31.7.10

मेरे कुम्हार

यूँ तो जीवन में जो भी मिला कुछ न कुछ सिखाता गया। प्रारम्भ माता पिता से किया और सम्प्रति बच्चों से सीख रहा हूँ। बीच में पर व्यक्तित्वों की एक श्रंखला है जो ढालते गये गीली मिट्टी को एक उपयोगी पात्र में, रौंद कर अनुशासन तले, अभ्यास के चाक में बार बार घुमाकर, विकारों को ठोंक पीट कर और तप की आग में तपा कर। यद्यपि मिट्टी को यह बर्ताव उस समय नहीं सुहाता है पर जब एकान्त में निर्विकार चिन्तन होता है तब उन कुम्हारों को बहुत याद करता होगा पात्र। बिन उनके तो वह बना रहता लोंदा, मिट्टी का, पृथ्वी पर भार।

कुम्हार को क्या पड़ी है, हाथ गन्दा करने की? क्या पड़ी है बार बार ध्यान दे देकर अपना समय व्यर्थ करने की? क्या पड़ी है बर्तन के साथ स्वयं तपने की? क्यों उलझ गये मेरे लोंदीय अस्तित्व से? मुझे पड़ा रहने देते, मैं जैसा था। कह देते कि यह मिट्टी किसी योग्य नहीं है। कह देते कि इसमें सुपात्र तो क्या, पात्र बनने की भी योग्यता नहीं है। कह देते कि व्यक्तित्व के अनियमित उभार यूँ ही वक्र रहेंगे और खटकते रहेंगे समाज की दृष्टि में। न भी घ्यान देते तो भी उनकी जीविका चल रही थी और चलती रहती, मैं पड़ा रहता मिट्टी के ढेर में एक और लोंदे सा।

यह मेरा प्रारब्ध था या उनका स्वभाव। मेरी लालसा थी सीखने की या उनकी उत्कण्ठा अधिकाधिक बताने की। तथ्यों पर मेरी ध्यान न देने की प्रवृत्ति पर उनकी ध्यान दिलाने की आवृत्ति अधिक भारी पड़ी। हठ मेरा न सुधरने का या विश्वास उनका कि यह सुधरकर रहेगा। मैं टोंका जाता गया, मेरा विरोध, अनमनापन, आलस्य बार बार टोंका गया। जब समझने योग्य बुद्धि हुयी तब कहीं मेरे कुम्हारों को जाकर विश्वास हुआ कि अब यह योग्य है और तब ही मुझे छोड़ दिया गया समाज में अपना अनुभव-घट स्वतः भरने के लिये।

उनकी याद मुझे दर्पण में अपनी आँखें देखकर ही आ जाती है। आँखों की गहराई में बस गया स्थायी इतिहास सहसा बात करने लगता है। एक एक तथ्य बोलते हुये निकल कर सामने आने लगते हैं।

बचपन मेरा और 'बुढ्ढे मास्साब' की वृद्धावस्था। मेरी चंचलता पर उनका धैर्य भारी पड़ा। कुम्हार जाति के थे, संभवतः तभी उनको आता था कि इस लोंदे को कैसे गढ़ना है, धैर्यपूर्वक। हाथ में कलम पकड़ाकर एक एक अक्षर लिखना सिखाया। आज जब कोई महत्वपूर्ण निर्णय लिखता हूँ फाइलों पर तो मुझे मेरे बुढ्ढे मास्साब का हाथ अपने हाथों में धरा प्रतीत होता है।

विद्यालय में आया तो अध्यापकों का हर माह घर आना याद आता है। पूरे माह इस दिन की प्रतीक्षा यह जानने के लिये करता था कि कहीं अनजाने में कोई भूल तो नहीं हो गयी।

कानपुर पढ़ने छात्रावास में आया तो एक अध्यापक मिले, मराठी। बाहर से बड़ी सी डरावनी दाढ़ी और अन्दर से उतना ही मृदुल हृदय। अनुशासनप्रिय। छात्रावास में रहने के बाद भी क्या हिम्मत कि बिना पूछे बाहर जाकर चाट खा आयें। बहुत दिनों तक अखरता रहा यह अनुशासन पर अब वही एक संचित कोष लगता है उन क्षणों का जिसमें मेधा ने विकास की अँगड़ाई ली।

कई अध्यापक जो समाज के सभी भागों का प्रतिनिधित्व करते थे, निस्वार्थ भाव से मेरे ज्ञानकोष में अपने अनुभव का अंबार उड़ेल कर चले गये, बार बार समझा कर, बार बार डाँट कर, इस पात्र को आकार दे गये।
  
गढ़े जाने का क्रम बना रहा, समाज ने जितना सिखाया, उतना सीखता रहा, सबसे सीखा। संभवतः आज की राजनीति का प्रभाव न था मेरे ऊपर, संभवतः सारे भेद ज्ञान से निम्न जान पड़ते थे मुझे। कई राज्यों के ऋण हैं मेरे ऊपर मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखण्ड, बिहार, उत्तरप्रदेश और अब कर्नाटक। हर संस्कृति ने व्यक्तित्व में कुछ न कुछ जोड़ा ही है।

मुझे अपनी आँखों में जाति, भाषा, राज्य और धर्म से परे कुम्हारों की श्रंखलायें दिखायी पड़ती हैं। अब कोई मुझसे किसी एक का पक्ष लेने की मानसिकता सिखाये तो मैं अपने कुम्हारों को क्या उत्तर दूँगा? कैसे उनकी आकांक्षायें अपने बर्तन से हटाऊँगा? हटाने से मेरे व्यक्तित्व में वह छेद हो जायेगा जिससे मेरा अस्तित्व ही बह जायेगा, इन संकीर्ण नालियों में।

28.7.10

मध्यमवर्गीय ! हाँ बस यहीं ठीक है

आँख बन्द करता हूँ और पूछता हूँ स्वयं से कि मैं कहाँ हूँ? मैं कौन हूँ, यह प्रश्न पूछा जा चुका है अतः वह पुनः पूछना कॉपीराइट का उल्लंघन हो सकता था।

