29.12.10

तड़प, उत्साह, प्रश्न, निष्कर्ष और लेखन

यदि यह एक टिप्पणी नहीं आती तो संभवतः तड़प, उत्साह, परिपक्वता, प्रश्न और निष्कर्ष जैसे शब्द मुँह बाये न खड़े होते। साहित्य का विषय जब विषयों से परे जा इन शब्दों में ठिठक जाता है, रोचकता अपने चरम पर पहुँच जाती है। ऐसे में उस पर कुछ न कहना मानसिक प्रवाह की अवहेलना करना सा होता।

कप्पा अधिवेशन के तीसरे स्तम्भ का परिचय नहीं दे पाया था, भूल मेरी ही थी, शीर्षक की झनझनाहट उस भूल का कारण थी। कप्पा अधिवेशन का आयोजन अनिल महाजन जी के भारत आगमन के उपलक्ष्य में ही किया गया था। तीन उन्मत्त साहित्य प्रेमियों का यूँ मिल जाना एक सुयोग ही था। मैं जो अवलोकन न कर पाया, उस पर टिप्पणी कर पोस्ट को पूर्णता प्रदान करने की महत कृपा की है। अनिल महाजन जी भी मेरे वरिष्ठ रहे हैं। पहले वह टिप्पणी पढ़ लें।

पोस्ट जोरदार है। नीरज का यह परिचय, मेरे ख्याल से बहुत उपयुक्त है। उसकी तड़प, उत्साह, दोनों घुले मिले हैं। तड़प छेड़ो तो उत्साह भड़कता है। उत्साह कुरेदो तो अनुभव, तड़प निकल निकल आते हैं। साहित्यकार का इससे अच्छा परिचय, लक्षण क्या हो सकता है। नीरज को हिन्दी के झरोखे तक ले जाने के लिये धन्यवाद। इससे उपयुक्त क्या हो सकता था, मुझे भी नहीं मालूम। अब झक मारकर वे और लिखेंगे और हमें पढ़ने को मिलेगा अलग से।

बात आगे बढ़ाने की कोशिश करता हूँ। परिपक्व लेखन हम किसे माने? जो समाधान दे, निष्कर्ष दे या जो प्रश्नों को सचित्र सामने ला रखता जाये। जो समाधान, निष्कर्ष देगा, उसने तो सब समझ लिया। उसे सिर्फ यही लगेगा न, कि मुझसे मार्गदर्शन लो। प्रश्नों की उलझन, प्रक्रिया जो ऊर्जा, जो आनन्द देती है, वह समाधानों में नहीं। अज्ञेय, मुक्तिबोध में प्रश्नों की छटपटाहट दिखती है, चित्र दिखते हैं, राह दिखती है, पर अन्त नहीं, समाधान नहीं। पर, इसका अर्थ यह भी कतई नहीं कि साहित्य सिर्फ यथातथता है या फिर इतिवृत्तात्मक है। नहीं, मेरे जैसे पाठक यह भी नहीं मान पायेंगे। उनके लिये तो प्रश्नों के झगड़े ही लेखन है। जीवन का अनुभव सिर्फ प्रश्न है और उन प्रश्नों को उकेर कर सामने रख देना ही संभवतः लेखन है। परिपक्वता तो मानसिक कयास है। हाँ यदि, पाठक कितनी जल्दी से तदात्म्य बना ले, यह कसौटी है, तो बात अलग है, क्योंकि तब दुनिया का लिखा प्रत्येक वाक्य किसी न किसी को भाता जरूर है और अपने जीवन के धुँधले चित्र(विचारी या अविचारी) वहाँ उसे दिख जाते हैं। वह उसके लिये अपना बन जाता है, साहित्य बन जाता है। कितना परिपक्व, वह सुधीजन जाने, हम तो ठहरे निपठ।
इति
अनिल

ब्लॉग जगत में इस तड़प और उत्साह का मिश्रण देखने को तरसते रहते हैं हम। आकाशीय बिजलियों की भाँति चमक कर पुनः छिप जाते हैं बादल के पीछे अपने सुरक्षा कवचों में। कहीं कोई बखेड़ा न खड़ा कर दे हमारी स्पष्टवादिता।

साहित्य में प्रश्न उठें या उत्तर मिलें या हो कोई उपनिषदों जैसा प्रश्नोत्तरी स्वरूप, पूर्वपक्ष, प्रतिपक्ष और निष्कर्ष। जीवन भर प्यास जगाना या प्यासों को अमृत चखाना। हमें क्या अच्छा लगता है, वह प्रश्न जो हमारा चिन्तन प्रवाह बढ़ायें या वह निष्कर्ष जो सागर सी स्थिरता मन में लाये।

प्रश्न अनिल महाजन जी के हैं, चर्चा ब्लॉग पर है, संवाद का मूक दर्शक बन ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा में स्थित मैं, तड़प और उत्साह की साधना में रत।

25.12.10

कब लिखोगे ? मरने के बाद ?

यह झंकृत कर देने वाला शीर्षक न रखता, यदि सुना न होता। लिख कर रखा होगा किसी ने, बोलने के पहले, लिखने, न लिखने के बारे में यह उद्गार। बिना अनुभव यह संभवतः लिखा भी न गया होगा। आप पढ़कर व्यथित न हों, मैं सुनकर हो चुका हूँ, सब बताता हूँ।

अनेकों विचार हैं, अनुभवों के अम्बार हैं, प्रकरणों के आगार हैं आपके मन में। किसलिये? व्यक्त करने के लिये और व्यक्त करेंगे भी। पर क्या करें, समय नहीं है, घर-बार है, व्यापार है, दिनभर की नौकरी है, समस्याओं की गठरी है। सब निपटा लें, तब लिखेंगे। पर मान लीजिये, न लिख पाये तो? तब क्या करेंगे? गाना गायेंगे।

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले, 
हमें जिस बोझ ने मारा, सम्हालो तुम, कि हम निकले।

यह सब मैं आपको पहले से इसलिये बताये दे रहा हूँ क्योंकि मैं जानता हूँ कि जब आप नीरज जी से मिलेंगे तो यही उत्तर देंगे। पहले तो आपका उत्तर सुनकर वह ठहाका मारकर हँसेंगे, आप भी गब्बरसिंह के सामने वाली कालिया की फँसी हुयी हँसी में मुस्कराने लगेंगे। तब सहसा आपके कानों में यह शीर्षक सुनायी देगा, व्यंगात्मक क्रूरता में। कब लिखोगे ? मरने के बाद ?

क्या करें, अभी तक कानों में झनझना रहा है, यह वाक्य। पता नहीं कितनों वर्षों की नींद से उठाकर खड़ा कर दिया हो, एक एक चिन्तन-तन्तु पूरी तरह झिंझोड़कर। जेपी नगर के कप्पा रेस्टॉरेन्ट में गले के अन्दर गयी और कप में रह गयी कॉफी की भी नींद उड़ गयी होगी, यह सुनकर।

विषय परिचय पहले हो गया, अब सूत्रधार के बारे में भी संक्षिप्त परिचय दे देता हूँ। मुझसे 8 वर्ष बड़े हैं, विद्यालय में, आई आई टी में मेरे वरिष्ठ रहे हैं, हिन्दी  व अंग्रेजी में एकरूप सिद्धहस्तता, पता नहीं कितना साहित्य डकार चुके हैं, अब निकालने की प्रक्रिया में हैं। एक पुस्तक लिख चुके हैं, शीर्षक है, "कुछ अलग : सब हैं खिसके, कुछ ज्यादा खिसके"। पता नहीं कितनी और पुस्तकें लिख डालेंगे, पता नहीं कितना और खिसका डालेंगे।

संदेश स्पष्ट है, पूरी तरह। जितना कुछ आपने सोच रखा है, उस पुस्तक की प्रस्तावना तो आज ही लिख दें, पर यह पोस्ट पढ़ने के बाद।

कप्पा अधिवेशन के तीन मुख्य बिन्दु इस प्रकार थे।

पहला, लिखना प्रारम्भ कर दीजिये, प्रवाह अपने आप बन जाता है। टूथपेस्ट बहुत दिन से उपयोग में न लायें तो वह भी कड़ा हो जाता है, साधारण दबाव में नहीं निकलता है, अधिक शक्ति लगानी पड़ेगी। विचार भी पड़े पड़े कड़े हो जाते हैं, प्रयास कर के निकालिये, लिखना प्रारम्भ करिये।

दूसरा, जीवन को फैलाते अवश्य रहें और आवश्यक भी है वह, सर्वार्जन के लिये, पर एक समय के बाद जीवन को समेटने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर देनी चाहिये, जीवन को सरल कर देना चाहिये। यही साहित्य में भी होता है, परिपक्व लेखन प्रश्न कम उठाता है, निष्कर्ष अधिक बताता है, जीवन के अनुभवों को निचोड़कर अभिव्यक्ति की तरलता में।

तीसरा, ज्ञान, दर्शन, तर्क, संदेश कितने भी भारी हों, पाठकों के हृदय में उतारे जा सकते हैं, मनोरंजन के माध्यम से। आपका कठिनतम ज्ञान भी सरलतम भाषा में पगा हो, मन का रंजन हो, मन को आकर्षित करने वाले तत्व हों। मनोरंजन को इस महत कार्य के माध्यम के रूप में प्रयोग करने के स्थान पर मनोरंजन की नग्नता परोसना, उस तरलता को व्यर्थ कर देने जैसा है।

