अर्जुन का उद्घोष था 'न दैन्यं न पलायनम्'। पिछला जीवन यदि पाण्डवों सा बीता हो तो आपके अन्दर छिपा अर्जुन भी यही बोले संभवतः। वीर, श्रमतत्पर, शान्त, जिज्ञासु, मर्यादित अर्जुन का यह वाक्य एक जीवन की कथा है, एक जीवन का दर्शन है और भविष्य के अर्जुनों की दिशा है। यह कविता पढ़ें अपने उद्गारों की ध्वनि में और यदि हृदय अनुनादित हो तो मान लीजियेगा कि आपके अन्दर का अर्जुन जीवित है अभी। उस अर्जुन को आज का समाज पुनः महाभारत में पुकार रहा है।
मन में जग का बोझ, हृदय संकोच लिये क्यों घिरता हूँ,
राजपुत्र, अभिशाप-ग्रस्त हूँ, जंगल जंगल फिरता हूँ,
देवदत्त हुंकार भरे तो, समय शून्य हो जाता है,
गांडीव अँगड़ाई लेता, रिपुदल-बल थर्राता है,
बहुत सहा है छल प्रपंच, अब अन्यायों से लड़ने का मन,
नहीं दैन्यता और पलायन ।
निर्णय तो जितने लेने थे, धर्मराज ने ले डाले,
मैं खड़ा रहा मर्यादावश, झूमे मदत्त गज मतवाले,
द्रुपदसुता के आँसू बन कायरता मेरी छलकी है,
हृदय धधकती लगातार, वह ज्वाला दावानल सी है,
क्षमतायें अब तक वंचित है, समझो मेरे मन का क्रंदन,
नहीं दैन्यता और पलायन ।
यह कहना क्या सही, क्या नहीं, मुझको कभी न भाया है,
मेरे हिस्से जब भी आया, निर्णय का क्षण आया है,
युद्ध नहीं होने देना, मेरी न कभी अभिलाषा थी,
और कौरवों को न कभी उकसाने वाली भाषा थी,
संभावित संहारों को मैं एकटक करता रहा मनन,
नहीं दैन्यता और पलायन ।
पीड़ा सबके घर आती है, या मैं हूँ या योगेश्वर,
सबको अपना भाग मिलेगा, जी लो उसको जी भर कर,
घुटना ना कभी मुझको भाया, व्यापकता मेरी थाती है,
मन की गहराई में जा, नीरवता सहज समाती है,
दिन सी उजली मन की स्थिति, हो कैसी भी रात बियावन,
नहीं दैन्यता और पलायन ।
मैने मन के पट नहीं कभी औरों के सम्मुख खोले हैं,
सम्बन्धों को अपनाया है और वचन यथोचित बोले हैं,
पर सदैव शतरंजी चालों को समझा, उदरस्थ किया,
और सभाओं की सम्मलित विद्वत-भाषा से त्यक्त जिया,
आज खड़ा निर्णय-क्षण, निर्मम अवसादों का पूर्ण दहन,
नहीं दैन्यता और पलायन ।
नहीं दैन्यता और पलायन
ReplyDeleteसर जी, अद्भुत रचना...
नोट करके रख ली बिना आपसे पूछे!!
बहुत जबरदस्त!
सुंदर, अत्यन्त सुंदर!!
ReplyDeleteBahut hi sundar rachana hai.
ReplyDeleteजबरदस्त धमाकेदार
ReplyDeleteआपकी लेखन Quality का कोई जबाब नहीं ....
बहुत ही बढ़िया रचना ...
ह्म्म्म्म्म्म
ReplyDeleteकर लिया विचार.....बहुत अच्छी लगी >(पॉड्कास्ट बनाया है )
बहुत दिनों बाद पौराणिक चरित्र पर अच्छी कविता पढने को मिली ...
ReplyDeleteसंग्रहणीय रचना ...!