अनगूगलीय उत्तर आता 'तुम इस विश्व के मध्य में हो तात, तुम मध्यमवर्गीय हो'

सहसा ज्ञानचक्षु खुल जाते हैं और सारे विश्व से अपनत्व होने लगता है। दसों दिशाओं में विश्व दिखने लगता है। प्राण में, ज्ञान में, धन में, मन में, श्रम में और हर क्रम में।

बचपन से अभी तक हम सबके नाम से चिपक सा गया है यह शब्द, मध्यमवर्गीय। सहज सा परिचय। इस शब्द को बनाने वाले को भान भी न होगा कि यह शब्द इतना हिट हो जायेगा और सब लोग ही इससे सम्बन्ध रखना चाहेंगे।

इस शब्द का प्रथम उपयोग आर्थिक आकलन के लिये हुआ होगा पर यह शब्द अब हमारी मानसिक व बौद्धिक क्षमताओं में साधिकार घुस चुका है। हमारा आर्थिक रूप से मध्यमवर्गीय होना हमें भले न कचोटे पर मानसिक व बौद्धिक मध्यमवर्गीयता हमारे समाज व देश के ऊपर कभी न मिटने वाला धब्बा बनकर चिपका हुआ है।

ऐतिहासिक साक्ष्यों ने भारतीयों को सदैव ही मानसिक व बौद्धिक क्षमताओं के मुहाने पर खड़ा पाया है। क्या हुआ अब हमें? क्या हमारी सुविधाजनक जीवन शैली हमें मध्यमवर्गीय बने रहने पर विवश कर रही है? हम भीड़ के मध्य खड़े रहने में स्वयं को अधिक सुरक्षित समझते हैं। कोई भी क्षेत्र हो, हम थोड़ा ही आगे बढ़कर संतुष्ट हो जाते हैं। हमें लगता है कि हम लोग को सीमायें निर्धारित करने का दायित्व ईश्वर ने दिया ही नहीं है, वह तो रडयार्ड किपलिंग के आंग्ल-पुरुष का भार है अभी तक।

यह भार-विहीन अस्तित्व कितना सुखदायी है, मध्यमवर्गीय। इस शब्द में पूरा सार छिपा है जीवनचर्या का जो मध्यसागर में हिंडोले लेती रहती मध्य में ही अस्त हो जाती है।

कई जगहों पर पढ़ा है कि देश व समाज की दिशा मध्यमवर्गीय ही निर्धारित करते हैं क्योंकि उच्चवर्गीय को समय नहीं है उपभोगों से और निम्नवर्गीय अपने अस्तित्वों के युद्ध में ही उलझे रहते हैं जीवनपर्यन्त। इन दोनों विकारों से मुक्त मध्यमवर्गीय के पास ऊर्जा रहती है समाज के दिशा निर्धारण की। तर्क दमदार है पर जिनको लक्ष्य कर लोग आशाओं में जी रहे हैं, वही राह तक रहे हैं नायकों की। जिनकों नायकों का दायित्व निभाना है वे मध्यमवर्गीय का टैग लगा लखनवी गरिमा का अनुसरण कर रहे हैं।

निष्कर्ष स्पष्ट है समय पटल पर। नायकों का नितान्त आभाव है। अब सत्ता के आसन खाली नहीं रखे जा सकते है तो स्वतः भर रहे हैं। कारण भी स्पष्ट है, हमारी मध्यमवर्गीय मानसिकता व बौद्धिकता।

पहाड़ में बीच ढाल में बैठे देखा है किसी को? तो आप वहाँ पर सुस्ता रहे हैं, क्षणिक या वहीं टिके रहना चाहते हैं, शाश्वत। टिके रहने की सोची तो लुढ़क जायेंगे नीचे, पता भी नहीं चलेगा और अस्तित्व के परखच्चे उड़ जायेंगे। ऊपर बढ़ते जाइये, वहीं पर स्थायित्व है। मध्यमवर्गीयता अर्थक्षेत्र में रहने दें, मन और बुद्धि में रख कर अनर्थ न करें।
  
मध्यमवर्गीय उपमान बुद्ध के मध्यमार्गी उपासना से मिलता जुलता लग सकता है पर है नहीं। बुद्ध किसी भी पथ में अति न करने की सलाह देते हैं, गति न करने की नहीं।

24.7.10

नहीं दैन्यता और पलायन

अर्जुन का उद्घोष था 'न दैन्यं न पलायनम्'। पिछला जीवन यदि पाण्डवों सा बीता हो तो आपके अन्दर छिपा अर्जुन भी यही बोले संभवतः। वीर, श्रमतत्पर, शान्त, जिज्ञासु, मर्यादित अर्जुन का यह वाक्य एक जीवन की कथा है, एक जीवन का दर्शन है और भविष्य के अर्जुनों की दिशा है। यह कविता पढ़ें अपने उद्गारों की ध्वनि में और यदि हृदय अनुनादित हो तो मान लीजियेगा कि आपके अन्दर का अर्जुन जीवित है अभी। उस अर्जुन को आज का समाज पुनः महाभारत में पुकार रहा है।


मन में जग का बोझ, हृदय संकोच लिये क्यों घिरता हूँ,
राजपुत्र, अभिशाप-ग्रस्त हूँ, जंगल जंगल फिरता हूँ,
देवदत्त हुंकार भरे तो, समय शून्य हो जाता है,
गांडीव अँगड़ाई लेता, रिपुदल-बल थर्राता है,
बहुत सहा है छल प्रपंच, अब अन्यायों से लड़ने का मन,
नहीं दैन्यता और पलायन ।

निर्णय तो जितने लेने थे, धर्मराज ने ले डाले,
मैं खड़ा रहा मर्यादावश, झूमे मदत्त गज मतवाले,
द्रुपदसुता के आँसू बन कायरता मेरी छलकी है,
हृदय धधकती लगातार, वह ज्वाला दावानल सी है,
क्षमतायें अब तक वंचित है, समझो मेरे मन का क्रंदन,
नहीं दैन्यता और पलायन ।

