मुझे कई दिनों से एक बात कचोट रही थी कि किसी धनवान का धन उसकी सामाजिकता को किस तरह प्रभावित करता है? स्वयं का अनुभव मध्यमवर्गीयता का प्रबल आस्वादन मात्र ही रह पाया। कई धनवान मित्र हैं पर धन को लेकर न मेरी जिज्ञासा रही और न ही उनका खुलापन। किसी धनाढ्य से उसके धन के बारे में पूछना थोड़ा आक्रामक सा प्रतीत होता है और धनाढ्य का स्वयं ही बता देना उस परिश्रम को एक सार्वजनिक स्वरूप दे देना होगा जिससे वह धन अर्जित किया गया है।
धन को साधन के रूप में स्वीकार करने से तो यह लगता है कि धन की मात्रा बढ़ने से सामाजिकता भी बढ़नी चाहिये। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो होता विपरीत ही है। धन के द्वारा लोगों का सामाजिक विस्तार सिकुड़ते ही पाया है।
और अधिक धन की आकांक्षा समय की उपलब्धता कम कर देती है जिससे सम्बन्ध सिकुड़ने लगते हैं। अधिक धन का होना व्यक्ति को समाज की एक विशेष श्रेणी में खड़ा कर देता है, जहाँ पर सामाजिकता कम और दिखावा अधिक होता है। धन चले जाने का या माँग लिये जाने का भय भी धनवान को अन्य वर्गों से दूर रखता है। इन तीन संभावित कारणों के बारे में जब किसी उत्तर पर नहीं पहुँच पाया तो निर्मम हो एक से यह प्रश्न पूछ ही बैठा।
"क्या आपको लगता है कि यदि कोई आपसे बात करने आता है तो उसे केवल आपके धन में रुचि है?" प्रश्न रूक्ष और आहत करने वाला था और मैं उत्तर की अपेक्षा भी नहीं कर रहा था। असहज उत्तर मिला कि नहीं, ऐसा नहीं है। जो भाव शब्द छिपाना चाह रहे थे, मुखमण्डल ने उन्मुक्तता से बिखेर दिये। ऐसा नहीं है कि धनाढ्य के अतिरिक्त, धन का उल्लेख किसी और को विचलित नहीं करता है। मध्यमवर्गीय के मन में यदि धन घुल गया तो उसका, उसके परिवार का और उसके समाज का विस्तार उस धनाक्त मानसिकता में तिरोहित हो जाता है। निर्धन के लिये तो सदैव ही धन एक चाँद सितारे के उपमानों से कम नहीं है जीवन में।
कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय,
वा खाये बौराय जग, वा पाये बौराय।
जब पहली बार पढ़ा था यह दोहा तो उतना जीवन्त नहीं लगा था यमक अलंकार का यह उदाहरण। अनुभव के मार्गों में पर इस दोहे को नित्य जीवन पाते देखा है। बौराने की स्थिति में सम्बन्धों का भार उठाना बड़े झंझट का कार्य लगता हो संभवतः। बौराने की स्थिति में सामाजिकता के विस्तार की बात तो दूर, समाज पर ही भार बन जाता है व्यक्ति।
स्वयं का अनुभव इस जीवन में मिल पाये, इतनी प्रतीक्षा न कर पाऊँगा, उत्तरों के लिये। किसी लक्ष्मीपति से इस प्रश्न का उत्तर मिले तो अवश्य बताईयेगा। लक्ष्मीवाहनों से इस विषय पर चर्चा कर अब अपना समय व्यर्थ नहीं करूँगा। आपके लिये भी यही सलाह है।
हम तो आपको ही धनवान समझते थे !
ReplyDeleteवैसे धनि केवल रूपए का ही थोड़े ना होता है. आप बहुत धनवान है. हम गरीबों को ऐसे ही दान करते रहिये :)
धन और धनी का सही विश्लेषण । अलंकार मुझे लगता है श्लेष है एक ही शब्द के दो अर्थ जब हों कनक (धतूरा) और (कनक)सोना भी
ReplyDeleteअंग्रेज़ी समतुल्य हिन्दी में भी एक बहुत सुंदर शब्द है नवधनाड्य.
ReplyDeleteइसे अगर समझ लिया जाए तो धनवान होने या न होने का सामाजिक व्यवहार में कोई विशेष अंतर नहीं रह जाता है.
