दिन और जीवन दो काल खण्ड हो सकते हैं पर अन्तर्निहित समानता उनके संबन्धों को उजागर कर जाती है। सृष्टिकर्ता के पास सम्भवतः समय के विषय में और ढाँचे उपलब्ध न हों। शास्त्रों में तो मृत्यु को भी अगले जन्म के पहले की नींद ही कहा गया है।
दार्शनिक पक्ष ऊबाऊ हो सकता है, आइये व्यवहारिकता देखते हैं।
एक दिनचर्या जीवन का निर्माण कैसे करती है और उसी प्रकार जीवन के विशिष्ट कार्य हमारे दिनों के कैसे गढ़ते हैं, समानता के सम्बन्ध का यह पहला व्यवहारिक प्रश्न होगा।
एक बार आराधना जी ने नियमितता और निरन्तरता के छत्ते को छेड़ा था। मैने पहले कुछ समझाने का प्रयास किया पर स्वयं संतुष्ट न होने पर समझने की गली में मुड़ गया।
डाo आराधना उवाच
.......आपने सही कहा है कि निरंतरता से सब कुछ पाया जा सकता है... निरंतरता की जगह नियमितता होता तो और सटीक होता. नियमित होना बहुत बड़ी बात है. मैंने देखा है कि जो लोग नियमित होते हैं... सोने-जागने, खाने आदि के मामले में, वे अधिक सुखी होते हैं ........
रौ में मैं उवाच
नियमितता निरन्तरता का व्यवहारिक रूपान्तरण है। कई अर्थों में जब हम दिन को जीवन का प्रतिरूप बना जीने लगते हैं तो वही नियमितता हमारी निरन्तरता का प्रतीक बन जाती है। निरन्तरता उससे कहीं व्यापक मानता हूँ मैं। लक्ष्य निर्धारित करके उन्हे पाना और उसी दिशा में और ऊँचे लक्ष्यों का निर्धारण निरन्तरता का द्योतक है। बड़े कालखण्डो पर विजय की ध्वजा निरन्तरता ने फैलायी है।.........
अब ज्ञान झोंककर निकल जाना कठिन नहीं है पर उससे मन हटाकर रह पाना कठिन हो जाता है। विचार लखेदे रहा और निष्कर्ष रूप में यह पोस्ट जन्म ले रही है।
ग्रेसाम के योजना के नियम की मानें तो यदि नियमित कार्यों पर अधिक ध्यान दिया जायेगा तो जीवन के विशिष्ट कार्य पीछे छूट जायेंगे। या दूसरे शब्दों में कहें तो सूक्ष्मदर्शिता दूरदर्शिता को उभरने नहीं देती है।
उसी प्रकार यह भी सत्य है कि जीवन के विशिष्ट कार्य एक दिन में नहीं किये जा सकते।
अब कौन ठीक है, ग्रेसाम जी, डा आराधना या अन्जाने में मैं?
आपके मन में भी यह प्रश्न तो उठता होगा।
आपके विचार कोई राह अवश्य ही ढूढ़ लेंगे इस समस्या की पर मुझे तीनों में कोई विरोधाभास नहीं दिखता है, यदि निर्णय इस प्रकार लिया जाये।
दिन जीवन का प्रतिरूप है अतः जीवन के विशिष्ट कार्यों का दिनचर्या में उपस्थित रहना आवश्यक है। यह नियमितता होगी हमारे जीवन के उद्देश्यों की। बड़े कार्यों में कई कार्यश्रंखलाओं का समावेश होता है अतः वह क्रम हमारी निरन्तरता निर्धारित करेगा। यदि हमें जीवन में पाने योग्य वस्तु पर दैनिक या साप्ताहिक ध्यान नहीं जाता है तो आप मान कर चलिये कि वह आपकी पकड़ के बाहर जा चुकी है। इन कार्यों का पहला अधिकार दिन के समय में, शेष कार्य आगे पीछे अपना स्थान ढूढ़ ही लेते हैं दिन में। अपने जीवन को दिन में जीने का प्रयत्न करें, दिन से जीवन का निर्माण सब करते हैं।
आपके 5 प्रमुख उद्देश्य क्या हैं? वो आज किये हैं? तब! अच्छा अभी नहीं पर आज अवश्य कर लीजियेगा।
निरंतरता और नियमितता आवश्यक तत्व होते हुए भी जीवन में अनेक अवसरों पर आवश्यकतानुसार इनका आकस्मिक परित्याग भी करना पड़ता है. व्यवहारकुशल व्यक्ति इस ब्याधि को तेजी से ग्रहण करता है जबकि व्यवहारहीन अपनी नियमितता को बरकरार रखने में कमोबेश सफल भी रहता है.