यह कहना क्या सही, क्या नहीं, मुझको कभी न भाया है,
मेरे हिस्से जब भी आया, निर्णय का क्षण आया है,
युद्ध नहीं होने देना, मेरी न कभी अभिलाषा थी,
और कौरवों को न कभी उकसाने वाली भाषा थी,
संभावित संहारों को मैं एकटक करता रहा मनन,
नहीं दैन्यता और पलायन ।

पीड़ा सबके घर आती है, या मैं हूँ या योगेश्वर,
सबको अपना भाग मिलेगा, जी लो उसको जी भर कर,
घुटना ना कभी मुझको भाया, व्यापकता मेरी थाती है,
मन की गहराई में जा, नीरवता सहज समाती है,
दिन सी उजली मन की स्थिति, हो कैसी भी रात बियावन,
नहीं दैन्यता और पलायन ।

मैने मन के पट नहीं कभी औरों के सम्मुख खोले हैं,
सम्बन्धों को अपनाया है और वचन यथोचित बोले हैं,
पर सदैव शतरंजी चालों को समझा, उदरस्थ किया,
और सभाओं की सम्मलित विद्वत-भाषा से त्यक्त जिया,
आज खड़ा निर्णय-क्षण, निर्मम अवसादों का पूर्ण दहन,
नहीं दैन्यता और पलायन ।

21.7.10

वेल डन अब्बा

बरसात की बलखाती फुहारें, शीत-सिरहन सिसकाती हवा, दिन का अलसाया अँधेरा, गले से गर्मी उतारती चाय, तेल की आँच में अकड़ी पकौड़ियाँ, मन में कुछ न करने का भाव, उस भाव के आनन्द में पसरा सप्ताहान्त। चाह थी बस एक आलम्बन की जो इस भाव को यथासम्भव, यथारूप और यथासमय वैसा ही बनाकर रख सके। चाह को राह मिलती है और कहीं से आकर 'वेल डन अब्बा' स्क्रीन पर चलने लगती है।

मुस्कान के सीधे साधे अब्बा जब एक महीने की जगह तीन महीने बाद अपनी ड्राइवर की नौकरी में वापस लौटते हैं तो उनके बॉस उन्हें नौकरी से हटा देते हैं। रुँआसा सा मुँह बना बताते हैं कि बावड़ी में गिर जाने के कारण इतना समय लग गया। बॉस को पुणे के लिये निकलना है, शीघ्रता है, न जाने क्या सोचकर साथ ले लेते हैं। अब्बा अरमान अली जी गाड़ी के स्टेयरिंग पर बैठे हैं और पीछे बैठे बॉस को पिछले तीन महीने का कथानक सुनाते हैं।

इकलौती बिटिया पढ़ी लिखी है, तेज है, विवाह योग्य है और रहती है एक तहसील में अपने आलसी चाचा चाची के साथ। बिटिया के विवाह हेतु छुट्टी ले घर पहुँचे अरमान अली को पता लगता है एक सरकारी योजना के बारे में जिसमें बावड़ी खुदवाने के लिये सरकार आर्थिक सहायता देती है। यह सोचकर कि पानी रहने से खेतीबाड़ी अच्छी हो जायेगी जिससे कोई अच्छा लड़का मिल जायेगा घर जमाई बनाने के लिये।

यहाँ से प्रारम्भ होती है एक सरकारी यात्रा जो देश के सभी भागों में स्थानीय संस्कृति की बयार लिये अनवरत चलती रहती है। देश में चल रही कल्याणकारी योजनाओं का चरित्र दिखलाती इस फिल्म की कहानी बड़ी ही सीधी है पर चोट गहरी करती है व्यवस्था पर। विचार संप्रेषण में श्याम बेनेगल का निर्देशन दर्शकों को सदैव प्रभावित करता रहा है।

सरपंच, तहसीलदार, विकास अधिकारी, इन्जीनियर और ठेकेदार के पदों को आर्थिक सहायता से ही एक निश्चित भाग प्रदान करने के बाद जो धन प्रथम किश्त में बचता है, उससे कुछ न हो पाने की स्थिति में किये जाने वाले कार्य का झूठा सत्यापन दिखा कर अगली किश्तें तो हाथ में आती हैं पर निर्मम व्यवस्था लगभग पूरा धन निगल जाती है। फाइल पर सप्रमाण बावड़ी बन जाती है, वास्तविकता में सब सपाट।

यहाँ तक की कहानी तो देश में नित जी रहे हैं देशवासी। कहानी में घुमावदार लोच इसके बाद आता है।

फाइल पर सत्यापित बावड़ी के आधार पर पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखवायी जाती है कि बावड़ी चोरी चली गयी है। सब दंग। सूचना के अधिकार के आधार पर इस प्रकार खोयी 75 अन्य बावड़ियों की सूचना मिलती है। पहले थाने, फिर कलेक्ट्रेट और अन्ततः आंदोलितजन मंत्रीजी से मिलते हैं। अरमान अली के सभी प्रयासों में उनकी बिटिया मुस्कान उनका प्रोत्साहन करती रहती है। वेल डन अब्बा। मीडिया को नयी ब्रेकिंग न्यूज़ मिल जाती है और बावड़ी खोने का समाचार दावानलीय गति से चहुँ ओर फैल जाता है। चुनावी प्राथमिकताओं और विपक्ष के ताण्डव के बाद अगले तीन दिन में बावड़ियों को ढूँढ़ के लाने का शासनादेश प्राप्त होता है। स्थानीय प्रशासन में जिन्नात्मक चेतना जागती है और तीन दिनों में सारी बावड़ियाँ वापस आ जाती हैं (बना दी जाती हैं)।

इस पूरे प्रकरण में मुस्कान को आरिफ नाम का नेक लड़का मिल जाता है जो मानवता के नाते भी सहायता करता है। बावड़ी बन जाती है, विवाह हो जाता है पर दो महीने अधिक लग जाते हैं वापस जाने में।

बोमन ईरानी का अभिनय, दख्खिनी हिन्दी के संवाद और कथानक की जीवन्तता पूरी फिल्म में मन लगाये रखते हैं। पारिस्थितिक हास्य परिपूर्ण है और रह रह कर हँसना होता रहता है पूरी फिल्म में। सामाजिक संदेश उतना ही गंभीर है मगर।

