हम जैसे प्रशिक्षार्थियों के लिये मॉल खुल जाने से यह कार्य अब उतना कष्टप्रद नहीं रह गया है। बाज़ारों के धूल-धक्कड़ से दूर मॉल का शीतल वातावरण व मनपसन्द वस्तुयें चुन पाने की सुविधा हम सबको सुहाती भी है। अब बच्चों का भविष्य हमारे वर्तमान की तरह न हो इसलिये उन्हें भी साथ ले लिया जाता है। मॉल में देवला ट्रॉली पकड़ती हैं और पृथु लिस्ट से सामान बता कर उसमें डालते रहते हैं। हमारा कार्य शंकाओं का समाधान करना होता है, कारण सहित। पारिश्रमिक कितना दिया गया, यह तब पता लगता है जब घर आकर लिस्ट के बाहर के सामानों का जोड़ होता है। कुछ दिनों में दोनों इतने योग्य हो जायेंगे कि स्वयं जाकर ही खरीददारी कर आया करेंगे। बाल श्रम नहीं है, यह उनकी तैयारी है आगामी जीवन के लिये।
इस पूरे प्रकरण में बस एक बात खटकी। मुझे अनायास ही अपने विद्यालय के एक मित्र अनुराग की याद आ गयी, वह अभी माइक्रोसॉफ्ट में है।
अनुराग की गणितीय गणना करने की क्षमता हम सबसे कहीं अधिक थी। कारण था बचपन में उसका अपने पिता जी की दुकान में बहुधा अकेले बैठना। छोटे कस्बे में छोटा व्यवसाय था। कोई कैलकुलेटर नहीं, कोई कम्प्यूटर नहीं, सब गणना मानसिक। भूल का अर्थ था हानि। वही क्षमता उसे पहले आई आई टी तक लायी और अन्ततः माइक्रोसॉफ्ट तक ले गयी।
मॉल संस्कृति जिस गति से फैल रही है, लगता है कि कुछ ही समय में सारे के सारे छोटे व्यवसायों और व्यवसायियों को सुरसावत निगल जायेगी। मॉल में लगी भीड़ इसका प्रमाण मात्र है। सीधे उत्पादन से उपभोक्ता तक सामान लाने की पूरी प्रक्रिया कम्प्यूटरों पर बिछी हुयी है। उद्देश्य लागत न्यूनतम करना है।
अब छोटे व्यवसाय नहीं रहेंगे तो कई और अनुराग उन दुकानों में कैसे बैठेंगे? कैसे उनकी गणितीय क्षमता पल्लवित हो सकेगी? माइक्रोसॉफ्ट को तब कैसे उतने योग्य मस्तिष्क मिल पायेंगे?
बिलिंग के 25 काउण्टरों में मुझे एक भी अनुराग नहीं दिखा, दिखा तो एक अर्थव्यवस्था का वह चेहरा जिसे न छोटी दुकानों की आवश्यकता है और न उसमें बैठने वालों अनुरागों की। मुझे यह भी दिखा कि भारत अपनी जिस बौद्धिक और मानसिक क्षमता पर इतना इतराता है, उनका भी मूल्य कम कर देंगे बाजार-व्यवस्था के समर्थक। अब मुहल्ले में आर्थिक समस्याग्रस्त लोगों को उधार कौन देगा? अब माइक्रोसॉफ्ट को अनुराग कौन देगा? हम जैसे विद्यार्थियों को ईर्ष्या करने के लिये अनुराग कौन देगा?
कई अनुराग खो गये हैं इन्ही मॉलों में। किसी को भी, किसी भी मॉल में, कभी भी यदि अनुराग दिखे तो मुझे बता दें। मुझे तो बस मेरा अनुराग वापस चाहिये।
I have to write in English as I am sitting in hotel lobby in New York. And I don’t have laptop at the moment with me ----apologize …ah you can say use the Google Hindi writer
ReplyDeleteI myself have worked during 2000 to develop barcode programs for the machines installed in these malls. But I will have to disagree with you here that these malls are the hurdle to produce more Anurag's .....if we think in that way than we would not have had trains which you are managing or computers which you use to write the blogs.
These are the development milestones which somewhere force you to invest more time in R&D otherwise you won't be able to sustain this kind of growth for long time. The reason America is number one - they have the best research labs and they invest like hell on research ...same thing is coming in India gradually. I was reading your Buzz where you were asking when Indian politicians will act like Obama where he was giving demo of one of the healthcare website ...if we think in the direction of your recent post then how that change is going to come ??
Our kids are smarter than we were because we are teaching them through new methodologies and new facilities. It does not mean that old things were bad, or our moulders were not efficient enough to mould us but yet we are gradually growing and improving . Essentially that’s what is generational gap is…...so Don’t worry you will get smarter Anurags if money is spent in the right directions and the way is the cumulative effort of learning from past and improvement from past.
however,I will have to say that this development is not going to aam adami and that is where Indian leaders has to think through that how they align 'gromoday' with 'shaharoday' ...
अनुरागों की कमी तो केलकुलेटर आने के बाद ही हो गयी | जब मैं दसवी में पढता था तब मेरे एक सहपाठी के पिता जो गांव में दुकान चलाते थे हमारी गणित के चक्रवर्ती ब्याज के सवालों का जबाब सैकिंड़ो में मुंह जबानी बता दिया करते थे और हम उन्हें हल करने के लिए फार्मूलों में उलझे रहते था |
ReplyDeleteयह बात सही है कि माल आने के बाद छोटे दुकानदारों के व्यवसाय पर असर पड़ेगा पर अभी यह बात छोटे दुकानदारों को समझ नहीं आ रही है इस वजह से वे अपने आप को अपडेट नहीं कर रहे जिसका खामयाजा उन्हें उठाना पड़ेगा |
लेखनी का अंदाज अनोखा है पाण्डेय जी , माँ को लिखा ख़त तो बार-बार मानस पटल पर आ जाता है ! Please keep it up !