तो आमन्त्रण है,
जिन्हें सत्संग का इच्छा है नीरज जी से,
कप्पा या कॉफी हॉउस में,
पर,
बिल आप भरेंगे,
हम साथ में रहेंगे,
बस ज्ञान प्राप्त करेंगे,
हमें भी कुछ पुस्तकें पूरी करनी हैं,
जीवन निकलने से पहले।

22.12.10

किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार

न जाने कितनी बार आपको ऐसा लगा होगा कि कोई ऐसा ही गीत है जो बस आपके लिये लिखा गया है। उन्मत्त सुख के अवसरों पर, विदारणीय दुख की घड़ियों में, आपके द्वारा सुने जा रहे गीत आपसे बातें करने लगते हैं। गीतों में निहित मूल भाव, उनके कारण और प्रभाव आपसे पहले का परिचय रखते हुये से दिखते हैं।

मुझे कई गीत बहुत भाते हैं, जब भी सुनता हूँ, साथ में गाने लगता हूँ, बहुधा परिवेश भूल जाता हूँ। पता नहीं कि शब्द अच्छे लगते हैं या भाव या संगीत या स्वयं का गाना। कभी कभी जब विचार भटकाने लगते हैं अन्धे कूप में तो वहाँ इन्हीं गीतों की प्रतिध्वनियाँ सुनायी पड़ने लगती हैं, मैं पुनः गुनगुनाने लगता हूँ और बाहर निकल आता हूँ अपनी भँवरों से। जब गाना बन्द करता हूँ तब सब समझ जाते हैं कि अब बात की जा सकती है श्रीमानजी से।

साहित्य की पवित्रता भंग न होने देने वालों के लिये फिल्मी गीतों को साहित्य न मानना एक हठ हो सकता है, पर पता नहीं क्यों भावों का गहरापन आपको इन गीतों के सतरंगी स्वरूप को स्वीकार करने को बाध्य कर देगा। ऐसा लगने लगेगा कि बिना अनुभव की तीक्ष्णता के ऐसे उद्गार निकलना असम्भव है। कल्पना की राह जहाँ समाप्त हो जाती है, वहाँ से प्रारम्भ होता होगा इन गीतों के सृजन का क्रम, अनुभव की तीक्ष्णता में। आपके सामने कईयों ऐसे गीत आ चुके होंगे जिनको बार बार आप याद करते होंगे गुनगुना कर, हर बार वही विशुद्ध भाव।

गीतों में पूरा का पूरा साहित्य बसा है, कवियों ने लिखा है, आप उन्हें मान्यता प्राप्त कवि न माने, न सही। सूर का सौन्दर्य, तुलसी की संवेदना, निराला की फक्कड़ी, दिनकर का ओज, पन्त की सुकुमारता, महादेवी की पीड़ा, नागार्जुन की बेबाकी भले ही उनकी साहित्यिक साधना में न हो, भले ही उनकी प्रतिभा धनोपार्जन और जीविकोपार्जन में तिक्त रही हो, भले ही गीतों के सीमित स्वरूप ने उनके भावों की जलधार को रूद्ध कर दिया हो, पर जो भी उनकी लेखनी से बहा है भावों का नीर बहाने के लिये पर्याप्त है।

फिल्मों की अपनी साहित्यिक सीमायें हैं। गीत व कहानी लेखन फिल्म के अंग अवश्य हैं पर संप्रेषण के एक मात्र आधार नहीं। व्यावसायिक कारणों से जनसाधारण के लिये बनायी गयी फिल्मों में आप भले ही सान्ध्र साहित्यिक अनुभव न पा पायें, पर गीतों के रूप में कवि बहुधा ही सुधीजनों को जीवन दर्शन के गहरे पाठ सुनाते आये हैं। उससे अधिक की आस करना, माध्यम की व्यावसायिक उपयोगिता को सीमाओं से अधिक खीचने जैसा हो संभवतः।

कभी मन में टीस तो अवश्य उठती होगी कि इतने सशक्त माध्यम का प्रयोग साहित्य संवर्धन के लिये उतना नहीं हो पा रहा है जितना मनोरंजन के लिये। हिन्दी की कई कविताओं को फिल्मों ने अपनाया है पर जिस स्तर के प्रयोग लोकसंगीत के लेकर हुये हैं फिल्मों में, हिन्दी की कवितायें उस अपनत्व से अछूती रही हैं अब तक। संभव है कि हिन्दी शब्दों की क्लिष्टता बाधक हो सकती है, पर साहित्य को जनप्रचार में भी अपनी धार बचा के तो रखनी ही है। संभव है कि फिल्मकारों को लगे कि यह गीत सब लोगों तक नहीं पहुँच पायेंगे, पर साहित्य का अमृत उस माध्यम को असाधारण अमरत्व भी दे जायेगा, व्यवसायिकता की राहों से परे।

आवश्यकता है तो जनमानस को समझने वाले एक प्रयोगधर्मी फिल्मकार की, साहित्य के अमृत को सरलता से शब्दों में ढाल कर पिलाने वाले कवि की, लोक संगीत के थापों में उस शब्द-संरचना को पिरोने वाले संगीतकार की और सबके अधरों पर उसे सजा देने वाले गायक की। आज भी चाहिये न जाने कितने राजकपूर, शैलेन्द्र, शंकर-जयकिशन और मुकेश।

फिल्मों के माध्यम से साहित्य संवर्धन का प्रवाह वही कालजयी गीत बहायेंगे।

"किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार" जैसा कोई गीत।

गाता हूँ, खो जाता हूँ, आप खोना चाहेंगे इसमें?

18.12.10

उफ, तेल का कुआँ न हुआ

कई बार घोर कर्मवादी मनुष्य भाग्य को किंचित भी श्रेय नहीं देते हैं, न किसी सुख के लिये और न किसी दुख के लिये भी। बहुत चाहा कि उनके पौरुषेय चिन्तन से प्रभावित होकर स्वयं को ही अपना स्वामी मान लें। दो तीन दिन तक तो कृत्रिम चिन्तन चढ़ा रहता हैं, पर असहायता की पहली ही बारिश में वह रंग उतर जाता है और तब स्वयं से अधिक भाग्य पर विश्वास होने लगता है।

कोई तो कारण रहा होगा कि हमारे पास तेल का कुआँ न हुआ, जन्म के समय एक तिकोनी चढ्ढी ही मिली पहनने को। जीवन के कितने मोड़ लाज छिपाते छिपाते पार किये। तेल का कुआँ होता तो, उफ, क्यों न हुआ तेल का कुआँ?

कुछ दिन पहले मॉल में घूमते हुये "सैमसंग गैलेक्सी टैब" पर दृष्टि गड़ी। 7 इंच स्क्रीन का टचपैड। मन बस वहीं पसर गया, पीछे खड़े व्यक्ति को लगभग आधे घंटे तक प्रतीक्षा करनी पड़ी, उस पर हाथ चलाने के लिये। मोबाइल और लैपटॉप का संकर अवतार लग रहा था वह। मूल्य 37000 रु मात्र। पूरे जोड़ घटाने कर डाले, कि कहीं से कोई तो राह निकले, पर हर राह में दिख रहे थे श्रीमतीजी के आग्नेय नेत्र। आग्नेय नेत्रों को केवल स्वर्ण-आभूषणों से ही द्रवित किया जा सकता था। इस दुगने खर्च के विचार मात्र से आशाओं ने सर झुका लिया और आह निकली, उफ, तेल का कुआँ न हुआ।

कारों में रुचि नहीं है, नहीं तो यही आह बड़ी लम्बी होती और कुओँ की आवश्यकता बहुवचन में पहुँच जाती।

भारत में जन्म के लिये लाइसेन्स काटने के पहले भगवान को ज्ञात तो अवश्य होगा कि यह तड़पेगा बहुत। मन और मस्तिष्क तो बहुत तेज चलेंगे पर साथ देने के लिये कुछ और न रहेगा। थोड़े दिन बाद स्वतः ही सबसे हार मान जायेगा और भाग्य पर विश्वास करने लगेगा। मरने के पहले लोक, परलोक, सन्तोष की बड़ी बड़ी बातें करेगा पर अगले जन्म के लिये भारत देश नहीं, अरब देश का टिकट माँगेगा।

अब देखिये यहाँ पर कुछ सार्थक पाने में जीवन का तेल निकल आता हैं और हमारे अरबी बान्धव थोड़ा तेल निकाल निकाल कर जीवन भर सब कुछ पाते रहते हैं। हम लोग बरेली के बाज़ार में झुमका ढूढ़ने में एक पूरा गाना बना देते हैं और किसी शेख ने खालिस चाँदी की कार बनवायी है अपने बरेली के बाज़ार जाने के लिये। वहाँ जन्म लेने वालों के बच्चों के मन में परीक्षा का भूत कभी नहीं मँडराता होगा। एक तेल के कुआँ न होने से न जाने हमारे विद्यार्थियों को मन्दिरों में कितनी प्रार्थनायें और बजरंग बली को कितनी हनुमान चालीसा चढ़ानी पड़ती हैं। किसी को अरब में पैदा किया, हमें अरबों के बीच छोड़ दिया।

हमारे भी जलवे होते, क्या होता जो अधिक न पढ़ पाते। अधिक पढ़ लेने से बुद्धिभ्रम हो जाते हैं। तब एकांगी चाह रहती, जिस किसी की भी चाह रहती।

क्या भगवन, किसी को कुयेँ में तेल दिया, किसी को गाल में तिल दिया और हमें भाग्य में ताला। यह तो अन्याय हुआ प्रभु, अब तो ताली बजाना छोड़ भाग्य की ताली फेंक दो, सब ब्लॉगर बन्धु हँस रहे हैं।