आप भी देख लीजिये। पता नहीं कितनी कमर-मटकाऊ फिल्मों में समय झोंक चुके हैं, कुछ सार्थक भी हो जाये। आपके भी बच्चागण बोलें 'वेल डन अब्बा'

17.7.10

दिन और जीवन

मुझे एक दिन में एक जीवन का प्रतिरूप दिखता है। प्रातः उठने को यदि जन्म माने और रात्रि सोने को मृत्यु तो पूर्वाह्न, अपराह्न और सायं क्रमशः बचपन, यौवन व वृद्धावस्था के रूप में प्रकट हो जाते हैं। इस समानता का दार्शनिक अर्थ निकाला जा सकता है, इसे वैज्ञानिकता से सुस्पष्ट करना रोचक हो सकता है पर इसका कोई व्यवहारिक संदेश भी है, यह प्रश्न कभी कभी चिन्तन को कुरेदने लगता है।

दिन और जीवन दो काल खण्ड हो सकते हैं पर अन्तर्निहित समानता उनके संबन्धों को उजागर कर जाती है। सृष्टिकर्ता के पास सम्भवतः समय के विषय में और ढाँचे उपलब्ध न हों। शास्त्रों में तो मृत्यु को भी अगले जन्म के पहले की नींद ही कहा गया है।
 
दार्शनिक पक्ष ऊबाऊ हो सकता है, आइये व्यवहारिकता देखते हैं।

एक दिनचर्या जीवन का निर्माण कैसे करती है और उसी प्रकार जीवन के विशिष्ट कार्य हमारे दिनों के कैसे गढ़ते हैं, समानता के सम्बन्ध का यह पहला व्यवहारिक प्रश्न होगा।

एक बार आराधना जी ने नियमितता और निरन्तरता के छत्ते को छेड़ा था। मैने पहले कुछ समझाने का प्रयास किया पर स्वयं संतुष्ट न होने पर समझने की गली में मुड़ गया।

डाo आराधना उवाच

रौ में मैं उवाच
नियमितता निरन्तरता का व्यवहारिक रूपान्तरण है। कई अर्थों में जब हम दिन को जीवन का प्रतिरूप बना जीने लगते हैं तो वही नियमितता हमारी निरन्तरता का प्रतीक बन जाती है। निरन्तरता उससे कहीं व्यापक मानता हूँ मैं। लक्ष्य निर्धारित करके उन्हे पाना और उसी दिशा में और ऊँचे लक्ष्यों का निर्धारण निरन्तरता का द्योतक है। बड़े कालखण्डो पर विजय की ध्वजा निरन्तरता ने फैलायी है।.........

अब ज्ञान झोंककर निकल जाना कठिन नहीं है पर उससे मन हटाकर रह पाना कठिन हो जाता है। विचार लखेदे रहा और निष्कर्ष रूप में यह पोस्ट जन्म ले रही है।

ग्रेसाम के योजना के नियम की मानें तो यदि नियमित कार्यों पर अधिक ध्यान दिया जायेगा तो जीवन के विशिष्ट कार्य पीछे छूट जायेंगे। या दूसरे शब्दों में कहें तो सूक्ष्मदर्शिता दूरदर्शिता को उभरने नहीं देती है।
उसी प्रकार यह भी सत्य है कि जीवन के विशिष्ट कार्य एक दिन में नहीं किये जा सकते।

अब कौन ठीक है, ग्रेसाम जी, डा आराधना या अन्जाने में मैं?

आपके मन में भी यह प्रश्न तो उठता होगा।

आपके विचार कोई राह अवश्य ही ढूढ़ लेंगे इस समस्या की पर मुझे तीनों में कोई विरोधाभास नहीं दिखता है, यदि निर्णय इस प्रकार लिया जाये।

दिन जीवन का प्रतिरूप है अतः जीवन के विशिष्ट कार्यों का दिनचर्या में उपस्थित रहना आवश्यक है। यह नियमितता होगी हमारे जीवन के उद्देश्यों की। बड़े कार्यों में कई कार्यश्रंखलाओं का समावेश होता है अतः वह क्रम हमारी निरन्तरता निर्धारित करेगा। यदि हमें जीवन में पाने योग्य वस्तु पर दैनिक या साप्ताहिक ध्यान नहीं जाता है तो आप मान कर चलिये कि वह आपकी पकड़ के बाहर जा चुकी है। इन कार्यों का पहला अधिकार दिन के समय में, शेष कार्य आगे पीछे अपना स्थान ढूढ़ ही लेते हैं दिन में। अपने जीवन को दिन में जीने का प्रयत्न करें, दिन से जीवन का निर्माण सब करते हैं।

आपके 5 प्रमुख उद्देश्य क्या हैं? वो आज किये हैं? तब! अच्छा अभी नहीं पर आज अवश्य कर लीजियेगा।

14.7.10

खिलौनों की वेदना - Toy Story 3

खिलौने बतिया रहे हैं कि अब उन्हें उतना प्यार नहीं मिलता है जितना पहले मिलता था। बच्चा महोदय अब बड़े हो गये हैं और उनकी प्राथमिकतायें बदल गयी हैं। चलो भाग चलते हैं। कहाँ? किसी ऐसे स्थान पर जहाँ पर ढेर सारे बच्चे हों । कहाँ? डे केयर सेन्टर। विरोध के स्वर दबा दिये जाते हैं और सब किसी तरह वहाँ पहुँच जाते हैं। बुरे बर्ताव से मोह भंग होता है और सब वापस आ जाते हैं। बच्चा महोदय भी भावुक हो एक नन्ही प्यारी बिटिया को सारे खिलौने दे जाते हैं। सुखान्त।

बच्चे मल्टीप्लेक्स के बाहर निकले तो प्रसन्न थे। उन्हें अपने खिलौनों की वेदना फिल्म देखकर ही समझ में आयी। लोहा गरम था तो हमने भी पुराने खिलौनों को किसी गरीब बच्चे को दिलवाने की बात मनवा ली। 3-D में फिल्म का आनन्द दूना हो गया था और रही सही कसर पॉपकार्न आदि स्नैक्स ने पूरी कर दी थी। स्टीव जाब्स निर्मित पिक्सार की तकनीक ने कार्टून चरित्रों को भावजनित जीवन्तता दे दी थी।

