खिलौने बतिया रहे हैं कि अब उन्हें उतना प्यार नहीं मिलता है जितना पहले मिलता था। बच्चा महोदय अब बड़े हो गये हैं और उनकी प्राथमिकतायें बदल गयी हैं। चलो भाग चलते हैं। कहाँ? किसी ऐसे स्थान पर जहाँ पर ढेर सारे बच्चे हों । कहाँ? डे केयर सेन्टर। विरोध के स्वर दबा दिये जाते हैं और सब किसी तरह वहाँ पहुँच जाते हैं। बुरे बर्ताव से मोह भंग होता है और सब वापस आ जाते हैं। बच्चा महोदय भी भावुक हो एक नन्ही प्यारी बिटिया को सारे खिलौने दे जाते हैं। सुखान्त।
बच्चे मल्टीप्लेक्स के बाहर निकले तो प्रसन्न थे। उन्हें अपने खिलौनों की वेदना फिल्म देखकर ही समझ में आयी। लोहा गरम था तो हमने भी पुराने खिलौनों को किसी गरीब बच्चे को दिलवाने की बात मनवा ली। 3-D में फिल्म का आनन्द दूना हो गया था और रही सही कसर पॉपकार्न आदि स्नैक्स ने पूरी कर दी थी। स्टीव जाब्स निर्मित पिक्सार की तकनीक ने कार्टून चरित्रों को भावजनित जीवन्तता दे दी थी।
खिलौने तो मानवीय ढंग से बतियाये और मनोरंजन कर के चले गये पर अपनी खिलौनीय वेदना का मानवीय पक्ष हमारे हृदय में उड़ेल गये। छोटी छोटी बातों में हिल जाने की और बड़ी घटनाओं में अजगरवत पड़े रहने की हमारी विधा से लोग त्रस्त हों, उसके पहले हम सब ब्लॉग में उड़ेल कर सामान्य हो लेते हैं।
खिलौने क्यों, हम सबकी यही स्थिति है। भाव वही हैं, सन्दर्भ बदल जाते हैं। जिन्हें हम अपना समझने लगते हैं, वही हमारा मूल्य नहीं जानते। जिन पर प्यार की आशायें पल्लवित थीं, उनकी प्राथमिकतायें बदल गयी हैं।
और गहरे उतरें इस वेदना में। दिन में कितनी बार आप को लगता है कि जो आपकी योग्यता है और जो आप कर सकने में सक्षम हैं, उसका एक चौथाई भी आप नहीं कर पा रहे हैं। इतने कम में ही संतुष्ट हो जाना पड़ रहा है, हर बार, लगातार, कारण ज्ञात नहीं पर।
मैं खिलौना बन जाता हूँ और देखता हूँ कि शेष सब सिकुड़ कर बच्चा महोदय बन गये हैं। कभी सब के सब चाहते थे आपको, आपकी उपयोगिता थी। सब छोड़ देने को जी चाहता है, दूसरा विश्व अच्छा दिखने लगता है, डे केयर सेन्टर की भाँति। नयापन, अपने स्वभाव से अलग, बस नया सब कुछ। जीवन सब कुछ बदल लेने का हठ पकड़ लेता है, जो भी मिले।
क्या, मैं विद्रोही या तुम सब प्रेमहीन?
क्या, मैं विद्रोही या तुम सब प्रेमहीन?
बदलाव भाता नहीं है पर। नये लोग भी मर्म नहीं समझते हैं। उनकी आशायें आपको निचोड़ने लगती हैं, जीवन रस से।
आप भागते हो, प्रश्न पूछते हो अपने मालिक से, असली मालिक, ईश्वर से। कोई उत्तर नहीं।
अन्ततः स्वयं को समझाने की समझ अवतरित हो जाती है, ज्ञानीजन जिसे बुद्धि कहते हैं।
प्रेम का विश्वास जीवित?
