ज्ञानी कहते हैं कि जीवन में शारीरिक ढलान बाद में आता है, उससे सम्बन्धित मानसिक ढलान पहले ही प्रारम्भ हो जाता है। किसी क्रिकेटर को 35 वर्ष कि उम्र में सन्यास लेते हुये देखते है और मानसिक रूप से उसके साथ स्वयं भी सन्यास ले लेते हैं। ऐसा लगता है कि हमारा शरीर भी अन्तर्राष्ट्रीय मानकों के लिये ही बना था और अब उसका कोई उपयोग नहीं। घर में एक दो बड़े निर्णय लेकर स्वयं को प्रबुद्ध समझने लगते हैं और मानसिक गुरुता में खेलना या व्यायाम कम कर देते हैं। एक दो समस्यायें आ जायें तो आयु तीव्रतम बढ़ जाती है और स्वयं को प्रौढ़ मानने लगते हैं, खेलना बन्द। यदि बच्चे बड़े होने लगें तो लगता है कि हम वृद्ध हो गये और अब बच्चों के खेलने के दिन हैं, अब परमार्थ कर लिया जायें, पुनः खेलना बन्द। कोई कार्य में व्यस्त, कोई धनोपार्जन में व्यस्त, व्यस्तता हुयी और शारीरिक श्रम बन्द।
अब अगले कई वर्षों तक मेरी आयु न पूछियेगा। मैं 37 ही बताऊँगा।
इन सारी विचारधाराओं से ओतप्रोत पिछले एक दो वर्षों से हम भी शारीरिक श्रम से बहुत कन्नी काटते रहे। बीच बीच में कभी कोई क्रिकेट मैच, थोड़ा बैडमिन्टन, पर्यटन-श्रम और मॉल में घुमाई होती रही। भला हो फुटबॉल के वर्ल्डकप का, एक दिन कॉलोनी में खेलते खेलते पेट शरीर से अलग प्रतीत होने लगा। लगने लगा कि पेट साथ मे दौड़ना ही नहीं चाहता है। केवल 10 वर्ष पहले तक पूरे 90 मिनट तक फुटबाल खेल सकने का दम्भ स्वाहा हो गया। उस समय आवश्यक कार्य का बहाना बना कर निकल तो लिये पर स्वभाववश स्वयं से भागना कठिन हो गया। लगने लगा कि यह ढलान अब रोकना ही पड़ेगा।
आज के युग में सुविधा पाये शरीर को हिलाना सबसे बड़ा कार्य है। इस समय मन भी शरीर के साथ जड़ता झोंकने लगा। एक प्राण, दो दो शत्रु। एक साथ दो शत्रुओं से निपटना कठिन लगा तो निश्चय किया गया कि पहले बड़े शत्रु को निपटाते हैं, छोटा तो अपने आप दुबक लेगा। अन्तःकरण ने निश्चय की हुंकार भरी कि आज से मानसिक ढलान बन्द।
अब बढ़ना बन्द।
सुबह जल्दी उठे। घर में ही पिजरें में बन्द सिंह की भाँति चहलकदमी की। सबको लगा कि अब सुबह सुबह कैसा तनाव? उन्हें क्या ज्ञात कि 'चंचलं हि मनः कृष्णः' की ख्याति प्राप्त योद्धा को जीतने का प्रयास चल रहा है। वाणिज्यिक आँकड़ों को भी आज के दिन ही गड़बड़ होना था। फोन से ही सिहांत्मक गर्जना हुयी तो पर्यवेक्षकों को सधे सधाये तन्तु हिलते दिखे। थोड़ी देर में 'दिल तो बच्चा है जी' का गाना रिपीट में लगा ब्लॉगीय झील में उतर गये। जब 8-10 बार बजने के बाद पर्याप्त मानसिक आयु कम हो गयी तो ही अन्य क्रियाकलाप प्रारम्भ किये। मन को इस रगड़ीय स्थिति में कढ़ीले लिये जा रहे थे पर सायं होते होते शरीर नौटंकी करने लगा। सायं को खेलने गये जिससे पुनः हल्का अनुभव होने लगा। रात को शान्त-क्लांत निद्रा-उर में सिमट गये।