खिलौने तो मानवीय ढंग से बतियाये और मनोरंजन कर के चले गये पर अपनी खिलौनीय वेदना का मानवीय पक्ष हमारे हृदय में उड़ेल गये। छोटी छोटी बातों में हिल जाने की और बड़ी घटनाओं में अजगरवत पड़े रहने की हमारी विधा से लोग त्रस्त हों, उसके पहले हम सब ब्लॉग में उड़ेल कर सामान्य हो लेते हैं।

खिलौने क्यों, हम सबकी यही स्थिति है। भाव वही हैं, सन्दर्भ बदल जाते हैं। जिन्हें हम अपना समझने लगते हैं, वही हमारा मूल्य नहीं जानते। जिन पर प्यार की आशायें पल्लवित थीं, उनकी प्राथमिकतायें बदल गयी हैं।

और गहरे उतरें इस वेदना में। दिन में कितनी बार आप को लगता है कि जो आपकी योग्यता है और जो आप कर सकने में सक्षम हैं, उसका एक चौथाई भी आप नहीं कर पा रहे हैं। इतने कम में ही संतुष्ट हो जाना पड़ रहा है, हर बार, लगातार, कारण ज्ञात नहीं पर।

मैं खिलौना बन जाता हूँ और देखता हूँ कि शेष सब सिकुड़ कर बच्चा महोदय बन गये हैं। कभी सब के सब चाहते थे आपको, आपकी उपयोगिता थी। सब छोड़ देने को जी चाहता है, दूसरा विश्व अच्छा दिखने लगता है, डे केयर सेन्टर की भाँति। नयापन, अपने स्वभाव से अलग, बस नया सब कुछ। जीवन सब कुछ बदल लेने का हठ पकड़ लेता है, जो भी मिले।

क्या, मैं विद्रोही या तुम सब प्रेमहीन?

बदलाव भाता नहीं है पर। नये लोग भी मर्म नहीं समझते हैं। उनकी आशायें आपको निचोड़ने लगती हैं, जीवन रस से।

आप भागते हो, प्रश्न पूछते हो अपने मालिक से, असली मालिक, ईश्वर से। कोई उत्तर नहीं।

अन्ततः स्वयं को समझाने की समझ अवतरित हो जाती है, ज्ञानीजन जिसे बुद्धि कहते हैं।

हम सोफे के हत्थों पर टाँग धरकर लेटे हुये सोच रहे हैं, खिलौनीय वेदना। सब चाहते हैं हम बतियायें फिल्म के बारे में। लेटे हुये नींद घेर लेती है। अवचेतन में लहरें अभी भी प्रश्न के हिलोर लेती हैं ।

क्यों हृदय में आस जीवित? 
प्रेम का विश्वास जीवित?
हर समय ये नेत्र रह रह ढूढ़ते जिनको।
इस जगत को वेदना उपहार देकर,
काल को सब निर्दयी अधिकार देकर,
क्षीर सागर में कहीं विश्रामरत हैं वो।
क्षीर सागर में अभी विश्रामरत हैं वो।

10.7.10

फुटबॉलीय उत्सव

वर्ल्डकप समापन की ओर बढ़ रहा है। यूरोपियन पॉवर गेम ने लैटिन अमेरिका के स्किल गेम को धूल धूसरित कर दिया है। दर्शकों का उन्माद चरम पर है और पार्श्व में अनवरत गूँजता यूयूज़ेला का स्वर। बड़ी बड़ी स्क्रीनों के सामने बैठे इस महायज्ञ में ज्ञान की आहुति चढ़ाते विशेषज्ञ। एक फुटबाल को निहारती करोड़ों आँखें।

यह खेल देखना जितना रुचिकर है, खेलना उतना ही कठिन। मैं उतनी ही बातें करूँगा जितनी अनुभवजन्य हैं, एक खिलाड़ी के रूप में।

तीन दायित्व हैं, फॉरवर्ड, मिडफील्डर और डिफेन्डर।

ज्ञाता बताते हैं कि फुटबॉल के लिये 3 'S' की आवश्यकता होती है। गति(Speed), सहनशक्ति(Stamina) और कुशलता(Skill)।

तेज गति फुटबॉल की तेज पास के द्वारा, तेज गति आपकी जब फुटबॉल आपके पैरों के बीच हो और तेज गति वापस अपने पाले में आने की जब फुटबॉल विपक्षी के पास हो। अच्छे फुटबॉल खिलाड़ी 100 मी की दौड़ 13 सेकेण्ड में पूरी कर लेते हैं, वह भी फुटबॉल के साथ। मैराडोना के पैरों में तो बिजली सी दौड़ जाती थी, फुटबॉल पैरों में आते ही। गति पूरे समय बनाये रखना संभव नहीं है। किस समय कितनी गति बना कर रखनी है, इसका निर्धारण मिडफील्डर करते हैं। उन्ही के पास अटैक की रूपरेखा रहती है।
 
सहनशक्ति गति को 90 मिनट तक बनाये रखने में सहायक सिद्ध होती है। एक व्यस्त खिलाड़ी उन 90 मिनटों में लगभग 10-12 किमी तक दौड़ लेता है, लगभग 30 प्रतिशत समय तेज गति से। यदि प्रारम्भिक खेल में ही सारी ऊर्जा व्यय कर दी तो बाद में विपक्षी हावी हो जायेगा। कब बॉल के साथ दौड़ना है, कब पास देना है, कब बॉल छीनने के लिये दौड़ना है, कब अन्य खिलाड़ी को मार्क करना है, यह सब सतत निर्णय लेने में मानसिक सहनशीलता भी दिखने लगती है। गति के बाद खेल के भाग्य खिलाडियों की सहनशीलता निर्धारित करती हैं।