हर समय ये नेत्र रह रह ढूढ़ते जिनको।
इस जगत को वेदना उपहार देकर,
काल को सब निर्दयी अधिकार देकर,
क्षीर सागर में कहीं विश्रामरत हैं वो।
क्षीर सागर में अभी विश्रामरत हैं वो।
काल को सब निर्दयी अधिकार देकर,
क्षीर सागर में कहीं विश्रामरत हैं वो।
क्षीर सागर में अभी विश्रामरत हैं वो।
दिल तो यही करता है कि खिलौनामय दुनिया में समाहित हो जाएँ...और बच्चा पार्टी बन जाएँ...
ReplyDeleteहाँ ...हम भी हमेशा सोचते तो रहते हैं कि क्या-क्या नहीं कर सकते हैं .... लेकिन काहे नहीं कर पाते .. ई तो अब क्या बताएं..
खैर..बचवन से खिलौना कम भाग्यशालियों को दे देने की बात मनवा लेना...बहुत अच्छा लगा..
बाकि तो ...और लोग अईबे करेंगे तारीफ करने...हाँ नहीं तो...!!
@ छोटी छोटी बातों में हिल जाने की और बड़ी घटनाओं में अजगरवत पड़े रहने की हमारी विधा से लोग त्रस्त हों, उसके पहले हम सब ब्लॉग में उड़ेल कर सामान्य हो लेते हैं।
ReplyDelete--- सही कहा ... हुजूर , उड़िल गया ...
कविता में अभिप्रेत बैकुंठानंद सबको मिले !
सच्चाई से लिखी गयी रचना को नमन सुंदर अतिसुन्दर बधाई
ReplyDeleteगहरे उद्वेलित ,संवेदित करती एक यादगार रचना ,जीवन की सबसे बड़ी पीड़ा है रिजेक्शन -वह भी अपनों द्वारा -यही एंगिल बड़ी शिद्दत से उभरता है यहाँ -खिलौनों और बच्चों की बात अक्सर बड़ों पर भी चरितार्थ हो जाती है -
ReplyDeleteकविता का सम्पुट एक जोरदार सिनर्जी दे गया है ....
जिन पर प्यार की आशायें पल्लवित थीं, उनकी प्राथमिकतायें बदल गयी हैं।
ReplyDelete-बहुत सही..अध्यात्मिक पोस्ट है एक दर्शन लिए हुए.
कविता के भाव-विवश कर रहे हैं फिर फिर विचारें.
बहुत उम्दा!!
इतनी 'दार्शनिक' फिल्म तो नहीं है. यानी आप हैं !
ReplyDeleteबेचारे खिलौने..
ReplyDeleteखिलौनों को प्यार भी बहुत मिलता है.. और जल्दी ही बोर भी हो जाते है..
सारे खिलौने मत बाँट दीजियेगा , इन दोनों के मनपसंद खिलौने सहेज कर रखियेगा ...जब यह वयस्क होंगे उस समय इन्हें वे खिलौने बहुत भाते हैं पूरे जीवन की यादगार के रूप में यह हमेशा अपने साथ रखना चाहेंगे !
ReplyDelete@ जिन्हें हम अपना समझने लगते हैं, वही हमारा मूल्य नहीं जानते। जिन पर प्यार की आशायें पल्लवित थीं, उनकी प्राथमिकतायें बदल गयी हैं।
ReplyDeleteऔर गहरे उतरें इस वेदना में। दिन में कितनी बार आप को लगता है कि जो आपकी योग्यता है और जो आप कर सकने में सक्षम हैं, उसका एक चौथाई भी आप नहीं कर पा रहे हैं। इतने कम में ही संतुष्ट हो जाना पड़ रहा है, हर बार, लगातार, कारण ज्ञात नहीं पर।
ये खिलौनों की वेदना है या इंसानों की...
हाँ ...कई बार जीवित इंसान भी निर्जीव खिलौनों जैसे ही तो हो जाते हैं ...वे जिसे अपना मान बैठे वही उन्हें खिलौना समझ ले ...
बच्चों द्वारा खिलौने गरीबों को दिलवा कर अच्छी पहल की है आपने ...
दिल तक उतर गयी आज की प्रविष्टि ...