एक बार रॉबिन शर्मा को कहते सुना था कि 21 दिन पर्याप्त होते हैं किसी नयी आदत को डालने में और स्वयं को उसके अनुसार ढालने में। अभी कुछ दिन ही हुये हैं गति पकड़े पर निश्चय 21 दिन का नहीं वरन जीवन पर्यन्त का है।
अब बढ़ना बन्द।
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। मन को साधने से शरीर सधने लगता है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिये इसको बहुत प्यार से सम्हाल कर रखने की आवश्यकता नहीं है संभवतः। अंगों का स्वभाव है श्रम। स्वभाव में जीने से सब आनन्द में रहते हैं, स्वस्थ भी रहते हैं। स्वस्थ शरीर का पुष्ट भौतिकता के अतिरिक्त उच्च बौद्धिक व आध्यात्मिक स्तर बनाये रखने में बड़ा योगदान है।
अब अगले कई वर्षों तक मेरी आयु न पूछियेगा। मैं 37 ही बताऊँगा।
क्योंकि, अब बढ़ना बन्द।
पुरुष से उसकी आय पूछने की मनाही है और औरतों से उम्र ... :)
ReplyDeleteस्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है ...
युवाओं से अपेक्षा करूंगा की गीता पढने के बजाय वे व्यायाम को प्राथमिकता दें ...विवेकानंद
गोस्वामी तुलसीदास साहित्य साधना के साथ शरीर साधना पर भी उतना ही ध्यान देते थे ...
मगर यह सब कहना आसान है करना मुश्किल ...
मेरी शुभकामनाएं ,२१ दिन का कोर्स अप सकुशल पूरा करे !
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
ReplyDeleteक्या बात है...बहुत सुन्दर
समय हो तो पढ़ें
हिरोशीमा की बरसी पर एक रिक्शा चालक
http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_06.html
हा हा!! ३७ हो गये..बहुत बड़े हो गई..हम तो पिछले कई वर्षों से ३२ पर ही हैं. :)
ReplyDeleteवैसे पढ़ते पढ़ते सोचता था कि कहूँगा:
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
तब तक आप ही कह दिये. यही होता है ५ साल का एक्स्ट्रा अनुभव ले लेने से. :)
कभी कभी लगाने लगता है की हमने बढ़ाना बंद कर दिया है, हमारे दिमाग में आ जाता है की अब हमारे बच्चों के खेलने के दिन है. अपनी तरफ ध्यान देना ही बंद हो जाता है. लगता है की हमने अपने को कही खो दिया है. बहुत दिनों से हम भी सोच रहे है की कुछ शारीरिक व्यायाम प्रारंभ किया जाए पर आलस्वश प्रारंभ ही नहीं कर पाए. आपका ब्लॉग देख कर एक नयी उर्जा का संचार हुआ है, इस बार कोशिश करेंगे की व्यायाम को नियमित जीवन का एक अंग बनाये.
ReplyDeleteबेहद रोचक जानकारी है
ReplyDeleteकहीं पढ़ा था,
ReplyDelete"we donot stop playing, because we grew old,
we grew old because we stopped playing."
आप सदा ३७ ही रहेंगे क्योंकि a man is as old as he feels. ऐसा ही फ़ीलते रहिये, शुभकामनायें।
आज से हम भी अपनी मानसिक ढलान पर काबू करने का यत्न करते है , सोच तो कई दिनों से रहे थे पर आज क्रियान्वित करने का जोश आपने भर दिया
ReplyDeleteअंगों का स्वभाव है श्रम। स्वभाव में जीने से सब आनन्द में रहते हैं, स्वस्थ भी रहते हैं।
ReplyDeleteपर आधुनिक युग के आविष्कारों के कारण भी अंग बेचारे श्रम नहीं कर पाते .. स्वास्थ्य की गिरावट का मुख्य कारण यही है !!
