28.8.10

21 दिवसीय महाभारत

21 दिन पहले मानसिक ढलान को ठहरा देने का वचन किया था, स्वयं से। वह वचन भी नित दिये जाने वाले प्रवचनों की तरह ही प्रभावहीन निकल गया होता यदि उसमें रॉबिन शर्मा की 21 दिवसीय सुधारात्मक अवधि का उल्लेख न होता। जिस समय 21 दिन वाले नियम का उल्लेख कर रहा था, खटका उसी समय लगा था कि कहीं अपनी गर्दन टाँग रहा हूँ। पहली टिप्पणी से ही पोस्ट का फँसात्मक पहलू उभर उभर कर सामने नाचने लगा। सायं होते होते पूरी तरह से लगने लगा कि प्रवीणजी आप नप चुके हैं, अब या तो 21 दिन बाद अपने वचन पालन न करने का क्षोभ सह लें या परिश्रम कर ससम्मान निकल लें। ब्लॉगजगत तो इसे भूल न पायेगा और पोस्ट तो लिखनी ही पड़ेगी। झूठ बोलना हो नहीं पायेगा क्योंकि वह आने वाली पोस्टों के हर शब्द को कचोटता रहेगा। निश्चय किया कि एक सार्थक प्रयास तो किया ही जा सकता है।

लगभग तीन वर्ष पहले जब रॉबिन शर्मा को पढ़ना प्रारम्भ किया था, उनकी सरल शैली व प्रभावी संदेश-सम्प्रेषण पर मुग्ध था। भारतीय संस्कृति के आधार पर विश्व के प्रखरतम साहित्य को कहानी का रूप प्रदान कर प्रस्तुत कर सकना कोई सरल कार्य नहीं। उनके नायकों के द्वारा शीर्ष पर पहुँचकर भी आध्यात्मिक निर्वात का अनुभव पुस्तकों को प्रथम पृष्ठ से ही रुचिकर बना देता है। युद्धक्षेत्र की जैसी स्थितियों में ज्ञान देने की प्रथा हमारी संस्कृति में पुरानी है। ऐसा ज्ञान समझ में भी बहुत आता है क्योंकि सुख में तो ज्ञान पाने का समय किसी के पास होता ही नहीं है।

उनकी सारी पुस्तकें पढ़ डालीं, विशुद्ध ज्ञान के रूप में। शरीर को तनिक भी पीड़ा देने की बात पर पृष्ठ पलटते पलटते स्वयं के ऊपर एक ऋण सा लगने लगा था। जब 21 दिन पहले स्वयं को घिरा पाया तो रॉबिन शर्मा के ऋण को अपने कर्म से उतारने का भार मेरे निश्चय को गुरुतर बना गया।

रणभेरियाँ बज चुकी थीं। मेरा रण द्वापरयुगीन महाभारत से 3 दिन अधिक का था। न सारथी कृष्ण, न धर्मराज युधिष्ठिर और न ही मेरा अर्जुन समान प्रशिक्षण। सम्मुख क्रूरतम शत्रु, मेरा मन। गीता के दो श्लोकों में इस शत्रु के बारे में जानकर कुछ और विश्लेषण करना शेष नहीं रह गया था। उपाय एक ही था, अभ्यास। हर कार्य उत्साह से करने का अभ्यास, हर कार्य नियमित करने का अभ्यास।

इस अवधि में नियमित शारीरिक श्रम किया। बैडमिन्टन कोर्ट में प्रकाश पादुकोन जैसा खेल न दिखा पाने की झुँझलाहट में मैकनरो जैसा स्वयं पर किया गया क्रोध मेरी आयु भले ही न कम कर पाया हो पर 21 दिनों में मेरे खेल के स्तर को उत्तरोत्तर बढ़ाता गया। बच्चों को अधिकाधिक समय देने से दिल तो सच में बच्चा जैसा अनुभव करने लगा। बिल्लियाँ और कुत्ते मेरे बदलाव से प्रसन्न होने के भाव अपनी मुद्राओं से व्यक्त करने में सक्षम दिखे। तीन फिल्में देखीं और एक पुस्तक पढ़ी। कार्यालय में प्रकल्पों को गति दी और दोनों बच्चों के विद्यालय गया अभिभावक बैठकों में भाग लेने।

