कुम्हार को क्या पड़ी है, हाथ गन्दा करने की? क्या पड़ी है बार बार ध्यान दे देकर अपना समय व्यर्थ करने की? क्या पड़ी है बर्तन के साथ स्वयं तपने की? क्यों उलझ गये मेरे लोंदीय अस्तित्व से? मुझे पड़ा रहने देते, मैं जैसा था। कह देते कि यह मिट्टी किसी योग्य नहीं है। कह देते कि इसमें सुपात्र तो क्या, पात्र बनने की भी योग्यता नहीं है। कह देते कि व्यक्तित्व के अनियमित उभार यूँ ही वक्र रहेंगे और खटकते रहेंगे समाज की दृष्टि में। न भी घ्यान देते तो भी उनकी जीविका चल रही थी और चलती रहती, मैं पड़ा रहता मिट्टी के ढेर में एक और लोंदे सा।
यह मेरा प्रारब्ध था या उनका स्वभाव। मेरी लालसा थी सीखने की या उनकी उत्कण्ठा अधिकाधिक बताने की। तथ्यों पर मेरी ध्यान न देने की प्रवृत्ति पर उनकी ध्यान दिलाने की आवृत्ति अधिक भारी पड़ी। हठ मेरा न सुधरने का या विश्वास उनका कि यह सुधरकर रहेगा। मैं टोंका जाता गया, मेरा विरोध, अनमनापन, आलस्य बार बार टोंका गया। जब समझने योग्य बुद्धि हुयी तब कहीं मेरे कुम्हारों को जाकर विश्वास हुआ कि अब यह योग्य है और तब ही मुझे छोड़ दिया गया समाज में अपना अनुभव-घट स्वतः भरने के लिये।
उनकी याद मुझे दर्पण में अपनी आँखें देखकर ही आ जाती है। आँखों की गहराई में बस गया स्थायी इतिहास सहसा बात करने लगता है। एक एक तथ्य बोलते हुये निकल कर सामने आने लगते हैं।
बचपन मेरा और 'बुढ्ढे मास्साब' की वृद्धावस्था। मेरी चंचलता पर उनका धैर्य भारी पड़ा। कुम्हार जाति के थे, संभवतः तभी उनको आता था कि इस लोंदे को कैसे गढ़ना है, धैर्यपूर्वक। हाथ में कलम पकड़ाकर एक एक अक्षर लिखना सिखाया। आज जब कोई महत्वपूर्ण निर्णय लिखता हूँ फाइलों पर तो मुझे मेरे बुढ्ढे मास्साब का हाथ अपने हाथों में धरा प्रतीत होता है।
विद्यालय में आया तो अध्यापकों का हर माह घर आना याद आता है। पूरे माह इस दिन की प्रतीक्षा यह जानने के लिये करता था कि कहीं अनजाने में कोई भूल तो नहीं हो गयी।
कानपुर पढ़ने छात्रावास में आया तो एक अध्यापक मिले, मराठी। बाहर से बड़ी सी डरावनी दाढ़ी और अन्दर से उतना ही मृदुल हृदय। अनुशासनप्रिय। छात्रावास में रहने के बाद भी क्या हिम्मत कि बिना पूछे बाहर जाकर चाट खा आयें। बहुत दिनों तक अखरता रहा यह अनुशासन पर अब वही एक संचित कोष लगता है उन क्षणों का जिसमें मेधा ने विकास की अँगड़ाई ली।
कई अध्यापक जो समाज के सभी भागों का प्रतिनिधित्व करते थे, निस्वार्थ भाव से मेरे ज्ञानकोष में अपने अनुभव का अंबार उड़ेल कर चले गये, बार बार समझा कर, बार बार डाँट कर, इस पात्र को आकार दे गये।
गढ़े जाने का क्रम बना रहा, समाज ने जितना सिखाया, उतना सीखता रहा, सबसे सीखा। संभवतः आज की राजनीति का प्रभाव न था मेरे ऊपर, संभवतः सारे भेद ज्ञान से निम्न जान पड़ते थे मुझे। कई राज्यों के ऋण हैं मेरे ऊपर मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखण्ड, बिहार, उत्तरप्रदेश और अब कर्नाटक। हर संस्कृति ने व्यक्तित्व में कुछ न कुछ जोड़ा ही है।
मुझे अपनी आँखों में जाति, भाषा, राज्य और धर्म से परे कुम्हारों की श्रंखलायें दिखायी पड़ती हैं। अब कोई मुझसे किसी एक का पक्ष लेने की मानसिकता सिखाये तो मैं अपने कुम्हारों को क्या उत्तर दूँगा? कैसे उनकी आकांक्षायें अपने बर्तन से हटाऊँगा? हटाने से मेरे व्यक्तित्व में वह छेद हो जायेगा जिससे मेरा अस्तित्व ही बह जायेगा, इन संकीर्ण नालियों में।
भावनात्मक, रुचिकर ,सीखयोग्य, मर्मस्पर्शी, फिर से धमाकेदार लेख !!