अच्छी बात बताई आपने सर :)
ReplyDeleteचलो आप जाग गये ....बढ़िया लगा ....अब बढ़ना बंद पेट का और आयु का - और बढ़ना शुरू आपकी संतुष्टि का !!
ReplyDeleteमेरा जागना ज्यादा देर नहीं रहता ...इसलिए आशा करता हूँ कि आप ये अनवरत रखोगे ....
हम भी जागे थे पर वो २१ दिन जल्दी ही खत्म हो लिये, अब वापिस से कोशिश जारी है, परंतु सुबह का आलस रोक देता है, फ़िर से कोशिश करते हैं।
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद जगाने और चेताने के लिये।
...मैं बूढा आपुन डरा, रहा किनारे बैठ।
ReplyDeleteशुभकामनायें!
ReplyDeleteसंदेशात्मक लेख ....पर आदत ही तो नहीं सुधरती ....
ReplyDeleteमुझे तो लगता है कि दस साल पहले भी मैं वही था, जो अब हूँ। लेकिन दस साल पहले की फोटुएं सब जाहिर कर देती हैं।
ReplyDeleteपोस्ट समझ में आ गई, लेकिन ये समझ नहीं पा रहा कि क्या टिप्पणी करूं।
थोडा वैचारिकता और बौद्धिकता पर लगाम लगाई जाये तो हो सकता है आयु का बढना रोक सकें।
प्रणाम स्वीकार करें
मैं इस मामले में खुद को खुशनसीब समझता हूँ कि मेरा बचपन गाँव में पेड़ों पर लटकते हुए बीता. अब भी कभी अगर आलस कदम ज़माने लगे तो जमीर ललकारता है - उठो और कुछ करो!
ReplyDeleteकहा जाता है हम उतने ही बड़े होते हैं जितना कि महसूस करते हैं ..
ReplyDeleteबढ़िया संदेशात्मक पोस्ट.
इसमें क्या है ...मैं पिछले २० साल से ३६ का हूँ :-)
ReplyDelete'The Monk who sold his Ferrari' मे जिस २१ दिन के कोर्स के बारे मे राबिन शर्मा जिक्र करते है.. सिगरेट छोडने के लिये मैने उसी तरीके को अपनाया था.. वैसे सिर्फ़ सिगरेट छोडना वजह नही थी अपनी विल पावर की टेस्टिग भी करना चाहता था।
ReplyDeleteआप भी अपनी विल पावर टेस्ट कर लीजिये और २१ दिन के बाद का इन्तजार रहेगा।
उसके बाद भी हम तो काफ़ी कुछ करते रह गये लेकिन कभी २१ दिन कम्प्लीट नही कर पाये :(
मेरी भी शुभकामनाएं आपको.. २१ दिन बाद एक विजयी पोस्ट की उम्मीद रहेगी।
मस्तिष्क के लिए अध्ययन की उतनी ही आवश्यकता है जितनी शरीर को व्यायाम की।
ReplyDelete@ Arvind Mishra
ReplyDeleteस्वस्थ शरीर में हल्कापन रहता है, विचार भी हल्के फुल्के आते हैं। माहौल भी हल्का रहता है।
..कहीं विश्लेषण भारी तो नहीं हो रहा है।
@ शहरोज़
आजकल तो मन जीत की धुन में सवार है। जिद्दिया गया है।
@ Udan Tashtari
हम तो आपके लिये 5 वर्ष प्रतीक्षा करने को तैयार हैं। देश न कर पाये क्योंकि राष्ट्रपति के चुनाव आने वाले है जल्द ही। 35 आयु है कम से कम।
@ Pooja
शरीर को जितना विश्राम देंगे, उतना ही आलसी हो जायेगा। मन की जितनी मानेगे, उतना जिद्दी हो जायेगा। दोनो परम नौटंकीबाज हैं।
सुबह न उठने के लिये जितना दिमाग हम भारतीय लगाते हैं, उतना अनुसंधान में लगायें तो 10-20 नोबल ईनाम मिल जायें।
@ संजय भास्कर
रोचकता तो तब आयेगी जब मन फैलना प्रारम्भ करेगा।
@ मो सम कौन ?
