बरसात की बलखाती फुहारें, शीत-सिरहन सिसकाती हवा, दिन का अलसाया अँधेरा, गले से गर्मी उतारती चाय, तेल की आँच में अकड़ी पकौड़ियाँ, मन में कुछ न करने का भाव, उस भाव के आनन्द में पसरा सप्ताहान्त। चाह थी बस एक आलम्बन की जो इस भाव को यथासम्भव, यथारूप और यथासमय वैसा ही बनाकर रख सके। चाह को राह मिलती है और कहीं से आकर 'वेल डन अब्बा' स्क्रीन पर चलने लगती है।
मुस्कान के सीधे साधे अब्बा जब एक महीने की जगह तीन महीने बाद अपनी ड्राइवर की नौकरी में वापस लौटते हैं तो उनके बॉस उन्हें नौकरी से हटा देते हैं। रुँआसा सा मुँह बना बताते हैं कि बावड़ी में गिर जाने के कारण इतना समय लग गया। बॉस को पुणे के लिये निकलना है, शीघ्रता है, न जाने क्या सोचकर साथ ले लेते हैं। अब्बा अरमान अली जी गाड़ी के स्टेयरिंग पर बैठे हैं और पीछे बैठे बॉस को पिछले तीन महीने का कथानक सुनाते हैं।
यहाँ से प्रारम्भ होती है एक सरकारी यात्रा जो देश के सभी भागों में स्थानीय संस्कृति की बयार लिये अनवरत चलती रहती है। देश में चल रही कल्याणकारी योजनाओं का चरित्र दिखलाती इस फिल्म की कहानी बड़ी ही सीधी है पर चोट गहरी करती है व्यवस्था पर। विचार संप्रेषण में श्याम बेनेगल का निर्देशन दर्शकों को सदैव प्रभावित करता रहा है।
फाइल पर सत्यापित बावड़ी के आधार पर पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखवायी जाती है कि बावड़ी चोरी चली गयी है। सब दंग। सूचना के अधिकार के आधार पर इस प्रकार खोयी 75 अन्य बावड़ियों की सूचना मिलती है। पहले थाने, फिर कलेक्ट्रेट और अन्ततः आंदोलितजन मंत्रीजी से मिलते हैं। अरमान अली के सभी प्रयासों में उनकी बिटिया मुस्कान उनका प्रोत्साहन करती रहती है। वेल डन अब्बा। मीडिया को नयी ब्रेकिंग न्यूज़ मिल जाती है और बावड़ी खोने का समाचार दावानलीय गति से चहुँ ओर फैल जाता है। चुनावी प्राथमिकताओं और विपक्ष के ताण्डव के बाद अगले तीन दिन में बावड़ियों को ढूँढ़ के लाने का शासनादेश प्राप्त होता है। स्थानीय प्रशासन में जिन्नात्मक चेतना जागती है और तीन दिनों में सारी बावड़ियाँ वापस आ जाती हैं (बना दी जाती हैं)।
इस पूरे प्रकरण में मुस्कान को आरिफ नाम का नेक लड़का मिल जाता है जो मानवता के नाते भी सहायता करता है। बावड़ी बन जाती है, विवाह हो जाता है पर दो महीने अधिक लग जाते हैं वापस जाने में।
बोमन ईरानी का अभिनय, दख्खिनी हिन्दी के संवाद और कथानक की जीवन्तता पूरी फिल्म में मन लगाये रखते हैं। पारिस्थितिक हास्य परिपूर्ण है और रह रह कर हँसना होता रहता है पूरी फिल्म में। सामाजिक संदेश उतना ही गंभीर है मगर।
आप भी देख लीजिये। पता नहीं कितनी कमर-मटकाऊ फिल्मों में समय झोंक चुके हैं, कुछ सार्थक भी हो जाये। आपके भी बच्चागण बोलें 'वेल डन अब्बा'।
काफी दिनों से सोच रहा था यह फ़िल्म देखने का... आपकी पोस्ट पढ़कर लगता है अब देख ही लूँ... पोस्ट करने का शुक्रिया
ReplyDeleteजरूर देखेंगे।
ReplyDeleteसही चित्रण है कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वन का |