ांअपका आलेख पढ कर हम भी दार्शनिया गये--- अपने मिट्टी के खिलौने याद कर के--- हाँ वो फिल्म बचपन की बहुत अच्छी थी--- शायद आपने भी देखी है मगर आज के बच्चों को तो मिट्टी के खिलौने नसीब ही नहीं। बहुत अच्छी लगी पोस्ट। शुभकामनायें
ReplyDeleteबेहतरीन आलेख. कुछ पल हमने अपने बचपन में भी झाँक लिया. आभार.
ReplyDeleteदर्शन शास्त्र हमारे बस की बात नहीं है | खिलौनों की दुनिया अब बदल चुकी है सब जगह अब तकनीक और आधुनिकता ,दिखावे का बोलबाला है |
ReplyDeleteबेहतरीन लिखा आपने...अच्छा लगा यहाँ आकर.
ReplyDelete_________________________
अब ''बाल-दुनिया'' पर भी बच्चों की बातें, बच्चों के बनाये चित्र और रचनाएँ, उनके ब्लॉगों की बातें , बाल-मन को सहेजती बड़ों की रचनाएँ और भी बहुत कुछ....आपकी भी रचनाओं का स्वागत है.
'खिलोनों के बहाने जीवन दर्शन' -अच्छा लगा.
ReplyDeleteखिलौनों के बहाने बड़ी अध्यात्मिक बात कह गए...
ReplyDeleteबहुत सुंदर बात कही आप ने, हमारे बच्चो ने तो जब बडे हुये तो उम्र के हिसाब से अपने पुराने खिलोने बेच दिये थे, फ़ेंकने से अच्छा इन्हे किसी के हाथ मै दे दे... ओर युही हर साल करते रहे, लेकिन उन के दो चार खिलोने हम ने आज भी बहुत सम्भाल कर रखे है, जिन्हे वो बहुत प्यार करते थे, ओर आज भी उन्हे बहुत प्यार करते है, हां आज खेलते नही उन से से, लेकिन सजा कर रखे है अपने अपने कमरे मै... ओर वो खिलोने अनमोल है
ReplyDelete@..दिन में कितनी बार आप को लगता है कि जो आपकी योग्यता है और जो आप कर सकने में सक्षम हैं, उसका एक चौथाई भी आप नहीं कर पा रहे हैं। ....
ReplyDeleteIt's true ! It happens ! It is happening with most of us .
reason?
Because it is destined this way. At times, time is limited, at times our resources, at times cooperation from kith n kins.
Our limitations !
Still , the life moves on to end one day.
Beautifully portrayed the pain of toys. Life on fast track doesn't allow kids to be in love with toys for long. They are growing with a speed faster than our imagination.
With the advent of technology , children love being on net, watching movies and discovering facts of life.
I have sympathy for toys but i am loving the changes in our children.
खिलौनों की दुनिया भी रोमांचक होती है। मेरा बेटा जब टॉय स्टोरी देखता है, तो मैं भी उस रोमांच में खो सा जाता हूँ।
ReplyDelete................
पॉल बाबा का रहस्य।
आपकी प्रोफाइल कमेंट खा रही है?.
दिल में उतर गए कुछ वाक्यांश.
ReplyDeleteखिलौनों और बच्चों के माध्यम से कितनी बड़ी-बड़ी बातें कह गए आप...
ReplyDeleteस्टोरी तो आपकी शानदार है लेकिन एक बात कहनी है और वह यह कि बाजार की मांग के अनुसार निकलने वाले खिलौनों ने बच्चों की मानसिक दशा का कबाड़ा कर रखा है.
ReplyDeleteकभी-कभी सोचता हूं कि इस देश में लाखों बच्चे ऐसे होंगे जो ठीक ढंग से दो जून का भोजन नहीं खा पाते हैं वे बेचारे खिलौने कहां से खेलेंगे.
आपकी रचना ने मुझे सोच में डाल दिया है.