चलिये आप सहमत नहीं हो रहे हैं तो मान लेते हैं कि भाग्य नहीं होता है।

पर उसे जो भी कह लें, होता बड़ा विचित्र है, उफ, तेल का कुआँ न हुआ।

15.12.10

गो गोवा

पर्यटन एक विशुद्ध मानसिक अनुभव है। मन में धारणा बन जाती है कि हमारे सुख की कोई न कोई कुंजी उस स्थान पर छिपी होगी जो वहाँ जाने से मिल जायेगी। अब तो घूमने जाना ही है, सब जाते हैं। अब अकेले जाकर क्या करेंगे, सपत्नीक जाना चाहिये। अभी बच्चे छोटे हैं, नैपकिन बदलने में ही पूरा समय चला जायेगा। अब बच्चों का विद्यालय छूट जायेगा, पढ़ाई कैसे छोड़ सकते हैं। अब छुट्टी के समय वहाँ बड़ी भीड़ हो जाती है, वह स्थान उतना आनन्ददायक नहीं रहता है। कुछ नहीं तो कार्यालय में कार्य निकल आता है। 

एक सहयोगी अधिकारी की विदेश यात्रा के कारण अतिरिक्त भार से लादे गये हम छुट्टी की माँग न कर पाये । बच्चों की छुट्टियाँ भी समाप्तप्राय थीं। "आपकी कैसी नौकरी है", यह सुनने का मन बना चुके थे, तभी ईश्वर कृपादृष्टि बरसा देते हैं और हम बच्चों का विद्यालय खुलने के मात्र चार दिन पहले स्वयं को गोवा जाने वाली ट्रेन में बैठा पाते हैं।

सीधी ट्रेन पहले निकल जाने के कारण हम पहले हुबली पहुँचे। वहाँ से गोवा के लिये जिस ट्रेन में बैठे, वह दिन में थी। पश्चिमी घाट को चीर कर निकलती ट्रेन, दोनों ओर बड़ी बड़ी पहाड़ियाँ, 37 किमी की दूरी में ही 1200 मीटर की ऊँचाई खोती पटरियाँ, बीच में दूधसागर का जलप्रपात, कई माह तक बादलों से आच्छादित रहने वाला कैसल रॉक का स्टेशन और हरी परत से लपेटा गया हमारी खिड़की का दृश्यपटल, सभी हमारी यात्रा को सफल बनाने के लिये ईश्वर के ही आदेशों का पालन कर रहे थे।

मानसून पूर्ण कर्तव्य निभा कर विदा ले चुका है। छुटपुट बादल अब अपना कार्य समेट कर पर्यटकों को आने का निमन्त्रण दे रहे हैं, सागर की शीतलता को छील कर उतार लाती पवन हल्की सिरहन ले आती है। पर्यटन की योजनायें बनने लगी हैं। मैं जितना अधिक घूमता हूँ, उतनी अधिक मेरी धारणा बल पा रही है कि हमारे बांग्लाभाषी मानुष ही सबसे उत्साही पर्यटक हैं। वैष्णोदेवी से लेकर कन्याकुमारी तक, जहाँ कहीं भी गया, सदैव ही उनको सपरिवार और सामूहिक घूमने में व्यस्त देखा।

सभी स्थानों को छूकर दौड़ने भागने से घूमने का आनन्द जाता रहता है अतः समय और रुचि लेकर ही स्थानों को देखा। पुराने चर्चों व संग्रहालयों में जाकर अपने पर्यटक धर्म का निर्वाह करने के बाद चार और कार्य किये। ये थे पैरासेलिंग, स्पीड बोटिंग, क्रूज़ और बिग फुट के दर्शन। पैरासेलिंग में बोट में लगी रस्सी के सहारे पैराशूट ऊपर उठता है, बहुत ही सधे हुये ढंग से, बिना झटके के। एक ऊँचाई पर पहुँच कर नीचे के दृश्य सम्मोहनकारी लगते हैं। सबको ही यह अनुभव लेने की सलाह है। स्पीड बोटिंग में लहरों के ऊपर से हवा में उठकर जब बोट पानी में सपाट गिरती है, मन धक्क से रह जाता है। समुद्र की सतह पर टकराने की ध्वनि इतनी कठोर होगी, यह नहीं सोचा था। क्रूज़ में गोवा की उत्श्रंखलता का चित्रण नृत्य व संगीत के माध्यम से हुआ। सूत्रधार ने चेताया कि बिना नाचे आपको क्रूज़ का आनन्द नहीं मिलेगा। हम सबने भी सूत्रधार को निराश नहीं किया। बिग फुट गोवा की संस्कृति, इतिहास व रहन सहन का सुन्दर प्रस्तुतीकरण है।

पाँच नगरीय आबादियों के अतिरिक्त पूरा गोवा प्रकृति की विस्तृत गोद में बच्चे जैसा खेलता हुआ लगता है । भगवान करे इस बच्चे को आधुनिकता की नज़र न लगे।

सुबह सुबह जल्दी उठकर 50 मीटर की दूरी पर स्थित कोल्वा बीच पर निकल जाते थे। विस्तार व एकान्त में लहरों की अठखेलियाँ हमें खेलने को आमन्त्रित करती थीं। हम लहरों से खेलने लगते, पर समय बीतते यह लगने लगता कि लहरें अभी भी उतनी ही उत्साहित हैं जितनी 2 घंटे पहले। गम्भीर सागर किनारों पर आकर पृथ्वी को छूने के लिये मगन हो नाचने लगता है। 26 बीचों में फैला गोवा का सौन्दर्य आपको आमन्त्रित कर रहा है।


अब सोचना कैसागो गोवा।

11.12.10

करूँ प्रतीक्षा, आँखें प्यासी

आओ तुम जीवन प्रांगण में,
छाओ बन आह्लाद हृदय में,
उत्सुक है मन, बाट जोहता,
नहीं अकेले जगत सोहता,
तृषा पूर्ण, हैं रिक्तिक यादें,
आशान्वित बस समय बिता दें,
टूटेगी सुनसान उदासी,
करूँ प्रतीक्षा, आँखें प्यासी ।1।

अलसायी, झपकी, नम पलकें,
प्रेमजनित मधु छल-छल छलके,
स्वप्नचित्त, अधसोयी, हँसती,
जाने किस आकर्षण-रस की,
स्रोत बनी, कर ओत-प्रोत मन,
शमन नहीं हो सकने का क्रम,
रह-रह फिर आत्मा अकुलाती,
करूँ प्रतीक्षा, आँखें प्यासी ।2।

कोमल, कमल सरीखी आँखें,
प्रेम-पंक, उतराते जाते,
आश्रय बिन आधार अवस्थित,
मूक बने खिंचते, आकर्षित,
कहाँ दृष्टि-संचार समझते,
नैन क्षितिजवत तकते-तकते,
जाने कितनी रैन बिता दी,
करूँ प्रतीक्षा, आँखें प्यासी ।3।

सुप्तप्राय मन, व्यथा विरह की,
किन्तु लगा मैं अनायास ही,
आमन्त्रित यादों में रमने,
स्वप्नों के महके उपवन में,
आँखों में आकर्ष भरे तुम,
यौवन चंचल रूप धरे तुम,
बाँह पसारे पास बुलाती,
करूँ प्रतीक्षा, आँखें प्यासी ।4।

प्रात, निशा सब शान्त खड़े हैं,
आशाओं में बीत गये हैं,
देखो जीवन के कितने दिन,
मेघ नहीं क्यों बरसे रिमझिम,
आगन्तुक बनसुख सावन में,
इस याचक का मान बढ़ाने,
आती तुम, अमृत बरसाती,
करूँ प्रतीक्षा, आँखें प्यासी ।5।


विवाह निश्चित होने के कुछ दिनों बाद ही यह कविता फूटी थी और अभी भी अधरों पर आ जाती है, गुनगुनाती हुयी, स्मृतियाँ लिये हुये। हाँ, आज विवाह को 12 वर्ष भी हो गये।

8.12.10

इस्मत आपा के नाम

मेरी दादी मुझे स्वर्ग में मिली थी, मेरे जन्म लेने के पहले, प्यारी सी, दुग्ध धवल, प्रेममयी, बिल्कुल वैसी ही जैसी अभी भी पिताजी की कोमल स्मृतियों में आती हैं, बिल्कुल वैसी ही जैसी पिताजी बताते बताते सब भूल जाते हैं। दादी के पास मेरे हिस्से की जितनी भी कहानियाँ थीं, पिताजी ही सुन चुके थे अपने बचपन में। गर्मियों में छत में सोने के पहले, तारों को निहारते निहारते, कभी कभी पिताजी उन्ही कहानियों के एकान्त जंगल में ले जाते थे, मैं चलता जाता सप्रयास ऊँगली पकड़े, मन में उत्सुकता, बस एक क्षण का विराम-प्रश्न 'फिर क्या हुआ', पुनः पगडंडियाँ, अन्ततः स्वप्न-उपवन में जाकर समाप्त होती थीं सारी की सारी यात्रायें। अब मैं पिता होकर भी कहानी नहीं सुना पाता हूँ बच्चों को, बिस्तर पर लेटते ही नींद पहले मुझे घेर लेती है। एक ऋण सा चिपका हुआ है यह भाव।