ReplyDeleteइस देश में कल्याणकारी योजनाएं तो बहुत बनती है पर अक्सर इनका फायदा जरुरत मंद नहीं उठा सकते जरूरतमंद को तो सरकारी अमला इतना पका देता है कि वह योजना से भाग खड़ा होता है | जबकि निट्ठल्ले इस तरह की योजनाओं का इंतज़ार ही करते रहते है उनके पास पटवारी,ग्रामसेवक,सरपंच,विकास अधिकारी के चक्कर लगाने का पूरा समय होता है और वे योजनाओं का पूरा फायदा उठाते है |
ये वाकये अक्सर गांव में देखने को मिलते है |
जब मैं हाई स्कूल में पढता था तब राजस्थान के भूतपूर्व सैनिको को राजस्थान नहर पर जमीन आवंटित करने के लिए आवेदन मांगे गए ,पता चलने पर मेरे पिताजी भी छुट्टी लेकर आवेदन करने आये हालाँकि उन्हें मैंने समझाया था कि वो आवेदन फार्म मैं अपने आप भर दूंगा पर बच्चा समझकर वे मुझपर भरोसा नहीं कर पा रहे थे लेकिन जब तहसील में फार्म जमा कराने के लिए चार चक्कर लग गए तो व्यवस्था से झल्लाकर आवेदन पत्र ही फैंक दिया और अपनी नौकरी पर चले गए | आखिर गांव के सभी लोगों के आवेदन पत्र फिर मुझे ही जमा कराने पड़े |
मुझे ये फिल्म बहुत ही अच्छी लगी, हलकी फुलकी लेकिन बहुत ही गंभीर विषय पर बनी है यह फिल्म, यह एक इंटेलिजेंट फिल्म है...
ReplyDeleteप्रवीण जी, अगर नाम पर गौर करें तो पायेंगे कि यह भी बहुत सार्थक है फिल्म की विषय-वस्तु के साथ.. well done abba....'Well Done' well= कूआँ... get it !!
अच्छा विश्लेषण किया है आपने....
अब एक और बात...हालांकि यह विषय से हट कर बात होगी लेकिन कहने से खुद को रोक नहीं पाई हूँ...एक फिल्म और है अगर आपने नहीं देखी है तो ...बल्कि मैं हर किसी से कहूँगी देखने को...मिस्टर एंड मिसेज अय्यर ', पटकथा, संवाद, निर्देशन, विषय, अभिनय, संगीत सेट, ध्वनि, कहानी, किरदार सबकुछ आला दर्जे का है...बहुत ही खूबसूरत....
इस प्रस्तुति के लिए आपका आभार...
वेल डन प्रवीण जी
ReplyDeleteदेखेंगे
बीच में फिल्म की कहानी आने लगी तो स्किप कर गया... फिल्म देखनी जो है :)
ReplyDeleteवैसे इसके बारे में भूल ही चूका था. अभी जुगाड़ करता हूँ देखने का.
ReplyDeleteओवर ड्यू टाईप हो चली है यह फिल्म...कल परसों में समय निकालने के लिए आपने मजबूर किया..जिम्मेवारी आपकी.
ReplyDeleteबावड़ी का खोना और फिर मिल जाना ...कागजों में हुआ होगा ...
ReplyDeleteअच्छी सलाह दी है आपने ...देख लेते हैं और क्या ...!
बच्चागण का तो पता नही, लेकिन ये फ़िल्म कैसे मिस हो गयी.. कुछ पता नही लगा..
ReplyDeleteखोजते है और देखते है.. आभार आपका एक अच्छी मूवी से परिचय करवाने के लिये.. वैसे ’उडान’ देखी आपने?
इस देश में अरबों रुपयों की कल्याणकारी योजनाये बनती हैं पर भ्रष्ट व्यवस्था सारा माल डकार जाती है ... और कल्याणकारी योजनाओं पर कितनी राशि खर्च की गई है कभी इसकी समीक्षा भी नहीं की जाती है .... इस देश में ऐसे कई गाँव कस्बे हैं जिन्हें आजादी के साठ वर्षो के बाद भी आज तक सरकारी कल्याणकारी योंजनाओं का लाभ तक प्राप्त नहीं हुआ है और वे वंचित हैं ... बढ़िया आलेख प्रस्तुति के लिए बधाई ....
ReplyDeleteअच्छी मूवी से परिचय करवाने के लिये धन्यवाद. भाई अब तो देखना ही पड़ेगी .... बढ़िया समीक्षा ....