कुशलता का मानक है नियन्त्रण। नियन्त्रण गति के साथ, थकान में, विपक्षियों के घेरे जाने पर, धक्का दिये जाने पर, पास दिये जाने पर, शॉट मारने में, शॉट रोकने में, अपने शरीर पर, फुटबॉल पर, हवा में, ज़मीन में, गुस्से में, निराशा में। पेले, रोसी और मैराडोना के पैरों में फुटबॉल नृत्य करती हुयी सी लगती है, पैरों का कहना मानती हुयी लिपट जाती है बूटों के इर्द गिर्द।

स्किल एकान्त में नहीं जीती है, जब तक टीम गेम न हो स्किल उभर कर सामने भी नहीं आती है। आपसी समन्वय और विपक्षी का खेल प्रारूप पढ़ पाने की क्षमता खेल को और गहराई दे जाते हैं।

जर्मनी, स्पेन और हॉलैण्ड ने गति और सहनशीलता से अर्जेन्टीना, पैरागुवे व ब्राजील के स्किल गेम को स्तब्ध कर दिया। सारे समय लैटिन टीमें घात का उत्तर ढूढ़ती हुयी दिखायी पड़ीं। गज़ब की तैयारी कर रखी थी यूरोपियन टीमों ने विपक्षी खिलाड़ियों की क्षमताओं पर। मेसी, रॉबिन्हो, रोनाल्डो आदि जैसे खिलाड़ियों को हमेशा चार खिलाड़ी घेर कर खड़े रहे और उन्हें निष्क्रिय कर दिया। साथ ही साथ जिस गति से खेल नियन्त्रित किया, विपक्षी डिफेन्स हर ओर से ढहता हुआ दिखा।

ऑक्टोपस महाराज की भविष्यवाणी से निराश जर्मनी की टीम स्पेन के सामने नतमस्तक हो गयी और भविष्यवाणी सच कर बैठी। लग रहा था उनके पैरों में ऑक्टोपस महाराज चिपक कर बैठे हों।

हॉलैण्ड और स्पेन में विजेता का निर्धारण होगा पर अब निर्णय स्किल पर होगा। दोनों ही टीमें पॉवर गेम में महारथी हैं। जो सामने वाले को आश्चर्यचकित कर ले जायेगा अपनी क्षेत्रसज्जा और स्किल से, वही जीतेगा। 

8.7.10

पिक्चर अभी बाकी है, मेरे दोस्त

मेरे 28 घंटों पर सुधीजनों ने अपना वाणी अमृत बरसा उन्हें पुनः जीवित कर दिया । प्रभात की चैतन्यता, शीतल बयार और आप सभी की टिप्पणी अस्तित्व को भावमयी बना गयी और बह निकली धन्यवाद की धारा ।
टिप्पणियों पर प्रतिटिप्पणी देकर एक पोस्ट बना डालना एक नया प्रयोग हो सकता है पर ऋण उतारना तो मेरी कृतज्ञता की अभिव्यक्ति थी ।
सारी प्रतिटिप्पणियाँ इस रंग में हैं ।

वाणी गीत ने कहा…
कई बार होता है लम्हे सिमट कर वहीँ रह jaate हैं ...किसी की पीठ पर..
२८ घंटों के सफ़र की दास्तान रोचक रही ...!

चिपक कर पीठ पर लम्हे, तेरे ही साथ जाते हैं,
मिलें जब फिर, समझ आता, कि बीता है समय कितना।

Arvind Mishra ने कहा…
भाव प्रवण प्रवीण कहूं या भाव प्रवीण प्रवीण ---ऐसी संवेदनाएं जीवन के पलों/क्षणों को सार्थक तो बना जाती हैं मगर फिर भी ऐसी गहन संवेदना से " भले वे मूढ़ जिन्हें व्यापहि जगत गति ..." 
वो शेर कौन था ..किसे याद है ? ...वो जाते जाते तुम्हारा मुड़कर दुबारा देखना ....
याद आया याद आया .....यूँ बिछड़ना भी बहुत आसाँ था उससे मगर जाते जाते उसका वो मुड़कर दुबारा देखना....
गंतव्य एक पंथ अनेक ......क्या फर्क पड़ता है ?
हाँ वे पहले पहुँच कर स्टेशन लेने इर्र्र देखने आयीं या नहीं ?दैहिक सत्यापन करने की जैसा चूडा था वैसा ही पाया :)
अगर नहीं तब तो सचमुच अच्छी बात नहीं ..हम भी कह देते हैं !

कहानी, हम मनाते थे, तनिक सीधी सी बन जाती,
क्या बतायें, अब तलक वह, साँप सी लहरा रही  

उत्तम! ख़ूबसूरत! गहन!

उत्तम! ख़ूबसूरत! गहन!
किसलिये यह सब सहन,

अरे वाह, आप तो बहुत भावुक निकले...
दिल की परेशानी यूँ ही नहीं बढ़ती, ये दिमाग अगल दिल से राफ़्ता कायम कर ले तो ऐसी तकलीफ़ें आम हो जाती हैं। थोड़ा बचा कर रखिए जी, और भी ग़म हैं जमाने में...

कहा दिल ने अकड़ कर जब, तुम्हारे साथ रहते हैं,
हमें झुकना पड़ा, हम बुद्धि का अवसान सहते हैं

"पर तुम्हारी आँखें मेरी ओर उस समय क्यों नहीं घूमी जब मैं चाह रहा था तुम्हारी ओर देखते हुये तुम्हारे कन्धों को मोड़ना चाह रहा था अपनी ओर लगता है, मेरी आँखों में अब वह बल नहीं रहा जो खींच ले तुम्हारी दृष्टि, अचानक, बलात, साधिकार "
कभी कभी मन होता है अदर साईड ओफ़ स्टोरी को भी जानने का :) काश वो भी लिखतीं और आपकी इन बेहद खूबसूरत पन्क्तियो के जवाब पढने का मौका मिलता... हो सकता है उन दो घंटो की भी एक कहानी हो या दो मिनट की भी... :)

मुड़कर देखना उनका, कहानी एक बना लाया,
सुने उनसे कहानी, अब कयामत झेलना है क्या?

मनोज कुमार ने कहा…
.........और प्रवीण जी ... कहा कहूं इस कविता मय गद्य पर ... बस बेहतरीन ! लाजवाब!!