महाकाव्य के एक पात्र पर यह काव्यकृति निश्चय ही उद्बोधन से ओतप्रोत है -आज के श्रीहीन अर्जुनो जिनसे गांडीव तक नहीं उठता के बाहुओं को अवश्य प्रकम्पित कर सकेगी ....आनंदित किया कविता के रिदम ने -हाँ पॉडकास्ट का अभाव खटका !आगे से कवितायें सस्वर हों तो सिनर्जीहोगी .
ReplyDeleteशुभकामनायें इस अनूठी रचना के लिए ! बधाई आपको अर्चना जी का स्वर भी मिल गया इसे !
ReplyDeleteशुभकामनायें !
बचपन में कहीं एक बार पढ़ा था कॄष्ण का आह्वान,
ReplyDelete"आंधियां लाओ लहू में, ज्वार को पैदा करो
कंठ में क्रंदन नहीं, हुंकार को पैदा करो,
फ़िर कुरुक्षेत्री समर की भूमिका सजने लगी,
पार्थ, फ़िर गांडीव में टंकार को पैदा करो।"
आज अर्जुन का उद्घोष। ये भी कभी नहीं भूलेगा।
सर, आपके ब्लॉग का नाम पहले दिन से ही आकर्षित करता रहा है। मानसिक हलचाल पर बुधवार की आपकी पोस्ट बहुत समय से पढ़ता रहा हूं।
आज की पोस्ट ने मजबूर कर दिया है कि ऑफ़िस जाने के समय में भी इतना लंबा कमेंट करूं।
बहुत पसंद आई कविता।
आभार।
इस अदभुत रचना के लिये जितनी तारीफ करें कम है नही दैन्यता और पलायन अर्जुन का विषाद और निश्चय दोनो ही उभर कर सामने आये हैं ।
ReplyDeleteजबरजस्त बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDeleteIts awesome. Got ur blog reference frm Neelabh and it is worth reading.
ReplyDeleteसंग्रहणीय प्रस्तुति!
ReplyDeleteसुंदर, अति सुंदर!!
ReplyDelete"दिन सी उजली मन की स्थिति, हो कैसी भी रात बियावन,"
ReplyDeleteबस यही अपेक्षित है...सबलोग अपने मन का उजला पक्ष बनाए रखें...तो दुनिया कितनी ख़ूबसूरत हो जाए..
बहुत ही सुन्दर कविता
जीवन में नये जोश का संचार करती , अर्जुन के अनछुए भावो को प्रगट करती बहुत ही सुन्दर साहित्य के अलंकारो से सजी सवरी श्रेष्ठ रचना |
ReplyDeleteआपका पाठक हूँ लेकिन पहली बार टिपण्णी कर रहा हूँ , इस कविता को पढ़ कर गया टिपण्णी किया बिना खिसका नहीं गया. मुझे इन पंक्तियों को पढ़कर आदरणीय अटल बिहारी वाजपेयी की कविता याद आई .
ReplyDeleteकर्तव्य के पुनीत पथ को
हमने स्वेद से सींचा है,
कभी-कभी अपने अश्रु और—
प्राणों का अर्ध्य भी दिया है।
किन्तु, अपनी ध्येय-यात्रा में—
हम कभी रुके नहीं हैं।
किसी चुनौती के सम्मुख
कभी झुके नहीं हैं।
आज,
जब कि राष्ट्र-जीवन की
समस्त निधियाँ,
दाँव पर लगी हैं,
और,
एक घनीभूत अँधेरा—
हमारे जीवन के
सारे आलोक को
निगल लेना चाहता है;
हमें ध्येय के लिए
जीने, जूझने और
आवश्यकता पड़ने पर—
मरने के संकल्प को दोहराना है।
आग्नेय परीक्षा की
इस घड़ी में—
आइए, अर्जुन की तरह
उद्घोष करें :
‘‘न दैन्यं न पलायनम्।’’
आभार
इस जोशीली पोस्ट के लिए बधाई।
ReplyDelete………….
ये साहस के पुतले ब्लॉगर, इनको मेरा प्रणाम
शारीरिक क्षमता बढ़ाने के 14 आसान उपाय।
अद्भुत रचना... स्वनामधन्य हो गया आपका ब्लॉग!!