ReplyDeleteआपका यह दिवस चिंतन अपने में भवितव्यता वाद और कर्मवाद की समान्तर विचार सरणियों की अदृश्य पीठिका लिए हुए है ..
ReplyDeleteहम निमित्त मात्र हैं ,होयिहें वही राम रचि राखा .......कर्मण्ये वाधिकारस्ते
कल करे सो आज कर आज करे सो अब ..........अजगर करे न चाकरी पक्षी करे न काम दास मलूका कह गए सबके दाता राम
देव देव आलसी पुकारा ....
ये कर्ताबोध बोध क्यों -चाहे पूरा जीवन हो या उसकी प्रतीति कराता एक दिन .....
आपने विचार सरणियों की एक चिर प्राचीन / चिर नवीन सरणियों को तरंगित कर दिया है ...
लहरे गिनने आता रहूँगा ...
@तनिक मिथकीय संदर्भों को लें तो ब्रह्मा का एक दिन धरती के कई युगों का हो जाता है -इसके भी प्रतीकार्थ होंगे ?
ReplyDeleteयह जीवन चक्र हर कहीं दोहराता है।
ReplyDeleteदिन जीवन का प्रतिरूप है
ReplyDelete-एकदम से सहमत!!
बहुत भयानक दर्शन...अध्यात्मिकता को ओर यह मोड़, जवानी मे?? बहुत अच्छा लगा पढ़कर.
वर्माजी से सहमत ..उनकी टिपण्णी हमारी भी मणि जाये ...!
ReplyDeleteजीवन को दिन में जीने वाला फलसफा पसंद आया. ऐसे जीने लगें तो फिर क्या बात हो !
ReplyDeleteस्वस्थ चिंतन। यदि व्यक्ति की सोच इसी प्रकार हो जाए तो बहुत सारे दुर्गुण स्वत: ही दूर हो जाएंगे।
ReplyDeleteसूक्ष्मदर्शिता दूरदर्शिता को उभरने नहीं देती है
ReplyDeleteसहमत १०० %
बहसनवीसी भी क्या गजब चीज है !
ReplyDeleteवर्मा जी की बात को मेरी भी मानी जाय !
@ग्रेसाम के योजना के नियम की मानें तो यदि नियमित कार्यों पर अधिक ध्यान दिया जायेगा तो जीवन के विशिष्ट कार्य पीछे छूट जायेंगे। या दूसरे शब्दों में कहें तो सूक्ष्मदर्शिता दूरदर्शिता को उभरने नहीं देती है।
ReplyDeleteये बात बिल्कुल सही है...मैं स्वयं बहुत नियमित नहीं हूँ...और मुझे लगता है कि अत्यधिक नियमितता से मनुष्य यंत्रवत हो जाता है. इस मुद्दे पर वर्मा जी की बात भी विचारणीय है.
आपने मेरी टिप्पणी पर विचार-मंथन करते हुए ये पोस्ट लिख डाली और मैं नियमितता का उपदेश देकर छुट्टी पा गयी... इसीको कहते हैं "पर उपदेश कुशल बहुतेरे"
दो बार पढना पढ़ा, तब जाकर समझ आया, यहाँ तो कुछ कहने से पहले अरविन्द मिश्र जी का स्मरण करना होगा :-)
ReplyDeleteखैर ,
मुझे तो "मैं उवाच" ही ठीक लगा ! गहरी सांस ले भागते हैं यहाँ से .....