संतोषम परम सुखम् | जिसके पास ज्यादा धन वो भी परेशान है क्यों कि उसके मन को चैन नहीं है | जिसके पास धन नहीं है वो भी धन के लिये परेशान है | यानी परेशानी चारो ओर है | इसलिए संतोषम परम धनम |
ReplyDeleteप्रश्न रूक्ष और आहत करने वाला है...माफ करना मित्र. :)
ReplyDeleteक्षुद्र नदी भर चली तोराई ,ज्यों थोरे धन खल बौराई
ReplyDeleteकनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय,वा खाये बौराय जग, वा पाये बौराय।...
ReplyDeleteऔर वो भी जिसे बिना मेहनत का मिल जाए , .बौराता ही है ...
अब इसके बाद भी टिप्पणी करने को क्या बचा ...
हम सब किसी न किसी रूप में अर्थ के पीछे तो हैं ही नहीं तो ये गजेट और पालतू जानवर जो इतने महंगे आते हैं - कैसे आप बिना सोचे ले पाते !
ReplyDeleteआपकी विश्लेषण सही है कि धन अर्जन समय की कमी कर देता है और इससे सामजिक दायरा सीमित होने लगता है, फिर आदमी धन से विलासिता में खरीदी गयी चीजों से मन बहलाने की कोसिस करता है ...पर इन सब बातों से दूर ये जरूर असमति दर्शाना चाहूँगा कि आप धनी नहीं है या धन के पीछे नहीं हैं - हो सकता है कि आप अति नहीं कर रहे हों - वो ठीक भी है क्यूंकि 'अति सर्वत्र वर्जते' - जब तक अति नहीं है आप बैलेंस बना कर चल सकते हैं !!
अति तो किसी भी चीज की ठीक नहीं - चाहे वो चीज या आदत अच्छी हो या बुरी !!
संपदा, सदैव की गरूर से भर देती है। फिर व्यक्ति समाज के ऊपर बैठना चाहता है।
ReplyDeleteप्रवीण जी, मैं धनवान उसे मानती हूँ जिसका धन समाजहित में काम आए। यदि कोई धनाढ्य व्यक्ति धन का उपयोग केवल स्वयं के भोगविलास में ही करता है तो मैं उसे सम्मान नहीं दे देती। अर्थ सामाजिक एवं पारिवारिक सम्पदा है इसका उपयोग सर्वजन हिताय होना चाहिए। जिसमें इतना विवेक है तो वह व्यक्ति सम्मान के योग्य स्वत: ही हो जाएगा। ज्ञानवान व्यक्ति ही सबसे बड़ा धनी है क्योंकि ज्ञान कभी छीना नहीं जा सकता है।
ReplyDeleteसच में यही देखने में आता है ......धन का आना और मनुष्यता का जाना साथ साथ ही होता है....और घमंड के तो कहने ही क्या?
ReplyDelete--------------------------------
वा खाये बौराय जग, वा पाये बौराय।
प्रवीण भाई !
ReplyDeleteमैं जीवन में कभी धन के पीछे नहीं भागा , यहाँ तक कि कभी अपना घर पर किरायेदार भी नहीं रखा क्योंकि जितने की आवश्यकता थी उतना इंतजाम तो था नतीजा धन कभी जमा नहीं कर सका ! और कई बार समस्याओं में फंसने पर परिवार के ताने सुनने पड़े !
मगर अब जब बच्चों के साथ बैठता हूँ तो यही कहता हूँ कि धनवान होना बहुत आवश्यक है ! अपने परिवार में ही समर्थ और असमर्थ भाई को देखिये उनके रहनसहन और परिवार के आत्मविश्वास में फर्क दिख जाएगा ! यह कहना महज़ आदर्शवादिता है कि अधिक धन अनावश्यक है यह सिर्फ तभी तक है जब तक आप पर समुचित लक्ष्मीकृपा नहीं है !
हाँ यह सच है कि धन "आवश्यकता" से अधिक होने पर आप सामाजिकता और संतोष से कट जाते हैं , इस "आवश्यक" सीमा से अधिक जाने पर यह साधन निरर्थक लगते हैं और स्नेह शब्द तो लगभग समाप्त ही हो जाता है !
सादर !
!
और अधिक धन की आकांक्षा समय की उपलब्धता कम कर देती है जिससे सम्बन्ध सिकुड़ने लगते हैं। अधिक धन का होना व्यक्ति को समाज की एक विशेष श्रेणी में खड़ा कर देता है, जहाँ पर समाजिकता कम और दिखावा अधिक होता है
ReplyDeleteबहुत सूक्ष्मता से विश्लेषण किया है ...और दोहे का अर्थ असल में तब ही समझ आता है जब जीवन में इंसान अनुभवों से गुज़रता है ...