ReplyDeleteहम सब ढाले गए हैं इन कुम्हारों के द्वारा नहीं तो कहीं पड़े होते मिटटी बनकर आज.
आपकी लेखनी कि उत्कृष्टता ने आज हम सबके भावों को उकेरा हैं ...हम जिनके रिणी हैं उनको ना भूलें अगर ऐसे ही लेख पड़ते रहे !
हर शब्द से संस्कार और सच्चाई झलक रही है प्रवीण जी !!
ये शब्दों का प्रवाह जारी रहे, यही गंगा है , इस नदिया में गोते लगाकर में सुबह की ओस कि बूंदों को निहार लूं !!
एक ईमारत के बनने में कितनी वस्तुएं लगती हैं और कहाँ कहाँ से जोड़कर कैसे कड़ी होती है. एक बुलंद ईमारत में कितने योगदान होते हैं ये दिख रहा है. (उदहारण के रूप में ईमारत पता नहीं कहाँ से याद आ गयी).
ReplyDeleteहर जगह बिखरा पडा था ,
ReplyDeleteमै था एक माटी का लौंदा,
ले न पाता रूप कोई,
मुझको था धर्म,जाति,क्षेत्रियता ने रौंदा,
मिले कुम्हार जीवन में मुझको,
देख जिन्हें मेरा मन कौंधा,
श्रद्धानवत हूँ उनके आगे,
बना जिनसे मेरा घरौंदा.........
बहुत शानदार लेखन रहा..विचारणीय.
ReplyDeleteयह पोस्ट तो मैं कॉपी पेस्ट करके रख रहा हूँ बिना आपसे पूछे.
एक अच्छी रचना जो दिल को छू गयी बहुत बहुत बधाई
ReplyDeleteलेखनी से विनम्रता और कृतज्ञता का जो यह मंजर प्रस्तुत किया है आपने उसका कोई सानी नहईं है। एक दोहा याद आ गय।
ReplyDeleteगुरु कुम्हार सिख कुंभ है, गढ़ि- गढ़ि काढय खोट।
अन्तर हाथ-सहार दय, बाहर- बाहर चोट॥
अर्थात सद्गुरु अपनी कृपा से सर्वथा तुच्छ और तिरस्कारपात्र व्यक्ति को भी आदर का पात्र बना देते हैं, जिस प्रकार कुम्हार घड़ा बनाते समय बांया हाथ घड़े के पेट में लगाए रहता है और दाएं हाथ से थापी पीट-पीट कर उसे सुडौल-सुघड़ गढ डालता है, ठीक उसी प्रकार गुरु करता है।
गुरुओं को नमन!
आखिर यह कृतज्ञता आप में क्यूं न हो भला ? आज का तो युग जैसे कृतघ्नता का ही युग है -आपकी यह संस्मरणात्मक पोस्ट आपकी सहज हृदयता को सामने ला देती है -इसे एक धारावाहिक रू दे न ! एक पोस्ट में मत समेटें !
ReplyDeleteप्रशंसा, प्रशंसा,प्रशंसा
ReplyDeleteऔर क्या लिखूँ?
निम्नमध्यम वर्गीय जीवन जीते लेकिन ऊँचे सपने लिए 'इंसान' गढ़ते क़स्बे के आचार्य और मास्साब लोग बहुत याद आते हैं। कुछ दिवंगत हो गए और कुछ अभी भी उसी तरह से लगे हुए हैं।
उन्हें नमन।
..मुझे अपनी आँखों में जाति, भाषा, राज्य और धर्म से परे कुम्हारों की श्रंखलायें दिखायी पड़ती हैं। अब कोई मुझसे किसी एक का पक्ष लेने की मानसिकता सिखाये तो मैं अपने कुम्हारों को क्या उत्तर दूँगा?..
ReplyDelete...यही कृतज्ञता का भाव व्यक्ति को उर्जावान और साहसी बनाता है. आपका इस पोस्ट ने मुझे भी अपने जीवन में आए कुम्हारों का सहज ही स्मरण करा दिया.
..आभार.
सही समय पर सही गुरुओं का सानिध्य ही उत्कृष्ट व्यक्तित्वों की रचना करता है ...
ReplyDeleteआजकल के गुरुओं के प्रति भी क्या ऐसी ही श्रद्धा प्रकट की जा सकती है ...
गिने -चुने ही ऐसे गुरु मिलेंगे ...
संग्रहणीय प्रविष्टि ..!