ReplyDeleteसुन्दर रचना, बार बार पढ़ने को मन करता है.
ReplyDelete@ Udan Tashtari
ReplyDeleteआप जैसे कविमना को भा गयी, कविता लिखना सुफल हुआ।
@ दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi
अतिशय धन्यवाद।
@ Pooja
धन्यवाद।
@ राम त्यागी
आपका तो बढ़ते रहना तो हमें प्रेरित कर गया।
@ Archana
आपके पॉडकास्ट ने तो पोस्ट को मुखरित कर दिया। अतिशय धन्यवाद।
@ वाणी गीत
ReplyDeleteपौराणिक चरित्र हमारे व्यक्तित्वों को नये आयाम दे जाते हैं चिन्तनार्थ।
@ Arvind Mishra
अर्जुन का चरित्र पढ़ने मात्र से ऊर्जा आ जाती है। आज के भी अर्जुन जागेंगे ही, और उपाय नहीं है क्योंकि शिखण्डीत्व को प्राप्त होना उन्हें पीड़जनक लगेगा।
पॉडकास्ट में शोध चल रहा है। अर्चना चावजी ने सहायता कर कृतार्थ किया है।
@ सतीश सक्सेना
अनूठी संभवतः इस लिये कि अर्जुन के इस पक्ष से कई किशोर अपनी समानता देख सकेंगे।
@ मो सम कौन ?
उत्साहवर्धन धनात्मक निष्कर्ष ही देगा। ऑफिस का समय खाने के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ।
@ Mrs. Asha Joglekar
विषाद जब अपनी तलहटी छू लेता है, तब का निश्चय न केवल सुदृढ़ होता है वरन बलशील भी होता है।
@ महेन्द्र मिश्र
ReplyDeleteमन के उत्साह को प्रतिबिम्बित कर जाता है यह शीर्षक।
@ himanshu
हिमांशु, आपको बहुत धन्यवाद। अर्जुनत्व युवा होने का अधिभार भी है, अधिकार भी है।
@ हास्यफुहार
अतिशय धन्यवाद।
@ राज भाटिय़ा
अतिशय धन्यवाद।
@ rashmi ravija
परिस्थिति का और मनस्थिति का अन्धकार मिलकर द्विगुणित हो जाता। मन का उत्साह सारा नैराश्य मिटा देता है।
@ शोभना चौरे
ReplyDeleteविषादोत्पन्न उत्साह अर्जुन का ही नहीं वरन हम सबका पक्ष भी है। क्षमतावान जब छला जाये तो दुख गहरा होता है।
@ ashish
जब मैने इस उद्घोष के बारे में ढूढ़ा तब ही अटल बिहारी बाजपेयी जी की यह अत्यन्त सुन्दर रचना पढ़ने को मिली। पता नहीं यह उद्घोष से मेरे जीवन का सम्बन्ध है तभी यह बार बार भाता है मुझे।
@ ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
बहुत धन्यवाद।
@ सम्वेदना के स्वर
ब्लॉग के नामकरण के बारे में मैं लिखना चाह रहा था तो कविता बन बह निकली।
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
मैं भी बहुत बार पढ़ चुका हूँ पर हर बार उत्साह भर जाता है।
adbhut bhaw sanyojan
ReplyDelete"निर्णय तो जितने लेने थे, धर्मराज ने ले डाले,
ReplyDeleteमैं खड़ा रहा मर्यादावश, झूमे मदत्त गज मतवाले,
द्रुपदसुता के आँसू बन कायरता मेरी छलकी है,
हृदय धधकती लगातार, वह ज्वाला दावानल सी है,"
"यह कहना क्या सही, क्या नहीं, मुझको कभी न भाया है,
मेरे हिस्से जब भी आया, निर्णय का क्षण आया है,
युद्ध नहीं होने देना, मेरी न कभी अभिलाषा थी,
और कौरवों को न कभी उकसाने वाली भाषा थी,"
नही दैन्यता और पलायन... वाह!