दो घटनायें जो मानसिक ढलान को रोक देने की प्रक्रिया में अग्रणी रहीं, मात्र भाग्यवश ही इस अवधि में टकरा गयीं। पहली थी फूलों की प्रदर्शनी जिसमें सपरिवार जाकर मन प्रफुल्लित हो उठा और उनके सौन्दर्य व भाव सम्प्रेषण में कई दिनों तक अटका रहा। मन को सार्थक रूप से उलझा देने से उसके ऋणात्मक पहलू का उभरना कम होने लगता है और वह आपके आनन्द में मगन रहता है। दूसरी थी स्टेज पर जाकर तीन गाने गाने की घटना। वे गाने थे, फूलों के रंग से, ओ हंसिनी और किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार। गाना भले ही इंडियन आईडियल की तरह न गाया हो पर गाया पूरे मन से।

निर्णय कर लिया था कि एक एक दिन पूरा जीना है उत्साह के साथ। और जिया भी।

विजयोत्सव मनाने का समय नहीं है पर इतना आत्मविश्वास अवश्य आ गया है कि मानसिक ढलान पूर्णतया रोका जा सकता है।

धन्यवाद, खूँटी पर टाँगने वाले ब्लॉगर-शुभचिन्तकों को और रॉबिन भाई को।

जय हो। 

52 comments:

  1. निर्णय कर लिया था कि एक एक दिन पूरा जीना है उत्साह के साथ। और जिया भी। ... इतना आत्मविश्वास अवश्य आ गया है कि मानसिक ढलान पूर्णतया रोका जा सकता है।
    बहुत खुशी की बात है, यह जज्बा बना रहना चाहिए!

    ReplyDelete
  2. गानों का विडिओ नहीं तो कम से कम ऑडियो सैम्पल चाहिए. कब पोस्ट होगी?

    ReplyDelete
  3. वाह ! आपने तो मानसिक ढलान पर काबू भी पा लिया और हम वहां सिर्फ टिप्पणी कर उसे भूल भी गए आज दुबारा जाना पड़ा उस पोस्ट पर अपनी टिप्पणी देखने |

    ReplyDelete
  4. रोबिन शर्मा जी की पुस्तकें तो नहीं पढ़ी है ...मगर अहा जिंदगी और लक्ष्य में इनके लेख पढ़े है ...
    सकारात्मक जीवन की और प्रोत्साहित करती और नया उमंग उत्साह जगाती है उनकी रचनाएँ ..
    फूल , संगीत , पुस्तकें, बच्चे की मुस्कान ...जो भी इनके पास है , कभी तनहा उदास रह नहीं सकता ...और यदि हो तो ज्यादा देर नहीं ...जो इनका आनंद नहीं लेते , इनसे प्रफ्फुलित नहीं हो सकते , उनका जीवन व्यर्थ है ..!

    बहुत अच्छी पोस्ट ...!

    ReplyDelete
  5. बड़ी अच्छी आँखें खोलने वाली पोस्ट रही...
    मन को प्रसन्न रखना इतना आसान नहीं फिर भी यह मंत्र मेरे मन में बरसों पहले से था की अगर मैं प्रसन्न चित्त रहना सीख लूं तो मेरे पर आश्रित मेरे अपने प्यारे खुश रह पायेंगे और उन्हें मैं हंसा पाने में समर्थ रहूँगा ! शायद यही कारन था कि कष्टों को मानस पटल से पोंछना सीख गया !
    अब सिर्फ हँसता हूँ और मन से हँसता हूँ !

    ReplyDelete
  6. प्रेरक लेख, पुस्तकें तो हम सब पढ़ते रहते हैं लेकिन इनको जीवन में उतारकर ही इनका सही लाभ उठाया जा सकता है। आप ऐसा कर पाये, आप बधाई के पात्र हैं।

    ReplyDelete
  7. बहुत अच्छा आलेख...... सकारात्मक और प्रेरक पोस्ट ...!

    ReplyDelete
  8. विजयोत्सव मनाने का समय नहीं है पर इतना आत्मविश्वास अवश्य आ गया है कि मानसिक ढलान पूर्णतया रोका जा सकता है ....

    बहुत बढ़िया विचारणीय प्रस्तुति ....

    ReplyDelete
  9. निर्णय कर लिया था कि एक एक दिन पूरा जीना है उत्साह के साथ। और जिया भी।

    विजयोत्सव मनाने का समय नहीं है पर इतना आत्मविश्वास अवश्य आ गया है कि मानसिक ढलान पूर्णतया रोका जा सकता है।

    यही सोच जीवन को आनंद मयी रखती है ...गाने आपने एक से बढ़ कर एक चुने ..
    प्रेरणादायक पोस्ट ...