ReplyDeleteनहीं.. अनुराग केवल गणनाओं के मोहताज नहीं है.. हम देखते है की उत्तरोतर में बच्चों का कौशल और बढाता है.. दिमाग विकसित करने के नए नए साधन आ गए..
ReplyDeleteऔर आजकल के बच्चे वाकई हमसे बहुत आगे है... पहले ज्ञान प्राप्ति के साधन कितने सिमित और monotonous थे.. कोई क्रिएटिविटी नहीं.. अब एक चीज आप सैकड़ो तरह से सीख सकतें है.. जो पसंद हो..
रोज आदि को देखता हूं.. कैसे वो सिखाता है.. चीजों को महसूस करता है.. मेरी हैरानी हर रोज बढती है...
मुझे यह भी दिखा कि भारत अपनी जिस बौद्धिक और मानसिक क्षमता पर इतना इतराता है, उनका भी मूल्य कम कर देंगे बाजार-व्यवस्था के समर्थक। अब मुहल्ले में आर्थिक समस्याग्रस्त लोगों को उधार कौन देगा?
ReplyDeleteयह पढकर मुझे ध्यान में आया ....
भारत के 49 करोड़ नगरिक अंतर्राष्ट्रीय ग़रीबी रेखा के नीचे रह रहे हैं।
सही सामाजिक प्रश्न उठाया आपने. हमारे शहर में अभी यह समस्या नहीं है. यहाँ अनुराग सहजता से मिल जाते हैं. मेरा बनिया पहले हाथ से लिखकर जोड़ता है फिर कैलकूलेटर से चेक करता है.
ReplyDelete@ राम त्यागी
ReplyDeleteबहुत आभार इतनी सारगर्भित और सटीक टिप्पणी के लिये। जब पहली टिप्पणी पोस्टवत हो तब बिना सुबह की चाय पिये प्रतिटिप्पणी हेतु बैठा जा सकता है।
1. बार कोड, रिज़र्वेशन, कम्प्यूटर आदि आधुनिक मस्तिष्क की वह देनें हैं मानव सभ्यता को जिन्हें नकारा नहीं जा सकता है। मैं स्वयं भी मॉल प्रक्रिया का पक्षधर हूँ, संभवतः इसीलिये जाता भी हूँ।
2. मॉल का स्वच्छ वातावरण, सामान चुनने की सुविधा, कम दाम और त्वरित प्रक्रिया उसे अन्य प्रतिष्ठानों से ऊपर बिठा देता है।
3. मुझे इस बात का दुख भी है कि हम उतनी तेजी से भारत में तकनीक का प्रयोग नहीं करते हैं जितने हम सक्षम हैं। हमने नकल करने की आदत सुविधावश अपना ली है। मैं तो स्वयं चाहता हूँ कि पुराने मानक नये के लिये रास्ता खाली करें।
4. बच्चे अपने बौद्धिक विकास की विधि ढूढ़ लेंगे। किसी भी विषय में बुद्धि लगाने से पर्तें दर पर्तें खुलती जाती हैं उनकी मेधा की। आप जैसे कई और लोग अनुराग की प्रक्रिया से न जाकर भी योग्यता के शिखर पर आरूढ़ हैं।
5. बन्द होते छोटे व्यवसाय भी पीड़सित होकर देर सबेर एक नयी राह खोज ही लेंगे। भारत में छोटा व्यवसाय चला लेना एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी को चलाने से अधिक करतब भरा है।
आपके द्वारा उठाये गये इन तथ्यों पर सहमत होने के पश्चात अब केवल दो बिन्दु देखने शेष रह जाते हैं और संभवतः जिसके लिये इस विचार ने मूर्त रूप भी लिया है।
1. विकास के मॉडलों को किसी स्थान विशेष में लगाने के पहले हमें विस्थापितों का ध्यान क्यों नहीं आता है। यदि ऐसा हो तो विकास कभी पीड़ादायक न होगा। मॉल के विकास में किसी प्राधिकरण के अन्तर्गत छोटे व्यवसायियों की भागेदारी एक मॉडल हो सकता था।
2. यदि विकास का लाभ सब तक पहुँचे तो विकास सुखदायी भी होगा।
3. हमारे देश में अनुसंधान के मॉल क्यों नहीं बनाये जाते जिसमें विकास के योद्धा नित ही तैयार हों।
छोटे व्यवसाय नहीं रहेंगे-मुझे नहीं लगता इतने बड़े देश में, ज्नसंख्या देखते हुए ऐसा समय मेरे जीवन काल में आयेगा.
ReplyDeleteफिर भी, एक रोज तो आयेगा तब तक काफी स्थितियाँ बदल चुकी होंगी तो यह बदलाव भी सही.
अच्छा विचारनीय आलेख. भारत वो सब कुछ है जो महानगरों के बाहर है, इस आधार पर कहा है मैने अपनी बात को!!
