रेलवे का कलेवर आपको बाहर से सरकारी दिख सकता है पर किसी मल्टीनेशनल की भाँति हमारे अन्दर भी लाभ हानि का भाव कुलबुलाता रहता है। जहाँ पिछले वर्षों की तुलना में उच्च प्रदर्शन प्रसन्नता देता है वहीं निम्न प्रदर्शन उन कारणों का पता लगाने को प्रेरित करता है जो प्रगति में बाधक रहे। वैसे तो हर विभाग के मानक आँकड़े भिन्न हैं पर अन्ततः निष्कर्ष आर्थिक आकड़ों से आँके जाते हैं।
बात झाँसी मण्डल की है, आज से दो वर्ष पहले की। वाणिज्य विभाग का मुखिया होने के कारण एक बैठक में पर्यवेक्षकों के साथ विभिन्न खण्डों की आय पर परिचर्चा कर रहा था। पिछले वर्ष की तुलना में कम आय दिखाने वाले एक दो पर्यवेक्षकों की खिचाई हुयी। उसके बाद प्रफुल्लित मन से लाभ देने वाले खण्डों पर दृष्टि गयी तो झाँसी-महोबा-बाँदा-मानिकपुर खण्ड की आय में लगभग 30 प्रतिशत की वृद्धि थी। सड़कों की बुरी स्थिति व बसों का तीन-चार गुना किराया कारण तो थे पर ऐसी स्थिति तो कई वर्षों से थी। कुछ अवश्य ही अलग कारण था इस वर्ष। पर्यवेक्षक से पूछने पर आशा थी कि वह अपने प्रयासों के विशेष योगदान की स्तुतियाँ गायेगा पर जब उस संवेदनशील ने बोलना प्रारम्भ किया तो उसके नयन आर्द्र थे और गला रुद्ध। वार्ता का सार यह था।
उल्लिखित खण्ड उत्तरप्रदेश व मध्यप्रदेश को दसियों बार काटता है। मानचित्र पर लकीर खीचते समय तो कई बारीकियों के कारण खिचपिच मचा चुके लोग, यहाँ के निवासियों की दुर्दशा को मानसूनी कारण का कफन उढ़ा चुके हैं। आल्हा ऊदल की नगरी और तालों का नगर कहे जाने वाले महोबा में जब पानी के टैंकरों से पानी लूटने में हत्यायें होते देखता हूँ तो सारा अस्तित्व ही सिहर उठता है। यही स्थिति रही तो गाँव के साथ साथ नगर भी त्यक्त हो जायेंगे। जब तक दुर्दशा रहेगी, आय में वृद्धि रहेगी। जब दुर्दशा पूर्ण होगी तब न कोई जाने वाला रहेगा और न ही कुछ आय होगी।
बढ़ी हुयी आय के पीछे एक समग्र दुर्दशा देखकर मन चीत्कार कर उठा। कुछ बोल नहीं सका, आँख बन्द कर बैठा रहा। मेरे स्वभाव से परिचित सभी पर्यवेक्षक भी बिना कुछ बोले कक्ष से चले गये। घर आकर बिना कुछ खाये ही भारी पलकें नींद ले आयीं।
कल कई ब्लॉगरों की संस्तुति पर "पीप्ली लाइव" देखने गया तो दो वर्ष पुराना घाव पुनः हरा हो गया। अपने बुन्देलखण्ड में वीरों के रक्तयुक्त इतिहास को अश्रुयुक्त भविष्य में परिवर्तित होते देख मन पुनः खट्टा हो गया।
कल झाँसी बात की, उस खण्ड की आय पूछी, आय अब भी बढ़ रही है।
आप भी दो आँसू टपका लें। खबर पक्की है, दुर्दशा जारी है।
कितनी गंभीर स्तिथि है... are there any grass-root level organizations involved to improve the situation?
ReplyDeleteInter-State migration will lead to multifold problems. I am most worried about the psychological and social impact. This way the elders will be left alone, children and youth will be uprooted, families will struggle in new realities. I wish your information and good analysis wakes up the governmental and non-governmental well-fare organizations before it's too late.
Respectfully.