खिलोनो की व्यथा ,
ReplyDeleteईश्वर की कथा ,
पुराने खिलोने बाँटने की प्रथा
सिखा ही देगी जीवन जीने की कला
यही संसार है जो असार है । सबकी अपनी अपनी सीमित उपयोगिता है जो समय विशेष तक है । अपने आप को भावनाओं में न उलझायें सब में रह कर भी अलिप्त रहने की कोशिश ही हमें इस से मुक्ति दे सकती है ।
ReplyDeleteलेख सुंदर है और सामयिक भी ।
@ 'अदा'
ReplyDeleteकभी खिलौने खेलने का मन करता है, कभी बनने का। पर हजारों ख्वाहिशें ऐसी...
@ अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
महाराज विश्राम कर रहे हैं। लगता है कि बैकुंठानन्द बैठकर विश्राम करने में ही है।
@ Sunil Kumar
हमारी आकांक्षाओं और क्षमताओं का सही मूल्य न मिल पाना ही एक कड़वी सच्चाई है आजकल।
@ Arvind Mishra
जीवन की यही पीड़ा हमारे उत्साह को बाँध देती है अन्मयस्कता से।
@ Udan Tashtari
कभी ईश्वर सा लगता है,
कभी लगता खिलौने सा,
न जानूँ किस कृपा से,
विरोधी जीवन बना ऐसा।
@ अभिषेक ओझा
ReplyDeleteअगर पूरा रमकर देखा जाये तो मुस्कराहटें भी दार्शनिक लगेंगी।
@ रंजन
जीवन के दोनों रंग एक ही पैकेज में आते हैं।
@ सतीश सक्सेना
कुछ तो यादों को सहेजने के लिये सहेजे जायेंगे।
@ वाणी गीत
जब लोग खिलौना समझने लगें तो वह वेदना भी आ जाती है।
@ निर्मला कपिला
मिट्टी के खिलौने अच्छे थे जो छोड़ दिये जाने के पहले ही टूट जाते थे। उन्हें दुख भी संभवतः कम होता हो।
@ P.N. Subramanian
ReplyDeleteदेखिये आपके बचपन की यात्रा हो गयी और टिकट भी नहीं लगा।
@ नरेश सिह राठौड़
खिलौने भी अपने अधिकार जान गये हैं।
@ बाल-दुनिया
हम तो दुनिया में बच्चे ही बने रहे। अच्छी छनेगी आप से।
@ hem pandey
दर्शन खिलौनों के और शिलौनों में दर्शन।
@ rashmi ravija
आद्यात्मिक बात खिलौना ही कहेगा क्योंकि उस पर बीती है।
@ राज भाटिय़ा
ReplyDeleteदो चार सहेजे हुये खिलौने ही यादों के भण्डार खोल देंगे।
@ Divya
कभी कभी यह टीस इतनी गहरी उठती है कि जीवन के सुखों में भी कड़ुवाहट दिखने लगती है।
@ ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
पिछले दोनों भाग भी इतने ही रोचक थे।
@ अनामिका की सदाये......
खिलौनों की वेदना को समझ पाना किसी भावुक के बस का ही है।
@ mukti
बच्चे कभी कभी सहज भाव से गूढ़ बात कह जाते हैं।
@ राजकुमार सोनी
ReplyDeleteमेरा बचपन भी मिट्टी के खिलौने के बाहर नहीं गया और अभी भी वही उपाय है।
मेले गायब हो रहे हैं, मेले से खिलौने गायब हो रहे हैं और खिलौने बनाने
वाले गायब हो रहे हैं। पुराने खिलौने आगे बढ़ाने से कुछ तो बोझ कम होगा।
@ शोभना चौरे
सच है, कुछ सीख सकें हम।
@ Mrs. Asha Joglekar
सच है, भाव सुलझाने के लिये हों, न कि उलझाने के लिये।
मुझे तो खिलौने बहुत प्यारे लगते हैं...
ReplyDeleteक़ैसर-उल-जाफ़री का शे'र याद आ गया -
ReplyDeleteघर लौट के रोएँगे, माँ-बाप अकेले में
मिट्टी के खिलौने भी सस्ते न थे मेले में
बाक़ी तो जो है - सो खैर हइयै है!
