30.6.10

30 जून 2010

आज का दिन मेरे लिये विशेष है । आज माँ सेवा-निवृत्त हो रही हैं । माँ के प्रति लाड़-प्यार के अतिरिक्त कोई और भाव मन में कभी उभरा ही नहीं पर आज मन स्थिर है, नयन आर्द्र हैं । लिख रहा हूँ, माँ पढ़ेगी तो डाँटेगी । भावुक हूँ, न लिखूँगा तो कदाचित मन को न कह पाने का बोझ लिये रहूँगा ।
कहते हैं जिस लड़के की सूरत माँ पर जाती है वह बहुत भाग्यशाली होता है। मेरी तो सूरत ही नहीं वरन पूरा का पूरा भाग्य ही माँ पर गया है। यदि माँ पंख फैला सहारा नहीं देती, कदाचित भाग्य भी सुविधाजनक स्थान ढूढ़ने कहीं और चला गया होता। मैंने जन्म के समय माँ को कितना कष्ट दिया, वह तो याद नहीं, पर स्मृति पटल स्पष्ट होने से अब तक जीवन में जो भी कठिन मोड़ दिखायी पड़े, माँ को साथ खड़ा पाया।

नये घर में, खेती से सम्पन्न घर की छोटी बहू को घर का सारा अर्थतन्त्र बड़ों के हाथ में छिना हुआ दिखा और पति का उस कारण से उपद्रव न मचाने का निश्चय भी। बिना भाग्य को कोसे व व्यर्थ समय गवाँये पहले अपनी पढ़ाई पूरी की और तत्पश्चात प्राइमरी विद्यालय में एक अध्यापिका के रूप में नौकरी प्रारम्भ की। एक नारी के द्वारा नौकरी करना कदाचित उस परिवेश के लिये एक अमर्यादित निर्णय था जिसका तत्कालीन सभी प्रबुद्धों ने प्रबल विरोध किया। परिवेशीय घुटन के बाहर परिवार का भविष्य है, इस तर्क पर ससुर के समर्थन को अपना सम्बल मान आधुनिका कहे जाने के सारे वाक्दंश सहे। मुझे गर्भ में सम्भवतः यही शिक्षा प्राप्त हुयी है, जुझारूपन की। माँ ने हृदय की अग्नि की आँच सदा अन्दर ही रखी और कभी व्यक्त भी हुयी तो परिश्रम व त्याग के रूप में, गृह-धारिणी के रूप में।

आज मैं, छोटा भाई व सबसे छोटी बहन, तीनों समुचित और उत्तम शिक्षा पाकर, अपने पैरों पर खड़े हैं, पर उसके पीछे माँ का अथक परिश्रम था जो स्मृतियों में अभी भी अप्रतिम धरोहर के रूप में संजोयें हैं हम सभी। माँ तो उसके बाद भी लगी रही कई और बच्चों का भविष्य बनाने में, कहती रही कि बच्चे अच्छे लगते हैं, मन लगा रहता है।

आज माँ सेवा-निवृत्त हो रही है।

बचपन नहीं भूलता है, माँ का पैदल 3 किमी विद्यालय जाना। कई बार हमने चिढ़ाया कि रिक्शा नहीं करती, पैसे बचाती है। हँस कर झूठ बोलती, नहीं, पैदल चलने से स्वास्थ्य ठीक रहता है। भगवान करे उस झूठ का सारा दण्ड मुझे मिलता रहे, शाश्वत, मेरे लिये बोला गया वह झूठ।

आज उस तपस्या का अन्तिम दिन है, आज माँ सेवा-निवृत्त हो रही है, 37 वर्षों की अथक व निःस्वार्थ यात्रा के पश्चात।

सरल-हृदया की आन्तरिक सहनीयता आज मेरी आँखों से टपक रही है, रुकना नहीं चाहती है।

पुरुष प्रधान इस जगत में मेरे हृदय को यदि किसी का पुरुषार्थ अभिभूत करता है तो वह मेरी माँ का।

26.6.10

मैं तुम्हे मरने नहीं दूँगा

"कैंसर ठीक, बीपी ठीक, डायबिटीज़ ठीक, मोटापा ठीक, ऑर्थिराइटिस ठीक, हेपेटाइटिस ठीक............. लाइफ स्टाइल डिसीज़ेज़ ठीक....। मैं आपके क्षयमान अंगों को पुनः ऊर्जान्वित कर दूँगा। तुम बताओ अब मरोगे कैसे ? योग कर लो ना, देखो, मैं तुम्हे मरने नहीं दूँगा।"