कहानी सुनाना एक कला है, अभिनय है, शब्दों को आरोह-अवरोह में उतराने का रोमांच है, सहसा रुककर गति पकड़ लेने की नाटकीयता है, सुनने वाले को निहित भावों के प्रवाह में मुग्ध कर बहा ले जाने का उपक्रम है, ज्ञान है, अनुभव है, संतुष्टि है। बच्चों को नित्य एक कहानी सुनाने के इतने लाभ।

यह सब कुछ याद नहीं आता, यदि "इस्मत आपा के नाम" नहीं देखा होता। प्रस्तावना में नसीरुद्दीन शाह ने जब बताया कि आपको आज बस तीन कहानी सुनायी जायेंगी, इस्मत चुगताई की, वैसी ही जैसी लेखिका ने लिखी, बिना किसी नाटकीय रूपान्तरण के, एक बार में एक ही कलाकार के द्वारा और बिल्कुल वैसे ही जैसे आपकी दादी माँ सुनाती थीं। रंगमंच में यह विधा एक नया प्रयोग है, दायित्व गुरुतर हो जाता है तब कलाकार पर, अपने दर्शकों को बच्चों की तरह बाँधे रहने का। दादी माँ की जगह लेने के लिये, पता नहीं कितना वैचारिक संक्रमण किया गया होगा, संप्रेषण में।


पहली कहानी "छुईमई" हीबा शाह ने, दूसरी कहानी "मुगल बच्चे" रत्ना पाठक शाह ने और तीसरी कहानी "घरवाली" स्वयं नसीरुद्दीन शाह ने सुनायी। कुल 80 मिनट तक बिना पलकें झपकाये हजारों दर्शकगण कहानी सुनते रहे, सारी संचित ऊर्जा अन्ततः तालियों की अनवरत गड़गड़ाहट में व्यक्त हुयी।
    
नसीरुद्दीन शाह जैसे रंगमच के सिद्धहस्त कलाकारों के लिये हर शब्द जैसे अपने आप में अभिनय की अभिव्यक्ति है। व्यावसायिक सिनेमा से कहीं दूर, अभिनय की उपासना में रत इस परिवार के लिये भारतीय लेखकों की साहित्यिक क्षमता और संप्रेषणीयता को सबके सम्मुख लाना एक हठ है, भारतीयता के सशक्त पक्षों को उजागर करने का। उस यज्ञ की इन तीन आहुतियों की सुगन्ध अभी भी मन में बसी हुयी है।

इस्मत चुगताई (1915-1991) संभवतः भारत की सर्वाधिक दिलेर लेखिका रही हैं। विवादों ने उन्हें जी भर कर घेरा, उन पर फूहड़ लिखने का मुकदमा चलाया गया, मुस्लिम समाज के सत्यों को बेढंगे ढंग से उछालने का आरोप लगाया गया, पर निर्भीकता से जीवनपर्यन्त अपना लेखन जारी रख उन्होने भारतीय समाज के उस उदार पक्ष को सत्यापित और स्थापित कर दिया जहाँ पर एक महिला को भी सत्य कहने की छूट मिलती है। अन्य कहानियाँ भी पढ़ी हैं मैंने, मानवीय दृष्टिकोण को थोड़ी उदारता दी जाये तो ऐसा कुछ भी नहीं है उन कहानियों में जो कि निन्दनीय हो या फूहड़ता की संज्ञा लिये हो।

कहानी बनाना सरलतम है, हम सभी बनाते रहते हैं। कहानी लिखना कठिन है, सामाजिक और मानसिक पक्षों की समझ आनी चाहिये उसके लिये। कहानी सुनाना तो भावों की प्रवाहमयी गंगा बहाना है।

दादी, सुन रही हो ना।

4.12.10

7 लेखक, 36 पुस्तकें, एक सूत्र

एक लेखक की कई पुस्तकें एक सूत्रीय विचारधारा व्यक्त करती हुयी लग सकती हैं। दो लेखकों की पुस्तकों में भी कुछ न कुछ साम्य निकल ही आता है, तीन लेखकों में यही समानता उत्तरोत्तर कम होती जाती है, पर जब लगातार 7 लेखकों की लगभग 36 पुस्तकों में एक ही सिद्धान्त रह रह कर उभरे तब सन्देह होने लगता है, ईश्वर की योजना पर। वही प्रारूप, वही योजना, वही सन्देश, कहाँ ले जाने का षड़यन्त्र रच रहे हो, हे प्रभु। मान लिया कि पढ़ने में रुचि है, पर उसका यह अर्थ तो नहीं कि अब पुस्तकों के माध्यम से वही बात बार बार संप्रेषित करते रहोगे !

मेरे जीवन की जिज्ञासा आपकी भी बनकर न रह जाये अतः पहले ही आगाह कर देना चाहता हूँ इस पोस्ट के माध्यम से। पहला तो यह कि कितनी भी रोचक हों, इनमें से किसी भी लेखक की सारी पुस्तकें न पढ़ें, यह लेखक के विचारों को आपके मन में सान्ध्र नहीं होने देगा। दूसरा यह कि इन 7 लेखकों में से किन्ही दो या तीन लेखकों को न पढ़ें, यह उस विचार को आपके मन में धधकने से बचा लेगा। पिछले तीन वर्षों में 36 पुस्तकें पढ़, हम यह दोनों भूल कर बैठे हैं, आप न करें अतः शीघ्रातिशीघ्र आगाह कर अपनी आत्मीयता प्रदर्शित कर रहे हैं।

सर्वप्रथम तो सन्दर्भार्थ उन पुस्तकों का विवरण यहाँ पर दे रहा हूँ।
लेखक
पुस्तकें
रॉबिन शर्मा
'द मोन्क व्हू सोल्ड हिज़ फेरारी' से 'द ग्रेटनेस गाइड' तक 9 पुस्तकें
मार्शल गोल्ड स्मिथ
मोज़ो
रहोन्डा बर्न
सीक्रेट
पॉलो कोल्हो
'द एलकेमिस्ट' से 'विनर स्टैंड एलोन' तक 14 पुस्तकें
जेम्स रेडफील्ड
'द सेलेस्टाइन प्रोफेसी' से 'द सीक्रेट ऑफ सम्भाला' तक 4 पुस्तकें
ब्रायन वीज़
'मैनी लाइफ, मैनी मास्टर्स' से 'मेडीटेशन' तक 6 पुस्तकें
वेद व्यास
श्रीमद भगवतगीता

भगवतगीता को छोड़कर सारी पुस्तकें अंग्रेजी में पढ़ीं, अंग्रेजी सीखने में हुये कष्ट का मूल्य अधिभार सहित वसूल जो करना है। साथ ही सारी पुस्तकें मेरे शुभचिन्तकों द्वारा भिन्न भिन्न कालखण्डों में सुझायी गयीं। पढ़ना जिस क्रम में हुआ, उस क्रम में लेखकों को न रख विचार सूत्र के क्रम में व्यवस्थित किया है। सभी पुस्तकें अपने प्रस्तुत पक्ष में पूर्ण हैं और चिन्तन की जो भावी राहें खोल जाती हैं, उसे आगे ले जाने का कार्य अन्य पुस्तकें करती हैं। सभी पुस्तकों का विवरण एक साथ देने का उद्देश्य उस विचार सूत्र को उद्घाटित करना है जो उसे तार्किकता के निष्कर्ष तक ले जाने में सक्षम है। सार यह है।

वैचारिक विश्व भौतिक विश्व से अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि आपकी वैचारिक प्रक्रिया भौतिक जगत बदल देने की क्षमता रखती है। वैचारिक दृढ़निश्चय से आप कुछ भी कर सकने में सक्षम हैं। अतः आपकी मनःस्थिति का उपयोग परिवेश में उत्साह और प्रसन्नता भरने के लिये किया जाना चाहिये, इसके निष्कर्ष आश्चर्यजनक होते हैं। विचारों का एक अपना जगत है, आप जो सोचते हैं वह विचारजगत से अपने जैसे अन्य विचारों को आकर्षित कर लेता है जिससे उस विषय में आपके विचार प्रवाह को बल मिलता है। नकारात्मक विचार अपने जैसा प्रभाव आकर्षित करते हैं। आप यदि भयग्रस्त हैं तो आपके विरोधी को उस विचार से मानसिक बल मिलेगा आपको और सताने का, आपकी आशंकायें इसी कारण से सच होने लगती हैं। नकारात्मक विचारों को सकारात्मकता से पाट दें। आपका दृढ़निश्चय जितना घनीभूत होता जाता है, परिस्थितियाँ उतनी ही अनुकूल होती जाती हैं, कई बार तो आपको विश्वास ही नहीं होता कि सारा विश्व आपके विचारानुसार कार्यप्रवृत्त है। आपका जीवन, आपका विश्व आपके विचारों से ही निर्धारित है, सृजनात्मक शक्तियाँ प्रचुर मात्रा में अपना आशीर्वाद लुटाने को व्यग्र हैं। मृत्यु के समय की यह विचार स्थिति आपका अगला जीवन, आपका परिवेश और यहाँ तक कि आपके सम्बन्धियों का भी निर्धारण करती है। आप माने न माने, आप जिनसे अत्यधिक प्रेम करते हैं या अत्यधिक घृणा करते हैं, वह आपके अगले जीवन में आपके संग उपस्थित रहने वाले हैं। आपके जीवन की अनुत्तरित विशेष घटनायें आपके आगामी जीवन में कुछ न कुछ प्रभाव लिये उपस्थित रहती हैं। अतः विचारों को महत्तम मानें और पूरा ध्यान रखें उनकी गुणवत्ता पर।