    ReplyDelete
  10. बहुत ही सुंदर रचना, धन्यवाद

    ReplyDelete
  11. मानसिक ढलान के विरूद्ध फूल और संगीत ही नहीं; बहुत सी और भी बातें हो सकती हैं मसलन एक छोटी सी मुस्कुराहट, हवा का झोंका भर, आंखे बंद कर अंदर झांक लेना, ज़मीन पर बिछ जाना..निढाल, आसमान को दिल भर कर देख लेना....और भी न जाने क्या क्या..

    ReplyDelete
  12. निर्णय कर लिया था कि एक एक दिन पूरा जीना है उत्साह के साथ। और जिया भी

    काश हम सब ये छोटा सा लेकिन महत्वपूर्ण काम करने लगें तो ज़िन्दगी में बहार आ जाये...आनंदित हुए आपकी पोस्ट पढ़ कर...
    नीरज

    ReplyDelete
  13. निर्णय कर लिया था कि एक एक दिन पूरा जीना है उत्साह के साथ। और जिया भी। विजयोत्सव मनाने का समय नहीं है पर इतना आत्मविश्वास अवश्य आ गया है कि मानसिक ढलान पूर्णतया रोका जा सकता है।

    ये आपने बहुत अच्छा किया और इसमें कायम रहना चाहिये, बच्चों के साथ बिताये पल हमेशा साथ रहते हैं और ताउम्र ताजगी भरे रहते हैं।

    - तरूण

    ReplyDelete
  14. .
    .
    .
    प्रवीण जी,

    शारीरिक ढलान को तो रोका नहीं जा सकता... हर बीतते दिन अपने अंत की ओर बढ़ रहा होता है शरीर... परंतु मानसिक ढलान 'मन' में ही है मेरे विचार से...हर वक्त मन में यदि यह चल रहा हो कि उम्र के साथ साथ मानसिक शक्तियाँ भी ढलान पर हैं... तो ढलान वाकई हो जाती है... परंतु यदि 'ढलान के तथाकथित प्रमाणों' को यदि सहज भाव से लिया जाये... तो मानसिक तौर पर बीतते समय के साथ और पुष्ट होते जाते हैं आप... हाँ कुछ सीमायें तो बांधती ही है उम्र... कोई नई चीज आप कम उम्र के बच्चे सी जल्दी आत्मसात नहीं कर पाते...परंतु जो पुरानी चीजें आप सीखे हुऐ हैं...उनके नये-नये आयाम खोलता रहता है दिमाग, बढ़ती उम्र के साथ-साथ... शायद 'अनुभव' इसी को कहते हैं...

    निर्णय कर लिया था कि एक एक दिन पूरा जीना है उत्साह के साथ। और जिया भी।

    इस तरह के 'निर्णय' भी एक तरह की Target oriented Approach हैं... बच्चे की तरह जीयें... जो चिन्ता नहीं करता कि कैसे जीया आज...उत्साह था कि नहीं...कोई कृत्रिमता नहीं... रात सोते समय बीते दिन का कोई बोझ नहीं साथ में और आने वाले दिन से न कोई विशेष आशा, न उसका डर... ठहर जाती है मानसिक ढलान!


    आभार!


    ...

    ReplyDelete
  15. जितना साध पाए हैं उसके लिए बधाई.
    जितना अभी शेष है उसके लिए शुभकामनाएं.
    रॉबिन की कुछ किताबें पढी हैं. पहले कई लेखकों की पढीं, कालांतर में उनसे मोहभंग हुआ. फाइव स्टार होटलों में बिजनेस एक्जीक्यूटिव को खुद पर यकीन करके गलाकाट चूहा दौड़ में सबसे आगे रहने की सीख देनेवालों ने तो अपनी लाइफ बना ही ली.
    अपना तो प्रयास यही है कि मन, वचन, और कर्म से यथासंभव शुद्ध रहने का प्रयास करें. शरीर को भी इस लायक रखने की कोशिश करते हैं कि असहायता का सामना न करना पड़े. आगे ऊपरवाले की मर्जी:)

    ReplyDelete
  16. बहुत बढ़िया जीवन को जीवंत करता आलेख |

    ReplyDelete
  17. जीवन के प्रति इतना प्रेम!
    प्रभावित हुआ आर्य!