@@@ आशा जी ,
यहाँ यमक अलंकार ही है ...
जब एक शब्द कई जगह प्रयुक्त हो और अर्थ भी अलग अलग हों तो यमक अलंकार होता है ..यहाँ कनक दो जगह आया है और अर्थ अलग हैं ..
श्लेष अलंकार में शब्द एक ही जगह आता है और उसके अर्थ कई होते हैं ..
a
ReplyDeleteलक्ष्मी तो चंचला है, हाथ की मैल. हमे तो अच्छा लगता है , "जब आवे संतोष धन, सब धन धुर सामान ". वैसे बचपन से यमक अलंकार के उदहारण के बतौर" कनक कनक ते सौगुनी पढ़ते आये है " पता नहीं कब ये श्लेष अलंकार में परिवर्तित हो गया.
... behatreen ... bhaavpoorn abhivyakti, badhaai !!!
ReplyDeleteअभी अभी पिछले छ: लेख पढ़े. उत्कृष्ट लेखन. बुन्देलखण्ड में तो दुर्दशा है ही किसानों की, पूरे भारत में ही अन्नदाता आत्महत्या कर रहा है. खाई दिन-ब-दिन बढ़ ही रही है, लेकिन भारत-भाग्य-विधाताओं को कुछ भी नहीं दीखता...
ReplyDeleteकनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय,
ReplyDeleteवा खाये बौराय जग, वा पाये बौराय।
आठवी नवीं मे रटा था मतलब अब पता चला... :)
थोथा चना बाजे घना...धन भी जब किसी को बिना मेहनत के मिल जाये या किसी गुंडे मवाली या फ़िर कम सोच के आदमी को मिल जाये तो उस मै घमंड आ ही जायेगा, खाली ओर थोथे चने की भांति,
ReplyDeleteओर अगर यही धन किसी सहन शिल ओर भरे पेट् , ओर किसी ग्याणी को मिलेगा तो उस मै घमंड की जगह दया भाव ही आयेगा....
कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय,वा खाये बौराय जग, वा पाये बौराय।...जेसे हमारे आज के नेता है यह कहावत उन पर सही बेठती है
काफी कुछ कह दिया गया है :)
ReplyDeleteबढ़िया विश्लेषण किया है आपने.
रिश्ते तो सिकुड़ ही जाते हैं चाहे धन हो य न हो । धन की अत्याधिक कमी जबरन रिश्तों को सिकौड़ देती है। लोग इस डर से कहीं ये कुछ मांग न ले गरीब से बचते हैं तो धन की अत्याधिक भरमार धनाड्य को भी जबरन रिश्तों से दूर कर देती है वही डर कि कहीं मिलने वाला कुछ मांग न ले।
ReplyDeleteबहुत ही सूक्ष्म विश्लेषण
ReplyDelete१किसी धनाड्य से उसके धन के बारे में पूछना थोड़ा आक्रमक सा प्रतीत होता है’
ReplyDeleteपाण्डेयजी, पुरुष से आय और महिला से आयु पुछना असभ्य माना जाता है :)
दोहा तो पढा था जी
ReplyDeleteअलंकार वगैरा के बारे में नही मालूम
हाँ इसका अनुभव जरूर हो गया है।
जब से होश सम्भाला आर्थिक दीनता ही देखी थी। कुछ समय पहले धनाढ्य तो नहीं हुआ पर तीन साल लगातार जरुरत से ज्यादा आय हो गई थी। गाडी खरीद ली, रोज नये-नये फोन, नया लैपटॉप, रोज पार्टीबाजी। जो लोग मेरी नमस्कार करने पर मुहँ फेर लेते थे, वो मुझसे सलाह के लिये आने लगे। बस मैं खुद को सबसे बुद्धिमान और दूसरों को बेवकूफ समझने लगा। लेकिन जल्द ही खुद के अन्दर झांक कर देखा और कोशिश की अहंकार को तिरोहित करने की। नहीं कर पाया तो धन को ही तिरोहित कर दिया। अब पता लग गया है कि सचमुच सोने का कितना नशा होता है।
प्रणाम
""बौराने की स्थिति में सामाजिकता के विस्तार की बात तो दूर, समाज पर ही भार बन जाता है व्यक्ति...""