इतनी पुस्तकों को कुछ शब्दों में व्यक्त करना कठिन है, पर भारतीय दर्शन के वेत्ताओं को यह विचार सूत्र बहुत ही जाना पहचाना लगता है। भगवतगीता को घर की मुर्गी दाल बराबर समझने की मानसिकता उस समय वाष्पित हो जायेगी जब शेष 35 पुस्तकों के निष्कर्ष आपको भगवतगीता पुनः समझने को उत्प्रेरित करेंगे। इन पुस्तकों को पढ़ने का श्रेष्ठतम लाभ भगवतगीता में मेरी आस्था का पुनः दृढ़ होना है।

आपको पुनः चेतावनी दे रहा हूँ, एक तो इतना व्यस्त रहें कि पुस्तकों की दुकान जाने का समय न मिले। यदि मिले भी तो आप याद कर के इन पुस्तकों को न खरीदे। यदि लोभ संवरण न कर पायें तो घर में लाकर बस सजाने के लिये रख दीजिये। अन्ततः इतने भौतिक प्रपंच पल्लवित कर लीजिये कि पढ़ने का समय न मिले। फिर भी यदि आप नहीं माने और पढ़ ही लिया तो आपके अन्दर आये परिवर्तन का दोष मुझे मत दीजियेगा क्योंकि वह विचार भौतिक जगत से अधिक ठोस होगा।

(निशान्त के द्वारा अंग्रेजी के कई श्रेष्ठ विचारों को हिन्दी में अनुवाद कर प्रस्तुत करने का एक महत कार्य हो रहा है, उन जैसे अन्य प्रयासों को समर्पित है यह पोस्ट।) 

1.12.10

तुम क्या जानों राजनीति की घातें और प्रतिघातें

बचपन में मुहल्ले में शतरंज का खेल होता था। बाल सुलभ प्रश्न उठता था कि क्या करते रहते हैं दो लोग, घंटों बैठकर, घिरे हुये बहुत लोगों से, आँखे गड़ाये सतत। मस्तिष्क की घनीभूत प्रक्रिया किन मोहरों के पीछे इतना श्रम करती रहती है और वह भी किस कारण से। उत्सुकता खींच कर ले गयी वहाँ तक, पता ही नहीं चलता था, घंटों खड़ा रहता था, देखता रहता, सुनता रहता, गुनता रहता, समझता रहता। हाथी और ऊँट जैसे सीधे चलने वाले मोहरों से परिचय शीघ्र ही हो गया, जीवन में भी यही होता है। घोड़े की तिरछी चाल, प्यादे का तिरछा मारना, राजा की असहायता और वजीर का वर्चस्व उन 64 खानों में बिछा देखा तो उत्सुकता भी नशेड़ी हो गयी। कितनी संभावनायें, कोई दो खेल एक जैसे नहीं, कभी हार, कभी जीत और कभी कोई निष्कर्ष नहीं।

हृदय सरल होता है, मन कुटिल। शतरंज के खेल में मन को पूर्ण आहार मिलने लगा, उसे अपने होने का पूर्ण संतोष प्राप्त होने लगा। धीरे धीरे ज्ञान बढ़ने लगा और लगने लगा कि सभी मोहरों के मन की बात, उनकी शक्ति, उनकी उपयोगिता मुझे समझ में आने लगी है। कौन कब खतरे में है, किसे किस समय रक्षार्थ आहुति देनी है, किसे अन्य मोहरों से और सुरक्षा प्रदान करनी है, धीरे धीरे दिखने लगा। यद्यपि छोटा ही था पर कुछ ऐसी परिस्थितियाँ देख कर किसी के कान में बता देता था, जिससे लाभ होना निश्चित होता था। धीरे धीरे तीक्ष्ण प्रशिक्षु के रूप में उन बाजियों का दरबारी हो गया।

शतरंज का नशा मादक होता है, हर दिन छुट्टी के बाद और माता पिता के घर आने तक का समय शतरंज की बाजियों में बसने लगा। खाना खाते समय, गृहकार्य करते समय, सोने के पहले, उठने के बाद, मोहरों के चेहरे अन्तर्मन में घुमड़ने लगे।

शतरंज की गहराई, अगली कई चालों तक उन संभावनाओं को देखने की बौद्धिक शक्ति है, जो आपको हानि या लाभ पहुँचा सकती हैं। सामने वाले की चालें क्या होंगी, यह भी सामने वाले की ओर से आपको सोचना होता है, आपको दोनों ओर से खेलना है पर स्वयं की ओर से थोड़ा अधिक और थोड़ा गुप्त। हर चाल के बाद रणनीति बदल जाती है, हर चाल के बाद बौद्धिक प्रवाह पुनः मुड़ जाता है।

प्रारम्भ में मोहरों की सम्भावनायें, मध्य में उनकी शक्ति के आधार पर प्रबल व्यूह संरचना और अन्त में उनकी पूर्ण शक्ति का उपयोग किसी भी खेल के महत्वपूर्ण पक्ष हैं। हार और जीत का अवसाद व उन्माद, चालों के बीच की अर्थपूर्ण चुप्पी, मोहरा घेर कर चेहरे पर आयी कुटिल मुस्कान और मोहरा मार दम्भयुक्त अट्टाहस किसी भी राजप्रासाद या मंत्रीपरिषद के मंत्रणा कक्ष से कम रोचक नहीं लगते हैं। एक खाट पर बैठे हुये ही सिकन्दर सा अनुभव होने का भान होता है।

प्यादों को शहीद कर राजा की रक्षा करना शतरंज की बाजियों पर बहुत पहले देख चुके हैं पर उसमें दुख नहीं होता था। राजनीति का चरित्र शतरंजी होते देख हृदय चीत्कार कर उठता है। मन की कुटिलता मोहरों की नाटकीयता में आनन्दित रहती थी, हृदय की संवेदना मनुष्यों के मोहरीकरण में द्रवित हो जाती है। नित एक मोहरा गिर रहा है रक्षार्थ, बस राजा का राज्य बना रहे।

एक बड़े फुफेरे भाई जो बहुत अच्छा खेलते थे और साथ ही बड़ा स्नेह भी रखते थे, शतरंज की बाजियों में साथ में बिठा लेते थे। जो शतरंजी चालें बचपन में समझ नहीं आती तो पूछ लेता था, कभी कभी सार्थक उत्तर मिल जाते थे, पर कभी यदि कुछ छिपाना होता था तो यही कहते थे।

"तुम क्या जानो राजनीति की घातें और प्रतिघातें"

पता नहीं क्यों पर अब तो राजनीति की हर चाल के पश्चात यही अट्टाहस अनुनादित होता है। 
सच ही है, हम क्या जानें, राजनीति की घातें और प्रतिघातें।

27.11.10

ब्लॉगरीय आत्मीयता

कुछ दिन हुये अभिषेकजी घर पधारे, एक क्षण के लिये भी नहीं लगा कि उनसे यह प्रथम भेंट है। सहजता से बातें हुयीं, घर की, नौकरी की, जीवन के प्रवाह की, न किये विवाह की, ब्लॉगरों की, अभिरुचियों की, त्रुटियों की, सम्बन्धों की, प्रबन्धों की और विविध विविध। वातावरण आत्मीय बना रहा, बिना विशेष प्रयास के, दोनों ही ओर से। एक श्रेय तो निश्चय ही अभिषेकजी के मिलनसार व्यक्तित्व को जाता है, पर साथ ही साथ हिन्दी-ब्लॉग जगत की भी सक्रिय भूमिका है, मिलनों की इस अन्तर्निहित सहजता में। श्री विश्वनाथजी और श्री अरविन्द मिश्रजी से भी स्नेहात्मक भेटें इसी प्रकार की रही थी। वर्धा का सम्मिलित उल्लास तो संगीतात्मक स्वर बन अभी तक मन में गूँज रहा है।

बहुत से ऐसे ब्लॉगर हैं जिनसे अभी तक भेंट तो नहीं हुयी है पर मन का यह पूर्ण विश्वास है कि उन्हें हम कई वर्षों से जानते हैं। उनकी पोस्टें, हमारी टिप्पणियाँ, हमारी पोस्टें, उनकी टिप्पणियाँ, सतत वार्तालाप, विचारों के समतल पर, बीच के सारे पट खुलते हुये धीरे धीरे, संकोच के बंधन टूटते हुये धीरे धीरे। इतना कुछ घट चुका होता है प्रथम भेंट के पहले कि प्रथम भेंट प्रथम लगती ही नहीं है।

किसी को भी जानने का एक भौतिक पक्ष होता है और एक मानसिक। भौतिक पक्ष को जानने में कुछ ही मिनट लगते हैं और उसके बाद मानसिक पक्ष उभर कर आने लगता है। ब्लॉग पढ़ते रहने से मानसिक पक्ष से कब का परिचय हो चुका होता है, ऐसी स्थिति में भौतिक पक्ष बस एक औपचारिकता मात्र रह जाता है।

आस पास देखें, ब्लॉग जगत से परे, बहुत ऐसे व्यक्तित्व दिख जायेंगे जो कभी खुलते ही नहीं, स्वयं को कभी भी व्यक्त नहीं करते हैं, शब्दों में तो कभी भी नहीं। उनका चेहरा नित देखकर भी बड़ा अपरिचित सा लगता है। उन्हें यदि हम जान भी पाते हैं तो स्वयं के अवलोकन से। यदि वे अपने विचार व्यक्त करें, स्वयं के बारे में और जगत के बारे में तो वही अवलोकन एक विशेष शक्ति पा जाता है। ब्लॉगजगत को इसी परिचयात्मक शक्ति का वरदान प्राप्त है। सारे ब्लॉगर अपने ब्लॉगों के माध्यम से व्यक्त हैं, अन्य ब्लॉगरों के लिये।