@ Ratan Singh Shekhawat
ReplyDeleteबहुत वर्षों तक हम भी कैलकुलेटर से कम्पटीशन करते रहे। आईआईटी में आने के बाद ही विकास के इन मानकों को अंगीकार किया। मानसिक गणित हम भारतीयों की बौद्धिक श्रेष्ठता का एक कारण तो रहा है। भले ही दुकानों में उसकी उपयोगिता न हो पर इस योग्यता को विलुप्तप्राय जीव न बनने दिया जाये।
कई स्थानों पर देशीजन मॉल खोल रहे हैं जो कुछ मामलों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से अधिक श्रेष्ठ हैं।
@ पी.सी.गोदियाल
बहुत आभार उत्साहवर्धन का। लेखनी को भी आप अग्रजों का मार्गदर्शन मिलता रहे।
@ रंजन
आपसे सहमत हूँ। केवल गणना ही मेधा का निर्णाण नहीं करती हैं पर योगदान अवश्य करती हैं। बच्चों का बौद्धिक विकास हमारे नियन्त्रण के परे होता है तभी उनके उद्गारों से हम बहुधा अभिभूत रहते हैं।
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मुझे तो हमेशा लगता रहा है कि छोटी मोटी गणितीय गणनाएं मनुष्य के मस्तिष्क का अवमूल्यन है -जो कम बस कुछ कुंजी पटलों को दबा कर सेकेंड्स में कर लिया जाय उसके लिए मानव मेधा क्यों शोषित की जाय -अनुराग से भी बेहतर अनुराग हो रहे हैं होंगें -मनुष्यता बेहतर विकल्पों को लेकर विजय पताका फहराती आयी है ....
ReplyDelete@ हास्यफुहार
ReplyDeleteमाल हो सकता है कि सस्ता मिल जाये पर उधार तो नहीं ही मिलेगा मॉलों में। अब गरीब क्रेडिट कार्ड कहँ से लायेंगे?
@ बेचैन आत्मा
एक हमारे परिचित कैलकुलेटर से जोड़कर जब हाथ से चेक किये तो हड़बड़ी की गड़बड़ी पता चली। तब से कैलकुलेटर महाराज कारावास में हैं।
@ Udan Tashtari
आयेगा आपके ही जीवन काल में पर यह बात अलग है कि आप 100 के ऊपर पहुँच चुके होंगे तब तक।
स्थिति संक्रमण की है। जब विकास एक जगह केन्द्रित होता है तो वहाँ की अर्थव्यवस्था फट जाती है। इस मॉडस का क्रियान्वयन उचित ढंग से करना होगा।
hame to mall ki safai tatha vayavastha bhati hai , Anurag se kahe ki isi chhetra me dhayan de.
ReplyDeleteआपकी पोस्ट और राम त्यागी की प्रतिक्रिया ...पढ़ कर अच्छा लगा ..एक सार्थक लेख के लिए शुक्रिया !
ReplyDeleteआलेख में आपकी चिन्ता झलकती है...पर अभि बहुत अनुराग हैं और ऐसा भी नहीं है कि हमारे अनुराग खो रहे हैं ...वो कहीं और गिनती कराने में लगे हैं ...हमारे देश के बच्चों का मानसिक स्तर बहुत ऊँचा है..तभी न सब विदेशियों की नज़रों में चढ़े हुए हैं ....हमारा देश बहुत विशाल है ..हर जगह मॉल संस्कृति नहीं है ....आज भी लोग मुंहजुबानी हिसाब करते हैं ...
ReplyDeleteआपका लेख बहुत प्रभावी है..एक बार तो सोचने पर विवश करता है
प्रवीण जी, आपकी पिछली पोस्ट से लेकर इस पोस्ट तक मेरे दिमाग में कुछ चल रहा है . आप उसी अनुराग की बात कर रहे है ना . जिसके परेंट्स और कुछ रिश्तेदार एक दुर्घटना में काल कवलित हो गए थे?? . मुझे याद है , जब वो IIT में प्रथम वर्ष में था तो गंभीर रूप से बीमार पड़ा था , महीनो तक मृत्यु से लड़ते हुए अंत में उसकी जीने की जिजीविषा जीती थी.
ReplyDeleteअनाज मण्डी में दुकानदार दोस्त 640 ग्राम के दाम 19.50 रुपये प्रतिकिलो की दर से जिस तेजी से लगा देता है, उतनी तेजी से तो मैं शायद कैलकुलेटर पर भी नहीं लगा पाता हूं। कुछ दसेक साल पहले तक लगा लेता था। वह दोस्त कहता है कि तू कैसा Accountant (मुनीम) है और किस बात की तनख्वाह लेता है?
ReplyDeleteवैसे जहां तक बच्चों की बात है मेरे विचार में नयी पीढी हमेशा पिछली पीढी से बौद्धिक और मानसिक स्तर पर तेज होती आई है। आजकल के बच्चों को कुछ सिखाना ही नहीं पडता, जाने कैसे सीख लेते हैं!
प्रणाम
सारगर्भित लेख, आपकी चिंता जायज है।
ReplyDeleteएक बार जार्ज फ़र्नांडीज़ ने रेलों में कुल्हड़ फिर से महज़ इसीलिए चलवा मारे थे कि 'बेचारे' कुम्हारों को काम मिल जाए. किसी ने उन माहनुभाव को नहीं टोका कि मियां क्यों सदियों तक उन्हें कुल्हड़ों की ही छपाई में जोते रखना चाहते हो... कुछ और बेहतर सोचो उनके लिए. पहिये के अविष्कार से पैदल चलना नहीं भूले हैं लोग आज भी.
ReplyDeleteजापानी, पहाड़े याद नहीं करते न ही अबेकस का प्रयोग (किसी बड़े पैमाने पर) करते हैं. अलबत्ता वहां के रोज़मर्रा के जीवन में कैलकुलेटर आम बात है...फिर भी उनकी बौद्धिक क्षमता दोयम नहीं मानी जाती है... :-)
मुझे तो बस मेरा अनुराग वापस चाहिये।
ReplyDelete...हमें भी कुछ ऐसी ही तलाश है...