ReplyDeleteनिसंदेह शतप्रतिशत सहमत हूँ .... विचारणीय पोस्ट....
बहुत बढ़िया विश्लेषण.
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट.
मैं अभिषेक से सहमत हूँ. धनी बिना धन के भी हुआ जा सकता है.
और ज़ियादा मुझे दरकार नहीं है लेकिन
ReplyDeleteमेरी चादर मेरे पैरों के बराबर कर दे.
बौराने की स्थिति में सामाजिकता के विस्तार की बात तो दूर, समाज पर ही भार बन जाता है व्यक्ति।
ReplyDelete..सुंदर लेखन।
अजित गुप्ता जी के विचारों से पुर्णतः सहमत हूँ ...कास इस बात को लोग समझ पाते ...
ReplyDeleteधन को घन करवाने आया था लेकिन मामला अलग निकला :)
ReplyDeleteसमाजिकता - सामाजिकता
धनाड्य - धनाढ्य
आक्रमक - आक्रामक
समाजिक - सामाजिक
धनाक्त (?) - धनासक्त (?)
यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डितः स श्रुतवान् गुणज्ञः ।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति ।। (भर्तृहरि विरचित नीतिशतकम्, 41)
ऐसे ही अपने एक पुराने लेख की याद आ गई। फुरसत में देखिएगा - http://girijeshrao.blogspot.com/2009/04/2.html
धनवान ,धनाढ्य व्यक्ति की ठोस परिभाषा क्या होती है ?
ReplyDeleteआजकल तो बहुत लोग अपने आप को धनवान समझते है क्योकि वे जो सबसे ज्यादा भौतिक वस्तुओ का उपभोग करते है कर्ज लेकर ?
या वो जिसने अपनी बुद्धि के सहारे सदियों से धन ,अर्जित कर अपना समाजिक .संतुलन बनाये रखा ?
मै ऐसा मानती हूँ की जो सच में धनवान है वह कभी भी समाज से दूर नहीं होता |
@ अभिषेक ओझा
ReplyDeleteहर वह व्यक्ति धनी है जिसकी आवश्यकतायें उसकी आय से पूरी हो पा रही हैं और हर वह व्यक्ति निर्धन है जिसका धन उसकी इच्छाओं को बढ़ा रहा है। मेरे पास जैसा भी धन है वह सर्वजन हिताय है।
@ Mrs. Asha Joglekar
अलंकारयुक्त यह दोहा, मानव विकार का सटीक चित्रण है।
@ काजल कुमार Kajal Kumar
नवधनाढ्य शब्द, इन सभी विकृतियों को समेट लेता है।
@ नरेश सिह राठौड़
जिनको कछु नहीं चाहिये, वो शाहन के शाह।
@ Udan Tashtari
बड़े धीरे से कहा, गरजत घोरा तो हुईबे नहीं किया।
@ Arvind Mishra
ReplyDeleteमानसिकता का संक्षिप्त विवरण है यह पंक्तियाँ।
@ वाणी गीत
मानुष मद मा रहे नचाय,
जो बिन मेहनत मिल जाय।
@ राम त्यागी
अति के अतिरिक्त धन बुद्धि में नहीं घुस जाना चाहिये। लक्ष्मीपति बनना ध्येय हो, लक्ष्मीवाहन नहीं।
@ दिनेशराय द्विवेदी
यही दुर्गुण है उस समाज का जहाँ धन को अधिकाधिक महत्व दिया जाता है।
@ ajit gupta
आपसे पूर्णतया सहमत। साधन बन प्रयुक्त हो धन, और वह भी उतना, जितना आवश्यक हो।
नैतिकता तथा गुण (जो अभिषेक जी ने कहा है) हीरे-रत्नों से भी अधिक मूल्यवान हैं। ये मनुष्य को सन्तुष्टि प्रदान करते हैं तथा उसे प्रभु-प्रिय व लोकप्रिय बना देते हैं।
ReplyDeleteएक गाना की एक पंक्ति याद आ गई "जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान।"
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
काव्य प्रयोजन (भाग-८) कला जीवन के लिए, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
@ डॉ. मोनिका शर्मा
ReplyDeleteआपका अवलोकन अधिकांश सत्य होते देखा है जीवन में।
@ सतीश सक्सेना
धन आवश्यक है। साधन के रूप में कितना भी मिल जाये, किसी न किसी अच्छे प्रकल्प में खर्च हो जायेगा। पर उससे सामाजिकता तो बढ़नी चाहिये।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