ReplyDeleteअभी तक फैल रहे थे, अब फ़ीलना प्रारम्भ कर दिये हैं। आपकी शुभकामनायें व्यर्थ न जायेंगी।
@ Ratan Singh Shekhawat
चलिये जोश अनुनादित हो जायेगा अब।
@ संगीता पुरी
अंगों को जैसे रखा जायेगा वैसे ही हो जायेंगे। मन सबका शत्रु है, उसकी सुनी तो अन्य सब कमजोर हो जायेंगे।
@ abhi
बताने में तो हमें भी अच्छी लगी, अपनाने में पसीने टपक रहे हैं।
@ राम त्यागी
पेट तो नहीं निकला है पर उस दिन लग रहा था कि साथ में नहीं चिपका हुआ है। अब तो यही मानक रहेगा फिटनेस का।
एक भारी शरीर का स्वामी हूं. बहुत कोशिश की अब बढना बन्द .......लेकिन समय कम का बहाना हावी हो जाता है जबकि एसा नही है . बहुत कोशिश के बाबजूद भी आलस्य हमेशा विजयी रहता है पता नही क्यो
ReplyDelete@ Vivek Rastogi
ReplyDeleteसुबह का आलस बहुत सताता है सबको। सुबह के आलस के विरुद्ध कोई बहिष्कार की प्रक्रिया है?
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
किनारे बैठ कर हम भी देश को स्वस्थ होते देख चुके हैं, अब तो अपनी बारी है।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
लेख आप सबके लिये संदेशात्मक हो सकता है पर मेरे लिये आदेशात्मक है।
@ अन्तर सोहिल
बौद्धिकता व वैचारिकता की तनिक भी बाध्यता नहीं कि शरीर से श्रम न किया जाये। श्रीमान मन जी बहुत टहलाते हैं हम सबको। उनकी न सुन अब अन्तः की सुनी जाये।
@ Saurabh
बचपन का श्रम बड़प्पन में भी आपको प्रेरित करेगा श्रम करते रहने को। बचपन में ही की गयी मेहनत से पता लगा कि अब कहाँ खड़े हैं?
@ shikha varshney
ReplyDeleteयदि उम्र का एहसास उम्र निर्धारित कर दे तो अभी 5 वर्ष और कम कर देते हैं। पर सच कहा आपने, मन ही शरीर को थकाता है।
@ सतीश सक्सेना
तब तो अगले 20 साल तक तो गज़ब की कशमकश रहेगी आप जैसा युवा बना रहने की। आपसे सीखना भी पड़ेगा आकर।
@ Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय)
मेरा महाभारत अब 18 से 21 दिन का हो गया है। आप लोगों की दुआ दमदार है, 21 दिन बाद की पोस्ट विजयी ही आयेगी।
@ मनोज कुमार
मस्तिष्क तो अभी तक ठीक चल रहा है। ज्ञानदत्त जी की पोस्ट थकोहम् के बाद शतरंज खेलकर जाँची जा चुकी है।
@ dhiru singh {धीरू सिंह}
विशाल शरीर में एक विशाल संकल्प भी होगा, उसे ढूढ़ निकालिये। अब आप विजयी हों, मन पर। शुभकामनायें।
विवाह होता है... बच्चे होते हैं, बढ़ते हैं... संगी-साथी छूटने लगते हैं... जीवन एकरस हो जाता है...
