नये घर में, खेती से सम्पन्न घर की छोटी बहू को घर का सारा अर्थतन्त्र बड़ों के हाथ में छिना हुआ दिखा और पति का उस कारण से उपद्रव न मचाने का निश्चय भी। बिना भाग्य को कोसे व व्यर्थ समय गवाँये पहले अपनी पढ़ाई पूरी की और तत्पश्चात प्राइमरी विद्यालय में एक अध्यापिका के रूप में नौकरी प्रारम्भ की। एक नारी के द्वारा नौकरी करना कदाचित उस परिवेश के लिये एक अमर्यादित निर्णय था जिसका तत्कालीन सभी प्रबुद्धों ने प्रबल विरोध किया। परिवेशीय घुटन के बाहर परिवार का भविष्य है, इस तर्क पर ससुर के समर्थन को अपना सम्बल मान आधुनिका कहे जाने के सारे वाक्दंश सहे। मुझे गर्भ में सम्भवतः यही शिक्षा प्राप्त हुयी है, जुझारूपन की। माँ ने हृदय की अग्नि की आँच सदा अन्दर ही रखी और कभी व्यक्त भी हुयी तो परिश्रम व त्याग के रूप में, गृह-धारिणी के रूप में।
30.6.10
30 जून 2010
नये घर में, खेती से सम्पन्न घर की छोटी बहू को घर का सारा अर्थतन्त्र बड़ों के हाथ में छिना हुआ दिखा और पति का उस कारण से उपद्रव न मचाने का निश्चय भी। बिना भाग्य को कोसे व व्यर्थ समय गवाँये पहले अपनी पढ़ाई पूरी की और तत्पश्चात प्राइमरी विद्यालय में एक अध्यापिका के रूप में नौकरी प्रारम्भ की। एक नारी के द्वारा नौकरी करना कदाचित उस परिवेश के लिये एक अमर्यादित निर्णय था जिसका तत्कालीन सभी प्रबुद्धों ने प्रबल विरोध किया। परिवेशीय घुटन के बाहर परिवार का भविष्य है, इस तर्क पर ससुर के समर्थन को अपना सम्बल मान आधुनिका कहे जाने के सारे वाक्दंश सहे। मुझे गर्भ में सम्भवतः यही शिक्षा प्राप्त हुयी है, जुझारूपन की। माँ ने हृदय की अग्नि की आँच सदा अन्दर ही रखी और कभी व्यक्त भी हुयी तो परिश्रम व त्याग के रूप में, गृह-धारिणी के रूप में।
26.6.10
मैं तुम्हे मरने नहीं दूँगा
23.6.10
स्वर्ग
नहीं, यह यात्रा वृत्तान्त नहीं है और अभी स्वर्ग के वीज़ा के लिये आवेदन भी नहीं देना है। यह घर को ही स्वर्ग बनाने का एक प्रयास है जो भारत की संस्कृति में कूट कूट कर भरा है। इस स्वर्गतुल्य अनुभव को व्यक्त करने में आपको थोड़ी झिझक हो सकती है, मैं आपकी वेदना को हल्का किये देता हूँ।
विवाह के समय माँ अपनी बेटी को सीख देती है कि बेटी तू जिस घर में जा रही है, उसे स्वर्ग बना देना। विवाह की बेला तो वैसे ही सपनों में तैरने की बेला होती है, बेटी भी मना नहीं करती है। अब नये घर के काम काज भी ढेर सारे होते हैं, नये सम्बन्धी, नयी खरीददारी, ढेर सारी बातें मायके की, ससुराल की। कई तथ्य जो कुलबुला रहे होते हैं, उनको निष्पत्ति मिल जाने तक नवविवाहिता को कहाँ विश्राम। इस आपाधापी में बेटी को माँ की शिक्षा याद ही नहीं रहती है।