प्रशंसनीय मानवीकरण ।
ReplyDeleteखिलौनों को लेकर उठे उहापोह के बीच मानवीय पहलू पर बढिया चिंतन।
ReplyDeleteवैसे मुझे अब वो लकड़ी के लाल-गुलाबी रंगों में रंगे खिलौने बहुत याद आते हैं जो कहीं लकडी के पहिया लगे घोड़ा - हाथी के रूप में मिलते थे। अब तो वह कहीं देखने भी नहीं मिलते।
वैसे इस तरह के लकडी वाले खिलौने खादी या ग्रामोद्योग प्रदर्शनी में कही कहीं दिख जाते हैं लेकिन उनमे मुझे वह बात नहीं नजर आती जो पहले आती थी। इलाहाबाद स्टेशन पर पहुँचते ही दो-मुँहा स्प्रिंग वाला टिक टिक वाला लकडी का खिलौना सुनाई पड़ता था....। अब तो बच्चे भी उस टिक टिक स्प्रिंग वाले खिलौने को शायद नहीं खरीदते तभी अब इलाहाबाद का लकडी खिलौने वाला वहां नहीं दिखता।
आप की रचना 16 जुलाई के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपने सुझाव देकर हमें प्रोत्साहित करें.
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका
आप सच मे बहुत भावुक इन्सान है... बहुत सुन्दर लगा पढना और जो भी ’दर्शन’ आपने समझाने की कोशिश की वो सब समझ आया... :)
ReplyDeleteखिलौने क्यों, हम सबकी यही स्थिति है। भाव वही हैं, सन्दर्भ बदल जाते हैं। जिन्हें हम अपना समझने लगते हैं, वही हमारा मूल्य नहीं जानते। जिन पर प्यार की आशायें पल्लवित थीं, उनकी प्राथमिकतायें बदल गयी हैं
ReplyDeleteजीवन की सच्चाई बताती आपकी यह पोस्ट बहुत कुछ कह गयी...
खिलौने क्यों, हम सबकी यही स्थिति है। भाव वही हैं, सन्दर्भ बदल जाते हैं। जिन्हें हम अपना समझने लगते हैं, वही हमारा मूल्य नहीं जानते। जिन पर प्यार की आशायें पल्लवित थीं, उनकी प्राथमिकतायें बदल गयी हैं
ReplyDeleteजीवन की सच्चाई बताती आपकी यह पोस्ट बहुत कुछ कह गयी...
टॉय स्टोरी -३ से जोड़कर बहुत ही बढ़िया बातों वाली पोस्ट...आप इतने सारे एंगल से बातों को कैसे देख लेते हैं?
ReplyDeleteसही कहा है आपने ... खिलोनो का संसार सिमिटा जा रहा है .... बच्चे अब बच्चे न हो कर छोटी सी उमे में किशोर हो जाते हैं ... और खिलोने उन बच्चों के लिए भी बच्चों के साथ खेलने वाली चीज़ बन जाते हैं ... पता नही आने वाला समय क्या दिखाएगा ....
ReplyDelete@ Akshita (Pakhi)
ReplyDeleteप्यारे प्यारे खिलौनों का दर्द भी खींचता है।
@ Himanshu Mohan
मिट्टी के खिलौने की आयु अधिक नहीं होते से छोड़े जाने की वेदना भी अधिक नहीं। आधुनिक खिलौनों की आयु भी अधिक और वेदना भी।
@ अरुणेश मिश्र
और साथ में मानवों का खिलौनीकरण भी।
@ सतीश पंचम
बचपन तो लकड़ी और मिट्टी के खिलौनों में ही बीता। मेलों में लिया करते थे। अभी भी मेलों में वही खिलौनों को ढूढ़ता हूँ, मिलते नहीं।
@ अनामिका की सदाये......
