मैं ट्रेन में चढ़ा, तुमने मुड़कर पीछे न देखा। एक आस थी कि तुम एक बार मुड़कर देख लेती तो 28 घंटे की यात्रा 28 घंटे की न लगती।
सामान कम लेकर चलता हूँ, उतना कि जितना स्वयं उठा सकूँ। यात्रा के हर सामान पर दो बार सोचने का टैग लगाता हूँ। सामान को अधिक महत्व देता हूँ क्योंकि उठाता स्वयं हूँ। विचारों को महत्व देता हूँ क्योंकि उनका बहकना स्वयं को झेलना पड़ता है। यादें अधिक नहीं सहेजना चाहता हूँ, बहाकर ले जाती हैं भावनाओं के ज्वार में। पैसा कम खर्च करता हूँ, बचाता हूँ भविष्य के लिये, महत्वपूर्ण है। सब कम कर रखा है, सबको महत्व दे रखा है स्वयं से अधिक।
तुम्हारे एक बार मुड़कर देख लेने को भी अपने 28 घंटों से अधिक महत्व दे रखा है। ये 28 घंटे मेरे जीवन से खो गये तुम्हारे एक बार मुड़ कर न देखने से।
रात के दो बजे थे, तुम्हारी आँखों में नींद होगी। मैं फिर भी चाहता था कि तुम एक बार देख लेती। हो सकता है जब तुमने मुड़कर देखा हो मैं सामान लेकर चढ़ रहा था या यह मानकर अन्दर चला गया कि अब तुम नहीं देखोगी। पर तुम्हारी आँखें मेरी ओर उस समय क्यों नहीं घूमी जब मैं चाह रहा था। तुम्हारी ओर देखते हुये तुम्हारे कन्धों को मोड़ना चाह रहा था अपनी ओर। लगता है, मेरी आँखों में अब वह बल नहीं रहा जो खींच ले तुम्हारी दृष्टि, अचानक, बलात, साधिकार।
मुझे व्यग्रता है कि तुम्हारी आँखों ने मेरी आँखों की अवहेलना कर दी।
मेरा प्रेम रोगग्रसित है। पहले तो अवहेलना व अधिकार जैसे शब्द नहीं आते थे हमारे बीच। पर पहले तो तुम्हारी आँखें हमेशा मेरी ओर ही मुड़कर देखती थी और मेरी यात्राओं को यथासम्भव छोटा कर देती थी। आज तुमने अपनी यात्रा छोटी कर ली है। तुम्हे मंजिल पाने की शीघ्रता है। तुम्हारा निर्णय था हवाई यात्रा का। तुम हवाई जहाज की तरह उड़ान भरना चाहती हो, मैं ट्रेन की दो पटरियों के बीच दौड़ता, लगातार, स्टेशन दर स्टेशन। मेरे टिकट पर एक और सीट तुम्हारी राह देखती रही पूरे 28 घंटे।
उत्तरोन्मुख मानसून को चीरती ट्रेन दक्षिण दिशा को भाग रही है। बूँदों के छोटे छोटे तमाचे सहती अपनी गति से बढ़ी जा रही है मेरी ट्रेन। पटरी और बूँदों से ट्रेन के संघर्ष का कोलाहल संभवतः मेरी जीवनी से मिलते जुलते स्वर हैं। तुम्हारा जहाज तो इस मानसून से परे, पवन की गोद में उड़ा जा रहा होगा।
खिड़की पर बूदें उमड़ती हैं, लुप्त हो जाती हैं, विंध्य पर्वत के हरे जंगल पीछे छूट रहे हैं, यात्री उत्साह में बतिया रहे हैं, बगल के केबिन में एक युगल बैठा है। तुम रहती तो दिखाता। तुम नहीं हो पर तुम्हारा मुड़कर न देखना सारे दृश्य रोक कर खड़ा है, हर क्षण इन 28 घंटों में।
बहुत परिचित आये थे स्टेशनों पर मिलने, पूछते थे तुम्हारे बारे में। क्या बताता उन्हें, तुमने तो मुड़कर भी नहीं देखा।
समझाना चाहता हूँ मन को, विषय भी हैं बहुत जो ध्यान दिये जाने की राह तक रहे हैं पर तुमने मुड़कर क्यों नहीं देखा?
