मेरे
28 घंटों पर सुधीजनों ने अपना वाणी अमृत बरसा उन्हें पुनः जीवित कर दिया । प्रभात की चैतन्यता, शीतल बयार और आप सभी की टिप्पणी अस्तित्व को भावमयी बना गयी और बह निकली धन्यवाद की धारा ।
टिप्पणियों पर प्रतिटिप्पणी देकर एक पोस्ट बना डालना एक नया प्रयोग हो सकता है पर ऋण उतारना तो मेरी कृतज्ञता की अभिव्यक्ति थी ।
सारी प्रतिटिप्पणियाँ इस रंग में हैं ।
कई बार होता है लम्हे सिमट कर वहीँ रह jaate हैं ...किसी की पीठ पर..
२८ घंटों के सफ़र की दास्तान रोचक रही ...!
चिपक कर पीठ पर लम्हे, तेरे ही साथ जाते हैं,
मिलें जब फिर, समझ आता, कि बीता है समय कितना।
भाव प्रवण प्रवीण कहूं या भाव प्रवीण प्रवीण ---ऐसी संवेदनाएं जीवन के पलों/क्षणों को सार्थक तो बना जाती हैं मगर फिर भी ऐसी गहन संवेदना से " भले वे मूढ़ जिन्हें न व्यापहि जगत गति ..."
वो शेर कौन था ..किसे याद है ? ...वो जाते जाते तुम्हारा मुड़कर दुबारा देखना ....
याद आया याद आया .....यूँ बिछड़ना भी बहुत आसाँ न था उससे मगर जाते जाते उसका वो मुड़कर दुबारा देखना....
गंतव्य एक पंथ अनेक ......क्या फर्क पड़ता है ?
हाँ वे पहले पहुँच कर स्टेशन लेने इर्र्र देखने आयीं या नहीं ?दैहिक सत्यापन करने की जैसा चूडा था वैसा ही पाया :)
अगर नहीं तब तो सचमुच अच्छी बात नहीं ..हम भी कह देते हैं !
कहानी, हम मनाते थे, तनिक सीधी सी बन जाती,
क्या बतायें, अब तलक वह, साँप सी लहरा रही ।
उत्तम! ख़ूबसूरत! गहन!
उत्तम! ख़ूबसूरत! गहन!
किसलिये यह सब सहन,
अरे वाह, आप तो बहुत भावुक निकले...।
दिल की परेशानी यूँ ही नहीं बढ़ती, ये दिमाग अगल दिल से राफ़्ता कायम कर ले तो ऐसी तकलीफ़ें आम हो जाती हैं। थोड़ा बचा कर रखिए जी, और भी ग़म हैं जमाने में...
कहा दिल ने अकड़ कर जब, तुम्हारे साथ रहते हैं,
हमें झुकना पड़ा, हम बुद्धि का अवसान सहते हैं।
"पर तुम्हारी आँखें मेरी ओर उस समय क्यों नहीं घूमी जब मैं चाह रहा था । तुम्हारी ओर देखते हुये तुम्हारे कन्धों को मोड़ना चाह रहा था अपनी ओर । लगता है, मेरी आँखों में अब वह बल नहीं रहा जो खींच ले तुम्हारी दृष्टि, अचानक, बलात, साधिकार ।"
कभी कभी मन होता है अदर साईड ओफ़ स्टोरी को भी जानने का :) काश वो भी लिखतीं और आपकी इन बेहद खूबसूरत पन्क्तियो के जवाब पढने का मौका मिलता... हो सकता है उन दो घंटो की भी एक कहानी हो या दो मिनट की भी... :)
न मुड़कर देखना उनका, कहानी एक बना लाया,
सुने उनसे कहानी, अब कयामत झेलना है क्या?
.........और प्रवीण जी ... कहा कहूं इस कविता मय गद्य पर ... बस बेहतरीन ! लाजवाब!!