व्यवहारिक और कार्यश्रंखलाओं को ठीक कीजिए।
ReplyDeleteबाकी सब तो ठीके है। बदरी छाई है। झींसा पड़ रहा है। छुट्टी है। अखबार पड़ा पढ़ने को निहोरा कर रहा है। बाथरूम स्नानार्थी की प्रतीक्षा में है। बेसिन के पास नहीं जा रहा क्यों कि दाढ़ी की खूँटिया दिखने भी लगेंगी ... ऐसे में ऐसी वैसी बातों पर अमल ! तौबा तौबा।
अजी आप से पुरणत्या सहमत है, बाकी बात वर्मा जी ने कह दी, धन्यवाद
ReplyDeletebahut badhiyaa...sikhne ko mila
ReplyDeleteप्रिय प्रवीण जी
ReplyDeleteआपके लेख को दुबारा पढना पड़ा. शनिवार की सुबह जब मैं अपने तमाम दानिक नियमों को ताक पर रख फुर्सत से अंतर्जाल की वीथियों में आवारा भटक रहा था ऐसे में आपके लेख ने मुझे नींद से जगाया हो.
ग्रेषम के नियम से मैं परिचित नहीं हूँ , मगर जानना चाहूँगा.
सूक्ष्म्दarशिता दूरदर्शिता को नष्ट कर देती है - मुझे एक डरावना सा ख्याल लगा. मैं मानता रहा हूँ की बस इस पल को ठीक से कर लें तो काफी है. छोटे छोटे सुन्दर क्षणों का ही भव्य कोलाज़ सफल जीवन है.
पर शायद आप सही कह रहे हैं की छोटी चीजों में उलझा व्यक्ति कुछ बड़ा नहीं कर पता है.
राकेश रवि
नियमितता एक ही ढर्रे (कार्य प्रणाली )को करते रहना है जिसमे कई बार अनियमितता होने पर कार्य कुशलता प्रभावित हो जाती है |
ReplyDeleteनियमित निरन्तरता नया कुछ करने को प्रेरित करती है |बाकि "जाही विधि राखे राम ताहि विधि रहिये "
जीवन का फलसफा कभी समझ ही नहीं पाए |
ReplyDelete"यदि हमें जीवन में पाने योग्य वस्तु पर दैनिक या साप्ताहिक ध्यान नहीं जाता है तो आप मान कर चलिये कि वह आपकी पकड़ के बाहर जा चुकी है।"
ReplyDeleteइन पंक्तियों ने तो कुछ सोचने पर विवश कर दिया...महीनो हो गए एक पेंटिंग नहीं बनायी....और यहाँ तो दिन और सप्ताह की बात हो रही है....जल्दी नहीं शुरू किया तो सचमुच भूल ही जाउंगी...
जीवन में नियामितता और निरंतरता का सामंजस्य जरूरी है.आपके विचार 'नियमितता निरन्तरता का व्यवहारिक रूपान्तरण है' को मैं इस तरह कहना चाहूंगा- नियमितता निरंतरता की जननी है.
ReplyDeleteपढ़ने में बहुत अच्छी लगी आपकी पोस्ट।
ReplyDeleteपढ़्ने में अच्छी इसलिये कहा कि हम तो नियमित भी नहीं और निरंतर भी नहीं, लेकिन जो ऐसे हैं उन्हें श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं।
@ Arvind Mishra
ReplyDeleteपोस्ट पर टिप्पणी की भारी पेपरवेट रख दिया आपने, अब पोस्ट तो हिल नहीं सकती अपने टिप्पण्यात्मक आयामों में। आपके द्वारा उद्धृत सूक्तियों के चारों ओर दौड़ती है हमारे विचारों की धुकधुकी।
रात को सोचा हुया अन्तिम विचार अगले दिन की रूपरेखा गढ़ता है, मृत्यु के समय अन्तिम स्थिति अगला जन्म निर्धारित कर देती है। क्या भगवान ने अदृश्य मापने का पैमाना दे दिया है हमको, उसी खाँचे का।
@ M VERMA
एक और पेपरवेट रख दिया। पोस्ट अब पूरी तरह से कैद। डॉल्फिन मछलियों की तरह नियमतता की नदी से उछलकर नृत्य करते हुये पुनः कूद जाने की कला हमें सीखनी होगी। सृजनात्मकता को तो नित नयापन चाहिये पर वह भी निरन्तरता है।
@ दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi
समय के हर अयवय में यही ढाँचा बना हुया है। हर विनाशकारी वस्तु यही रास्ता अपनाती है।
@ Udan Tashtari
दिल तो सदैव ही बालकाण्ड में रहेगा। बुद्धि कभी कभी बाहर घूम आती है जब घर में रहते हैं।
@ वाणी गीत
आप भी सीमित विस्फोट में विश्वास रखती हैं?