ब्लागजगत के उत्कृष्ट लेखों में से एक लेख .....शुभकामनायें आपकी सोच को प्रवीण जी..
ReplyDeleteआत्मीय पोस्ट , गुरु के प्रति कृतज्ञता आपको गोविन्द के पास होने का आभास कराती है.
ReplyDeleteवो बड़ी बड़ी डरावनी दाढ़ी वाले आचार्य दीपक जी , पंडित दीनदयाल उपाध्याय सनातन धर्म विद्यालय से लेकर IIT कानपुर तक हर जगह सम्मान पूर्वक याद किये जाते है. अपने शिष्यों के प्रति उनकी पितृ तुल्य भावना नमनीय है.
पढ़कर हम तो ठगे ही रह गये कि हमारे कितने कुम्हार होते हैं और हमने कभी इन ऋणों के बारे में जाना भी नहीं। और वही व्यक्ति सफ़ल और बड़े ह्रुदय वाला होता है जो कि अपने सफ़ल होने में हर व्यक्ति के योगदान को याद रखता है।
ReplyDeleteआपके द्वारा अपने भी कुम्हारो का चेहरा तरोताज़ा हो गया . उनका ठोकना पीटना भी याद है और अपने माता पिता का उन्ही का साथ देना .
ReplyDelete...उनकी याद मुझे दर्पण में अपनी आँखें देखकर ही आ जाती है। आँखों की गहराई में बस गया स्थायी इतिहास सहसा बात करने लगता है। एक एक तथ्य बोलते हुये निकल कर सामने आने लगते हैं।...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर !
मैं भी इस मामले में बहुत भाग्यशाली रही कि मुझे भी बहुत अच्छे गुरुजन मिले और उतने सावधानी से पालन-पोषण करने वाले माँ-बाप.
अरविंद जी का कहना सही है. यह पोस्ट आपकी सहजता का दर्पण है. अनेक स्थानों का प्रवास भी इंसान को सहिष्णु बना देता है.
लालित्यपूर्ण उत्कृष्ट लेखन के लिए साधुवाद. उन कुम्हारों को नमन.
ReplyDeleteकुम्हार अत्म्संतुस्ती तक जा कर बर्तन का आकार देता है.....शायद आपके गुरु भी आपको देखें तो आत्मसंतुष्टि मिले....सहजता से गहरी बात कही है....
ReplyDeleteआज कल न कुम्हार ऐसे हैं और न ही मिट्टी....आज कल मिट्टी को ठोक - ठाक कर सही आकार भी नहीं दिया जा सकता ...इसीलिए ये मिट्टी के लोंदे अपने मनचाहा आकार ले लेते हैं ....आपकी यह कृतज्ञता प्रेरक प्रसंग है
बडा ही प्रेरक प्रसंग है………………सच ज़िन्दगी की भाग दौड मे इंसान उन्हे ही भूल जाता है जिनसे उसने ये मुकाम हासिल किया होता है………………बेहद प्रशंसनीय्।
ReplyDeleteवाकई कोई जवाब नहीं...
ReplyDeleteमास्साब को कितने अच्छे ढंग से याद किया .... मुझे कुम्हार की मिट्टी का सांचे में गढ़ना अच्छा लगा
ReplyDelete@ राम त्यागी
ReplyDeleteफोन पर दिये उत्साहवर्धन को पचा नहीं पाया था कि पुनः आपने एक और खेप सौंप दी। पता नहीं, जितना हमें मिल पाया है, उसका शतांश भी हम लोगों को वापस दे पायेंगे। कितना कुछ तो अहैतुकी ही मिल जाता है समाज से, औपचारिक शिक्षा से कई गुना अधिक। जब तक स्वयं को संतुष्ट कर रह पाऊँगा, प्रवाह वना रहेगा। यदि अवरुद्ध हुआ तो पुनः उठूँगा, यदि अशक्त हुआ तो अगली पीढ़ी को सब सौंप जाऊँगा।
@ अभिषेक ओझा
सच कह रहे हैं, ईमारत की भव्यता के अन्दर मजबूती तो उसके निर्माताओं की दी हुयी है।
@ Archana
बड़ी सुन्दर कविता रच दी आपने इस भाव पर। आभार।
@ Udan Tashtari
आप कॉपी कर के रख लें। हर बार आपके घर आकर ले जाऊँगा।
@ Sunil Kumar
कुम्हारों का योगदान, उनकी मेहनत समाप्त होने के कई वर्षों बाद समझ में आता है।
@ मनोज कुमार
ReplyDeleteगुरु कुम्हार सिख कुंभ है, गढ़ि- गढ़ि काढय खोट।
