
बच्चे जैसा सुन्दर हृदय है आपका।
@ Archana
बहुत शीघ्र ही।
@ ज्योति सिंह
आप जब भी आ सकीं। यह मेरे लिये उत्साह के बढ़ जाने के जैसा है।
@ हास्यफुहार
बहुत धन्यवाद।
@ arun c roy
ReplyDeleteसरल-तरल मना हृदय के लिये प्रेम सदा ही सात्विक रहा है।
@ नीरज गोस्वामी
इन बदलती परिभाषाओं के बीच कई स्तम्भ खड़े हैं।
@ Akshita (Pakhi)
तब आप एक और पोस्ट लिख दीजियेगा, इस पर।
@ Parul
बहुत धन्यवाद।
क्या गाया है मस्त !! हमारे तो कान आपकी दाद दे रहे हैं - आँख तो पढकर रोज ही देती है
ReplyDeleteवाह..! सुनकर पहले लगा ही नहीं कि आपने गाया है. बहुत सुन्दर! (और यह अन्तर्निहित है कि बहुत सुन्दर लिखा भी है)
ReplyDelete@ राम त्यागी
ReplyDeleteआप को गाना पसन्द आने का अर्थ है हमें अनलिमिटेड लाइसेन्स मिल गया गाने का। अब तो आपको ही झेलना पड़ेगा हमारे उद्गार।
@ Saurabh
बहुत आभार, पहली बार सुनकर मुझे भी अपनी आवाज समझ नहीं आयी थी।
priye parveen
ReplyDelete