जीवन में विधि ने लिख डाले, कुछ दुख तेरे, कुछ मेरे हैं,
जीना संग है, फिर क्यों मन में, एकाकी भाव उकेरे हैं ।
ढालो शब्दों में, बतला दो, पीड़ा आँखों से जतला दो,
मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरे हैं ।।१।।
भटके हम दोनों मन-वन में,
पर बँधे रहे जीवन-क्रम में,
बन प्राण मिला वह जीवन को,
घर तेरा है, सज्जित कर लो ।
क्यों सम्बन्धों के आँगन में, अब आशंका के डेरे हैं,
मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरे हैं ।।२।।
निश्चय ही जीवन को हमने,
पाया तपते, मन को जलते,
क्यों पुनः बवंडर बन उठतीं,
मन भूल गया स्मृतियाँ थीं ।
आगन्तुक जीवन-सुख-रजनी, क्यों चिंता-स्याह घनेरे हैं,
मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरे हैं ।।३।।
अति शुष्क हृदय है, यदि सुख की,
आकांक्षा रह रहकर उठती,
मन में क्यों दुख-चिन्तन आये,
मिल पाये नहीं जो सुख चाहे ।
अर्पित कर दूँगा सुख जो भी, आमन्त्रण से मुँह फेरे हैं,
मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरे हैं ।।४।।
क्यों मन, आँखें उद्विग्न, भरी,
पड़ती छाया आगत-दुख की,
पहले क्यों शोक मनायेंगे,
दुख आयेंगे, सह जायेंगे ।
तज कातरता निश्चिन्त रहो, मेरी बाहों के घेरे हैं,
मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरे हैं ।।५।।
यहीं बसेरा हम दो कर लें,
जीवन-घट, सुख लाकर भर लें,
और परस्पर होकर आश्रित,
सुख-आलम्बन बन जायें नित ।
जीवन छोटा, संग रहने को, पल मिले नहीं बहुतेरे हैं,
मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरे हैं ।।६।।
Bahut sunder aur aapki awaaz mein aapki kavita aur bhi achchi lagti hai. Shubhkaamnayen!
ReplyDeleteवाह!! बहुत उम्दा रचना और वैसा ही पठन..आनन्द आ गया. अब तो आप गा कर ही पेश किया करो..बहुत बेहतरीन रही प्रस्तुति!
ReplyDelete... बेहतरीन !!!
ReplyDeleteजैसा कि सब कह रहे है...उम्दा प्रस्तुति ...और आवाज ने तो चार चाँद लगा दिया ....
ReplyDeleteआप तो हिंदी के एक तारे हो और ईश्वर से शुभकामना है कि आप ऐसे ही चमकते रहें ...
पठन रंजन श्रवण रंजन द्विगुणित मनोरंजन -
ReplyDeleteआगन्तुक जीवन-सुख-रजनी, क्यों चिंता-स्याह घनेरे हैं,
ReplyDeleteमत्रमुग्ध हूँ मैं इतने ही पर...तन्द्रा में लौटूं तो कुछ और कहूँ :)
"यहीं बसेरा हम दो कर लें,
ReplyDeleteजीवन-घट, सुख लाकर भर लें,
और परस्पर होकर आश्रित,
सुख-आलम्बन बन जायें नित"
बहुत सुन्दर रचना. इससे अधिक कुछ कहने के लिए हमारे पास शब्द नहीं हैं.
सुनने में ज्यादा मजा आया... आसान लगा..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...
जीवन में विधि ने लिख डाले, कुछ दुख तेरे, कुछ मेरे हैं,
ReplyDeleteजीना संग है, फिर क्यों मन में, एकाकी भाव उकेरे हैं ।
ढालो शब्दों में, बतला दो, पीड़ा आँखों से जतला दो,
मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरें हैं।१।
और
यहीं बसेरा हम दो कर लें,
जीवन-घट, सुख लाकर भर लें,
और परस्पर होकर आश्रित,
सुख-आलम्बन बन जायें नित ।
जीवन छोटा, संग रहने को, पल मिले नहीं बहुतेरे हैं,
मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरें हैं।६।
रचना की एक एक पंम्क्ति दिल को छू गयी मगर ये पँक्तियाँ लाजवाब हैं। बधाई और आशीर्वाद।
बहुत खूबसूरती से आपने अपने आवाज़ में गाया है अपनी कविता को...बहुत अच्छी लगी आपकी कविता और ये पेशकश
ReplyDeleteबेहद सुन्दर और भावप्रवण गीत्………………अगर गाया जाता तो और कमाल करता।
ReplyDeleteअर्पित कर दूँगा सुख जो भी, आमन्त्रण से मुँह फेरे हैं,
ReplyDeleteमैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरें हैं।४।
वाह,लाजवाब !