पाण्डेय जी,
ReplyDeleteनरेन्द्र चंचल का गाया एक गाना है, ’कभी गम से दल लगाया कभी अशक के सहारे’ उसी में एक पंक्ति आती है ’खूने जिगर से हमने फ़ूलों के रुख निखारे।’
लाभप्रदता बढ़ गई जरूर और ये भी संयोग ही रहा होगा कि आपका पर्यवेक्षक भी और आप भी संवेदनशील निकले कि मामले की जड़ तक गये, नहीं तो फ़ूलों के चमकते रुख देखकर ही हम मोहित हो जाते हैं और उस खूने जिगर के बारे में सोच भी नहीं सकते।
आंसू भी तो नहीं आते ऐसी बात पर अब...।
हमने भी पीपली लाइव देखी थी लास्ट वीक - अची फिल्म है - विशेषकर बुद्दी अम्मा और मरने वाले कि घरवाली के किरदार बढ़िया लगे और सबसे सम्बेदनात्मक सीन लगा उस वृद्ध का जो मिटटी खोदता रहता था ...खैर फ़िल्म तो बढ़िया है !
ReplyDeleteपर सही कहा हालत खराब है गाँवों में ! चूंकि मेरी प्रष्ठभूमि गाँव की है तो मुझे भी इस दुर्दशा पर पलकें गीली करने के अहसास का भाव पता है, परिवार बड़े बड़े हैं, अशिक्षा बुरी तरह घेरे हुए है उसके ऊपर से अपने आप को बड़ा और पैसा वाला दिखाने के चाह भी कुछ हद तक इस सब पलायन के लिए जिम्मेदार है और ऊपर से हमारी राजनैतिक और नौकरशाही की लचर व्यवस्था तो किसी से छिपी नहीं है ! लोगों को नौकरी मिलाती नहीं तो पहले सरकारी नौकरी के लिए एडी चोटी का जोर लगाना, इधर उधर पैसे खिलने का प्रयास करना और जब सब कुछ से मन भर जाता है तो फिर प्राईवेट नौकरी के लिए पलायन शुरू होता है - जब से आर्थिक विकास की नदी का प्रवाह तेज हुआ है तब से लोग पैसे के लिए पागल है - सूखा तो हर वर्ष ही रहता है , रहता आया है क्यूंकि संसाधनों का दोहन ही इतना हो रहा है - के गाय से रोज ४० लीटर दूध निकालोगे तो गाय तो मरेगी ही न - कुल मिलाकर जनसंख्या और अशिक्षा इस सबकी जड़ हैं और ऊपर से आई इस आर्थिक आँधी से लोगों को पैसे कि होड में पागल कर दिया है -
अन्ततः कहूँगा कि वास्तव में खबर पक्की है - पलायन जारी है - और कई लोग अनाथ है इस पलायन में - मैं भी पलायन कर चुका हूँ :(
... durdashaayen ... haal-e-vatan ... ab kyaa kahen ... chaaron aur ... prabhaavashaalee post !!!
ReplyDeleteप्रवीण जी नमस्कार! गाँवोँ की स्थिति तो बाकई सोचनीय और दयनीय होती जा रही है। आपका लेख बहुत ही अच्छा हैँ। आभार! -: VISIT MY BLOG :- पढ़िये Mind and body researches अपने विचार व्यक्त करने के लिए आप यहाँ क्लिक कर सकते हैँ।
ReplyDeleteयह वह अंतर्कथा है जो बताती है की कभी कभी चमकदार सफलताओं के भीतर का नग्न सत्य कैसा होता है -किसकी नकारात्मकता किसकी सकारात्मकता को उभार दे यह भी एक विचित्र विपर्यय ही है -एक छुपा हुआ अभिशाप -
ReplyDeleteबेहद अफ़सोस की बात है.... :-(
ReplyDeleteबहुत ही दुखद स्थिति है ये तो :(
ReplyDeleteबहुत दूर की अनकोरिलेटेड सी दिखने वाली बात भी कारण हो सकती है कई बार.
ReplyDeleteकई बार आंकड़े खुशी का पैगाम देते हैं लेकिन जब उनका सच सामने आता है तब रुदन के अलावा कुछ शेष नहीं रहता। आपने बहुत ही मर्मस्पर्शी जानकारी दी है, लेकिन इस बार वर्षा ठीक हुई है तो शायद परिस्थिति बदले।
ReplyDeleteखबर पक्की है, दुर्दशा जारी है।
ReplyDeleteआय वृद्धि के पीछे जो कारण बताया गया ...बहुत चिंतनीय ....
संवेदनशील जानकारी
आँसू तो आप ही आगए देश की ऐसी दशा देखकर। बहुत अच्छा लिखा है। आभार।
ReplyDeleteक्या कहूँ मैं?
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी!!