@ अभिषेक ओझा
ReplyDeleteबचपन में कभी कोई चीज़ याद नहीं होती थी तो लिखकर याद करते थे। आज भी यह पोस्ट लिखी।
@ ajit gupta
आदर्श लिखकर दोहराते रहने से कभी कभी भगवत्कृपा हो ही जाती है।
@ dhiru singh {धीरू सिंह}
इन दोनों के बीच पेण्डुलम की भाँति डोलता रहता है जीवन।
@ अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
आवारगी भी एक अन्दाज है, नियमतता से परे जाने का। उन्मुक्तता, विविधता।
@ aradhana
आग लगा कर चली जाइये और लौट कर कहिये कि अरे यह क्या हो रहा है?
पर निरन्तरता तो बनाये रखिये।
@ सतीश सक्सेना
ReplyDeleteयदि आपको बता देंगे कि हम भी मन के भारी भारी आइटेम ब्लॉग में उड़ेल देते हैं तो आप हमारे ब्लॉग में अइबे नहीं करेगें। लिखने के बाद हम भी गहरी साँस भरकर सामान्य हो लेते हैं।
@ गिरिजेश राव
इतना काम पड़ा है तब तो आप बहुत ही कर्मशील व्यक्ति हैं। हम तो इनमें से कई कार्य कल पर टाल कर आज सँवार लेते हैं।
@ राज भाटिय़ा
अनुभव के साथ साथ नियमतता का भ्रम टूटता दीख रहा है। रिवर्स ऑस्मॉसिस सामाजिकता में आ गया है।
@ रश्मि प्रभा...
हमने भी हिम्मत नहीं हारी है।
@ rakesh ravi
जब कभी परिस्थितियाँ घेरने लगती हैं तो उसके निष्कर्ष को जीवन के विशाल समय खण्ड पर लिटा देता हूँ, पीड़ा कम हो जाती है।
@ शोभना चौरे
ReplyDeleteनये लक्ष्य निर्धारित करना निरन्तरता का प्रतीक है। कर्म करने के बाद जाही विधि राखे राम।
@ नरेश सिह राठौड़
इसके पहले भी जीवन को समझने के कई असफल प्रयास कर चुका हूँ। पता नहीं कितना समझ पाया हूँ दिन को और जीवन को।
@ rashmi ravija
बनानी प्रारम्भ कर दें। हर सप्ताह एक नया चित्र पेंट करते हुयी पिक्चर अपने ब्लॉग पर लगायें। तब हम भी याद दिलाते रहेंगे।
@ hem pandey
आपके अवलोकन से पूर्णतया सहमत।
@ मो सम कौन ?
अपनी पार्टी का प्राथमिक सदस्य के रूप में मुझे भी शामिल कर दें।
Post aur tippaniyan bahut achhi lagi.
ReplyDeleteVishay ko theek se na samajh paane ki vajah se tippani karne mein khud ko asamarth paa rahi hun.
Vishay ko bina samajhe comment karungi to vishay ke saath anyaay hoga.
atyant khed ke saath,
Divya
व्यंक्ति काम की अधिकता से नहीं, काम की अव्यवस्था से थकता है।
ReplyDeleteबढ़िया जी!
ReplyDeleteज्ञान की बात !