लिखना सरल नहीं है, जब विषय आपका व्यक्तित्व खोल कर रख देने की क्षमता रख देता हो, विषय जो गहरा हो। सतही पोस्टों को लिखना सरल है पर संप्रेषण नगण्य होता है। गहरी पोस्टें कठिन होती हैं लिखने में, पर हृदय खोलकर रख देती हैं, पाठकों के सामने। गहरी पोस्टें लिखने वाले ब्लॉगरों को, लगता है मैं कई सदियों से जानता हूँ।

यदि कुछ छिपाने की इच्छा होती तो कोई ब्लॉगर बनता ही क्यों? हृदय को सबके सामने उड़ेल देने वाली प्रजाति का व्यक्तित्व सहज और सरल तो होना ही है। यदि नहीं है तो प्रक्रियारत है। यही कारण है एक अन्तर्निहित पारस्परिक आत्मीयता का।

हिन्दी-ब्लॉग ने भले ही कोई आर्थिक लाभ न दिया हो, पर विचारों का सतत प्रवाह, घटनाओं को देखने का अलग दृष्टिकोण, नये अनछुये विषय, भावों के कोमल धरातल और व्यक्तित्वों के विशेष पक्ष, क्या किसी लाभ से कम है? नित बैठता हूँ ब्लॉग-साधना में और कुछ पाकर ही बाहर आता हूँ, हर बार। ब्लॉग को तो नशा मानते हैं सतीशजी, पर यह तो उससे भी अधिक धारदार है।

धन कमा कर भी इन्ही सब सुखों की ही खोज में तो निकलेंगे हम।

24.11.10

ट्रेन में क्या कर सकते हैं

कुछ दिन पहले समीरलाल जी का बज़-तश्तरी पर रखा हुआ उड़न-प्रश्न आया था कि 17 घंटे की ट्रेन यात्रा में क्या कर सकते है? प्रश्न तो समय-भावना से प्रेरित था, सोचने बैठा तो उत्तर संभावनाओं से पूरित लगा।

ट्रेन-यात्रा में क्या नहीं कर सकते, प्रश्न यह होना था। सतीश पंचम जी ने ट्रेन की ऊपरी सीट पर बैठे बैठे एक के बाद एक, तीन पोस्टें दाग दी, वह भी बैटरी चुकने से पहले और नेटवर्क से आँख मिचौली करते हुये। वह तो भला हो कि ट्रेन के स्लीपर कोच में मोबाइल चार्जिंग प्वांइट नहीं लगाये गये हैं, नहीं तो जितना वह देख पा रहे थे और जितना समय उनके पास था, उसमें दस पोस्टें तो बड़ी सरलता से दागी जा सकती थीं।

ट्रेन में कुछ कर सकने के लिये क्या चाहिये होता है, ब्लॉगरों के लिये नेटवर्क और चार्जिंग प्वांइट। यदि यह मिले तो शेष आपकी कल्पना शक्ति पर निर्भर करता है। आँख बन्द कीजिये, ट्रेन आपको धीरे धीरे डुलाती है, आपके जीवन के सारे जड़ भावों को तरल करती हुयी, डूब जाईये अपने भावों की तरलतम व सरलतम गहराईयों में और निकाल लाईये एक कालजयी कविता। खिड़की के बाहर खेतों, जंगलों और पहाड़ों को निहारते रहिये, घंटों भर, बदलते प्रकृतिक दृश्य आप के अन्दर के पन्त को बाहर निकाल लायेंगे। सहयात्री के जीवन अनुभव सप्रयास सुनने लगिये, उसमें यदि जीवन का सत्य न भी निकले, एक ब्लॉग पोस्ट तो निकल ही आयेगी।

पंकज, प्रशान्त और अभिषेक जैसे अविवाहितों के लिये कोच के बाहर लगा रिजर्वेशन चार्ट किसी संभावना-पत्रक से कम महत्वपूर्ण नहीं होता है। उनकी आँखें यह मनाती हैं चार्ट से कि उनके आसपास के सहयात्री  रोचक हों, सही उम्र आदि के हों। बहुधा ईश्वर प्रार्थनायें सुन लेता है और यात्रा में "रब ने बना दी जोड़ी" जैसी मानसिक-पेंगे भी बढ़ जाती हैं। दो निकटस्थ युगलों को जानता हूँ जिनके ऊपर उपकार है उन रेल यात्राओं के, जिन्होने उनके प्रेम सम्बन्धों को विवाह तक पहुँचाने में सहायता की। कई बार ऐसी परिस्थितियाँ देखी हैं जहाँ पर बिहारी लाल का "कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत खिलत, लजियात। भरे भवन में करत हैं नयनन हीं सों बात।" जीवन्त होते देखा है।
 
मेरे कई मित्र हैं जिन्हें ट्रेन में अपने महीनों की नींद पूरी कर लेने की इतनी शीघ्रता रहती है कि सामान में ताला लगाते ही सो जाते हैं, नाश्ते और भोजन के समय ही उठते हैं और खाना खाकर पुनः पसर जाते हैं। पुस्तक पढ़ते, मोबाइल पर बतियाते और गेम खेलते, फिल्में देखते, गाने सुनते, ताश खेलते, अन्ताक्षरी में सुर खंगालते, ऊँघते, खाद्य मुँह में भर जुगाली करते, पूरा का पूरा रुचिकर संसार दिख जाता है ट्रेन में।


हम यह तथ्य भी कैसे भूल सकते हैं कि गाँधीजी ने ट्रेन में घूम घूम कर देश जोड़ दिया।

मैं समय बाँट लेता हूँ, सहयात्री यदि रुचिकर है तो उत्सुकता-रस में डूब जाता हूँ, जब बाहर निकल पाता हूँ अपना लैपटॉप खोल कर बैठ जाता हूँ। पहले प्रशासनिक कार्य व्यवस्थित करता हूँ, कार्यानुसार मोबाइल फोन से मंत्रणा और उसके बाद सारा समय अपनी अपूर्ण कविताओं और पोस्टों को। यदि कोई नया विचार मिलता है तो वह प्रकल्प-सूची में चला जाता है। मेरे ब्लॉग पर आयी कई पोस्टें और कवितायें ऐसी ही उत्पादक ट्रेन यात्राओं के सुमधुर निष्कर्ष रहे हैं। एक बार 28 घंटे की यात्रा ने जीवन के कई छिपे कोमल भावों को उद्घाटित करने में लेखन को उकसाया था।

ऐसा भी नहीं है कि सारी ट्रेन यात्रायें इतनी रोमांचक व उत्पादक हों। पूरी यात्रा में कोई एक छोटी सी घटना और व्यग्रमना सहयात्री आपका सारा आनन्द चौपट कर देने की सामर्थ्य रखते हैं। बगल की सीट में बेसुध पड़े सज्जन यदि रात भर खर्राटे लेते रहें तो आप चाह कर भी उनका कुछ नहीं कर सकते हैं।

पर आप अपनी ट्रेन यात्रा में बहुत कुछ कर सकें, बहुत कुछ पा सकें, समीरलालजी को व आप सबको  अतिशय शुभकामनाओं के साथ......

भारतीय रेल आपकी मंगलमयी यात्रा की हार्दिक कामना करती है।

20.11.10

समरकन्द

आप सरस साहित्यिक हैं या घनघोर असाहित्यिक हैं, इससे आपके ससुराल पक्ष को कोई अन्तर नहीं पड़ता है। समस्या तब होती है जब उनकी पुत्री को आपकी साहित्यिक अभिरुचियों से व्यवधान होने लगता है। आभूषणग्रस्त भारतीय नारियों के लिये पति का साहित्याभूषण पहन लेना जहाँ एक ओर अभिरुचियों की समानता के रूप में भी देखा जा सकता है वहीं दूसरी ओर आभूषणों के ऊपर एकाधिकार हनन के रूप में भी। साहित्य के प्रति प्रदर्शित प्रेम और व्यतीत किया हुआ समय कई ब्लॉगरों के लिये संवेदनात्मक झड़पें लाता रहा है।

हमें समय दे दिया जाता है, ब्लॉगिंग के लिये, बिना किसी विवशताओं के। अतः अभी तक हमारे साहित्यिक झुकाव को लेकर ससुराल पक्ष से कोई स्वर नहीं उभरा।

पहला संवेदी स्वर तब उठा जब रवीश जी ने हमारे ब्लॉग को अपने स्तम्भ में स्थान देने की महत कृपा की। दैनिक हिन्दुस्तान में पढ़ी यह बात हमारे श्यालों तक भी पहुँची। फोन आया और पहला प्रश्न था कि यह तो राष्ट्रीय स्तर पर आपका नाम आया है। हाँ, बात छिपाने का कोई लाभ नहीं था। तब तो बहुत बड़ी पार्टी बनती है। ठीक है, सुबह पाबला जी को भी पार्टी का वचन दिया था अतः अब उसके लिये पीछे हटने का प्रश्न नहीं था। मान गये और होटल व समय निश्चित करने के लिये कह दिया।