सपने में नहीं सुन रहा था पर सपने देखने के समय सुन रहा था।

समय सुबह के 5 बजे, स्थान पैलेस ग्राउण्ड, मौसम मन्द मन्द शीतल बयार, 20000 श्रोता और उद्घोषणा बाबा रामदेव की।

सुबह 4 बजे बलात् उठाये जाने के बाद, आँखों में नींद अभी भी तैर रही थी। ध्यान की मुद्रा में बैठ नींद झाँपने का असफल प्रयास कर रहा था। कान में गर्जना के स्वर में ये वाक्य सुनायी पड़े। नींद उड़न छू, कपालभाती चालू।

पुरुष चाहे सारा संसार साध ले पर स्वयं के योगक्षेम का अधिकार यदि श्रीमतीजी से हथियाने का प्रयास भी किया तो कई दिन दुर्गास्तुति में निकालने पड़ सकते हैं। शरीर और मन को विद्रोह न करने की मन्त्रणा देकर, चुपचाप सपत्नीक योग शिविर में पहुँच गये।

धीरे धीरे परिस्थितियों में रमना प्रारम्भ किया। सामूहिकता का अपना अलग आनन्द है। घर में यदा कदा सुबह उठने पर लगता है कि अभी तो सब सो रहे होंगे और आप ही अनोखे हैं जो कि जग कर आत्मोन्नति में लगे हैं। यहाँ अपार जनसमूह में अनोखेपन का तत्व कहाँ छिप गया, पता नहीं चला।

अब अपना शरीर किसको प्यारा नहीं होता है। मृतप्राय को जीवन, जीवित को निरोग, निरोगी को स्वास्थ्य, स्वस्थ को सुडौलता, सुडौल को कान्ति, कान्तिमय को शान्ति और शान्तिमय को स्थितिप्रज्ञता दे जाता है योग। अतः योग तो हम सबके लिये हुआ, किसी भी आयु में, किसी भी देश में। इसके प्रचार के लिये तो झूठे विज्ञापनों की आवश्यकता भी नहीं।

वैसे तो घंटे भर की प्रशासनिक बैठक में चार बार जम्हाई आ जाती है, यहाँ पर ढाई घंटे तक तन्मयता बनी रही। योग के साथ स्वास्थ्य सम्बन्धी ज्ञान, संस्कृति के आयाम, सामाजिक समरसता के भाव, पारिवारिक माधुर्य के उपाय आदि बड़ी ही सरलता व सहजता से हृदय के अन्दर उतार गये बाबाजी। ढाई घंटे का कार्यक्रम, चार दिन लगातार, न पता चला और न ही दोपहर में नीँद ही आयी। दिनभर एक नशा सा रहा हल्केपन का, शरीर में, मन में, आत्मा में।

निरन्तरता से आप कुछ भी पा सकते हैं, कुछ भी। जो विचार आपको भायें, बाँटे अवश्य, संकोच में न रहें। जो भी करें, पूर्ण बल से करें, सिंह की तरह। इस तरह के कई वाक्य सीधे सीधे मन में अनुनादित हो रहे थे, बौद्धिक चुहुलबाजी से बहुत दूर।

कोई अहंकार नहीं, बाल सुलभ संवाद, प्रसन्नता और आनन्द का प्रवाह मेरी ओर आता हुआ, बीच में और कोई नहीं।

23.6.10

स्वर्ग

नहीं, यह यात्रा वृत्तान्त नहीं है और अभी स्वर्ग के वीज़ा के लिये आवेदन भी नहीं देना है। यह घर को ही स्वर्ग बनाने का एक प्रयास है जो भारत की संस्कृति में कूट कूट कर भरा है। इस स्वर्गतुल्य अनुभव को व्यक्त करने में आपको थोड़ी झिझक हो सकती है, मैं आपकी वेदना को हल्का किये देता हूँ।


विवाह के समय माँ अपनी बेटी को सीख देती है कि बेटी तू जिस घर में जा रही है, उसे स्वर्ग बना देना। विवाह की बेला तो वैसे ही सपनों में तैरने की बेला होती है, बेटी भी मना नहीं करती है। अब नये घर के काम काज भी ढेर सारे होते हैं, नये सम्बन्धी, नयी खरीददारी, ढेर सारी बातें मायके की, ससुराल की। कई तथ्य जो कुलबुला रहे होते हैं, उनको निष्पत्ति मिल जाने तक नवविवाहिता को कहाँ विश्राम। इस आपाधापी में बेटी को माँ की शिक्षा याद ही नहीं रहती है।