नियमितता और निरंतरता दोनों ही आवश्यक हैं....लेकिन कभी कभी अन्य कार्य महत्त्व पूर्ण हो जाते हैं जिनकी वजह से दोनों में व्यवधान आ सकता है...आवश्यकतानुसार समय को बांधें...एक यंत्र बन कर नहीं..
ReplyDelete"सूक्ष्मदर्शिता दूरदर्शिता को उभरने नहीं देती है।"
ReplyDeleteकुछ इसी आधार पर साफ़्टवेयर डेवलपमेन्ट मे 'पेयर प्रोग्रामिग’ का एक कान्सेप्ट है। इस कानसेप्ट के तहत एक ही माड्यूल पर दो लोग एक साथ काम करते है और एक जब कोड की तहो मे घुसता है, दूसरा सतहो पर लेटरली चीजो को खोजता है। आपके जैसा कहने की कोशिश करू तो शायद एक सूक्ष्म दृष्टि से कोड को देखता होगा और एक दूर दृष्टि से...
मेरे लिये तो दोनो ही बडी जरूरते है.. नियमितता और निरन्तरता.. नियमित होने से ही शायद निरन्तर भी हुआ जा सकता है॥ :)
@ Divya
ReplyDeleteअगर विषय मुझे भी पूरी तरह से समझ आता तो पोस्ट के रूप में अवतरित नहीं होता। टिप्पणियों से ज्ञान बढ़ाने के लिये मैं तो मंच के नीचे बैठा था। मुझे क्या पता था कि आप मुझे वहीं मिल जायेंगी।
@ मनोज कुमार
अब यही तथ्य मेरे विकास का केन्द्रबिन्दु बना हुआ है।
@ sidheshwer
बहुत धन्यवाद।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
महत्वपूर्ण कार्य सबके ऊपर आ जाते हैं क्योंकि वे महत्वपूर्ण होते हैं। पर वे प्रतिदिन होने चाहिये।
@ Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय)
दोनों ही दृष्टियाँ अपनानी पड़ेंगी। लक्ष्य को देखते रहने से राह के पत्थरो से टकराकर गिर जाने को खतरा है, निकट देखने से लक्ष्य से विमुख हो जाने का।
चार बार पढ़ा, गूढ़ है, किन्तु समझ आती है.
ReplyDeleteदोनों ही आवश्यक है, नियमितता एवं निरंतरता. हालांकि हम अक्सर दोनों को एक सन्दर्भ में, या कहें तो एक ही कोष्टक में मान लेते हैं, किन्तु दोनों को धारण कर पाना असंभव नहीं है...एक ही दिशा में है.
बाकी गुणी जनों ने कह ही दिया है...अरविन्द जी की टिप्पणी हमारी भी मानी जाए, साभार.
"मुझे एक दिन में एक जीवन का प्रतिरूप दिखता है।"------मुझे एक क्षण में............
ReplyDeleteऔर बस यही कहूँगी-- "न दैन्यं न पलायनम् "
भौतिकता में गुंथे आज को कहाँ कल की सोचने की फुरसत ही कहाँ हिया.
ReplyDeleteek saargarbhit chintan ke madhya se kai saargarbhit uddeshya milte hain...
ReplyDeleteनियमितता और निरन्तरता दोनों ही आवश्यक हैं जीवन में.
ReplyDeleteप्रथमतः नियमितता का लक्ष्य पा लूं फिर निरन्तरता के बारे में सोचूंगा.
ग्रेसाम के योजना के नियम का भी समावेश कर दिया आपने !
पढ़ाई सधा दी आपने तो.
कभी कभी कुछ नियम टूट जाएँ तो उसे एक अल्पविराम या अवकाश का नाम दें इसमें कोई संकट की बात नहीं.कभी कुछ आवश्यक कार्य आ जाएँ तो नियमितता और निरन्तरता को कुछ दिन या घंटे के लिए टाल देना श्रेयस्कर होगा. वहाँ समझदारी से निर्णय लें.
जीवन में रीटेक तो नहीं न होगा यह भी ध्यान रखें.
apne ek post ki line yaad aayi- पहली नजर या जल्दबाजी में व्यतिक्रम दिखता भी कई बार स्वाभाविक अनुक्रम साबित होता है। विसंगतियां, बैठ जाने पर संगत मान ली जाती है।
ReplyDeleteवत्स !