गद्य पद्य के बीच फँसे है, जीवन के अभिचित्रण सब,
जैसे हैं, अब बह जाने दें, था प्रयास, रुक पाये कब।
अरे कौन थी वह उड़नपरी :-) .........
उड़नपरी थी, स्वप्नतरी थी, हरण कर लिये चिन्तन रथ,
कौन कल्पना जी सकती अब, मौन झेलता जीवन पथ।
अरे ये क्या हुआ ...भाभी जी का नंबर देना ज़रा :-)
क्या हुआ है, क्यों हुआ है, प्रश्न हैं, उत्तर भी हैं,
इन पहाड़ो की चढ़ाई में कई समतल भी हैं,
बैठ कर सुस्ता रहे हैं, भूलते सब जा रहे हैं,
जानते निष्कर्ष अपना, भाप, हिम हैं, जल भी हैं।
उस का मुड़ कर न देखना, जी का जंजाल हो गया। प्रेम ऐसा ही होता है। उसे हमेशा इकतरफा होना चाहिए, बिना किसी अपेक्षा के।
प्रेम का यह रूप जाना, क्या करें, था समय वह भी,
मन नहीं उन्माद करता, बीत ही जाता सुखद।
२८ घंटे का सफ़र रेल से अपने आप मे एक सफर है . और उस पर यह सफर ............
सफर में साथ चलते थे हजारों शख्स अपने से,
हृदय को हर समय छेड़े मगर उनका नहीं आना।
जाने कहाँ गए वो दिन, अरे नहीं घंटे
समय, तुम्हारा साथ नहीं जब, वह भी वापस आ जाता,
विरह वेदना, तनिक जोर से मन ही मन में कह देती।
रोचक.
रोचक अब लगता है, बीते दिन का असली अल्हड़पन,
प्रेम मार्ग की राह अकेली, सभी वहीं से जाते हैं।
संवेदनशील गद्य, वाह
क्यों ना आप इसे कविता का रूप दें दें
मजा आ जायेगा.....
बहने दूँगा घाव, बहेंगे, कवितायें बन जायेंगी,
सह लेने की क्षमता अपनी लेकिन उनसे आधी है।
मैं भी एक बार किसी के साथ चलने के भरोसे पर आरक्षण करवा कर रेल में बैठा था, मगर दूसरी खाली बर्थ और मेरी टिकट पर दो सीटों के नम्बर मुझे पूरे 12 घंटे मुंह चिढाते रहे।.....
खाली सीटें,साथ बिठाये मैं तुमसे बतियाता था,
पर सब हँस कर मुस्काते हैं, प्रेम न समझें, जाहिल हैं।
मेरा प्रेम रोगग्रसित है । पहले तो अवहेलना व अधिकार जैसे शब्द नहीं आते थे हमारे बीच । पर पहले तो तुम्हारी आँखें हमेशा मेरी ओर ही मुड़कर देखती थी और मेरी यात्राओं को यथासम्भव छोटा कर देती थी ।
परिस्थितिया बहुत कुछ बदल देती है |अकेले मन की यात्रा को बहुत ही रोचक ढंग से प्रस्तुत करती सुन्दर पोस्ट |
मेरा तो मार्ग निश्चित था, अकेली थी मेरी राहें,
सुखद यह वेदना अनुभव न होती, तुम जो ना आती।
उसने नहीं देखा तो एक नायाब सी पोस्ट बन गयी यदि देख लिया होता तो आम बात हो जाती। लेकिन कभी-कभी अपेक्षित कोई बात नहीं होती तो सारा ध्यान वहीं रहता है और लगता है कि कहीं यह उपेक्षा तो नहीं। बहुत ही अच्छी प्रकार से अपनी बात को आपने कहा है, बधाई।
देख कर वादे हुये, फिर क्यों नहीं देखा ?