ReplyDeleteहालत तो सचमुच बहुत ही अफसोसजनक है.......
ReplyDeleteआपने इस रूप में भी हकीकत का जो चित्रण किया है अच्छा लगा...... उम्दा पोस्ट.... सबके लिए विचारणीय विषय है यह ।
बहुत ही दुखद स्थिति है ये तो लेकिन हमारी सरकार कहां सोई है, क्या उसे नही फ़िक्र इस सब की, वो नेता, वो मंत्री जो विकास की बाते करते है, क्या उन्हे दिखाई नही देता यह सब, अभी फ़िल्म नही देखी, कभी अच्छॆ मुड मै होंगे तो देखेगे
ReplyDeleteजी हा दुर्दशा तो जारी है और जारी रहेगी .
ReplyDelete"खबर पक्की है, दुर्दशा जारी है।"
ReplyDeleteममता दी को बता दी :)
अफसोसजनक और सोचनीय स्थिति ।
ReplyDeleteखबर पक्की है, दुर्दशा जारी है।....
ReplyDeleteसच में खबर १००% खरी और पक्की है ना जाने ये स्थिति कब तक रहेगी ...
विचारणीय लेख ...
ठण्डे घरों में करता पसीने का वो हिसाब
ReplyDeleteतपती सड़क पे लम्हा इक गुज़ार तो आए!
पहली बार अपने इस शेर को सच होता देख रहा हूँ . शीतताप नियंत्रित कमरों में बैठकर बढती आय पर प्रसन्न होते हुए भी और इस लक्ष्य की प्राप्ति पर प्रसन्न न होते हुए भी आप जैसे साहब और पर्यवेक्षक ने थोड़ा समय इस चिंतन पर लगाया कि ताजमहल की प्रशंसा करते समय उस कटे हाथों वाले कारीगर की भी चर्चा हो. आपकी सम्वेदनशीलता पूजनीय है. पर जावेद साहब के डाय्लॉगकी तरह इन सम्वेदनाओं को गूँधकर दो वक़्त की रोटी नहीं बनती.
अवसर मिले तो इसे भी देख लेंगे, जो एक वास्तविकता है मात्र आँकड़ा नहींः
http://samvedanakeswar.blogspot.com/2010/05/blog-post.html
बाजार में टमाटर पहले से ज्यादा लाल आ रहा है | हो भी क्यों ना उसमे पैदा करने वाले का ज्यादा खून पीया है | और अमीरों की वस्तु बन गया है | जीडीपी बढ़ रही है खबर पक्की है| टमाटर और भी सूर्ख और मोटा होता जा रहा है |
ReplyDeleteप्रवीण भाई , मैं भी अक्सर सोचता हूं कि क्या इस देश के कर्णधारों को सचमुच ही नहीं पता कि आज देश को common wealth games की मेज़बानी से ज्यादा जरूरी था देश के उन गरीब किसानों को बचाना ???? यदि सच में ही नहीं पता तो फ़िर तो ....हां सच कहा आपने खबर पक्की है दुर्दशा जारी है
ReplyDeleteकाश इस खबर को झुठलाने वाली भी कोई खबर होती।
ReplyDeleteकाश, आय का आंकड़ा गिर जाए.
ReplyDeleteहाल ही में किसी से बात कर रहा था तो मुझे बताया गया कि पंजाब के किसान धान रोपाई से पहले अपना समय रेल्वे स्टेशनों पर बिता रहे थे... प्रवासी खेत मज़दूरों के राज्यों से पंजाब आने वाली रेलों की बाट जोहते. जैसे ही गाड़ी रूकती, सभी डिब्बों पर ये किसान ठीक उसी तरह टूट पड़ते जैसे महानगरों में कुली वातानुकूलित डिब्बों पर टूटे पड़ते हैं. एक दूसरे से ज़्यदा मज़दूरी देने के वायदे करते, अपनी कारों में घर ले जाते, खेतों के आउटहाउस के बजाय अपने घरों में रखने व गैस-टी.वी. का प्रलोभन देते.
कारण:- नरेगा के चलते मज़दूरों के आने का आंकड़ा बहुत गिर गया था. (अनूप जी के लिए विशेष)
ठीक फरमा रहे हैं आप !