गद्य पद्य के बीच फँसे है, जीवन के अभिचित्रण सब,
जैसे हैं, अब बह जाने दें, था प्रयास, रुक पाये कब

उन्मुक्त ने कहा…
अरे कौन थी वह उड़नपरी :-) .........

उड़नपरी थी, स्वप्नतरी थी, हरण कर लिये चिन्तन रथ,
कौन कल्पना जी सकती अब, मौन झेलता जीवन पथ

राम त्यागी ने कहा…
अरे ये क्या हुआ ...भाभी जी का नंबर देना ज़रा :-)

क्या हुआ है, क्यों हुआ है, प्रश्न हैं, उत्तर भी हैं,
इन पहाड़ो की चढ़ाई में कई समतल भी हैं,
बैठ कर सुस्ता रहे हैं, भूलते सब जा रहे हैं,
जानते निष्कर्ष अपना, भाप, हिम हैं, जल भी हैं

उस का मुड़ कर देखना, जी का जंजाल हो गया। प्रेम ऐसा ही होता है। उसे हमेशा इकतरफा होना चाहिए, बिना किसी अपेक्षा के।

प्रेम का यह रूप जाना, क्या करें, था समय वह भी,
मन नहीं उन्माद करता, बीत ही जाता सुखद

२८ घंटे का सफ़र रेल से अपने आप मे एक सफर है . और उस पर यह सफर ............

सफर में साथ चलते थे हजारों शख्स अपने से,
हृदय को हर समय छेड़े मगर उनका नहीं आना

जाने कहाँ गए वो दिन, अरे नहीं घंटे

समय, तुम्हारा साथ नहीं जब, वह भी वापस जाता,
विरह वेदना, तनिक जोर से मन ही मन में कह देती

P.N. Subramanian ने कहा…
रोचक.

रोचक अब लगता है, बीते दिन का असली अल्हड़पन,
प्रेम मार्ग की राह अकेली, सभी वहीं से जाते हैं

अन्तर सोहिल ने कहा…
संवेदनशील गद्य, वाह
क्यों ना आप इसे कविता का रूप दें दें
मजा जायेगा.....

बहने दूँगा घाव, बहेंगे, कवितायें बन जायेंगी,
सह लेने की क्षमता अपनी लेकिन उनसे आधी है

अन्तर सोहिल ने कहा…
मैं भी एक बार किसी के साथ चलने के भरोसे पर आरक्षण करवा कर रेल में बैठा था, मगर दूसरी खाली बर्थ और मेरी टिकट पर दो सीटों के नम्बर मुझे पूरे 12 घंटे मुंह चिढाते रहे।.....

खाली सीटें,साथ बिठाये मैं तुमसे बतियाता था,
पर सब हँस कर मुस्काते हैं, प्रेम समझें, जाहिल हैं

शोभना चौरे ने कहा…
मेरा प्रेम रोगग्रसित है पहले तो अवहेलना अधिकार जैसे शब्द नहीं आते थे हमारे बीच पर पहले तो तुम्हारी आँखें हमेशा मेरी ओर ही मुड़कर देखती थी और मेरी यात्राओं को यथासम्भव छोटा कर देती थी
परिस्थितिया बहुत कुछ बदल देती है |अकेले मन की यात्रा को बहुत ही रोचक ढंग से प्रस्तुत करती सुन्दर पोस्ट |

मेरा तो मार्ग निश्चित था, अकेली थी मेरी राहें,
सुखद यह वेदना अनुभव होती, तुम जो ना आती

ajit gupta ने कहा…
उसने नहीं देखा तो एक नायाब सी पोस्‍ट बन गयी यदि देख लिया होता तो आम बात हो जाती। लेकिन कभी-कभी अपेक्षित कोई बात नहीं होती तो सारा ध्‍यान वहीं रहता है और लगता है कि कहीं यह उपेक्षा तो नहीं। बहुत ही अच्‍छी प्रकार से अपनी बात को आपने कहा है, बधाई।

देख कर वादे हुये, फिर क्यों नहीं देखा ?
मिली होगी खुशी उनको,हमारा तड़पकर जाना।

वन्दना ने कहा…
कभी कभी कुछ लम्हात ज़िन्दगी मे ठहर से जाते हैं एक प्रश्न बनकर और ताउम्र उनके जवाब नही मिलते…………शुरु से आखिर तक बाँधे रखा।

मैं आगे बढ़ नहीं पाया, उसी पल के लिये ठहरा,
हवायें ठुमुक बढ़ जाती तुम्हारी एक नज़रों से

Divya ने कहा…
28 hours !....lock it and cherish them.

I'm sure she was wishing, that you will call her and ask, and talk and complain..

समय की कैद में अब भी, अकेले छोड़ तुम आयी, 
वही लम्हे तड़पते हैं, उन्हें चाभी नहीं मिलती

Ratan Singh Shekhawat ने कहा…
बेहतरीन लाजवाब.............

हम जबाब एक ढूढ़ रहे हैं, अब सवाल की गलियों में,
एक पहेली बन कर उभरी, जीवन की फरमाईश अब

राज भाटिय़ा ने कहा…
अरे इतनी भी बेरुखी क्या??? हो सकता है कोई दुर से छुप के देख रहा हो, चलिये वो गीत सुने मन हल्का हो जयेगा.
मै यह सोच कर उस के दर से ऊठा था कि....

घिरे थे स्याह अँधियारे, फ़कत एक रोशनी तुम थीं,
कहना छिप के देखा था, मेरी नज़रें तुम्ही पर थीं।

परवीन बाबू! लगता है संस्मरन सखि वे मुझसे कहकर जाते” का पुरुस भाग है..एकदम ओही आनंद...

"पर जाने बात क्या है", अगर उत्तर ज्ञात होता, 
उर्वशी की खोज में यूँ सूत्र दिनकर पिरोता

rashmi ravija ने कहा…
"पहले तो तुम्हारी आँखें हमेशा मेरी ओर ही मुड़कर देखती थी और मेरी यात्राओं को यथासम्भव छोटा कर देती थी "
और इस 28 घंटे के हर मिनट और हर सेकेंड्स पर भी चस्पां रहीं वे ऑंखें, जिन्होंने मुड कर नहीं देखा....पर ये ख़ूबसूरत पोस्ट लिखवा ली.
सुन्दर लेखन

मेरा लहरों सा बन उठना, लगेगा एक कोलाहल,
मुझे ग़र चाँद संग देखो, तो समझोगे कहानी सब

शायद इसे ही कहते हैं प्रेम का सम्मान.
जब प्रेम ईमानदार होता है तो वह सम्मानित हो ही जाता है.
आपको बधाई.