अन्तर हाथ-सहार दय, बाहर- बाहर चोट॥
संभवतः इन पंक्तियों में इस सम्बन्ध का सार छिपा है।
@ Arvind Mishra
स्वाध्याय से बहुत कुछ सीखा जा सकता है पर स्वाध्याय कर सकने तक के स्तर तक पहुँचाने को कार्य हमारे शिक्षक ही करते हैं। कृतज्ञता किसी को स्वीकार्य हो या न हो, वह तो सदैव ही रहेगी। धारावाहिक बनाने में और अश्रु बह जायेंगे मेरे।
@ गिरिजेश राव
औरों के कन्धे पर पैर रखकर ऊपर पहुँचने का उपक्रम अशान्ति ही लाता है। जो ज्ञान है और जितनी क्षमता है, उतना समाज को देकर एक सहज प्रवाह बनाया जा सकता है उन्नयन का। सभी गुरुजनों को नमन।
@ बेचैन आत्मा
ऋण को तो कृतज्ञता व्यक्त कर ही समझा जा सकता है। चुकाने का कार्य तभी होगा जब किसी तक वह ज्ञान उसी निष्ठा से पहुँचायें, जैसा हमें प्राप्त हुआ था।
@ वाणी गीत
अच्छे गुरुओं का मिलना मैं प्ररब्ध मानता हूँ। सबसे बड़ा दुर्भाग्य है उनको पहचान न पाना।
@ सतीश सक्सेना
ReplyDeleteयह कह आपने मुझे धरा में और अन्दर समा दिया। स्वयं से भी नज़र मिलाने में अकुलाहट होने लगी अब।
@ ashish
कभी कभी यही देख कर लगता है कि यह हमारी ही कृतघ्नता है कि हम समाज को उतना प्रेम नहीं कर पाते हैं, जितना उसने किया।
@ Vivek Rastogi
पता नहीं कितने दधीचियों का उपकार तो व्यक्त ही नहीं कर पाया छोटी सी पोस्ट में।
@ dhiru singh {धीरू सिंह}
हाँ माता पिता भी कभी कभी लगता था कि जानबूझ कर पाला बदल लेते थे। अब कारण समझ में आता है कि जहाँ पर कुम्हार ठोंकता है वहाँ से हाथ हटा लेता है।
@ mukti
आपका यह भाग्य सदैव आपके साथ ही रहेगा। अधिक लोगों के सम्पर्क में आने से जीवन का चिंतन और विस्तीर्ण हो जाता है।
@ P.N. Subramanian
ReplyDeleteआपका आशीर्वाद उत्साह और प्रवाह बनाये रखेगा मेरे चिन्तन में।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
उनकी आत्मसंतुष्टि ही हमारी उत्कृष्टता की नींव बन कर स्थापित है।
@ वन्दना
जिनकी दृष्टि में आपका भविष्य आपसे अधिक महत्व लिये रहा हो, उन्हें भविष्य में यदि हम याद न करें, यह तो कृतघ्नता की पराकाष्ठा होगी।
@ Akanksha~आकांक्षा
बहुत धन्यवाद आपका।
@ रश्मि प्रभा...
मास्साब ने केवल मुझे ही नहीं पढ़ाया अपितु दोनों भाई बहनों को भी पढ़ाया। उनकी भी यादें इतनी ही भावपूर्ण हैं।
हम सब को भी तो इन ही कुमहारो ने अलग अलग रुप मै संवारा है, मां बाप के रुप मै गुरु के रुप मै, ओर जिन को जेसे जेसे कुमहार मिले वो वेसे ही ढलते गये.... बहुत ही सुंदर लेख धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत ही बढिया लेखन ...बढिया पोस्ट। एक विचारणीय पोस्ट।
ReplyDeleteक्या बढ़िया पोस्ट.
ReplyDeleteअपने गुरु-जनों को याद करना और खुद के व्यक्तित्व के विकास में उनकी भूमिका की बात करना दर्शाता है कि आप न केवल संवेदनशील हैं बल्कि सफल भी हैं. शायद संवेदनशीलता का सफलता के साथ वाली बात अजीब लगे लेकिन मुझे यह बहुत भाती है. हम अपने दुःख न बाँट पाएं तो कोई बात नहीं लेकिन अगर हमें अपने सुख और संतुष्टि को बांटने का मौका न मिले तो बहुत तकलीफ होती है. सौभाग्य से यह बात आपके लिए लागू नहीं होती. कारण एक ही है, आप किसी को नहीं भूले. लिख कर ही सही
उनसे अपनी सफलता शेयर कर लेते हैं.