    ReplyDelete
  18. इतना आत्मविश्वास अवश्य आ गया है कि मानसिक ढलान पूर्णतया रोका जा सकता है।
    बना रहे यह आत्मविश्वास और आप हर दिन खुश रहें, मुसकुरायें, गुनगुनायें ।

    ReplyDelete
  19. बढ़िया है!

    ReplyDelete
  20. आपकी पोस्ट रविवार २९ -०८ -२०१० को चर्चा मंच पर है ....वहाँ आपका स्वागत है ..

    http://charchamanch.blogspot.com/
    .

    ReplyDelete
  21. aapke likhe hue ko padhte hue jo baat sabse pahle mann me uthi dekha to bhaai abhishhek ojha ji ne use pahle hi apne comment me likh diyaa hai, chaliye ek se bhale do saheb, to bataiye jab sunwa rahe hain apne gaaye hue gaane... apan hi nai kai log wait kar rele hain naa....dhyaan rahe....

    ReplyDelete
  22. गीत -संगीत ,फूल और बच्चे --- ...हर रोज जीती हूँ इसी तरह ...कहो तो किसी की मुस्कराहटो का प्लेयर लगा दिया जाए ....और बाकी कब सुनवा रहे है--दोनों ...

    ReplyDelete
  23. @ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
    अब तो यह प्रवाह बना रहेगा। लाभ जो दिखने प्रारम्भ हो गये हैं। 37 ही बना रहेगा।

    @ अभिषेक ओझा
    बहुत शीघ्र ही।
    हर दिल जो प्यार करेगा
    वो गाना गायेगा।

    @ Ratan Singh Shekhawat
    टिप्पणियों का ही संबल था कि मैं 21 दिवसीय महाभारत से बाहर आ पाया।

    @ वाणी गीत
    मन में आनन्द की उमंग हो तो प्रकृति के सारे अवयव उस आनन्द में अपना सहयोग देते हुये प्रतीत होते हैं।

    @ सतीश सक्सेना
    बहुत सच कारण ढूढ़ा है आपने। स्वयं दुखी रह कर कितना कष्ट प्रवाहित कर देते हैं अग्रज। आप प्रसन्न रहेंगे तो सब प्रसन्न रहेंगे। पीड़ा तो सबके घर आती ही है।

    ReplyDelete
  24. @ मो सम कौन ?
    कुछ पढ़ना और उसे जीवन में गढ़ना दो अलग बातें हैं। गढ़ने में अनुभव का होना आवश्यक है और यह प्रक्रिया बहुत धीरे बढ़ती है। पढ़ता मैं फिर भी रहता हूँ।

    @ डॉ. मोनिका शर्मा
    सकारात्मकता ही मानसिक ढलान बचा सकती है।

    @ महेन्द्र मिश्र
    विजयोत्सव एक प्रकार अवरोध हो जाता, स्थापित प्रवाह में।

    @ संगीता स्वरुप ( गीत )
    जीवन जब महाभारतीय स्थिति में हो, दिन से परे सोचने का समय ही नहीं होता है हमारे पास।

    @ राज भाटिय़ा
    बहुत धन्यवाद आपका।

    ReplyDelete
  25. @ काजल कुमार Kajal Kumar
    आप जैसी कवि-हृदयता लाने के लिये प्रयासरत हूँ। आँखें बन्द कर सोचा है, ढलान रुक जाता है।

    @ नीरज गोस्वामी
    एक एक दिन पूरा जी लेने के बाद सोने के पहले कोई ग्लानि नहीं रहती है, जीवन के प्रति।

    @ निठल्ला
    बच्चों के साथ रहने से घर का माहौल ऊर्जान्वित हो जाता है।

    @ प्रवीण शाह
    सच कहा आपने। यदि स्वयं पर कृत्रिमता का आवरण ओढ़ जीना चाहेंगे तो सहजता नहीं आयेगी। बच्चों के जैसे उत्श्रंखल व निश्छल जीना होगा।

    @ निशांत मिश्र - Nishant Mishra
    स्वयं की शुद्धता स्वयं को आनन्द देती है। गलाकाट दौड़ में तो आगे निकलने वालों का भी अन्ततः गला कटता ही है।

    ReplyDelete
  26. @ शोभना चौरे
    बहुत धन्यवाद। आप तो जानती ही हैं कि बंगलोर की मदिर जलवायु में शरीर पर कठोरता बड़ा ही कठिन कार्य है।

