29.9.10
नखरे सहने का गुण
25.9.10
जाति क्या है?
22.9.10
चार प्रभातीय अध्याय
18.9.10
कटी पतंग से इश्किया तक
जिस गली में तेरा घर न हो बालमा
दिल तो बच्चा है जी
15.9.10
धन घमंड अब गरजत घोरा
11.9.10
खबर पक्की है, दुर्दशा जारी है
8.9.10
माणिक-दृग-नीर बिखेरे हैं
जीवन में विधि ने लिख डाले, कुछ दुख तेरे, कुछ मेरे हैं,
जीना संग है, फिर क्यों मन में, एकाकी भाव उकेरे हैं ।
ढालो शब्दों में, बतला दो, पीड़ा आँखों से जतला दो,
मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरे हैं ।।१।।
भटके हम दोनों मन-वन में,
पर बँधे रहे जीवन-क्रम में,
बन प्राण मिला वह जीवन को,
घर तेरा है, सज्जित कर लो ।
क्यों सम्बन्धों के आँगन में, अब आशंका के डेरे हैं,
मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरे हैं ।।२।।
निश्चय ही जीवन को हमने,
पाया तपते, मन को जलते,
क्यों पुनः बवंडर बन उठतीं,
मन भूल गया स्मृतियाँ थीं ।
आगन्तुक जीवन-सुख-रजनी, क्यों चिंता-स्याह घनेरे हैं,
मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरे हैं ।।३।।
अति शुष्क हृदय है, यदि सुख की,
आकांक्षा रह रहकर उठती,
मन में क्यों दुख-चिन्तन आये,
मिल पाये नहीं जो सुख चाहे ।
अर्पित कर दूँगा सुख जो भी, आमन्त्रण से मुँह फेरे हैं,
मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरे हैं ।।४।।
क्यों मन, आँखें उद्विग्न, भरी,
पड़ती छाया आगत-दुख की,
पहले क्यों शोक मनायेंगे,
दुख आयेंगे, सह जायेंगे ।
तज कातरता निश्चिन्त रहो, मेरी बाहों के घेरे हैं,
मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरे हैं ।।५।।
यहीं बसेरा हम दो कर लें,
जीवन-घट, सुख लाकर भर लें,
और परस्पर होकर आश्रित,
सुख-आलम्बन बन जायें नित ।
जीवन छोटा, संग रहने को, पल मिले नहीं बहुतेरे हैं,
मैं ले आऊँगा जहाँ जहाँ, माणिक-दृग-नीर बिखेरे हैं ।।६।।
4.9.10
आओ, मैं स्वागत में बैठा हूँ
कभी कभी आनन्द व ध्यान के क्षणों में आपने अनुभव किया होगा कि समय रुका हुआ सा है। आप कुछ नहीं कर रहे होते हैं तो समय रुका हुआ सा लगने लगा। अच्छा लेख, कविता, ब्लॉग व पुस्तक पढ़ना प्रारम्भ करते हैं समय रुका हुआ सा लगता है, पता नहीं चलता कि छोटी सुई कितने चक्कर मार चुकी है। न भूख, न प्यास, न चिन्ता, न ध्येय, न आदर्श, न परिवार, न संसार। आपके लिये सब रुका हुआ। अब इतनी बार समय रोक देंगे तो जीवन को सुस्ताने का लाभ मिल जायेगा। प्रेम में पुँजे युगलों से पूछता हूँ कि क्या भाई ! मोबाइल पर 3 घंटे बतिया कर कान व गला नहीं पिराया? अरे, पता ही नहीं चला। सम्मोहन किसमें है? मोबाइल में है, प्रेमी में है, आप में है या होने वाली बात में है। विवाहित मित्र उचक के उत्तर देंगे, किसी में नहीं। वह समय कुछ और था, रुका हुआ लगता था अब तो लगता है बलात् कढ़ील के लिये जा रहा है।
सम्मोहन तो जीवन का ही है, समय का नहीं। जीवन जीने लगते हैं और समय नेपथ्य में चला जाता है। आकर्षण व्यक्तित्व का होता है, आयु का नहीं। महान कोई एक विचार बना देता है, बेचारी व्यस्तता नहीं।
मैं कल्पना करता हूँ कि मैं बैठा हूँ समय से परे, अपने अस्तित्व के एकान्त में। दरवाजे पर आहट होती है, आँखें उठाता हूँ। भंगिमा प्रश्नवाचक हो उसके पहले ही आगन्तुक बोल उठता है। मैं समय हूँ, आपके साथ रहना चाहता हूँ, आपकी गति से चलना चाहता हूँ, मुझे स्वीकार करें। पुनः माँग हुयी और पूर्ति भी, बस दिशा बदल गयी। जीवन समय से अधिक महत्वपूर्ण हो गया।
काल की अग्नि में सबको तिरोहित होना है। मैं दौड़ लगा कर आत्मदाह नहीं करूँगा। अपना जीवन अपनी गति से जीकर आगन्तुक से कहूँगा।
" आओ, मैं स्वागत में बैठा हूँ "
1.9.10
मुरलीधारी मधुर मनोहर
मैं अपूर्ण, प्रभु पूर्ण-पुरुष तुम,
मैं नश्वर, प्रभु चिर-आयुष तुम ।
मैं कामी, प्रभु कोटि काम-रति,
मैं प्राणी, प्रभु सकल प्राण-गति ।
मैं भिक्षुक, प्रभु दानवीर हो,
मैं मरुथल, प्रभु अमिय-नीर हो ।
मैं प्यासा, प्रभु आशा गगरी,
मैं भटकूँ, प्रभु उत्सव-नगरी ।
मैं कुरूप, प्रभु रूप-प्रतिष्ठा,
मैं प्रपंच, प्रभु निर्मल निष्ठा ।
मैं बाती, प्रभु कोटि दिवाकर,
मैं बूँदी, प्रभु यश के सागर ।
मैं अशक्त, प्रभु पूर्ण शक्तिमय,
मैं शंका, प्रभु अन्तिम निर्णय ।
मैं मूरख, प्रभु ज्ञान-सिन्धु सम,
मैं रागी, प्रभु त्याग, तपोवन ।
मैं कर्कश, प्रभु वंशी सुरलय,
मैं ईर्ष्या, प्रभु प्रेम, प्रीतिमय ।
मैं प्रश्नावलि, प्रभु दर्शन हो,
मैं त्यक्या, प्रभु आकर्षण हो ।
मैं आँसू, प्रभु वृन्दावन-सुख,
मैं मथुरा, प्रभु गोकुल उन्मुख ।
मैं मदमत, प्रभु क्षमा-नीर नद,
मैं क्रोधी, प्रभु शान्त, शीलप्रद ।
मैं पंथी, प्रभु अंत-पंथ हो,
मैं आश्रित, प्रभु कृपावंत हो ।
मुरलीधारी मधुर मनोहर,
शापित शक्तिहीन सेवक पर,
बरसा दो प्रभु दया अहैतुक,
कृपा करो हे प्रेम सरोवर ।