शाखो से टूट जाये, वो पत्ते नही है हम
आन्धियो से कह दो, जरा औकात मे रहे...
अर्चना जी को सुन रहा हूँ... पीड़ा सबके घर आती है....
ReplyDeleteसुन्दर.
गांभीर्य का परिचय। बहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteअद्भुत रचना.....ऐसा लगा की महाभारत काल से अर्जुन ही सीधा संवाद कर रहे हों....आपकी रचना पढ़ कर मुझे कुरुक्षेत्र और रश्मिरथी याद आगयीं....आपकी रचना में भी दिनकर जैसे भाव मिले....अत्यंत प्रभावशाली रचना...आभार
ReplyDeleteबहुत खुब.. अच्छा लगा..
ReplyDeleteइट ईज़ ए वन ओफ दी बेस्ट क्रियेशन रिटन एवर.... एक नया जोश भरती.... शानदार रचना....
ReplyDelete@ रश्मि प्रभा..
ReplyDeleteअर्जुन उस युद्ध का सेना नायक है जिसके होने देने या न होने देने में उसका कोई योगदान नहीं। पर निर्णय के क्षणों में विषाद उभर कर सामने आ ही जाता है भूतकाल का।
@ Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय)
देश का युवा वर्ग अन्याय की पराकाष्ठा देखता है तो अन्दर ही अन्दर अर्जुनवत उबलता है। इस उबास से नैराश्य जगे या दृढ़निश्चय, इसका निर्णय करना भी अर्जुन का चरित्र हमें सिखाता है।
@ अभिषेक ओझा
पीड़ा से भागना और भी पीड़ादायक है। खड़े होकर उसका सामना करना होगा।
@ मनोज कुमार
आभार आपका उत्साहवर्धन का।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
दिनकर की रश्मिरथी ने कविता पढ़ना सिखाया। प्रेरणास्रोत अभी भी हैं। बार बार पढ़ने से उत्साह बना रहता है।
अद्भुत है भाई. लाजवाब है.
ReplyDeleteगद्य और पद्य पर समान रूप से अधिकार ! बहुत गंभीर रचना ! हर मानव के लिए प्रासंगिक... आधुनिक जीवन किसी महाभारत से कम नहीं और हर दिन हम एअक नया युद्ध लड़ रहे हैं.. ऐसे में आपकी कविता मार्गदर्शन करती प्रतीत होती है..
ReplyDeleteगुरु पर्व पर अनेकों शुभकामनाये....
ReplyDeleteइतनी जोशीली कविता ,वाह क्या बात है |
ReplyDeleteसुंदर, अति सुंदर!!
ReplyDeleteमैने मन के पट नहीं कभी औरों के सम्मुख खोले हैं,
ReplyDeleteसम्बन्धों को अपनाया है और वचन यथोचित बोले हैं,
पर सदैव शतरंजी चालों को समझा, उदरस्थ किया,
और सभाओं की सम्मलित विद्वत-भाषा से त्यक्त जिया,
आज खड़ा निर्णय-क्षण, निर्मम अवसादों का पूर्ण दहन,
नहीं दैन्यता और पलायन ।
आपकी रचना पढ़ कर मिझे बचपन में पड़ी एक कविता ... भारत माता की लॉरी .... याद आ गयी ....
बहुत ही लाजवाब ... अप्रतिम रचना है .... मेरे द्वारा पढ़ी हुई सर्वश्रेष्ट रचना है आज की ये .... बहुत बहुत बधाई इस साक्षात रचना के लिए ...