ReplyDeleteशारीरिक श्रम और व्यायाम से इतर यहाँ कुछ कहना चाहता हूँ. विदेशों में मिडलाइफ क्राइसिस एक आम बात है. क्या वह भारत में भी पैर पसार रहा है? इसपर आपसे एक अदद पोस्ट की अपेक्षा है.
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
ReplyDelete..एकदम यही मिजाज में आजकल हम भी जी रहे हैं. शकीरा का ..अक्का-बक्का दिस इज अफ्रिका.. अरे वही.. फुटबाल वाला दिल उछालू गाना..अपनी मोबाइल का रिंग टोन बना लिए हैं. जो सुनता है मेरी उम्र देख हें..हें..हें.. हंसता है. मैं कहता हूँ तुम सब बुढ्ढे हो गए तो हम का करें ? कभी शकीरा को नाचते देखा है ? क्या मस्त नाचती है ! देखो तो उम्र अपने आप कम हो जाएगी.
..मूर्ख हैं बेचारे..उम्र के मारे...
..हाँ, ई ससुरा मार्निंग वॉक अक्सर छूट जा रहा है.
२१ दिन के बाद एक नई विजयी पोस्ट की उम्मीद है, सारे अनुभवों के साथ......शुभकामनाएं.
ReplyDeleteअपुन तो इस मामले में सारे अपवाद बने बैठे हैं..न जल्दी सोना न जल्दी जगना... सारी उम्र कोई व्यायाम, कॉइ प्रातः भ्रमण नहीं... और मुनाव्वर राणा जी की मानें तो
ReplyDeleteउम्र होने को पचास के पार
कौन है किस जगह पता रखना.
वाली उम्र तक पहुँच गए पता ही न चला... पंडित अरविंद मिश्र जी ने सही कहा स्त्रियों से आयु और पुरुषों से आय नहीं पूछने की परम्परा है..लेकिन हम ज़बर्दस्ती बता देते हैं कि इसी बहाने तो कोई बुज़ुर्ग समझे... और सेहत, टच वुड, टंच है!! वो सारे सुखरोग दूर हैं.
अगेन वन ऑफ़ द बेस्टेस्ट क्रियेशन... मुझे सत्रह साल की उम्र से बॉडी बिल्डिंग का शौक रहा है... आज भी जम के एक्सरसाइज़ करता हूँ... सुबह शाम... लेकिन ज़्यादा एक्सरसाइज़ करने की वजह से ...घुटनों में प्रॉब्लम आ गई है... इसका तोड़ भी निकाल लिया है... जमकर फ्रूट्स खाओ... और एंटी-ओक्सीदेंट्स खाओ... और घुटना बचाओ... सुबह सुबह ५ किलोमीटर की जोग्गिंग करता हूँ... और बैडमिन्टन ज़रूर खेलता हूँ... शूगर लेवल हमेशा रेंडमली चेक करता रहता हूँ... और इसी फिट रहने की वजह से अपनी उम्र को धोखा देता हूँ... आज भी जब चार साल का बच्चा भैया बोलता है तो बहुत सुकून मिलता है... और एक चीज़ और है... मेंटल एक्सरसाइज़ के लिए खूब पढ़ता हूँ...