सोचा कि पूछ लूँ मोबाइल से पर हमारे नेटवर्क तुम्हारे जहाज की ऊँचाई तक नहीं पहुँच पाते हैं।
तुम पहले पहुँच गयी होगी। आशा है तुम्हारी आँखें मेरी बाट जोहती होगीं। 28 घंटे जो प्रश्न उमड़ते रहे, संभवतः अपने उत्तर पा सकेंगे। संभवतः मुझे मेरे 28 घंटे वापस मिल जायेंगे।
कई बार होता है लम्हे सिमट कर वहीँ रह jaate हैं ...किसी की पीठ पर..
ReplyDelete२८ घंटों के सफ़र की दास्तान रोचक रही ...!
भाव प्रवण प्रवीण कहूं या भाव प्रवीण प्रवीण ---ऐसी संवेदनाएं जीवन के पलों/क्षणों को सार्थक तो बना जाती हैं मगर फिर भी ऐसी गहन संवेदना से " भले वे मूढ़ जिन्हें न व्यापहि जगत गति ..."
ReplyDeleteवो शेर कौन था ..किसे याद है ? ...वो जाते जाते तुम्हारा मुड़कर दुबारा देखना ....
याद आया याद आया .....यूँ बिछड़ना भी बहुत आसाँ न था उससे मगर जाते जाते उसका वो मुड़कर दुबारा देखना....
गंतव्य एक पंथ अनेक ......क्या फर्क पड़ता है ?
हाँ वे पहले पहुँच कर स्टेशन लेने इर्र्र देखने आयीं या नहीं ?दैहिक सत्यापन करने की जैसा चूडा था वैसा ही पाया :)
अगर नहीं तब तो सचमुच अच्छी बात नहीं ..हम भी कह देते हैं !
उत्तम! ख़ूबसूरत! गहन!
ReplyDeleteअरे वाह, आप तो बहुत भावुक निकले...।
ReplyDeleteदिल की परेशानी यूँ ही नहीं बढ़ती, ये दिमाग अगल दिल से राफ़्ता कायम कर ले तो ऐसी तकलीफ़ें आम हो जाती हैं। थोड़ा बचा कर रखिए जी, और भी ग़म हैं जमाने में...
"पर तुम्हारी आँखें मेरी ओर उस समय क्यों नहीं घूमी जब मैं चाह रहा था । तुम्हारी ओर देखते हुये तुम्हारे कन्धों को मोड़ना चाह रहा था अपनी ओर । लगता है, मेरी आँखों में अब वह बल नहीं रहा जो खींच ले तुम्हारी दृष्टि, अचानक, बलात, साधिकार ।"
ReplyDeleteकभी कभी मन होता है अदर साईड ओफ़ स्टोरी को भी जानने का :) काश वो भी लिखतीं और आपकी इन बेहद खूबसूरत पन्क्तियो के जवाब पढने का मौका मिलता... हो सकता है उन दो घंटो की भी एक कहानी हो या दो मिनट की भी... :)
मानसिक हलचल के कारण यहां पहूंचा हूं। पर वहां बात-चीत का दरवाज़ा बंद है, इस लिए यहां से वहां बात पहूंचाना चाहता हूं कि ऐसा क्यों?
ReplyDeleteऔर प्रवीण जी ... कहा कहूं इस कविता मय गद्य पर ... बस बेहतरीन ! लाजवाब!!
अरे कौन थी वह उड़नपरी :-)
ReplyDeleteप्रवीन जी, आप विराम का चिन्ह एक जगह छोड़ कर क्यों लगाते हैं। मेरे विचार से व्यकारण के चिन्ह (जैसे विराम या कॉमा) बिना जगह छोड़े लगाये जाते हैं। जैसे कि मैं लगा रहा हूं।
जगह छोड़ कर लगाने से, चिन्ह अक्सर अगली पंक्ति मे चले जाते हैं जो अजीब लगता है। आप अपनी चिट्ठी के पैराग्राफ की चौथी पंक्ति देखें।
अरे ये क्या हुआ ...भाभी जी का नंबर देना ज़रा :-)
ReplyDeleteउस का मुड़ कर न देखना, जी का जंजाल हो गया। प्रेम ऐसा ही होता है। उसे हमेशा इकतरफा होना चाहिए, बिना किसी अपेक्षा के।
ReplyDelete२८ घंटे का सफ़र रेल से अपने आप मे एक सफर है . और उस पर यह सफर ............