ReplyDeleteसंबोधन का बुरा न मानना .इस उम्र में इतना गहरा फलसफा ? सिर्फ आपके चिंतन को दाद और सराहना का हक़दार मानता हूँ. पहली बार रुख किया और औरों की तरह ही कम से कम दो बार पढना पड़ा समझने के लिए.
सारा कुछ तो सब ने कह ही दिया और उस पर सब की जिग्यांसा की आपकी मीमांसा ! बहुत प्रभावित कर गयी .
नियमितता और निरंतरता दोनों जीवन भर कष्ट देती रही मुझे इस लिए बचने का उपाय मेरा ये रहा की घड़ी नहीं बांधी और किसी भी घड़ी को जहाँ तक बन पड़ा देखने से बचता रहा ,वह भी जीवन भर सरकारी नौकरियां करने के बावजूद.
बोहेमियन ज़िन्दगी का लुत्फ़ लेता रहा पर दूसरों की तकलीफ समझता भी रहा ,समय निर्धारण और घड़ी बनाने वाले को कोसते हुए जीता रहा और अब रिटायर (?) भी हो लिया .कट गयी ज़िंदगी . हाँ कभी ट्रेन छूट गयी कभी प्लेन ( और इम्तिहान भी एकाध बार ) नियमितता की अवहेलना ही मेरी निरंतरता बनी रही और उसी को जीवन की सार्थकता भी माना ,वही आनंद भी रहा .
हर दिन जिया रात नींद में मरा भी पर आज तक अगला सूरज उठता भी रहा .
आलसी नरेश गिरिजेश जी और अरविन्द जी ने तो काफी कुछ कह दिया ,औरों के साथ आपके संवाद के मज़े भी लिए पर अपनी तो जैसे तैसे.....आपका क्या होगा जनाबे आली ......मैं तो जीवन मृत्यु के टाईम टेबल में भी यकीन नहीं करता .
जब काल कब शुरू हुआ , कहाँ ख़त्म होगा यही नहीं पता तो ......नियमितता ,निरंतरता , घड़ी ,घंटा घड़ियाल सब की ऐसी की तैसी और ज़िंदगी के हर टाईम टेबल करर वगैरह की भी ऐसी की तैसी .......मस्त रहो और अपने बारे में ?
तुझे हम वली समझते , जो न बादाख्वार होता ........ :) .
@ Avinash Chandra
ReplyDeleteकिसी भी कार्य को एक निश्चित अवधि के बाद ही पुनः ध्यान देने की आवश्यकता होती है। कुछ लोग उसे नियमित खाँचे में बसा लेते हैं, कुछ लोग साप्ताहिक और कुछ लोग जब आवश्यकता पड़े तब। निरन्तरता से वह विषय आँखों से ओझल नहीं होता है।
@ Archana
दोनों वाक्यों में संबन्ध सा दिखता है। विचार करना पड़ेगा।
@ काजल कुमार Kajal Kumar
जीवन की गति इतनी तेज हो गयी है कि कर्ता भाव लुप्त हो गया है। जो भी हो रहा है वह हम पर हो रहा है।
@ रश्मि प्रभा...