ReplyDeleteऔर हाँ! मुझे बच्चा बन कर रहना बहुत पसंद है... इसलिए अपने नाम के आगे मै डॉ. नहीं लगता हूँ... जबकि दो-दो पी.एच.डी. ली है... और 2012 में तीसरी भी हो जाने की उम्मीद है... डॉ. लगा देने से लोग उम्र दराज़ समझते हैं... जबकि मैं अभी पैतीस भी टच नहीं किया हूँ... पर मैं हमेशा पैतीस ही बताऊंगा.. पूरी ज़िन्दगी... मुझसे लोग सवाल भी करते हैं... कि आप डॉ. क्यूँ नहीं लगाते हैं... मैं कहता हूँ की नाम के साथ पी.एच.डी. लिखी है ना तो यह अंडरस्टुड है... कौन अपना बचपना खोये... और ब्लॉग जगत में तो मैं आया ही इसलिए. ... क्यूंकि रियल लाइफ में बहुत सीरियसनेस है.. बहुत धीर-गंभीर बन कर रहना पड़ता है... क्वालिफिकेशन और काम के हिसाब से बिहेव करना पड़ता है... मैं तो अभी ख़ुद को चौदह साल का ही समझता हूँ... और अब आपकी इस शानदार पोस्ट को पढने के बाद पांच साल का समझूंगा...
पता है मैं सोने जा रहा था ... कि तभी आपकी पोस्ट देखी ... तो नींद पूरी गायब हो गई... और पूरी पोस्ट पढने बैठ गया... अब तो आपकी पोस्ट की आदत हो गई है... और इंतज़ार रहता है... अब मैंने अपने पर्सनल इन्फोर्मेशन क्वेश्चानैयर (questionnaire ) में फैवरिट राइटर में डैन ब्राउन और रोबेर्ट शुल्ज़ के साथ आपका नाम भी लिखना शुरू कर दिया है...
येस! यू आर वन ऑफ़ माय फैवरिट वन...
ग्रेट...
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत सही... मैं तो काफी समय तक १६ रही, फिर ३० ... अब बेटे की शादी को सोचा है तो ४० से ऊपर हो गई हूँ और अभी यही चलेगा , क्या करें मन की सुनें या लोगों की बकवास -हा हा हा
ReplyDeletesundar jankari..!!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया |
ReplyDeleteबहुत पहले जब मैंने ४० पर नहीं किया था एक महिला मंडल में कार्यक्रम हुआ था चालीसवां साल धोका(मराठी )अथवा मौका |
आपके आलेख को पढ़कर वही याद आ गया चाहे तो हम धोखा मान सकते है या मौका जानकर एक अच्छी शुरुआत कर सकते है बढती उम्र के साथ |
प्रवीण जी, एज अ सीरिअस नोट ; मैं तो यह कहूंगा कि आपने एक बहुत ही उचित समय पर शरीर के प्रति बरती जा रही लापरवाही को पहचान लिया ! मेरा ये अनुभव है, ( न सिर्फ अपने से बल्कि बहुत सी अपनी मित्र मंडली के ताजुबों से भी कि ३८ से ४२ -४४ की एज का एक पड़ाव इंसान की जिन्दगी में ऐसा आता है जब शरीर में कोई न कोई बीमारी प्रवेश करती है ! तो यही कहूंगा कि सर्वप्रथम शरीर रक्षा बाद को अन्य कार्य है !
ReplyDeleteह्म्म्म्म् उम्र तो मेरी भी रूक गई है बढना.. कहो तो बच्चों के गीत (बच्चों की आवाज में) सुनाउं.....