सुन्दर कविता और उम्दा कविता पाठ
ReplyDeleteवाह बेहतरीन पठन आनंद आया.
ReplyDeleteबहुत खुब सुरत कविता जी ओर आवाज ने तो सच मै सोने पर सुहाग कर दिया. धन्यवाद
ReplyDeleteक्यों मन, आँखें, उद्विग्न, भरी,
ReplyDeleteपड़ती छाया आगत-दुख की,
पहले क्यों शोक मनायेंगे,
दुख आयेंगे, सह जायेंगे ।
तज कातरता निश्चिन्त रहो, मेरी बाहों के घेरे हैं..
वाह ... मज़ा आ गया .. लगता है जैसे कोई मधुर गीत हो ... पढ़ते पढ़ते छन्द मय हो गये ...
बहुत सुंदर आशावादी बोल ... दुक्खों को सहना ही जीवन है ...
जीवन में विधि ने लिख डाले, कुछ दुख तेरे, कुछ मेरे हैं,
ReplyDeleteजीना संग है, फिर क्यों मन में, एकाकी भाव उकेरे हैं ।
तबियत खुश हो गई ... सुन्दर प्रस्तुति....आभार.
आपकी आवाज नहीं आ रही थी | कविता बहुत बढ़िया है |
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता .....आपके स्वर भी सुंदर हैं
ReplyDeleteप्रवीणजी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना हर पंक्ति लाजवाब और माधुर्य मयआवाज के साथ पठन|
छा गये है आज तो आप |
आभार
वाह !!
ReplyDeleteआप इतनी गंभीर कविता भी लिखते हैं !!
बहुत बधाई !!
अति शुष्क हृदय है, यदि सुख की,
ReplyDeleteआकांक्षा रह रहकर उठती,
मन में क्यों दुख-चिन्तन आये,
मिल पाये नहीं जो सुख चाहे ।
अर्पित कर दूँगा सुख जो भी, आमन्त्रण से मुँह फेरे हैं,
मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरें हैं।
Praveen ji,
bahut khubsurat aur bhavpoorna panktiyan likhi hain apne...padh kara achchhaa laga.
Shubhkamnayen.
Poonam
एक ही शब्द है मेरे पास 'बेहतरीन'
ReplyDeleteऔर कुछ कहना इस रचना से मिलने वाले आनंद को कम करना होगा और इसकी सुंदरता को आंकने का दुस्साहस करने वाली बात होगी.
धन्यवाद .....आपने गाया......बधाई...मुझे बहुत अच्छा लगा..
ReplyDeleteक्यों मन, आँखें, उद्विग्न, भरी,
ReplyDeleteपड़ती छाया आगत-दुख की,
पहले क्यों शोक मनायेंगे,
दुख आयेंगे, सह जायेंगे ।
तज कातरता निश्चिन्त रहो, मेरी बाहों के घेरे हैं,
मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरें हैं।५
बहुत सुन्दर गीत मन के भावों से ओत प्रोत ...सुन कर आनंद आ गया ....मन को छूती सी प्रस्तुति
आवाज़ और शब्द दोनों ही दिल को छूने वाले है।
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति के लिए बधाई। आगे भी ऐसे दुस्साहस करते रहें
शुभकामनायें।
बाप रे, इतनी कड़ी हिन्दी कविता लिखते हैं आप!
ReplyDeleteकविता के रूप में आपकी पर्सनैलिटी का यह अलग अंदाज़ बहुत अच्छा लगा...
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत कविता लगी।
ReplyDeleteपैरा ४ एवम ५ विशेष रूप से अच्छे लगे।
ऐसे दुस्साहस और भी होते रहें तो अच्छा लगेगा:)
हम पहिले भी कहे हैं कि हमको तुलना पसंद नहीं है..लेकिन कभी कभी मन लोभ सम्बरन नहीं कर पाता है...कबिता पढकर सब्द के जादू से तो हम मोहित हो गए,लेकिन जब सस्वर पाठ सुने तब लगा कि कबिबर नीरज का कबिता पाठ सुन रहे हैं... प्रवीन जी अति सुंदर!!