    @ गिरिजेश राव
    आपके प्रेम-स्मरणों का ही प्रभाव है आर्य। आप अपनी जब समाप्त करेंगे, हम अपनी प्रारम्भ करेंगे। पाठकों को एक ही समय दो नदियों में डुबाने का जघन्य अपराध मुझसे तो न होगा।

    @ Mrs. Asha Joglekar
    सच है, जीना इसी का नाम है।

    @ Shah Nawaz
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @ संगीता स्वरुप ( गीत )
    बहुत धन्यवाद यह सम्मान देने के लिये।

    ReplyDelete
  27. @ Sanjeet Tripathi
    अब तो हम भी दबाव में आ गये हैं। बहुत जल्दी।

    @ Archana
    अभी मत लगाइये। हम स्वयं ही लगा देंगे, बहुत ही शीघ्र।

    ReplyDelete
  28. कभी नीरज जी ने कहा था ‘उम्र की ढलान का उतार देखते रहे..’ और अब मानसिक ढलान का :)

    ReplyDelete
  29. तो इक्कीस दिनों में पूरा कर लिया...आपने अपना टार्गेट...बधाई हो..
    और अब आपको कोई एक्स्ट्रा कोशिश नहीं करनी पड़ेगी...शरीर को ऐसी आदत पड़ जाती है कि मन चाहे जितना भी आना-कानी करे...शरीर उसे धकेल कर बैडमिन्टन कोर्ट तक ले ही जायेगा.
    अब तो मानसिक ढलान क्या..चढ़ान शुरू हो गयी है...स्टेज पर गाने भी गा लिए...क्या बात है...:)

    ReplyDelete
  30. लंबे अंतराल के बाद ब्लाग दुनियां में लौटा तो लगा ब्लागंगा में बहुत पानी बह गया. सुंदर पोस्ट.

    ReplyDelete
  31. विजय उत्सव फिर कभी मना लीजिए :-)

    आपका लेख बहुत सकारात्मक है !

    ReplyDelete
  32. लगता है राबिन शर्मा पर अटूट विश्वास हो गया है.कहीं हिमालय जा कर शिवाना के साधुओं को तलाशने का विचार तो नहीं ? क्या आप मानने लगे हैं कि किसी अभ्यास को आदत में बदलने के लिए २१ दिन पर्याप्त हैं ? मैंने प्रयोग तो नहीं किया लेकिन मुझे राबिन शर्मा के २१ दिवसीय अभ्यास के बदले गीता का निरंतर अभ्यास अधिक तर्क संगत लगा.

    ReplyDelete
  33. अच्छी प्रस्तुति.

    ReplyDelete
  34. आत्म विश्वास आ जाने पर हर बाधा आसान लगने लगती है ... फिर चाहे ये आत्म विश्वास किसी पुस्तक या किसी घटना से आया हो ... आपका अनुभव बहुत अच्छा लगा ...

    ReplyDelete
  35. निर्णय कर लिया था कि एक एक दिन पूरा जीना है उत्साह के साथ। और जिया भी। ...बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...बधाई.
    ____________________
    'पाखी की दुनिया' में अब सी-प्लेन में घूमने की तैयारी...

    ReplyDelete
  36. अब क्या कहूँ....? देख लिया आपने इस नालायक को.... आपकी पोस्ट मैं देख ही नहीं पाया.... अबसे यह नालायकी नहीं होगी.... मैंने फौलो कर लिया है आपको....

    सॉरी

    एक्स्ट्रीमली सॉरी फोर लेट कमिंग...

    ReplyDelete
  37. @ cmpershad
    अभी तो गुबार उड़ाने की आयु है। ढलान का उतार तो चढ़ने के पहले ही ढल गया।

    @ rashmi ravija
    21 दिनों तक निर्मम होकर शरीर को अनुशासन में रखने का प्रयास किया है। अब उतना कठिन न हो संभवतः।

    @ पंकज
    समय निकालने के कुछ उपाय हमें भी सुझाये जायें।

    @ Coral
    छोटी छोटी उपलब्धियों को उत्सव सा मनाने को भी कहते हैं, रॉबिन शर्मा।

    @ hem pandey
    शिवाना को पता तो आप से ही लेंगे। गीता की सततता में पहला पड़ाव 21 दिन का हुआ, मेरे लिये।