माल अभी नये नये चले है, इस लिये खुब चल रहे है, लेकिन कुछ समय बाद लोग नुक्कड की दुकान से ही समान मंगवायेगे, जहां अनुराग आज भी बेठता है, इस लिये मै समीर जी की बात से सहमत हुं, माल मै भी कोई समान सही नही मिलता, हेरा फ़ेरी वहां बनिये की दुकान से ज्यादा होती है सबूत है मेरे पास,
ReplyDeleteबहुत सुंदर लिखा पढ कर अच्छा लगा, धन्यवाद
सच्चाई है कि हम विदेशी संस्कृति को अपना कर अनगिनत संकटों में घिर गये हैं।
ReplyDeleteअनुराग नहीं मिलता ... अब!
बहुत अच्छा लिखा आपने अंकल जी......
ReplyDelete@ Arvind Mishra
ReplyDeleteनिश्चय ही जो कार्य calculator से किया जा सके उसके लिए मानव बुद्धि का क्यों उपयोग हो ? पर अभ्यास करते रहने से धार बनी रहती है और संभवतः अनुराग के विषय में यही सत्य हो| अनुराग यदि वहां न बैठा होता तो उसका यह पक्ष मजबूत न होता| बुद्धि के संचरण के लिए हमें कोई और उपाय खोजने होंगे तब तो|
@ Shraddha
आपका अवलोकन सच है| सफाई और व्यवस्था के क्षेत्र में बहुत कुछ करने कि आवश्यकता है देश में|
@ सतीश सक्सेना
राम त्यागी जी की प्रतिक्रिया में कई सार्थक बिंदु उठाये गए हैं|
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
इस देश को अनुरागों की कमी न होगी क्योंकि बौद्धिक स्तर बनाये रखने के कारक संस्कृति में ही निहित हैं|
@ ashish
आशीष, हाँ वही अनुराग हैं और अभी हैदराबाद में पोस्टेड है|
@ अन्तर सोहिल
ReplyDeleteबच्चों को सिखाने के लिए वाह्य साधनों की आवश्यकता नहीं है| स्वतः सिखाने का उत्साह उनमे रहता है यदि हम उन्हें हतोत्साहित न करें|
@ सत्यप्रकाश पाण्डेय
बहुत बहुत धन्यवाद आपका|
@ काजल कुमार Kajal Kumar
विकास की प्रक्रिया में बहुधा ये तथ्य अनदेखा कर देते हैं हम लोग और जब तक जागते हैं, देर हो जाती है| किसी अच्छे के लिए कम से कम यह तो ज्ञात रहे की क्या हाथ से निकला जा रहा है| शिक्षा व्यवस्था संभवतः इसी बीमारी से पीड़ित हो दम तोड़ रही है|
@ KK Yadav
यदि यही पता रहे की क्या खो गया है तो अनुराग भी वापस मिलाने लगेंगे|
@ राज भाटिय़ा
माल संस्कृति को फैलने में अभी समय लगेगा पर उसका प्रभाव किन किन क्षेत्रों में पड़ेगा, यह तो पता रहना चाहिए हमें|
जाईये जाईये कुट्टी आपसे ......आप पोस्ट में मैथ्स और साइंस की साईड ले रहे हैं ....हम आर्ट्स फ़ैकल्टी वालों के भी तो कुछ लिखिए .....वैसे बाबर अकबर से रिलेटेड कोई दोस्त था क्या आपका ? नहीं , अरे तो हम हैं न ।
ReplyDeleteआज के दौर को भीतर तक बेधती पोस्ट , सोचने पर बाध्य करती हुई
क्षमा चाहूँगा प्रवीण जी… लेकिन आपके अनुराग को यह मॉल सभ्यता या माइक्रोसॉफ्ट नहीं लील गया ...उसे लील गई है वर्त्तमान शिक्षा पद्धति जिसमें हमारे बच्चे को पहाड़े नहीं आते टेब्ल्स आते हैं.. फ़ोर टूज़ आर एट... न कि चार दूना आठ...
ReplyDeleteअनुराग को भी मेरे दादा जी की तरह पढ़ाया गया होगा चार डेओढे छः और पाँच डेओढे साढे सात...बच्चे पहाड़े भी नर्सरी राइम्स की तरह पढते थे...
ऐसे में इस बात की तो कल्पना ही असम्भव है कि आपको अपना भूला हुआ अनुराग मिल जाए वापस… शायद ख़ुद अनुराग के बच्चे भी अनुराग पर गए होंगे, लगता नहीं.
प्रवीण जी, सरकारों को चाहे केंद्र की हो या राज्य कि अनुसंधानों पर खर्च करना ही होगा और वहाँ प्रतिस्पर्धा के बीज बोने होंगे, लचर व्ववस्था रही तो वहाँ भी पैसे का दुरूपयोग होगा !!
ReplyDeleteR&D पर खर्च करने का समय आ गया हैं, नहीं तो ये जो कॉपी पेस्ट वाला विकास कब तक टिक पायेगा ? या बौद्धिक रूप से हम अंग्रेजों के गुलाम बन जायेंगे - वो हमें मैंनैज करेंगे, आईडिया देंगे और हम लेबर बन कर लगे रहेंगे ...अगर बौद्धिक सम्पदा को, आर्ट को, कला को, CREATIVITY को बढ़ाना है तो अनुसन्धान केंद्र तो खोलने ही पड़ेंगे या फिर बाहर से आने वाली कम्पनियों को बाध्य करो इसके लिए --- वैसे कुछ प्राइवेट कंपनियों से इस मामले में कदम बढाए हैं और आशा है कि हम सिर्फ कॉपी पेस्ट ना करके अपना खुद का विकास लायेंगे ...