ReplyDeletesuna aur pasand bhi aaya, samet aapki awaz ke. aap kyn nahi vocal blog ke baare me sochte.......
ReplyDeleteसुनने वाला वर्जन ज्यादा अच्छा लगा. बेहतरीन !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गीत। जिसे बहु-आयामी की परिभाषा न पता हो उसे आपके ब्लॉग का पता देना चाहिये।
ReplyDeleteजीवन में विधि ने लिख डाले, कुछ दुख तेरे, कुछ मेरे हैं,
ReplyDeleteजीना संग है, फिर क्यों मन में, एकाकी भाव उकेरे हैं ।
ढालो शब्दों में, बतला दो, पीड़ा आँखों से जतला दो,
मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरें हैं।१।
Bahut hee sunder prastuti Praween ji
praveen ji..shbdon ka chayan utkrisht hai..too gud!
ReplyDeleteक्यों मन, आँखें, उद्विग्न, भरी,
ReplyDeleteपड़ती छाया आगत-दुख की,
पहले क्यों शोक मनायेंगे,
दुख आयेंगे, सह जायेंगे ।
तज कातरता निश्चिन्त रहो, मेरी बाहों के घेरे हैं,
जीवन से भरी रचना। पढना तो सुखकर है ही, सुनना उससे भी ज्यादा सुखकर है। निश्चित ही इसमें मनोरंजन के अलावा भी बहुत कुछ है। बधाई।
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ReplyDeleteबहुत बेहतरीन प्रस्तुति!
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यहीं बसेरा हम दो कर लें,
ReplyDeleteजीवन-घट या मरघट के फेरे हैं :)
@ Anjana (Gudia)
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद उत्साहवर्धन का।
@ Udan Tashtari
गाना गाने का हौसला तो आपसे ही आया है। जब तक आपको भाता रहेगा, यह बन्दा गाता रहेगा।
@ 'उदय'
बहुत धन्यवाद उत्साहवर्धन का।
@ राम त्यागी
इस गीत तो गाने के लिये कितनी मुलैठी खायी है, आपको क्या मालूम। गीत की पीड़ा हृदय में भले ही न उतरी हो, गले में अवश्य उतर गयी।
@ Arvind Mishra
भारी स्वरों को सुनना, भारी शब्दों को पढ़ना, उस पर भी प्रसन्नता। बड़ी भारी पड़ी होगी आपको।
आप की रचना 10 सितम्बर, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपनी टिप्पणियाँ और सुझाव देकर हमें अनुगृहीत करें.
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका
bahut sundar!
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteयहाँ भी पधारें :-
No Right Click
पता है...ढूंढें कोई शब्द नहीं मिल रहा जिसमे बाँध अपने भावों को टिपण्णी रूप में यहाँ रख सकूँ...
ReplyDeleteचिरंजीवी भव...
ऐसे ही लिखते रहें....बहुत बहुत सुन्दर !!!!