ReplyDeletethanks.. जरुर देखेंगे...
ReplyDeleteआपने उत्सुकता बढा दी है, मौका निकाल कर देखी जाएगी।
ReplyDelete--------
अथातो सर्प जिज्ञासा।
महिलाओं को क्यों गुजरना पड़ता है लिंग परीक्षण से?
अब तो यह फिल्म देखना ही पड़ेगा....
ReplyDeleteहम तो मुफत में देख चुके हैं रिलीज होने के अगले दिन ही.. पर आपकी समीक्षा ने अलग ही शमा बाँध दिया..
ReplyDeleteलम्बी फेहरिस्त में इस फिल्म का नाम भी शामिल है....कभी zee classics की मेहरबानी हो गयी और हमें पता चल गया तो टी.वी. पर ही देख लेंगे.
ReplyDeleteअच्छी समीक्षा की..बोमन ईरानी के अभिनय के तो वैसे ही कायल है.
जरूर देखूंगा जी और जल्द ही देखूंगा
ReplyDeleteप्रणाम
पारिस्थितिक हास्य परिपूर्ण है और रह रह कर हँसना होता रहता है पूरी फिल्म में। सामाजिक संदेश उतना ही गंभीर है मगर।....Dekhte hain.
ReplyDelete.
ReplyDeleteअभी तक तो नहीं देखि, लेकिन आपकी पोस्ट पढ़कर लगता है, देखना ही पड़ेगा। ..अगले महीने स्वदेश आगमन पर यही फिल्म देखूंगी
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लगता है यहीं देख ली……………जीवंत चित्रण कर दिया।
ReplyDeleteबहुत अच्छी समीक्षा की गयी है | इस प्रकार की सार्थक फिल्मे बहुत कम ही आती है |यंहा तो वही रोना धोना ड्रामेबाजी वाली फिल्मे देखने को मिलती है|
ReplyDeleteवेल डन प्रवीण जी ,इस फिल्म से परिचय कराकर -मगर जब बनारस आयी तो किसी ने प्रेरित ही नहीं किया -
ReplyDeleteअब यही सब तो रोज रोज देख भोग रहे हैं ....मगर हाँ दूर से देखना मनोरंजक होता !
@ rohitler
ReplyDeleteमुझे भी एक मित्र ने बताया था। नाम से नहीं लगता है इतनी रोचक होगी।
@ दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi
जमीन से जुड़े कई तथ्य देखने को मिले बिना मन भारी किये हुये। बड़े ही सरल ढंग से सत्य प्रवाहित कर दिया।
@ Ratan Singh Shekhawat
आपका कहना पूर्ण सत्य है। पहले तो लगता था कि केवल अशिक्षा ही कारण है इस बंदरबाँट का पर अब धीरे धीरे लगने लगा है कि बिना दक्षिणा चढ़ाये कुछ काम नहीं होता। किसी न किसी कारण से कार्य अटका दिया जाता है, आप कितना शोर मचा लें।
@ 'अदा'
आपका अवलोकन ही शायद कारण रहा होगा इस नामकरण का। मिस्टर एंड मिसेज अय्यर लिस्ट में पहुँच गयी है। ऐसी हल्की फुल्की फिल्मों को और दर्शक मिलने चाहिये।
@ M VERMA
कई और बातें हैं जो रोमांच बनाये रहेंगी। बस कथानक ही बताना सम्भव हुआ है पोस्ट में।
अब देखनी ही पड़ेगी फिल्म ...शुक्रिया
ReplyDeleteप्रवीण जी,
ReplyDeleteइस फिल्म ने वर्त्तमान व्यवस्था पर प्रहार तो किया ही है, एक साथ इतने मूल्यों को छुआ है जिसकी चर्चा आवश्यक है अगर इस फिल्म की बात की जाए तो. गाँवों से पलायन, शिक्षा का महत्व, बालिका संतान परिवार का सहारा, काम कोई छोटा नहीं होता, ग्रामीण जागरूकता, पुराना किंतु ज्वलंत मुद्दा खाड़ी के देशों में लड़कियों का बेचा जाना..और सबसे बड़ी बात धर्म के प्रति आस्था, जो उसे पाप का बोध कराती है और क्षणिक ही सही, वो जेल जाकर प्रायश्चित के रूप में करता है...