    ReplyDelete
  38. @ सत्यप्रकाश पाण्डेय
    बहुत धन्यवाद आपका।

    @ दिगम्बर नासवा
    सच है। आत्मविश्वास आने से हल्के लगने लगते हैं सारे बोझ।

    @ Akshita (Pakhi)
    आप भी तो हर दिन आनन्द से जी रही हैं, पाखी जी।

    @ महफूज़ अली
    व्यस्तता व पंगे न लेने के लिये ललकारने से समय मिल ही जायेगा, शीघ्र ही।

    @ ज्योति सिंह
    बहुत धन्यवाद आपका।

    ReplyDelete
  39. रोबिन शर्मा जी की पुस्तकें अब तो पढनी ही पड़ेंगीं...सुन्दर प्रस्तुति.
    __________________
    'शब्द सृजन की ओर' में 'साहित्य की अनुपम दीप शिखा : अमृता प्रीतम" (आज जन्म-तिथि पर)

    ReplyDelete
  40. सबसे पहले आभार ...प्रेरक अचंभित कर देने वाली आपकी पोस्ट सचमुच अच्छा लगा पढ़कर. पढ़ रही थी आपको ''की कुछ गढ़ने के लिए अनुभव का होना जरूरी है ..एक बात सुख हर कोई नहीं बाँट सकता-- एक दिन पूरा जीना अपने लिए हो या दूसरों के लिए ,कौन सोच भी पाता है आगे आपने गानों का जिक्र किया सच ही तो है संगीत आत्मा का सुख ही तो है ..शुक्रिया, बधाई

    ReplyDelete
  41. ऐसी पुस्तकों के अंश हमारी नज़र भी कराये.

    ReplyDelete
  42. @ KK Yadava
    पहली पुस्तक "The monk who sold his Ferrari" से करिये।

    @ Vidhu
    पढ़ कर, गढ़ कर और अनुभव कर ही विचार जिया जाता है।

    @ अनामिका की सदायें ......
    निश्चय ही पुस्तकों के बारे में चर्चा की जायेगी।

    ReplyDelete
  43. चलो बढ़िया ...चारों और उत्साह और सकारात्मक प्रवाह दिखाई दे रहा है और क्या चाहिए !!

    ReplyDelete
  44. बस कुछ शब्द -लेबेल्स....
    बहुआयामी प्रवीण व्यक्तित्व प्रगटन मानसिक ढलान रोक

    ReplyDelete
  45. paani ke ek ghoont ki maanind poori rachna ek sath pee gaya...par pyaas aur lag gayee...aapki lekhan-shaily mantra-mugdh kar dene vaali hai...jai ho !

    ReplyDelete
  46. विजयोत्सव?
    उत्सव मनाने का उत्स बना रहे, तो ही रुकेगी और रुकी रहेगी ढलान। उत्साह से, इसी उत्स से तो सम्बन्ध है उत्सव का।
    और विजय स्वयं पर, दूसरा है कौन?

    ReplyDelete
  47. @ राम त्यागी
    माहौल सकारात्मक रहा है, भाग्य हमेशा इतना मेहरबान नहीं रहता है।

    @ Arvind Mishra
    कई जगह मन लगा देने से समय की याद नहीं रहती है और वह रुका हुआ सा लगता है।

    ReplyDelete
  48. @ संतोष त्रिवेदी ♣ SANTOSH TRIVEDI
    आपने हमारे 21 दिन के परिश्रम को एक घूँट में पी लिया। पता नहीं इसको अपना सौभाग्य समझूँ या और अच्छा लिखने की चुनौती।
    लगता है कि ब्लॉग लेखन में भी कोई 21 दिवसीय कार्यक्रम चलाना पड़ेगा अपनी गुणवत्ता बढ़ाने के लिये।

    ReplyDelete
  49. @ Himanshu Mohan
    विजय स्वयं पर स्वयं की, उत्सव स्वयं का स्वयं से।सारे क्रेडिट व डेबिट स्वयं से ही करने हैं अतः विजयोत्सव को बाद में मनाया जायेगा।

    ReplyDelete
  50. एक ही घूँट से पीने का आशय आपके परिश्रम को आंकना नहीं था,वरन सब-कुछ इतना सीध-सपाट था कि किसी 'अगर-मगर' के लिए समय नहीं था...रचना बहुमूल्य है.

    ReplyDelete
  51. @ संतोष त्रिवेदी ♣ SANTOSH TRIVEDI
    तब तो उत्साह बना रहेगा।

    ReplyDelete