भटके हम दोनों मन-वन में,
ReplyDeleteपर बँधे रहे जीवन-क्रम में,
बन प्राण मिला वह जीवन को,
घर तेरा है, सज्जित कर लो ।
क्यों सम्बन्धों के आँगन में, अब आशंका के डेरे हैं,
मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरें हैं।२।बहुत अच्छा लिखा है। आभार।
@ Avinash Chandra
ReplyDeleteजीवन-सुख-रजनी में स्वप्न देखते देखते कई बार तो हम भी खो जाते हैं। बहुत धन्यवाद आपका।
@ P.N. Subramanian
आशीर्वाद बरसाने का आभार।
@ रंजन
आपने गाने को प्राथमिकता दे भविष्य में और सुनने का न्योता दे दिया है।
@ निर्मला कपिला
पहले लग रहा था पता नहीं कि सुधीजनों की क्या प्रतिक्रिया होगी। आशीर्वादात्मक शब्द सुनकर संबल बढ़ गया।
@ abhi
अपनी आवाज़ का अन्दाज़ स्वयं को नहीं होता है, पर औरों को भी भायेगी, इसका इतना विश्वास नहीं था।
@ वन्दना
ReplyDeleteइतने दिन की मेहनत के बाद गाया है, हाँ संगीत भी दिया जा सकता है, किसी को पकड़ना पड़ेगा इसके लिये भी।
@ पी.सी.गोदियाल
आप कविगणों को अच्छा लगा, सीना फूल गया।
@ rashmi ravija
बहुत धन्यवाद।
@ shikha varshney
पता नहीं पढ़ना सरल है कि सुनना। अब तो पुनः गाने के लिये उत्साह बढ़ गया।
@ राज भाटिय़ा
बहुत धन्यवाद आपका।
@ दिगम्बर नासवा
ReplyDeleteभविष्य के भय की अग्नि में वर्तमान क्यों तिरोहित किया जाये।
@ महेन्द्र मिश्र
आप जैसे कविमना प्रसन्न हो गये, कविता धन्य हो गयी।
@ नरेश सिह राठौड़
बहुत धन्यवाद आपका।
@ अर्चना तिवारी
सुर सुझाया हुआ है पर भाव लिखने वाले ही हैं स्वर में।
@ शोभना चौरे
आपका आशीर्वाद ही पर्याप्त है मन प्रसन्न रखने के लिये। आभार।
@ संगीता पुरी
ReplyDeleteदो व्यक्तियों के संग रहने में ये भाव तो प्राकृतिक रूप से ही टपकेंगे। अस्तित्व तो संगमना का है।
@ JHAROKHA
बहुत धन्यवाद आपका। मुझे आशा नहीं थी की आशीर्वाद का निर्झर बह निकलेगा।
@ अनामिका की सदायें .....
आपकी कवितायें पढ़कर मुझे भी उसी गहराई में उतरने का अनुभव होता है।
@ Archana
गाने की सारी प्रेरणा तो आप हैं, अतिशय धन्यवाद।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
बहुत धन्यवाद आपका।
@ डॉ. मोनिका शर्मा
ReplyDeleteदुस्साहस के आगे की स्थिति उत्पात की ही होती है।
@ काजल कुमार Kajal Kumar
पर आप तो इस पर भी कार्टून बना सकते हैं।
@ महफूज़ अली
पहले थोड़ी व्यक्तिगत सी लगी थी पोस्ट करने के लिये पर मुझे लगा कि आप में से बहुतों के भाव इस प्रकार के उदार होंगे अपने जीवन साथी के लिये। यही कारण रहा कि पोस्ट कर दिया।
@ मो सम कौन ?
बहुत धन्यवाद आपका। 5वाँ मुझे भी सबसे अच्छा लगता है।
@ चला बिहारी ब्लॉगर बनने
आपकी तुलना के बाद नीरज जी के कई पाठ सुने, सुनकर आनन्द आ गया। उनके चरण तक पहुँचने में ही मुझे बहुत समय लगेगा।
@ Sanjeet Tripathi
ReplyDeleteएक बार गाने में ही गले ने बहुत दाँय मचायी। ब्लॉग प्रारम्भ किया तो गला महाराज विद्रोह कर देंगे।
@ अभिषेक ओझा
वाह, तब भविष्य में और सुनने को तैयार रहिये।
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
हमारे आयाम तो मानसिक व्यायाम तक ही सीमित हैं। गले को हिला कर तुर्रम खाँ बनने का दुस्साहस किया है, आप लोगों को पसन्द भी आ गया। आभार।
@ Mrs. Asha Joglekar
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Parul
बहुत धन्यवाद आपका।
@ विनोद शुक्ल-अनामिका प्रकाशन
ReplyDeleteजब भी मैं अपनी यह रचना पढ़ता हूँ, सहजीवन की प्रेरणा और प्रखर हो जाती है।
@ ZEAL
बहुत धन्यवाद आपका।
@ cmpershad
नया आयाम इस कविता के लिये।
@ अनामिका की सदायें ......
बहुत धन्यवाद।
@ Kirtish Bhatt, Cartoonist
बहुत धन्यवाद।
@ सत्यप्रकाश पाण्डेय
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद।
@ रंजना
निश्चय ही और अच्छा लिखना होगा, आपके आशीर्वाद का मान जो रखना है।
@ शोभा
बहुत धन्यवाद आपका।
प्रवीण जी नमस्कार! आपकी कविता मेँ शब्दोँ का चयन बहुत ही सटीक हैँ। लाजबाव हैँ आपकी रचना। और आवाज ने तो जादु कर दिया। आभार! -: VISIT MY BLOG :- जब तन्हा होँ किसी सफर मेँ ............... गजल को पढ़कर अपने अमूल्य विचार व्यक्त करने के लिए आप सादर आमंत्रित हैँ। आप इस लिँक पर क्लिक कर सकते हैँ।
ReplyDeleteअद्भुत लिखा है प्रवीण जी.