ReplyDeleteजाने कहाँ गए वो दिन, अरे नहीं घंटे
ReplyDeleteदैहिक सत्यापन करने की जैसा चूडा था वैसा ही पाया :)
ReplyDeleteयह लाईन कृपया फिर से संशोधित रूप में यूं पढ़ें ...
दैहिक सत्यापन करने कि जैसा क छोड़ा था वैसा ही पाया :)
रोचक.
ReplyDeleteसंवेदनशील गद्य, वाह
ReplyDeleteक्यों ना आप इसे कविता का रूप दें दें
मजा आ जायेगा
प्रणाम
मैं भी एक बार किसी के साथ चलने के भरोसे पर आरक्षण करवा कर रेल में बैठा था, मगर दूसरी खाली बर्थ और मेरी टिकट पर दो सीटों के नम्बर मुझे पूरे 12 घंटे मुंह चिढाते रहे।
ReplyDeleteप्रणाम
मानसिक हलचल पर टिप्पणी नहीं दे पा रहा हूं। क्या कारण है।
ReplyDeleteज्ञानदत्त जी की आज की पोस्ट के लिये टिप्पणी करना चाहता था……
"अनैतिक, असामाजिक कार्यों के लिये रिटायरमेंट भी तो जल्द आ जाता है"
प्रणाम
मेरा प्रेम रोगग्रसित है । पहले तो अवहेलना व अधिकार जैसे शब्द नहीं आते थे हमारे बीच । पर पहले तो तुम्हारी आँखें हमेशा मेरी ओर ही मुड़कर देखती थी और मेरी यात्राओं को यथासम्भव छोटा कर देती थी ।
ReplyDeleteपरिस्थितिया बहुत कुछ बदल देती है |अकेले मन की यात्रा को बहुत ही रोचक ढंग से प्रस्तुत करती सुन्दर पोस्ट |
उसने नहीं देखा तो एक नायाब सी पोस्ट बन गयी यदि देख लिया होता तो आम बात हो जाती। लेकिन कभी-कभी अपेक्षित कोई बात नहीं होती तो सारा ध्यान वहीं रहता है और लगता है कि कहीं यह उपेक्षा तो नहीं। बहुत ही अच्छी प्रकार से अपनी बात को आपने कहा है, बधाई।
ReplyDeleteकभी कभी कुछ लम्हात ज़िन्दगी मे ठहर से जाते हैं एक प्रश्न बनकर और ताउम्र उनके जवाब नही मिलते…………शुरु से आखिर तक बाँधे रखा।
ReplyDelete28 hours !....lock it and cherish them.
ReplyDeleteI'm sure she was wishing, that you will call her and ask, and talk and complain..
बेहतरीन लाजवाब.............
ReplyDeleteअरे इतनी भी बेरुखी क्या??? हो सकता है कोई दुर से छुप के देख रहा हो, चलिये वो गीत सुने मन हल्का हो जयेगा.
ReplyDeleteमै यह सोच कर उस के दर से ऊठा था कि....
परवीन बाबू! लगता है ई संस्मरन “सखि वे मुझसे कहकर जाते” का पुरुस भाग है..एकदम ओही आनंद...
ReplyDelete"पहले तो तुम्हारी आँखें हमेशा मेरी ओर ही मुड़कर देखती थी और मेरी यात्राओं को यथासम्भव छोटा कर देती थी ।"
ReplyDeleteऔर इस 28 घंटे के हर मिनट और हर सेकेंड्स पर भी चस्पां रहीं वे ऑंखें, जिन्होंने मुड कर नहीं देखा....पर ये ख़ूबसूरत पोस्ट लिखवा ली.
सुन्दर लेखन
शायद इसे ही कहते हैं प्रेम का सम्मान.
ReplyDeleteजब प्रेम ईमानदार होता है तो वह सम्मानित हो ही जाता है.
आपको बधाई.
suna tha ki lohe ka ghar kaljayii rachnayen diya karta hai...aur kya-kya likha..?