ReplyDelete@ निशांत मिश्र - Nishant Mishra
ReplyDeleteआपके आग्रह ने सहसा मुझे सकते में डाल दिया। हम सबके जीवन में होता है यह।
@ बेचैन आत्मा
वाका वाका ने आपको चेताया, वर्ल्डकप ने हमको। चलिये फुटबाल का कुछ तो असर है। क्रिकेट तो पूरा मानसिक जोड़ घटाने में निकल जाता है।
@ rashmi ravija
पोस्ट आयेगी तो समझ लीजियेगा विजयी रहे, नहीं तो पुनः प्रयास होगा।
@ सम्वेदना के स्वर
मन यदि तरुणाई बनाये रहे तो व्यायाम न भी किया तो क्या? जब शरीर धोखा देना चालू करता है, मन की तरुणाई बिला जाती है।
@ महफूज़ अली
ReplyDeleteआपकी शारीरिक व बौद्धिक क्षमतायें आपके जीवन की गति नियत करने की क्षमता रखती हैं। मस्तिष्क में बौद्धिकता चरम पर और शरीर में बच्चों सा उत्साह।
हम तो जूझते अधिक हैं स्वयं से। बाद में कहीं धीरे से सरक लेने की वृत्ति न उठ खड़ी हो अतः ढिंढोरा जमकर पीट देते हैं। मन शिथिल हुआ तो अपना लाउडस्पीकरीय ब्लॉग याद आ जायेगा और पुनः चित्त उद्धत हो जायेगा जूझने को।
आपका विश्वास हर बार मुझे विवश कर देता है स्तर से समझौता न कर देने को। एक दो हल्की पोस्टें कहीं दुबकी बैठी हैं आपके डर से। दशा कैसी भी हो मेरी दिशा नियत हो गयी है।
डैन ब्राउन की सारी पुस्तकें पढ़ चुका हूँ, रोबेर्ट शुल्ज़ की पुस्तकें पढ़ने की तैयारी कर रहा हूँ। देखता हूँ कहाँ तक पहुँच पाऊँगा।
@ हास्यफुहार
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
@ रश्मि प्रभा...
किसी जीवन्त व्यक्तित्व से उपाय पूछना पड़ेगा वापस लौटने का।
@ sanu shukla
बहुत धन्यवाद।
@ शोभना चौरे
मानसिक ढलान रोकना तो संभवतः धोखा न हो। सुना है कि कभी कभी मन की मानने लगता है शरीर।
@ पी.सी.गोदियाल
अच्छा हुआ कि वर्ल्डकप इस वर्ष ही आ गया। एक दो वर्ष बाद आता तो संभवतः एक दो रोग एन्ट्री मार चुके होते।
@ Archana
आपके स्वर में बचपन के गीत सुन बचपन लौट भी सकता है। प्रयोग एक बार अवश्य कर लें हम सबके ऊपर।
इधर पेट पर बेल्ट रूपी लगाम लगाना मुश्किल हो गया है । कंबख्त गर्भवतियों को भी मात देने लगा है । कल से कसरत करूंगा प्रण किये 5 महीने हो गये ।
ReplyDeleteआपने तो मुझे भी जागरूक कर दिया...
ReplyDeleteबड़ी अच्छी पोस्ट है ये तो...समीर अंकल को देखिये, उम्र ही नहीं बढ़ रही है...
ReplyDelete_____________
'पाखी की दुनिया' में आपका स्वागत है.
एक पुरानी कविता "Baobab", आपके लिये
ReplyDeleteअत्यधिक रोचक पोस्ट...अलसाए शरीर को जगाना बहुत दुष्कर कार्य है...एक बार जाग भी जाये लेकिन उसे निरंतर जगाये रखना तो दुरूह कार्य मानिए...आपने शुरू किया है...इश्वर आपको संबल प्रदान करता रहे करता रहे करता रहे...हम भी इस शरीर को चलायमान बनाये रखने के लिए इस उम्र में भी रोजाना क्रिकेट खेलते हैं/थे ,अब बारिश ने मैदान को झील बना दिया है तो खेलना हो नहीं पाता...इसलिए आजकल शरीर में आलस्य के कीटाणु पनप कर खूब आनंद कर रहे हैं...
ReplyDeleteनीरज
@ K M Mishra
ReplyDeleteबीच बीच में पेट धमकी देने लगता है। कहता है कि बढ़ जाऊँगा तो सारी जीन्सें नयी लेनी पड़ेंगी। शारीरिक से अधिक आर्थिक डर है।
@ KK Yadava
हमने अपना काम कर दिया, अब बीच बीच में आप हमें भी टोकते रहियेगा, तभी सबका भला होगा।
@ Akshita (Pakhi)
उनका ब्रेक पता नहीं कितना कड़ा है, हमारा तो बीच बीच में स्लिप कर जाता है।
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
Time Runs out
Days turn into Years
Decades into Millenia
Eras have already gone
A new year's eve or a birthday morning
Reminds me that another year is gone forever
I do not grow in height any more
I grow wider though
Have been standing for long
Now, its time to go!