सायं श्रीमान भाईसाहब अपनी बहन के साथ तैयार थे, चलने के लिये। होटल का नाम था समरकंद। पहले तो समझ में नहीं आया कि उजबेकिस्तान की राजधानी और सिल्क रोड के महत्वपूर्ण नगर का बंगलुरु में क्या औचित्य। जब अन्दर पहुँचे तब नामकरण का कारण समझ में आया। लकड़ी के कटे दरख्तों के आकार की मेजें, बाँस और लकड़ी के पट्टों से बनी कुर्सियाँ, पुराने गाँवों के घरों की तरह पोती गयी दीवारें, पुराने नक्काशीदार काँसे के बर्तन, अखबार की खबर जैसा मेनू, पश्तूनी पोशाक में वेटर। हाथ में यदि मोबाइल फोन न होता तो हम यह भी भूल गये होते कि हम किस कालखण्ड में जी रहे हैं।


वातावरणीय आवरण से उबरे तो सारा भोजन भी विशुद्ध उजबेकी स्वरूप लिये था। घोंटी हुयी दाल, रोटियों का थाल, अलग ही स्वाद लिये छौंकी हुयी सब्जियाँ, विभिन्न प्रकार की चटनियाँ, सब कुछ न कुछ विशेष था। बच्चों को भी यह नयापन भा रहा था। भोजन न केवल स्वादिष्ट था वरन सन्तुष्टिदायक भी था। मन समरकंद के मानसिक धरातल पर विचरण कर रहा था।

प्रवाह अवरुद्ध तब हुआ जब बिल आया। बिल आते ही हम बंगलुरु वापस आ चुके थे। कितना हुआ यह मत पूछियेगा, बस प्रसन्नचित्त मुद्रा में प्रसिद्धि का प्रथम मूल्य चुका कर हम बाहर आ गये। वापस घर आने की तैयारी कर ही रहे थे कि बच्चे अपने मामा के साथ एक आइसक्रीम की दुकान में मुड़ गये। वनीला आइसक्रीम में फलों और सूखे मेवों की कतरनें और उस पर गर्म चॉकलेट उड़ेल दी गयी, नाम था "डेथ बाइ चॉकलेट"। डरते डरते खा गये, कुछ नहीं हुआ।

हमारे साथ जो कुछ भी हुआ, ईश्वर करे सबके साथ हो। ससुराल आपकी साहित्य साधना को इतना मूल्यवान कर दे कि आपको मुझसे और मेरे साहित्यप्रेम से और भी अधिक संवेदना होने लगे। कल आपका भी नाम रवीश जी निकालें और आपके ससुराल वाले भी आपको समरकन्द की यात्रा पर ले जायें।

पूरे प्रकरण में बस एक ही लाभ हुआ कि श्याले महोदय ने अब हमारे ब्लॉग पर दृष्टि रखनी प्रारम्भ कर दी है।

17.11.10

मा पलायनम्

दोपहर के बाद कार्यालय में अधिक कार्य नहीं था अतः निरीक्षण करने निकल गया, टिकट चेकिंग पर। बाहर निकलते रहने से सम्पूर्ण कार्यपरिवेश का व्यवहारिक ज्ञान बना रहता है। सयत्न आप भले ही कुछ न करें पर स्वयं ही कमियाँ दिख जाती हैं और देर सबेर व्यवस्थित भी हो जाती हैं। पैसेंजर ट्रेन में दल बल के साथ चढ़ने से कोई भगदड़ जैसी नहीं मचती है यहाँ, सब यथासम्भव टिकट लेकर चढ़ते हैं। उत्तर भारत में अंग्रेजों से लड़ने का नशा अभी उतरा नहीं है। अब उनके प्रतीकों से लड़ने के क्रम में बहुत से साहसी युवा व स्वयंसिद्ध क्रान्तिकारी ट्रेन का टिकट नहीं लेते हैं। दक्षिण भारत में यह संख्या बहुत कम है अतः टिकट चेकिंग अभियान बड़े शान्तिपूर्वक निपट जाते हैं।

बिना टिकट यात्री पूरा प्रयास अवश्य करते हैं कि वे आपकी बात किसी ऊँचे पहुँच वाले अपने परिचित से करा दें अतः पकड़े जाने के तुरन्त बाद  ही मोबाइल पर व्यग्रता से ऊँगलियाँ चलाने लगते हैं, यद्यपि लगभग हर समय वे प्रयास निष्प्रभावी ही रहते हैं। दूर से 13-14 साल के दो बच्चों को देखता हूँ, अपने विद्यालय की ड्रेस मे, पकड़े जाने के बाद भी चुपचाप से खड़े हुये। कुछ खटकता है, अगले स्टेशन पर अपने साथ उन्हें भी उतार लेने को कह देता हूँ। हमारे मुख्य टिकट निरीक्षक श्री अकबर, अनुभव के आधार पर बच्चों से दो तीन प्रश्न पूछने के बाद, उनसे उनके अभिभावकों का फोन नम्बर माँगते हैं। फोन नम्बर देने में थोड़ी ना नुकुर के बाद जब अभिभावकों से बात होती है तो अभिभावक दौड़े आते हैं और जो बताते हैं वह हम सबके लिये एक कड़वा सत्य है।

दोनों बच्चों के पिछली परीक्षा में कम अंक आने से घर में डाँट पड़ती है। घर की डाँट और विद्यालय के प्रतियोगी वातावरण से क्षुब्ध बच्चे इस निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं कि उन्हें न विद्यालय समझ पा रहा है और न ही घर वाले। दोनों बच्चे आपस में बात करते हैं जिससे उनकी क्षुब्ध मनःस्थिति गहराने लगती है। परिस्थितियों का कोई निष्कर्ष न आते देख दोनों भाग जाने का निश्चय करते हैं। शिमोगा भागने की योजना थी, वहाँ जाकर क्या करना था उसका निश्चय नहीं किया था। अन्ततः उनके अभिवावकों को समझा दिया जाता है, उन्हे भी अपनी भूल का भान होता है।

मैं घर आ जाता हूँ और धन्यवाद देता हूँ ईश्वर को कि मेरे हाथों एक पुण्य करा दिया।

पर क्यों कोई बच्चा अपने परिवेश से क्षुब्ध हो? जो पढ़ाई का बोझ सह नहीं पाते हैं, क्यों सब कुछ छोड़ भागने को विवश हों? क्या इतना पढ़ाना ठीक है जिसका जीवन में कोई उपयोग ही न हो? शिक्षा पद्धति घुड़दौड़ बना कर रख दी गयी है, जो दौड़ नहीं सकते हैं उसमें जीवन से भाग जाने का सोचने लगते हैं। ग्रन्थीय पाठ्यक्रम पढ़कर जीवन में उसका कुछ उपयोग न होते देख, सारा का सारा शिक्षातन्त्र व्यर्थ का धुआँ छोड़ता इंजिन जैसा लगने लगता है, कोई गति नहीं।

रटने के बाद उसे परीक्षाओं में उगल देना श्रेष्ठता के पारम्परिक मानक हो सकते हैं पर इतिहास में विचारकों ने इस तथ्य को घातक बताया है। उद्देश्य ज्ञानार्जन हो, अंकार्जन न हो। रवीन्द्रनाथ टैगोर की विश्वभारती इसका एक प्रयास मात्र था। चेन्नई में किड्स सेन्ट्रल और उसके जैसे अन्य कई विद्यालय हैं, जो बच्चों के लिये तनावरहित और समग्र शिक्षा के पक्षधर हैं और वह भी व्यवहारिक ज्ञान और प्रफुल्लित वातावरण के माध्यम से। बच्चों के लिये विशेषकर पर सम्पूर्ण शिक्षा पद्धति  के यही गुण हों, समग्रता, व्यवहारिकता, ऊर्जा और मौलिकता।

अभिभावक यह तथ्य समझें और विद्यालय इसको कार्यान्वित करें। बच्चों का बचपन व भविष्य हम सबकी धरोहर है। जीवन जीने के लिये है, पलायन के लिये नहीं।

मा पलायनम्।

13.11.10

भाषायी उत्पात और अंग्रेजी बंदर

Vishwanath in 2008
श्री विश्वनाथजी
पूर्वज तमिलनाडु से केरल गये, पिता महाराष्ट्र में, शिक्षा राजस्थान में, नौकरी पहले बिहार में शेष कर्नाटक में, निजी व्यवसाय अंग्रेजी में और ब्लॉगिंग हिन्दी में। पालक्काड तमिल, मलयालम, मराठी, कन्नड, हिन्दी और अंग्रेजी। कोई पहेली नहीं है पर आश्चर्य अवश्य है। आप सब उन्हें जानते भी हैं, श्री विश्वनाथजी। जहाँ भाषायी समस्या पर कोई भी चर्चा मात्र दस मिनट में धुँआ छोड़ देती हो, इस व्यक्तित्व को आप क्या नाम देंगे? निश्चय ही भारतीयता कहेंगे।

पर कितने भारतीय ऐसे हैं, जो स्वतः ही श्री विश्वनाथजी जैसे भाषाविद बनना चाहेंगे? बिना परिस्थितियों के संभवतः कोई भी नहीं। दूसरी भाषा भी जबरिया सिखायी जाती है हम सबको। जब इस भारतीयता के भाषायी स्वरूप को काढ़ा बनाकर पिलाने की तैयारी की जाती है, आरोपित भाषा नीति के माध्यम से, देश के अधिनायकों द्वारा, राजनैतिक दल बन जाते हैं, विष वमन प्रारम्भ हो जाता है, भाषायी उत्पात मचता है और पूरी रोटी हजम कर जाता है, अंग्रेजी बंदर।