दिशा तो चिन्तन से ही आती है। बिरले ही होते हैं जिन्हे दिशा निर्धारण के लिये चिन्तन करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
@ E-Guru Rajeev
नियमितता से भावनात्मक रूप से चिपक जाना कभी कभी उलझन भरा लगता है। सुविधावश अन्य आवश्यक कार्यों को टाल देना भी हानिप्रद है। पर जीवन की सामान्य गति का निर्धारण नियमितता व निरन्तरता से हो सकता है।
@ Rahul Singh
बड़ी गहरी बात है आपकी। विसंगतियाँ परिस्थिति के अनुरूप तर्कसंगत लगने लगती हैं।
@ RAJ SINH
ReplyDeleteवत्स संबोधन तो ऐतिहासिक, आत्मीय, संस्कृतनिष्ठ व संस्कृतिजन्य है। मैं आभारी हूँ कि आपने मुझे इस योग्य समझा।
प्रारम्भ में चिन्तन के दो पक्ष थे । एक हावी रहा और मुझको अनुशासन और संस्कारों की दुहाई दे कर पोस्ट लिखवा ले गया। सुबह सुबह आपकी टिप्पणी पढ़ते पढ़ते दूसरा पक्ष भी हिलोरें लेने लगा। माँग रख दी कि मुझे भी व्यक्त किया जाये।
नियमितता को एक बड़ा सा बर्तन मानता हूँ मैं। उद्देश्यों के अनुरूप बड़ा। अधिक उद्देश्य, दिनभर अधिक व्यस्तता। निरन्तरता धीरे धीरे उसी बर्तन को बड़ा करते जाने की प्रक्रिया है। आकार भी बदल सकता है।
उन्मुक्तमनाओं को बँधे रहना अखरता है, भले ही बर्तन कितना बड़ा हो। जीवन्तता और प्रवाह खोने लगता है। दोनों ही आवश्यक अंग हैं सृजनात्मकता और आनन्द के लिये। हमें जल की तरह तरल रहना भाता ही नहीं, यदि सुहाता है तो हवा की तरह उड़ जाना, जहाँ तक संभव हो।
लगातार सीमाओं को तोड़ना आपकी नियमितता हो सकती है। मेरे चिन्तन के दबाये और सताये पक्ष को उभार देने के लिये प्रणाम स्वीकारें।
जीवन का फलसफा पढ़ने में बहुत अच्छी लगी
ReplyDeleteआप तो खूब चिंतन करते हैं...
ReplyDelete... प्रभावशाली अभिव्यक्ति!!!
ReplyDeletebichare outsourcing wale engineers.............
ReplyDeleteraat hee unke liye din hai.......especially jo U S A KE liye kaam kar rahe hai.......
vaise lekh bahut accha hai.
ye toh sach hi hai...
ReplyDelete@ सत्यप्रकाश पाण्डेय
ReplyDeleteजीवन का दर्शन यदि कुछ दिखाये तो देख लेना चाहिये। स्वयं को दिखे तो औरों को बता देना चाहिये। मैं तो लिखने से कम, टिप्पणी पढ़ने से अधिक लाभान्वित हुआ।
@ Akshita (Pakhi)
जब विषय स्पष्ट नहीं होते हैं तो अधिक लिखना पड़ता है। संभवतः वही हुआ। ऋषि यही चिंतन कुछ पंक्तियों में निचोड़ देते थे, मुझे पोस्ट बनानी पड़ गयी।
@ श्याम कोरी 'उदय'
बहुत धन्यवाद आपका।
@ Apanatva
उनके लिये लेख का नाम रखना पड़ेगा - दिन रात व जीवन।
@ Manish
आपका फावड़ा उठाकर खेत में जाकर सोचना नियमितता में आता है कि निरंतरता में।
प्रवीण जी ,
ReplyDeleteग्यारहवीं बार पढ़ा , [ ग्यारह से मेरा नाता तो आप जानते ही हैं], अब समझ आया.....
नियमितता के पक्ष में मैं भी हूँ।
नियमितता अर्थात अनुशासन !
जिंदगी व्यर्थ है बिना अनुशासन के।
.
गहन चिंतन !
ReplyDeleteजीवन में निरंतरता और नियमितता दोनों ही आवश्यक हैं.नियमित रहते हुए निरंतरता बनी रहे अन्यथा जीवन ठहर जाता है.मेरे विचार में निरंतरता अधिक महत्वपूर्ण है .क्योंकि व्यावहारिक होने के लिए यह बेहद जरुरी तत्व है.
'सूक्ष्मदर्शिता दूरदर्शिता को उभरने नहीं देती है'-सहमत हूँ.