श्याम बेनेगल के दूसरे दौर की वेल्कम टु सज्जनपुर के बाद यह एक बेहतरीन फिल्म है. और जब मैं यह लिख रहा हूँ, मेरे पास पड़े इस फिल्म के ओरिगिनल डी.वी. डी. पर बम्मन ईरानी मुस्कुरा रहे हैं.
@ अभिषेक ओझा
ReplyDeleteपोस्ट तो मात्र एपेटाइज़र की तरह है। पूर्ण भोजन तो फिल्म से ही होगा।
@ Udan Tashtari
जल्दी देख लें कहीं ऐसा न हो कि इस बीच सब सुधर जायें और फिल्म अपना अर्थ खो दे।
@ वाणी गीत
कितना विकास तो फाइलों में करके रद्दी की टोकरी में फेंक देते हैं हम लोग। विकसित राष्ट्रों को कष्ट हो जायेगा यदि हम महाविकसित हो जायेंगे।
@ Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय)
उड़ान देखी है पर फिर देखते हैं। आप यह फिलिम निपटा लीजिये, बिना धन्यवाद पत्र भेजे।
@ महेन्द्र मिश्र
सारा पैसा कहाँ गया, यदि इस पर अध्याय लिखे जायें तो कई ग्रन्थ बन जायेंगे। अब इतना ही हो जाये कि लोग जाग जायें, देश पर दया खाकर ही।
@ रंजन
ReplyDeleteतभी बालक बोलेगा, वेल डन अब्बा।
@ ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
और भी बहुत सार्थक विषय उठाये गये हैं फिल्म में।
@ KK Yadava
आभार
@ दीपक 'मशाल'
मुफ्त में देखने का तरीका हमें भी बतायें।
@ rashmi ravija
बोमन ईरानी के अभिनय के हम पहसे से कायल थे, इसमें तो फिल्म के बाद भी उन्हे अरमान अली ही समझते रहे हम।
@ अन्तर सोहिल
ReplyDeleteहमें भी बताईयेगा कि कैसी लगी।
@ Akanksha~आकांक्षा
फिल्म की विशेषता यही है कि बहुत ही सरल ढंग से इतनी बड़ी बात पहुँचा दी गयी है।
@ Divya
देश में देखेगी तो भाव देशीय होंगे।
@ वन्दना
कई और बातें छोड़ दी हैं, उन्हे जानने के लिये देखनी पड़ेगी संभवतः।
@ नरेश सिह राठौड़
मसाला फिल्मों से अलग है, बॉक्स ऑफिस में न चल पाये संभवतः।
@ Arvind Mishra
ReplyDeleteबॉक्स ऑफिस का डब्बा कदाचित ऐसी फिल्मों के लिये नहीं बना है। मानसिक मसाला नहीं है। बौद्धिक मसाला है तो वह लोगों को रुचिकर नहीं लगता है।
@ सम्वेदना के स्वर
परिवेश के सारे विषय उठाये हैं और उनसे न्याय भी किया है श्याम बेनेगल ने। यही उनके निर्देशन की खूबी भी लगी मुझे। और विषय भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितना कि मूल विषय। आपसे पूर्णतया सहमत।
हमें भी बहुत दिनों बाद अच्छी फ़िल्म देखने को मिली थी, "वेल डन अब्बा", बहुत कुछ याद दिला दिया।
ReplyDeleteमेरे बैकलॉग में है यह फि़ल्म, अब आपका रिव्यू पढ़ने के बाद जल्दी ही देखता हूँ।
ReplyDelete.
ReplyDelete.
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बहुत अच्छी लगी यह वर्णन-समीक्षा... फिल्म वाकई सत्य का साक्षात्कार कराती है... हैरत की बात यह है कि सब को सब कुछ पता होते हुए भी सारे सरकारी कल्याण व विकास कार्यक्रमों की क्रियान्वयन योजना इस तरह बनाई जाती है कि उसमें 'शासन' के हर स्तर पर बैठे ओहदेदार का दखल हो... और उसे 'कुछ' मिले भी 'ऊपर' का !
वेल डन अब्बा!... और वैरी वैल डन अवर ब्यूरोक्रैट्स... यू हैव टेकन गुड केयर आफ युवरसेल्फ!