पिछले एक वर्ष से कन्नड़ सीख रहा हूँ, गति बहुत धीमी है, कारण अंग्रेजी का पूर्व ज्ञान। दो दिन पहले बाल कटवाने गया था, एक युवक जो 2 माह पूर्व फैजाबाद से वहाँ आया था, कामचलाऊ कन्नड़ बोल रहा था। वहीं दूसरी ओर एक स्थानीय युवक जिसने मेरे बाल काटे, समझने योग्य हिन्दी में मुझसे बतिया रहा था।

कार्यालय में प्रशासनिक कार्य तो अंग्रेजी में निपटाना पड़ता है पर आगन्तुक स्थानीय निवासियों से दो शब्द कन्नड़ के बोलते ही जो भाषायी और भावनात्मक सम्बन्ध स्थापित होता है, समस्याओं के समाधान में संजीवनी का कार्य करता है। अंग्रेजी में वह आत्मीयता कहाँ? सार्वजनिक सभाओं में मंत्री जी के व अन्य भाषणों में केवल शब्दों को पकड़ता हूँ, पूरा भाव स्पष्ट सा बिछ जाता है मस्तिष्क-पटल पर। एक प्रशासनिक सेवा के मित्र ने मेरी इस योग्यता की व्याख्या करते हुये बताया कि कन्नड़ और संस्कृत में लगभग 85% समानता है, कहीं कोई शब्द न सूझे तो संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग कर दें। किया भी, नीर, औषधि आदि।

तेजाब फिल्म के एक गाने 'एक दो तीन चार....' ने पूरे दक्षिण भारत को 13 तक की गिनती सिखा दी। अमिताभ बच्चन की फिल्मों का चाव यहाँ सर चढ़कर बोलता है। यहाँ के मुस्लिमों की दक्खिणी हिन्दी बहुत लाभदायक होती है, नवागुन्तकों को। भाषायी वृक्ष भावानात्मक सम्बन्धों से पल्लवित होते दिखा हर ओर, धीरे धीरे। इस वृक्ष को पल्लवित होते रहने दें, बिना किसी सरकारी आरोपण के, भाषायी फल मधुरतम खिलेंगे।

प्रश्न उठता है कि तब प्रशासनिक कार्य कैसे होंगे, विज्ञान कैसे बढ़ेगा? आईये गूगल का उदाहरण देखें, हर भाषा को समाहित कर रखा है अपने में, किसी भी साइट को आप अपनी भाषा में देख सकते हैं, भले ही टूटी फूटी क्यों न हो, अर्थ संप्रेषण तो हो ही जाता है। राज्यों को अपना सारा राजकीय कार्य स्थानीय भाषा में ही करने दिया जाये। इससे आमजन की पहुँच और विश्वास, दोनों ही बढ़ेगा, प्रशासन पर। प्रादेशिक सम्बन्धों के विषय जो कि कुल कार्य का 5% भी नहीं होता है, या तो कम्प्यूटरीकरण से अनुवाद कर किया जाये या अनुवादकों की सहायता से। तकनीक उपस्थित है तो जनमानस पर अंग्रेजी या अन्य किसी भाषा का बोझ क्यों लादा जाये।

त्रिभाषायी समाधान का बौद्धिक अन्धापन, बच्चों पर लादी गयी अब तक की क्रूरतम विधा होगी। भाषा का माध्यम स्थानीय हो, सारा ज्ञान उसमें ही दिया जाये। अपने बच्चों को हिन्दी अंग्रेजी अनुवाद के दलदल में नित्य जूझते देखता हूँ तो कल्पना करता हूँ कि विषयों के मौलिक ज्ञान के समतल में कब तक आ पायेगें देश के कर्णधार। विश्व का ज्ञान उसके अंग्रेजी अर्थ तक सिमट कर रह गया है। एक बार समझ विकसित होने पर आवश्यकतानुसार अंग्रेजी सहित किसी भी भाषा का ज्ञान दिया जा सकता है। भविष्य में आवश्यकता उसकी भी नहीं पड़नी चाहिये यदि हम मात्र वैज्ञानिक शब्दकोष ही सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा संस्कृत में विकसित कर लें।

भाषायी उत्पात पर व्यर्थ हुयी ऊर्जा को देश के विकास व अपनी भाषायी संस्कृति हेतु तो बचाकर रखना ही होगा। 


भाषा है तो हम हैं।

10.11.10

शिवसमुद्रम्

कावेरी को सांस्कृतिक महत्व, प्राकृतिक सौंदर्य और जीवनदायिनी जलस्रोत के रूप में तो सब जानते हैं पर 1902 में इस पर बने जलविद्युत संयन्त्र ने भारत में सर्वप्रथम किसी नगर में विद्युत पहुँचायी, यह तथ्य संभवतः बहुतों को ज्ञात न हो। बंगलोर प्रथम नगर था जहाँ पर 1906 में ही विद्युत पहुँच गयी थी।

बंगलोर से 130 और मैसूर से 65 किमी दूर, देश का दूसरा और विश्व का सोलवाँ सर्वाधिक ऊँचा जलप्रपात, कर्नाटक के माण्ड्या नगर में है। वर्षा ऋतु में इसके विकराल रूप का दर्शन, प्रकृति की अपार शक्ति में आपकी आस्था को बढ़ा जायेगा, हर क्षण निर्बाध। नास्तिकों को यदि अपना दर्शन संयत रखना है तो कृपया इसका दर्शन न करें। यात्रा की थकान, प्रपात की जलफुहारों के साथ हवा में विलीन हो जाती है। विज्ञान और प्रकृति के स्वरों को भिन्न रागों में सुनाने और समझने वालों को यह स्थान भिन्न भिन्न कारणों से आकर्षित करेगा किन्तु समग्रता के उपासकों के लिये यह स्थान एक सुमधुर लयबद्ध संगीत सुनाता है।


वहाँ पहुँच कर निर्णय लिया गया कि सर्वप्रथम जलविद्युत संयन्त्र देखा जाये। हम सब ऊँचाई पर थे और संयन्त्र पहाड़ के नीचे। जाने के लिये कोई लिफ्ट नहीं, बस रेलों पर रखी एक ट्रॉली, लगभग खड़ी दीवार पर, लौह-रस्से से बँधी। देखकर भय दौड़ गया मन में। बच्चों के सामने भय न दिखे अतः तुरन्त ही जाकर बैठ गये। बच्चों का उत्साह देखने लायक था, एक बड़े खिलौने जैसी गाड़ी पर पहाड़ों से उतरना। दो ट्रॉलियाँ थीं, जब एक नीचे जाती थी तब दूसरी ऊपर आती थी। लौह-रस्से पर जीवन का भार टिका था, जब प्राण पर बनती है तब ही यह विचार आता है कि हे भगवान, इस रस्से को बनाने में कोई भ्रष्टाचार न हुआ हो, कोई मिलावट न हुई हो। जैसे जैसे नीचे पहुँचे, हृदयगति संयत हुयी।

जब बहुत बड़े पाइप में जल सौ मीटर तक नीचे गिर, टनों भारी टरबाइनों को सवेग घुमाता है, तब हमें विद्युत मिलती है। प्रकृति और विज्ञान, दोनों ही मनोयोग से लगे हैं, अपने श्रेष्ठ पुत्र की सेवा में, पर विद्युत का दुरुपयोग कर हम उस भाव का नित ही अपमान करते रहते हैं। पाइप से निकल रहे जल का नाद एक विचित्र ताल पैदा कर रहा था, हृदय की धड़कनों से अनुनादित।

वापस चढ़ने में ही प्राकृतिक सौन्दर्य को ठीक से निहार सके हम सब। गाइड महोदय ने बताया कि इसकी पूरी संरचना मैसूर के दीवान सर शेषाद्री अय्यर ने बनायी थी। मन उस निष्ठा, ज्ञान, गुणवत्ता और लगन को देख श्रद्धा से भर गया। संयन्त्र अभी भी निर्बाधता से विद्युत उत्पन्न कर रहा है।

यहाँ पर कावेरी एक पहाड़ीय समतल पर फैल कर दो जलप्रपातों के माध्यम से गिरती है, पश्चिम में गगनचुक्की व पूर्व में भाराचुक्की।
  
भोजनादि के बाद सायं जब भाराचुक्की देखने पहुँचे, पश्चिम में सूर्य डूब चुके थे और परिदृश्य पूर्ण रूप से स्पष्ट था। हरे जंगल के बीच दूधिया प्रवाह बन बहता जल का लहराता, मदमाता स्वरूप। जल-फुहारें नीचे से ऊपर तक उड़ती हुयीं, उस ऊँचाई को देखने को उत्सुक जहाँ से गिरकर उनका निर्माण हुआ। बताया गया कि अभी इसका रूप सौम्य है, मनोहारी है, शिव समान। जब यह प्रपात अपने पूर्ण रूप में आता है, लगता है कि शिव अपनी जटा फैलाये, रौद्र रूप धरे दौड़े चले आते हों। पता नहीं इस प्रपात का नामकरण कैसे हुआ पर वहाँ पहुँचकर शिव का स्मरण हो आया।

वह दृश्य देखने में सारा समय चला गया और हम सब दूसरा प्रपात देखने से वंचित रह गये।

प्रकृति, विज्ञान और इतिहास की यात्रा कर सब के सब मुग्ध थे। यात्रायें हमारा ज्ञान बढ़ाती हैं और हमें एक नयी दृष्टि दे जाती हैं अपने अतीत को समझने के लिये, हर बार।