ReplyDelete@ Anjana (Gudia)
ReplyDeleteसारी व्यवस्थायें अपनी जगह पर प्रस्थापित हैं, बस कुछ व्यक्तिगत और कुछ व्यक्तियों के कारणों से चल नहीं पा रही हैं। सरकार को हताशा मिलती है क्योंकि क्रियान्वयन के हर कदम पर संसाधनों की लूट मची है।
पलायन सामाजिक दुर्भाग्य है। न रहेगा जूझने वाला और न कभी विकसित हो पायेगा वह क्षेत्र। जमीन से जुड़े रहने को लोभ अस्तित्व तो ललकारने लगा है। जब बात भुखमरी तक आ जाती है तो जीवन और उसको बचाने के लिये उठाये गये कदम ही महत्वपूर्ण रह पाते हैं।
@ मो सम कौन ?
ReplyDeleteसच कहा आपने।
यह एक ऐसी उपलब्धि थी जिसका मुझे सर्वाधिक दुख रहा। सर्वश्रेष्ठ वाणिज्यिक आय की ट्रॉफी मेरे हाथों में बुन्देलखण्ड के दुर्भाग्य का भार बन मुझे अतिशय पीड़ा पहुँचा रही थी।
पर एक बात जो इस विषय में संबल बन उभरती रही। वहाँ के अधिकांश लोगों ने आत्महत्या कर प्राण त्यागने से उचित पलायन करने को माना।
@ राम त्यागी
ReplyDeleteसमस्याओं से घिरे गावों में विकास तो कभी नहीं पहुँचा है खबर लेने पर पेट भरने को अन्न तो उपजा ही लिया ही जाता था और उसी के सहारे जडे बची हुयी थीं। अब तो गाँव रहने लायक ही नहीं रह गये हैं।
आपका पलायन बौद्धिकता की ऊँची उड़ान के लिये हुआ था, जीवन जीने के लिये भागने की थकान के कारण नहीं।
नगरों की आधुनिकता व विज्ञापनों की फूहड़ता ने गाँव वालों का कुछ भी न कर पाने का अवसाद पूर्णता पर ला कर पटक दिया है। पलायन न करना अब उनके लिये हर दिन के साथ और असह्य होता जा रहा है।
आपने किसानो का ,मजदूरो का दर्द महसूस किया और उसका मूल कारण ज्ञात किया गाँवो से पलायन और आय वृद्धि |
ReplyDeleteकुछ सरकारी ससाधन इसके जिम्मेवार भी हो सकते है |मै भी गावं जाती हूँ नजदीक से देखा भी है सबको आसानी से पैसा चाहिए |पिछले कुछ वर्षो से मध्य प्रदेश में ओसत वर्षा हुई है पर बाजारवाद की चकाचोंध उन्हें भी आकर्षित करती है |हाई स्कुल पास करने के बाद कोई गाँव में रहना ही नहीं चाहता शहर में बदतर से बदतर हालत में रह लेता है|खेत की मेहनतसे भागकर भी शहर जाता है |
@ 'उदय'
ReplyDeleteअब यह देख कर तो लगता है कि पता नहीं हमारी किस प्रसन्नता में किसकी कितनी पीड़ा छिपी हो।
@ Dr. Ashok palmist blog
सच में स्थितियाँ दुर्भाग्यपूर्ण हैं।
@ Arvind Mishra
किसके सुख में किसके दुख का रक्त घुला हुआ है, समझ में नहीं आता है। एक छुपा हुआ अभिशाप कहना ही उचित होगा।
@ Shah Nawaz
दुर्भाग्य हमारे देश का ही है कि संसाधन व्यर्थ हो रहे हैं।
@ Ratan Singh Shekhawat
गाँवों के सोंधेपन को आधुनिकता व हमारी अकर्मण्यता लील गयी।
@ अभिषेक ओझा
ReplyDeleteकई बार जीवन में गहराई में जाने से ज्ञान बढ़ा है और इस प्रकार के कई सम्बन्ध दृष्टिगत हुये हैं।
@ ajit gupta
कई लोग पर उसके पहले ही पलायन कर चुके हैं, इस वर्ष भी।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
आय दुर्दशा का पर्याय बन गयी।
@ शोभा
संवेदना का आभार
@ abhi
यह स्थितियाँ कुछ कहने योग्य ही नहीं रखती हैं। बस लगता है कि ईश्वर इन पर भी कृपा कर दे।
क्या कहा जाये..दुखद है.
ReplyDeleteदो बूंद आंसू तो बहा ही लें.
@ Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय)
ReplyDeleteसंवेदना मुखरित हो जाती है यह दुर्दशा देख।
@ डॉ. मोनिका शर्मा
इस प्रकार की दुर्दशा देख विचारप्रवाह भी हतप्रभ हो जाता है।
@ राज भाटिय़ा
फिल्में तो सबने देखी है, बस वही नहीं देख पाये, जिन पर बनायी गयी है।
@ dhiru singh {धीरू सिंह}
खुशवन्त सिंह इस पर भी तो कुछ लिखें।
@ cmpershad
देश का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है भला।
@ अजय कुमार
ReplyDeleteसंवेदनार्थ आभार।
@ Coral
इतनी योजनायें बना कर भी नहीं रोक पा रही है, सरकारें भी हतप्रभ हैं। अब किसको दोष दें।
@ सम्वेदना के स्वर
विकास का दूसरा पक्ष संभवतः हमें और रुलायेगा अभी।
संदर्भित पोस्ट में दिखा किसानों का व उनकी आय को मौन।
@ नरेश सिह राठौड़
आपने टमाटर का रंग बता इस संवेदना को और गहरा दिया है। सच में देश में वही हो रहा है बस।
@ अजय कुमार झा
कोई तो वर्षों आँख बन्दकर बैठा होगा, दुर्भाग्य एक दिन में तो आता नहीं।
@ अनूप शुक्ल
ReplyDeleteसच में मुझे झुठलाने वाली खबर मुझे और भी प्रसन्नता देगी। वह खबर, जब भी आयेगी, मेरे देश का सौभाग्य लेकर आयेगी।
@ काजल कुमार Kajal Kumar
नरेगा जो हथिया लिये हैं, उनमें से कुछ गाँव में ही टिके हैं। लोग कहते हैं कि गति उसकी भी ठीक नहीं है।
@ संतोष त्रिवेदी ♣ SANTOSH TRIVEDI
संवेदनार्थ आभार
@ शोभना चौरे
कुछ जगहों पर धन की सरल उपलब्धता ने यह असंतुलन उत्पन्न कर दिया है। संसाधन तो फिर भी व्यर्थ ही हो रहे हैं।
@ Udan Tashtari
आपकी संवेदना उनका सौभाग्य लायें।
प्रवीण जी ,आज आपके अन्दर के एक इंसान की संवेदना को पोस्ट के रूप में पढ़कर बहुत अच्छा लगा ,हमसभी ब्लोगर को अपने आस-पास इस चमक दमक के पीछे की हकीकत और सरकार का दलाली भरा रवैया को ब्लॉग पर इंसानियत से जोड़कर लिखने से ही लोगों में कुछ जागरूकता आएगी | स्थिति बहुत ही दर्दनाक होती जा रही है जिसमे पूरी इंसानियत के ख़त्म होने का गंभीर खतरा है ,इसलिए हमसब को एकजुट होकर कुछ करना होगा अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार ...
ReplyDeleteसंवेदनशील पोस्ट। दिनों दिन गांवों की दशा दयनीय होती जा रही है।
ReplyDeleteराम भैया से सहमत हूं...
ReplyDeleteपहले तो संसाधन ही कम पड़ रहे हैं...ऊपर से रही-सही कसर संसाधनों के बारे में किसी नीति का ना होना है...
ना ही इस बारे मे लोगों को शिक्षित करने के बारे मे प्रयास हो पा रहा है...
पानी को ही लें...एकदम शुद्ध बोरवैल का पीने लायक पानी से मेरे परिचित सज्जन दो घंटे तक कार धोते है...कार धुल जाती है तो सड़क ही धोने लगते हैं...उनको समझाना यानी नाराजगी मोल लेना और बातचीत बंद करना
सड़क पर ट्रैफिक रूल्स तोड़ने वालों के अलावे उन लोगों पर गुस्सा आता है जो दिनभर अपनी गाडि़यों पर अथाह पानी उड़ेलते ही जाते हैं...
चलिए आपने भी सशक्त ढंग से अपना क्रोध प्रकट कर दिया बाई दी वे अपने युवराज का वो बुंदेलखंड विकास परिषद का क्या हुआ ?
ReplyDeleteपिपली लाइव देखी नहीं।
ReplyDeleteस्थिति चिंताजनक है।
आपको और आपके परिवार को तीज, गणेश चतुर्थी और ईद की हार्दिक शुभकामनाएं!