आपकी चर्चा का रंग देखकर आनन्द आ गया।
@ Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय)
ReplyDeleteजीवन तो अब तक बीता यूँ,
दो व्यक्तित्वों में जीता हूँ ।
एक रहे उत्श्रंखल,
दूजे से नीरवता पीता हूँ ।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
अपने को कह पाना यदि सरल होता तो औरों को समझ पाने में भी कठिनता नहीं होती।
@ Shiv
भावों और प्रभावों में बिचरने की कला तो आपके पात्रों से ही सीखी।
@ दिगम्बर नासवा
बच्चों के तेज सीखने की गति देखकर बहुधा लगता है कि कहीं बचपन तेजी से तो नहीं बीता जा रहा है। आपके अवलोकन से सहमत।
khilaunon ki vedna saath hi bachchon ki vedna bhi hai ....khilauna dena aat hai...prabhawit karti panktiya
ReplyDeleterachna achchi lagi......
ReplyDeleteअब तो हम भी बस बच्चों वाली फिल्म ही देखते है , बच्चे कुछ और देखने दें तब न ....चलो इस स्वप्नमयी दुनिया में कुछ देर तो खुश रहते हैं :)
ReplyDelete@ रश्मि प्रभा...
ReplyDeleteमाँ के बाद बच्चों की प्रथम भावनात्मक अभिव्यक्ति खिलौनों के प्रति ही होती है। वह निश्छल प्यार पाने वाले खिलौने जब त्यक्तमना होते हैं तो उनकी पीड़ा अनुभव सी होती है।
@ Harsh
बहुत धन्यवाद।
@ राम त्यागी
हमें भी बच्चों की फिल्में बहुत भाती हैं।
मुझे अपना वाह "रेलगाड़ी" अभी भी बहुत याद आता है.. मैं उस वक्त शायद तीन-चार साल का रहा होऊंगा.
ReplyDelete@ PD
ReplyDeleteवह रेलगाड़ी अब मेरे पास आ गयी है, वह भी आपको याद करती है।
बढ़िया है खिलौना कथा। मेरे ऑफिस के ऊपर डॉल म्यूजियम है, किसी दिन जाकर पूछता हूं खिलौनों का दुख-दर्द।
ReplyDelete@ satyendra...
ReplyDeleteकभी कुछ बतायें खिलौने तो हमें भी बताईयेगा। हमारे खिलौने तो रूठ कर बैठे हैं।
बेहतरीन आलेख. कुछ पल हमने अपने बचपन में भी झाँक लिया. आभार.....
ReplyDeleteमुझे आपका ब्लोग बहुत अच्छा लगा ! आप बहुत ही सुन्दर लिखते है !
ReplyDelete@ संजय भास्कर
ReplyDeleteमैं तो जितनी बार बचपन में घूमकर आया हूँ, अपने साथ उत्साह, निश्छलता और आनन्द लेकर वापस लौटा हूँ।
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल आज 24-- 11 - 2011 को यहाँ भी है
ReplyDelete...नयी पुरानी हलचल में आज ..बिहारी समझ बैठा है क्या ?
खिलोनों को आधार बनाकर सार्थक चिंतन...
ReplyDeleteसादर...
उपयोगी चिन्तन !
ReplyDeleteजैसे-जैसे समझदारी विकसित होती है प्राथमिकतायें बदलने लगती हैं.जीवन का ढर्रा !
आप भागते हो, प्रश्न पूछते हो अपने मालिक से, असली मालिक, ईश्वर से। कोई उत्तर नहीं।
ReplyDeleteअन्ततः स्वयं को समझाने की समझ अवतरित हो जाती है, ज्ञानीजन जिसे बुद्धि कहते हैं।
बुद्धि योग जीवन में घटित हो तो जीवन
सफल ही हो जाये.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
खिलैनों के बहाने गहरी बात कही है !
ReplyDeleteखिलोने क्यों,हम सबकी यही स्थिति है-----
ReplyDeleteजिन्हें हम अपना समझते हैं,वही हमारा मूल्य नहीम जानते.
सही कहा,वक्त के हाथों हम खिलौने हे हैम,अपेक्षाएं मूल्यहीन हो रहीं हैं.