आपकी इस कविता ने सबकी स्थिति स्पष्ट कर दी।
@ नीरज गोस्वामी
यहाँ तो आलस्य के कीटाणु नित्य ही मापने पड़ते हैं, तभी टिक पा रहे हैं।
शुभकामनाएं....ईश्वर करें,यह सैंतीस पर सचमुच ही अटका रहे और कईयों को इस भाव को मन में धारण करने के लिए प्रेरित करता रहे....
ReplyDeleteअपना तो सबसे बड़ा शत्रु मन का आलस्य है,जो छाया सा चिपक गया है....पर सही बात अगल करना ही होगा इसे...ईश्वर ने एक सुन्दर मंदिर दिया है शरीर रूपी ,उसे साफ़ सुथरा स्वस्थ रखना भी तो आवश्यक है....
जानकारी उपयोगी व रोचक ।
ReplyDeleteजीवन की प्राथमिकता स्वास्थ्य होनी चाहिए. स्वस्थ रहने के लिए श्रम करना (व्यायाम करना )जरूरी है. यह काम समय रहते(बचपन या युवावस्था में )शुरू हो जाना चाहिए. लेकिन बढ़ती उम्र के अहसास को केवल मन से रोका जा सकता है. स्वभाव की जीवन्तता ही मनुष्य को चिर युवा बनाती है.
ReplyDeleteप्रवीण जी,
ReplyDeleteआप तो बंगलौर में है, मौसम भी औसतन बढिया रहता है। एक जोडी अच्छे जूते खरीदें और बस अपने आस पास के माहौल से दौडते हुये जुडना शुरू कर दीजिये। पेट तो ऐसे गायब होगा महीने में जैसे ... के सिर से सींग गायब...:)
@ रंजना
ReplyDeleteमन के क्या कहने। संग में रहते हैं, जितना चाहते हैं टहलाते रहते हैं। थोड़ा सा कड़ा होने का यत्न कीजिये तो स्वांग करने लगते हैं।
जंग जारी है, शुभकामनायें बहुत काम आने वाली हैं।
@ अरुणेश मिश्र
बहुत बहुत धन्यवाद।
@ hem pandey
स्वभाव की जीवन्तता ही है जो हम सबको युवा बने रहने के लिये प्रेरित करती है। साथ ही साथ माहौल भी जीवन्त हो जाता है।
@ Neeraj Rohilla
नीरज जी, दौड़ने का जोर न डालें। दिन में एक मैराथन तो हो ही जाती है, श्रीमती जी द्वारा प्रायोजित। उससे पेट तो नहीं, दिमाग पूरा अन्दर चला गया है। अब व्यक्तित्व में कुछ तो उभार रहने दीजिये।
सुन्दर! अभी नौ दिन ही हुये हैं। १२ दिन बाद की पोस्ट का इंतजार है।
ReplyDelete@ अनूप शुक्ल
ReplyDelete21 दिवसीय महाभारत पर पोश्ट लिखने व्यास महाराज बैठने वाले हैं।
इस पोस्ट पर कोई टिप्पणी नहीं पढ़ी।
ReplyDeleteउवाचने में असमन्जस नहीं, इसीलिए।
ज़रा याद कीजिए - आनन्द में राजेश खन्नोवाच - "ज़िंदगी बड़ी होनी चाहिए, लम्बी नहीं"
तदनुसार,
प्रौढ़ता का तात्पर्य परिपक्वता और सहज होते जाने की क्षमता से जुड़ना चाहिए, दम्भ और शरीर के आकार से नहीं।
आप सन्मार्ग पर हैं, "शुभास्ते पन्थान:"