फ़ुरसत से फ़ुरसत में … अमृता प्रीतम जी की आत्मकथा, “मनोज” पर, मनोज कुमार की प्रस्तुति पढिए!
sehmat hu, aay har jagah badhti dikhayi de rahi hai chahe kisi bhi railway khand ki ho ya chahe to bus companyion ki lekin hakikat vahi hai jo aapne likha hai...raipur k DRM बीपी स्वाइन sahab se bhi 1-2 baar inhi muddo par anuapcharik batchit hui lekin....
ReplyDeletekaran dhundhne hi honge......
ये तो बहुत ही दुखद स्थिति है ...हम तो सुनते थे भारत के गाँव अब शहर जैसे हो गए हैं..
ReplyDelete@ honesty project democracy
ReplyDeleteचमक का सही स्वरूप तो प्रस्तुत ही करना होगा।
@ इलाहाबादी अडडा
गाँवों का दयनीय होना, देश का दुर्बल होना होगा।
@ भुवनेश शर्मा
जब अपनी छोटी छोटी आवश्यकतायें दूसरों के जीवन से अधिक महत्वपूर्ण लगने लगें तो देश की दुर्दशा निश्चित है।
@ पी.सी.गोदियाल
भगवान करे कि विकास परिषद ही विकास कर दे।
@ मनोज कुमार
ReplyDeleteजितना फिल्म में दिखाया है, स्थिति उससे अधिक दयनीय है।
@ Sanjeet Tripathi
जब बढ़ती आय के कारणों में दुर्दशा दिखी तो अन्य सफलताओं के सत्य भी भयावह हो सकते हैं।
@ shikha varshney
शहरों से लगे गाँव तो शहरों में समा गये। दूरगामी गाँवों में विकास पहुँचने का सोचता भी नहीं।
बहुत दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण स्थिती है। मगर फिर वही किआगे क्या होगा? सोच कर आँखें नम हो जाती हैं जब झुकी कमर भूख से तदप तडप कर जान दे देगी। मार्मिक। आभार इस जानकारी के लिये।
ReplyDeleteदुखद स्थिति है दुर्दशा जारी है। क्या कहूँ !!!!संवेदनशील विचारणीय विषय है
ReplyDeleteआजादी के ६७ साल और हमारे गावों का यह हाल। रोटी के लिये पलायन, यह गांवों के लिये आम बात है। बुन्देलखन्ड की स्थिति तो सबसे अधिक बुरी है। वहां के किसान तो खेती के लिये आज भी मानसून पर आष्रित हैं।
ReplyDelete..बुन्देलखण्ड में वीरों के रक्तयुक्त इतिहास को अश्रुयुक्त भविष्य में परिवर्तित होते देख मन पुनः खट्टा हो गया।
ReplyDelete@ निर्मला कपिला
ReplyDeleteभविष्य कहना कठिन है पर यह तो निश्चित है कि यदि गाँवों ने पीड़ा सही तो देश को 80 प्रतिशत हिस्सा बेकार हो जायेगा।
@ रचना दीक्षित
परिस्थितियों पर संवेदनात्मकता के हेतु आभार।
@ विनोद शुक्ल-अनामिका प्रकाशन
विकास का प्रारूप ऐसा होना था कि गाँव विकसित होते पर विकास भी शहरों की चकाचौंध से अभिभूत है, गाँव जाता ही नहीं है।
@ बेचैन आत्मा
पहले कभी नहीं सुना था कि बुंदेलखण्ड पानी के लिये तरसेगा।
भगवान श्री गणेश आपको एवं आपके परिवार को सुख-स्मृद्धि प्रदान करें! गणेश चतुर्थी की शुभकामनायें!
ReplyDeleteबेहद अफ़सोस की बात है! प्रभावशाली पोस्ट!
ना रहेगा बांस ...ना बजेगी बांसुरी ...
ReplyDeleteकिसानों के पास खेत या जमीन ही नहीं होगी गाँवों में ...तो सब झंझट ही ख़तम ...
हमारे राज्य में तो बोर्डर तक की जमीन बिक गयी ...आस पास के गाँवों में अच्छी कीमतों का लालच देकर
उपजाऊ जमीनों को इस तरह बंजर बनाया गया है ...
ये है हमारी किसानों को लाभ पहुँचाने की नीतियाँ ..!
वाकई अफसोसजनक...सोचनीय !!
ReplyDeleteआँकड़ों का खेल ... सच में खेल ही है ... ये ग़रीबी, दुर्दशा कुछ नही समझता ...
ReplyDeleteआय तो बढ़ रही है पर कितनों की ... इस बात के विश्लेषण में कोई नही जाता ... कोई जाना भी नही चाहता .... ग़रीब गरीब से ग़रीब होता जा रहा है ... अमीर गुना के हिसाब से अमीर होता जा रहा है .... पर आँकड़े जो कहते सच तो वाहे होता है ....