ReplyDelete@ वाणी गीत
ReplyDeleteयदि कोई मुड़कर नहीं देखता है तो पीठ ही दिखायी पड़ेगी ।
@ Arvind Mishra
कहानी, हम मनाते थे, तनिक सीधी सी बन जाती,
क्या बतायें, अब तलक वह, साँप सी लहरा रही ।
@ हिमान्शु मोहन
उत्तम! ख़ूबसूरत! गहन!
किसलिये यह सब सहन,
@ सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
कहा दिल ने अकड़ कर जब, तुम्हारे साथ रहते हैं,
हमें झुकना पड़ा, हम बुद्धि का अवसान सहते हैं ।
@ Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय)
न मुड़कर देखना उनका, कहानी एक बना लाया,
सुने उनसे कहानी, अब कयामत झेलना है क्या ?
@ मनोज कुमार
मैं भी अपनी मानसिक हलचल को इस पोस्ट में लिख पाया हूँ ।
गद्य पद्य के बीच फँसे है, जीवन के अभिचित्रण सब,
जैसे हैं, अब बह जाने दें, था प्रयास, रुक पाये कब ।
@ उन्मुक्त
उड़नपरी थी, स्वप्नतरी थी, हरण कर लिये चिन्तन रथ,
कौन कल्पना जी सकती अब, मौन झेलता जीवन पथ ।
@ राम त्यागी
क्या हुआ है, क्यों हुआ है, प्रश्न हैं, उत्तर भी हैं,
इन पहाड़ो की चढ़ाई में कई समतल भी हैं,
बैठ कर सुस्ता रहे हैं, भूलते सब जा रहे हैं,
जानते निष्कर्ष अपना, भाप, हिम हैं, जल भी हैं ।
@ दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi
ReplyDeleteप्रेम का यह रूप जाना, क्या करें, था समय वह भी,
मन नहीं उन्माद करता, बीत ही जाता सुखद ।
@ dhiru singh {धीरू सिंह}
सफर में साथ चलते थे हजारों शख्स अपने से,
हृदय को हर समय छेड़े मगर उनका नहीं आना ।
@ डॉ महेश सिन्हा
समय, तुम्हारा साथ नहीं जब, वह भी वापस आ जाता,
विरह वेदना, तनिक जोर से मन ही मन में कह देती ।
@ P.N. Subramanian
रोचक अब लगता है, बीते दिन का असली अल्हड़पन,
प्रेम मार्ग की राह अकेली, सभी वहीं से जाते हैं ।
@ अन्तर सोहिल
बहने दूँगा घाव, बहेंगे, कवितायें बन जायेंगी,
सह लेने की क्षमता अपनी लेकिन उनसे आधी है ।
खाली सीटें,साथ बिठाये मैं तुमसे बतियाता था,
पर सब हँस कर मुस्काते हैं, प्रेम न समझें, जाहिल हैं ।
@ शोभना चौरे
मेरा तो मार्ग निश्चित था, अकेली थी मेरी राहें,
सुखद यह वेदना अनुभव न होती, तुम जो ना आती ।
@ ajit gupta
देख कर वादे हुये, फिर क्यों नहीं देखा ?
मिली होगी खुशी उनको,हमारा तड़पकर जाना।
@ वन्दना
मैं आगे बढ़ नहीं पाया, उसी पल के लिये ठहरा,
हवायें ठुमुक बढ़ जाती तुम्हारी एक नज़रों से ।
@ Divya
ReplyDeleteसमय की कैद में अब भी, अकेले छोड़ तुम आयी,
वे लम्हे तड़पते रहते, उन्हें चाभी नहीं मिलती ।
@ Ratan Singh Shekhawat
हम जबाब एक ढूढ़ रहे हैं, अब सवाल की गलियों में,
एक पहेली बन कर उभरी, जीवन की फरमाईश अब ।
@ राज भाटिय़ा
घिरे थे स्याह अँधियारे, फ़कत एक रोशनी तुम थीं,
न कहना छिप के देखा था, मेरी नज़रें तुम्ही पर थीं।
@ चला बिहारी ब्लॉगर बनने
"पर न जाने बात क्या है", अगर उत्तर ज्ञात होता,
उर्वशी की खोज में यूँ सूत्र न दिनकर पिरोता ।
@ rashmi ravija
मेरा लहरों सा बन उठना, लगेगा एक कोलाहल,
मुझे ग़र चाँद संग देखो, तो समझोगे कहानी सब ।
@ राजकुमार सोनी
अपनी आँखों में कितने मैं ख्वाब सजाये बैठा हूँ,
नज़र मिला लो, हैं बहने को सब के सब तैयार खड़े ।
@ बेचैन आत्मा
तिक्त पराजय, बीत गया जो काल, बहा कविता बनकर,
नहीं पराजय की गाथायें, कालजयी हो पाती हैं ।
क्या कहूं, समझ में नहीं आ रहा..