जिस प्रकार दुष्यन्त को अँगूठी देखकर शकुन्तला की याद आयी थी, विवाह के कई वर्षों बाद बेटी को अँगूठी के सन्दर्भ में ही माँ की दी शिक्षा याद आ जाती है, घर को स्वर्ग बनाने की।
"अमुक के उनने, अमुक अवसर पर एक हार दिया, आप अँगूठी भी नहीं दे सकते?" अब इसे पढ़ा जाये कि लोग अपनी पत्नियों को हार के (बराबर) प्यार करते हैं, आप अँगूठी के बराबर भी नहीं? ब्रम्हास्त्र छूट चुका था, घात करना ही था। आप आगे आगे, बात पीछे पीछे।
एक सुलझे कूटनीतिज्ञ की तरह दबाव बनाने के लिये बोलचाल भी बन्द।
अब यहाँ से प्रारम्भ होता है आप का स्वर्ग भ्रमण।
कहते हैं कि स्वर्ग में हर शब्द गीत है और हर पग नृत्य।
यहाँ भी कोई शब्द बोले नहीं जा रहे हैं, केवल गीत सुनाये जा रहे हैं। गीतों के माध्यम से संवाद चल रहे हैं। हर शब्द गीत हो गया। इन अवसरों के लिये हर अच्छे गायक ने ढेर सारे गीत गाये हैं, वही बजते रहते हैं। आप आप नहीं रहते हैं, खो जाते हैं गीत के अभिनेता के किरदार की संवेदना में। है न स्वर्ग की अनुभूति।
अब कोई सामने आते आते ठुमककर बगल से निकल जाये तो क्या वह किसी नृत्य से कम है? आपको ज्ञात नहीं कि क्या वस्तु कहाँ मिलेगी, आप पूरे घर में नृत्य करते रहते हैं। पार्श्व में गीत-संगीत और घर में दोनों का नृत्य। आपका अनियन्त्रित, उनका सुनियोजित। है न स्वर्ग की अनुभूति।
बिजली की तरह ही प्रेम को भी बाँधा नहीं जा सकता है। इस दशा में दोनों का ही प्रेम बहता और बढ़ता है बच्चों की ओर। अब इतना प्यार जिस घर में बच्चों को मिले तो वह घर स्वर्ग ही हो गया। जब सारा प्यार बच्चों पर प्रवाहित हो रहा है तो भोजन भी उनकी पसन्द का ही बन रहा है, निसन्देह अच्छा ही बन रहा है। है न स्वर्ग की अनुभूति।
संवाद मध्यस्थों के माध्यम से हो रहा है। केवल काम की बातें, जितनी न्यूनतम आवश्यक हों। जब कार्य अत्यधिक सचेत रह कर किया जाये तो गुणवत्ता अपने आप बढ़ जाती है। हम भी सजग कि कहीं करेले पर नीम न चढ़ जाये। उन्हे यह सिद्ध करने की उत्कट चाह कि वह अँगूठी के योग्य हैं। जापान ने हड़ताल के समय अधिक उत्पादन का मन्त्र संभवतः भारत की रुष्ट गृहणियों से सीखा हो। है न स्वर्ग की अनुभूति।
किसी को मत बताईयेगा, हमें ब्लॉग लिखने व पढ़ने का भरपूर समय भी मिल रहा है। है न स्वर्ग की अनुभूति।
दिन भर के स्वर्गीय सुखों से तृप्त जब सोने का प्रयास कर रहा हूँ तो रेडियो में जगजीत सिंह गा रहे हैं "तुमने बदले हमसे गिन गिन कर लिये, हमने क्या चाहा था इस दिन के लिये?" अब स्वर्ग में इस गज़ल का क्या मतलब?
आपके घर में इस यात्रा का अन्त कैसे होता है, बताईये? हम तो पकने लगे हैं। हमें पुनः पृथ्वीलोक जाना है। अब समझ में आया कि स्वर्ग में तथाकथित आनन्द से रहने वाले देवता पृथ्वीलोक में क्यों जन्म लेना चाहते हैं?