बहुत ही दुखद स्थिति है ....करीब से भले ही ना देखा हो...पर ऐसी स्थिति का अंदाजा तो है.
ReplyDeleteउस पर अंग्रेजी उपन्यासों में वहाँ के गाँव का विवरण पढ़ती हूँ तो मन क्षोभ से भर जाता है....कितनी बार तो किताब आधे में बंद कर दी है....कब सरकार कुछ ठोस कदम उठाएगी कि यह पलायन रुक सके और गाँवों में लहलहाते खेत नज़र आ सकें.
कल झाँसी बात की, उस खण्ड की आय पूछी, आय अब भी बढ़ रही है।
ReplyDeleteआप भी दो आँसू टपका लें। खबर पक्की है, दुर्दशा जारी है।
गरीबी आकडों में कम हो रही है...
नरेगा नेताओं की गरीबी मिटा रही है..
आत्महत्या जारी है..
पलायन जारी है..
चुनाव में काफी समय बाकि है.. :(
वस्तुस्थिति यही है ।
ReplyDeleteपलायन जारी है :(
ReplyDelete@ Babli
ReplyDeleteसंवेदना व्यक्त करने का आभार
@ वाणी गीत
संसाधनों का उपयोग देश के लिये आवश्यक है। किसान उस कड़ी का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
@ KK Yadava
संवेदना व्यक्त करने का आभार
@ दिगम्बर नासवा
आँकड़े गुमराह करते हैं। सही स्थिति तो गाँवों का भ्रमण कर जानी जा सकती है।
@ rashmi ravija
खेत तो तब लहलहायेंगे, जब किसान प्रसन्न रह पायेंगे। जब किसान आत्महत्या को प्रेरित हों, तो खेत भी मुँह लटकाये बैठे रहते हैं।
@ रंजन
ReplyDeleteराजनैतिक कर्मठता का आकलन चुनाव के समय ही हो पाता है। शेष समय तो शीत-निष्क्रियता के लिये सुरक्षित है।
@ अरुणेश मिश्र
और दुखदायी भी
@ Ashish (Ashu)
संवेदना व्यक्त करने का आभार।
सत्य है.....और कुछ कर पाना संभवतः हमारे वश में भी नहीं...
ReplyDeleteनम आँखों दुर्दशा देखनी है और सुरीले कंठ से गया जा रहा "हो रहा भारत निर्माण " सुनना है...
वैसे इससे इतर एक बात की ओर और ध्यान दिलाना चाहूंगी...
ReplyDeleteकुछ माह पूर्व दिल्ली गयी थी ओर वहां से जिस दिन लौटना था,उससे दो दिन पहले ही किसी आकस्मिक कार्य से तुरंत ही कोलकाता जाने की आवश्यकता पड़ गयी...
नेट में देखा तो पूर्वा एक्सप्रेस के सेकेण्ड एसी में तत्काल कोटा में दो सीट उपलब्ध था,जिसे तुरंत ही बुक किया ओर गंतब्य की ओर निकल पडी..
समय पर रेल खुली और आधी रात तक सब कुछ एकदम ठीक और रेल समय पर था...पर भोर लगभग साढ़े पांच बजे नीचे से खूब आवाजें आनी शुरू हुई ओर जो देखा तो नीचे दोनों सीट सहित ऊपर मेरे सामने की सीट पर लोग खंचाखच भरे थे... कुछ महाशय आवाजें लगा रहे थे कि ऊपर वाली महिला को भी उठाओ न,कई लोगों के लिए जगह बन जायेगी,पर मेरी देह दशा काम आ गयी कि कार्य रूप में यह परिणत करने की हिम्मत लोग जुटा नहीं पाए...
कुछ ही देर में देश काल राजनीति पर गरमा गरम बहस शुरू हुई और मुझे समझते देर न लगी कि रेल बिहार से गुजर रही है...
उसके बाद शुरू हुआ सिलसिला हर छोटे स्टेशन पर ट्रेन के रुकने , लोगों के जुटने और लेट होने का सिलसिला ...