वैसे सलिल जी ने बहुत महत्वपूर्ण बात कही है ...कुल मिलाकर विकास से कोई समस्या नहीं है ..समस्या है मौलिकता खोने में ..हम मौलिकता को गंवाते जा रहे है - मूल मुद्दा मौलिकता का है यहाँ पर !!
ReplyDeleteयोग हम नहीं करेंगे , आयर्वेद को हम नहीं अपनाएंगे , वैदिक गणित बच्चों को नहीं पद्दायेंगे - पर ये सब अमेरिकन और अन्य पश्चिमी देश खूब कर रहे हैं - हम क्यों नहीं कर रहे - क्यूंकि घर का जोगी जोगना और आन गाँव का सिद्ध - वैसे भी बाहरवाली (चीज) कैसी भी हो - आकर्षित करती ही है :-) यहाँ अमेरिका में ऐसे बहुत परिवार है जो वैदिक गणित के जरिये बच्चो को गणित सिखा रहे हैं..
किसी पोस्ट पर देर से आने का फायदा ये होता है कि पोस्ट के साथ टिप्पणियों के जरिये ढेर सारे विमर्श मिल जाते हैं,पढने को.
ReplyDeleteसवाल वही मौलिकता का है ...कि हम अपने देश,समाज की जरूरतों के अनुसार चीज़ें क्यूँ नहीं अपनाते या उन्हें क्यूँ नहीं बढ़ावा देते??...
नक़ल की एक अंधी दौड़ लगी हुई है..वह किसी मुकम्मल मुकाम तक पहुंचाएगी...शक है इसमें.
मै गणित का सबसे कमजोर छात्र रहा हूं . गणित में जोड, घटाना ,गुणा , भाग ,% के अलावा मेरी जिन्दगी में कोई चीज काम नही आई . आज भी बहुत से बच्चो को इच्छा के विरुद्ध गणित थोपा जाता है . जिससे वह पढाई से ही जी चुराने लगते है .
ReplyDeleteअनुराग जैसे आज भी बहुत से बच्चे है जो मुहजबानी जोड,घटाना ,गुणा, भाग कर लेते है लेकिन वह स्कूल नही जाते .
यह तो मैं भी पंद्रह साल से सुन रहा हूँ की मॉल संस्कृति छोटे दुकानदारों को लील जाएगी पर उसका असर अब कुछ-कुछ दिखने लगा है.
ReplyDeleteरहा सवाल बच्चों में गणितीय क्षमता के पल्लवन का, हाल में ही हमारी सोसायटी में एक शिक्षण संस्था में एक डेमो दिया गया जिसमें कुछ छोटे बच्चों में हैरतंगेज़ गणितीय प्रतिभा दिखाई. वे किसी ग्लोबल अबैकस सिस्टम लर्निंग की मार्केटिंग कर रहे थे जिसमें मानसिक कलन करने की शिक्षा दी जाती है. पता नहीं क्या था वह. जिस सवाल को मुझे कैलकुलेटर से करना पड़ता है उसे वे बच्चे मन में ही फटाक से हल करके बता रहे थे.
प्रवीणजी
ReplyDeleteबहुत अच्छा आलेख है अनुराग तो रहेगे ही कितु गरीबी और अमीरी की खाई बढती ही जा रही |
सारगर्भित पोस्ट है ..पर अनुराग खोये नहीं अभी भी हैं हाँ बदलाव का समय है बस..
ReplyDeleteMain peshe se shikshak hoon aur university ke bachchon ko padhati hoon. Manati hoon ki aajkal ke bachche hamari peedhi ki tulana me bahut aage hai, unaka vikas kai dishaon me hota hai. par aaj bhi jab "Mathematics" ki baat aati hai, North America ke bachchen Indian bachchon se bahut peeche hai. University pahuchane se pahale tak unaka calculator par dependent hona isaka pramukh karan hai. Math ke liye calculator use karne me mujhe dikkat hoti hai, par calculator ke bina bachchon ko dikkat hoti hai.
ReplyDeleteअबैकस सिस्टम लर्निंग - yeh ek Japanese tarika hai calculation karane ka. Jaise Hamare desh me "Vaidik Mathematics" hai usi ke parallel Japan me "Abacus" hai.
North America me hamare Asian jagruk parents apane bachchon ko isaki training dilate hai, taki unake bachche yahan ke baki bachchon ki tarah poorntaya calculator par hi dependent nahi ho jaayen.
Mujhe aisa lagata hai ki "Mall system" ke negative effect hamari society me dheere dheere sweet poison ki tarah failate hai. Manati hoon ki Mall bahut systematic hote hai par hamare bahut saare desh-vashiyon ki pocket ki pahuch se bahut door bhi hote hain.
पहले हमें सौ सौ फोन नंबर याद रहते थे.... और अब एक भी नहीं ....सब फोन बुक में ही रहते हैं.... तो याद करने कि जहमत कौन उठाये... रिटेल सेक्टर पर मेरा एक रिसर्च पेपर पब्लिश है... ICSSR में... उसमें मैंने बहुत सी बातें उठायीं थीं... जिसमें यह बताया था कि कैसे यह सो कॉल्ड मौल कल्चर... हमारे इकोनोमी को नुक्सान कर रहीं हैं... मेरे उसी पेपर की बातों को उत्तर प्रदेश के फाइनांस सेक्रटरी ने रिलाइंस फ्रेश के आउटलेट को उत्तर प्रदेश में बंद करवाने में यूज़ किया था... मैं वो पेपर आपको मेल करता हूँ... कल...