@ रंजन
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद।
@ महफूज़ अली
आपने इतना उत्साह भर दिया है कि पाँव जमीन पर नहीं पड़ रहे हैं।
@ अमिताभ मीत
अतिशय धन्यवाद।
@ arun c roy
विषाद और निश्चय का क्रम हर मनुष्य के साथ होता है। अर्जुन का यह वाक्य बोलना प्रासंगिक है।
@ महेन्द्र मिश्र
गुरु पर्व पर आपको भी बहुत शुभकामनायें।
@ नरेश सिह राठौड़
ReplyDeleteयुद्ध के समय का उद्घोष तो जोशीला ही होगा। अर्जुन तो महान वीर था।
@ संजय भास्कर
बहुत बहुत धन्यवाद
@ दिगम्बर नासवा
यदि भारत माता की लॉरी कविता उपलब्ध हो तो हमें भी लाभान्वित करें। उत्साहवर्धन के लिये आभार।
आपकी कविता बहुत अच्छी लगी। आप जैसा व्यक्ति हिंदी ब्लॉग जगत का सदस्य है ऐसा सोच कर गौरवांन्वित महसूस करता हूँ।
ReplyDeleteधन्यवाद।
आशीष जी ने जो अटल जी की कविता पोस्ट की है वह भी बहुत सुंदर लगी।
धन्यवाद।
राकेश
हमारीवाणी का लोगो अपने ब्लाग पर लगाकर अपनी पोस्ट हमारीवाणी पर तुरंत प्रदर्शित करें
ReplyDeleteहमारीवाणी एक निश्चित समय के अंतराल पर ब्लाग की फीड के द्वारा पुरानी पोस्ट का नवीनीकरण तथा नई पोस्ट प्रदर्शित करता रहता है. परन्तु इस प्रक्रिया में कुछ समय लग सकता है. हमारीवाणी में आपका ब्लाग शामिल है तो आप स्वयं हमारीवाणी पर अपनी ब्लागपोस्ट तुरन्त प्रदर्शित कर सकते हैं.
इसके लिये आपको नीचे दिए गए लिंक पर जा कर दिया गया कोड अपने ब्लॉग पर लगाना होगा. इसके उपरांत आपके ब्लॉग पर हमारीवाणी का लोगो दिखाई देने लगेगा, जैसे ही आप लोगो पर चटका (click) लगाएंगे, वैसे ही आपके ब्लॉग की फीड हमारीवाणी पर अपडेट हो जाएगी.
कोड के लिए यंहा क्लिक करे
प्रशंसनीय ।
ReplyDeleteआइए, अर्जुन की तरह
ReplyDeleteउद्घोष करें :
‘‘न दैन्यं न पलायनम्।’’
सुबह सुबह जब नेट खोला और यह पंक्तिया पढ़ने को मिली तो लगा कि जैसे कोई मन्त्र मिल गया हो....बहुत खूब. क्या उद्घोष है...जीवन दर्शन है ये.
शब्द दूँ इतना सामर्थ्यवान नहीं पाता स्वयं को..अद्भुत का जयघोष कर दूँ और बारबार पढूं, यही उचित हो...
ReplyDeleteमंगलवार 27 जुलाई को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है .कृपया वहाँ आ कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ .... आभार
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com/
pahlee vaar aana huaa blog par aur aate hee chakka ........mythology ko le itnee sunder rachana..............
ReplyDeleteabhee tak satishjee ke bkog par comments hee padtee thee aapke.........
abhee samay hai soch baithee hoo ki aapke blog par to chapa daalna padegaa...........:) aur comments barsane padenge.........:)
ब्लॉग का नाम सार्थक करती हुँकार..!
ReplyDelete..आनंद आ गया पढ़कर.