करीब तीन घंटे बाद तंग आकर मैंने दुसरे कोच में जाकर टी टी साहब को पूछा कि ये जितने लोग दूसरों के आरक्षित सीटों पर बैठें हैं, किस हिसाब से बैठे हैं ,आपने छानबीन की है ....और उत्तर में उन्होंने मुझे अपनी लाचारी बताई कि यदि वे लोगों को मना करेंगे तो उनके प्राण संकट में पड़ जायेंगे...वैसे बाद में मुझे पता चला कि केवल उनके प्राणों का मामला नहीं था,मामला जेब का भी था....
और सबसे बड़ी बात कि ये जितने भी लोग ट्रेन में चढ़े थे,एक भी ऐसे नहीं थे जो पैसा चुका टिकट नहीं खरीद सकते थे....कम से कम स्लीपर का किराया देने लायक तो सभी थे...
मुझे समझ में नहीं आया कि इस कृत्य,जो कि बहुत आम हैं वहां के लिए की खबर रेल प्रशाशन को नहीं है ???? क्या यहाँ का प्रशासन रेलवे की आय लाभ हानि के प्रति उत्तरदायी नहीं है????क्या बिहार में प्रशासन रेल के नियम कायदे कुछ और हैं?????
बड़ी जिज्ञासा है जानने की कि इस जोन में,रेलवे प्रबंधन की मीटिंगों में, इन बातों की चर्चा होती है या नहीं..........क्या आप बता सकेंगे ??
wah!kaha se kaha bat ghumai,
ReplyDeletesabko hakikat se rubaru karaya
bahut achha aalekh
ऐसा भी होता है...
ReplyDeletepraveen ji..kya asar choda hai..malum nahi kab tak rahega..par padhkar hai abhi..baaki shayad samjhdaari logo ke nasmjh bane rehne mein hi hai..aur iska afsos hai mujhe!
ReplyDelete.
ReplyDeleteदुखद स्थिति है .
.
Is warsh barish khoob huee hai asha kar sakte hain ki kisan lautenge. kaisee widambana hai ki aay ki vruddhi durdasha kee vruddhi se judi hai .
ReplyDeleteआप अपने क्षेत्र की दुर्गति पर कितने आहत हैं यह पोस्ट पढ़कर समझा जा सकता है.
ReplyDeleteगुस्से में कह रहा हूँ; "हम नौ प्रतिशत से ग्रो कर रहे हैं. बाकी चीजें जाएँ भाड़ में."
@ रंजना
ReplyDeleteमैंने बिहार के उस क्षेत्र में रेलवे में सेवायें दी हैं। बिहार का सत्य कोई नया नहीं है, वहाँ व देश के संसाधनो का साधिकार प्रेम से उपयोग करते हैं। आप व्यक्ति की बात करेंगे तो एक स्तर ऊपर समाज की बात सुनने को तैयार रहिये। समाज, देश, मानवता आदि शब्दों में अपना व्यक्तिगत सच ढूढ़ लेना बड़ा सहज है वहाँ के निवासियों के लिये। वहाँ रहना एक अनुभव रहा मेरे लिये।
रेल बैठकों में इस विषय पर चर्चा होती है और अभियान भी चलाये जाते हैं समय समय पर। पर यदि समाज में यह अनुशासन ही न हो तो रेल भी पीडित होती है।
@ ALOK KHARE
ReplyDeleteतह में जाने से ऐसे ही भयावह सत्य दृष्टिगत होते हैं।
@ Akshita (Pakhi)
हाँ पाखी जी, अपना ही देश है।
@ Parul
जब मैंने कारण सुना था, मेरी भी स्थिति आप जैसी थी, स्तब्ध।
@ ZEAL
संवेदनार्थ आभार।
@ Mrs. Asha Joglekar
भगवान करे कि यह स्थिति सुधरे।
@ Shiv
सच है, दुखी होने से तो अच्छा है कि उनके ग्रो में जुड़ लेते हैं।
bahut hi sensitive subject hai . i am worried in meetings we discuss about income but not about the miseries of public
ReplyDeleteसच दुर्दशा जारी है. आज आँख की कोर फिर गीली है, मन फिर उदास है..
ReplyDeleteग्रामीण भारत का सच यही है, देश की नवसमृद्धि से दूर बहुसंख्यक भारतवासी यही जिन्दगी जी रहे हैं।
ReplyDelete@ renupathak
ReplyDeleteआकड़ों को सुविधानुसार मोड़ लेना सरल है, वस्तुस्थिति समझ पाना कठिन।
@ Manoj K
यही पीप्ली लाइव के नथ्थू का सच भी है।
@ ePandit
उन गाँवों में तो समृद्धि भी नहीं जाना चाहती है।