प्रवीण जी,
ReplyDeleteऐसा नहीं कि हमें कभी अपने इन उपकारियों के प्रति कृतज्ञता नहसूस नहीं हुई, लेकिन जितनी गंभीरता से और अच्छे तरीके से आपने अपने विचार व्यक्त किये हैं, सात जन्म में भी अपने से नहीं हो सकता।
सही में आपके सुसंकृत संस्कार आपके लेख के माध्यम से झलक रहे हैं।
सार्थक लेखन इसे ही कहते हैं।
आभार स्वीकार करें।
कैसे उनकी आकांक्षायें अपने बर्तन से हटाऊँगा? हटाने से मेरे व्यक्तित्व में वह छेद हो जायेगा जिससे मेरा अस्तित्व ही बह जायेगा, इन संकीर्ण नालियों में।
ReplyDeleteवाह वाह...प्रशंसा के लिए शब्द नहीं मेरे पास. बस प्रणाम ही स्वीकार कीजिये.
प्रवीण भाई... एक बात कहूँगा अंग्रेज़ी में... यू आर ए वैरी गुड स्कल्प्टर.... मैं सही बता रहा हूँ... मुझे इंटेलेक्चुयल लोग पसंद हैं.... और आपकी ... इंटेलेक्चुयलटी का मैं कायल हो चुका हूँ... पता है आपको ... इंटेलेक्चुयलटी... एक ऐसी क्वालिटी है... जो शक्ल और राईटिंग से ही झलक जाती है... ए फेस इस दी इंडेक्स ऑफ़ माइंड... तो जितना इंटेलेक्चुयल आपका फेस है... उतना ही इंटेलेक्चुयल आपका पेन... आपके विचार... और एक बात और कहूँगा... पूरे ब्लॉग जगत में ... इंटेलेक्चुयलटी... मुझे अनूप शुक्ल जी के बाद सिर्फ आप में ही नज़र आई है... क्यूंकि आपकी लेखनी से आपकी नैचुरैलीटी झलकती है... कभी रोबेर्ट शुल्ज़ को पढियेगा... मुझे आप में रॉबर्ट शुल्ज़ की ही झलक दिखाई दी है... अच्छा! लास्ट पैरा में... आपने जान डाल दी... मैंने अपनी लाइफ में बहुत फिल्टरिंग की है... अब मैं बहुत चूज़ी हो गया हूँ... अपने आस-पास से सारे निगेटिव चीज़ों को हटा दिया है...मैंने... मुझे बहुत ख़ुशी है कि आप जैसा पोज़िटिव इन्सान ब्लॉग के थ्रू मेरा बहुत अच्छा दोस्त है...
ReplyDeleteहैट्स ऑफ टू यू...
नीव नहीं भूलने के लिए...नीव को याद रखने के लिए...नीव को पूजने के लिए, मेरे पास सिर्फ एक शब्द है प्रवीण जी, साधुवाद!
ReplyDeleteकाश, पूरी दुनिया में, अपना प्रकाश फैलाते 'दिए', अपने गढ़े जाने की प्रक्रिया और उन गढ़ते हाथों को याद रखें...जैसे आपने रखा.
ReplyDeleteमैं अपने समय के शिक्षक-शिक्षिकाओं के साथ अपने बच्चों के टीचर्स को भी याद कर रही थी...अनगढ़ मिटटी के लोंदे को सुन्दर आकार देते कुम्हार के हाथ हमेशा विद्यमान रहेंगे इस दुनिया में.
प्रेरक लेख ।
ReplyDeleteभावों को बहुत ही सुन्दर तरीके से ढाला है आपने शब्दों में.... बहुत खूब!
ReplyDeleteइस माटी के लोंदे को भी कुछ बना ही डाला है ऎसे कुम्हारो ने..
ReplyDeleteआपकी ये पोस्ट पढकर मेरे जीवन को बनाने वाले कितने ही कुम्हार याद आ गये... और ज़िन्दगी झट से रिवाईन्ड हो गयी..
ऎसे ही न जाने कितने ’कुम्हार’ और आयेगे.. शायद उनके बिना हम कुछ भी नही..
आप अपने साथ साथ हमको भी डुबो ले गये।
@ राज भाटिय़ा
ReplyDeleteमाता पिता तो प्रथम कुम्हार हैं, हमें ढालने वाले, संस्कारों में, मूल्यों में और अन्ततः जीवन में।
@ परमजीत सिँह बाली
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Shiv
औपचारिक शिक्षा की मात्रा तो 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होती है जीवन में। शेष सब के लिये तो किसी न किसी का योगदान है हमारे जीवन में। उन सबको याद न करना अपना 90 प्रतिशत अस्तित्व नकारना होगा।
@ मो सम कौन ?