मिली होगी खुशी उनको,हमारा तड़पकर जाना।
कभी कभी कुछ लम्हात ज़िन्दगी मे ठहर से जाते हैं एक प्रश्न बनकर और ताउम्र उनके जवाब नही मिलते…………शुरु से आखिर तक बाँधे रखा।
मैं आगे बढ़ नहीं पाया, उसी पल के लिये ठहरा,
हवायें ठुमुक बढ़ जाती तुम्हारी एक नज़रों से।
28 hours !....lock it and cherish them.
I'm sure she was wishing, that you will call her and ask, and talk and complain..
समय की कैद में अब भी, अकेले छोड़ तुम आयी,
वही लम्हे तड़पते हैं, उन्हें चाभी नहीं मिलती।
बेहतरीन लाजवाब.............
हम जबाब एक ढूढ़ रहे हैं, अब सवाल की गलियों में,
एक पहेली बन कर उभरी, जीवन की फरमाईश अब।
अरे इतनी भी बेरुखी क्या??? हो सकता है कोई दुर से छुप के देख रहा हो, चलिये वो गीत सुने मन हल्का हो जयेगा.
मै यह सोच कर उस के दर से ऊठा था कि....
घिरे थे स्याह अँधियारे, फ़कत एक रोशनी तुम थीं,
न कहना छिप के देखा था, मेरी नज़रें तुम्ही पर थीं।
परवीन बाबू! लगता है ई संस्मरन “सखि वे मुझसे कहकर जाते” का पुरुस भाग है..एकदम ओही आनंद...
"पर न जाने बात क्या है", अगर उत्तर ज्ञात होता,
उर्वशी की खोज में यूँ सूत्र न दिनकर पिरोता।
"पहले तो तुम्हारी आँखें हमेशा मेरी ओर ही मुड़कर देखती थी और मेरी यात्राओं को यथासम्भव छोटा कर देती थी ।"
और इस 28 घंटे के हर मिनट और हर सेकेंड्स पर भी चस्पां रहीं वे ऑंखें, जिन्होंने मुड कर नहीं देखा....पर ये ख़ूबसूरत पोस्ट लिखवा ली.
सुन्दर लेखन
मेरा लहरों सा बन उठना, लगेगा एक कोलाहल,
मुझे ग़र चाँद संग देखो, तो समझोगे कहानी सब।
शायद इसे ही कहते हैं प्रेम का सम्मान.
जब प्रेम ईमानदार होता है तो वह सम्मानित हो ही जाता है.
आपको बधाई.
अपनी आँखों में कितने मैं ख्वाब सजाये बैठा हूँ,
नज़र मिला लो, हैं बहने को सब के सब तैयार खड़े।
suna tha ki lohe ka ghar kaljayii rachnayen diya karta hai...aur kya-kya likha..?
तिक्त पराजय, बीत गया जो काल, बहा कविता बनकर,
नहीं पराजय की गाथायें, कालजयी हो पाती हैं।
क्या कहूं, समझ में नहीं आ रहा..
कहा कुछ नहीं, सहा समय का भार अकेला,
बहुधा मन हो विवश, बहा यूँ करता है।
आपका यह यात्रा प्रसंग बहुत भाव पूर्ण और संवेदनशील....यात्रा के २८ घंटे इसी उहापोह में गुज़र गए...काश एक बार मुड कर देखा होता..
बहुत प्रवाह मयी
तुम्हारी एक मुस्काहट, मेरे जीवन का खिल जाना,
कृपणता मत सहेजो, है मेरा हथियार पागलपन।
बहुत बढ़िया लिखा है आपने. बड़ी कोमल भाषा है.
मनभावों की आवाजाही बिना विशेषण होती है,
कोमल और कठोर हृदय के भारी भारी पत्थर हैं।
अरे वाह वाह इतनी सुंदर पोस्ट सिर्फ एक मुड के न देखने पर ,वाकई बहुत ही खुबसूरत ,कुछ रचनाये ऐसी होती हैं की जिनकी तारीफ में कहे गए
शब्द भी गुनाह बन जाते हैं ,क्योकि कोई भी शब्द कितनी भी तारीफ़ उनके लिए कम ही पड़ जाती हैं .अप्रतिम रचना
कोई होगी टीस, मेरा क्या गुनाह, मालुम नहीं,
यूँ नज़र का फेर लेना क्या सज़ा काफी नहीं?