इस दोहे का अर्थ धीरे धीरे ही हृदय में उतरा है।
@ ashish
लक्षेमी तो चंचला है पर हम क्यों लक्ष्मीवाहन बने फिरते हैं।
@ 'उदय'
बहुत धन्यवाद।
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
ReplyDeleteभाग्य विधाताओं को मेरा भारत दिखे, ईश्वर से यही प्रार्थना है।
@ रंजन
इस दोहे का पूरा स्वाद अब पता चला है।
@ राज भाटिय़ा
जिन्होने मेहनत से लक्ष्मी कमायी है, वह उनके बस में रहती है और वही लक्ष्मीपति होते हैं। शेष सभी तो लक्ष्मीवाहन।
@ shikha varshney
बहुत धन्यवाद।
@ anitakumar
आपका कथन दोनों पहलुओं से सच है।
@ rashmi ravija
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद।
@ cmpershad
आप सही कह रहे हैं, तभी हिम्मत नहीं पड़ती थी।
@ अन्तर सोहिल
सोने का नशा घातक होता है, बहुत परिचित हैं जो इसी नशे में मुँह फुलाये घूमते हैं।
@ महेन्द्र मिश्र
ऐसे लोगों को सम्हाल पाना तब और भी कठिन होता है समाज के लिये।
@ Shiv
मन का धनी अधिक प्रसन्न है।
@ चला बिहारी ब्लॉगर बनने
ReplyDeleteबस यही प्रार्थना मेरी भी है।
@ बेचैन आत्मा
ऐसे कईयों का भार हम नित उठाये घूमते हैं।
@ honesty project democracy
आवश्यकता से अधिक धन सामाजिक कार्यों में पुनः प्रवाहित कर देना चाहिये।
@ गिरिजेश राव
सारे संशोधन स्वीकार्य।
जब साधन ही साध्य बन जाये तो उससे बड़ा अनर्थ क्या होगा भला?
@ शोभना चौरे
आपसे सहमत कि असली धनवान समाज से दूर नहीं रह सकता है।
जब खानी वही तीन रोटी है, पहनना वही एक जोड़ी कपड़े(at a time) तो गधों की तरह या भेड़ियों की तरह धनोपार्जन करना बेकार है। बल्कि हमने तो देखा है कि ज्यों ज्यों आर्थिक स्तर ऊपर उठता है, आदमी का जीवन और नीरस और खोखला होता जाता है(अंगूर खट्टे हैं वाली बात भी कह सकते हैं)। इतना जानते हैं कि जरूरी काम कोई रुकता नहीं, अनावश्यक सामान से कभी मन नहीं भरता। सही तरीके से जितना आ जाये यथेष्ट है।
ReplyDeleteसच ही कहा है किसी ने, "जहाँ लक्ष्मी होती है वहाँ सरस्वती का वास नहीं होता"
ReplyDeleteयहाँ भी पधारें :-
अकेला कलम...
प्रवीन जी धनार्जन में कोई बुराई नहीं बुराई धन के प्रति लोलुपता में है...
ReplyDeleteलोलुप व्यक्ति कंगाल से भी गया बीता है.
नीरज
कोई पैसे से धनी थोड़े ही हो जाता है...
ReplyDelete_____________________________
'पाखी की दुनिया' - बच्चों के ब्लॉगस की चर्चा 'हिंदुस्तान' अख़बार में भी.
Dhan to aishvvarya hai, aur jo purusharthi hain vo dhanwaan bante hain.
ReplyDeletedhan ka sadupyog kaise ho, yeh sawaal hota hai, aur jo iska sahi uttar dhoondh paate hain wahi sahi mayne me dhanwan hote hain
धन को साधन के रूप में स्वीकार करने से तो यह लगता है कि धन की मात्रा बढ़ने से सामाजिकता भी बढ़नी चाहिये। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो होता विपरीत ही है। धन के द्वारा लोगों का सामाजिक विस्तार सिकुड़ते ही पाया है।
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा...यही तो होता है...
धन की अधिकता व्यक्ति को कितना गरीब बना सकती है,बहुत देखा है आजतक...
ऐसा तो नही है की कोई बात करता है तो ये समझा जाए की वो धन की चाहत से बात कर रहा है .... पर हाँ धन से बौराने तक की नौबत तो ज़रूर ही आ जाती है ....