भारतीय संस्कृति में कृतघ्नता की बहुत नीचा माना गया है, मैने तो बस उससे बचने का प्रयास किया है।
@ Saurabh
सच ही है, जब समाज के विभिन्न भागों ने हमें एक व्यक्तित्व के रूप में तैयार किया है तो हमें क्या अधिकार है उस समाज को अपने निहित स्वार्थों के लिये बाटने का।
@ महफूज़ अली
ReplyDeleteजैसे जैसे आपको पढ़ता गया, लगता गया कि मेरा मिशन स्टेटमेन्ट आपने
निर्धारित कर दिया, इस ब्लॉग जीवन के लिये। हल्के मन से सोचता हूँ कि घेर
दिया आपने।
यह बात तो निश्चय है कि यदि मूर्तिकार हूँ और प्रतिमा बन जाती है, तो यह
भी निश्चय है कि वह मूर्ति कैसी बनानी है, इसका तनिक भी आभास नहीं रहता
है मुझे। कोई चितेरा जो निकालता रहता है रंगों की फुहार, आँख वही जा
ठहरती है जहाँ पर भावनात्मक उभार होते हैं। कैसे होता है मुझे नहीं
ज्ञात, बस हो जाता है।
जिन नामों से जोड़ दिया वही अब राह के उद्देश्य बन गये हैं। आपको क्या
दूँ, धन्यवाद या इस स्थान पर खड़ा कर देने के लिये अधिनायक का ताज़।
प्रवीण जी सबसे पहले तो आपकी लेखनी को नमन जो इतने चमत्कृत शब्दों में अपनी बात कह जाती है या आपके उन कुम्हारों का आशीर्वाद है आप पर.
ReplyDeleteआपका यह लेख पढ़ कर मन उद्वेलित हुआ इस बात के लिए की हम भी अपने बच्चो के लिए अच्छे कुम्हार साबित होने की चेष्टा करें. वो जो कच्ची मिटटी हैं, जिन्हें अभी परिपक्वता का सुंदर रूप लेना है उनके सुंदर रूप के कर्णधार बन्ने का फ़र्ज़ हम इमानदारी से निभाए तो कम से कम हम खुद के जमीर को, अपने देश को सर उठा कर कह तो सकेंगे की हमने अपना फ़र्ज़ पूरी इमानदारी से निभाया.
आभारी हू आज के आप के लेख के लिए.
कुम्भ राशि का हूँ... बस इतना जानता हूँ कि जो मिला कुम्भकार मिला... जिसने हाथ लगाया देखने को, परखने को, ख़रीदने को, बेचने को, गढने को, सजाने को, सज़ा देने को... हर हाथ ने छाप ही छोड़ी है अपनी, और कुछ देकर गया. मैं तो उन कुम्भकारों का आभार भी नहीं व्यक्त कर सकता.. ऋणी हूँ. आज आपकी रचना और भाव ने अभिभूत कर दिया… और इस कुम्भ को कलश बना दिया. वंदनीय रचना!
ReplyDeleteकुम्हार हम सबको मिलते हैं...पर कभी कभी लगता है हम पूरी तरह से पहचान नहीं पाये उन्हें...
ReplyDeleteAapaki har ek rachana bahut hi sundar hoti hai. baar baar padhane ka man karata hai. Visheshkar "Mere Kumhar" baut hi sundar aur marm-sparshi hai. Yah rachana aapake andar ki bhavukata darshati hai. Aap sari baten bahut hi saralata se apani lekhani ke dwara vyakt kar dete hain.
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDelete@ Avinash Chandra
ReplyDeleteसंभवतः ईमारत को अपने नींव के बारे में याद रखना होगा।
@ rashmi ravija
यदि दियों को अपने कुम्हारों का ख्याल रहे तो उनका कष्ट न केवल कम होगा अपितु और दिये तैयार करने में उनका मन लगा रहेगा।
@ अजय कुमार
बहुत धन्यवाद
@ Shah Nawaz
आपका धन्यवाद
@ Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय)
जितनी वक्रता व जड़ता ठीक होती है, उतनी ही याद आती है उनके योगदान की।
@ अनामिका की सदायें ......
ReplyDeleteस्वयं को व्यक्त कर पाने की क्षमता भी उन कुम्हारों की देन है। अब दायित्व का पूरा कार्य हमारा है। निश्चय ही हम अपने कुम्हारों को निराश नहीं करेंगे।
@ सम्वेदना के स्वर
हर हाथ एक छाप छोड़ गये। यह हम पर भी निर्भर करता है कि उन थापों को हम किस प्रकार लेते हैं। यदि हमें अच्छा नहीं लगता है उस समय तो हमारी ही गलती है।
@ भुवनेश शर्मा
सच ही है, अपने कुम्हारों को पहचान कर स्वयं को उन्हें सौंप देना तो हमारा दायित्व बनता ही है।
@ Pooja
अपने अग्रजों व गुरुजनों के प्रति भावनात्मकता तो हमारी संस्कृति की देन है हमें, उसे नकार देना तो सदियों की संस्कृति को नकार देना होगा। हम सबके अन्दर वह कोमलता रहती है, कुछ व्यक्त कर पाते हैं कुछ नहीं।
@ हास्यफुहार
बहुत धन्यवाद आपका।
प्रवीण जी ,
ReplyDeleteआपकी कलम में सरलता ,तरलता ,गहराई और जीवन के अनुभव ,विवेचन के साथ , साझा करने की अनुपम क्षमता है .