ReplyDeleteआपका यह लेख हमेशा की तरह इंटेलेक्चुयल .... और बहुत शानदार है... सच ! कहूँ तो आपसे जुड़ कर सेन्स ऑफ़ प्राइड का एहसास होता है... पिछली पोस्ट का जवाब आज देखा .... और जवाब ना दे पाने के लिए.... माफ़ी चाहता हूँ.... आजकल वक़्त की बहुत शौर्टेज है..... सिर्फ रात में ही वक़्त मिल पाता है ........ मेल चेक कर पाने का...
वंस अगेन सॉरी... एंड हैट्स ऑफ टू यौर ..... इंटेलेक्चुयलटी....
विद बेस्ट विशेस.....
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ReplyDelete.
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आदरणीय प्रवीण पान्डेय जी,
"अनुराग की गणितीय गणना करने की क्षमता हम सबसे कहीं अधिक थी। कारण था बचपन में उसका अपने पिता जी की दुकान में बहुधा अकेले बैठना। छोटे कस्बे में छोटा व्यवसाय था। कोई कैलकुलेटर नहीं, कोई कम्प्यूटर नहीं, सब गणना मानसिक। भूल का अर्थ था हानि।"
अनुराग के अनुराग सा होने का जो कारण आ मान कर चले हैं वह सही नहीं है... जरा सोचिये...
छोटे कस्बे में छोटा व्यवसाय... पिता की दुकान में अकेले बैठना...कोई कैलकुलेटर नहीं... कोई कम्प्यूटर नहीं... सब गणना मानसिक... भूल का अर्थ है हानि...
बहुतों के साथ होती हैं यह स्थितियाँ... परंतु वे अनुराग नहीं बन जाते... बौद्धिक और मानसिक क्षमता जिस पर हर कोई आज इतराता है... थोड़ा बहत तो निखर सकती है मेहनत से... परंतु अधिकांश अपने जीन्स में ही लेकर पैदा होते हैं इसे...
"बिलिंग के 25 काउण्टरों में मुझे एक भी अनुराग नहीं दिखा"
नहीं दिखा न... आश्वस्त हुआ मैं भी... अनुराग का उन बिलिंग काउंटरों में क्या काम ?... वह IIT को डिजर्व करता है और वहीं होगा भी...
यह जो नई दुनिया होगी न... वह भी अनुराग जैसे ही बनायेंगे... कोई अनुराग नहीं खोयेगा कभी... मैं तो आशावान हूँ... आशा है तो जीवन है... आस न छोड़िये कभी !
सही लिखा है.... बाज़ार हावी है हर व्यवस्था पर।
ReplyDeleteसारे अर्थशास्त्र केवल हानि लाभ की गणना में लगे हैं... कोई बौद्धिक हानि लाभ का नहीं सोच रहा।
ना जानें यह बाज़ार वाद आनें वाले समय में हमें कहां ले जा कर छोडेगा....
कैलकुलेटर की विरोधी नहीं है हम भी ...मगर जितनी शीघ्रता से हम लोंग गणना कर लेते हैं ... कैलकुलेटर की मदद के बिना आजकल के बच्चे नहीं कर सकते ...
ReplyDeleteइसी तरह मॉल संस्कृति के भी अपने फायदे -नुकसान है ...अनुरोगों को गायब ना होना पड़े बस ...यदि विकास का लाभ सब तक पहुँचे तो विकास सुखदायी भी होगा...बिलकुल ...!
@ मनोज कुमार
ReplyDeleteआधुनिकता तब तक हानिकारक नहीं है जब तक उसके दुष्प्रभावों को हम समझकर हल करते रहते हैं।
@ Akshita (Pakhi)
आपको भी मेन्टल मैथ सीखनी चाहिये पाखी बिटिया।
@ अजय कुमार झा
जीवन में आर्ट्स की समझ कम रही बचपन से। बड़े होकर ही समझ आया कि सारा रस तो आर्ट्स में ही है। अब सीखना प्रारम्भ कर दिया है, आप लोगों की शुभेच्छायें रहीं तो शीघ्र ही कुछ बहेगा।
@ सम्वेदना के स्वर
आपके अवलोकन से मैं शब्दशः सहमत हूँ। न ही मॉल अखरेंगे और न ही माइक्रोसॉफ्ट, यदि शिक्षा व्यवस्था अपने वर्तमान स्वरूप में रही तो भविष्य में इस विषय पर चर्चाओं की संभावनायें तक लुप्त हो जायेंगी।
@ राम त्यागी
ReplyDeleteइस पोस्ट व टिप्पणियों में मुख्यतः तीन विषय उभर कर आये हैं।
विकास, शिक्षा व्यवस्था व संस्कृति।
संतुलन आवश्यक होता है इन तीनों क्षेत्रों में, नहीं तो व्यवस्था भड़भड़ाकर गिरने लगती है और हम उसमें कुछ न कुछ जुगत लगाकर चलाते रहते हैं।
देश का दुर्भाग्य है कि इन तीनों में कोई साम्य नहीं। यदि इस समय कोई चीज देश की दिशा निर्धारित कर रही है तो वह है विशुद्ध राजनीति।
संस्कृति के सुदृढ़ पक्षों को धर्मनिरपेक्षता के नाम पर शिक्षा व्यवस्था से दूर रखा गया। समाज जो संस्कृति का दूसरा वाहक है, वह सब छोड़ विकास को दोनों हाथों से हथियाना चाहता है। और विकास भी ऐसा है जो समाज में इतना तनाव पैदा कर देगा एक दिन कि समाज को सहेज कर रख पाना असम्भव सा हो जायेगा।