जिस प्रकार दुष्यन्त को अँगूठी देखकर शकुन्तला की याद आयी थी, विवाह के कई वर्षों बाद बेटी को अँगूठी के सन्दर्भ में ही माँ की दी शिक्षा याद आ जाती है, घर को स्वर्ग बनाने की।


"अमुक के उनने, अमुक अवसर पर एक हार दिया, आप अँगूठी भी नहीं दे सकते?" अब इसे पढ़ा जाये कि लोग अपनी पत्नियों को हार के (बराबर) प्यार करते हैं, आप अँगूठी के बराबर भी नहीं? ब्रम्हास्त्र छूट चुका था, घात करना ही था। आप आगे आगे, बात पीछे पीछे।


एक सुलझे कूटनीतिज्ञ की तरह दबाव बनाने के लिये बोलचाल भी बन्द।


अब यहाँ से प्रारम्भ होता है आप का स्वर्ग भ्रमण।


कहते हैं कि स्वर्ग में हर शब्द गीत है और हर पग नृत्य।


यहाँ भी कोई शब्द बोले नहीं जा रहे हैं, केवल गीत सुनाये जा रहे हैं। गीतों के माध्यम से संवाद चल रहे हैं। हर शब्द गीत हो गया। इन अवसरों के लिये हर अच्छे गायक ने ढेर सारे गीत गाये हैं, वही बजते रहते हैं। आप आप नहीं रहते हैं, खो जाते हैं गीत के अभिनेता के किरदार की संवेदना में। है न स्वर्ग की अनुभूति।


अब कोई सामने आते आते ठुमककर बगल से निकल जाये तो क्या वह किसी नृत्य से कम है? आपको ज्ञात नहीं कि क्या वस्तु कहाँ मिलेगी, आप पूरे घर में नृत्य करते रहते हैं। पार्श्व में गीत-संगीत और घर में दोनों का नृत्य। आपका अनियन्त्रित, उनका सुनियोजित। है न स्वर्ग की अनुभूति।


बिजली की तरह ही प्रेम को भी बाँधा नहीं जा सकता है। इस दशा में दोनों का ही प्रेम बहता और बढ़ता है बच्चों की ओर। अब इतना प्यार जिस घर में बच्चों को मिले तो वह घर स्वर्ग ही हो गया। जब सारा प्यार बच्चों पर प्रवाहित हो रहा है तो भोजन भी उनकी पसन्द का ही बन रहा है, निसन्देह अच्छा ही बन रहा है। है न स्वर्ग की अनुभूति।


संवाद मध्यस्थों के माध्यम से हो रहा है। केवल काम की बातें, जितनी न्यूनतम आवश्यक हों। जब कार्य अत्यधिक सचेत रह कर किया जाये तो गुणवत्ता अपने आप बढ़ जाती है। हम भी सजग कि कहीं करेले पर नीम न चढ़ जाये। उन्हे यह सिद्ध करने की उत्कट चाह कि वह अँगूठी के योग्य हैं। जापान ने हड़ताल के समय अधिक उत्पादन का मन्त्र संभवतः भारत की रुष्ट गृहणियों से सीखा हो। है न स्वर्ग की अनुभूति।


किसी को मत बताईयेगा, हमें ब्लॉग लिखने व पढ़ने का भरपूर समय भी मिल रहा है। है न स्वर्ग की अनुभूति।


दिन भर के स्वर्गीय सुखों से तृप्त जब सोने का प्रयास कर रहा हूँ तो रेडियो में जगजीत सिंह गा रहे हैं "तुमने बदले हमसे गिन गिन कर लिये, हमने क्या चाहा था इस दिन के लिये?" अब स्वर्ग में इस गज़ल का क्या मतलब?


आपके घर में इस यात्रा का अन्त कैसे होता है, बताईये? हम तो पकने लगे हैं। हमें पुनः पृथ्वीलोक जाना है। अब समझ में आया कि स्वर्ग में तथाकथित आनन्द से रहने वाले देवता पृथ्वीलोक में क्यों जन्म लेना चाहते हैं?

21.6.10