@ Divya
ReplyDeleteजीवन की बहुत विधाओं में मैं भी ग्यारह ही हूँ। पता नहीं कभी कभी यही अंक सुहाता है, जब जीवन से निपटारे का क्षण आता है, परिस्थितियाँ सम्हलने लगती हैं तब।
@ अल्पना वर्मा
गति और दिशा दोनों ही आवश्यक है। नियमितता और निरन्तरता दोनों ही बनाये रखना होगा इसके लिये।
जीवन में नियामितता और निरंतरता का सामंजस्य जरूरी
ReplyDeleteयदि नियमित कार्यों पर अधिक ध्यान दिया जायेगा तो जीवन के विशिष्ट कार्य पीछे छूट जायेंगे।
ReplyDeleteकितनी अच्छी बात कही है...वाह...
नीरज
ये सही है की दिन सूर्य के प्रकाश में जीवन का एक पक्ष है .... जहाँ जीवन चेतन रहता है ... और संध्या होते होते ... शिथिल हो जाता है और रात्रि सुप्त अवस्था मृत्यु नही तो उसके करीब ही होती है ....
ReplyDeleteगूड़ रहस्य को सुलझाने का प्रयास करती है आपकी पोस्ट ...
@ संजय भास्कर
ReplyDeleteनियमितता से एक लक्ष्य प्राप्त करने के बाद निरन्तर उस लक्ष्य को और सघन करते जाना ही संभवतः जीवन की गतिमान प्रक्रिया हो।
@ नीरज गोस्वामी
पर यदि नियमित कार्य वही हों जो एक कालखण्ड में हमारे वैशिष्ठ्य को अनुप्राणित करें तो दिन में जीवन की सुगंध समा जायेगी।
@ दिगम्बर नासवा
दिन और जीवन में यह खुली हुयी समानता ही थी जिसने यह पोस्ट लिखने को प्रेरित किया।
नियमितता और निरंतरता दोनों ही आवश्यक हैं..
ReplyDeleteआपके 5 प्रमुख उद्देश्य क्या हैं? वो आज किये हैं? तब! अच्छा अभी नहीं पर आज अवश्य कर लीजियेगा।
ReplyDeleteकठिन है परन्तु प्रयास करने में क्या जाता है?
आपके 5 प्रमुख उद्देश्य क्या हैं?
ReplyDeleteलगता है अब तक का जीवन निरुद्देश्य ही गया।
यदि हमें जीवन में पाने योग्य वस्तु पर दैनिक या साप्ताहिक ध्यान नहीं जाता है तो आप मान कर चलिये कि वह आपकी पकड़ के बाहर जा चुकी है।
दैनिक या साप्ताहिक नहीं बल्कि यहां तो वर्षों की बात है, लगता बहुत कुछ पकड़ के बाहर जा चुका है। फिर भी आपने जगा तो दिया है।
praveen ji , bahut der se aapke blog par hoon aur bahut saaree posts ko padh chuka hoon .. mujhe ye post bahut acchi lagi .. kyonki isme wo darshan hai jeevan ka ,jiski jarurat hai har kisi ko .. badhayi sweekar kariye ..
ReplyDelete@ हास्यफुहार
ReplyDeleteनियमितता से प्रारम्भ कर बीच बीच में जीवन दिशा देख कर निरन्तरता पायी जा सकती है।
@ Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
पाँच उद्देश्य तो मैंने भी निश्चित किये हैं पर नियमित नहीं सम्हाल पा रहा है।
@ Atul Sharma
आप लोगों से यह पूछकर मैं स्वयं अपने लिये ऊँचे उद्देश्य बना चुका हूँ, अब तो निभाना पड़ेगा।
@ Vijay Kumar Sappatti
बहुत बहुत धन्यवाद उत्साहवर्धन का।
jeevan. mei bade laxy nirantarta se hi prapt hote hai.niyamit dincharya ise aasan kar deti hai.
ReplyDeletemai ise ake udaharen se kahu to kinana bhi niyamit ho ake di mei kuch nahi prapt nahi kar sakte par nirantar prayase se hum apna laxy prart kar sakte hai
@ Shraddha
ReplyDeleteबड़ी सारगर्भित बात रखी है आपने। पोस्ट का निचोड़ प्रस्तुत कर दिया।