ReplyDeleteआपका यह यात्रा प्रसंग बहुत भाव पूर्ण और संवेदनशील....यात्रा के २८ घंटे इसी उहापोह में गुज़र गए...काश एक बार मुड कर देखा होता..
ReplyDeleteबहुत प्रवाह मयी
बहुत बढ़िया लिखा है आपने. बड़ी कोमल भाषा है.
ReplyDeleteअरे वाह वाह इतनी सुंदर पोस्ट सिर्फ एक मुड के न देखने पर ,वाकई बहुत ही खुबसूरत ,कुछ रचनाये ऐसी होती हैं की जिनकी तारीफ में कहे गए
ReplyDeleteशब्द भी गुनाह बन जाते हैं ,क्योकि कोई भी शब्द कितनी भी तारीफ़ उनके लिए कम ही पड़ जाती हैं .अप्रतिम रचना
मुझे 28 घन्टे लग गये शायद इस पोस्ट तक आने मे। हा हा हा --दिलचस्प हैं आपकी पोस्ट। शुभकामनायें
ReplyDeleteइस सरल धवल सौम्य मुस्कान के पीछे इतना प्यारा और सुन्दर दिल भी है, यह तो सभी जान गये है आपके इस ब्लोग से। लेकिन प्यारे भाई, जवाब में लिखे इतने ढेर सारे शेर भी यदि आपके हैं तो आपको ब्लोग से पहले गज़लों की ओर आना चाहिये।
ReplyDeleteबहरहाल यदि वे पीछे मुडकर देख लेते तो आपके मन मे ये भाव कहां से आते, इसलिये इस पीछे मुडकर न देखने के लिये हम सब उन्हे साधुवाद देते हैं।
बेसाख्ता एक ही शब्द निकल रहा है, ' वाह'। उन्हों ने मुड़ कर इसी लिए नहीं देखा कि आप की दृष्टि की ताकत से वाकिफ़ थीं, हठात, बलात रोक लेती उन्हें।
ReplyDeleteएक कवि ह्र्दय से निकली पोस्ट,
"पर तुम्हारी आँखें मेरी ओर उस समय क्यों नहीं घूमी जब मैं चाह रहा था । तुम्हारी ओर देखते हुये तुम्हारे कन्धों को मोड़ना चाह रहा था अपनी ओर । लगता है, मेरी आँखों में अब वह बल नहीं रहा जो खींच ले तुम्हारी दृष्टि, अचानक, बलात, साधिकार ।"
ReplyDelete- कभी कभी सब कुछ जानते हुए भी हम उस सब कुछ से दूर जाना चाहते हैं. खुद को विवश पाते हैं फिर भी खुद को विवश करना चाहते हैं. ये एक दिल ना जाने कितनी तड़प को जन्म दे देता है.
विचारों को महत्व देता हूँ क्योंकि उनका बहकना स्वयं को झेलना पड़ता है.
ReplyDeleteबूंदों के छोटे-छोटे तमाचे....!!
हर वाक्य पर कुछ पल रुका हूँ और आपके जिए पलों को स्वयं भी जिया हूँ.
आप प्रवीण के बजाय राजीव..!!
राजीव, राजीव के बजाय प्रवीण...!!
दोनों एक ही लगने लगे.
उतर आये आप दिल में.
आपको मलाल किस बात का ज्यादा था उनके मुड के न देखने का या हवाई यात्रा के निर्णय का । बहर हाल आपके वे 28 घंटे काफी परेशानी भरे थे जो बारिश की छोटी छोटी बूंदे आपको लोहे की भारी भरकम ट्रेन को तमाचे मारती सी लगीं । कहानी दिलचस्प लगी ।
ReplyDelete@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen
ReplyDeleteकहा कुछ नहीं, सहा समय का भार अकेला,
बहुधा मन हो विवश, बहा यूँ करता है ।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )
तुम्हारी एक मुस्काहट, मेरे जीवन का खिल जाना,
कृपणता मत सहेजो, है मेरा हथियार पागलपन।
@ Shiv
मनभावों की आवाजाही बिना विशेषण होती है,
कोमल और कठोर हृदय के भारी भारी पत्थर हैं ।
@ डॉ.राधिका उमडे़कर बुधकर
कोई होगी टीस, मेरा क्या गुनाह, मालुम नहीं,
यूँ नज़र का फेर लेना क्या सज़ा काफी नहीं?