आभार!
...
मुझे भी किसी ने बहुत जोर देकर कहा था ये मूवी देखने की। मैंने सोचा कि होगी कोई हिन्दू मुस्लिम एकता पर फ़िल्म नहीं देखी। आपने स्टोरी बताई है तो लगता है कि अन्याय हुआ जो अब तक ये फ़िल्म नहीं देखी। सार्थक फ़िल्में वैसे ही कम बनती हैं, प्रेरित करने के लिय धन्यवाद। नहीं तो यह भी सच है कि एक मूवी देखने जायें तो एक बड़ा नोट निकल जाता है और प्राय: लव, सेक्स और क्राईम का काक्टेल देखकर और बच्चों को दिखाकर झल्लाते हुये घर लौटना होता है।
ReplyDeleteआभार आपका।
हम ने भी काफ़ी पहले देख ली... बहुत अच्छी लगी, मैने तो इस के नाम से पोस्ट भी बनाई थी, धन्यवाद
ReplyDeleteपिक्चर से ज्यादा बढ़िया तो आपकी समीक्षा लगी....आभार
ReplyDeleteयह फिल्म मैने भी देखी है...बहुत बढ़िया बनी है। करप्शन के कई अनछुए पहलूओं की ओर इशारा करती फिल्म हैं।
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी .. फ़िल्म !
ReplyDelete@ Vivek Rastogi
ReplyDeleteइतनी सरल और सार्थक फिल्म बहुत दिनों बाद देखी।
@ Atul Sharma
देखकर हमें भी बतायें कुछ ऐसी ही सार्थक फिल्में जो आपने देखी हों।
@ प्रवीण शाह
आपका अवलोकन बड़ा गहरा है। सच में क्रियान्वयन सीधा व सरल कर दें तो कईयों के हित मारे जायेंगे।
@ मो सम कौन ?
इस फिल्म के बारे में मेरी भी पहले यही सोच थी। मसाला फिल्में पले तो झिलती नहीं हैं और उल्टे सीधे सीन आने पर झेंपना हो जाता है।
@ राज भाटिय़ा
अभी जाकर पढ़ते हैं। पराया देश में थी कि अन्य ब्लॉग में।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
कई बिन्दु छूट गये हैं, फिल्म निसन्देह और भी अच्छी है।
प्रवीणजी
ReplyDeleteवेल डन|बहुत ही अच्छी समीक्षा |यह फिल्म मैंने करीब दो महीने पहले देखी थी और उसके एक महीने बाद ही गाँव(घर ) जाना हुआ |फिल्म में आंध्र में बावड़ी योजना है और मध्य प्रदेश में कपिल धारायोजना के अन्तेगत कुए खुदवाने की योजना है |
जब कुए खुदवाने के लिए गाँव के लोगो को सरपंच से लेकर सरकारी दफ्तरों में भटकते हुए पाया तो सचमुच वेल्डन अब्बा की कहानी चरितार्थ हो गई |योजना का दूसरा चरण चल रहा था पर एक भी कुआ नहीं था |कई लोगो ने इसलिए कर्ज नहीं लिया की इतनी रिश्वत देने से तो हम अपने आप कुआ खुदवा लेंगे |
अच्छी समीक्षा की है आपने! भाषा पर आपकी पकड़ अदभुद है! बिहार में ए़क कहावत है .. ए़क बीडीओ साहेब आये और तालाब खुदवा दिया... भुगतान तो हो गया लेकिन तालाब कागजों पर ही खुदा... कुछ दिनों बाद नए बीडीओ साहेब आये...उन्होंने फाइल देखि और तालाब को बंद करवा दिया... जन हित में.. जन सुरक्षा में .... यही कहानी का परिमार्जित रूप है... सुंदर
ReplyDeletelijiye saheb, ham bhi aa gaye apni aadat ke mutabik sabse aakhir me ( abhi tak ke sab se aakhir me) ;)
ReplyDeleteye film 1-1/2 mahine pahle maine dekhi, kisi ne sujhaai nahi thi tab. bas promo dekh kar hi man ho gaya, fir internet se download kiya aur systm par hi dekha.
film ki kahani ekdam bahti hui si hai.... is bahne ke bich hi sara khel hai jisme aap muskurayenge bhi aur systm ki hakikat ko samajhte hue kosenge bhi ki yahi hai hamara desh... yahi hai hamare karmchari aur netaa....
bomman sahab ki adakaari pe kuchh kahne ke layak mai to nai hua hu abhi, shandar acting unki, patra ke charitra me aise ghus jaate hain ki bomman irani yad hi nai rahte, bas vo patra hi yad rah jata hai..... chahe film koi bhi ho....
shukriya is post ke bahane ek achchi film par charcha ke liye manch uplabdh karne ka.