अपनी आँखों में कितने मैं ख्वाब सजाये बैठा हूँ,
नज़र मिला लो, हैं बहने को सब के सब तैयार खड़े

बेचैन आत्मा ने कहा…
suna tha ki lohe ka ghar kaljayii rachnayen diya karta hai...aur kya-kya likha..?

तिक्त पराजय, बीत गया जो काल, बहा कविता बनकर,
नहीं पराजय की गाथायें, कालजयी हो पाती हैं।

क्या कहूं, समझ में नहीं रहा..

कहा कुछ नहीं, सहा समय का भार अकेला,
बहुधा मन हो विवश, बहा यूँ करता है।


आपका यह यात्रा प्रसंग बहुत भाव पूर्ण और संवेदनशील....यात्रा के २८ घंटे इसी उहापोह में गुज़र गए...काश एक बार मुड कर देखा होता..
बहुत प्रवाह मयी

तुम्हारी एक मुस्काहट, मेरे जीवन का खिल जाना,
कृपणता मत सहेजो, है मेरा हथियार पागलपन।

Shiv ने कहा…
बहुत बढ़िया लिखा है आपने. बड़ी कोमल भाषा है.

मनभावों की आवाजाही बिना विशेषण होती है,
कोमल और कठोर हृदय के भारी भारी पत्थर हैं।

अरे वाह वाह इतनी सुंदर पोस्ट सिर्फ एक मुड के देखने पर ,वाकई बहुत ही खुबसूरत ,कुछ रचनाये ऐसी होती हैं की जिनकी तारीफ में कहे गए 
शब्द भी गुनाह बन जाते हैं ,क्योकि कोई भी शब्द कितनी भी तारीफ़ उनके लिए कम ही पड़ जाती हैं .अप्रतिम रचना

कोई होगी टीस, मेरा क्या गुनाह, मालुम नहीं,
यूँ नज़र का फेर लेना क्या सज़ा काफी नहीं?

मुझे 28 घन्टे लग गये शायद इस पोस्ट तक आने मे। हा हा हा --दिलचस्प हैं आपकी पोस्ट। शुभकामनायें

मैं हृदय को मना लेता, मानता मेरी वो है,
चोट यह गहरी बहुत है, आज वह माना नहीं।

इस सरल धवल सौम्य मुस्कान के पीछे इतना प्यारा और सुन्दर दिल भी है, यह तो सभी जान गये है आपके इस ब्लोग से। लेकिन प्यारे भाई, जवाब में लिखे इतने ढेर सारे शेर भी यदि आपके हैं तो आपको ब्लोग से पहले गज़लों की ओर आना चाहिये।
बहरहाल यदि वे पीछे मुडकर देख लेते तो आपके मन मे ये भाव कहां से आते, इसलिये इस पीछे मुडकर देखने के लिये हम सब उन्हे साधुवाद देते हैं।

न अन्दर रोशनी भेदे, मेरी गहराई इतनी थी,
वहाँ कोई चाँद भी बैठा हुआ था खींचनेवाला।

anitakumar ने कहा…
बेसाख्ता एक ही शब्द निकल रहा है, ' वाह' उन्हों ने मुड़ कर इसी लिए नहीं देखा कि आप की दृष्टि की ताकत से वाकिफ़ थीं, हठात, बलात रोक लेती उन्हें। 
एक कवि ह्र्दय से निकली पोस्ट,

अगर यह जानकर भी, देखता मैं, मुड़ के ना देखा,
मेरे भावों का अंधड़ व्यग्र हो, उसने सहा होगा।

Stuti Pandey ने कहा…
"पर तुम्हारी आँखें मेरी ओर उस समय क्यों नहीं घूमी जब मैं चाह रहा था तुम्हारी ओर देखते हुये तुम्हारे कन्धों को मोड़ना चाह रहा था अपनी ओर लगता है, मेरी आँखों में अब वह बल नहीं रहा जो खींच ले तुम्हारी दृष्टि, अचानक, बलात, साधिकार "

- कभी कभी सब कुछ जानते हुए भी हम उस सब कुछ से दूर जाना चाहते हैं. खुद को विवश पाते हैं फिर भी खुद को विवश करना चाहते हैं. ये एक दिल ना जाने कितनी तड़प को जन्म दे देता है.

विवशता किन्तु जीवन की, हृदय शैशव रहा अब भी,
समय से रूठकर बैठा हुआ है, नहीं बढ़ता है।

E-Guru Rajeev ने कहा…
विचारों को महत्व देता हूँ क्योंकि उनका बहकना स्वयं को झेलना पड़ता है.
बूंदों के छोटे-छोटे तमाचे....!!
हर वाक्य पर कुछ पल रुका हूँ और आपके जिए पलों को स्वयं भी जिया हूँ. 
आप प्रवीण के बजाय राजीव..!!
राजीव, राजीव के बजाय प्रवीण...!!
दोनों एक ही लगने लगे. 
उतर आये आप दिल में.

मैं सहता हूँ, मुझे सहना, रहे कहानी यह,
जिसे जब आप चाहें, प्रेमपूरित, मुड़ के वे देखें।

Mrs. Asha Joglekar ने कहा…
आपको मलाल किस बात का ज्यादा था उनके मुड के देखने का या हवाई यात्रा के निर्णय का बहर हाल आपके वे 28 घंटे काफी परेशानी भरे थे जो बारिश की छोटी छोटी बूंदे आपको लोहे की भारी भरकम ट्रेन को तमाचे मारती सी लगीं कहानी दिलचस्प लगी 

मुझे उड़ना न आया था, चला मैं प्रेम पद लड़खड़,
तुम्हारा साथ रहता, दर्द में गिरना नहीं होता