@ निर्मला कपिला
मैं हृदय को मना लेता, मानता मेरी वो है,
चोट यह गहरी बहुत है, आज वह माना नहीं।
@ विनोद शुक्ल-अनामिका प्रकाशन
ReplyDeleteन अन्दर रोशनी भेदे, मेरी गहराई इतनी थी,
वहाँ कोई चाँद भी बैठा हुआ था खींचनेवाला ।
@ anitakumar
अगर यह जानकर भी, देखता मैं, मुड़ के ना देखा,
मेरे भावों का अंधड़ व्यग्र हो उसने सहा होगा ।
@ Stuti Pandey
विवशता किन्तु जीवन की, हृदय शैशव रहा अब भी,
समय से रूठकर बैठा हुआ है, नहीं बढ़ता है ।
@ E-Guru Rajeev
मैं सहता हूँ, मुझे सहना, रहे कहानी यह,
जिसे जब आप चाहें, प्रेमपूरित, मुड़ के वे देखें।
@ Mrs. Asha Joglekar
मुझे उड़ना न आया था, चला मैं प्रेम पद लड़खड़,
तुम्हारा साथ रहता, दर्द में गिरना नहीं होता।
आखिर सहने की भी कोई सीमा होती है, आपने तो फ़िर भी २८ घंटे का दर्द बयान कर दिया, कहीं मन में छोटी सी गांठ के कारण, देखा तो होगा उसने पर हम नहीं देख पाते हैं, जब हम चाहते हैं :)
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया मनोभावों का चित्रण और शब्द चित्र ।
बहुत खूब...
ReplyDeleteजबर्दस्त भाव प्रवण रचना।
ब्लाग पर रचनात्मकता के सकारात्मक आयाम का बेहतरीन उदाहरण।
आज पहली बार इस धाम के द्वार मेरे लिए खुले प्रवीणभाई। अब धीरे धीरे पिछली कड़ियों से गुजरता हूं-उलटी यात्रा।
@ Vivek Rastogi
ReplyDeleteसंभवतः वही गाँठ बह निकली इस यात्रा में।
@ अजित वडनेरकर
आपको इस यात्रा में अपने शब्द कई स्थानों पर स्वागत करते दिख जायेंगे।
वाह क्या खूब पोस्ट...हर एक कमेन्ट के रिप्लाई ने इसे और भी सुन्दर बना दिया...बेहतरीन
ReplyDelete@ शुभम जैन
ReplyDeleteप्रतिटिप्पणियाँ बस यूँ ही बह निकली टिप्पणियों के प्रवाह में।
kis duvidha kashmkash me thee . ye .to vo hee jaane.
ReplyDeleteatthaees ghante usake naam hue,hum to ye hee maane.
are aapkee ye gady post kitna padhy le aaee............
aur haa Praveen jee jo der se uthate hai unhe vo subah ka khoya samay din bhar hath nahee aata........
प्रवीण जी नमस्कार .
ReplyDeleteआपका लेख बहुत सुंदर है |सुंदर भावाभिव्यक्ति है |मैंने नयी-पुरानी हलचल पर उसे लिया है|कृपया आयें और अपने शुभ विचार दें |
http://nayi-purani-halchal.blogspot.com/
anupama tripathi.
बहुत रोचकता से आपने २८ घंटों को उभारा है.
ReplyDeleteसादर
Bahut hi khubsurati se aap ne yeh vritaant likha hai.
ReplyDeleteसमझाना चाहता हूँ मन को, विषय भी हैं बहुत जो ध्यान दिये जाने की राह तक रहे हैं पर तुमने मुड़कर क्यों नहीं देखा ?
....aksar aise prashn anutrit rah jaate hain!
bhaavon ka pravaah padhne wale ko saath bahaa le jaata hai.