ReplyDeleteआगन्तुक जीवन-सुख-रजनी,
ReplyDeleteक्यों चिंता-स्याह घनेरे हैं
बहुत सुन्दर
रचना की एक एक पंम्क्ति दिल को छू गयी कविता पाठ वाह,लाजवाब
सुंदर कविता और उतना ही प्रभावशाली कविता पाठ... दिनकर, प्रसाद जैसी कविता लग रही है..
ReplyDeletewah bahut khoob
ReplyDelete@ Dr. Ashok palmist blog
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ Shiv
आपको किसी को अद्भुत की संज्ञा देना, उस विषय पर दो बार सोचने पर विवश करता है। समझ नहीं आता कि आत्ममुग्ध हो जाऊँ या यह सोचूं कि क्या छूट गया हो अभिव्यक्ति में।
@ रचना दीक्षित
बहुत धन्यवाद आपका।
@ arun c roy
प्रसाद,निराला व दिनकर के साहित्यिक छाँव में लिखना सीखा। उन वटवृक्षों की एक पत्ती बन हरा भरा रहूँ, यही उपलब्धि रहेगी मेरे लिये।
@ Harsh
बहुत धन्यवाद।
सच पूछिए,जो आँखें कह देती हैं,कर देती हैं वह दूसरा कोई नहीं कर सकता !
ReplyDelete@ संतोष त्रिवेदी ♣ SANTOSH TRIVEDI
ReplyDeleteआँखों की भाषा भावमयी होती है।
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 14 - 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
ReplyDeleteकृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/
क्यों मन, आँखें, उद्विग्न, भरी,
ReplyDeleteपड़ती छाया आगत-दुख की,
पहले क्यों शोक मनायेंगे,
दुख आयेंगे, सह जायेंगे ।
तज कातरता निश्चिन्त रहो, मेरी बाहों के घेरे हैं,
मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरें हैं।५।
बहुत सुंदर भाव-
और सुंदर लेखन -
शुभकामनाएं
अपनी रचना वटवृक्ष के लिए भेजिए - परिचय और तस्वीर के साथ
ReplyDelete'
ye wali aur aap jo chahen-
rasprabha@gmail.com per
बहुत्त खूब
ReplyDeleteदुख आयेंगे, सह जायेंगे ।
तज कातरता निश्चिन्त रहो, मेरी बाहों के घेरे हैं,
मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरें हैं।५।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ anupama's sukrity !
हार्दिक धन्यवाद।
@ रश्मि प्रभा...
पता नहीं इस सम्मान योग्य हूँ कि नहीं?
@ anitakumar
बहत धन्यवाद।
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 04- 08 - 2011 को यहाँ भी है
ReplyDeleteनयी पुरानी हल चल में आज- अपना अपना आनन्द -
आज रचना पुनह पढ़ी और आपका गायन भी सुना ...दोनों में ही ह्रदय के भाव पूर्ण रूप से मुखरित हो रहे हैं ....!!
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव..!!
बहुत खूबसूरत और सहभागिता भरे कोमल भाव .....
ReplyDeleteयहीं बसेरा हम दो कर लें,
ReplyDeleteजीवन-घट, सुख लाकर भर लें,
और परस्पर होकर आश्रित,
सुख-आलम्बन बन जायें नित ।
बेहद खूबसूरती से पिरोई दिल को छू जाने वाली रचना.
सादर,
डोरोथी.
आपकी इस कविता से मुझे आपही ने परिचित कराया,पढ़कर मन अभिभूत हुआ जिये शब्दों में अभिव्यक्त करना मेरे लिये संभव नहीं। आपकी अनुमति से आपकी इस पोस्ट का लिंक अपने फेसबुक ग्रुप चिंतन पर भी डाला है
ReplyDeleteGod bless you Friend, After a long long time gone thru some emotional heart touching lines.... Got relaxed and recharged... Keep writing, ur orating power is superb...
ReplyDeleteRegds
Gyanendra Bhaskar