मुझे 28 घन्टे लग गये शायद इस पोस्ट तक आने मे। हा हा हा --दिलचस्प हैं आपकी पोस्ट। शुभकामनायें
मैं हृदय को मना लेता, मानता मेरी वो है,
चोट यह गहरी बहुत है, आज वह माना नहीं।
इस सरल धवल सौम्य मुस्कान के पीछे इतना प्यारा और सुन्दर दिल भी है, यह तो सभी जान गये है आपके इस ब्लोग से। लेकिन प्यारे भाई, जवाब में लिखे इतने ढेर सारे शेर भी यदि आपके हैं तो आपको ब्लोग से पहले गज़लों की ओर आना चाहिये।
बहरहाल यदि वे पीछे मुडकर देख लेते तो आपके मन मे ये भाव कहां से आते, इसलिये इस पीछे मुडकर न देखने के लिये हम सब उन्हे साधुवाद देते हैं।
न अन्दर रोशनी भेदे, मेरी गहराई इतनी थी,
वहाँ कोई चाँद भी बैठा हुआ था खींचनेवाला।
बेसाख्ता एक ही शब्द निकल रहा है, ' वाह'। उन्हों ने मुड़ कर इसी लिए नहीं देखा कि आप की दृष्टि की ताकत से वाकिफ़ थीं, हठात, बलात रोक लेती उन्हें।
एक कवि ह्र्दय से निकली पोस्ट,
अगर यह जानकर भी, देखता मैं, मुड़ के ना देखा,
मेरे भावों का अंधड़ व्यग्र हो, उसने सहा होगा।
"पर तुम्हारी आँखें मेरी ओर उस समय क्यों नहीं घूमी जब मैं चाह रहा था । तुम्हारी ओर देखते हुये तुम्हारे कन्धों को मोड़ना चाह रहा था अपनी ओर । लगता है, मेरी आँखों में अब वह बल नहीं रहा जो खींच ले तुम्हारी दृष्टि, अचानक, बलात, साधिकार ।"
- कभी कभी सब कुछ जानते हुए भी हम उस सब कुछ से दूर जाना चाहते हैं. खुद को विवश पाते हैं फिर भी खुद को विवश करना चाहते हैं. ये एक दिल ना जाने कितनी तड़प को जन्म दे देता है.
विवशता किन्तु जीवन की, हृदय शैशव रहा अब भी,
समय से रूठकर बैठा हुआ है, नहीं बढ़ता है।
विचारों को महत्व देता हूँ क्योंकि उनका बहकना स्वयं को झेलना पड़ता है.
बूंदों के छोटे-छोटे तमाचे....!!
हर वाक्य पर कुछ पल रुका हूँ और आपके जिए पलों को स्वयं भी जिया हूँ.
आप प्रवीण के बजाय राजीव..!!
राजीव, राजीव के बजाय प्रवीण...!!
दोनों एक ही लगने लगे.
उतर आये आप दिल में.
मैं सहता हूँ, मुझे सहना, रहे कहानी यह,
जिसे जब आप चाहें, प्रेमपूरित, मुड़ के वे देखें।
आपको मलाल किस बात का ज्यादा था उनके मुड के न देखने का या हवाई यात्रा के निर्णय का । बहर हाल आपके वे 28 घंटे काफी परेशानी भरे थे जो बारिश की छोटी छोटी बूंदे आपको लोहे की भारी भरकम ट्रेन को तमाचे मारती सी लगीं । कहानी दिलचस्प लगी
मुझे उड़ना न आया था, चला मैं प्रेम पद लड़खड़,
तुम्हारा साथ रहता, दर्द में गिरना नहीं होता