बहुत संयोग की बात - स्थानीय केबल DEN (http://www.digitelly.in/) पर अभी (९-११) यही फिल्म दिखा रहे थे. फिल्म के बारे में कुछ नहीं कह सकता क्योंकि मैंने आधे में छोड़ दी थी.
ReplyDeleteहाँ मैं दाख्खिनी हिंदी के बारे में जरूर कुछ कहूँगा. फिल्म के मुख्या किरदार बोमेन इरानी ने मोर्चा अच्छा संभाला था मगर उनसे जितनी उम्मीद थी उतनी कुछ ख़ास नहीं बोल पाए. बाकी किरदार तो एकदम ही ख़राब बोल रहे थे. देखकर ही प्लास्टिक मालुम हो रही थी . आरिफ की हैदराबादी सुनकर तो इतना गुस्सा आया कि टीवी बंद कर दिया :D
@ सतीश पंचम
ReplyDeleteजब सारा ध्यान देश के विकास पर न होकर स्वयं के धनोपार्जन पर हो जाये और व्यवस्था को नोचने खसोटने की प्रतियोगिता होने लगे तो यही हाल होगा देश का।
@ मनोज कुमार
बहुत धन्यवाद
@ शोभना चौरे
इस सुविधा को इतना जटिल व लूटने लायक बना दिया है कि सरल व्यक्तियों की तो हिम्मत ही नहीं होती है, इस दिशा में।
@ arun c roy
सच में,उसी कहानी का नाट्य रूपान्तरण चल रहा है किरदार बदल बदल कर।
@ Sanjeet Tripathi
यह हमारे नीति निर्धारकों का प्रयास ही है कि विकास जैसे गंभीर विषय को कॉमेडी बना दिया गया है। पश्चिम में व्यक्तिगत व पारिवारिक स्तर पर स्थिरता भले ही न हो पर जब सामाजिक व राष्ट्रीय चरित्र की बात आती है तो उसके कोई समझौता नहीं। हम तो हर जगह से छेद कर के बैठे हैं, देश की अस्मिता पर।
@ Saurabh
दख्खिनी हिन्दी को अभिनीत कर ले जाना कठिन होता है। एक बार पूरी देख लें, आनन्द आयेगा।
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteअच्छी फिल्म है, देखी है मैंने.
ReplyDeleteहालांकि मुझे बोमन ईरानी की हिंदी अच्छी नहीं लगी इसमें (ज्यादातर लोग सहमत नहीं होंगे) पर मिनिषा लांबा की हिंदी वैसी ही लगी जैसी किसी हैदराबादी लड़की की लगती है. वैसे बोमन के अभिनय की तारीफ़ मैं भी करता हूँ..
विषय बहुत अच्छा है.
और हाँ अदा जी की बात से पूर्णतः सहमत... "मिस्टर एंड मिसेज अय्यर" बहुत अच्छी फिल्म है.
एक अच्छी फिल्म (शायद मुझे ही लगी हो)... रोड टू संगम
हम ने तो अब फिल्मे देखना ही छोड दिया था मगर आपकी समीक्षा बहुत अच्छी लगी तो जाहिर है कि फिल्म भी देखनी ही होगी। धन्यवाद।
ReplyDeleteसमीक्षा पढ़ कर फिल्म देखने की इच्छा बलवती हो गई,
ReplyDeleteअब तो समय निकलना ही पड़ेगा।
..पोर्टब्लेयर में तो थियेटर ही नहीं है, फिर कैसे देखुगी ...