ReplyDeleteशुक्रिया।
ReplyDelete---------
ब्लॉगर्स की इज्जत का सवाल है।
कम उम्र में माँ बनती लड़कियों का एक सच।
पाण्डेय जी सर्व प्रथम मैं आपका सादर अभिवादन अभिनन्दन करता हूँ कि आप मेरे ब्लॉग पर पधारे . आशा है भविष्य में भी मार्ग दर्शन कीजियेगा . मुझे भी अप्पके ब्लॉग में जाने का अवसर प्राप्त हुआ . धन के बारे में सही विश्लेषण प्रस्तुत किया आपने . धन के बिना भी कोई गति नहीं और धन कि अधिकता , मादकता भी जीवन को नष्ट कर देती है. आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति को तो धनाड्य व्यक्ति सहानभूति पूर्ण नजरों से देखता है जैसे इसने कोई अपराध किया हो . अर्थात अति सर्वत्र वर्जते
ReplyDelete@ मनोज कुमार
ReplyDeleteसन्तोष एव पुरुषस्य परम निधानम्।
@ मो सम कौन ?
जिनको कुछ नहीं चाहिये, वो शाहन के शाह। बिल्कुल सच कहा है, यदि हम यह समझ लें तो जीवन आनन्दमय हो जायेगा।
@ सत्यप्रकाश पाण्डेय
जिसके पास सरस्वती होती है उसे यह ज्ञात रहता है कि धन की महत्ता उसके बहने में है।
@ नीरज गोस्वामी
धन में इतना चिपचिपापन है कि लोग स्थायी रूप से चिपक जाते हैं।
@ Akshita (Pakhi
सच कहा आपने पाखी जी।
@ rakesh ravi
ReplyDeleteजिसे धन का उपयोग आ गया, वही सही मायने में धनी है। बहुत सुन्दर वाक्य।
@ रंजना
धन की अधिकता से गरीब हुये व्यक्तियों पर दया भी नहीं आती है।
@ दिगम्बर नासवा
इस बौराने से कैसे रोका जा सकता है?
@ ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
बहुत धन्यवाद आपका।
@ गिरधारी खंकरियाल
आपका मार्गदर्शन हमें आपके ब्लॉग पर मिलता रहेगा। धन का होना मानसिकता किस तरह बदल देता है, यह चिन्तनीय विषय है।
धन के पीछे पीछे बहुत सी बुराइयाँ भी चली आती हैं। इसी लिए कबीरदास ने कोटा तय कर दिया-
ReplyDeleteसाँईं इतना दीजिए जामैं कुटुम्ब समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय।
बस इतना मिल जाय तो बहुत है। बहुत शानदार पोस्ट।
बहुत अच्छी पोस्ट.
ReplyDeleteबढ़िया विश्लेषण !!!!
लक्ष्मीपति तो एक ही हैं: नारायण नारायण!
ReplyDeleteलगता हैं कि गलती से यहाँ आ गया.... लक्ष्मीपति मैं तो हूँ ही नहीं....
ReplyDelete@ सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
ReplyDeleteबस इतना ही चाहिये हम सबको।
@ डॉ. हरदीप संधु
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
सच में तो लक्ष्मीपति तो नारायण ही हैं।
@ Manish
गलती नहीं है, मैं यहाँ बैठा हूँ।
धन केवल संतोषधन
ReplyDeleteसब धन धूरि समान ।
गो धन गज धन बाज धन और रतन धन खान
ReplyDeleteजब आए संतोष धन सब धन धुर समान.
bhaiya ye dhool samaan hai...
ReplyDeleteसुन्दर लेख की बधाई आपको। ...आभार.
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDelete@ अरुणेश मिश्र
ReplyDeleteसच कह रहे हैं, सन्तोष सिद्ध हो जाने पर और किसी धन का कोई महत्व नहीं।
@ Apanatva
बहुत सार्थक पंक्तियाँ।
@ ZEAL
बहुत धन्यवाद आपका।
@ हास्यफुहार
बहुत धन्यवाद आपका।
kalam ka dhani hona aham hai ,dhan to kharch hone ke saath ghatta bhi rahta hai . uttam likha hai .
ReplyDelete@ ज्योति सिंह
ReplyDeleteअन्ततः जीवन में गुणों का ही मूल्य है।
jab aave savtosh dhan,sab dhan dhuri saman.
ReplyDelete