मानना होगा कि किसी सुघड़ कुम्हार ने ही आपको तरासा है .और क्या निखार दिया है .
आपकी अगली पिछली तमाम पोस्टों को पढ़ लगता ही नहीं कि यह तरुणाई का लेखन है . यानी परिपक्वता के हिसाब से .गहरी सोच मिलती है .
को अहम् ?
इसका जबाब तो छोडिये सवाल तक खुद से अधिकतर लोग मृत्यु द्वार के सन्निकट होने पर भी नहीं कर पाते .
स्वयं की रचना में भी ऐसे ही ' कुम्हारों ' की भागीदारी नहीं शायद सर्वस्व छुपा पाता हूँ .
ऐसे ही एक कुम्हार ने जिन्दगी मोड़ दी मेरी . वर्ना शायद हाजी मस्तान , दावूद इब्राहीम जैसा कुछ छोटा बड़ा बन जाता या ख़त्म हो चुका होता पंचतत्वों में विलीन .
खैर . शायद किसी दिन वह सब लिख पाऊँ .
आपको पढना सुखद अनुभव ही नहीं खुद से भी संवाद और सवाल कराता है .
ऐसे ही लिखते रहिये .
तथास्तु !
पुनश्च : पहेली का जबाब तो मिल गया न ?
एक बेचारे कुम्हार के रोज़ी-रोटी वाले काम-धंधे से कितने मतलब निकाल लेते हैं हम भी :)
ReplyDeleteyour attitude towards teachers (Guru) is in accordance with great culture and tradition of India. One really understands the value of teachers only in the second half of life and appreciates their strictness. Otherwise,now the 'gurus' can't even scold a student on his/ her serious faults.Of course we have adopted western education system! Let's see the the indiscipline and anarchism in the society. But , of course a touching post.
ReplyDelete@ RAJ SINH
ReplyDeleteजिन्हें अपने कुम्हारों के योगदान का आकलन करना हो तो उनके लिये आपका बताया मार्ग सर्वोत्तम है। बस यही विचार कर लिया जाये कि हमारे कुम्हार नहीं होते जीवन में तो जीवन कहाँ पड़ा होता।
आप अपने अनुभव को उकेरिये, पता नहीं कौन उससे प्रेरित होने की राह तक रहा हो।
@ काजल कुमार Kajal Kumar
आपका अवलोकन बिल्कुल ठीक है पर यह लिखकर कुम्हारों की जीविका पर कोई असर नहीं डाला है संभवतः।
@ Hari Shanker Rarhi
हमारे माता पिता को गुरुओं का महत्व ज्ञात था अतः उस समय हमारी ठोका-पीटी को सृजनात्मकता से लिया गया। अब हमें उनका योगदान समझ में आ रहा है। यदि माता पिता इस तथ्य को समझते रहे तो यह क्रम बना रहेगा।
praveen ji,
ReplyDeleteabki bar aapka aalekh padh karman puraani vismritiyo me kahin kho gaya.sahi maayane me agar
nipun kumahaar ke haatho mitti ko
sahi tarah se gadha jata hai to uski
sundarta me char chand lag jaata hai.jaise ekbachche ko bachpan se hi dhang se tarasha jaaye tovah ek achcha insaan ban jaata hai.
bahut bahut prabhavi lekh.
poonam
@ JHAROKHA
ReplyDeleteबच्चों का मन बहुत ही कोमल होता है, जो भी सुनते और देखते है, ग्रहण कर लेते हैं। यही कारण होता है, उन्हें अच्छे कुम्हार गढ़ लेते हैं। जो माता पिता इस बात को समझते हैं, उस परिवार में बच्चों को अधिक समय दिया जाता है।
इस पोस्ट का एक एक शब्द प्रभावशाली है...धन्य हैं वो कुम्हार जिन्होंने इस पात्र को इतना सुन्दर रूप प्रदान किया ...
ReplyDeleteनीरज
पाण्डेय जी!
ReplyDeleteबहुत ही उत्कृष्ट पोस्ट लगाई है आपने!
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कुम्हार के बारे में तो यह कहा जाता है कि वह ब्रह्मा से भी महान होता है!