@ rakesh ravi
ReplyDeleteमुझे ब्लॉग जगत के माध्यम से इतना सुन्दर व भावपूर्ण लिखने वालों को पढ़ने का अवसर मिल रहा है, मैं इसके लिये कृतज्ञ हूँ। हृदयानुनादित भाव यदि आपको भी भाये तो मेरी कृतज्ञता और भी बढ़ जाती है, ब्लॉगजगत के प्रति।
@ हमारीवाणी.कॉम
धन्यवाद संदेश के लिये।
@ अरुणेश मिश्र
अतिशय धन्यवाद उत्साहवर्धन का।
@ singhsdm
परिस्थितियाँ हमें दो विकल्प देती हैं, युद्धक्षेत्र में बने रहिये या पलायन कर जाईये। अर्जुन ने दिशा दी है, देश के अर्जुनों को।
@ Avinash Chandra
मेरा भी बार बार सुनने और गुनने का मन करता है। इस वाक्य में इतनी शक्ति समाहित है कि हर भर उत्हास प्लावित होने लगता है।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
ReplyDeleteभहुत धन्यवाद इस सम्मान के लिये।
@ Apanatva
आप जितनी बार यहाँ आयेंगी, निराश नहीं होंगी। आपकी अपेक्षा ही संबल बन गुणवत्ता बनाये रखेगी।
@ बेचैन आत्मा
ब्लॉग प्रारम्भ करने के बाद उस कारण को बताना चाह रहा था जिस पर यह नामकरण हुये। विचार बँधे रहे और जब बहे तब कविता बन कर।
भारत माता की लोरी ... इस पुस्तक को खोज नही पा रहा हूँ .... करीब १०-२० वर्ष पहले पढ़ी थी और इस पर नाट्य प्रस्तुति भी की थी ..... जब कभी मिल सकेगी ज़रूर अपने ब्लॉग पर डालूँगा ...
ReplyDeleteबड़ी कड़ी हिन्दी है ये तो. सारे बल निकल गए. आभार.
ReplyDeleteमनीष कृष्ण की ईमेल से
ReplyDeletewhat a lovely expression Praveenam .
Now u've made the title more clear , more than ever before .
विलक्षण...अनुपम भावनाएं, सहज शब्द, बड़ी बात !!
ReplyDeleteआज खड़ा निर्णय-क्षण, निर्मम अवसादों का पूर्ण दहन,
ReplyDeleteनहीं दैन्यता और पलायन
...Bahut khub !!
@ दिगम्बर नासवा
ReplyDeleteउस पुस्तक की आपके ब्लॉग पर प्रतीक्षा रहेगी।
@ काजल कुमार Kajal Kumar
यथासम्भव प्रयास रहा कि कठिन भावों के लिये भी भाषा सरल रहे। आगे से और सुगम रखने का प्रयास करूँगा।
@ मनीष कृष्ण
शीर्षक के लिये पोस्ट नहीं है वरन पोस्ट में समाहित भाव व्यक्त करने के लिये यह शीर्षक रखा है। उत्साहीजन का उत्साहवर्धन सीधा और गहरा प्रभाव डालता है।
@ KK Yadava
आप जैसे साहित्यप्रेमी को अच्छी लगी, रचना धन्य हुयी।
@ Akanksha~आकांक्षा
हर विषाद अपनी निष्पत्ति पाता है। जितना शीघ्र हो, उतना अच्छा अन्यथा जीवन के अन्य सुखों को खोखला करने लगता है।
Dnyandatt ji ke blog par tippani disable kar dee hai kya ?
ReplyDeleteसच कहा आपने ह्रदय का अनुनादित होना वाजिब है तो हम सब के अंदर एक अर्जुन अवश्य जीवित है...जीवित क्या ...मुझे तो लगता है हम रोज-मर्रा की जिंदगी में एक अर्जुन की लड़ाई लड़ रहे हैं.
ReplyDeleteबहुत सुंदर पोस्ट...आभार इस प्रस्तुति के लिए.
bahut achi lagi aapki ye rachna
ReplyDelete@ अनामिका की सदायें ......
ReplyDeleteविषाद से बाहर निकल कर निश्चय की स्थिति को शीघ्र पा लेना ही उचित। दैन्यता और पलायन अन्ततः दुख में डुबो डालती हैं।
@ Pawan Kumar
अतिशय धन्यवाद। आपके अन्दर का अर्जुन जीवित है अभी।
Excellent Praveen . Loved it.
ReplyDeleteचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी (कोई पुरानी या नयी ) प्रस्तुति मंगलवार 14 - 06 - 2011
ReplyDeleteको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
साप्ताहिक काव्य मंच- ५० ..चर्चामंच