इस असाम्य की स्थिति की पीड़ा ही विभिन्न अलग सी लगती हुयी टिप्पणियों में व्यक्त है।
उपाय अभी भी है। क्षमताये, एक नहीं, सौ अनुराग उत्पन्न करने की हैं इस देश में।
@ rashmi ravija
ReplyDeleteयदि हम अपनी संस्कृति के सुदृढ़ पक्षों को धीरे धीरे ढीला छोड़ते जायेंगे तो अपने पूर्वजों के द्वारा किये गये अथक प्रयासों का अनादर करेंगे।
@ dhiru singh {धीरू सिंह}
देश की शिक्षा पद्धति इस दयनीय स्थिति का भार उठाये पतनोन्मुखी है।
@ निशांत मिश्र - Nishant Mishra
इस तरह की अविश्वसनीय गणना करने की क्षमता हमें हमारी संस्कृतियों की देन है। उन्हे न केवल सहेज कर हम रखें वरन अपना मजबूत पक्ष भी बनायें।
@ शोभना चौरे
नकल में भी अकल न लगा कर स्वयं का हास्यास्पद बनाते आये हैं हम लोग। विकास के मॉडलों को समाज के अनुसार ढालना पड़ेगा।
@ shikha varshney
जहाँ मैं सोच रहा था कि अनुराग होंगे प वहाँ नहीं मिले।
@ Pooja
ReplyDeleteयह मुझे हमेशा लगता रहा है कि कैलकुलेटर का उपयोग विद्यार्थी की गणितीय क्षमताओं को कम कर देता है। आज आप से यह जान कर उस धारणा को बल मिला है। गणितीय क्षमताओं का योगदान आधुनिक विज्ञान के विकास में कितना है इस पर तो किसी को संशय न होना चाहिये। यही कारण है कि एशियाई अभिवावक पुरानी विधियों को अभी तक नहीं छोड़ पा रहे हैं।
कस्बे में उगी सब्जी मॉल की तुलना में अधिक सस्ती होगी पर ब्रॉकली खाने का मन करे तो मॉल ही जाना पड़ेगा। अब हम यह निर्धारित करें हमारे व्यंजन अन्तर्राष्ट्रीय हों या स्थानीय।
क्यों न हम मॉल में प्रयुक्त आधुनिक वितरण प्रणाली के लाभ स्थानीय दुकानदारों तक पहुँचा दें।
किसी नयी और अच्छी बात को स्थानीय परिवेश में कैसे ढालना है इसका निर्धारण पहले ही करना होगा।
@ महफूज़ अली
ReplyDeleteपिछली चार साप्ताहिक मॉल यात्राओं से मैं वहाँ की प्रक्रियाओं और प्रक्रिया सम्हाले युवाओं को बड़े ध्यान से निहार रहा हूँ। एक बार तो मॉल खुलने के साथ ही पहुँच गया था और देर तक यही देखता रहा कि बिके हुये सामान की आपूर्ति कैसे की जाती है?
एक यन्त्रवत सा लगा। सबको ज्ञात कि क्या करना है। काम न करने वालों की आदत से निपटने के लिये कैमरे। केवल ग्राहक ही दिखे जो थोड़ा बहुत मुस्करा लेते थे बीच बीच में।
इस संदर्भ में और अर्थव्यवस्था के ऊपर इसके प्रभावों के बारे में आपका पेपर पढ़ना एक अनुभव होगा मेरे लिये। मैं उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहा हूँ।
यही विचारों का अनूठापन है कि वहाँ मुझे अनुराग को याद कर लेने के कारण दिख गये। सहसा ऐसा हो गया। यदि प्रयास कर ऐसी चेष्टा करता तो कभी नहीं कर पाता।
@ प्रवीण शाह
ReplyDeleteआपके तीनों अवलोकन शिरोधार्य।
1. निश्चय ही मानसिक गणना कर लेना योग्यता का एक मात्र पैमाना नहीं है और इससे परे भी कई अनुराग हैं विश्व में ।
2. निश्चय ही दुकान में न बैठकर भी मानसिक गणनायें तेज रह सकती हैं।
3. निश्चय ही अनुरागों का मॉल के काउण्टरों में कोई काम नहीं।
अनुराग का भविष्य तो माइक्रोसॉफ्ट था और आईआईटी के बाद वह वहीं पर ही है। जो कारक उसके जीवन में सहायक हुये, निश्चय ही वही सम्पूर्ण कारक नहीं होंगे पर उन कारकों का मानसिक क्षमताओं को परिष्कृत करने में योगदान नकारा नहीं जा सकेगा। । मॉल अन्य जीवनत कारकों को कैसे प्रभावित कर रहा होगा, उसकी एक बानगी भर थी यह पोस्ट।
अनुराग तो अभी भी हैं, बस परिवेश की जरुरत है...
ReplyDelete@ देव कुमार झा
ReplyDeleteबहुत अच्छा शब्द उठाया है आपने। बौद्धिक हानि की कीमत हमें चुकानी पड़ रही है इस विकास के लिये।
कहाँ पहुँचायेगा यह विकास, किसी को भान नहीं है।
@ वाणी गीत
मॉल बने रहें पर अनुराग मिल जायें।
@ Akanksha Yadav
सामाजिक परिवेश तभी तक उपस्थित रहेंगे जब तक चेतना बनी रहेगी इस बारे में। शिक्षा व्यवस्था तो इन मानकों से पल्ला झाड़ चुकी है।
आपको भी मेन्टल मैथ सीखनी चाहिये पाखी बिटिया।
ReplyDelete...jarur sikhungi uncle ji..
एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
ReplyDeleteआपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं !
आपकी पोस्ट और त्यागीजी की प्रतिक्रिया के बहाने बढि़या चर्चा हो गई....त्यागीजी के हम भी मुरीद हैं...उन्हीं के बहाने आपको पढ़ना शुरू किये
ReplyDelete@ Akshita (Pakhi)
ReplyDeleteबहुत अच्छे पाखी।
@ शिवम् मिश्रा
बहुत धन्यवाद आपका।
@ भुवनेश शर्मा
राम त्यागी जी का अवलोकन इस पोस्ट का तार्किक निष्कर्ष है।
बहुत शानदार पोस्ट!
ReplyDeleteहम चाहे जितना मशीनीकरण के पक्ष में कह लें परन्तु यह सच है कि अनुराग की कमी होती जायेगी. जैसे आपका अनुराग था वैसे ही मेरा एक मित्र था, विजय. कलकत्ते में ही. मैनेजमेंट के सिद्धांत अपने पिता जी की परचून की दूकान पर होने वाले कार्य-कलापों से मिला देता था. विजय को मिस करता हूँ. आज आपकी पोस्ट पढ़कर एक बार फिर से उसकी याद आ गई.
maol ke baare me aapki prastuti behad hi apna alag sthan rakhti hai jo kuchh aapne likha vah shat -pratishat sahi hai.
ReplyDeleteho sakta hai samay palta khaye aur aapka anuraag punah wapas aajaaaye.shubh-kamnaaon ke saath.
poonam
आज ही मॉल संस्कृति के इर्द गिर्द घूमता एक आलेख लिखा और अब आपकी पोस्ट पढ़ी ,मैं खुद भी मॉल संस्कृति की अतिवता से घबराई हुई हूँ ,मैं तो ४० सालो के बाद की देश की अर्थव्यवस्था की कल्पना भी नही कर सकती ,रोज़ के घोटाले ,बढती महंगाई और तिस पर ये मॉल संस्कृति ,पता नही क्या होने वाला हैं .आपने एक नया और अच्छा विषय उठाया .
ReplyDelete@ Shiv
ReplyDeleteऐसे कितने ही अनुराग व विजय छोटे छोटे प्रतिष्ठानों से बड़ी बड़ी बातें सीख जाते हैं। शिक्षा पद्धति पूरी संस्कृति समेटने में विफल रखी गयी है।
@ JHAROKHA
विकास की दिशा देख लगता नहीं है कि अनुराग वापस आयेगा।
@ डॉ.राधिका उमडे़कर बुधकर
मॉल का सिद्धान्त बुरा न हो पर पूरा व्यापार केवल कुछ ही हाथों में सिमट जाना घातक है।
लेखनी का अंदाज अनोखा है पाण्डेय जी
ReplyDeleteना पच्चीस तक पहाडा ना जोड़ घटाव. अब तो कैलकुलेटर का सहारा ही दीखता है.
ReplyDeleteविचारणीय पोस्ट मॉल संस्कृति पर बेहतरीन अभिव्यक्ति.......
ReplyDeleteसातवीं तक स्कूल में,फिर कुछ समय घर में पढ़ा ,माताजी को ससुराल निपटा दिया गया था..पर आज भी हम भाई बहन जितनी देर में अंकों के सूत्र पकड़ते हैं,चार चार पांच पांच अंकों के जोड़ घटाव गुना भाग एक पल में हल कर माँ सामने धर देती हैं...और हमारे बच्चे...बिना केल्कूलेटर के एक कदम आगे नहीं बढ़ पाते..
ReplyDeleteमाँ कहती हैं, हमने गा कर पचास तक के पहाड़े सीखे थे...आज के बच्चे टू टू जा फोर जैसे ही करते हैं,सारी विद्या "जा" हो जाती है..
बोतल (सोफ्ट ड्रिंक) तथा मॉल संस्कृति सदैव ही मुझे घातक लगी है...दिन ब दिन इसे सिद्ध होते देख रही हूँ...
आपके विचारों से शब्दशः सहमत हूँ...
@ संजय भास्कर
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका संजय जी।
@ अभिषेक ओझा
बचपन में पिता जी ने 20 तक के पहाड़े रटवाये थे, अभी तक शब्दशः याद हैं।
@ महेन्द्र मिश्र
विकास के लाभ के साथ होने वाली हानियों को न्यूनतम करने का प्रयास करें तो ही विकास सार्थक होगा।
@ रंजना
ReplyDeleteइतने सुन्दर गेय ढंग से पहाड़े, सुभाषित आदि बालमन में उतारना निश्चय ही किसी उत्तम शिक्षा पद्धति की देन रही होगी। अब जब बच्चे जा जा कर पहाड़े याद करते हैं तो सुनकर हमें भारीपन लगने लगता है, उन कोमलमना बच्चों का क्या हाल होता होगा। थक हारकर बच्चे कैलकुलेटर उठा लेते हैं।
सुन्दर पोस्ट!
ReplyDeleteस्वरूप भले जाये लेकिन अनुराग जैसे लोग हमेशा थे, हैं और रहेंगे।
सुन्दर पोस्ट!
ReplyDeleteस्वरूप भले जाये लेकिन अनुराग जैसे लोग हमेशा थे, हैं और रहेंगे।
रोचक अंदाज़ में गहरी बात कह दी है आपने .. आज कितने ही अनुराग खो गये हैं आधुनिक युग में ... पर ये भी तो परिवर्तन का नियम ही है .... विज्ञान आगे बढ़ेगा तो पुराना तो छूट ही जायगा .... भावना प्रधान लेख है आपका .....
ReplyDelete@ अनूप शुक्ल
ReplyDeleteभगवान करे देश के अनुराग बने रहें।
@ दिगम्बर नासवा
जीवन को तो अपना बचपन फिर भी याद आयेगा।