इस परिपक्व, विनम्र, युवाओं के लिए प्रेरणादायी सोच और इस प्रभावी लेखन के लिए साधुवाद. भारतीय संस्कृति का प्रतिबिम्ब है यह लेख.भारतीय संस्कृति आभार प्रकट करती है हर उस वस्तु का, जिससे हमें कुछ भी प्राप्त होता हो.चाहे वह पेड़ हों, सूरज हो, गाय हो, माता-पिता हों या गुरु हो.
ReplyDeleteआपके कुम्हार भाग्यशाली थे कि आप सा पात्र गढ़ा।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
लाजवाब आलेख पाण्डेय जी, और वैसी ही टिप्पणियाँ. बात शायद सबके दिल में थी मगर इत्नी सुन्दरता से आप ही कह सके, इसके लिये बधाई के पात्र हैं।
ReplyDeleteब्रह्मा जी ने रच दिए, अलग-अलग आकार।
ReplyDeleteकिन्तु एक ही शक्ल के, रचता पात्र कुम्हार।।
--
http://charchamanch.blogspot.com/2010/08/235.html
@ नीरज गोस्वामी
ReplyDeleteअपने कुम्हारों के प्रति तो मैं शाश्वत कृतज्ञ हूँ।
@ डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक
ब्रह्मा जी ने रच दिए, अलग-अलग आकार।
किन्तु एक ही शक्ल के, रचता पात्र कुम्हार।।
पोस्ट को निचोड़ दे दिया आपने इन दो पंक्तियों में।
चर्चा में सम्मलित करने का आभार।
@ hem pandey
मृत्यु तक सीखने की उत्कण्ठा व सिखाने वालों के प्रति कृतज्ञता का भाव भारतीय संस्कृति के सुदृढ़ तत्व हैं।
@ Mired Mirage
भाग्यशाली तो मैं हूँ जो उनके द्वारा गढ़ा गया।
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
सबके दिल की बातें संभवतः अपना रास्ता पहले खोज लेती हैं।
हर संस्कृति ने व्यक्तित्व में कुछ न कुछ जोड़ा ही है।
ReplyDeleteसंस्कृति से जुड़ जाने वाले में ही संस्कृति कुछ जोड़ पाती है.
रही बात कुम्हार की तो वह भी उपयुक्त मिट्टी को ही आकार दे पाता है. हाँ मिट्टी उपयुक्त हो तो वह पारंगत सुन्दर सलोने आकार को साकार कर देता है.
सारगर्भित आलेख
मुझे अपनी आँखों में जाति, भाषा, राज्य और धर्म से परे कुम्हारों की श्रंखलायें दिखायी पड़ती हैं। अब कोई मुझसे किसी एक का पक्ष लेने की मानसिकता सिखाये तो मैं अपने कुम्हारों को क्या उत्तर दूँगा? कैसे उनकी आकांक्षायें अपने बर्तन से हटाऊँगा? हटाने से मेरे व्यक्तित्व में वह छेद हो जायेगा जिससे मेरा अस्तित्व ही बह जायेगा, इन संकीर्ण नालियों में।
ReplyDeleteहे ईश्वर...ऐसी ही सोच और संस्कार जन जन में भर दे....
जियो...
@ M VERMA
ReplyDeleteसंस्कृतियों से न जुड़ पाने का कारण अपने आग्रहों की महत्ता सिद्ध करना मात्र है। सबको एक साथ लेकर चलने का गुण सामाजिक जीवन का आधार है अतः वह गुण तो सबमें होना ही चाहिये।
@ रंजना
हम जब भी स्वार्थ-चिंतन करते हैं, जीवन पर समाज के उपकार का अध्याय निकालते समय यह भी नहीं सोचते कि बिना सबके योगदान के हम मूर्खता के दलदल में पड़े रहते।
पोस्ट पढ़कर मन भावुक हो गया। अपने गुरुजी याद आ गये। :)
ReplyDelete@ अनूप शुक्ल
ReplyDeleteआपके गुरु जी को मेरा भी प्रणाम। जामवन्त के कहने पर भी हम हनुमान बन न जागें तो जामवन्त बूढ़े होने प्रारमेभ हो जायेंगे।
बहुत ही गहन भावों का समावेश इस प्रस्तुति में ।
ReplyDeleteजीवन और गुरु अभिन्न हैं, यह उक्ति आपकी पोस्ट पढ़कर स्पष्ट हो गयी. शिक्षक तो हर एक के जीवन में आते हैं पर उन्हें गुरु मानकर सीखने की लालसा सद शिष्य में ही होती है, जीवन सिखाता चलता है हम उस पर पानी फेरते जाते हैं यदि सजग न रहे तो... आभार!
ReplyDeleteसच्ची भावना से लिखा गया सशक्त आलेख |बहुत अच्छा लगा |गुरु के प्रति मुझे भी बहुत आस्था है ..मन से ...!!
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