ReplyDelete@ हास्यफुहार
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद
@ Avinash Chandra
बोमन ईरानी के किरदार में अधिक संवादों की जगह नहीं थी। वह थोड़ा कम बोलने वाला किरदार था। यह कारण रहा होगा। बाकी दोनों फिल्में भी देखनी हैं।
@ निर्मला कपिला
आप फिल्में देखना छोड़ देंगी तो इन अभिनेताओं को इतने अधिक पैसे कहाँ से मिलेंगे।
@ सत्यप्रकाश पाण्डेय
सार्थक फिल्म है, समय व्यर्थ नहीं जायेगा।
@ Akshita (Pakhi)
DVD भी आ गयी हैं संभवतः।
बोमन ईरानी गजब के कलाकार हैं । पूरी फिल्म अकेले अपने कंधों पर ढोयी है । प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार पर बहुत जबरदस्त व्यंग है वेल डन अब्बा । एक बार फिर देखने का मन करने लगा ।
ReplyDeleteलगता है कि देखनी पड़ेगी।
ReplyDeleteभेल डन
ReplyDelete@ K M Mishra
ReplyDeleteबहुत स्वस्थ व्यंग है व्यवस्था पर। आपको भायेगा।
@ उन्मुक्त
जल्दी देख डालिये। अगर इस बीच व्यवस्था सुधर गयी तो फिल्म औचित्य खो देगी।
@ प्रे.वि.त्रिपाठी
धन्यवाद।
बहुत पहले ये फिल्म देखी थी, कुछ हटकर है, अच्छी लगी !
ReplyDeleteहाल ही में Inception देखकर आया हूँ मंगलवार को , सपनों की दुनिया को कड़ियों में संजोती फिल्म है ये ! थोड़ी काम्प्लेक्स पर देखने लायक है !
वेल डन प्रवीण।
ReplyDeleteध्यान नहीं आता - यह कथा कहीं पढ़ी है पहले। शायद परसाई जी की हो…
मगर बोमन ने कितना अच्छे से निभाया होगा, अभी तो कल्पना ही कर सकता हूँ।
देखनी पड़ेगी अब।
@ राम त्यागी
ReplyDeleteInception यहाँ पर लगी है, जल्दी ही देखना पड़ेगी।
@ Himanshu Mohan
परसाई जी की कोई कृति इस कथा जैसी है, मुझे तो यह ज्ञात नहीं पर यह देखने लायक फिल्म है।
इस फिल्म का पता है. अच्छी फिल्म है और जल्द ही देखने का प्रयास करूंगा.
ReplyDeleteआजकल मुझपर विश्व की सर्वकालिक महानतम फ़िल्में बटोरने की धुन सवार है. टौरेंट की बदौलत कई फ़िल्में डाउनलोड कर चूका हूँ, एक रात में अमूमन एक फिल्म डाउनलोड हो जाती है. फ़िल्में बटोरने का यह शगल वैध तो नहीं पर इसके सिवाय और कोई चारा भी नहीं है. यदि आपकी दिलचस्पी ऐसी फिल्मों में हो तो बताएं. डीवीडी में कॉपी करके आपको भेज दूंगा. मैं बहुधा सुस्त और स्याह फ़िल्में ही देखता हूँ, चाहे वे किसी भी भाषा में हों. दो दिन में एक कोरियन फिल्म को तीन बार देख चुका हूँ - ऐसा असर होता है किसी-किसी फिल्म का. वह फिल्म है - http://en.wikipedia.org/wiki/Spring,_Summer,_Fall,_Winter..._and_Spring
मैने तभी देखी थी....हाल में बैठने तक बच्चों को कोस रहा था कि फिर एक बकवास फिल्म दिखाने ले आए..! मगर जब हाल से निकला तो बच्चों से बोला कि आज तो कमाल हो गया..! बोलो क्या खाने का इरादा है ?
ReplyDelete...वाकई मस्त फिल्म है. आपने अच्छा याद दिलाया.
@ निशांत मिश्र - Nishant Mishra
ReplyDeleteमुझे और मेरी पत्नी को भी इसी तरह की फिल्में सुहाती हैं। भोपाल घर जाने के रास्ते में पड़ता है, सपरिवार टपकूँगा कभी, पहले से बता कर।
@ बेचैन आत्मा
वेल डन बच्चा
क्योंकि उन्होने ही दिखायी
वेल डन अब्बा।
जी, मैंने भी देखी ये फिल्म...मुझे बहुत पसंद आई...मैं वैसे भी श्याम बेनेगल का फैन हूँ...तो उनकी फिल्म मैं कैसे नही देखता :)
ReplyDelete